जलवायु संकट पर अमीर देशों और भारत के ताकतवर लोगों के भरोसे रहना बड़ी भूल

भारत उन चंद देशों में है जहां जलवायु परिवर्तन से संबंधित कोई कानून नहीं है और देश की नीतियां प्रशासनिक आदेशों के भरोसे ही गैर-जवाबदेह तरीके से चलाई जा रही हैं. यह एक बड़ी समस्या है क्योंकि जलवायु परिवर्तन से प्रभावी तौर पर मुकाबला करने के लिए भारत को ऊर्जा, यातायात और पूरी अर्थव्यवस्था में आमूलचूल ढांचागत परिवर्तन लाने होंगे. कियारा वर्थ / यूएनएफसीसीसी

हाल ही में 31 अक्टूबर और 12 नवंबर के बीच ग्लासगो में संपन्न हुई जलवायु परिवर्तन की 26वीं अंतर्राष्ट्रीय वार्ता में भारत सहित कई विकासशील देशों ने जलवायु न्याय का मुद्दा उठाया. इन देशों की मांग वाजिब है क्योंकि बैंगलुरु के राष्ट्रीय प्रगत अध्ययन संस्थान की डॉक्टर तेजल कानिटकर के अनुसार, विश्व के सबसे धनी देश 1990 में अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन के समझौतों पर चर्चा शुरू होने तक जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कुल जमा गैसों के उत्सर्जन के 71 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं. 

अहम बात यह कि दुनिया के सबसे धनी देश उत्सर्जन कम करने और विकाशशील देशों में जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई करने के अपने ही वादों पर बार बार मुकर जाते हैं. इसलिए जलवायु परिवर्तन निश्चित रूप से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु न्याय का मुद्दा है और रहेगा. इस सबके बावजूद जलवायु परिवर्तन से जुड़े अन्याय अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं पर ही खत्म नहीं होते. भारत में जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभावों और लगातार बढ़ती जा रही अमीर-गरीब के बीच की खाई को देखते हुए देश के भीतर होने वाले जलवायु व पर्यावरण सम्बंधित अन्यायों के बारे में गंभीरता से सोचना आवश्यक है.

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आपने पढ़ा होगा की दिल्ली में वर्ष 2021 में ‘आक्सीजन बार’ खोले गए जहां आप पैसा देकर शुद्ध वायु का सेवन कर सकते हैं. सुनने में यह बड़ा अटपटा लगता है लेकिन हकीकत तो यह है कि वायु प्रदूषण एक बहुत गंभीर समस्या बन गई है. भारत में सालाना 16 लाख से ज्यादा लोग वायु प्रदूषण के कारण अकाल मौत का शिकार होते हैं. शहरों में वायु प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण मोटर वाहन होते हैं लेकिन उसका सबसे ज्यादा नुकसान रिक्शा चालकों, दिहाड़ी मजदूरों, और फुटपाथ पर अपनी रोजी रोटी जुटाने को मजबूर गरीब महिलाओं और पुरुषों को उठाना पड़ता है. जहां अमीर लोग अपने घरों में एयर-कंडीश्नर और एयर-प्यूरीफायर जैसे यंत्र लगा रहे हैं, शहरों में रहने वाले एक बड़े वर्ग को दिन रात वायु प्रदूषण का सामना करना पड़ता है. उन परिस्थितियों में प्रदूषण के लिए सबसे कम जिम्मेदार लोगों पर उसका सबसे ज्यादा असर देखने को मिलता है. यह पर्यावरणीय अन्याय का एक बड़ा उदाहरण है.

