इस साल मानसूनी बारिश के चलते हुए भूस्खलन और बाढ़ की घटनाओं में 1300 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई और केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश समेत 14 राज्यों में लगभग 10 लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हो गए. भारतीय मौसम विभाग ने इस भयानक आपदा का कारण अगस्त के आरम्भ में होने वाली लगातार और सामान्य से अधिक बारिश को बताया. केरल में इस तरह की आपदा पिछले साल भी आई थी जब पूरे राज्य में आई बाढ़ के चलते पांच सौ लोग मर गए थे. पानी के क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों और लोगों के अनौपचारिक नेटवर्क साउथ एशिया नेटवर्क ऑफ डैम्स, रिवर्स और पीपुल के समन्यवक हिमांशु ठक्कर ने कारवां की रिपोर्टर निलीना एम एस से आपदा प्रबंधन से निपटने में भारत के तौर-तरीकों की खामियों के बारे में बात की. ठक्कर ने बताया कि बांधों के प्रभावी प्रबंधन से मानसून के दौरान आने वाले बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है. उन्होंने ध्यान दिलाया कि पिछले दो सालों में बाढ़ को जन्म देने वाली परिस्थितियों और उनके प्रति प्रतिक्रिया से यह साफ पता चलता है कि बांधों के कुप्रबंधन के लिए बांध ऑपरेटर दोषी हैं और इस कुप्रबंधन ने बाढ़ से होने वाले नुकसान में अपना योगदान दिया है.
निलीना एम एस: केरल में पिछले साल आई बाढ़ के बारे में आपका विश्लेषण था कि यदि बांधों का संचालन विवेकपूर्ण ढंग से किया जाता तो इस आपदा के नुकसान को कम किया जा सकता था. पिछले साल राज्य में बाढ़ आने का प्रमुख कारण क्या था?
हिमांशु ठक्कर: इस साल ज्यादातर मौतें अपेक्षाकृत अधिक ऊंचाई वाले इलाकों में हुई हैं. इनमें से अधिकांश मौतों का रिश्ता भूमि-उपयोग में होने वाले परिवर्तन और उत्खनन आदि से था. बांधों से अब तक कोई समस्या नहीं हुई है. अगर आप ये देखना चाहते हैं कि पिछले साल की आपदा से इस बार क्या सबक लिए गए तो आपदा प्रबंधन को सामान्य रूप से देखिये. कुछ-कुछ जगहों पर थोड़े बहुत बदलाव हुए हैं लेकिन कुल मिलाकर कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं हुआ है.
उदारहण के लिए, अगर आप आपदा से बचना चाहते हैं तो आपको एक चीज जिसको जानना आपके लिए तुरंत जरूरी होगा, वह है प्रत्येक बांध के लिए नदी के बहाव की क्षमता को जानना. इस तरह आपको पता होता है कि अगर आप नदी के बहाव की क्षमता से अधिक पानी छोड़ रहे हैं, जिसमें बारिश का पानी भी शामिल है तो आप बाढ़ की स्थिति पैदा कर रहे हैं. लेकिन उन्होंने इस तरह का कोई आकलन नहीं किया है. इसी तरह के कई अन्य मुद्दे भी हैं और जो कुछ भी आवश्यक है, वह नहीं किया गया है.
निलीना: पिछले दो सालों में ज्यादातर हिस्सों में आई बाढ़ का कारण मूसलाधार बारिश और बादल फटने को बताया गया है. बांध-संचालन तंत्र को इस स्थिति से कैसे निपटना चाहिए?
