भारत के खेतों में खतरनाक लैंटाना का प्रकोप

सैमुअल कर्टिस और विलियम जैक्सन हूकर / विकिमीडिया कॉमन्स
31 October, 2022

मदाबा कर्नाटक के एक स्वदेशी चारागाही समुदाय बेट्टा कुरुबा जनजाति के नागरिक हैं. घास की देसी प्रजातियों की एक गहरी समझ होने के कारण वह बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं, जिन्होंने 2019 से अपने घास के मैदान को बहाल करने और उसके प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित किया है. इस योजना में अन्य चीजों के अलावा, खरपतवार निकालकर उसके स्थान पर देसी घास की प्रजातियों को लगाना शामिल है. यह थका देने वाला काम है क्योंकि बांदीपुर यूपेटोरियम, पार्थेनियम और लैंटाना सहित विभिन्न प्रकार के खरपतवारों से भरा हुआ है.

बांदीपुर के एक वन अधिकारी मुनीराजू ने मुझे बताया, “केवल आदिवासियों के पास ही इस काम को करने की विशेषज्ञता है.” मुनिराजू अपने रेंज में राष्ट्रीय उद्यान के 13 में से एक घास के मैदान का प्रबंधन देखते हैं. साथ ही गर्मी शुरू होने से पहले जंगल में आग की सीमा रेखाएं भी तय करते हैं ताकि जंगल की आग को नियंत्रित किया जा सके.

खरपतवार निकालना इस प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. मदाबा और उनके समुदाय के साठ अन्य सदस्य अपने हाथों से तीन से चार महीने तक पूरे दिन इसे हटाने का काम करते हैं, लेकिन हर वर्ष खरपतवार फिर उग आती है. नवंबर 2019 में मदाबा ने मुझे बताया, "मैं यह काम बीस साल से कर रहा हूं. मैंने देखा है कि ये खरपतवार और भी खराब होते जा रहे हैं." वह लैंटाना कैमारा से विशेष रूप से परेशान थे. जो झाड़ियों में उगने वाला कांटेदार पौधा है. उन्होंने कहा, "बाकी खरपतवार से ज्यादा कठिनाई इसे निकालने में होती है." झाड़ियों को काटने के बाद ही पौधे को उखाड़कर किनारे कर दिया जाता है, जहां बाद में इसे जला दिया जाता है.

यह सिर्फ बांदीपुर नहीं है जो दुनिया के दस सबसे खराब आक्रामक पौधों में से एक माने जाने वाले लैंटाना कैमारा से परेशान रहा है. भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन में पाया गया कि सर्वेक्षण किए गए 207,100 वर्ग किलोमीटर में से 154,837 में लैंटाना मौजूद था.इसके आधार पर अध्ययन के लेखकों ने अनुमान लगाया कि भारत में सम्पूर्ण वन भूमि का 44 प्रतिशत यानी 303,607 वर्ग किलोमीटर खरपतवार के लिए उपयुक्त है, अर्थात गर्म, आर्द्र, उपजाऊ क्षेत्र जो मानव द्वारा उपयोग में नहीं है."

शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि खरपतवार धीरे-धीरे ही सही लेकिन निश्चित रूप से देश के वन परिदृश्य को बदल रहा है, जिससे यह भारी जैव विविधता की हानि और जूनोटिक रोगों के बढ़ने के साथ विनाशकारी जंगल की आग में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. इससे छुटकारा पाने और यहां तक ​​कि इसके फैलाव को रोकने में भारी लागत आती है. डब्ल्यूआईआई के अध्ययन के अनुसार लैंटाना के इन जंगलों को साफ करने पर 5.5 बिलियन डॉलर से अधिक का खर्च आएगा जो पर्यावरण मंत्रालय के वार्षिक बजट से दस गुना अधिक होगा.