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सर्दियों की शुरुआत में पंजाब और हरियाणा के खेतों में डंठल जलाने के कारण दिल्ली में कोहरे की समस्या और ज्यादा गंभीर हो जाती है. हालांकि यह समस्या वर्ष में कुछ समय के लिए ही रहती है, कई बार इस बहाने दिल्ली में प्रदूषण का पूरा दोष किसानों पर डाल दिया जाता है. यह भी ध्यान देने की बात है कि डंठल जलाने की समस्या पंजाब और हरियाणा में खेती के पूर्ण मशीनीकरण के कारण ज्यादा बढ़ी है. कंबाइंड हार्विस्टर मशीन, जो फसल काटने के साथ साथ धान निकालने का काम भी करती है, खेतों में नुकेले और बड़े डंठल पीछे छोड़ देती है जिनको जलाने के अलावा किसानों के पास और कोई किफायती रास्ता नहीं है. इस समस्या को सुलझाने के प्रयास जारी हैं लेकिन जिन इलाकों में डंठल जलाने की समस्या इतनी गंभीर नहीं है उन ग्रामीण इलाकों में भी वायु प्रदूषण एक बड़ी समस्या है.

वैज्ञानिक शोध से पता चला है की भारत में वायु प्रदूषण के होने वाली मौतों में से 75 फीसदी से ज्यादा मौतें ग्रामीण क्षेत्र में होती हैं. इसका सबसे बड़ा कारण घर के अंदर चूल्हा जलाने से होने वाला वायु प्रदूषण है जिसका सबसे ज्यादा खामियाजा महिलाओं को भुगतना पड़ता है. खाना पूरा परिवार खाता है लेकिन उसकी कीमत मुख्यतः महिलाएं ही चुकाती हैं. यह पर्यावरणीय अन्याय का एक और उदाहरण है. वायु प्रदूषण एवं पर्यावरणीय अन्याय का यह सिलसिला अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन के मासले से भी जुड़ा है.

कार्बन ब्रीफ नाम के वेब पोर्टल के अनुसार भारत, चीन, ब्राजील और इंडोनेशिया, जहां दुनिया की 42 प्रतिशत जनसंख्या रहती है, ने जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार गैसों का केवल 23 प्रतिशत उत्सर्जन किया है, जबकि 10 सबसे धनवान देश, जैसे अमेरिका, रूस, जर्मनी, ब्रिटैन, जापान और कनाडा ने, जहा विश्व की सिर्फ 10 प्रतिशत आबादी रहती है, इन गैसों का 40 फीसदी उत्सर्जन किया है.

इस प्रकार पूरी दुनिया में सिर्फ 10 प्रतिशत लोग ग्लोबल वॉर्मिंग से जुड़ी ग्रीन हाउस गैसों की अधिकतर मात्रा के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं लेकिन उसका नुकसान पूरी दुनिया, खास तौर से गरीब देशों और गरीब लोगों को उठाना पड़ रहा है. ग्लोबल वॉर्मिंग व जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया भर में प्राकृतिक आपदाओं की संख्या और तीव्रता में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. उदाहरण के तौर पर वर्ष 2017 में उत्तर और पूर्वी भारत, बांग्लादेश एवं नेपाल में बाढ़ की वजह से एक हजार से अधिक लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा और करीब चार करोड़ लोगों को अस्थायी विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा. इसी तरह वर्ष 2020 के मॉनसून के दौरान भी इन्ही इलाकों में भीषण बाढ़ के कारण 1300 से ज्यादा लोगों की मौत हुई और करीब 2.5 करोड़ से ज्यादा लोगों को हफ्तों तक अपने घरों से विस्थापित होना पड़ा.

भारत और दूसरे विकासशील देशों में लोगों की गरीबी, घनी आबादी के मुकाबले साधनों की कमी और जनसंख्या के एक बड़े हिस्से की खेती, पशुपालन एवं दूसरे प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता की वजह से जलवायु परिवर्तन का असर सबसे ज्यादा होता है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह विकसित और विकासशील देशों के बीच के अन्याय का विषय है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाउस गैसों की कुल मात्र का करीब 70 फीसदी हिस्सा विकसित देशों के सघन ऊर्जा-आधारित विकास के लंबे इतिहास से संबंधित है. 

