प्रकृति का अंत

पृथ्वी के तापक्रम में वृद्धि और पर्यावरण संकट

श्रीनिवास कुरुगंती

पांच साल पहले ऐसी अटकलें लगाई जा रही थीं कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जलवायु परिवर्तन के मामले में अविश्वासी हैं. उन्होंने एक टिप्पणी की थी जिससे लगा था कि वह इस तथ्य के सम्बंध में अनिश्चय की स्थिति में थे. सितंबर 2014 में टेलीविजन पर प्रसारित बच्चों के एक समूह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, “क्लाइमेट चेंज नहीं हुआ है, हम चेंज हो गए हैं. हमारी आदतें बदल गई हैं, हमारी आदतें बिगड़ गई हैं और उसके कारण पूरे पर्यावरण का हमने नुकसान किया है.” लगभग उसी दौरान सेक्रेड हार्ट विश्वविद्यालय में छात्रों के एक समूह के साथ चर्चा में मोदी ने इस मामले में सम्पूर्ण अबोध्यता का प्रदर्शन किया. उन्होंने कहा, “हमारे परिवार में जो बूढ़े लोग होते हैं ...वे क्या कहते हैं? इस बार ठंड ज्यादा है. ठंड ज्यादा है या उनकी सहन करने की ताकत कम हुई है?”

यह वक्तव्य 2011 की उनकी किताब ‘सुविधाजनक कार्य: जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के लिए गुजरात की प्रतिक्रिया’ के पाठकों के मन में विराधाभास उत्पन्न करती है जिसमें वह पर्यावरणविद और संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अल गोर का संदर्भ देते है. गोर, 2007 में बनी डॉक्यूमेंट्री ‘एक असुविधाजनक तथ्य’ के माध्यम से ग्रह को बचाने के लिए त्वरित कार्रवाई की आवश्यकता के सम्बंध में मुखर रहे हैं. यह उनके कुछ अन्य सार्वजनिक वक्तव्यों से भी पूरी तरह असंगत है. जैसे पिछले साल दावोस में विश्व आर्थिक मंच पर उनकी यह घोषणा कि “जैसा कि हम जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन मानव सभ्यता के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है”. जब पर्यावरण को बचाने के लिए उनकी सरकार द्वारा किए गए उपायों की बात आती है तो उनकी कथनी और करनी में अंतर स्पष्ट विरोधाभास के रूप में प्रतिबिंबित होता है. मिसाल के तौर पर, उनकी यह स्वीकार्यता कि जलवायु परिवर्तन हमारे अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है, भारत के परिवहन क्षेत्र या इसकी ऊर्जा ग्रिड से कार्बन की मात्रा को खत्म करने में वर्तमान सरकार की तत्परता का अभाव उससे मेल नहीं खाता. अस्तित्व के इस गंभीर खतरे से निपटने के लिए खासतौर से मोदी सरकार ने कोई संस्थागत ढांचा नहीं बनाया है. उनकी सरकार पर्यावरण सम्बंधी पहलकदमियों के लिए उचित ढंग से अलग फंड आवंटित करने में भी नाकाम रही है.

पिछली सरकारें विकास की प्राथमिकताओं का हवाला देकर उत्सर्जन कम करने के लिए लक्ष्य निर्धारित करने का विरोध करती रहीं. कम से कम मोदी प्रशासन ने 2015 में बहुचर्चित पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किया है जिसका मकसद देशों को स्वेच्छा से अपना ग्रीन हाउस उत्सर्जन कम करना था. लक्ष्य यह है कि भूमंडलीय तापक्रम वृद्धि को सीमित किया जाए ताकि यह 1.5 डिग्री सेलसियस से अधिक न बढ़ने पाए. हम इसे औद्योगीकरण पूर्व आधार रेखा या औद्योगिक क्रान्ति से पहले की शताब्दियों में औसत वैश्विक तापमान कहते हैं जब बड़े पैमाने पर जीवाश्म ईंधन दहन से पर्यावारण में परिवर्तन होना शुरू हुआ था. इसके अलावा मोदी के नेतृत्व में भारत ने अंतर्राष्ट्रीय सौर संधि या आईएसए की पुष्टि की है. इस समझौते का अभिप्राय “सौर समृद्ध” उष्णकटिबंधीय देशों में सौर ऊर्जा की आधारभूत संरचना विकसित करने और उसके प्रभावी इस्तेमाल को बढ़ावा देने में सहयोग बढ़ाना था. जो उपाय मोदी सरकार करने का इरादा रखती है वे सहायक तो हैं लेकिन पर्याप्त नहीं हैं. भारत में कुछ वर्षों तक कार्बन उत्सर्जन के बढ़ने की संभावना है इसलिए उत्सर्जन की वर्तमान चाल को बदलने के लिए भारत को अधिक आक्रामक कदम उठाने की जरूरत है.

महाराष्ट्र के गांव नीलमती के ग्रामीण पानी की भारी कमी का सामना कर रहे हैं.

फिलहाल भारत दुनिया में ग्रीन हाउस गैसों का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है. जबकि भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन वैश्विक औसत से कम है परंतु भारत की विशाल मानव एंव पशुधन आबादी दुनिया के कुल कार्बन उत्सर्जन का 7 प्रतिशत से अधिक पैदा करती है. चूंकि जनसंख्या और प्रति व्यक्ति बिजली का प्रयोग दोनों बढ़े हैं इसलिए देश में उत्सर्जन के बढ़ते रहने की आशा है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन से सम्बद्ध रहने की सरकार की इच्छा के बावजूद कार्बन की आक्रामक कटौती लक्ष्यों को अपनाने के प्रति अनिच्छा प्रतीत होती है. ऐसा लगता है कि इसका कारण यह प्रचलित रूढ़िवाद है कि पश्चिम जितनी विकास की गति पाने के लिए अधिक कार्बन उत्सर्जन की आवश्यकता है. तर्क दिया जाता है कि भारत को पहले अपने विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने की जरूरत है जैसा कि पर्यावरण, वन एंव जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की वेबसाइट पर दिया गया हैः

वैश्विक पर्यावरण की समस्या से निपटने के लिए विकासशील देशों में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने की बात, ऐसे देशों में विकास के लिए निर्धारित संसाधनों की दिशा बदलने का काम करती है जबकि इसके लिए ऐसे देश जिम्मेदार नहीं हैं.

खासकर, भारत द्वारा उत्सर्जन घटाने की प्रक्रिया अपनाने से भारत में जलवायु के प्रभाव में कमी नहीं आएगी क्योंकि जलवायु परिवर्तन 1850 से संचित उत्सर्जन के कारण है. इन उत्सर्जनों में भारत का योगदान बहुत कम है और अभी भी विश्व की 17 प्रतिशत आबादी के बावजूद भारत वैश्विक उत्सर्जन का मात्र 4 प्रतिशत ही उत्सर्जित करता है. दुनिया में किसी भी बिंदु से होने वाले उत्सर्जन वैश्विक जलवायु पर समान प्रभाव डालते हैं यदि भारत वापस पाषाण युग में जाकर अपने उत्सर्जन को पूरी तरह कम करके शून्य भी कर दे तो भी भारत में (या कहीं और) जलवायु परिवर्तन पर इसका मुश्किल से ही कोई प्रभाव पड़ेगा.

महाराष्ट्र के गांव शिवाजीनगर के पास पानी की कमी से सूखी जमीन पर एक किसान. महेंद्र पारिख/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस

भारत वर्तमान में वैश्विक उत्सर्जनों का चार नहीं बल्कि 7 प्रतिशत उत्सर्जित करता है और वह तेजी से बढ़ रहा है. 2018 में इसमें 6 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी हुई है. लेकिन इन सब से परे, ऐसी रणनीति वास्तविकता को दरकिनार करती है. अगर भारत अपने कार्बन उत्सर्जन को कम करने और पर्यावरण सम्बंधी नुकसानों को दूर करने के लिए नई तकनीकों का प्रयोग और नई रणनीतियों को लागू करने के साथ-साथ अपने विकास को ताकत देने का रास्ता नहीं तलाश करता है तो इसका देश और दुनिया पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा. पूर्व–औद्योगिक आधार रेखा से 2 डिग्री अधिक गर्म दुनिया में विकास के इन लक्ष्यों को कभी पूरा नहीं किया जा सकेगा. इसके बजाय भारत के लोग बढ़ती हुई खाद्य असुरक्षा, गरीबी और बीमारी के बोझ तले दब जाएंगे और बाढ़, बढ़ती समुद्री सतह और पैदावार के नुकसान का सामना करना होगा. इसके विपरीत, भारत सतत विकास के लिए समाधान खोजने में सक्षम है और उसके हितकारी प्रभाव समान रूप से गहरे हो सकते हैं. हमारे दैनिक संवादों में जलवायु परिवर्तन के बारे में गलत धारणाओं पर चर्चा चलती रहती है जिसमें प्रकृति, बेग और आने वाली कठिनाइयों की गलतफहमी भी शामिल है और साथ ही यह भी कि हमारे जीवन पर इसका कैसा प्रभाव पड़ेगा.

सबसे आम मिथक यह है कि जलवायु में परिवर्तन मंद गति से और पूर्वानुमेय होगा और इसका सबसे अधिक दुष्प्रभाव अधिकांशतः सुदूर ध्रुवीय क्षेत्रों में दिखाई देगा. इस मिथक के मूल में यह भरोसा है कि इसके सबसे खराब प्रभाव का हम पर असर नहीं पड़ेगा. हालांकि, यह सच्चाई हमें समझना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन अविश्वसनीय मानसून की तुलना में बहुत अधिक नुकसानदायक और असाम्यिक बाढ़ और चक्रवात से अधिक विनाशकारी होगा. यह घटनाक्रम शायद हमारी कल्पना से कहीं अधिक शीघ्र होगा. जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतर सरकारी पैनल जैसे रूढ़ीवादी नीति सलाहकारों द्वारा शुरू में किए गए अनुमानों की तुलना में पृथ्वी के जलवायु में परिवर्तन तेजी से हो रहा है. लेकिन अक्टूबर 2018 में जारी जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अंतर सरकारी पैनल की रिपोर्ट “1.5°C की वैश्विक ऊष्मा” के बाद इस अविचलित निकाय ने भी यह अनुमान लगाते हुए तात्कालिकता का भाव दर्ज करना शुरू कर दिया है कि हमारे पास सफल समाधान के लिए 11 वर्ष का समय शेष है जो हमारी आधारभूत संरचनाओं और अर्थव्यवस्थाओं में न्यूनतम गहन परिवर्तन को आवश्यक बना देगा.

