26 जुलाई को राज्यसभा में बीजेपी सांसद राकेश सिन्हा ने वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव से वनभूमि से जुड़े हुए पांच महत्वपूर्ण सवाल पूछे. जिनके जवाब में नव नियुक्त मंत्री ने भ्रामक और तथ्यहीन जवाब प्रस्तुत किए.
इन जवाबों को भ्रामक कहने के पीछे कुछ बुनियादी स्थापनाओं को समझना जरूरी है. देश में वनों के क्षेत्रफल को लेकर हमेशा से विवाद रहा है. इसकी वजह वन क्षेत्रों का विवादित इतिहास रहा है. ये आजादी से पहले से ही चले आ रहे हैं.इन विवादों के पीछे न केवल औपनिवेशिक विरासत है बल्कि आजादी के बाद हिंदुस्तान में वनों को लेकर कोई स्वतंत्र और संवेदनशील नीति न अपनाया जाना भी रहा.
हालांकि बीजेपी सांसद राकेश सिन्हा ने अपने सवालों के माध्यम से उन विमर्शों को पुन: सतह पर ला दिया है जो 2006 में वन अधिकार कानून वजूद में आने के बाद से इतिहास की कंदराओं में दफन हो गए थे. राकेश सिन्हा ने कुल पांच सवाल पूछे थे जिनमें,(क) वन को किस प्रकार से परिभाषित किया जाता है? और उसका कोई विनिदृष्ट मानदंड है?(ख) देश में राज्यवार कुल वन क्षेत्र तथा बंजर भूमि क्षेत्र कितना-कितना है?(ग) भारतीय वन अधिनियम,1927 की धारा धारा-4 के अधीन भूमि का राज्यवार क्षेत्रफल कितना है?(घ) वन भूमि का कितना क्षेत्रफल विवाद ग्रस्त है? और उन पर व्यक्तियों या गांवों द्वारा दावा किया जा रहा है? और ड.) ऐसे विवाद का निपटारा करने हेतु क्या कदम उठाए गए हैं?
गौरतलब है कि ये सभी सवाल उस वक्त उठाए जा रहे हैं जब देश में वनधिकार कानून को लागू हुए 13 साल बीत चुके हैं. संविधान के 73वें व 74वें संशोधन को 30 साल होने जा रहे हैं.5वींअनुसूचीक्षेत्रों में लागू पेसा कानून इस वर्ष दिसंबर में 25 साल पूरे करने जा रहा है. संविधान की 9वींअनुसूची, 5वींअनुसूची और 11वीं अनुसूची 1950 से देश में लागू हैं. संविधान के अभिन्न हिस्सों, और संसद द्वारा पारित कानूनों का जिक्र यहां इसलिए करना प्रासंगिक है क्योंकि इन तमाम सांवैधानिक व कानूनी प्रावधानों का सीधा ताल्लुक राकेश सिन्हा द्वारा पूछे गए सवालों से है.ये समस्त प्रावधान किसी ने किसी रूप में वन क्षेत्रों में बसे स्थानीय समुदायों के सामुदायिक अधिकारों को मान्यता देते हैं. विशेष रूप से वन अधिकार कानून, 2006 का मूल उद्देश्य ही स्थानीय समुदायों को वन क्षेत्रों में उनके ऐतिहासिक अधिकारों को मान्यता देना है.
राकेश सिन्हा के सवालों के जवाब में भूपेंद्र यादव ने जो जवाब देश की संसद को दिए हैं उनमें सबसे उल्लेखनीय बात है कि कहीं भी वन अधिकार या पेसा कानून का जिक्र नहीं है. कम से कम राकेश सिन्हा के अंतिम सवाल का जवाब बिना वनाधिकार कानून का जिक्र किए पूरा नहीं हो सकता था. इसकी वजह यह है कि इस कानून में वन भूमि को वजफ्ता परिभाषित किया गया है. इस कानून के अनुसार,“वन भूमि से किसी वन क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली किसी प्रकार की भूमि अभिप्रेत है और उसके अंतर्गत वर्गीकृत वन, असीमांकित विद्यमान वन या समझे गए वन, संरक्षित वन, आरक्षित वन, अभयारण्य और राष्ट्रीय उद्यान भी हैं”.
भूपेंद्र यादव ने संसद को राकेश सिन्हा के पहले सवाल के जवाब में बताया कि ‘’वन’ शब्द किसी केंद्रीय वन अधिनियम नामश: भारतीय वन अधिनियम, 1927 या वन संरक्षण अधिनियम, 1980 में परिभाषित नहीं किया गया. केंद्र सरकार ने वन को परिभाषित करने के लिए कोई मानदंड निर्धारित नहीं किया है”.