हिमांशु: बांध संचालकों को बहुत सी चीजों का ध्यान रखना चाहिए. उन्हें नदी के अपप्रवाह और निम्नप्रवाह का ध्यान रखना चाहिए. विशेषकर इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि नदी की कुल बहाव क्षमता के मुकाबले नदी का निम्नप्रवाह कितना है. दूसरा, अपप्रवाह और निम्नप्रवाह दोनों तरह के नदी बेसिनों में बांधों की स्थिति क्या है. तीसरा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कितनी बारिश पहले हो चुकी है जिसका पानी नदी में आने वाला है. बारिश होने के समय और बारिश के पानी के नदी में जाने के समय में अंतर होता है. चौथा, बारिश के पूर्वानुमान का ध्यान रखना चाहिए. हम इस मामले में थोड़े भाग्यशाली हैं कि हमें भारतीय मौसम विभाग से काफी हद तक बारिश का लघुकालिक पूर्वानुमान सही ढंग से पता चल जाता है. कम से कम चार दिन पूर्व लगाया गया अनुमान प्रायः सही होता है. इस पूर्वानुमान का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. इसके बाद इस पूर्वानुमान से नदी बेसिन में स्थित बांध संचालकों, विभिन्न राज्यों और उन राज्यों के बीच तालमेल स्थापित किया जाना चाहिए. इस तालमेल को स्थापित करने के लिए एजेंसियां होनी चाहिए. अगर आप बाढ़ द्वारा होने वाले नुकसान को कम करना चाहते हैं तो इन सभी चीजों का पालन करना चाहिए. हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक बांध अपतटीय क्षेत्रों में बाढ़ को कम करने में अपना योगदान दे सकता है. हालांकि यह बाढ़ पर पूरी तरह नियंत्रण नहीं लगा सकता और न ही उस क्षेत्र को बाढ़रोधी बना सकता है. इसके साथ-साथ ये भी सच है कि अगर बांध का संचालन ठीक तरह से नहीं किया जाए तो यह अपतटीय क्षेत्रों में बाढ़ का कारण बन सकता है. इस तरह बांध दोधारी तलवार की तरह है.
निलीना: भारतीय मौसम विज्ञान के आंकड़े बताते हैं कि इस साल बाढ़ काफी कम समय में औसत से अधिक हुई बारिश का नतीजा थी और बाढ़ के चलते होने वाले वाले नुकसान पर काबू पाने के लिए ज्यादा कुछ किया नहीं जा सकता था. जबकि आपके अनुसार बारिश का पूर्वानुमान बाढ़ से निपटने के लिए पर्याप्त चेतावनी की तरह होती है?
हिमांशु: बिलकुल, उदाहरण के तौर पर पिछले साल महाराष्ट्र में आई बाढ़ में पानी 5 या 6 अगस्त को बाढ़ के उच्चतम स्तर से पार होना शुरू हुआ. अब अगर हम बांध की स्थिति यानी बांध के दोनों तरफ बहने वाले पानी की मात्रा और बांध द्वारा छोड़े गए पानी पर गौर करें तो हम पाते हैं कि बांधों द्वारा छोड़ा गया पानी बाढ़ का उच्चतम स्तर पार कर रही नदी के पानी से मिल गया. इस तरह एक बात साफ है, अगर बांधों ने पानी नहीं छोड़ा होता तो नदी ने बाढ़ का उच्चतम स्तर पार नहीं किया होता और न ही बांधों से अपतटीय क्षेत्रों में तबाही फैली होती.
बांधों ने 5 अगस्त को पानी छोड़ना शुरू क्यों किया. क्योंकि बांध पानी से भर गए थे. बांध संचालकों को यह कहना बहुत अच्छा लगता है कि उनके पास कोई विकल्प नहीं था, लेकिन सवाल ये है कि बांध पानी से भरे क्यों थे? 5 अगस्त को मानसून आधा रास्ता ही तय कर पाया था और तब तक बांधों में पानी नहीं भरा होना चाहिए था. अगर आप बांधों से बाहर निकलने वाले पानी पर गौर करें तो पता चलेगा कि उन्होंने पानी छोड़ना तब शुरू किया जब वे भर गए थे. इससे स्पष्ट पता चलता है कि बांधों का संचालन पूरी तरह कुप्रबंधित है. पहली समस्या ये है कि बांधों को पूरी तरह भरा ही नहीं होना चाहिए था और बांध संचालकों ने ऐसा होने दिया.