वातावरण में जमा ग्रीन हाउस गैसों की कुल मात्रा में विभिन्न राष्ट्रों के हिस्से के आंकलन का काम सबसे पहले 1991 में भारत की ही संस्था विज्ञान और पर्यावरण केंद्र (सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट) ने किया था. इस संस्थान के अनिल अग्रवाल एवं सुनीता नारायण ने दिखाया कि विकसित देशों ने अपने न्यायपूर्ण हिस्से से कई गुना अधिक प्रदूषण पैदा कर ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन को बढावा दिया है. इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन समझौते के अंतर्गत समान परंतु विभेदित उत्तरदायित्त्वों का सिद्धांत अपनाया गया. इसका मतलब यह था कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए सभी देशों को प्रयत्न करने होंगे लेकिन विकसित देशों को इसमें मुख्य भूमिका निभानी होगी. इस सिद्धांत की भावना के विपरीत विकसित देश अपनी जिम्मेदारियों से बचते रहे हैं और वर्ष 2009 से ही चीन और भारत जैसे देशों पर जलवायु परिवर्तन को रोकने में अधिक योगदान करने का दबाव बना रहे हैं.

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इस बीच जलवायु परिवर्तन का संकट गहराता जा रहा है. हर वर्ष अधिक तीव्रता वाले तूफान और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं की संख्या बढ़ती जा रही है. इन आपदाओं  का असर आर्थिक रूप से पिछड़े और समाज के हाशिए पर जीने वाले लोगों पर सबसे अधिक पड़ता है. बीबीसी संवाददाताओं की रिपोर्ट ने दिखाया है कि बिहार में साल 2020 की बाढ़ से विस्थापित दलित एवं मुस्लिम परिवारों को किस तरह सांप दंश के खतरों के बावजूद अस्थायी टेंट लगाकर रातें गुजारनी पड़ीं. वर्ष 2015 में चेन्नई में आई भयंकर बाढ़ के बाद पूरे तामिलनाडु प्रांत से दलित एवं आदिवासी सफाई कर्मियों को बाढ़ का मलबा हटाने के काम पर दिन रात लगाया गया. कई मौकों पर उनको बिना दस्तानों या मास्क पहने ही मनुष्यों एवं जानवरों की सड़ती लाशों को उठाना पड़ा. पर्याप्त सुविधाओं की बात तो दूर, इन सफाई कर्मियों को लगा कि उनसे बंधुवा मजदूरों की तरह काम करवाया गया. इसके अलावा राहत और बचाव कार्यों में भी दलित, आदिवासी व अन्य कमजोर तबकों की अनदेखी की गई.

दुनिया भर मे आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों की जीवन शैली की सादगी की वजह से जलवायु परिवर्तन करने वाली ग्रीन हाउस गैस में उनका योगदान नगण्य है. फिर भी जलवायु परिवर्तन के सबसे गंभीर परिणाम आर्थिक व सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों को ही झेलने पड़ते हैं. यही वातावर्णीय न्याय का मुख्य बिन्दु है. जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार देशों और लोगों के पास प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने के लिए साधन ज्यादा होते हैं लेकिन जो देश, और खास तौर से जो तबके, इसके लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं, वही साधनों की कमी की वजह से इन आपदाओं की सबसे अधिक कीमत चुकाते हैं.

ध्यान देने की बात यह है कि जलवायु परिवर्तन के असर सिर्फ बड़ी प्राकृतिक आपदाओं तक ही सीमित नहीं हैं. पूर्वी भारत में ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे रहने और खेती करने वाले लाखों लोगों को नदी के निरंतर ऊफान की वजह से हुए भू-स्खलन के कारण अपने घरों और खेती की जमीन को खोना पड़ा है. इस तरह समुद्री तापमान व क्षारता में आए बदलावों के कारण मछुवारों की आजीविका खतरे में है. केंद्र सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा जारी की गई भारत की जलवायु परिवर्तन पर पहली विस्तृत रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन की वजह से भारत में औसत तापमान में वर्ष 1901 से लेकर अब तक लगातार वृद्धि हुई है. वर्ष 2015 में भीषण गर्मी के कारण 2400 से ज्यादा लोगों की मौत हुई. यह भी ध्यान देने लायक बात है कि गरीब लोगों को प्रभावित करने वाली दूसरी समस्याओं की तरह ही गर्मी से हुई मौतों की सही संख्या का सिर्फ 10 प्रतिशत ही सरकारी आंकडों में दर्ज हो पता है.

जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा-आधारित खेती, पशुपालन और जंगलों पर निर्भर लोगों की जिंदगी पर बहुत गंभीर प्रभाव पड़ रहे हैं. याद रहे कि ये सभी वही समूह हैं जिनकी जीवनचर्या की वजह से जलवायु परिवर्तन जैसे नकारात्मक असर नहीं हुए हैं. लेकिन प्राकृतिक संसाधनों की देखरेख करने वाले इन समुदायों से सीखने या इनके अधिकारों की रक्षा करने की बजाय भारत के नीति निर्धारकों ने कई मौकों पर खेती में बाजारीकरण और जंगलों के विनाश करने वाले खनन व औद्योकीकरण को बढ़ावा दिया है. जैविक खेती, पशुपालन और जंगल आधारित आजीविका से दुनिया की बड़ी आबादी का भरण पोषण होता है और पर्यावरण व जलवायु सुरक्षा में भी मदद मिलती है. उदाहरण के तौर पर छोटे किसानों की जैविक खेती की वजह से खेतों की मिट्टी में कार्बन का संरक्षण होता है और आदिवासियों की देख-रेख में पनपे जंगल प्रकृति के संरक्षण की मजबूती के अलावा कार्बन के भंडार की तरह काम करते हैं. दूसरी तरफ बाजार आधारित रासायनिक खेती व फूड प्रोसेसिंग उद्धयोग से दुनिया की बहुत कम जनसंख्या की खाने की जरूरतें पूरी होती हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन में औद्योगिक खेती सेक्टर की एक बड़ी भूमिका है.

बावजूद इसके, भारत और अन्य देशों की सरकारें बाजार आधारित खेती को ही बहुत बड़े पैमाने पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष अनुदान देती रही हैं. उदाहरण के लिए, भारत सरकार रासायनिक खाद को बढ़ावा देने के लिए 70000 करोड़ रुपए से अधिक का अनुदान देती है, जिसका एक बड़ा हिस्सा रासायनिक खाद बनाने वाली कंपनियों के मुनाफे को बढाता है. इसके विपरीत जैविक खेती को बढ़ाने के लिए सरकार सिर्फ 500 करोड़ रुपए ही खर्च करती है, जिसको बढ़ाने की जरूरत है. यह भी सुनिश्चित करना होगा कि मध्यम वर्ग की जरूरत पूरी करने वाली ब्रांडेड जैविक उत्पादों के बजाय सरकार का ध्यान जैविक खेती करने वाले छोटे और मध्यम किसानों पर होना चाहिए. डेक्कन डेवलपमेंट सोसाइटी और इस तरह की दूसरी संस्थाएं भूमिहीन महिलाओं के समूह बनाकर उनको खेती की जमीन इजारे पर दिलाकर उनको जैविक खेती करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. भारत और राज्य सरकारों को ऐसे कार्यक्रमों को मदद करनी चाहिए क्योंकि वे सामाजिक न्याय एवं जलवायु परिवर्तन से मुकाबला करने के उद्देश्यों को एक साथ आगे बढ़ाते हैं. इसके विपरीत जलवायु परिवर्तन के नाम पर जंगलों व दूसरे प्राकृतिक संसाधनों में स्थानीय समुदायों की हक छीने जा रहे हैं.