भूपेंद्र यादव का यह जवाब अंशत: सही होते हुए भी भ्रामक है कि मौजूदा अधिनियमों में वन को परिभाषित नहीं किया गया है लेकिन 1996 के बाद से जब से देश के सर्वोच्च न्यायालय ने गोदबर्मन थिरुमुल्पाद बनाम भारत सरकार (202/1995) में स्पष्ट तौर पर यह आदेश दिया कि ऐसे किसी भी क्षेत्र को जो शब्दकोश के अनुसार वन हो, उसे वन संरक्षण कानून के अधीन लाया जाए, उस वन क्षेत्र की अभिलेखों में दर्ज वैधानिक स्थिति जो भी हो.कैम्ब्रिज डिक्शनरी के अनुसार ‘वन से आशय ऐसे भू-क्षेत्र से है जहां वृक्षों का घनत्व सामान्य से अधिक है”. यानी जहां भी कुछ पेड़ हैं उसे वन मानते हुए 1996 के बाद से सर्वोच्च न्यायालय ने इस क्षेत्र को वन क्षेत्र माना है.
1996 के बाद वन और वन भूमि को लेकर शुरू हुईं कार्यवाहियां इस आदेश के तहत ही जारी हैं. अत: वन की परिभाषा सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से देश में अपना ली गई है. ऐसे में वन की परिभाषा के संबंध में दिया गया जवाब न केवल भ्रामक है बल्कि पुरानी जानकारियों पर आधारित है.
राकेश सिन्हा के दूसरे सवाल के जवाब में भूपेंद्र यादव ने 2019 में प्रकाशित भारतीय वन सर्वेक्षण द्वारा जारी भारतीय वनों की स्थिति रिपोर्ट के हवाले से राज्यों व केंद्र शासितप्रदेशों द्वारा प्रतिवेदित आंकड़े प्रस्तुत किए. भारतीय वन सर्वेक्षण, देहरादून वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अधीन कार्यरत एक संस्था है जो देश में वनों की स्थिति का लेखा-जोखा रखती है और राज्यों व केंद्र शाषित प्रदेशों के साथ समन्वय करती है.
2019 में जारी हुई रिपोर्ट पर विवाद रहे हैं. इसकी मूल वजह यह है कि इस रिपोर्ट में राज्यों व केंद्र शासितप्रदेशों द्वारा मुहैया कराए गए उन जमीनों और क्षेत्रों के आंकड़ों को शामिल किया गया है जिनकी वैधानिक स्थिति स्पष्ट नहीं है. यानी जिन्हें राज्यों व केंद्र शाषित प्रदेशों ने वन-क्षेत्र माना है वह जरूरी नहीं है कि वैधानिक रूप से वन भूमि ही हों. और इसके उलट जहां वन नहीं हैं वह जमीन भी वन भूमि ही हो.
27 जनवरी 2020 को स्क्रॉल में ऋषिका परिधार की प्रकाशित रिपोर्ट में 2019 की भारतीय वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट पर गंभीर सवाल उठाए हैं. ऋषिका के अनुसार सरकारी रिपोर्ट में बताया गया है कि देश में कुल 767419 वर्ग किलोमीटर जमीन (देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 29.5 प्रतिशत) वन क्षेत्र के रूप में दर्ज है. जिसमें से 226542 वर्ग किलोमीटर जमीन पर ‘वन’ (शब्दकोषीय परिभाषा के तहत भी) नहीं हैं. चूंकि यह रिपोर्ट फॉरेस्ट कवर या वनाच्छादित भूमि को लेकर है अत: यह गंभीर विसंगति इस रिपोर्ट में दिखलाई पड़ती है कि जो जमीनें वनाच्छादित नहीं हैं उसे भी वन-क्षेत्र के रूप में दर्ज किया गया है.
उल्लेखनीय है कि फॉरेस्ट कवर में ऐसी जमीन शामिल होती है जो 0.01 वर्ग किलोमीटर या एक हेक्टेयर में पेड़ों का (उनकी छाया) घनत्व 10 प्रतिशत से ज्यादा हो न कि केवल वैधानिक स्थिति की वजह से उन्हें फॉरेस्ट कवर में शामिल माना जा सकता है. वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट में वन क्षेत्र के रूप में दर्ज जो जमीनें शामिल हैं उन्हें सरकार के अभिलेखों में दर्ज वैधानिक रूप से ‘वन’ को शामिल किया गया है. यहां लगता है जैसे भारतीय वन सर्वेक्षण को वनाच्छादन की वास्तविक स्थिति का पता करने में कोई रुचि नहीं है.
