हाल ही में हुई कोयला ब्लॉक की नीलामी के बारे में बात करते हुए प्रभु दयाल उरांव ने फरवरी में मुझे बताया कि “हमें इसके बारे में गूगल से पता चला- इन दिनों आप गूगल पर सब कुछ ढूंढ सकते हो.” प्रभु दयाल झारखंड के लातेहार जिले के बसिया गांव के रहने वाले हैं. उनकी उम्र 54 साल है. उन्होंने कहा कि “अगर हम बैठकर फैसला कर लें तो हमारे गांवों में कोई कुछ नहीं कर सकता. परहा राजा के शासन को राज्य भी मान्यता देता है. कोई बड़ा बाबू कुछ नहीं कर सकता. अनुच्छेद 244 हमें अपने जंगलों के प्रबंधन का अधिकार देता है.”
उरांव परहा राजा हैं. परहा एक स्थानीय राजनीतिक-पवित्र संस्था है जिसमें दो दर्जन गांव शामिल होते हैं. प्रत्येक परहा की अध्यक्षता एक प्रमुख द्वारा की जाती है, जिसकी जिम्मेदारी अपने लोगों की रक्षा करना और भूमि संघर्षों को हल करना है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 244 में कहा गया है कि पांचवीं अनुसूची के प्रावधान उन अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन और नियंत्रण के लिए लागू होते हैं, जिनकी पहचान सरकार ने अच्छी खासी आदिवासी आबादी वाले और सापेक्षिक रूप से अभाव का सामना करने वाले क्षेत्र बतौर की है. इन प्रावधानों में पराह जैसी जनजाति सलाहकार परिषदों की स्थापना भी शामिल है जिनसे अनुसूचित क्षेत्रों से संबंधित कोई भी नियम बनाने से पहले परामर्श किया जाना जरूरी है. ऐसी परिषदों को अनुसूचित क्षेत्रों में जमीन की खरीद-फरोख्त या हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार है.
बसिया चाकला कोयला ब्लॉक से सटा हुआ है. नवंबर 2020 में शुरू हुई वाणिज्यिक कोयला-ब्लॉक नीलामी में चाकला ब्लॉक की नीलामी एल्यूमीनियम निर्माता हिंडाल्को को मिली थी. अब 800 हेक्टेयर से अधिक भूमि को खनन के लिए दे दिया जाएगा. इससे चाकला, हरियाटोली, नवाटोली और अंबुआतनर गांवों के निवासियों के विस्थापित होने का खतरा है.
इस साल जनवरी और फरवरी में मैंने झारखंड में चाकला, गोंडुलपारा और उर्मा पहाड़िटोला कोयला ब्लॉकों का दौरा किया. नीलामी में चाकला ब्लॉक हिंडाल्को को मिला तो गोंडुलपारा अडानी एंटरप्राइजेज को और उर्मा पहाड़िटोला को अरबिंदो रियल्टी एंड इंफ्रास्ट्रक्चर को नीलाम किया गया है. इन क्षेत्रों में मिले अधिकांश लोगों ने मुझे बताया कि वे नीलामी के बारे में नहीं जानते. कोयला ब्लॉकों को वाणिज्यिक नीलामी के लिए सूचीबद्ध किए जाने के लगभग एक साल बाद और बोली लगने के तीन महीने बाद भी उन्हें सरकार की तरफ से कोई आधिकारिक जानकारी नहीं दी गई है.
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चाकला कोयला ब्लॉक के गांव प्याज के खेतों से घिरे हुए हैं, जो आसपास की वनस्पति से अलग एक विशाल गुलाबी कंबल के जैसा चित्र बनाते हैं. कोयला ब्लॉक का 55 प्रतिशत वन भूमि है. इसका ज्यादातर हिस्सा उरांव और मुंडा जनजातियों के आदिवासियों के साथ-साथ अन्य बहुजन समुदायों द्वारा बसा है. ये लोग इस जमीन पर खेती करते हैं और उनकी जिंदगी इसी पर निर्भर हैं. एक पूरा का पूरा पारिस्थितिकी तंत्र और सामाजिक संरचना जो जमीन के साथ अपने इस संबंध के चलते उभरा है, आज आसन्न विस्थापन के खतरे में आ गया है.