भारत सरकार के ग्रीन इंडिया मिशन और क्षतिपूरक वृक्षारोपण जैसे कार्यक्रमों के दो मुख्य कारण नजर आते हैं– एक, क्षतिपूरक वृक्षारोपण के बहाने सरकार जंगल की जमीन पूंजीपतियों को दे सके; और दूसरा, सरकार नए जंगलों में संचित कार्बन की मात्रा के बदले विकसित देशों से पैसा ले सके. यह बात सही है कि भारत के जंगल दुनिया में बढ़ते जलवायु परिवर्तन को रोकने में मदद करेंगे. लेकिन नेट जीरो उत्सर्जन के अंतर्गत जंगलों को इस तरह के बाजारू आदान-प्रदान में घसीटने के नुकसान ही ज्यादा नजर आते हैं. व्यवसायिक हितों को बढ़ावा देने के लिए जंगलों को अक्सर तेजी से उगने वाले पेड़ों के बागान में बदल दिया जाता है जो किसी तरह प्राकृतिक जंगलों की भरपायी कर सकें इसका सवाल ही पैदा नहीं होता. अगर ऐसी समस्याओं को ध्यान में रखा जाए और अगर जलवायु परिवर्तन को रोकने से जुड़ी धन राशि को आदिवासी समुदाय के लिए जैविक खेती और स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों के विकास में लगाया जाए तो फायदा हो सकता है. हमारा व अन्य शोध समूहों का शोध यह दिखाता है कि भारत का पर्यावरण मंत्रालय व राज्यों के वन विभाग में जवाबदेही का घोर अभाव है. इसके कारण पर्यावरण व जंगली जानवरों को बचाने के नाम पर आदिवासियों व अन्य स्थानीय समुदाय के हक छीने गए हैं. वन विभाग व अन्य सरकारी संस्थाएं अक्सर इन कार्यक्रमों का दुरुपयोग जंगल पर अपना मालिकाना हक जताने के लिए ही करती रही हैं ताकि कार्बन बाजार जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से अधिक से अधिक फंड वन विभाग में सुविधाओं को बढ़ाने के लिए लाए जा सकें.

ध्यान रखने वाली बात यह है कि सरकारी विभागों की खामियों का एक बड़ा कारण भारत में राजनैतिक जवाबदेही की कमी भी है. भारत उन चंद देशों में है जहां जलवायु परिवर्तन से संबंधित कोई कानून नहीं है और देश की नीतियां प्रशासनिक आदेशों के भरोसे ही गैर-जवाबदेह तरीके से चलाई जा रही हैं. यह एक बड़ी समस्या है क्योंकि जलवायु परिवर्तन से प्रभावी तौर पर मुकाबला करने के लिए भारत को ऊर्जा, यातायात और पूरी अर्थव्यवस्था में आमूलचूल ढांचागत परिवर्तन लाने होंगे. साथ ही भारत में तेजी से बढ़ते शहरीकरण का प्रबंधन इस तरह से करना पड़ेगा कि यह ऊर्जा, पानी व अन्य प्राकृतिक संसाधनों के दोहन व विनाश का कारण नहीं बने और जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा नहीं दे. इंदौर के रहने वाले डॉ. राहुल बनर्जी कम लागत वाले, टिकाऊ व विकेंद्रित शहरी ढांचागत विकास पर काम करते रहे हैं. जयपुर व इंदौर जैसे कई शहरों के अध्ययन के आधार पर उन्होंने दिखाया है इस तरह का विकास प्राकृतिक साधनों के संचयन और जलवायु परिवर्तन को रोकने के काम मे मददगार हो सकता है. लेकिन ऐसी व्यवस्थाओं को बढ़ावा देने के बजाय भारत सरकार, स्मार्ट सिटी जैसी चमकदार लेकिन खोखली परियोजनाओं में निवेश कर रही है, जिनकी वजह से होने वाली ऊर्जा की अत्यधिक खपत और प्राकृतिक साधनों के दोहन के कारण जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा मिलेगा.

वित्तीय पारदर्शिता के अभाव में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी परियोजनाएं भी निजी कंपनियों के लिए पैसे बनाने का माध्यम बन कर रह गई हैं. उदाहरण के तौर पर, भारत में तेजी से फैल रहे सूर्य और पवन ऊर्जा के साधनों का स्वामित्व पूर्णतः निजी हाथों में ही है. दुर्भाग्य तो यह है कि इन विषयों पर कोई सार्वजनिक चर्चा भी नहीं हो रही है जो राजनैतिक जवाबदेही की कमी का एक और प्रमाण है. यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इस ढांचागत विकास में जनता की मेहनत की कमाई को अनुदानों के तौर पर लगाया जा रहा है. इसके साथ ही भारत सरकार और राज्य सरकारें जनहित के नाम पर किसानों की जमीनें निजी कंपनियों द्वारा लगाए जा रहे सौर्य व पवन ऊर्जा पार्कों को दे रही है. सौर्य और पवन ऊर्जा का विकास निश्चित ही जनहित में हो सकता है मगर उसके लिए यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए जरूरी ढांचागत विकास का स्वामित्व पब्लिक सेक्टर में ही रहे. यह सही है कि पब्लिक सेक्टर में भ्रष्टाचार की बड़ी समस्या है मगर उसका समाधान निजी हाथों में मुनाफा पहुंचाना बिल्कुल नहीं है.लेकिन सौर्य और पवन ऊर्जा का विकास इस तरह से सुनियोजित किया जा सकता है कि पब्लिक इंटरेस्ट को मुनाफा भांजने के लिए प्रयोग नहीं किया जा सके.      