अभिलेखों में दर्ज वन क्षेत्र केवल इस बात की सूचना देता है कि वह क्षेत्र उस राज्य के वन विभाग के अधीन है न कि यह बताता है कि उस क्षेत्र में पेड़ों का घनत्व कितना है या वह क्षेत्र वनाच्छादित है.
एक तो प्राकृतिक संरचना और दूसरा सदियों से इन क्षेत्रों में रहीं स्थानीय समुदायों की बसाहटें और उनकी आजीविका और निस्तार के लिए बड़े इलाके ऐसे हैं जो जंगलों में होने के बावजूद पेड़ों के बिना अन्य निस्तारी कामों में इस्तेमाल होते रहे हैं. तीसरी वजह खुद सरकारें रहीं हैं जिसने विकास के नाम पर इन क्षेत्रों को तमाम आधारभूत संरचानों मसलन, बांध, सड़कें, और उत्खननन के लिए तमाम अयस्कों की खुदाई के लिए खदानें खोलने की इजाजत इन इलाकों में दी. हालांकि इस तीसरी वजह में न केवल बिना पेड़ों के वन क्षेत्र बल्कि सबसे बड़े पैमानों पर वास्तविक वन क्षेत्र को भी खत्म किया है. अब दिलचस्प पहलू यह है कि सरकार के संज्ञान में यह होते हुए भी कि कितना क्षेत्र इन तथाकथित विकास परियोजनाओं की भेंट चढ़ चुका है, अभिलेखों में उस डूबे या खदानों की भेंट चढ़ चुके क्षेत्र को वन -क्षेत्र के रूप में ही दर्ज किया जाता रहा है और यह लगभग अपरिवर्तनीय ढंग से अब भी जारी है.
तीसरे प्रश्न, भारतीय वन अधिनियम,1927 की धारा-4 के अधीन भूमि का राज्यवार क्षेत्रफल कितना है? के जवाब में भूपेंद्र यादव ने सदन को बतलाया कि भारतीय वन अधिनियम,1927 की धारा4, राज्य सरकारों द्वारा ‘आरक्षित वन’ के रूप में भूमि की प्रारंभिक अधिसूचना प्रदान करती है. यह मंत्रालय धारा 4 के अंतर्गत अधिसूचित की गई सभी प्रकार की भूमियों का रिकार्ड नहीं रखता है. तथापि भारतीय वन सर्वेक्षण द्वारा प्रकाशित 2019 में जारी की गई रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय वन अधिनियम व अन्य राज्य वन अधिनियमों के तहत संबंधित राज्य/संघ शाषित प्रदेश प्रशासनों द्वारा अधिसूचित और सूचित किए गए आरक्षित वन क्षेत्रों का राज्य/संघ शासित क्षेत्र-वार ब्यौरा (संलग्न) है.
यह एक ऐसा मुद्दा है जो संभवतया संसद के पटल पर पहली बार इतने स्पष्ट रूप में आया है.बीजेपी सांसद राकेश सिन्हा ने यह सवाल किस मंशा से पूछा होगा, अभी कहना कठिन है लेकिन हिंदुस्तान में जंगलों और उसके प्रशासन के लिए थोपी गई औपनिवेशिक व्यवस्था का सबसे बड़ा कारण वन अधिनियम 1927 की यह धारा (सेक्सन) रही है.
भारतीय वन अधिनियम, 1927 में यह प्रावधान किया गया है कि ‘सरकार किसी भी वन भूमि या पड़त (वेस्ट लैंड) को जो सरकार की संपत्ति (प्रॉपर्टी) है या उस पर सरकार के सांपत्तिक (प्रोप्राइटरी) अधिकार हैं, एक अधिसूचना के माध्यम से आरक्षित वन घोषित कर सकती है”. इस अधिसूचना को इस कानून में धारा 4 के तहत रखा गया है.
हालांकि भारतीय वन अधिनियम में महज अधिसूचना जारी कर देने मात्र से उस वन भूमि या पड़त भूमि को आरक्षित वन घोषित नहीं किया जा सकता बल्कि धारा 4 के बाद से धारा 19 तक की चरणबद्ध प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए. जब यह चरणबद्ध प्रक्रिया पूरी हो जाएगी तब धारा 20 के तहत उस भूमि को आरक्षित वन माना जा सकता है.