पिछले साल मार्च में भारत सरकार ने कोविड-19 महामारी के मद्देनजर देशव्यापी लॉकडाउन लगा दिया था. इससे गंभीर संकट और आर्थिक मंदी आ गई. प्रोत्साहन पैकेज के रूप में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 16 मई 2020 को घोषणा की कि कोयला ब्लॉकों की "ओपन-एक्सेस नीलामी" के तहत निजीकरण किया जाएगा. झारखंड में 9 कोयला ब्लॉकों को राज्य सरकार या उन समुदायों की मंजूरी के बिना नीलामी के लिए प्रस्तावित किया गया है. इनमें से चार की नीलामी पहले दौर में हुई थी.
1970 के दशक में कोयला उद्योग के राष्ट्रीयकरण के बाद पहली बार खनन को वाणिज्यिक नीलामी के लिए खोला गया है. 1990 के दशक के दौरान एक नीति परिवर्तन ने चुनिंदा निजी कंपनियों को अपनी औद्योगिक इकाइयों में उपयोग के लिए कोयले का खनन करने की इजाजत दी थी लेकिन 2014 में मनोहर लाल शर्मा बनाम प्रधान सचिव और अन्य के मामले में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 214 कोयला ब्लॉकों के आवंटन को रद्द कर दिया था. चाकला सहित कई ब्लॉक निलामी की सूची में आते थे.
सुप्रीम कोर्ट का फैसला नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) द्वारा 2004 और 2009 के बीच कोयला-ब्लॉक आवंटन पर एक रिपोर्ट जारी करने के दो साल बाद आया. कैग ने अनुमानानुसार संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने 1.8 लाख करोड़ रुपए लागत की कमाई का मौक गंवा दिया और आवंटियों को इन प्रतिस्पर्धी नीलामियों द्वारा "अप्रत्याशित लाभ" पहुंचाया. भारतीय जनता पार्टी तब विपक्ष में थी जिसने यूपीए सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों के अपने मुकदमे में "कोलगेट" को जोड़ा और प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग की.
एक दशक पहले चाकला निगमों, स्थानीय आबादी, पुलिस और माओवादियों के संघर्ष का मैदान था. नागपुर स्थित खनन समूह अभिजीत ग्रुप को चित्तरपुर कोयला ब्लॉक में एक कोयला खदान आवंटित की गई थी, जो चाकला के पड़ोस में है और जिले में एक बिजली संयंत्र बनाना चाह रहा था. चित्तरपुर और हेमपुर में स्थानीय लोगों द्वारा रोकने के बाद कंपनी ने चाकला में ग्रामीणों से सीधे 300 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया.
चाकला निवासी और स्थानीय वनाधिकार समिति के प्रमुख हरि कुमार भगत ने मुझे बताया, “भूमि के हस्तांतरण में कई अनियमितताएं थीं. लोगों को ठीक से बताया नहीं गया था या उन्हें उनकी जमीन के उपयोग या उन्हें मिलने वाले मुआवजे के बारे में गलत जानकारी दी गई थी.'' अभिजीत ग्रुप ने तो जमीनों का मालिकाना अपने नाम पर रिकॉर्ड करना शुरू कर दिया था. मई 2009 में, अभिजीत ग्रुप के प्रस्तावित बिजली संयंत्र में चार सुरक्षा गार्ड मारे गए थे. डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट में पुलिस सूत्रों के हवाले से कहा गया है कि "हो सकता है कि कंपनी ग्रामीणों को अपनी जमीन बेचने के लिए मजबूर करने के लिए माओवादी पार्टी से टूट कर बने किसी गुट का इस्तेमाल कर रही हो" और उस माओवादी गुट का कंपनी पर हमला दोनों पक्षों के बीच विवाद के कारण हो.
"आज यह बहुत आसान लगता है लेकिन 2004 से 2006 के बीच खनन के खिलाफ संगठित होने वाले लोग जानते हैं कि उन्होंने किन कठिनाइयों का सामना किया है," प्रभु दयाल उरांव ने मुझसे कहा. वह अपनी सक्रियता के लिए कई वर्षों तक जेल में रहे. "हमारी जान सच में खतरे में थी और लोग भी मारे गए."
2007 में एस्सार ने चाकला में 1200 मेगावाट बिजली संयंत्र बनाने की योजना की घोषणा की. एस्सार ने भी कुछ जमीन मालिकों को मोटी रकम देकर अपने पाले में करने की कोशिश की. हालांकि एस्सार की योजना धरातल पर नहीं उतर सकी.