जलवायु परिवर्तन पर चर्चा अन्य पर्यावरणीय विफलताओं के संदर्भ में भी गहराई तक होनी चाहिए. हमारे सम्मुख मौजूद कई आशंकाओं में से एक पर्यावरणीय खतरे के बारे में संकीर्णतापूर्ण अधिक केंदित हो जाना खतरनाक है. जंगलों को काटना, नदियों को मोड़ना, घास के मैदानों और जंगलों को खंडित करना, एक ही तरह की फसल उगाने का विस्तार– हमने बहुत पहले अपने प्राकृतिक संसाधनों को बर्बाद करना शुरू कर दिया था. लेकिन हमारी बढ़ती हुई आबादी, गहन कृषि और उद्योग के साथ ही हमारी विनाशकारी गतिविधियों में तेजी आई है. औषधीय, प्लास्टिक, भारी धातुओं और उद्योगों की जैविक गंदगी, कीटनाशक और गहन खेती, रासायनिक खादों की अधिकता से हमने पर्यावरण को अब विषाक्त कर दिया है.

इलाहाबाद में चिलचिलाती गर्मी में मां-बेटी. वर्तमान में पूरा भारत घातक गर्मी की चपेट में है. जितेंद्र पारिख/रॉयटर्स

हाल ही की दो किताबें हमारे सामने मौजूद बड़ी संख्या में पर्यावरणीय चुनौतियों के कार्यक्षेत्र और घटनाक्रम को प्रस्तुत करने का प्रयास करती हैं. ‘द अनहैबिटबल अर्थ: लाइफ आफ्टर वार्मिंग’ में पत्रकार डेविड वालेस-वेल्स ने दुनिया के अग्रणी जलवायु वैज्ञानिकों के आकलनों का संकलन जीवंत लघु चित्रों में प्रस्तुत किया है जो वैश्विक स्तर पर बढ़ती हुई गर्मी का मानव समाज पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावों का वर्णन करती है. साथ ही उन परिणामों का चित्रण करती है जिसका हम दस या बीस साल में अनुभव कर सकते हैं. हालांकि वालेस-वेल्स की किताब समान रूप से प्राकृतिक वास की तबाही और पर्यावरणीय विषाक्तता जैसी पर्यावरण की अन्य चिंताओं को कवर नहीं करती. वालेस-वेल्स के प्रयास की उपयोगी पूरक है मीरा सुब्रामण्यम की किताब ‘एलिमेंटल इंडिया: द नेचुरल वर्ल्ड एट ए टाइम ऑफ क्राइसिस एंड अपॉर्चुनिटी’. सुब्रामण्यम की किताब कई प्रकार के पर्यावरणीय विनाश के स्थानीय समाधान पर केंद्रित है जो दशकों के अधिक दोहन और विषाक्तता के कारण भारतीय भूभाग पर जमा हो गए हैं. अपने अनुसंधानों में स्पष्ट रूप से मंडराती हुई जलवायु परिवर्तन की प्रेतछाया के साथ सुब्रामण्यम पर्यावरणीय संकटों का मुकाबला करने के ऐसे सुरागों की खोज में हमें देश भर के छोटे कस्बों और गांवों में ले जाती हैं जो दुनिया के लिए नए रास्ते की तलाश में सहायक हो सकते हैं.

“आप जितना सोचते हैं यह उससे बुरा और बदतर है”, वालेस–वेल्स अपनी बात शुरू करते हुए हमें उछाल कर सीधे सुदूर गहराई में भेज देते हैं. शब्दों की आकस्मिक भीड़ में अपने गुथे हुए तर्कों को स्पष्टता प्रदान करने हेतु वह अपना संदेश देने में समय नष्ट नहीं करते. किताब दशकों के उस आत्मसंतोष, अक्खड़पन और नाजुक कल्पनाओं से अलग ले जाती है जो हमारी विकासोन्मुखी अर्थव्यवस्थाओं के साथ जुड़ी हुई थीं. वालेस–वेल्स उस विघटन की व्यापकता की ओर संकेत करते हैं जिसमें जलवायु परिवर्तन जीवन को नष्ट, अर्थव्यवस्थाओं को बर्बाद और राष्ट्रों को अस्थिर करके जिंदगी के सभी पहलुओं को पलट देगा. वह हमें बताते है कि,

एक अध्ययन के अनुसार, अकेला भारत जलवायु परिवर्तन से पूरे विश्व में करीब एक चौथाई लोगों पर पड़ने वाले आर्थिक भार को सहेगा. 2018 में विश्व बैंक का आकलन था कि कार्बन उत्सर्जन की वर्तमान कार्यप्रणाली पूरे दक्षिण एशिया में रहने वाले 800 मिलियन लोगों के जीवन स्तर में तेजी से गिरावट लाएगी. उनका कहना है कि एक दशक से कम समय में ही 100 मिलियन लोग जलवायु परिवर्तन द्वारा अत्यंत गरीबी में खींच लिए जाएंगे. शायद “वापस (गरीबी) में” ज्यादा उपयुक्त (शब्द) है: सबसे अधिक असुरक्षित लोगों में बहुत सी वह आबादियां जो स्वयं औद्योगीकरण और जीवाश्म ईंधन द्वारा संचालित विकासशील–विश्व के विकास के माध्यम से अभी-अभी गरीबी और जैसे–तैसे जीवित रहने के स्तर से खुद को बाहर निकाला है.

वालेस–वेल्स जो दृश्य प्रस्तुत करते हैं वह वैज्ञानिक रूप से विवादास्पद नहीं हैं यद्यपि जो कुछ हम सामान्य तौर पर नीति निर्धारक निकायों या कारपोरेट समाचार माध्यमों में सुनते हैं उसकी तुलना में उनके व्याख्यान अक्सर चौंकाने वाले होते हैं. वास्तव में जो कुछ वैज्ञानिक कह रहे हैं उसकी तात्कालिकता को आमतौर पर समाचारों में बहुत कम दिखाया जाता है या पूरी तरह लुप्त कर दिया जाता है. जब विज्ञान को सही ढंग से रिपोर्ट भी करते हैं तो जलवायु टिप्पणीकार अक्सर हमारे लिए बिंदुओं या सुरागों को जोड़कर जो कुछ दांव पर लगा है उसे बताने में रुचि नहीं रखते. मिसाल के तौर पर, स्वंय आईपीसीसी रिपोर्ट चुपचाप इस निष्कर्ष पर पहुंचती है: “1.5 डिग्री सेल्सियस वैश्विक ऊष्मा पर सम्बद्ध हानियों (मध्यम विश्वास) के साथ कुछ मानवीय और प्राकृतिक प्रणालियों की अनुकूलन और अनुकूलन क्षमता की सीमाएं हैं. यह संख्या और अनुकूलन विकल्पों की उपलब्धता एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र (मध्यम विश्वास) में भिन्न होती है”. यह रक्तहीन भाषा इसके अर्थ की तीव्रता को ढंक लेती है. इस संदर्भ में वालेस–वेल्स की पुस्तक का प्राथमिक गुण यह है कि वह स्फूर्तिदायक, ऊंचे सुर में, सामान्य रूप से छाप कर रखे गए संशोधनात्मक पहलुओं की रिपोर्ट करती है. जैसा कि वह कहते हैं, “यह तापक्रम वृद्धि के विज्ञान से सम्बंधित किताब नहीं है बल्कि इसका तात्पर्य यह है कि हम जिस तरह से इस ग्रह पर रहते हैं उसके सम्बंध में तापक्रम का मतलब क्या है”.

वैश्विक तामक्रम वृद्धि के कारण आज दुनिया औद्योगिक क्रांति से हजारों साल पहले की तुलना में 1 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म है. वालेस–वेल्स हमें बताते हैं कि अगर यह दुनिया 1 डिग्री और गर्म हो जाए तो, “पूरे भारत और मध्यपूर्व में वह शहर जो अभी लाखों लोगों के घर हैं इतने गर्म हो जाएंगे कि गर्मियों में घर से बाहर कदम रखना घातक हो जाएगा”. कहने का जरा यह कड़वा तरीका है, मिसाल के तौर पर, पूरा भारत पहले ही घातक गर्म लहरों की चपेट में है जिसमें वृद्धि 1950 से ही शुरू हो गई थी और 2021 से 2050 के बीच इसमें 8 गुना बढ़ोतरी के संकेत हैं और शताब्दी के अंत तक इस 8 गुने का लगभग 3 गुना हो सकता है. पत्रिका इनवायरनमेंटल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित 2017 के लेख में इस निष्कर्ष तक पहुंचा गया, “वर्तमान में भारत में गर्मी की लहरों का सम्पर्क 1.5°C और दुनिया में 2.0°C है. लेखकों ने मौसम के प्रतिरूप की कम्प्यूटर मॉडलिंग का उपयोग 1.5 या 2°C तापमान की वृद्धि के स्थानीय तापक्रम के प्रभावों की भविष्यवाणी करने के लिए किया, जिसका अनुभव भारत में किया जाएगा. भारत के कई भागों में साल के कुछ निश्चित महीनों में महसूस की जाने वाली आर्द्रता गर्मी की लहरों में मृत्यु के जोखिम को बढ़ा देती है.

मध्य और उत्तरपूर्वी भारत लगातार गर्म लहरों की सबसे ज्यादा मार झेलता प्रतीत होता है, हालांकि पूर्वी तट और तेलंगाना को भी 2015 में ऐसी घटनाओं से जूझना पड़ा जिसके नतीजे में कम से कम 2500 मौतें हुईं. 2016 में इतिहास में पहली बार केरल में गर्म लहरें दर्ज की गईं. कोई आश्चर्य नहीं कि गर्म लहरों में मृत्यु का जोखिम कम आयु वर्ग से जुड़ा हुआ है लेकिन इसे कुछ हस्तक्षेपों जैसे शीतलता तक पहुंच, उचित जलयोजन और चिकित्सीय सावधानी से कम किया जा सकता है. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेट्रोलॉजी भारत सरकार को भविष्यवाणी और शमन प्रयासों पर सलाह दे रही है जबकि आंध्रप्रदेश सरकार गर्मी की आपदा से निपटने के लिए एक ठोस हीट वेव एक्शन प्लान विकसित कर रही है लेकिन अभी और कार्यवाही की जरूरत होगी. इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट के अनुसार, 2012 से 2016 के बीच गर्मी की लहरों की चपेट में आने वाले भारतीयों की संख्या 200 प्रतिशत बढ़ गई है और गर्मी की वजह से 2017 में भारत ने श्रम के 75 बिलियन घंटे गंवाए हैं. कृषि–श्रम उत्पादकता में भी मौसम के गर्म होने के साथ-साथ कमी दर्ज की गई है.