दूसरी समस्या ये है कि अगर उन्होंने 1 अगस्त को पानी छोड़ना शुरू कर भी दिया था तो भी वे बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम करने में मदद कर सकते थे. अगर हम भारतीय मौसम विभाग के आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि भारी बारिश 1 अगस्त को शुरू हुई. अगर बांध संचालकों ने 1 अगस्त को पानी छोड़ना शुरू किया था तो 5-6 अगस्त तक बांध में पानी जमा होने की कुछ गुंजाइश बन जानी चाहिए थी ताकि अगर अपतटीय क्षेत्रों में बाढ़ आ जाए तो उन्हें पानी नहीं छोड़ना पड़े.
तीसरी समस्या ये कि 1 अगस्त को हुई भारी बारिश का अनुमान भारतीय मौसम विभाग ने पांच दिन पहले ही लगा लिया था. असल में उन्हें 25-26 जुलाई से ही पानी छोड़ना शुरू कर देना चाहिए था. अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो शत-प्रतिशत बाढ़ से होने वाले नुकसान में उनका कोई योगदान नहीं होता क्योंकि बाढ़ की घटना वाले दिन उनके बांध में पानी जमा होने की गुंजाइश होती. अगर हम बांधों के भरने की समय-सारणी पर गौर करें तो पता चलता है कि 24-25 जुलाई को बांध केवल 50 फीसदी ही भरे थे. ये बात कर्नाटक के अल्मत्ती, घाटाप्राभा और मलाप्रभा बांधों के बारे में भी ठीक थी. ऐसा होना आपराधिक था. जबकि 28 जुलाई तक अलमट्टी बांध 99.5 फीसदी भर चुका था. उस पर भी यह स्थिति बारिश होने से एक महीने पहले की थी. इन सब बातों से पता चलता है कि बांध संचालकों ने बांधों का पूरी तरह से कुप्रबंधन किया जिसके चलते बाढ़ से भारी नुकसान हुआ.
निलीना: इसके बावजूद पिछले वर्ष सितम्बर में पानी के क्षेत्र में भारत सरकार की नोडल एजेंसी केन्द्रीय जल आयोग ने साल 2018 में केरल में आई बाढ़ के बारे में जारी रिपोर्ट में कहा कि राज्य के बांध संचालकों की ओर से कोई गलती नहीं हुई.
हिमांशु: वास्तव में केन्द्रीय जल आयोग की रिपोर्ट में बांध संचालन का बचाव किया गया था. यह आयोग की कार्यशैली के अनुरूप है. एजेंसी के रूप में आयोग बांध संचालकों का बचाव करने के लिए तुरंत खड़ा हो जाता है. जब भी हम इस मुद्दे को उठाते हैं, वे कहते हैं कि सब कुछ भारी बारिश के चलते हुआ है. असल बात ये है कि भारी बारिश तो होगी ही लेकिन बांध संचालन पर भी ध्यान देना पड़ेगा. अगर बांध का संचालन वैकल्पिक तरीकों से किया जाए, जैसा कि केरल के मामले में हुआ तो 2018 में बाढ़ के चलते हुए नुकसान का असर कम किया जा सकता था.