उरांव ने कहा, "आप अभी भी यहां आधा-अधूरा प्लांट देख सकते हैं. दोनों दिवालिया हो गए और 2014 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह पहली बार है कि कोयला खदान फिर से खुल रही है."
चाकला में आदिवासी, दलित और मुसलमानों की मिश्रित आबादी रहती है. आदिवासियों को लगता है कि एस्सार और अभिजीत ग्रुप ने भूमि-स्वामित्व और अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रावधानों पर विभिन्न समूहों के बीच भ्रम का फायदा उठाया.
सितंबर 2012 में केंद्रीय जांच ब्यूरो द्वारा अभिजीत समूह की सहायक कंपनी जेएएस इंफ्रास्ट्रक्चर को कोयला घोटाले में आरोपी बनाए जाने के बाद इस ग्रुप के बिजली संयंत्र पर कई सालों से काम रुका हुआ था. कंपनी ने आखिरकार संयंत्र पूरा करने के लिए झारखंड सरकार से मदद की गुहार लगाई. तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन के साथ एक संयुक्त परियोजना के रूप में संयंत्र को चालू करने का प्रस्ताव लेकर आए और भारतीय स्टेट बैंक ने आवश्यक धन उपलब्ध कराया. हालांकि यह योजना भी परवान नहीं चढ़ सकी. जुलाई 2016 में एसेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनी (इंडिया) लिमिटेड ने एसेट वैल्यूएशन के लिए प्रोजेक्ट को अपने हाथ में ले लिया. अप्रैल 2017 तक संयंत्र के लिए कोई बोली लगाने वाला सामने नहीं आया.
चित्तरपुर में रहने वाले 30 साल के सुरेंद्र उरांव ने मुझे बताया, “2019 से हम सुन रहे हैं कि लगभग 45 कोयला ब्लॉकों की नीलामी होगी. नीलामी केवल चाकला के लिए हुई है लेकिन हम नीलामी की प्रक्रिया या ये कैसे हुईं यह नहीं जानते." पहले दौर में चित्तरपुर की नीलामी रद्द कर दी गई थी क्योंकि ब्लॉक के लिए केवल एक ही बोली आई थी.
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कोयला-खनन के निजीकरण को आसान बनाने के नरेन्द्र मोदी सरकार के प्रयासों का हिस्सा हैं ये नीलामियां. 2015 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के एक साल बाद सरकार ने खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 में संशोधन कर कोयला खान (विशेष प्रावधान) अधिनियम पारित किया. यह अधिनियम सफल बोलीदाताओं को खनन पट्टा के साथ भूमि और खदान के बुनियादी ढांचे पर अधिकार भी देता है.
पिछले साल देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा से तीन हफ्ते पहले मोदी सरकार ने लोकसभा में खनिज कानून (संशोधन) विधेयक पेश किया था. यह विधेयक जनवरी 2020 के एक अध्यादेश की जगह पर लाया गया था और इसने एमएमडीआर और सीएमएसपी अधिनियमों में और संशोधन किए. कोयला मंत्रालय ने एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा है, "संशोधनों के साथ अन्य मंजूरी और मंजूरी के साथ पर्यावरण और वन मंजूरी स्वचालित रूप से नई रिलीज के अनुदान की तारीख से दो साल की अवधि के लिए खनिज ब्लॉक के नए मालिकों को हस्तांतरित हो जाएगी." सरकार ने भी लॉकडाउन के दौरान खनन को एक आवश्यक सेवा घोषित किया था.
दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के एक वरिष्ठ शोधकर्ता कांची कोहली ने मुझे बताया, "मंजूरी के हस्तांतरण को मुख्य रूप से 'निर्बाध खनन' कार्यों को बढ़ावा देने के लिए डिजाइन किया गया है." कोहली का कहाना है कि ये संशोधन नए मालिकों को नई मंजूरी के लिए आवेदन करते समय खनन कार्यों को जारी रखने के लिए दो साल की विंडो देते हैं. वह बताती हैं, “यह मानता है कि प्रदूषण या पुनर्वास से संबंधित देनदारियों को देखना अनुमोदन हस्तांतरण के लिए कोई शर्त नहीं होगी. उत्खनन की क्षमता के विस्तार पर भी इसका बहुत कम असर पड़ता है."