खाद्य उत्पादन में कमी एक अतिरिक्त जटिलता है. संयुक्त राज्य अमेरिका की पत्रिका में प्रकाशित जलवायु और विज्ञान की नेशनल अकेडमी में अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों के एक समूह ने पिछले दो सालों में पाया कि अधिक गर्म मौसम में पर्याप्त सिंचाई के बावजूद अनाज वाली फसलों की पैदावार में गिरावट दर्ज की गई. जहां गेहूं में प्रति कोटि 3 से 10 प्रतिशत, चावल में 3 प्रतिशत से कुछ अधिक और मक्का में 7.4 प्रतिशत गिरावट रही. सूखे की परिस्थितियां या अन्य कड़े मौसम की घटनाओं से पैदावार में और कमी की संभावना हो सकती है. 2018-19 फसल वर्ष में अनुमान है कि भारत ने अपनी 1.35 बिलियन जनसंख्या के लिए प्रति व्यक्ति प्रति दिन के हिसाब से कुल लगभग 436 ग्राम गेहूं और चावल की अतिरिक्त पैदावार की है. लेकिन जैसे ही मानसून चक्र बदलता है, गर्मी की लहरें बढ़ती हैं और जनसंख्या में वृद्धि होती है तो भारत को 2 डिग्री तापक्रम वृद्धि के बाद भोजन सुरक्षा के प्रति बहुत आश्वस्त नहीं रहना चाहिए.

अकाल, गर्म लहरों और बेमौसम बरसात ने पूरे उत्तरी यूरेशिया में इसी फसली वर्ष के दौरान फसलों को तबाह कर दिया, नतीजे के तौर पर गेहूं के वैश्विक उत्पादन में इस साल गिरवाट आई जबकि गेहूं के वैश्विक उपभोग में निरंतर बढ़त दर्ज की गई. 2010 में कमी की इन्हीं परिस्थितियों में पश्चिम एशिया को खाद्य संकट भुगतना पड़ा था जो अरब बसंत नामक जन विद्रोह के भड़कने का एक कारण बना और इससे राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो गयी. पहले ही लम्बे समय तक जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे आस्ट्रेलिया में 1990 से गेहूं की पैदावार निश्चल रही बावजूद इसके कि आस्ट्रेलियाई किसानों ने इस पर काबू पाने के लिए कई नई तकनीकों का प्रभावी इस्तेमाल किया. 2017 से कई अन्य आस्ट्रेलियाई उत्पादों की तरह इसमें भी गिरावट आना शुरू हो गई थी. संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट बताती है कि वैश्विक अल्पपोषण दरों में निरंतर गिरावट के बाद पहली बार 2014 में कुपोषित लोगों की संख्या में वृद्धि होना शुरू हो गई. बड़े तौर पर यह अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में जलवायु सम्बंधित घटनाओं, लड़ाई और आर्थिक मंदी का नतीजा है. भारत में निरंतर अल्पपोषण में घटती हुई प्रवृत्ति की गति पिछले कुछ वर्षों में धीमी हुई है.

इसी बीच दुनिया के महासागर भी तेजी से गर्म हो रहे हैं. अगर वैश्विक तापक्रम वृद्धि के वर्तमान प्रक्षेप पथ को कम करने के लिए कुछ नहीं किया गया तो समुद्री जीव विज्ञानियों को उम्मीद है कि 2050 तक गर्म–पानी की मूंगा चट्टानें नष्ट हो जाएंगी. इन तटीय मूंगों का उन्मूलन समुद्री भोजन के जाल के विध्वंस को तेज कर देगा जिससे समुद्र के शेष जीवन का एक चौथाई भाग प्रभावित होगा. मूंगीय जलवायु तंत्र की हानि काफी हद तक विश्वव्यापी अल्पपोषण और भूख की गति को बढ़ा देगा.

पेरिस संधि का उद्देश्य वैश्विक तापक्रम वृद्धि को तापमान की उस सीमा तक स्थिर रखना था जो पूर्व औद्योगिक आधार रेखा की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न हो. अगर चरम मौसम की स्थितियां निरंतर बनी रहती हैं तो हजारों लोगों की जान जाएगी और लाखों शरणार्थी पैदा होंगे. समुद्री स्तर लगातर बढ़ता जाएगा, असह्य वायु तापमान जीवन और उत्पदान के लिए संकट बना रहेगा, वैश्विक स्तर पर फसल की पैदावार प्रभावित होगी और कुछ समुद्री पर्यावरण तंत्र ध्वस्त हो जाएंगे. लेकिन इस सीमा पर जो भी प्रभाव हों, आईपीसीसी की रिपोर्ट जोर देकर कहती है कि वह 2 डिग्री से काफी कम तीव्र होंगे. सबसे महत्वपूर्ण यह कि 1.5 डिग्री तक सीमित रहने पर इसके प्रभाव कुछ और मंद गति से विकसित हो सकते हैं और आशा है कि लोगों और प्राकृतिक प्रणालियों के लिए इसके अनुरूप ढलने और बदले वातावरण का सामना करने का अवसर प्राप्त होगा. तापक्रम वृद्धि की दो सीमाओं के बीच का फर्क लाखों लोगों के जीवन और मृत्य का अंतर हो सकता है.

हालांकि तामपान के किसी भी लक्ष्य पर अडिग रहने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरत है. यह 2050 से पहले दुनिया भर में कार्बन शून्यता प्राप्त करने का जनादेश देता है. लेकिन कम से कम एक प्रमुख प्रदूषणकारी राष्ट्र संयुक्त राज्य अमेरिका अपने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के नेतृत्व में पेरिस समझौते से स्पष्ट रूप से मुकर गया है. केवल कुछ मुट्ठी भर नेक नीयत राष्ट्र अभी पेरिस के उद्देश्यों को पाने के लिए सही मार्ग पर हैं. वास्तव में संधि पर हस्ताक्षर के समय से वैश्विक कॉर्बन उत्सर्जन में वृद्धि जारी है.

भारी बारिश के कारण जल स्तर बढ़ने से कुरिग्राम, बांग्लादेश में पानी में डूबा एक पेड़. रसेल चौधरी

फिर भी यदि सभी पेरिस उत्सर्जन प्रतिबद्धताओं पर खरे उतरते हैं तो भी यह तापमान वृद्धि को 2 डिग्री से नीचे रख पाने के लिए पर्याप्त नहीं होगा. आईपीसीसी की योजना यह भी सिफारिश करती है कि वायु से अतिरिक्त कॉर्बन सक्रिय रूप से खींच कर बाहर निकालने के लक्ष्य से नई तकनीकों को काम में लाया जाए. दुर्भाग्य से यह प्रौद्योगिकियां अधिकतर विज्ञान कथाओं के क्षेत्र तक ही सीमित हैं, अभी वे अस्तित्व में नहीं आई हैं. इन विचारों में सबसे तर्कसंगत, डायरेक्ट एयर कैप्चर एंड सेक्युस्ट्रेशन या डीएसीएस है जो वायु से निकलने वाली अतिरिक्त कार्बन डाईऑक्साइड को जमीन के अंदर संचित कर देती है. कम से कम अवधारणा के रूप में इसको प्रदर्शित किया जा चुका है. लेकिन वास्तव में यह कितना बेहतर काम कर सकता है और बड़े स्तर पर क्या अनापेक्षित परिणाम पैदा कर सकता है इन दोनों के बीच अंतर करने और जानने की अभी जरूरत है. शायद यह मानव इतिहास की सबसे बड़ी आधारभूत परियोजना है जिसे असाधारण गति और खगोलीय व्यय पर 15800 वर्ग किलोमीटर में फैली हुई भूमि पदचिन्ह की आवश्यकता है.

ऐसा मामूली सा प्रयास भी कभी नहीं किया गया, फिर भी हम अपने जीवन को इस पर पूरी तरह दांव पर लगा रहे हैं. बहुत कम आशा है कि ऐसी मिथ्यवादी मौसम मशीन समय पर प्राप्त होगी. इसी बीच आईपीसीसी की कल्पनाओं के अनुसार जीवाश्म ईंधन दहन की वर्तमान दर पर हम 2030 और 2050 के बीच किसी समय 1.5 डिग्री की सीमा तक पहुंच जाएंगे और फिर उससे आगे भी निकल जाएंगे. वर्तमान हालात को देखते हुए बहुत संभावना है कि हमारा संसार 2 डिग्री और सम्भवतः उससे भी अधिक गर्म हो जाएगा. वालेस–वेल्स इस बिंदु पर बहुत बल देते हैं.

3 डिग्री तापक्रम वृद्धि पर भारत सहित दुनिया के उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र गर्म लहरों से इतना ग्रस्त हो जाएंगे कि स्थानीय लोग साल के कई महीनों के दौरान सम्भवतः खुले में श्रम करने की आशा नहीं कर सकते. इस तरह यह उस क्षेत्र को प्रभावी रूप से निवास के लिए अयोग्य बना देगा. दक्षिणी यूरोप और संभावना है कि मध्य पश्चिम अमेरिकी भाग मरुस्थल बनना शुरू हो जाएंगा. पूर्व में अमेरिका की रोटी की टोकरी धूल के प्याले में बदल जाएगी, पूरे क्षेत्र में फसलों की व्यापक विफलता आर्थिक संकट उत्पन्न कर देगी जो वर्षों तक बरकरार रही थी और अमेरिका के अनाज निर्यात में गिरावट आ जाएगी. आज दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं पहले की तुलना में एक दूसरे से अधिक मजबूती से जुड़ी हुई हैं और खिलाने के लिए अरबों मुंह हैं.