सरकार ऐसे कार्यक्रमों को देश के विकास के साथ जोड़ कर प्रचारित करती है लेकिन ऐसे विकास का फायदा कुछ ही तबकों तक सीमित रहा है, जबकि गरीब और अमीरों की खाई पिछले तीन दशकों से तेजी से बढ़ रही है. पी. साइनाथ की प्रसिद्ध किताब एव्रीबॉडी लव्ज अ गुड ड्राउट (जिसका हिंदी अनुवाद ‘तीसरी फसल’ के नाम से प्रकाशित है) में शामिल विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि निजी कंपनियों और सरकारी विभागों के भ्रष्ट अफसरों के लिए जलवायु परिवर्तन एक मुनाफे वाला व्यापार बन सकता है. गहराई से सोचा जाए तो स्मार्ट सिटी जैसे कार्यक्रम अभी से शहरीकरण को निजी कंपनियों के लिए एक व्यवसायिक अवसर की तरह से ही प्रस्तुत कर रहे हैं और जलवायु परिवर्तन के बहाने इस प्रक्रिया को और बल मिलेगा. यह एक मिथक ही है कि पर्यावरण की रक्षा व जलवायु की स्थिरता का विषय सामाजिक व आर्थिक असमानता के सवाल से अलग हट कर सोच जा सकता है. सच तो यह है कि ऐसी सोच की वजह से ही हम आज बहुआयामी संकटों के दौर से गुजर रहे हैं.

पर्यावरण संरक्षण व जलवायु परिवर्तन का इतिहास हमें अगर कुछ सिखाता है तो वह यह कि दुनिया के ताकतवर देशों और हमारे देश के ताकतवर लोगों के भरोसे रहना बड़ी भूल होगी.  अंततः राजनीतिक जवाबदेही, आर्थिक पारदर्शिता और सामाजिक संवेदनशीलता से किए गए कार्य ही आम जनता के हित में हो सकते हैं. न्याय संगत व्यवस्थाओं के चलते ही पर्यावरण को बचाया जा सकेगा व जलवायु परिवर्तन का मुकाबला किया जा सकता है. सामाजिक न्याय पर आधारित चिंतन हमारे लिए आर्थिक और राजनैतिक भ्रष्टाचार से मुकाबला करने में मददगार होगा. ब्राजील के चिंतक पाउलो फ्रेरे ने लिखा है, “समाज की मुक्ति प्रताड़ित वर्गों की सामाजिक राजनैतिक चेतना व भागीदारी से ही संभव है.” दलित, आदिवासी, मुस्लिम, महिलाओं व समाज के हाशिए पर रहे शोषित वर्गों की भूमिका पर्यावरण संरक्षण व जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करना में अत्यंत महत्वपूर्ण रहेगी.


डॉ. प्रकाश कसवां यूनिवर्सिटी ऑफ कनेक्टिकट में राजनैतिक विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर और यूनिवर्सिटी के मानव अधिकार संस्थान के आर्थिक और सामाजिक अधिकार शोध कार्यक्रम (इकनॉमिक एंड सोशल राइट्स रिसर्च प्रोग्राम) के सह-निदेशक हैं. उनकी पहली किताब डेमोक्रेसी इन दी वुड्स, ऑक्सफॉर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा 2017 में प्रकाशित की गई. डॉ. कसवां के द्वारा संपादित किताब “भारत में जलवायु न्याय” केम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा 2022 में प्रकाशित की जाएगी.