खरपतवार ऐसे पौधे को कहते हैं जो वहां उगते हैं जहां इसकी आवश्यकता नहीं होती है. तेजी से बढ़ने की खासियत रखने वाली खरपतवार अक्सर बाहरी/अयोग्य वातावरण में उग जाते हैं और धीरे-धीरे स्थानीय पौधों की आबादी को कम कर देते हैं. सभी खरपतवार उन क्षेत्रों में तेजी से उगने और बढ़ने की क्षमता रखते है जहां पर वे एक बार धावा बोल देते हैं.

बॉटेनिकल गार्डन, जैसे कि एक कलकत्ता में ईस्ट इंडिया कंपनी ने स्थापित किया था, लैंटाना की किस्मों सहित सैकड़ों विदेशी पौधों की प्रजातियों का आयात करते हैं. हैरिटेज आर्ट / हैरिटेज इमेजिज / गेट्टी इमेजिज

लैंटाना कैमारा का भारत पर आक्रमण करना उपनिवेशवाद के समय से गहराई से जुड़ा हुआ था. 1636 में जोहान मौरिट्स वैन नासाउ-सीजेन ने डच ब्राजील की नवगठित कॉलोनी के गवर्नर के रूप में कार्यभार संभाला जिसे डच वेस्ट इंडिया कंपनी ने पुर्तगालियों से कब्जा करके लिया था. मौरिट्स के साथ कलाकार फ्रैंस पोस्ट भी थे, जिन्होंने पांच सौ से अधिक जानवरों और पौधों के तेल चित्रों का निर्माण किया, जो राज्यपाल को पसंद आए. उनमें से एक फैली हुई झाड़ी थी जिसे अमेरिका में स्पेनिश उपनिवेशवादियों ने कैमारा नाम दिया, उसकी पत्तियों का उपयोग औषधीय तरल पदार्थ बनाने के लिए किया जाता था. इसके नमूने जल्द ही कंपनी के जहाजों द्वारा कई अन्य पौधों की प्रजातियों के साथ हॉलैंड भेजे गए और अंततः पूरे यूरोप में वनस्पति उद्यान में फैल गए. 1691 में लंदन के हैंप्टन कोर्ट के शाही उद्यान ने कैरिबियन से आयातित नमूनों का उपयोग करके लैंटाना कैमारा की खेती शुरू की.

कोलंबियन एक्सचेंज के रूप में जाना जाने लगा जैव विविधता का यह हस्तांतरण यूरोप और अमेरिका तक ही सीमित नहीं था. ब्रिटिश वनस्पतिशास्त्रियों ने पूरे साम्राज्य में नमूनों का आदान-प्रदान किया. जिसने 1798 में कलकत्ता में ईस्ट इंडिया कंपनी के वनस्पति उद्यान का कार्यभार संभालने वाले विलियम रॉक्सबर्ग द्वारा संकलित एक सूची के अनुसार लगभग एक हजार पौधों की प्रजातियों, जिसमें लैंटाना की दो किस्में शामिल थीं, को ब्रिटिश भारत के बाहर से लाया गया था. रॉक्सबर्ग के उत्तराधिकारी, नथानिएल वालिच ने अगस्त 1839 में ईआईसी के कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स को पत्र लिखकर अमेरिका से बीज की आपूर्ति जारी रखने और "फूलों के जितने बीज पहाड़ों और मैदानों दोनों में बुवाई के लिए संभव हो,” के लिए कहा. जैसा कि मेरठ में हॉल्टिकल्चर सोसायटी के सचिव हेनरी कोप ने लंदन में अपने सहयोगियों को लिखे एक पत्र में बताया,

एक शब्द में कहूं तो हम हर तरह के सजावटी पौधों के हमारे संकलन को सुधारना चाहते हैं. हालांकि हम यह उम्मीद तो नहीं कर सकते कि भले ही सफलता की गुंजाइश कितनी ही क्यों न हो हम फूल उगाने वाले सबसे बढ़े स्थानीय लोगों को इसके लिए प्रोत्साहित कर ही लेंगे.

उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान अमेरिका से लैंटाना कम से कम ग्यारह प्रजातियों को पूरे भारत में बॉ​टेनिकल गार्डनों में में लाया गया था. विभिन्न रंगों के फूलों वाले पौधों का व्यापक रूप से ब्रिटिश बस्तियों जैसे छावनियों और चाय बागानों में सजावटी मेड के रूप में उपयोग किया जाता था. बाद में उनके बीज आसपास के क्षेत्रों में फैलने लगे और जंगलों में अपना रास्ता बना लिया. 1874 में वनस्पतिशास्त्री डीट्रिच ब्रैंडिस ने पाया कि लैंटाना उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में, उप-हिमालयी इलाकों में तीन हजार फीट की ऊंचाई तक साथ ही सिंध, दक्कन के पठार, नीलगिरी और सीलोन में पाया जा सकता है. दो दशक बाद कूर्ग में वन अधिकारियों ने बताया कि लैंटाना संक्रमण के कारण सैकड़ों कॉफी बागानों पर खेती करना छोड़ दिया गया था, जबकि तीन साल के भीतर नए चंदन के बागानों को खरपतवार ने कुचल कर रख दिया था.

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में बायोकेमिस्ट एवी वरदराजा अयंगर ने 1933 में करंट साइंस पत्रिका में एक लेख में लिखा, "यह लगभग अविश्वसनीय लगता है कि लगभग एक सदी पहले भारत में आई एक छोटी सजावटी मेड़ की झाड़ी तेजी से बढ़ी और इस देश के लगभग हर प्रांत में लाखों एकड़ कृषि योग्य भूमि और वन क्षेत्रों को खत्म कर दिया. फिर भी यह सच है: लैंटाना का खतरा आज भारत की सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है और जब तक इसके प्रसार को नियंत्रित करने का एक तेज और सस्ता तरीका जल्द ही खोजा नहीं जाता तब तक यह इस देश में कृषि और वानिकी के संरक्षण और प्रगति को नुकसान पहुंचाएगा. वन अधिकारियों ने सदी के अंत के आसपास लैंटाना को लोगो द्वारा हाथों से हटाने का अभियान शुरू किया था. लगभग सत्तर देशों में जहां इसे ले जाया गया था वहां भी इसी तरह के उपायों को किया गया था.

दिल्ली विश्वविद्यालय के एक एमेरिटस प्रोफेसर सीआर बाबू ने मुझे बताया, "लैंटाना कैमारा हाइब्रिड बीज का एक बहुत ही जटिल पौधा है. अब हम जो देखते हैं वह कई पौधों की प्रजातियों का एक हाइब्रिड है. समय के साथ इसने इसे मिटाने के उपायों से लड़ने लिए अनुकूली रणनीति विकसित की है.” व्यापक पारिस्थितिक सहिष्णुता ने उष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण दोनों क्षेत्रों में विकसित होने और समुद्र तल से लगभग दो हजार मीटर तक जीवित रहने की ताकत ने लैंटाना को इसके भौगोलिक वितरण को व्यापक और विविधता प्रदान करने में मदद की है. यह खरपतवार नीलगिरी के ऊंचे इलाकों तक भी पहुंच चुकी है. नीलगिरी में आक्रामक पौधों की प्रजातियों को पीछे धकेलने के लिए काम करने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था कीस्टोन फाउंडेशन में जैव विविधता संरक्षण की निदेशक अनीता वर्गीज ने मुझे बताया कि दो दशक पहले अठारह सौ मीटर से अधिक की ऊंचाई पर स्थित शहर कोटागिरी में लैंटाना इतना नहीं देखा जाता था. उन्होंने बताया, यह मेडों पर भी देखा जाता है, अब वहां वह देसी पौधे और फूल नहीं दिखते हैं जो पहले देखे जाते थे. उसकी जगह पर बस है."

भारतीय विज्ञान संस्थान में पारिस्थितिकी के मानद प्रोफेसर रमन सुकुमार ने मुझे बताया कि अमेरिका में लैंटाना आबादी को प्राकृतिक शिकारियों जैसे कि कुछ कीड़े और कीट द्वारा नियंत्रित रखा जाता है. उन्होंने कहा कि विदेशी भूमि में ऐसे जीवों के नहीं होने से इसका विस्फोटक विस्तार होता है.