3 डिग्री तक गर्म हो चुकी दुनिया में सैकड़ों मिलियन लोग विस्थापित हो जाएंगे. प्रवासियों की ऐसी बाढ़ वैश्विक राजनीति को किस तरह प्रभावित करेगी? वालेस–वेल्स हमारा ध्यान हाल के उन दृश्यों की तरफ ले जाते हैं जहां सीरियाई और उत्तरी अफ्रीकी से लोग यूरोप निकल भागने की बुरी तरह से कोशिश कर रहे हैं. उत्तेजित राजनीतिक उथल-पुथल जिसने विनाशकारी सीरियाई गृह युद्ध को भड़काया वह जलवायु परिवर्तन द्वारा प्रेरित थी. जिससे धीरे धीरे पूरे क्षेत्र में शुष्कता बढ़कर पांच साल में गंभीर अकाल, भोजन का दबाव, बड़े पैमाने पर आंतरिक विस्थापन और उसके बाद व्यापक राजनीतिक अशान्ति फैल गई. वालेस–वेल्स हमें याद दिलाते हैं कि केवल एक मिलियन सीरियाई शराणार्थी थे जिनकी हताशा ने मानवीय संकट की अंदरूनी वीभत्सता को उजागर कर दिया. यहां तक कि इसने विशेष रूप से पूरी पश्चिमी दुनिया में मूल निवासी भावनाओं की लहर पैदा कर दी.

वास्तव में ठीक ठीक यह कह पाना असंभव है कि मानवजनित जलवायु परिवर्तन द्वारा कोई राजनीतिक घटना, उथल-पुथल या प्रवासन किस हद तक प्रभावित होता है. हालांकि लोग इसका प्रयास करते हैं – वैज्ञानिकों के अंतर्राष्ट्रीय समूहों द्वारा प्रस्तुत शोध पत्रों में निष्कर्ष निकाला गया है कि सीरियाई शराणार्थी संकट में जलवायु परिवर्तन का महत्वपूर्ण योगदान था. इस बात पर चर्चा जारी है कि किसी चक्रवात की तबाही या किसी बाढ़ का प्रत्यक्ष परिणाम किस हद होता है. वालेस-वेल्स का सुझाव है कि यह सवाल पूछना गलत है.

जो शुद्ध रूप से इस बात को बेहतर तरीके से समझने की आशा करते हैं कि किस तरह एक राक्षसी तूफान शान्त समुद्र से उठता है. यह पूछताछ सार्थक है लेकिन सभी व्यवहारिक उद्देश्यों के लिए यह बहस कोई वास्तविक अर्थ या अंतरदृष्टि प्रदान नहीं करती …लेकिन जलवायु परिवर्तन ऐसा सुराग नहीं जो स्थानीय अपराध के घटना स्थल पर पाया जा सकता है – एक चक्रवात, एक गर्म लहर, एक अकाल, एक युद्ध …यह तुच्छता के बिंदु पर कंजूस बहस है कि क्या यह वाला या वह वाला “जलवायु जनित” था. सभी तूफान अब मौसम प्रणालियों में जाहिर हो जाते हैं जो हमने उनकी ओर से मिटा दिए हैं, यही कारण है कि वह पहले अधिक है और अधिक ताकतवर हैं. जंगली आग के लिए भी यह सच है; वह बाहर भोजन बनाने या बिजली लाइन के लटकने के कारण हो सकती है लेकिन वैश्विक तापक्रम वृद्धि के कारण सभी तेजी से, बड़े स्तर पर और लम्बे समय तक जल रहे हैं जो दहन अवधि में कोई कमी नहीं होने देते. जलवायु परिवर्तन कोई ऐसी चीज नहीं है जो यहां या वहां होती है बल्कि हर जगह होती है और एक साथ होती है. जब तक हम इसे रोकने की राह का चयन नहीं करते यह कभी नहीं रुकेगी.

दुनिया कितनी अधिक गर्म हो सकती है यह निश्चित नहीं है. हालांकि वैज्ञानिकों को डर है कि 2 डिग्री भी पहुंचने से पहले खतरनाक गुप्त इशारे आने शुरू हो सकते हैं जो गर्मी के बेलगाम होने की तरफ बढ़ सकते हैं और उसे कॉर्बन उत्सर्जन को घटाकर नहीं रोका जा सकता. आईपीसीसी रिपोर्ट कहती है:

अंटार्कटिका में समुद्री बर्फ की चादर और ग्रीनलैंड बर्फ की चादर को अपरिवर्तनीय नुकसान के फलस्वरूप सैकड़ो–हजारों वर्षों में समुद्र तल कई मीटर ऊपर जा सकता है. वैश्विक तापक्रम वृद्धि के 1.5°C से 2.5°C के आसपास पहुंचने (मध्यम विश्वास) से यह अस्थिरताएं शुरू हो सकती हैं और 1.5 से 2.5 मिलियन किलोमीटर (मध्यम विश्वास) की सीमा में स्थाई तुषार क्षेत्र के सदियों तक पिघलते रहने को रोकने के लिए वैश्विक तापक्रम वृद्धि को 2°C के बजाए 1.5°C तक सीमित करना प्रस्तावित हो सकता है.

कहना का तात्पर्य यह है कि गर्मियों में उत्तर ध्रुवीय बर्फ की चादर को होने वाला नुकसान स्थाई तुषार का तेजी से पिघना– दो सबसे चिंतनीय विषय है यानी टिपिंग पॉइंट– 2 डिग्री या उससे कम तापक्रम वृद्धि पर तेजी से सक्रिय हो सकते हैं. जब उत्तर ध्रुवीय बर्फ खत्म हो जाएगी, सूर्य प्रकाश सीधे उत्तर ध्रुवीय खुले पानी पर पड़ेगा तो तापक्रम में तेजी से इजाफा होगा (ग्रीनलैंड और दक्षिणी ध्रुव से बर्फ को और तेजी से पिघलना बढ़ जाएगा). फिर सूरज की किरणें सीधे इन बड़े भूभागों की काली मिट्टी से टकराएंगी और वैश्विक तापक्रम वृद्धि को और भी तेजी से बढ़ा देंगी. यह बढ़ती हुई गर्मी का घनात्मक पुनर्निवेशन उत्पन्न कर देगी. इसी प्रकार स्थाई तुषार का व्यापक विस्तार, जिससे उत्तरी ध्रुव नथा हुआ है, के तेजी से और गहराई तक पिघलने से अब तक इसके नीचे दबी मीथेन गैस बहुत अधिक और अपूर्वानुमेय मात्रा में खारिज होगी. ग्रीन हाउस गैस के रूप में मीथेन कॉर्बन डाइऑक्साइड से कई गुना अधिक शक्तिशाली है. मीथेन के तेजी से खारिज होने से तापक्रम में वृद्धि की गति और बढ़ जाएगी जो और स्थाई तुषारों के अधिक पिघलने और उससे भी अधिक मिथेन के खारिज होने का कारण होगी. अगर यह टिपिंग पॉइंट सक्रिय होते हैं तो तापक्रम वृद्धि उत्तरोत्तर आईपीसीसी की रिपोर्ट की भविष्यवाणी के पार बढ़ती चली जाएगी.

गर्मी के समय की उत्तर ध्रुवीय बर्फ की चादर पहले ही पिघल रही है. 55 साल पहले की तुलना में आज एक चौथाई बर्फ बचा है. स्थाई तुषार भी पहले से ही पिघल रहे हैं और मीथेन का रिसाव हो रहा है, खासकर साइबेरिया के पूर्व उत्तर ध्रुवीय पट्टी कहे जाने वाले क्षेत्र से. जाने अनजाने कितनी जल्दी गर्मी के समय की उत्तर ध्रुवीय स्थाई बर्फ खत्म हो जाएगी– सम्भवतः अगले पांच सालों में– और कितनी तेजी से या अचानक तापक्रम में तेज वृद्धि की स्थिति में मीथेन पिघले हुए स्थाई तुषार से उबल कर बाहर आ जाएगी, वैश्विक तापमान 4 डिग्री से अधिक तेजी से बढ़ना शुरू हो जाएगा.

चार डिग्री तापक्रम वृद्धि पर मानव जीवन सम्भवतः एक संघर्ष बन जाएगा, अधिकांश लोग बर्फ और स्थाई तुषारों से नव स्वतंत्र आदिम उच्च अक्षांशों में रहने लगेंगे जहां उन्हें बार-बार हिंसक तूफानों और जंगली आग की मार झेलनी होगी. वह अलग ग्रह जैसा लगेगा और हमें अपने भोजन के विषय में फिर से सीखना पड़ेगा. संदर्भ के लिए, विचार करें कि पहले धरती पूर्व औद्योगिक आधार रेखा के पचीस हजार साल पहले चार डिग्री तक ठंडी थी. जब हम हिम युग के मध्य में थे तब कई किलोमीटर मोटी जबरदस्त बर्फ की चादर ध्रवों से लेकर मध्य देशांतरों और पूरे महाद्धीपों में फैली हुई थी. पिछली बार धरती चार डिग्री गर्म थी, दक्षिणी ध्रुव में बीचबृक्ष उग आए थे. ऐसा पांच मिलियन साल पहले था जब धरती पर मानव जीवन नहीं था.

यदि यह सब दांव पर लगा हुआ है तो हमें तेजी से बढ़ती गर्मी को रोकने के लिए वह सब कुछ करना चाहिए जो हमारे वश में है. सच्चाई यह है कि जो कुछ हो रहा है उसकी वजह हम हैं और हम इससे अवगत हैं. वालेस-वेल्स तर्क देते हैं कि हम इसे रोक सकते हैं. उनके अनुसार,

“इसका मतलब है “प्रकृति के अंत” से परे रहना– मानव क्रियाकलाप ही हैं, जो जलवायु के भविष्य को निर्धारित करेंगे हमारे नियंत्रण की व्यवस्थाएं नहीं. इसीलिए पूर्वानुमेय विज्ञान की असंदिग्ध स्पष्टता के बावजूद इस किताब में जलवायु प्रदृश्य के सभी अस्थाई चित्र जो इस किताब में मौजूद हैं उनके माध्यम से जबरदस्त तरीके से कदाचितों, सम्भावनाओं और सम्भावित स्वरूपों के साथ सावधान किया गया है. मैं आशा करता हूं कि कष्ट का उभरता हुआ यह चित्र भयावह है. यह पूर्ण रूप से ऐच्छिक है. अगर हम वैश्विक तापक्रम को बढ़ने की अनुमति देते हैं और पूरी उग्रता के साथ खुद को दंडित करने के लिए पोषण करते हैं तो ऐसा केवल इसलिए होगा कि हमने सजा का चयन किया है और सामूहिक रूप से आत्महत्या के रास्ते पर चल पड़े हैं. अगर हम इसे टालते हैं तो ऐसा इसलिए होगा कि हमने अलग रास्ते पर चलने और टिके रहने का चयन किया है.”