वास्तव में केन्द्रीय जल आयोग एक उत्तरदायी निकाय है. यह भारत में काम करने वाली एक मात्र बाढ़ पूर्वानुमान एजेंसी है. लेकिन अगर आप एजेंसी के पूर्वानुमानों पर गौर करें तो ये बेहद खराब हैं. आयोग एक मात्र ऐसी एजेंसी है जो बांध संचालनों की देख-रेख करती है, बांध अधिकारियों को निर्देश देती है और हर बांध के लिए रूल कर्व बनाती है. हर बांध के लिए एक रूल कर्व होना चाहिए जो यह सुनिश्चित करता है कि उसमें पानी एक निश्चित तरीके से भरा जाए ताकि यह मानसून के खत्म होने तक ही पूरा भर पाए. इस रूल कर्व को आयोग मंजूरी देता है और मंजूरी मिल जाने के बाद वही इसके लिए उत्तरदायी भी होता है. लेकिन हर तीसरे या पांचवे साल में बांधों की स्थिति जैसे बांधों की संग्रहण और बहाव क्षमता, अपतटीय नदी की बहाव क्षमता और बारिश के पैटर्नों में आने वाले बदलाव के चलते इसको संशोधित किया जाता है. लेकिन कोई भी इसकी समीक्षा नहीं कर रहा है. रूल कर्व की जानकारी सार्वजनिक दायरे में नहीं है. हर बांध के लिए दैनिक जल स्तर, संग्रहण स्तर और बांध में आने और उससे बाहर जाने वाले पानी की जानकारी समेत रूल कर्व को सार्वजनिक दायरे में होना चाहिए. तब इस बात की जांच कोई भी कर सकेगा कि क्या रूल कर्व का पालन हो रहा है और क्या बांध में पानी आने और बाहर जाने से जुड़े तार्किक निर्णय लिए जा रहे हैं.
निलीना: हालांकि केन्द्रीय जल आयोग ने बांध अधिकारियों को अपनी जिम्मेदारियों से दोषमुक्त कर दिया, लेकिन इसने रूल कर्व के पालन होने पर भी जोर दिया. हमें आयोग के बाढ़ के दौरान बांध प्रबधन के नजरिये में यह विरोधाभास क्यों दिखाई पड़ता है?
हिमांशु: दुर्भाग्य से केन्द्रीय जल आयोग बांधों के लिए लॉबिंग करने वाली संस्था की तरह काम करती है. संस्था बांध संचालकों का बचाव करती है क्योंकि यह उनके लिए वैचारिक रूप से जरूरी है. लेकिन इसके लिए स्वयं को तकनीकी रूप से दक्ष संस्था के रूप में दिखाना भी आवश्यक होता है. इसलिए यह रूल कर्व का पालन होना चाहिए जैसे बयान देती है. सवाल ये है कि क्या आपने इस बात की जांच की कि रूल कर्व का पालन हो रहा है या नहीं? अगर आप ये कह रहे हैं कि रूल कर्व का पालन होना चाहिए तो आपने इस बात की जांच क्यों नहीं की कि इसका पालन हो रहा है अथवा नहीं? वे न तो इसकी जांच करते हैं और न ही कोई विश्लेषण अथवा इसके बारे में लिखते हैं. ये कुछ ऐसा ही है कि आप हत्या करने के बाद कहें, कोई हत्या नहीं होनी चाहिए थी. आपके बयानों और व्यवहार में विसंगति है.
निलीना: बांधों के संचालन में ऐसा कुप्रबंधन क्यों है?