कर्नाटक के सोलिगा समुदाय ने ऐतिहासिक रूप से कई कारणों से नियंत्रित सतह की आग का उपयोग किया है, जिसमें दृश्यता में सुधार, वन उपज के संग्रह को आसान बनाना, खाद्य उत्पादन में सहायता करना और घास को पुनर्जीवित करना शामिल है. सिद्दप्पा सेट्टी /अत्री

फिर भी प्राकृतिक रूप से आमतौर पर आक्रामक प्रजातियों की देसी पौधों से आगे निकलने की बहुत कम संभावना होती है, जो आमतौर पर सभी मौजूद पारिस्थितिक स्थानों को सीमित कर देती हैं. यह केवल तभी होता है जब इन स्थानों को विक्षुब्ध किया जाता है जिससे विदेशी प्रजातियों को बढ़ने का मौका मिलता है. भारत में लैंटाना के लिए ऐसा मौका ब्रिटिश शासन के समय वाणिज्यिक कटाई द्वारा प्रदान किया गया था, जो 1806 में शुरू हुआ और उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में रेलवे के विकास के साथ गति पकड़ी, इसी समय लैंटाना ने जंगल में अपना रास्ता बना लिया था.

लॉगिंग ने जंगल में रास्ते खोल दिए और इसकी सूक्ष्म पारिस्थितिकी को परेशान कर दिया. सुकुमार ने बताया, "शुरुआत में केवल सड़कों के किनारे लैंटाना थी जहां पेड़ काटे गए थे. जैसे ही जंगलों से पेड़ों को हटाया गया, लैंटाना को खाली जगह पर कब्जा करने का अवसर मिला." वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 द्वारा निषिद्ध होने तक बड़े पैमाने पर कटाई जारी रही.

एक बार जब इसे जगह मिल जाती है, तो लैंटाना को बढ़ने और फैलने से कोई रोक नहीं सकता है. प्रत्येक पौधा लगभग बारह सौ बीज पैदा करने में सक्षम है, जो अंकुरित होने से पहले ग्यारह साल तक मिट्टी में निष्क्रिय रह सकते हैं. हटाने के बाद भी मिट्टी में छोड़ी गई जड़ें जल्दी से नए पौधे पैदा कर सकती हैं और लैंटाना जमीन को छूने वाले हरे तनों से नई जड़ें विकसित कर सकता है. इसके चमकीले फूल और अप्रतिरोध्य तीक्ष्णता मधुमक्खियों, तितलियों और अन्य परागणकों को आकर्षित करती है, जबकि इसके फल पक्षियों को पसंद होते हैं जिससे आमतौर पर बीज आसपास फैल जाते हैं. स्कैट अध्ययनों से पता चला है कि सुस्त भालू भी फल खाते हैं और इसके प्रसार में अपनी भूमिका निभाते हैं.

सुकुमार ने बताया कि अधिकांश अन्य खरपतवारों की तरह लैंटाना अधिकांश घासों की तुलना में वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की अधिक सांद्रता के प्रति अधिक सहिष्णु है. इससे भविष्य में इसे फलने-फूलने में मदद मिलेगी, क्योंकि कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि जारी है.

लैंटाना अपने एलोपैथिक गुणों के कारण भी फलता-फूलता है, यह ऐसे रसायन छोड़ता है जो देसी प्रजातियों के विकास को रोकते हैं. खरपतवार पर डॉक्टरेट और पोस्टडॉक्टोरल अनुसंधान करने वाले पारिस्थितिकीविद् गीता रामास्वामी ने मुझे बताया, “इसकी विशाल आकार इस उद्देश्य को भी पूरा करती है. लैंटाना जो छाया बनाता है उसके नीचे वास्तव में कुछ भी नहीं उगता है.” रामास्वामी और सुकुमार ने तमिलनाडु के मुदुमलाई राष्ट्रीय उद्यान में अपने शोध के आधार पर पाया कि लैंटाना की छाया जंगल के तल तक पहुंचने वाली सूरज की रोशनी को काफी कम कर देती है. जिन स्थानों पर लैंटाना होता है वहां 57 प्रतिशत रोशनी ही इसकी घनी झाड़ियों से नीचे तक आ पाती है, जबकि जिन स्थानों पर यह नहीं होता वहां 76 प्रतिशत रोशनी आती है.