हल्की सी अच्छी खबर यह है कि ऐसे लोग भी हैं जो वैकल्पिक रास्ता विकसित कर रहे हैं. मीरा सुब्रामण्यम की किताब हमें सर्वांगीण और पर्यावरणीय केंद्रित विचार के कई उदाहरण बताती है जिन्हें निरंतरता प्राप्त करने के लिए सभी क्षेत्रों में आदर्श रूप से अपनाया जाना चाहिए. सुब्रामण्यम बताती हैं कि यह उन लोगों की कहानियों से लिया गया है जिन्होंने हमारे पिछले पर्यावरण परिवर्तन की बड़ी गलतियों से बचने, अपनी सफलताओं, विफलताओं, जारी संघर्षों और आशाओं के लिए साहसिक समाधान का प्रयास किया है. वह बताती हैं कि समस्याएं बड़ी हैं, जिनमें मिट्टी का क्षीण होना और विषाक्तता, जल तालिका का नुकसान, वायु प्रदूषण, गिद्धों का लुप्त होना और अत्यधिक जनसंख्या शामिल है. उन्होंने जिन पहलकदमियों का दस्तावेजीकरण किया है उसका बीड़ा उठाने वालों में देश के विभिन्न भागों में रहने वाले लोग है जिनमें पंजाब के किसान, राजस्थान के ग्रामीण कार्यकर्ता, उत्तर प्रदेश के वन्य जीवन कार्यकर्ता और महाराष्ट्र के भवन निर्माणकारी शामिल हैं. सुब्रामण्यम ने मोटे तौर से इन व्यक्तियों की यात्राओं और जो कुछ उन्होंने सीखा, समाधान के लिए नवीनता लाने के उनके प्रयास और जिन चीजों ने उन्हें प्रेरित किया, उन पर ध्यान केंद्रित किया है. उसी से वह पर्यावरणीय मुद्दों को सम्बोधित करने लिए जीवनांकिक कुशलता की मानसिकता और आधुनिक राज्यों द्वारा व्यवहारिक दक्षता और सुदूर संसाधनों के केंद्रीय नियंत्रण से परे विभिन्न उपायों की योजना बनाती हैं. इसके बजाए वह जमीनी स्तर के विचारों को रेखांकित करती हैं जो बहुत हद तक स्थानीय ज्ञान और अनुभव, सामाजिक तौर पर न्यायसंगत और टिकाऊ हैं. समाधान भी बिना अपनी सीमा या अवरोध के नहीं हैं और उनको यह श्रेय जाता है कि वह कभी पीछे नहीं हटतीं.

जब सुब्रामण्यम अत्यधिक आबादी की बात करती हैं तो यह जनसंख्या नियंत्रण या परिवार नियोजन के बारे में नहीं होतीं. वह हमें एक युवा बिहारी महिला पिंकी कुमार की प्रोफाइल देती हैं जिसका जीवन आज भारतीय महिलाओें के सामने चुनौतियों और अन्तर्विरोधों का उदाहरण है. कुमार गांव के किशोरों को प्रजनन और यौन सम्बंधी स्वास्थ्य के बारे में पढ़ाती हैं और अपने लिए आवाज उठाने, विवाह के दबाव का विरोध करने और स्कूल में बने रहने के लिए प्रोत्साहित करती हैं. जब कुमार ग्रामीण बिहार में पटना के पास एक गैर लाभकारी संस्था पाथफाइंडर इंटरनेशनल द्वारा चलाई जा रही एक छोटी परियोजना में काम करती थीं तो उनके प्रयासों से स्थानीय लोगों के जीवन पर फर्क पड़ा था. हालांकि खासकर ग्रामीण महिलाओं, पुरूषों, काम और परिवार की आत्म अंतरदृष्टि के मामलों में सांस्कृतिक चुनौतियां बनी रहीं. सुब्रामण्यम लिखती हैं, “मैं बिहार जनसंख्या के अध्ययन के लिए गई थी, लेकिन यह एक शक्ति थी जिसे मैं खेल-खेल में पा गई. पाथफाइंडर नई पीढ़ी के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा और छुपी हुई शक्ति ला रही थी. शक्ति राजनीतिक होती है लेकिन क्या यह अनंत है? क्या एक व्यक्ति का लाभ अनिवार्य रूप से दूसरे की हानि है? यही मेरा सवाल बन गया.” अन्य कहानियों की तरह सुब्रामण्यम अपनी किताब में बताती हैं कि जवाब असान नहीं हैं. अब यह भली-भांति विदित है कि महिलाओं को सशक्त और शिक्षित बनाना जनसंख्या वृद्धि की गति कम करने का सबसे प्रभावी तरीका है और सुब्रामण्यम का मानना है कि भारत में महिलाओं की मुक्ति पर्यावरणीय प्रबंधन के नए माध्यमों की तलाश के लक्ष्य से हमेशा अविभाज्य है.

सुब्रामण्यम बताती हैं कि ‘जल व्यवस्था के पुनर्जीवन की कहानी’ उनकी पुस्तक का सबसे अधिक प्रेरित करने वाला भाग है. राजस्थान जहां 1960 के दशक से जारी बोरवेल ड्रिलिंग ने उस भूमिगत जल स्तर को सुखा दिया गया था जिसके भरने में सैकड़ों साल लगे थे, उसको फिर से जीवित करने के लिए हाल ही में स्थानीय लोग बारिश के पानी के लिए जलग्रह या जोहड़ बना रहे हैं और पेड़ लगा रहे हैं. सुब्रामण्यम की रिपोर्टिंग का केंद्र अलवर जिला है जहां राजेंद्र सिंह और उनकी संस्था तरूण भारत सिंह या टी०बी०एस० के आंदोलन के साथ काम शुरू हुआ. वह हमें बताती हैं कि राजस्थान के 12 अन्य जनपदों में ऐसी ही योजनाएं साकार हुई हैं. भवंता गांव में दशकों पहले जोहड़ बनाए गए थे जिसकी शुरूआत 1980 के दशक के मध्य में हुई थी. उन्होंने स्वेच्छा से भारी और श्रमसाध्य निर्माण योजनाओं का बीड़ा उठाया लेकिन उन्हें उसका उचित फल मिला है. कई गांवों के लोगों ने अपनी जल तालिकाओं को फिर से पर्याप्त भर दिया है और खेती की तरफ लौट रहे हैं जिसे उन्होंने छोड़ दिया था और समृद्धि का एक अतिरिक्त उपाय पा लिया है. सुब्रामण्यम विस्तार से बताती हैं- महिलाएं, जिनमें कई को पानी लाने के लिए बड़ी दूरियां तय करनी पड़ती थीं, इस उबाऊ काम से मुक्ति पा चुकी हैं. वर्षा के पानी की जलग्रह योजनाएं पुराने ज्ञान और प्रथा का पुनरुद्धार हैं, वे केंद्रीकृत योजना और आधुनिक नौकरशाहियों में गुम हो गई थीं जो दूर से पानी के इस्तेमाल को नियंत्रित करने की इच्छुक हैं.

आईआरएल हो या बड़े बांध इसके साथ नौकरशाही आकार लेती है. जितनी बड़ी जल व्यवस्था होगी उसकी निधि, निर्माण और प्रबंधन के लिए उतना ही बड़ा ढंचा चाहिए. ऐतिहासिक रूप से लोक निर्माण विभाग ने लोगों का स्थान ले लिया है. होता यह है कि पड़ोसी उस पानी को बचाए रखने के लिए एक साथ नहीं आते जिस पर वे निर्भर हैं और अक्सर उन्हें ऐसा करने से रोक दिया जाता है. इसके बजाए उन्होंने करों का भुगतान किया. मूलतः नए विचारों– नदियों पर स्वामित्व प्राप्त किया जा सकता है और प्रमुख अधिकार क्षेत्र के माध्यम से जमीनें ली जा सकती हैं– जैसे नए सुधारवादी विचार और भोगाधिकार विकसित किए गए जो सामान्य लोगों की भावनाओं को साकार करता है जिसमें सभी ग्रामीणों को पेड़ों, पौधों और जानवरों और अपने हिस्से की जमीनों के इस्तेमाल का अधिकार था, मुरझा कर बिखर गए ….

नौकरशाहों द्वारा भवंटा के लोगों को वर्षों तक सामान्य स्थानों पर तकीनीकी रूप से बांध बनाने के जिन अवैध प्रयासों के लिए परेशान किया जाता था वही अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों तक ले जाने का मार्ग बना, हालांकि यह वही काम था जिसके लिए 200 साल पहले सत्तारूढ़ राज घराने स्थानीय समुदायों को बाध्य किया करते होंगे.

बांध बनाने जैसे काम में स्थानीय संसाधनों के प्रबंधन में बड़ी क्षेत्रीय या राष्ट्रीय योजनाओं की महा विफलता के विपरीत जोहड़ बनाने जैसी स्थानीय पुनर्वास परियोजनाओं की सफलता सुब्रामण्यम की कहानी में हरित क्रांति के दीर्घकालिक लाभ और लागत बनाम अधिक परंपरागत प्रथाओं पर खेती की गूंज फिर से सुनाई देती है. अमेरिकी कृषि विज्ञानी नॉर्मन बोरलॉग द्वारा भारत में आधुनिक और गहन कृषि के नए तरीके परिचित कराने से अंततः अकाल की घटनाओं का अंत हो गया जो अभी 1943 तक भारतीय इतिहास की नियमित घटना थी. उस साल बंगाल में लाखों लोग भूख से मर गए थे (यह वास्तव में ब्रिटिश सरकार की राजनीतिक विफलताओं से और बढ़ गया था). लाभ त्वरित और बेदाग था और फिर भी, सुब्रामण्यम दावे के साथ कहती हैं कि इन तरीकों की बेहिसाब लागत को केवल लंबित रखा गया, ये टिकाऊ नहीं हैं. दीर्घावधि में पैदावार स्थिर हो गई है जबकि आबादी बढ़ती जा रही है. किसान कर्ज के चक्र में फंस गए हैं. उससे भी अधिक यह कि भारत आत्म निर्भर नहीं हो पाया.