हिमांशु: असल में समस्या ये है कि बांध संचालक बांध को जल्द से जल्द भरना चाहते हैं. फिर वे ये सोचते हैं कि जो भी पानी आता है, वे उसे छोड़ सकते हैं. इसमें समस्या ये है कि इस तरह से आप अपतटीय इलाकों के लिए नुकसान की जमीन तैयार करते हैं. वे ये भूल जाते हैं कि हर बांध आपदा का स्रोत होता है. दूसरी बात ये है कि जब भी एक गलत संचालन की वजह से आपदा आती है तो इसके लिए उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता. भारत का हर बांध संचालक जानता है कि अगर वे लोगों को मारते हैं तो उन्हें कभी भी इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जायेगा और ऐसा होता रहा है. उदाहरण के लिए, मध्य प्रदेश में नर्मदा के चारों ओर बने इंदिरा सागर बांध ने अप्रैल 2005 में एकाएक पानी छोड़ दिया. अपतटीय इलाके में एक मेला लग रहा था जिसमें मध्य प्रदेश के देवास जिले के धाराजी में रहने वाले 70 लोग बह गए. लेकिन इसके लिए किसी कोई भी जिम्मेदार नहीं ठहराया गया. इस हादसे की जांच के दौरान, बांध के अधिकारियों ने बताया कि उन्होंने जिलाधिकारी को पोस्टकार्ड के माध्यम से यह सूचना दी थी कि वे पानी छोड़ने वाले हैं. जिलाधिकारी ने कहा कि उसे कोई पोस्टकार्ड नहीं मिला. इस तरह बांध अधिकारी अपनी जिम्मेदारी से बच गए. इसलिए बांध अधिकारियों को कोई फर्क नहीं पड़ता और केन्द्रीय जल आयोग उनके साथ खड़ा हो जाता है.
निलीना: क्या प्रस्तावित बांध सुरक्षा अधिनियम इस समस्या को संबोधित करता है?
हिमांशु: नए बांध सुरक्षा अधिनियम की बहुत आवश्यकता है. इस अधिनियम के पुराने संस्करण में केवल परिचालकीय सुरक्षा के बारे में नहीं बल्कि केवल संरचनात्मक सुरक्षा की बात की गई थी. हम लगातार इस बात को कह रहे थे कि केवल यह पर्याप्त नहीं है. अगर किसी बांध का संचालन ठीक से नहीं किया जाए तो इससे अपतटीय इलाके में बाढ़ आ सकती है. मौजूदा अधिनियम में परिचालकीय सुरक्षा की थोड़ी बात तो की गई है लेकिन यह पर्याप्त नहीं है.
दूसरी समस्या ये है कि इस प्रस्तावित नए बिल को बंद दरवाजों के भीतर सरकारी इंजीनियरिंग विशेषज्ञों ने तैयार किया है जिन्हें लगता है कि बांध संचालन की जानकारी केवल सरकारी अधिकारियों के पास होती है. इसमें कोई भी व्यक्ति स्वतंत्र रूप से शामिल नहीं है जबकि हमें पूरी प्रक्रिया के स्वतंत्र निरीक्षण की जरुरत है. तीसरी बात ये है कि यहां हर बात की जिम्मेदारी केन्द्रीय जल आयोग के पास है. इसका ट्रैक रिकॉर्ड बहुत खराब रहा है. इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात ये कि यहां हितों के टकराव का भी मामला है. केन्द्रीय जल आयोग ऐसा संगठन है जो सभी बांधों को मंजूरी प्रदान करता है और बांधों के सभी प्रकार डिजाइन- यानी उनके निर्माण, देख-रेख, मौसम के पूर्वानुमान और उनके जलविज्ञान संबंधी आंकड़ों को मंजूरी प्रदान करता है. इसके साथ –साथ इसके पास बाढ़-सुरक्षा और बांध-सुरक्षा जैसे मुद्दों की भी जिम्मेदारी होती है.
क्या ये संभव है कि कोई संस्थान जिसने बांध-सुरक्षा से जुड़े दिशा-निर्देश जारी किए हों, बाढ़ आने की स्थिति में यह कह सके कि उसके द्वारा जारी दिशा-निर्देश गलत हैं? वे ऐसा नहीं कहेंगे क्योंकि इस स्थिति में उन्हें दोषी ठहराया जाएगा.