ये संशोधन वन अधिकार अधिनियम और पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 (पेसा) का उल्लंघन करते हैं. पेसा के तहत ग्राम सभाओं के पास किसी अनुसूचित जनजाति समुदाय की भूमि के हस्तांतरण को रोकने और हस्तांतरित हो चुकी जमीन को समुदाय को वापस लौटाने शक्ति है. वहीं, एफआरए वनवासियों द्वारा उपयोग किए जाने वाले और सतत उपयोग के लिए संरक्षित सामुदायिक वन संसाधनों की रक्षा, पुन: रोपण, संरक्षण और प्रबंधन का हक वनवासियों को देता है. एफआरए ग्राम सभाओं को वन्यजीवों, जंगलों और जैव विविधता की रक्षा करने और इन पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली किसी भी गतिविधि को रोकने की शक्ति भी देता है.
हालांकि नियामक एजेंसियों का उद्देश्य पर्यावरण और पुनर्वास संबंधी कानूनों के गैर-अनुपालन की समीक्षा करना है लेकिन इन समीक्षाओं का बहुत कम प्रभाव पड़ा है. कोहली ने बताया कि कोयला खदान के चालीस प्रतिशत तक विस्तार को जन सुनवाई से छूट दी गई है. जन सुनवाई एक महत्वपूर्ण मंच है जहां परियोजनाओं से प्रभावित समुदाय नीति निर्माताओं के ध्यान में कमियों को ला सकते हैं. इस तरह की सुनवाई के बिना "सारी नियामक बातचीत दो पक्षों के बीच होती है : सरकार और परियोजना प्रस्तावक."
इस तरह की प्रतिबंधित बातचीत का नतीजा उन गांवों में देखा जा सकता सकता है जहां मैं गई. भगत ने मुझे बताया, "जब हमारी जमीन अभिजीत और एस्सार को दी जा रही थी तो हमें गुमराह किया गया और हमारी जमीन के हस्तांतरण के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र जैसे दस्तावेज जाली थे. हमने अनुमंडल पदाधिकारी को पत्र लिखा था लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है.” उन्होंने मुझे भेजे गए कुछ पत्र भी दिखाए और कहा, "ऐसा लगता है कि जाली एनओसी का इस्तेमाल अब भूमि आवंटन और हिंडाल्को को मंजूरी हस्तांतरित करते समय किया जाएगा." उन्होंने कहा कि एफआरए के तहत व्यक्तिगत और सामुदायिक अधिकारों के उनके दावों पर अभी भी जिला अधिकारियों की प्रक्रिया चल रहा है. ऐसे में जमीन को अन्य कामों में इस्तेमाल करने से पहले ग्राम सभा की सहमति जरूरी होती है.
कोहली ने इन उल्लंघनों के बारे में मुझे बताया कि "कोयले की ताजा नीलामी और मौजूदा खानों के विस्तार से कुछ सबसे घने वन क्षेत्र और लुप्तप्राय वन्यजीवों के आवास प्रभावित होने जा रहे हैं तथा इन कार्यों का स्थानीय जनजातीय अर्थव्यवस्थाओं और प्रचलित वन अधिकारों पर परिवर्तनकारी प्रभाव पड़ेगा. हमें परियोजना-दर-परियोजना भूमि अधिग्रहण, वन-भूमि डायवरजन और पर्यावरण मंजूरी देखने को मिलेंगी. ऐसी कई परियोजनाएं हैं जहां इन मंजूरियां का विरोध हो रहा है."
समुदायों पर खनन और खदान उद्योगों के प्रभाव पर काम करने वाले विशेषज्ञ कुंतला लाहिरी दत्त वर्षों से इस मुद्दे का अध्ययन कर रही हैं. वह ऐसे आवंटनों को संचयी भूमि हड़पना कहती हैं. "प्रत्येक परियोजना को अलग से स्वीकृत किया जाता है और बड़े बांधों के उलट व्यक्तिगत परियोजनाएं भूमि के उपयोग और/या ग्राम समुदायों को सामुहिक रूप से विस्थापित नहीं करती हैं."
हालांकि एफआरए और भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनःस्थापन अधिनियम, 2013 में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार उन शर्तों को नियंत्रित करता है जिनके तहत भूमि का अधिग्रहण किया जा सकता है. अनुमोदन प्रक्रिया को बहुत आसान बना दिया गया है. सरकार ने पर्यावरण मंजूरी को सरसरी तौर पर बदल दिया है, जबकि कोल इंडिया और निजी खनन कंपनियों ने विभिन्न परियोजनाओं के लिए जमीन गंवाने वालों को नौकरी देने की प्रथा को "व्यावहारिक रूप से खत्म" कर दिया है.