1967 में लाखों भारतीय भोजन के लिए विदेशी सहायता पर निर्भर थे लेकिन हरित क्रांति की वजह से 1970 और 1980 के दशक के दौरान कृषि पैदावार दोगुना हो गई और 1991 में भारत खाद्य उत्पादन में आत्म निर्भर हो चुका था. गेहूं और चावल की पैदावार कई गुना बढ़ गई. लेकिन आयात बंद नहीं हुआ. केवल उनमें बदलाव आ गया. खाद्य पदार्थों के बजाए भारत ईंधन, खेती के उपकरण, खाद, रसायन और बीज ले आया. प्रत्येक नई प्रगति के पीछे अनुसंधान और विकास भारत की सीमाओं के बाहर से आया. क्या भारत की भोजन की आत्म-निर्भरता की बहुसराहनीय उपलब्धियां छलावा हैं. खाद्य आयात पर उसकी निर्भरता खाद और पेटेंट बीजों की लत में बदल गई है जिसे प्रत्येक सीजन में विदेश से खरीदना अनिवार्य है?

खेत मजदूर जिन जहरों के साथ काम करते थे उनसे बीमार हो रहे हैं. उनकी मिट्टी की ताकत बहुत पहले ही क्षीण हो गई है. कीट आबादी और अन्य प्राकृतिक जीव लुप्त हो रहे हैं. सुब्रामण्यम यह भी बताती हैं कि हाल के वर्षो में बड़े पैमाने पर किसान आत्महत्या किसानी के इन तरीकों से उत्पन्न लागत और कर्ज की प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया है. हालांकि वह आंध्र प्रदेश में किसानों की आत्महत्याओं को पंजाबी किसानों की आर्थिक स्थिति को अपने वर्णन में स्पष्ट रूप से नहीं जोड़ती हैं और न ही वह पंजाबी किसानों में किसी आत्महत्या का उदाहरण देती हैं जिन्होंने नए कृषि तरीकों को इच्छापूर्वक पहले अपनाया था.

फिर भी, सुब्रामण्यम की जांच का जोर मानव स्वास्थ्य और भूमि की पर्यावरण सम्बंधी अखंडता पर केंद्रित है. उदाहरण स्वरूप, उर्वरता और कीटों से फसलों को सुरक्षित रखने के लिए रासायनिक जहर का प्रयोग, पेटेंट बीज और रसायन के बहुराष्ट्रीय आपूर्तिकर्ता किसानों को आर्थिक निर्भरता की स्थिति में रखते हैं. वह दर्शाती हैं कि किस तरह हरित क्रान्ति के परिणाम अधिक पैदावार से बहुत परे थे जिसने किसानों के जीवन के बारे में लगभग सब कुछ, बेहतर और बदतर दोनों को, बदल दिया. सुब्रामण्यम के सूचनादाताओं में से एक किसान अमरजीत शर्मा कहते हैं, “कृषि व्यापार मानसिक, बौद्धिक और पर्यावरणीय उपनिवेश है. हरित क्रांति किसानी में बहुत से बदलाव लाई. केवल रसायन ही नहीं बल्कि ट्रैक्टर, डीजल, बैंक और तकनीकी वाणिज्यिक बैंकिंग की पूरी प्रविष्टि भी”.

पंजाब में शर्मा भाइयों ने अन्य किसानों की बढ़ती हुई संख्या के साथ जैविक खेती की तरफ लौटने का फैसला लिया. इस प्रयास में हर किसान के अपने कारण थे जो भयानक चुनौती साबित हुआ. जिन जैविक फार्मा का सुब्रामण्यम ने दौरा किया उनके बारे में बताया कि बिना रसायन का प्रयोग किए शुरूआती साल कमजोर रहे, पैदावार में निराशाजनक गिरावट आई. लेकिन लगभग चौथी साल जब उन्होंने अपनी मिट्टी को सावधानीपूर्वक फिर से पुष्ट बनाया और उर्वरता बहाल की तो पैदावार बढ़ने लगी. सुब्रामण्यम अपनी रिपोर्ट में कई किसानों का जिक्र करती हैं. वे लोग जो खेती में पीढ़ीगत अनुभव के साथ जानकार पृष्ठिभूमि से आए उन्हें अपने प्रयासों में सफलता मिल रही थी– बावजूद इसके कि उन्हें पीढ़ियों पहले प्रयोग से बाहर हो चुके पारंपरिक खेती के तरीकों को फिर से समझना पड़ा.

फिर भी, उनकी सफलता बहुत खास है. इन जैविक फार्मों में से किसी की पैदावार औद्योगिक कृषि विधियों का प्रयोग करने वालों के बराबर नहीं हुई और जैविक कृषि कार्य अधिक श्रम नियोग साबित हुआ. हालांकि औद्योगिक खेती में लागत बढ़ाए बिना उनके वित्त पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ा था, वे आत्म निर्भर हो गए थे और अब जो काम वे कर रहे थे उससे बहुत संतुष्ट थे. जब सुब्रामण्यम ने पूछा कि क्या उन्हें विश्वास है कि जैविक खेती देश को खिलाने के लिए पर्याप्त पैदावार दे सकती है तो कुछ पूरी तरह विश्वस्त थे कि ऐसा हो सकता है जबकि अन्य को उतना ही विश्वास था कि अकेले जैविक खेती कुछ कम पड़ जाएगी.

कुछ किसानों का कहना थी कि समस्या का एक भाग जैविक खेती के लिए संस्थानिक सहयोग की कमी से है जो ऐतिहासिक रूप से औद्योगिक किसानों को मिली थी. किसान विनोद ज्यानी ने उनसे बताया, “रासायनिक ढंग से खेती करने वालों को अनुदान मिलता है, मुझे कोई अनुदान नहीं मिलता”.

सुब्रामण्यम आगे कहती हैं, सब्जि़यों पर सब्सिडी (आर्थिक सहायता) क्यों नहीं हैॽ संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में भी किसानों को यह शिकायत है जहां कृषि नीति सोयाबीन, गेहूं, कपास और मकई जैसी फसलों का समर्थन करती है. इन फसलों का अधिकांश भाग जानवरों को खिलाने या मकई का शर्बत बनाने के लिए उगाया जाता है. जबकि खाद्य चक्र में स्वास्थ्यवर्धक मानी जाने वाली सब्जियां और फलों को “विशेष प्रकार की फसल” का लेबेल लगाकर परोसा जाता है.

सुंदरबन में एक महिला अपने गांव में ज्वारभाटा से नष्ट हुए अवशेषों के सामने खड़ी हुई. अरको दत्तो

जैविक किसान, अनुसंधान समर्थन की कमी से भी पीड़ित हैं. सुब्रामण्यम बताती हैं,

विनोद ज्ञानी ने मुझे बताया कि पूरे भारत में अस्सी हजार वेतन भोगी कृषि वैज्ञानिक हैं और उनमें से 99 प्रतिशत रासायनिक खेती पर शोध कर रहे हैं. जैविक खेती के लिए शोध करने वाला कोई नहीं है. यही शिकायत राचेल कार्सन ने आधी शताब्दी पहले की थी जब उन्होंने ‘साइलेंट स्प्रिंग’ में रिपोर्ट की थी कि 98 प्रतिशत अमेरिकी आर्थिक कीट विज्ञानी 1960 में रासायनिक कीटनाशकों पर शोध कर रहे थे.

सुब्रामण्यम इस सवाल के ठोस और सबूत–आधारित जवाब ढूंढने की पूरी कोशिश करती हैं कि क्या जैविक खेती भारत की बढ़ती हुई आबादी को पर्याप्त खाद्य सामग्री उपलब्ध करा सकती है. दुखद है कि उन्हें केवल यह जानकारी मिलती है कि इस सवाल पर वास्तविक अध्ययन की कमी है और आंकड़ों का अभाव है. जबकि कथानक और कुछ अनुभव आधारित प्रमाण बताते हैं कि जैविक खेती उससे कहीं अधिक पैदावार दे सकती है जितना हममें से कई लोगों का अनुमान है. इसका कोई निश्चित प्रमाण नहीं है कि भारत की वर्तमान आबादी या दुनिया के लिए यह अकेले भोजन का प्रबंध कर सकती है, नौ बिलियन लोगों की बात तो बहुत दूर है जिसकी कुछ भविष्यवक्ता शताब्दी के मध्य तक होने की आशा करते हैं.

लेकिन फिर, बहुत संभव है कि मध्य शताब्दी की हमारी दुनिया, जैसा भविष्यवक्ता मानते हैं, उससे बहुत भिन्न हो. जनसंख्या के अनुमान बढ़ते पर्यावरणीय संकटों और उनके परिणामों को स्पष्ट नहीं करते. खाद्य उत्पादन के प्राथमिक तौर तरीके जैसे खेती और समुद्री फसल में बढ़त के बजाए कमी आने की आशंका है. यह देखते हुए कि तब हम ऐसे पर्यावरण में निवास कर सकते हैं जो आज से बहुत भिन्न होगा, यह कल्पना करना वाजिब है कि दुनिया उन अतिरिक्त 1.5 बिलियन लोगों के लिए अनुमानित समय पर भोजन नहीं जुटा पाएगी. यद्यपि यह तथ्य अक्सर नकार दिया जाता है. यही समय है कि स्वीकार किया जाना चाहिए कि दुनिया पहले ही अपनी मानव वहन क्षमता पार कर चुकी है. दशकों से हमारी संख्या ग्रह पर बोझ है; बहुत पहले ही हमारे संसाधनों के उपभोग और व्यर्थ उत्पादों ने अपने जटिल गठजोड़ और चक्रों का संतुलन बिगाड़ना शुरू कर दिया था.

गौरतलब है कि धरती पर पाए जाने वाले कुल स्तनपायियों का 36 प्रतिशत मनुष्य हैं. वध के लिए निर्धारित गाय और सुअर समेत हमारे पालतू जानवरों का हिस्सा मिलकर 60 प्रतिशत और है. सभी जंगली स्तनधारियों का चार प्रतिशत बचता है जिसमें प्रत्येक बचे हुए हाथी, व्हेल, गेंडा, चूहा, समुद्री गाय, बंदर, अमेरिकी हिरन और हजारों अन्य जानवर शामिल हैं. वास्तव में हम मानव और हमारे पशुधन संयुक्त रूप से तमाम सरीसृप, उभयचर, पक्षियों से अधिक भारी हो जाते हैं. हमारी फूली हुई मानव आबादी अप्राकृतिक रूप से धरती की पर्यावरणीय प्रणालियों को तोड़–मरोड़ और अस्थिर कर रही है. हम इस बात पर बल देते रहे हैं कि धरती और लोगों को समाए रख सकती है क्योंकि जीवित रहने के लिए हम हमेशा अपने खाद्य उत्पादन को बढ़ाने में सक्षम रहे हैं. लेकिन यह एक झूठ है जो खेदजनक रूप से उछाली गई समस्या के अधूरे उपायों के कारण है. कुछ दशकों का अंतराल है लेकिन अब हमें अपने सामूहिक बोझ के झटके महसूस होना शुरू हो गए हैं. जैसे-जैसे हमारे आसपास जीवन प्रणाली का पतन हो रहा है वह हमारी तबाही के लिए भी चेतावनी है. हमें अवश्य ही इस सच्चाई का सामना करना चाहिए कि वर्तमान जनसंख्या अपोषणीय है.