चौथी समस्या ये है कि यह मूल रूप से जनहित का कानून है. बांध सार्वजनिक संपत्ति है और संरचनागत या परिचालन संबंधी समस्या होने पर इनसे खतरा भी लोगों को ही होता है. बाढ़ सुरक्षा से जुड़े हर पहलू जैसे- बैठकें, उनका एजेंडा या चर्चाएं आदि सब सार्वजनिक दायरे में होना चाहिए. जिन लोगों का जीवन दांव पर लगा होता है, वास्तव में उन्हीं की भूमिका को इन प्रक्रियाओं में दरकिनार कर दिया जाता है. डीएसए में यही समस्याएं हैं. इसकी मौजूदा स्थिति में कोई बदलाव होने नहीं जा रहा है.
निलीना: क्या आपके पास ऐसा कोई उदाहरण है जहां भारत में बांध प्रबंधन अच्छे ढंग से किया गया हो?
हिमांशु: हमारे पास ऐसा कोई ठोस उदाहरण तो नहीं है, लेकिन अच्छे तौर-तरीकों के कुछ उदाहरण अवश्य हैं. उदाहरण के लिए, कर्नाटक के पास आपदा प्रबंधन देख-रेख केन्द्र है जो दैनिक रूप से लगभग 12 बांधों के स्तर, संग्रहण, उनमें आने वाले पानी और उनसे जाने वाले पानी से जुड़ी सूचनाएं मुहैया कराता है. यह पारदर्शिता का अच्छा उदाहरण है. ठीक इसी तरह नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण नर्मदा घाटी के मुख्य बांधों के बारे में दैनिक रूप से जानकारियां देता है. ओडिशा और महाराष्ट्र जैसे राज्य भी इसी तरह की सूचना उपलब्ध कराते हैं.
कृष्णा बेसिन में साल 2005 में आई बाढ़ के बाद- जिसके लिए एक बार फिर अधिकारी जिम्मेदार थे-महाराष्ट्र सरकार ने अध्ययन के लिए एक समिति गठित की थी. (अगस्त 2005 में, महाराष्ट्र में कोयना और कृष्णा नदियों के बेसिन में भयानक बाढ़ आई थी). इस समिति ने कई सुझाव दिए थे लेकिन इसकी रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक दायरे में नहीं है. सरकार ने साल 2011 में सिफारिश की थी कि उसने समिति के सभी सुझाव स्वीकार कर लिए लेकिन दुर्भाग्य से इन सिफारिशों को लागू करने के स्तर पर कुछ भी नहीं हुआ.
इस साल भाखड़ा नांगल बांध के अधिकारी काफी सावधान रहे. (भाखड़ा नांगल बांध हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले में स्थित सतलज नदी के किनारे स्थित है). उन्होंने बांध में पानी का स्तर पूरा होने से पहले ही उससे पानी छोड़ना शुरू कर दिया था. बांध की क्षमता 1685 फीट है और जब पानी 1674 फीट के स्तर पर पहुंचा तो अधिकारियों ने उसे छोड़ना शुरू कर दिया. उन्होंने बताया कि वे लगभग 25000 घन लीटर पानी छोड़ेंगे. उन्होंने यह भी बताया कि वे नदी के अपतटीय स्तर पर नजर रखेंगें और जैसे ही बांध में आने वाले पानी का स्तर कम होगा या अपतटीय पानी का स्तर ऊपर जाएगा, वे पानी के बहाव को कम कर देंगे. यह एक अच्छा तरीका है.
कुछ जगह इस तरह के जिम्मेदारी समझने वाले उदाहरण मिलते हैं, लेकिन इसके लिए कोई तंत्र या व्यवस्था नहीं है. जिससे किसी भी दशा में सम्पूर्ण पारदर्शिता, जिम्मेदारी और उत्तरदायित्व सुनिश्चित हो सके.
निलीना: अब जबकि बाढ़-प्रभावित राज्य धीरे-धीरे बाढ़ के प्रभाव से हुए नुकसान से उबर रहे हैं, ऐसी स्थिति में सरकार को तात्कालिक रूप से कौन से उपाय करने चाहिए? इतने बड़े पैमाने पर आई आपदाओं के बाद केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों को किन चीजों पर ध्यान देना चाहिए?