आसान मंजूरी के अलावा कोयला ब्लॉकों की नीलामी निजी कंपनियां को न केवल अपने औद्योगिक उद्देश्यों के लिए कोयले का उपयोग करने, बल्कि इसे बाजार में बेचने का भी हक देती है. सरकार ने खनन कंपनियों में 100 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की भी अनुमति दी है. 18 जून 2020 को कोयला खदानों की नीलामी का शुभारंभ करते हुए मोदी ने कहा था कि "ऐतिहासिक" नीलामी से पता चलता है कि देश में आर्थिक गतिविधि तेजी से सामान्य हो रही हैं.
हालांकि जानकार इस तरह के अनुमानों को लेकर संशय करते हैं. "भले ही सरकार कोयला-खनन उद्योग को बढ़ावा देने के लिए पूंजीवाद की ताकतों की मदद कर रही है लेकिन नवंबर के बाद से हमने जो नीलामी देखी है इसमें निजी हित उतना मजबूत नहीं है जितना सरकार ने उम्मीद की होगी," लंदन स्थित थिंक टैंक एंबर के एक वरिष्ठ विद्युत नीति विश्लेषक आदित्य लोला ने मुझे बताया. कोयला मंत्रालय ने शुरू में 41 कोयला ब्लॉकों की नीलामी की योजना बनाई थी लेकिन पहले दौर में केवल 38 ही सूचीबद्ध हुए. इनमें से 15 को कोई बोली नहीं मिली जबकि चार अन्य को केवल एक बोली मिली. इसका मतलब है कि केवल 19 ब्लॉकों की नीलामी की जा सकती थी.
राजहरा कोयला ब्लॉक झारखंड के सबसे बड़े राजनीतिक घोटालों में से एक था. 2017 में पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा को कोलकाता स्थित एक गुमनाम कंपनी को राजहरा कोयला ब्लॉक आवंटित करने के लिए आपराधिक साजिश का दोषी ठहराया गया था. इस बार इसे फेयरमाइन कार्बन्स प्राइवेट लिमिटेड को नीलाम किया गया जो नीलामी से चार महीने पहले जुलाई 2020 में खुली थी.
पिछले साल जून में झारखंड सरकार ने नीलामी के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी. राज्य की आदिवासी आबादी पर खनन के सामाजिक प्रभाव और वन भूमि के बड़े हिस्से को कोयला खदानों में बदलने के पर्यावरणीय प्रभाव का हवाला देते हुए याचिका में कहा गया है कि विशेष रूप से कोविड-19 महामारी के दौरान विदेशी निवेश में कमी को देखते हुए नीलामी से "दुर्लभ प्राकृतिक संसाधन के मूल्य के अनुपात में उचित रिटर्न" प्राप्त करने की संभावना नहीं है. झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने ट्वीट किया कि राज्य की चिंताओं को स्वीकार किए बिना नीलामी करने का केंद्र सरकार का फैसला "संघवाद की घोर अवहेलना" है.
भगत ने मुझे बताया, "हमने सुना है कि खनन के लिए हमारी जमीन के आवंटन के खिलाफ हेमंत सोरेन ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है. हम पूरी तरह से उनके साथ हैं." 6 जून 2020 को याचिका को लेकर पारित एक अंतरिम आदेश के अनुसार अगर नीलामी अवैध पाई जाती है तो अंतिम निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय आवंटन प्रक्रिया को रद्द कर सकता है.
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कोयला आधारित बिजली संयंत्रों द्वारा उत्पन्न औद्योगिक कचरे में आर्सेनिक, एल्युमीनियम, सुरमा, बेरियम, कैडमियम, सेलेनियम, निकल, सीसा और मोलिब्डेनम जैसे जहरीले रसायन होते हैं और कैंसर का कारण बनने के साथ-साथ फेफड़ों और हृदय को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं. इन क्षेत्रों के करीब रहने वाले समुदाय बालों के झड़ने और बाल कमजोर होने, जोड़ों में दर्द, शरीर में दर्द, पीठ दर्द, त्वचा रोग और सूखी खांसी जैसी स्वास्थ्य स्थितियों का सामना करते हैं. फिर भी भारत "विकास" और "गरीबी उन्मूलन" के नाम पर कोयला आधारित ऊर्जा के स्रोतों के अपने निरंतर उपयोग को उचित ठहराता रहा है.