जंगल में फैली लैंटाना की झाड़. माइकल बेनानाव

फरवरी 2019 में बांदीपुर एक विनाशकारी जंगल की आग की चपेट में आ गया, जिसने चार हजार हेक्टेयर से अधिक जंगल को नष्ट कर दिया. तीन साल पहले उत्तराखंड के जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क में लगी आग राज्य के 13 जिलों में फैल गई, जिससे करीब दो हजार हेक्टेयर वन भूमि नष्ट हो गई. एक अध्ययन में पाया गया कि 2005 और 2015 के बीच,उत्तराखंड के चार राष्ट्रीय उद्यानों में जंगल की आग की 601 घटनाएं दर्ज की गईं.

भारत में जंगलों में लगने वाली आग कोई नई बात नहीं है. सुकुमार ने मुझे बताया, "आग ने सदियों से हमारे जंगल की प्रकृति को आकार देने में एक प्रमुख भूमिका निभाई है." दुनिया भर के स्वदेशी समूहों की तरह, भारत के आदिवासी समुदायों, जैसे कि कर्नाटक के सोलिगा ने ऐतिहासिक रूप से अपनी वन-प्रबंधन रणनीतियों के हिस्से के रूप में आग का इस्तेमाल किया है. सोलिगा ने कई कारणों से नियंत्रित जगह पर जनवरी और फरवरी के महीनों में लगाई जाने वाली आग तारगु बेंकी ता इस्तेमाल किया है, जिसमें दृश्यता में सुधार, वन उपज के संग्रह को आसान बनाना, खाद्य उत्पादन में सहायता करना और घास को पुनर्जीवित करना शामिल है, जो आग के बाद तेजी से और बेहतर बढ़ता है. एक शोधकर्ता और आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता सी मेडेगौड़ा ने मुझे बताया, "जमीन पर भूसे में लगी आग सतह से दो-तीन फीट की ऊंचाई तक जाती है. हमें वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के प्रभाव में आने के बाद इस प्रथा को रोकना पड़ा."

1930 के दशक में कुछ जंगलों को छोड़कर सभी में आग लगाने के औपनिवेशिक शासन के निषेध को बहाल करने वाले अधिनियम नो-फायर नीति शुरूआत से विवाद का विषय रही है. सोलिगा लंबे समय से तर्क दे रहे हैं कि तारगु बेंकी पर प्रतिबंध लगाने से वन संरचना में बड़े बदलाव हुए हैं, विशेष रूप से लैंटाना को बढ़ने का रास्ता मिला है. पारिस्थितिकीविदों ने पुष्टि की है कि इस तरह की नियंत्रित सतह की आग मिट्टी में लैंटाना के बीज को मार सकती है और घास से ढके वन तल को बहाल कर सकती है. इस तरह के उपायों के अभाव में हर गर्मियों में लैंटाना बड़ी, विनाशकारी आग का कारण बनती है.