हिमांशु: सबसे पहले राज्य सरकारों को तत्काल प्रभाव से विशेषकर कर्नाटक और महाराष्ट्र सरकार को कृष्णा बेसिन के बांधों के मामले में स्वतंत्र और सरकारी जांच की व्यवस्था करनी चाहिए. जांच में इन चीजों की जांच होनी चाहिए कि बांधों का संचालन कैसे होता है, इनसे आपदाएं कैसे आती हैं और इसके लिए कौन जिम्मेदार था. साथ-साथ इस जांच में विशेष बांध संचालकों, जल संसाधन विभाग के अधिकारियों और केन्द्रीय जल आयोग की भूमिका की भी जांच होनी चाहिए. यह बहुत महत्वपूर्ण है.
दूसरी चीज जो करने की आवश्यकता है, वह यह कि भारत सरकार और केन्द्रीय जल आयोग को बांध संचालित करने के लिए विस्तृत और सुस्पष्ट व्यवस्था बनानी चाहिए. बांध संचालन के लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इसके दिशा-निर्देश भी स्पष्ट होने चाहिए. उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए देश के प्रत्येक बांध के रूल कर्व से जुड़ी जानकारियां सार्वजनिक दायरे में हों. साथ ही इसको प्रत्येक पांच या तीन साल के बाद संशोधित किया जाना चाहिए. मानसून के दौरान बांध संचालन के लिए जिम्मेदार लोगों, संग्रहण स्तर, बांध में आने वाले पानी और बांध से जाने वाले पानी और राज्य स्तर और राज्यों के बीच समन्वय करने वाली एजेंसी समेत बांध से जुड़ी सूचनाएं हर दिन सार्वजनिक दायरे में होनी चाहिए.
बांध संचालन को बहुत हद तक बदले जाने की आवश्यकता है. उदाहरण के लिए, कृष्णा बेसिन के अपतटीय क्षेत्र में स्थित नागार्जुन और श्रीशैलम बांध के मामलों को देखें. इन बांधों में शायद ही कभी-कभार पानी का स्तर पूरा होता है क्योंकि महाराष्ट्र तभी पानी छोड़ेगा जब कृष्णा बेसिन में स्थित इसके कोयना बांध भीमा बेसिन (जो कृष्णा बेसिन का ही हिस्सा है) में स्थित उज्जनी बांध में पानी का स्तर पूरा हो जाएगा. इसी तरह कर्नाटक तभी पानी छोड़ेगा जब अपर कृष्णा बेसिन के बांधों में पानी का स्तर भर गया हो. (अपर कृष्णा प्रोजेक्ट कर्नाटक में स्थित सिंचाई परियोजना है जिसमें दो बांध और कृष्णा नदी पर बने नहरों का नेटवर्क शामिल है.) ऐसा नहीं होना चाहिए. पानी को मानसून की शुरुआत में छोड़ा जाना चाहिए ताकि सभी बांधों में पूरे राज्य भर में एक साथ पानी भर सके. माना कि तेलंगाना और कर्नाटक या आंध्र प्रदेश में कम बारिश होती है लेकिन महाराष्ट्र और कर्नाटक में बांध आधे से ज्यादा रास्ते की दूरी पर हैं. ऐसी स्थिति में पानी का इस्तेमाल आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की कृषि में हो सकता है. महाराष्ट्र और कर्नाटक में होते हुए इसका कोई लाभ नहीं है. अगर यह उपलब्ध होगा तो इसका इस्तेमाल सभी कर सकेंगें. फिर अगर उन बांधों में पानी का स्तर पूरा हो गया हो और मानसून के दौरान वे पानी एकाएक छोड़ रहे हों तो यह केवल तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में ही पहुंचेगा जब फसल का मौसम खत्म हो चुका होगा. ऐसा सभी राज्यों में किए जाने की आवश्यकता है.