जी-20 के देशों में भारत का दूसरा सबसे अधिक कोयला आधारित बिजली उत्पादक है. पहले नंबर पर दक्षिण अफ्रीका है. इस साल मार्च में जारी एंबर के सबसे हालिया "ग्लोबल इलेक्ट्रिसिटी रिव्यू" के अनुसार कोयले का उपयोग भारत की 71 प्रतिशत बिजली पैदा करने के लिए किया जाता है जो वैश्विक औसत 34 प्रतिशत से दोगुना है.
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के पेरिस सम्मेलन से कुछ समय पहले दिसंबर 2015 में भारत सरकार ने घोषणा की कि वह 2022 तक 175 गीगावाट अक्षय ऊर्जा स्थापित करेगी. केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के आंकड़ों से पता चला है कि 31 मई तक देश की सौर, पवन, जैव ईंधन और छोटे जलविद्युत संयंत्रों सहित अक्षय ऊर्जा की स्थापित क्षमता 95.65 गीगावाट थी जिसका अर्थ है कि भारत को इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए अगले साल के अंत तक इस क्षमता को लगभग दोगुना करना होगा.
भारत की जलवायु परिवर्तन नीति, जैसा कि इसके पेरिस लक्ष्यों और 2008 की जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना में जाहिर किया गया है, में कोयले के उपयोग की समाप्ति शामिल नहीं है. पेरिस में सरकार ने केवल 2030 तक बिजली उत्पादन में नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी को 40 प्रतिशत तक बढ़ाने और कोयले की धुलाई करके कोयला उद्योग होने वाले उत्सर्जन को कम करने का वादा किया था. कोयले की धुलाई का अर्थ प्रथक्करण, सम्मिश्रण और धुलाई के जरिए कोयले में राख की मात्रा को कम करना है. धुलाई की यह तकनीक सभी नए ताप संयंत्रों में अनिवार्य है. यहां तक कि "स्वच्छ कोयले" की यह आवश्यकता भी अब हटा ली गई है. 21 मई 2020 को जारी एक गजट अधिसूचना में पर्यावरण मंत्रालय ने पिछले दस वर्षों में 76 प्रमुख कोयला-राख आपदाओं की घटना के बावजूद कोयले की धुलाई को वैकल्पिक बना दिया.
कनेक्टिकट विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के सहयोगी प्रोफेसर प्रकाश कशवान ने मुझे बताया, "इस बहस का महत्वपूर्ण पहलू यह पागलपन भरा तर्क है कि भारत गरीबी को कम करने के लिए कोयले का उपयोग करता है. यहां पर यह बताना बहुत जरूरी है कि भारत सरकार गरीबी उन्मूलन के उस वादे के प्रति गंभीर नहीं है."
दत्त ने मुझे बताया कि "भारत ऊर्जा के मामले में गरीब देश है जो अपने बिजली-उत्पादन आधार का विस्तार करने के अपने आक्रामक प्रयासों को सही ठहराता है." भले ही देश ने अक्षय ऊर्जा में "गंभीर निवेश" किया है और पेरिस समझौते को लेकर "प्रतिबद्ध" है लेकिन बिजली उत्पादन में हालिया वृद्धि कोयले से हुई है. "भारत अक्षय ऊर्जा की बात तो करता है लेकिन कोयले से चलता है."
पिछले साल अगस्त में द एनर्जी रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम के लिए एक वीडियो संदेश में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कोयला ब्लॉक की नीलामी और जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी जारी रखने के लिए भारत की आलोचना की. उन्होंने कहा, "स्वच्छ ऊर्जा और ऊर्जा तक पहुंच के अंतर को पाटना अच्छा काम है. यह विकास और समृद्धि का जरिया है."
एंबर रिपोर्ट के सह लेखक लोला ने मुझे बताया, "भारत अपनी जलवायु परिवर्तन प्रतिबद्धताओं को किस तरह लेता है इसे समझने के लिए आने वाले दो साल महत्वपूर्ण होंगे." एक अनुभवी अक्षय-ऊर्जा व्यवसायी सुनील जैन ने पॉडकास्ट द इंडिया एनर्जी ऑवर के हालिया एपिसोड में कहा कि "भारतीय गिरावट 2019 में शुरू हो चुकी थी ... अगस्त 2020 तक आपूर्ति श्रृंखला निचुड़ने लगी." भारत ने वित्त वर्ष 2020-21 में लगभग 3.5 गीगावाट सौर क्षमता प्राप्त की है लेकिन यह 2019-20 की तुलना में लगभग चालीस प्रतिशत कम है.
ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय के संसाधन, पर्यावरण और स्थिरता संस्थान के ऊर्जा शोधकर्ता संदीप पई ने मुझे बताया कि "पश्चिमी देशों में ऊर्जा की मांग में वृद्धि रुक गई है लेकिन भारत में हम अभी भी ऊर्जा आवश्यकताओं में वृद्धि देख रहे हैं. कई इलाकों का विद्युतीकरण होना बाकी है. इस असंतुलन के चलते भले ही विकसित राष्ट्र पुराने संयंत्रों को बंद करना शुरू कर दें लेकिन भारत जैसे देश, जहां उनके प्लांट अपेक्षाकृत नए हैं, ऐसा करने की स्थिति में नहीं हैं. उनमें से कुछ ने अभी तक अपने निवेश तक को नहीं वसूला है. और ये निवेश ज्यादातर सार्वजनिक बैंकों से उधार पर लिया गया है.”
पई ने कहा कि ऐसी हालत में, "यह बहस का विषय है" कि क्या भारत को और अधिक बिजली संयंत्र बनाने चाहिए. "शोध समुदाय इस पर बंटा हुआ है." उन्होंने विरासत के मुद्दों पर भी प्रकाश डाला. उन्होंने कहा, "कुछ खदानें दशकों पहले शुरू होने के बावजूद काम नहीं कर रही हैं.”
जीवाश्म ईंधन से इतर बदलाव की राह न तो आसान है और न ही सुगम. पाई ने "बदलाव" के विचार पर विस्तार से बताया कि “कुछ लोगों के लिए, 'बदलाव' में सब कुछ शामिल है. कुछ स्तर पर सौर और पवन ऊर्जा अधिक सुलभ होने जा रही है क्योंकि बैटरी की कीमतें कम होती हैं." उन्होंने कहा कि इसका उन राज्यों के लिए गंभीर प्रभाव होगा जो जीवाश्म ईंधन पर निर्भर हैं.
पई ने कहा कि कोयला बिजली महंगी है और जब कोयला संयंत्र बंद हो जाएंगे तो झारखंड जैसे राज्यों को राजस्व कैसे मिलेगा? क्या हमें अभी से योजना नहीं बना लेनी चाहिए ताकि जब कोयले में वास्तव में गिरावट शुरू हो जाए तो ये राज्य पूरी तरह से वंचित होने की स्थिति में न हों? योजना की कमी का खामियाजा उन्हें पहले ही भुगतना पड़ा है. झारखंड जैसे राज्यों में 5 से 19 प्रतिशत राजस्व कोयला बिजली से आता है.
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सरकार का तर्क है कि जलवायु परिवर्तन अनुकूलन गरीबी उन्मूलन की कीमत पर नहीं हासिल हो सकता लेकिन हाल के शोध से दिखाते हैं कि जलवायु परिवर्तन को रोकना आर्थिक न्याय के सामने बाधा नहीं खड़ी करता. ग्लोबल एनवायर्नमेंटल चेंज नामक पत्रिका द्वारा जनवरी में प्रकाशित एक शोधपत्र में भारत में गरीबी उन्मूलन और जलवायु शमन के बीच संघर्षों का अधिक सटीक आकलन करने के लिए राष्ट्रीय औसत के बजाय घरेलू-व्यय डेटा का उपयोग किया गया.
भले घरेलू खर्च और कार्बन फुटप्रिंट के बीच काफी संबंध है, पत्रिका के लेखकों ने पाया कि कार्बन फुटप्रिंट में वृद्धि मुख्य रूप से उच्च भोजन और बिजली व्यय से हुई. वे लिखते हैं कि जलवायु प्रभाव को कम करने के लिए कोयला बिजली संयंत्रों से नवीकरणीय बिजली में बदलाव और खाद्य उत्पादों की आपूर्ति श्रृंखला उत्सर्जन में कमी महत्वपूर्ण हैं. इसके अलावा उन्होंने अनुमान लगाया कि गरीबी उन्मूलन से भारत के कार्बन फुटप्रिंट में दो प्रतिशत से भी कम की वृद्धि होगी.