लेकिन इस कानून में शुरू से ही धारा 4 से लेकर धारा 19 तक की प्रक्रिया पूरी करने की कोई निश्चित या समयबद्ध मियान्द नहीं दी गई है. यहां तक कि जब 1956 और 1965 में इस कानून में अलग अलग राज्यों व केंद्र शाषित प्रदेशों ने संशोधन किए तब भी इस प्रक्रिया को लेकर कोई समयबद्धता नहीं दी.
यही एक बड़ी वजह है कि जिन राज्यों में किसी भूमि को आरक्षित वन बनाए जाने के लिए 1952 में जारी अधिसूचना के तहत धारा 19 तक की प्रक्रियाएं लंबित हैं. उन जमीनों को वन विभाग ने महज अधिसूचना के आधार पर आरक्षित वन मानते हुए अपने वर्किंग प्लान में शामिल कर लिया है.यानी उन्हें आधिकारिक तौर पर वन भूमि बताया जाने लगा.
धारा 4 की अधिसूचना राजपत्र में प्रकाशित करने के बाद क्रमश: धारा 5 से लेकर धारा 19 तक जो कानूनी प्रक्रियाएं हैं वे उन जमीनों पर बसे लोगों/समुदायों के मौजूदा अधिकारों को मान्यता देते हुए उनका न्यायोचित बंदोबस्त किए जाने के लिए हैं. पूरे देश में ये प्रक्रियाएं न के बराबर अपनाई गईं.
भूपेंद्र यादव ने संसद में दिए जवाब में देश के सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा प्रतिवेदित आंकड़े भी पेश किए. इनमें, उदाहरण के लिए, भौगोलिक क्षेत्रफल और वनों से समृद्ध मध्य प्रदेश जैसे राज्य का आंकलन करें तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि संसद में प्रस्तुत जनकारियां कितनी भ्रामक है और यह भी कि कैसे एक मंत्रालय द्वारा औपनिवेशिक व्यवस्था को आजादी के 74 सालों बाद भी बदस्तूर जारी रखा जा रहा है.
अविभाजित मध्य प्रदेश में भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 4 के बलात उपयोग से पैदा की गईं विसंगतियों पर एडवोकेट अनिल गर्ग लंबे समय से अध्ययन कर रहे हैं. उनके अनुसार “धारा 4 में अधिसूचित, आरक्षित वन बनाने के लिए प्रस्तावित धारा 5 से 19 तक की जांच के लिए लंबित आदिवासियों, किसानों की निजी भूमि, अहस्तांतरित भूमि, गैर-संरक्षित वन भूमि को संरक्षित वन के तौर पर भारतीय वन सर्वेक्षण द्वारा पेश किया जाता रहा है जो आज भी जारी है. यह महज लापरवाही या भूल नहीं है बल्कि सोची समझी साजिश है”.
इस संबंध में अनिल गर्ग ने भारतीय वन सर्वेक्षण को भी अवगत कराया है और बताया है कि इस एक भूल से प्रदेश में अनुसूचित जनजाति के किसानों की निजी भूमि को भी संस्थान द्वारा निर्मित टोपो शीट में संरक्षित बताए जाने से उनके साथ अन्याय हुए हैं.
यह भूल महज देश के वन क्षेत्र के बारे में भ्रामक जानकारियां नहीं देती बल्कि जलवायु परिवर्तन के मामलों में बनते वैश्विक एकजुटता के प्रयासों को भी अंधेरे में रखने की कोशिश करती है.
देश की सर्वोच्च अदालत ने भी गोदबर्मन मामले 202/1995 में 12 दिसंबर 1996 को जंगल मद में दर्ज किसी भी जमीन को वन भूमि के रूप में परिभाषित किया है. दिलचस्प यह है कि सर्वोच्च अदालत के संज्ञान में भी यह विसंगति नहीं आई कि जंगल मद और गैर जंगल मद में समाज के सार्वजनिक एवं निस्तारी प्रयोजनों के लिए दर्जजमीनों को पटवारी मानचित्र एवं अन्य राजस्व अभिलेखों में दर्ज समस्त जमीनों को भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 29 (संरक्षित वन बनाए जाने के लिए), धारा 4 (आरक्षित वन बनाए जाने के लिए) व धारा 34 (अवर्गीकृत वन) के तहत केवल अधिसूचित किया गया है, इनकी जांच लंबित हैं. बावजूद इसके भारतीय वन सर्वेक्षण इन जमीनों को संरक्षित वन मानते हुए अपनी टोपो शीट्स व आंकड़ों में प्रदर्शित करता है. 1980 के बाद से भारत सरकार के वन, पर्यावरण मंत्रालय ने वर्किंग प्लान में शामिल कर इन जमीनों पर नियंत्रण, प्रबंधन, विदोहन एवम आबंटन की योजना स्वीकृत कर दिए.