सुकुमार ने बताया, यह आग लैंटाना के और विकास में सहायक होती हैं. मुदुमलाई में दशकों तक खरपतवार का अध्ययन करने पर उन्होंने देखा कि 2004-05 में लैंटाना में भारी वृद्धि हुई थी. उन्होंने मुझे बताया, "यह मुदुमलाई का स्थानीय मामला नहीं था, क्योंकि हमें कर्नाटक के अन्य जंगलों से भी ऐसी ही रिपोर्ट मिली थी. जांच करने पर हमने पाया कि दक्षिण भारत में 2000 और 2004 के बीच बड़ा सूखा देखा गया था. साल 2000 से वर्षा में गिरावट आने के बाद 2002 में व्यापक आग की घटनाएं हुईं." पहले जंगल की आग के बाद बारिश घास को बेहतर तरीके से विकसित करने में मदद करती थी. बारिश नहीं होने से लैंटाना ने घास की जगह ले ली. सूखा फिर आग और फिर सूखा यह संयोजन लैंटाना के लिए बेहद अनुकूल है." लैंटाना वाले जंगल कई वन जानवरों के लिए चरने का स्थान भी होते हैं. इसके अलावा लैंटाना अपने आप में एक हानिकारक खरपतवार है, जिसे खाने पर लीवर और किडनी प्रभावित होती है. यह वन में चरने वाले पशुओं में जहर फैलने का एक प्रमुख कारक होता है. वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद द्वारा 1962 मे किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि जिन मवेशियों को लैंटाना के पत्ते खिलाए गए थे उनमें गंभीर पीलिया, त्वचा का छूटना, लार, सूजन और सुस्ती के लक्षण विकसित हुए.

2016 में, उत्तराखंड के जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क में लगी आग राज्य के 13 जिलों में फैल गई, जिससे लगभग दो हजार हेक्टेयर वन भूमि नष्ट हो गई. अनूप साह / बारक्रॉफ्ट मीडिया / गेट्टी इमेजिज

लैंटाना के वन भूमि पर कब्जा करने से केवल जानवरों के चरने पर ही प्रभाव नहीं पड़ा है. डब्ल्यूआईआई के अध्ययन में पाया गया कि भारत के 44 प्रतिशत जंगलों को लैंटाना से खतरा था, जो पूरे देश में बाघ अभयारण्यों के रूप में सुरक्षित किए गए थे. जब शाकाहारी जानवर बाघों की जगह को छोड़ देंगे तो मांसाहारियों को भोजन की तलाश में और आगे जाना पड़ता है. हालांकि वैज्ञानिक अध्ययनों में इसकी पुष्टि नहीं हुई है लेकिन कुछ विशेषज्ञों से मैंने इस अनुमान पर बात की थी कि लैंटाना से संक्रमित जगहों से बाघ मानव आवासों के और भी करीब आ सकते हैं.

लैंटाना की झाड़ियां जानवरों, यहां तक ​​​​कि हाथियों के लिए भी सही ठिकाना बन जाती हैं, ऐसे में उनसे मानव के संपर्क में आने का खतरा बढ़ जाता है. बांदीपुर के रेंज फॉरेस्ट ऑफिसर मुनिराजू ने मुझे बताया, "कई बार लैंटाना के पीछे जानवर छिपे होते हैं जो एक बाड़ का काम करती है और हमें इसका पता तब चलता है जब हम बहुत करीब पहुंच जाते हैं. यह जंगल में काम करने वाले हम में से कई लोगों के लिए खतरनाक साबित हुआ है." वर्गीज ने कहा कि कोटागिरी में हाल ही में एक खेत में काम कर रहे एक किसान की मौत के लिए लैंटाना आंशिक रूप से जिम्मेदार था.

लैंटाना का प्रसार भी मनुष्यों में पशुजन्य रोगों के जोखिम को बढ़ा देता है. 1957 में कर्नाटक में क्यासानूर जंगल के पास रहने वाले पांच सौ से अधिक लोग एक रहस्यमय बीमारी की चपेट में आ गए, कुछ ही समय बाद जंगल में दर्जनों बंदरों की मौत हो गई थी. क्यासानूर वन रोग (केएफडी) जिसे स्थानीय रूप से "बंदर बुखार" के नाम से जाना जाता है, ने अगले छह दशकों में कर्नाटक में पांच सौ से अधिक लोगों को मार डाला और केरल, गोवा और महाराष्ट्र के आसपास के राज्यों में फैल गया. 1960 के दशक की शुरुआत में केएफडी का अध्ययन शुरू करने वाले एक कोलंबियाई महामारीविद जॉर्ज बोशेल-मैनरिक ने पाया कि जंगल और आसपास के क्षेत्रों के बीच के क्षेत्रों में अक्सर लैंटाना और अन्य आक्रामक खरपतवार जैसे कि यूपेटोरियम और क्रोमोलाएना होता है.