जैविक खेती या किसी अन्य मुद्दे पर जो सवाल सुब्रामण्यम ने उठाए हैं उनका पूरा जवाब या समाधान वह प्रस्तुत नहीं करती हैं. जैविक खेती को अपनी उत्पादकता के लिए तकनीकी बाधाओं और सीमाओं का सामना करना है. जोहड़ों का उपयोग कर के जल उपज और जल भराई पानी के अधिकार और नागरिक सहयोग पर राजनीतिक सवाल खड़े करती है. अत्यधिक आबादी का बोझ सांस्कृतिक प्रवृत्तियों, महिलाओं और उनकी प्रजनन क्षमता के आसपास फंसा रहता है. प्रकृति–संरक्षण के प्रयास, जैसा वह भारतीय गिद्धों की आबादी के पुनर्जीवित करने के प्रयास का वर्णन करते हुए कहती हैं, आम जनता में स्वभाविक संसार के प्रति अज्ञानता और उदासीनता द्वारा बाधित होते हैं. लेकिन समाधान की कठिनाइयां हमें आश्चर्यचकित नहीं करतीं. सच्चाई यह है कि मानव कल्याण और निरंतरता के जटिल सवालों का कोई सीधा या सरल जवाब नहीं है जो हर वातावरण में समान रूप से लागू हो सके. प्रत्येक प्रौद्योगिकी या हस्तक्षेप की लागत होती है, और प्रभावी निष्कर्षण के इंजनों में पिछले प्रयासों को सरल और कारगर बनाने की प्रक्रियाओं की लागतें अब अपनी कीमत वसूल कर रही हैं. यह दीर्घकालिक पर्यावरणीय या सामाजिक लागतों को देखे बिना केवल पहला सवाल पूछने और साधारण जवाब से संतुष्ट होने की विरासत है.

जिस पर सुब्रामण्यम खास ध्यान देती हैं वह है छोटे समूहों और व्यक्तियों की आश्चर्यजनक शक्ति, जिन्होंने अपने स्थानीय सामूहिक में निवेश किया है और स्वंय के भाग्य को नियंत्रित करने के लिए काम किया है. वंदना शिवा और अन्य पर्यावरण कार्यकर्ताओं की भांति वह पारंपरिक ज्ञान की प्रासंगिकता को रेखांकित करती हैं जिसे अधिक धारणीय, स्थानीय निर्मित तकनीकों और प्रौद्योगिकियों के उत्पादन के लिए आधुनिक विज्ञान के साथ जोड़ा जा सकता है जो जीवन को बेहतर बनाने की दिशा में दूर तक जाती हैं. हालांकि संवेदनशील विनियमन और प्रवर्तन की सख्त जरूरत भी बनी रहती है. जैसा कि सुब्रामण्यम कहती हैं, “न तो जवाहरलाल नेहरू के नीचे से ऊपर तक विशालकाय औद्योगीकरण के बारे में सोचिए और न ही गांधी के साधारण कल्पित कृषि आदर्श के बारे में. इसके बजाए इन दोनों की बेहतरीन चीजें ले लीजिए”.

जहां भी मिलें, सभी समाधानों से बेहतरीन चीजें ले लीजिए, उनको स्थानीयता दिजिए और संसाधन अधिग्रहण, उत्पादकता, संचालन जैसे सभी क्षेत्रों में खोज और नवीनीकरण जारी रखिए. बजाए आसान उत्तर को स्वीकार करने के नए सवाल पूछना जारी रखें जो हमारी कुशलता के समीकरण के अव्यवस्थित भागों के “बहिर्भावों” को छोड़ देते हैं. अधिकतम पैदावार और कॉरपोरेट मुनाफे के बजाए, जैसा कि हम वर्तमान में कर रहे हैं, हमें उत्पादकता के साथ-साथ निरंतरता के लिए अनुकूलन अवश्य सीखना चाहिए. कोई शक नहीं है कि यह मुश्किल होगा. शर्त यह है कि सभी सामाजिक, सरकारी और आर्थिक ढांचे अपनी जगह कायम रहें. यह क्रान्तिकारी होगा बल्कि हो सकता है कि आवश्यक भी साबित हो.

इसी बीच, पुराने प्रतिमानों की अधिक समृद्ध दुनिया में भारत निरंतरता को सम्बोधित करने के लिए क्या कर रहा है? यहां कहानी कांग्रेस और बीजेपी दानों के नेतृत्व वाली सरकारों के अंतर्गत पिछले दशक के मिश्रित आंकड़े दर्शाती है. उत्सर्जन को कम करने पर सहयोग का विरोध करते हुए भी यह मनमोहन सिंह की सरकार थी जिसने साफ पर्यावरण, जिसे पहले साफ ऊर्जा या कोयला कहा जाता था पर उपकर लगने की शुरूआत 2010 में की थी. जिसका व्यापक रूप से कोयला ऊर्जा के निरुत्साहन के बतौर अभिवादन किया गया. हालांकि इसे “प्रदूषक के भुगतान” के सिद्धान्त पर आधारित माना जाता था लेकिन इसके लक्ष्यहीन होने के कारण इसकी आलोचना भी की गई थी क्योंकि कोयला खनन कंपनियां खुद कोई कष्ट उठाए बिना अंततः लागत को आसानी से साधारण उपभोक्ता पर स्थानांतरित कर सकती थी. उपभोक्ता के लिए बाजार में अधिक महंगी कोयला ऊर्जा खरीदना जारी रखने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था. इस तरह यह एक अधपकी योजना लगती है यद्यपि यह पूरी तरह गुणरहित नहीं है. बीजेपी सरकार ने 2016 में कोयला उपकर दोगुना कर दिया.

इस योजना से अर्जित धन का गैर–परिवर्तनीय राष्ट्रीय स्वच्छ ऊर्जा एंव पर्यावरण निधि के हिस्से में आना अपेक्षित है जिसका उद्देश्य नवीनीकरण योग्य और स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के विकसित करने और साथ ही अन्य पर्यावरणीय योजनाओं में समर्थन देना है जिसमें स्मार्ट सिटी का विकास और ठोस कचरा प्रबंधन भी शामिल है. लेकिन 2010 से जमा पैसों का 29 प्रतिशत से भी कम इस निधि को दिया गया और केवल उसका एक भाग अपेक्षित योजनाओं को मिला बाकी पैसों का कोई अता-पता नहीं है. निधि के बाकी भाग को असम्बद्ध लक्ष्यों के लिए रख दिया गया. इसने पर्यावरण पहलकदमियों को आगे ले जाने हेतु एनसीईएफ की निधि को खाली कर दिया. सरकार ने भारत में स्वच्छता, हरियाली और उत्सर्जन में कटौती की जो भी लोकलुभावन बातें की हों निधियों का पुनर्निर्देशन उसका खंडन करता है.

इस बीच मोदी सरकार के अंतर्गत नवीनीकरण योग्य ऊर्जा के स्रोतों का विस्तार स्थिर रहा है. इसके कार्यकाल में नवीनीकरण योग्य ऊर्जा में 47 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है जबकि कोयला आधारित ऊष्मीय ऊर्जा का 18 प्रतिशत विस्तार हुआ है. कोयले का इस्तेमाल अब भी बढ़ रहा है और 2040 तक इससे जुड़े ग्रीन हाउस उत्सर्जन के दोगुना होने के साथ ही इसके भी दोगुना होने की आशा है. 2026 तक 7 नए प्रमाणु संयंत्रों के ऑनलाइन आने की योजना के बावजूद यह एक सच्चाई है, विकास की यह दर बहुत कम और बहुत धीमी है. नीति आयोग द्वारा 2017 पर आधारित एनर्जाइजिंग इंडिया रिपोर्ट, जिसमें 2047 तक भारत की मिश्रित ऊर्जा का आकलन करने के लिए कई संभावित आर्थिक विश्लेषण किए गए, बताती है कि इस मामले में सबसे बेहतर अनुमान यह है कि कोयला अब भी कुल बिजली उत्पादन का 38 प्रतिशत है जबकि नवीनीकरण योग्य केवल 26 प्रतिशत और परमाणु ऊर्जा दो प्रतिशत से अधिक नहीं है.

वैकल्पिक अनुमान और भी धूमिल हैं. रिपोर्ट कहती है कि 26 प्रतिशत अतिरिक्त बिजली, प्राकृतिक गैस से आएगी जो खुद भी जीवाश्म ईंधन है. हालांकि कोयले की तुलना में यह कम प्रदूषक है. यह प्रतिक्रिया बहुत अपर्याप्त है. अगर भारत को कोयला, तेल और गैस को 2050 तक क्रमशः पूरी तरह समाप्त करना है, जैसा कि आईपीसीसी की हालिया रिपोर्ट अनुशंसा करती है, तो भारत में परमाणु ऊर्जा में तेज वृद्धि की जरूरत है क्योंकि केवल नवीनीकरण योग्य ऊर्जा जीवाश्म ईंधन ऊर्जा की भरपाई करने में समर्थ नहीं है.

