पांच साल पहले ऐसी अटकलें लगाई जा रही थीं कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जलवायु परिवर्तन के मामले में अविश्वासी हैं. उन्होंने एक टिप्पणी की थी जिससे लगा था कि वह इस तथ्य के सम्बंध में अनिश्चय की स्थिति में थे. सितंबर 2014 में टेलीविजन पर प्रसारित बच्चों के एक समूह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, “क्लाइमेट चेंज नहीं हुआ है, हम चेंज हो गए हैं. हमारी आदतें बदल गई हैं, हमारी आदतें बिगड़ गई हैं और उसके कारण पूरे पर्यावरण का हमने नुकसान किया है.” लगभग उसी दौरान सेक्रेड हार्ट विश्वविद्यालय में छात्रों के एक समूह के साथ चर्चा में मोदी ने इस मामले में सम्पूर्ण अबोध्यता का प्रदर्शन किया. उन्होंने कहा, “हमारे परिवार में जो बूढ़े लोग होते हैं ...वे क्या कहते हैं? इस बार ठंड ज्यादा है. ठंड ज्यादा है या उनकी सहन करने की ताकत कम हुई है?”
यह वक्तव्य 2011 की उनकी किताब ‘सुविधाजनक कार्य: जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के लिए गुजरात की प्रतिक्रिया’ के पाठकों के मन में विराधाभास उत्पन्न करती है जिसमें वह पर्यावरणविद और संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अल गोर का संदर्भ देते है. गोर, 2007 में बनी डॉक्यूमेंट्री ‘एक असुविधाजनक तथ्य’ के माध्यम से ग्रह को बचाने के लिए त्वरित कार्रवाई की आवश्यकता के सम्बंध में मुखर रहे हैं. यह उनके कुछ अन्य सार्वजनिक वक्तव्यों से भी पूरी तरह असंगत है. जैसे पिछले साल दावोस में विश्व आर्थिक मंच पर उनकी यह घोषणा कि “जैसा कि हम जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन मानव सभ्यता के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है”. जब पर्यावरण को बचाने के लिए उनकी सरकार द्वारा किए गए उपायों की बात आती है तो उनकी कथनी और करनी में अंतर स्पष्ट विरोधाभास के रूप में प्रतिबिंबित होता है. मिसाल के तौर पर, उनकी यह स्वीकार्यता कि जलवायु परिवर्तन हमारे अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है, भारत के परिवहन क्षेत्र या इसकी ऊर्जा ग्रिड से कार्बन की मात्रा को खत्म करने में वर्तमान सरकार की तत्परता का अभाव उससे मेल नहीं खाता. अस्तित्व के इस गंभीर खतरे से निपटने के लिए खासतौर से मोदी सरकार ने कोई संस्थागत ढांचा नहीं बनाया है. उनकी सरकार पर्यावरण सम्बंधी पहलकदमियों के लिए उचित ढंग से अलग फंड आवंटित करने में भी नाकाम रही है.
पिछली सरकारें विकास की प्राथमिकताओं का हवाला देकर उत्सर्जन कम करने के लिए लक्ष्य निर्धारित करने का विरोध करती रहीं. कम से कम मोदी प्रशासन ने 2015 में बहुचर्चित पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किया है जिसका मकसद देशों को स्वेच्छा से अपना ग्रीन हाउस उत्सर्जन कम करना था. लक्ष्य यह है कि भूमंडलीय तापक्रम वृद्धि को सीमित किया जाए ताकि यह 1.5 डिग्री सेलसियस से अधिक न बढ़ने पाए. हम इसे औद्योगीकरण पूर्व आधार रेखा या औद्योगिक क्रान्ति से पहले की शताब्दियों में औसत वैश्विक तापमान कहते हैं जब बड़े पैमाने पर जीवाश्म ईंधन दहन से पर्यावारण में परिवर्तन होना शुरू हुआ था. इसके अलावा मोदी के नेतृत्व में भारत ने अंतर्राष्ट्रीय सौर संधि या आईएसए की पुष्टि की है. इस समझौते का अभिप्राय “सौर समृद्ध” उष्णकटिबंधीय देशों में सौर ऊर्जा की आधारभूत संरचना विकसित करने और उसके प्रभावी इस्तेमाल को बढ़ावा देने में सहयोग बढ़ाना था. जो उपाय मोदी सरकार करने का इरादा रखती है वे सहायक तो हैं लेकिन पर्याप्त नहीं हैं. भारत में कुछ वर्षों तक कार्बन उत्सर्जन के बढ़ने की संभावना है इसलिए उत्सर्जन की वर्तमान चाल को बदलने के लिए भारत को अधिक आक्रामक कदम उठाने की जरूरत है.
फिलहाल भारत दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है. जबकि भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत से कम है परंतु भारत की विशाल मानव एंव पशुधन आबादी दुनिया के कुल कार्बन उत्सर्जन का 7 प्रतिशत से अधिक पैदा करती है. चूंकि जनसंख्या और प्रति व्यक्ति बिजली का प्रयोग दोनों बढ़े हैं इसलिए देश में उत्सर्जन के बढ़ते रहने की आशा है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन से सम्बद्ध रहने की सरकार की इच्छा के बावजूद कार्बन की आक्रामक कटौती लक्ष्यों को अपनाने के प्रति अनिच्छा प्रतीत होती है. ऐसा लगता है कि इसका कारण यह प्रचलित रूढ़िवाद है कि पश्चिम जितनी विकास की गति पाने के लिए अधिक कार्बन उत्सर्जन की आवश्यकता है. तर्क दिया जाता है कि भारत को पहले अपने विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने की जरूरत है जैसा कि पर्यावरण, वन एंव जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की वेबसाइट पर दिया गया हैः
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