11 दिसंबर 2014 को मध्य प्रदेश की विधानसभा में विधायक निशंक कुमार जैन ने एक बेहद प्रासंगिक सवाल पूछा कि “क्या यह सही है कि भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 4(1) के तहत 1990 के पूर्व राजपत्र में प्रकाशित संशोधित अधिसूचना एवं वन विभाग द्वारा वर्ष 2003, 2009 व 2011 में जारी आदेशों के बाद भी धारा 5 से 19 तक की लंबित जांच पूरी नहीं हुई है”? इसके जवाब में तत्कालीन वन मंत्री श्री गौरी शंकर शेजवार ने विधान सभा के पटल पर माना कि ये ‘प्रक्रियाएं आज भी लंबित हैं’. 2011 से 2021 तक भी कुछ नहीं बदला. अपने अगले प्रश्न में निशंक जैन ने पूछा कि “ये लंबित प्रक्रियाएं कब तक पूरी होंगीं? समय सीमा बताएं”? जिसके जबाव में वन मंत्री ने कहा कि “विभिन्न स्वरूप के नियमित दायित्वों के साथ- साथ अतिरिक्त कार्य के रूप में अनुविभागीय अधिकारी (राजस्व) द्वारा पदेन वन व्यवस्थापन अधिकारी की हैसियत से अर्द्धन्यायिक प्रक्रिया के तहत वन व्यवस्थापन की कार्यवाही की जा रही है. अत: समय सीमा बताया जाना संभव नहीं है”. इस जबाव का लब्बोलुआव यह है कि इस काम के लिए कोई विशिष्ट अधिकारी या यांत्रिकी नहीं है. राजस्व विभाग के एक अधिकारी को ही इस प्रक्रिया के संचालन की अतिरिक्त जिम्मेदारी दी गई है. लेकिन नियमित कार्यों के कारण वह इसमें समय नहीं दे पाते और 1990 से पहले जारी हो चुकी अधिसूचनाओं की संपूर्ण कार्यवाही नहीं हो पा रही है. बीते 74 सालों में वन व्यवस्थापन अधिकारी (फॉरेस्ट सेटलमेंट ऑफिसर) की प्राथमिक जिम्मेदारी भी तय नहीं हो सकी है.
अनिल गर्ग बताते हैं कि “वन विभाग द्वारा भारतीय वन अधिनियम,1927 की धारा 4 का दुरुपयोग किए जाने से केवल मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ राज्यों के 72 हजार से ज्यादा राजस्व ग्रामों के निस्तार पत्रक में दर्जएक करोड़ 20 लाख हेक्टेयर सामुदायिक जमीनों में से लगभग 80 लाख हेक्टेयर सामुदायिक भूमि वनमंडलों के वर्किंग प्लान में शामिल कर लिया गया जिन्हें समस्त सामुदायिक अधिकारों से मुक्त बताकर समाज के प्रचलित अधिकारों को ‘वन अपराधों’ में तब्दील कर दिया गया”.
अनिल गर्ग कहते हैं कि “26 जनवरी 1950 से लेकर 26 जनवरी 2021 तक भारतीय गणराज्य द्वारा बनाए गए किसी भी राजस्व कानून में या उनमें हुए संशोधनों में राजस्व ग्रामों के निस्तार पत्रकों में दर्जजमीनों को भारतीय वन अधिनियम,1927 की धारा 29 व धारा 4 में अधिसूचित करने, उसके आधार पर उन्हें वर्किंग प्लान में शामिल कर संरक्षित वन के तौर पर प्रतिवेदित करने का कोई अधिकार प्रदेश शासन या संघीय सरकार द्वारा किसी भी विभाग को नहीं दिया है”.