हालांकि, वर्तमान योजना भारत के बढ़ते हुए सकल घरेलू उत्पाद (उत्सर्जन तीव्रता) की तुलना में इसकी उत्सर्जन दर को कम करने में सहायता कर रही है ताकि यह पेरिस जलवायु प्रतिबद्धताओं के साथ बना रहे. अपनी विनम्र उपलब्धियों की वजह से भारत केवल उन मुट्ठी भर देशों में से एक है जिसने तीन शोध संगठनों द्वारा किए गए स्वतंत्र विश्लेषण के मंच क्लाइमेट एक्शन ट्रेकर से स्वीकार्य रिपोर्ट कार्ड अर्जित किया है. लेकिन इसमें जश्न मनाने का कोई कारण नहीं है. यह याद रखा जाना चाहिए कि पेरिस संकल्प वैश्विक औसत तापक्रम वृद्धि को 2 डिग्री गर्म होने से काफी नीचे रखने के लिए पर्याप्त नहीं है. जब तक कि हमारे वाहनों को पूरी तरह बिजली से चलने वाली गाड़ियों के समूह में न बदला जाए ऊर्जा ग्रिड में परिवर्तन यातायात में जलाए गए जीवाश्म ईंधन से छुटकारा देने में सहायक नहीं हैं. लेकिन 2050 तक कार्बन शून्यता तक पहुंचने के आईपीसीसी के नवीनतम आह्वान से पहले एनर्जाइजि़ंग इंडिया की रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी. हम केवल आशा कर सकते हैं कि सरकार उसके अनुसार शीघ्रता से लक्ष्यों का निर्धारण करेगी. इसके अलावा इन सभी सुधारों को केवल पत्थर के पायदान समझा जाना चाहिए. कोई इकलौती ऊर्जा या यातायात रणनीति ग्रह को बचाने के लिए जादुई गोली नहीं है. सभ्यता और अर्थव्यवस्थाओं को अलग तरह की दुनिया के अनुकूल ढलने के लिए सोचने और बनाने के विभिन्न रास्तों की निरंतर तलाश करते रहना चाहिए.

इसके अलावा, यह बारबार याद रखना चाहिए कि जलवायु केवल पर्यावरण की चिंता का विषय नहीं है. ग्रीनहाउस गैस पैदा करने के अलावा कोयला ऐसे सूक्ष्म कण पैदा करता है जो मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा है. कोयले का बढ़ता हुआ खनन और दहन पूरे उत्तर भारत में वायु प्रदूषण के पहले से अस्वीकार्य स्तर को और बिगाड़ देगा. हर साल सूक्ष्म कण वाले वायु प्रदूषण के कारण जीवन, आजीविका और स्वास्थ्य को होने वाले नुकसान की कीमत भारत के 3 प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद के बराबर है. यह ऐसी चिंता है जो कोयला विस्तार की वर्तमान योजनाओं की ओर जाते हुए सरकार की गणनाओं या विकास चिंताओं में अपने अनुपात के अनुसार जाहिर होती दिखाई नहीं पड़ती. जहां एक तरफ सरकार कोयले की खोज के लिए धनराशि बढ़ाती है ठीक उसी समय इसने कोयला खदानों में संरक्षण, सुरक्षा और आधारभूत विकास के लिए धनराशि को घटा दिया है. जब कॉर्बन उत्सर्जन (लेकिन सूक्ष्म कण वायु प्रदूषण के लिए नहीं) के साथ संतुलन बनाए रखने के लिए सरकार ने पूरे भारत में एक दिन में एक मिलियन पौधे लगाने का बेड़ा उठाया है, जो विश्व रिकार्ड है, लेकिन यह जैव विविधता को बचाने के सम्बंध में प्राकृतिक वन क्षेत्र के पुनरुत्थान या संरक्षण के बराबर नहीं है. पर्यावरणीय चिंता के अन्य क्षेत्र भी पीछे छूटे हुए हैं जिसमें नदियों और अन्य प्राकृतिक जलमार्गों की सफाई और पुनरुत्थान शामिल हैं. सघन खेती के कारण पर्यावरणीय क्षरण या वर्षा जल संचयन के लाभ या जोहड़ प्रणाली के विस्तार पर अधिक बातचीत भी नहीं होती है.

भारत बहुत कुछ कर सकता है. बिजली वाहनों को अपनाने और सार्वजनिक परिवहन को प्रोत्साहन प्रदान कर, परिवहन क्षेत्र को पूरी तरह सही दिशा में किया जा सकता है. यह जीवाश्म ईंधन दहन वाहनों को अप्रोत्साहित करेगा. समय बिताने के लिए सार्वजनिक परिवहन को व्यापक रूप से बढ़ाने और टहलने योग्य आधारभूत ढांचे समेत सभी उपाय करने के सुझाव दिए गए हैं लेकिन इनके प्रति राजनीतिक इच्छाशक्ति पैदा नहीं हो पाई. तरलीकृत पेट्रोलियम गैस को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के लक्ष्य से भोजन बनाने के लिए सभी घरों को साफ ग्रिड से स्थाई बिजली प्रदान करें न कि उसको बढ़ावा दें जैसा कि वर्तमान योजनाओं के अनुसार हो रहा है. वर्षा जल को संरक्षित करें और आर्द्रभूमि और गाद, पोषण तत्व और वन्य जीव के प्राकृतिक बहाव को बहाल करने के लिए नदियों के प्रवाह को मुक्त करें.

दिल्ली में मेट्रो को सौर ऊर्जा में रूपांतरित करना और कोच्चि में हवाई अड्डे का सौर ऊर्जा संचालन प्रशंसनीय उपलब्धियां रही हैं. लेकिन यह छिटपुट उपलब्धियां काफी नहीं हैं. देश में अन्य उपायों को अपनाने के लिए उन्हें आदर्श होना चाहिए. विकास की कल्पना निरंतरता के संदर्भ में की जानी जरूरी है जैसे पर्यावरण की सफाई, रिक्त स्थानों का पुनः वनीकरण, सभी क्षेत्रों से जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को अतिशीघ्र कम करना. चूंकि भारत अभी अपने बुनियादी ढांचे का निर्माण कर रहा है इसलिए इसके पास पश्चिम की गलतियों से बच निकलने और अपने परिवहन और ऊर्जा की उपयोगिताओं को साफ सुथरे बुनियादी ढांचे में तबदील करने का अवसर है. यह सभी वे तकनीकें हैं जो आज चलन में हैं और बचे हुए 11 साल के अंतराल के भीतर लागू की जा सकती हैं. सुब्रामण्यम बताती हैं, “भारत के पास न केवल अपने लिए आगे का रास्ता बनाने का अवसर है बल्कि ऐसा रास्ता बनाने का भी जिसका संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन और अन्य देश, हरित क्रान्ति, बहुत बड़े बांधों के विघटन, अकाल में दृश्य भूमि की प्यास के समाधान को प्रभावी ढंग से सम्बोधित करने के लिए, अनुसरण कर सकते हैं”.

केवल सुब्रामण्यम ही उस दिशा में नहीं देख रही हैं. जैसे-जैसे और अधिक लोग हम पर भविष्य में पड़ने वाले संभावित दुष्प्रभावों को समझने लगे हैं यह साहसी कल्पना बहुत आम होती जा रही है. एलायंस ऑफ वर्ल्ड साइंटिस्ट के संरक्षण में साइंटिस्ट वार्निंग संस्था चलाने वाले स्टुअर्ट स्कॉट ने 2016 में संयुक्त राष्ट्र जलवायु कांफ्रेंस 22 को सम्बोधित किया जहां उन्होंने उपस्थित जन को पर्यावरणीय अर्थशास्त्र का अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित किया, यह इस बात पर आधारित था कि संसाधन सीमित हैं और आर्थिक गतिविधि को पर्यावरण का वशीकरण नहीं करना चाहिए. यह बात मूल्यांकन योग्य है कि यह शून्य–विकास आर्थिक आदर्श हमारे और दुनिया के लिए लाभ की क्या नई संभावनाएं हैं.

भारत को सार्वजनिक परिवहन और शहर के बुनियादी ढांचे का विस्तार करते हुए जीवाश्म ईंधन से चलने वाले वाहनों को हटाने का प्रयास करना चाहिए. रसेल चौधरी

जिन समुदायों का सुब्रामण्यम ने अध्ययन किया उन्हें अपने सामने मौजूद चुनौतियों का सामना करते देख उन्होंने खुद कई बार निराशा महसूस की. फिर भी जितने लोगों से वह मिलीं उनके साहस और प्रतिरोध क्षमता ने विस्मयपूर्ण आदर उत्पन्न कर दिया.

वह लिखती हैं,

जब मैंने पूरे उपमहाद्धीप का दौरा किया, जिनसे मैं मिली लगभग सभी से पूछा, “क्या आप उम्मीद रखते हैं”? राजस्थान की झील के किनारे बैठकर चाय पीते हुए मैंने जीवविज्ञानी मुनीर और पैट्रिक से पूछा. मैंने उस कार्यकर्ता से जो बेंगलुरू में मिला था और चेन्नई के महामारी विज्ञानी से भी पूछा. मैंने पिंकी और विनोद से कार में पटना वापस आते हुए और पंजाब के खेतों में अपने साथ बैठे किसानों से पूछा. कुछ ने बहुत स्पष्टता से ‘हां’ में जवाब दिया, अन्य ने गुंजायमान ‘न’ में, लेकिन अक्सर हिचकिचाहट भरे जवाब मिले. खासकर जब लोग जवाबों को आशावादी आवरण (लेकिन वह हमेशा आश्वस्त करने वाले नहीं थे) देने का प्रयास करते थे.”

राजस्थान में कुछ बदल गया …मैंने महसूस किया कि शुरू से मैं गलत सवाल पूछ रही थी.

मैं आशा (hope) का प्रयोग संज्ञा के तौर पर कर रही थी जबकि मुझे क्रिया के तौर पर करना चाहिए था, किसी सक्रिय और चलती हुई चीज के तौर पर. मैं आशा (hope) का प्रयोग किसी रखी जाने वाली वस्तु की तरह कर रही थी, कोई चीज जो या तो आपके पास थी या आप उससे वंचित थे. बजाय यह पूछने के “क्या तुम आशा रखते हो”? मुझे पूछना चाहिए था “क्या तुम आशा करते हो”? …

आशा करना काम करना भी है, और अब भारत के लिए सक्रियता दिखाने समय है. अब समय एक नई अर्थव्यवस्था बनाने का है जो देश के लोगों के लिए बेहतरी लाती हो और अपूर्णीय प्राकृतिक संसाधानों की सुरक्षा भी करती हो.

(यह निबंध द कैरैवन के जून अंक में प्रकाशित कवर स्टोरी है. निबंध का अनुवाद मसीउद्दीन संजरी ने किया है.)


ऊषा अलेक्जेंडर वैज्ञानिक और सिलीकन वैली प्रफेशनल के बतौर काम कर चुकी हैं. फिलहाल गुरुग्राम में रहती हैं और दो उपन्यास, द लेजन्डऑफ विरिनारा और ओनली द आइज आर माइन, की लेखिका हैं.