प्रकाश काशवान ने बताया कि विकास और जलवायु परिवर्तन प्रबंधन को असंगत मानने की सरकार की जिद और 2050 तक शून्य उत्सर्जन लक्ष्य को आगे बढ़ाने की उसकी योजना का मतलब है कि कार्बन वानिकी के लिए जैव विविधता वाले वन क्षेत्रों सहित आदिवासी भूमि का बलिदान हो. इससे अतीत में भारत के राजनीतिक और कारपोरेट अभिजात वर्ग के हाथों आदिवासियों ने जिन ऐतिहासिक अन्यायों का सामना किया है, वे और भी अधिक बढ़ेंगे.
3 फरवरी को लोकसभा में पर्यावरण और समुदायों पर वाणिज्यिक कोयला खनन के प्रतिकूल प्रभावों के बारे में पूछे गए सवाल के जवाब में कोयला और खान मंत्री प्रह्लाद जोशी ने खनन के प्रभाव को संबोधित करने के बजाय केवल पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन की मानक प्रक्रिया बताई. कोयला और पर्यावरण मंत्रालयों ने मेरे द्वारा भेजे गए सवालों का जवाब नहीं दिया कि पर्यावरण मंजूरी पर चल रहे विवादों को कैसे सुलझाया जाएगा, या कोयला आधारित विकास के कुप्रभाव को कैसे कम किया जाएगा.
इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के लिए एक लेख में काशवान और यूरोपीय विश्वविद्यालय संस्थान में कानून के विषय पर डॉक्टरेट शोधकर्ता अर्पिता कोडिवेरी ने लिखा है कि ऐसे समय में जब सौर ऊर्जा 14 प्रतिशत सस्ती है, यह समझा जा सकता है कि कोल उर्जा को बढ़ावा देने में मंत्रालय और उद्योग के निहित स्वार्थ हैं. वे पूछते हैं, "पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) नियामक मंजूरी के उन्माद में शामिल होकर इन परियोजनाओं का समर्थन क्यों कर रहा है? एमओईएफसीसी प्रदूषण को कम करने और पर्यावरण के क्षरण को व्यापक रूप से कम करने में सार्वजनिक हितों से इतना बेखबर क्यों है? ”
इन चिंताओं को दूर करने के बजाय सरकार ने नीलामी प्रक्रिया को और संशोधित किया और घटती रुचि के कारण प्रक्रिया की प्रतिस्पर्धात्मकता पर समझौता करने का विकल्प चुना. मार्च 2021 में कोयला मंत्रालय ने "रोलिंग ऑक्शन" व्यवस्था शुरू की जिसमें किसी भी समय कोयला ब्लॉकों के लिए बोलियां प्राप्त की जा सकती हैं. नीलामी शुरू करने के लिए आयोजित एक कार्यक्रम में जोशी ने कहा, "अगर केवल एक व्यक्ति भी दिलचस्पी दिखाता है, तो हम नीलामी करेंगे. अगर केवल एक व्यक्ति ने भाग लिया, तो हम उसी ब्लॉक को दूसरी बार नीलामी के लिए रखेंगे और अगर दूसरी बार भी कोई बोली नहीं लगाता है, तो हम उस एकल बोलीदाता को खदान आवंटित कर देंगे." इसने उन आधारों पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है जिनके तहत सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार में कोयला ब्लॉकों का आवंटन रद्द कर दिया था.
काशवान का मानना है कि केवल जन आंदोलन ही भारत सरकार को अपनी नीति में सुधार करने के लिए बाध्य कर सकता है. उन्होंने दावा किया, "अंतर्राष्ट्रीय समुदाय स्वदेशी और अन्य ग्रामीण लोगों के अधिकारों के निरंतर उल्लंघन की जवाबदेहिता से बचने के लिए प्रकटत: इस लोकतांत्रिक देश में एक सर्वसत्तावादी शासन का फायद उठा रहा है."
भगत ने मुझे बताया, "जब लोग खदानों के कारण विस्थापित होते हैं, तो न केवल उनकी जमीनें चली जाती हैं बल्कि उनकी संस्कृति, परंपराएं, रीति-रिवाज भी धुंआ हो जाते हैं. क्या सरकार के पास इन क्षेत्रों में विस्थापित हुए लोगों की संख्या का कोई रिकॉर्ड है? खदानें हमें खा जाती हैं. यह हमारे लिए जिंदगी या मौत की लड़ाई है."
(यह रिपोर्ट इंटरन्यूज के अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क के सहयोग से तैयार की गई है.)