देश के सभी राज्यों में दो विभागों (राजस्व व वन) द्वारा एक ही जमीन पर समानान्तर कार्यवाहियाँ चल रही हैं. यानी एक ही जमीन पर जो अभिलेखों के मुताबिक राजस्व जमीन है उसे राजसव विभाग अपनी संहिताओं के हिसाब से अपने प्रशासन के अधीन मानता है तो दूसरी तरफ महज अधिसूचनाओं के आधार पर वन विभाग अपने वर्किंग प्लान में शामिल करके अपने प्रशासन के अधीन मानता है और दोनों विभाग अपने-अपने अधीन जमीनों के आंकड़े पेश करते हैं. हास्यास्पद स्थिति तब बनती है जब इनका कुल योग राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल से अधिक हो जाता है. उदाहरण के लिए अविभाजित मध्य प्रदेश का कुल क्षेत्रफल सन 2000 तक 434490 वर्ग किलोमीटर है. इसमें से मध्य प्रदेश शासन का राजस्व विभाग अपने अभिलेखों में 32776576 हेक्टेयरयानी 327765 वर्ग किलोमीटर प्रतिवेदित करता है और वन विभाग 15450640 हेक्टेयर यानि 154506 वर्ग किलोमीटर प्रतिवेदित करता है. अगर इन दोनों विभागों द्वारा जारी आंकड़ों को जोड़ दिया जाए तो यह 482272 वर्ग किलोमीटर होता है. यानी 47782 वर्ग किलोमीटर ऐसी जमीन प्रतिवेदित की जा रही हो असल में है ही नहीं क्योंकि मध्य प्रदेश का कुल क्षेत्रफल ही तबउतना नहीं था.
वन एवं पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने जो आंकड़े संसद में दिए हैं उनके मुताबिक इन दोनों राज्यों में सभी प्रकार के वन (आरक्षित, संरक्षित, अवनीकृत वन का कुल योग) का क्षेत्रफल 154461 वर्ग किलोमीटर है. इसके अलावा मध्य प्रदेश में कुल पड़त भूमि 50411.99 वर्ग किलोमीटर बतलाई गई है. यह जमीन भी दोनों विभागों द्वारा प्रतिवेदित की जाती है. इस प्रकार संसद में दिए जबाव के अनुसारमध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ की कुल वन भूमि 204872.99 वर्ग किलोमीटर होती है.
दिलचस्प है कि दोनों राज्य की सरकारें अपने ही आंकड़ों में मौजूद इन विसंगतियों को नहीं समझ पाईं हैं.जमीन के आंकड़ों की यह हास्यास्पद और असाधारण बाजीगरी 1950 के बाद से ही जारी है. वन और वन भूमि के संरक्षण के नाम पर वन विभाग द्वारा लागू की गई विस्तारवादी योजनाओं और नीतियों का सम्यक मूल्यांकन कभी नहीं हुआ.
अनिल गर्ग इस मामले में बताते हैं कि “1950 में पटवारी मानचित्र एवं अन्य राजस्व अभिलेखों में दर्ज इजमेंट राइट्स के संसाधनों को तत्कालीन शासकों, मलगुजारों, जमींदारों, जागीरदारों, महलों, इलाकों, एवं दुमालाओं से भूमि-सुधार के नाम पर अर्जित तो किया गया लेकिन भारत सरकार की एक विज्ञप्ति (क्रमांक 104-जे. दिनांक 24 अगस्त 1950) के माध्यम से इन जमीनों को वन विभाग को प्रबंधन के लिए सौंप दिया. वन विभाग ने, भारतीय वन अधिनियम, 1927 का उपयोग करते हुए इन जमीनों को धारा 29 के तहत संरक्षित वन अधिसूचित कर दिया. विभाग ने औपनिवेशिक और विस्तारवादी रवैया अपनाते हुए इन अर्जित जमीनों सहित रय्यतवारी एवं मसाहती ग्रामों की सामुदायिक जमीनों को भी संरक्षित वन सर्वे में शामिल कर लिया”.
इतना ही नहीं आगे जाकर 1950 से 1975 तक वन विभाग ने इन्हीं संरक्षित वन भूमियों, गैर संरक्षित वन भूमियों और किसानों की भू-स्वामी हक़ में दर्ज निजी जमीनों को भी भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 4 में अधिसूचित किया. जिन्हें 1980 से अपने वर्किंग प्लान में शामिल करते हुए इन जमीनों को वन भूमि के तौर पर प्रतिवेदित करना शुरू कर दिया. जबकि धारा 5 से लेकर 19 तक की जांच और प्रक्रिया आज भी लंबित है.
इसकी पुष्टि हाल ही में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा गठित एक टास्क फोर्स की रिपोर्ट में हुई है. इस टास्क फोर्स ने अपनी रिपोर्ट 6 फरवरी 2020 को मध्य प्रदेश सरकार को सौंपी है. अतिरिक्त सचिव वन मंत्रालय, श्री ए. पी. श्रीवास्तव की अध्यक्षता में गठित इस रिपोर्ट पर अभी तक कोई संज्ञान नहीं लिया गया है.
इस सवाल के जबाव में भूपेंद्र यादव ने जो तथ्य प्रकट नहीं किए वे ये हैं कि अनुबंध क्रमांक 1 में प्रतिवेदित संरक्षित वन भूमि एवं अवर्गीकृत भूमि राजस्व अभिलेखों और पटवारी मानचित्र में आज भी दर्ज हैं और उन्हें राजस्व विभाग आज भी खाते की भूमि और गैर खाते की भूमि के रूप में ही प्रतिवेदित करता है.
यह केवल अविभाजित मध्य प्रदेश और अब अलग अलग मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों की नहीं है बल्कि देश के अमूमन सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों की है क्योंकि 1950 से बाद जो कार्यवाहियां हुईं वे पूरे देश में एक जैसी हैं. एक ही जमीन पर दो विभागों द्वारा समानान्तर कार्यवाहियों का इतिहास एक जैसा है.
इतिहास में थोड़ा पीछे जाकर देखें तो यही वजहें रहीं जिसे देश की संसद ने जंगलों में बसे और उन पर निर्भर समुदायों के साथ ‘ऐतिहासिक अन्याय’ होना स्वीकार किया. इन समुदायों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्यायों को दुरुस्त करने के लिए ही देश की संसद ने वन अधिकार(मान्यता) कानून,2006 पारित किया.यहां उल्लेखनीय है कि इस कानून के जरिए किसी को कोई नए अधिकार नहीं दिए जाने हैं बल्कि जो चले आ रहे अधिकार थे और मौजूदा कानूनों के दुरुपयोग से जो अधिकार छीने गए थे उन्हें ‘मान्यता’ दी जाना है. हालांकि इस क्रांतिकारी कानून को अमल में आए अब 13 साल बीत चुके हैं और इसका क्रियान्वयन महज 8-9 प्रतिशत ही हो पाया है. इस कानून को भी भरसक कमजोर किए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं जिसका सबसे ताजा उदाहरण 6 जुलाई 2021 को हुई अंतरमंत्रालयीन समझौते के रूप में सामने आया. इस समझौते में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने अपनी भूमिका कानून में निर्धारित जनजाति कार्य मंत्रालय की बतौर नोडल एजेंसी से ऊपर कर ली है.
अब अंतिम दो प्रश्न और उनके जबाव देखते हैं. राकेश सिन्हा के अंतिम दो प्रश्न थे कि वन भूमि का कितना क्षेत्रफल विवादग्रस्त है और उन पर व्यक्तियों या गांवों द्वारा दावा किया जा रहा है? तथा ऐसे विवादों का निपटारा करने हेतु क्या कदम उठाए गए हैं?
इन दोनों सवालों के जबावों में भूपेंद्र यादव ने यह साबित किया कि वह अभी इस मंत्रालय के नए नए मंत्री बने हैं और उनका इन मामलों में कोई दखल नहीं है. संभव है अपने अफसरों के लिखे जबावों को ही प्रस्तुत कर दिया गया हो. उनका कहना है कि वन भूमियों के संबंध में विवाद परिवर्तनशील प्रकृति के हैं और उस क्षेत्र के संबंध में लागू कानून की विधिवत प्रक्रिया के अनुसार संबंधित राज्य/संघ शासित क्षेत्र प्राधिकरणों द्वारा निपटान प्रक्रिया की गति, नए विवादों को रिकार्ड करने, मामला -दर मामला आधार पर सीमांकन/ सर्वेक्षण आदि को ध्यान में रखते हुए बदलते रहते हैं. इस तरह मंत्रालय द्वारा देश के लिए विवादग्रस्त वन क्षेत्र का परिमाण निर्धारित नहीं किया गया है.
ये जबाव न केवल भ्रामक हैं बल्कि वन मंत्रालय द्वारा वन अधिकार मान्यता कानून, 2006 को पूरी तरह नजरअंदाज करना भी है. भूमि विवाद परिवर्तनशील से ज्यादा ऐतिहासिक हैं. जिनके बारे में विस्तार से ऊपर लिखा गया है. पहले सवाल में यही पूछा गया है कि ऐसा कितना विवादग्रस्त क्षेत्र है जिस पर व्यक्तियों या गांवों ने इन जमीनों पर दावे किए जा रहे हैं? उल्लेखनीय है कि जिसे विवादग्रस्त भूमि बतलाया जा रहा है, यह वही भूमि है जिसे लेकर भारत की संसद ने ऐतिहासिक अन्याय का स्रोत माना और जी भूमि पर ही वन अधिकार मान्यता कानून के तहत दावे भरे जाने की प्रक्रिया चल रही है. ऐसी जमीनों का कुल क्षेत्रफल कितना है, इसे लेकर कोई स्पष्टता नहीं है. लेकिन दो महत्वपूर्ण अनुसंधानों, एटीआरईई व सीएफर-एलए के अनुमान के मुताबिक लगभग 35 से 40 मिलियन हेक्टेयर यानी 350000 वर्ग किलोमीटर से लेकर 400000 वर्ग किलोमीटर जमीनें ऐसी हैं जहां वन अधिकार कानून लागू होता है. ऐसे दावों के निपटारे के लिए एक पूरी यान्त्रिकी है जो जनजाति कार्य मंत्रालय के अधीन संचालित है.
अब कुछ सवाल हैं जिन्हें लेकर वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के मंत्री भूपेंद्र यादव को गंभीरता से न केवल विचार करना चाहिए बल्कि ऐसे भ्रामक जवाब देने के लिए राज्य सरकारों के संबंधित अधिकारियों को तलब करना चाहिए.भूपेंद्र यादव को अपने ही मंत्रालय से यह पूछना चाहिए कि भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 11 एवं 12 की जांच के लिए लंबित जमीनों को वर्किंग प्लान में शामिल कर संरक्षित वन मान लिए जाने और उन्हें प्रतिवेदित करने की छूट या अधिकार क्या कानून सम्मत है? धारा 4 के तहत आरक्षित वन बनाए जाने के लिए प्रस्तावित और अधिसूचित जमीनों को संरक्षित वन प्रतिवेदित किए जाने के पीछे क्या वैध कारण हैं? संरक्षित वनों के रूप में प्रतिवेदित इन जमीनों को आरक्षित वन बनाने के लिए प्रस्तावित और अधिसूचित क्यों नहीं किया गया? धारा 11 एवं 12 की जांच और आवश्यक प्रक्रिया कितने वर्षों से लंबित हैं? इन्हें कब तक पूरा किया जा सकेगा?
भारतीय वन अधिनियम की धारा 12 के प्रावधान क्या क्या हैं? और विभिन्न राज्यों में धारा 12 के तहत लंबित जांच में कुल जमीनों का क्षेत्रफल किता है? क्या इन जमीनों पर किसी व्यक्ति या समुदायों के प्रचलित अधिकारों को वन विभाग ने अपने अभिलेखों में दर्ज किया है? इनके मंत्रालय ने इन ऐसी जमीनों को वन विभाग द्वारा वर्किंग प्लान में शामिल करने के लिए क्या निर्देश दिए हैं?क्या इन्हीं जमीनों पर वन अधिकार (मान्यता) कानून लागू नहीं होता? अगर होता है तो अब तक कितनी जमीनों पर यह लागू हो सका है? और कब इसका क्रियान्वयन पूरा हो पाएगा?
एक सवाल ऐसी जमीनों के बारे में भी उन्हें अपने ही मंत्रालय से पूछना चाहिए कि भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 11 में क्या प्रावधान हैं? पूरे देश में उनके मंत्रालय द्वारा अनुमोदित वर्किंग प्लान में कितनी भू-स्वामी हक में दर्ज निजी भूमि शामिल करते हुए उन्हें संरक्षित वन के तौर पर प्रतिवेदित किया गया है? धारा 11 की लंबित कार्यवाही के बाद भी भूस्वामी हक में दर्ज निजी जमीनों को वर्किंग प्लान में शामिल कर उन्हें संरक्षित वनों के रूप में प्रतिवेदित का क्या कारण है? और ऐसा किस विधान या उसकी धारा के तहत किया जा रहा है?
अगर ये कार्यवाहियां वास्तव में कानून सम्मत नहीं हैं तो इन जमीनों को वर्किंग प्लान एवं वनकक्ष मानचित्र (फॉरेस्ट कम्पार्टमेंट मैप) में शामिल कर संरक्षित वन प्रतिवेदित करने, उनका नियंत्रण, वनोपज का विदोहन, वृक्षारोपण किए जाने पर उनके मंत्रालय ने विभिन्न राज्यों के संबंध में क्या-क्या कार्यवाहियां की हैं?
हम सिर्फ उम्मीद कर सकते हैं कि इन सवालों को संज्ञान में लेते हुए मंत्री अपने जबाव को दुरुस्त कर संसद में पुन: पेश करेंगे.