इन लैंटाना झाड़ियों ने जंगल के पक्षियों और छोटे स्तनधारियों के लिए छाया प्रदान की, जो केएफडी वायरस के वाहक बन जाते हैं जिसकी चपेट में बंदर और बाद में मनुष्यों भी आ जाते हैं. लैंटाना से प्रभावित क्षेत्रों में कम जैव विविधता का मतलब है कि बिमारी अपने प्राथमिक वाहकों पर अधिक टिकेगी. वर्षों से लैंटाना का अध्ययन करने वाले नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज के पोस्टडॉक्टरल फेलो सुकुमार और तर्श ठेकैकारा ने मुझे बताया कि उनका मानना ​​है कि सतही आग के पारंपरिक अभ्यास ने टीक की आबादी को नियंत्रण में रखा था.

1991 में जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क में लगभग आठ सौ वर्ग किलोमीटर भूमि को प्रतिरोधक क्षेत्र के रूप में जोड़ा गया था. यहां कई गांव थे जहां जंगली जानवरों से फसलों की रक्षा के लिए लैंटाना को मेड के तौर पर लगाया गया था. वन अधिकारियों को उम्मीद थी कि ग्रामीणों के स्थानांतरण से इस भूमि पर वनों के सुधार में तेजी आएगी. वे लैंटाना को लेकर ज्यादा चिंतित नहीं थे, जिसे वे पक्षियों के भोजन के रूप में देखते थे.

हालांकि, उन्होंने जल्द ही पाया कि खरपतवार ने नए प्रतिरोधक क्षेत्र को खत्म कर दिया था. जब दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने पार्क के आधे हेक्टेयर का सर्वेक्षण किया, तो उन्होंने घने जंगलों, जिसमें अधिक सांद्रता वाले वन का बाहरी भाग और छोड़ी हुई कृषि योग्य भूमि को छोड़कर लगभग हर जगह लैंटाना पाया. उन्होंने लिखा, "कुछ पेड़ों को छोड़कर घनी प्रभावित क्षेत्रों में कोई अन्य देसी प्रजाति नहीं पाई गई." इसके बाद शोधकर्ताओं ने दो-आयामी प्रबंधन रणनीति का परीक्षण करने के लिए 2005 में झरना और लालढांग के परित्यक्त गांवों में दो हेक्टेयर पर एक पायलट परियोजना को शुरू किया जिसमें लैंटाना का उन्मूलन और खरपतवार मुक्त भूमि को बहाल करना शामिल था.

कटे हुए लैंटाना के गुच्छों को उल्टा रखा जाता है, ताकि पुनर्जनन को रोका जा सके, और जलाने से पहले दस दिनों तक सूखने दिया जाता है. अभिषेक एन चिन्नाप्पा

शोधकर्ताओं में से एक सीआर बाबू ने "कट रूट-स्टॉक विधि" नामक एक तकनीक विकसित की थी. बाबू ने मुझे बताया कि खरपतवार हटाने के पारंपरिक तरीके जैसे काटना और जलाना, लैंटाना जैसे जिद्दी खरपतवार को हटाने में काफी नहीं हैं, जो वापस आसानी से उग जाती है. काटने या चीरने के बाद भी बची हुई शाखा के नीचे से झाड़ वापस बढ़ना शुरू हो जाता है, जिससे शाखाओं का प्रसार होता है जो अभेद्य घने रूप में आपस में जुड़ जाते हैं. इसके अलावा जलाने से भूमि के भीतर बचे पौधे के ऊतक अधिक शाखाओं को बनाने लगते है. अर्थमूवर जैसी भारी मशीनरी का उपयोग करना न केवल आस-पास के अन्य पौधों को नष्ट कर देता है बल्कि हजारों लैंटाना बीजों को हवा में छोड़ देता है जो उनके अंकुरण में मदद करता है. बाबू ने कहा, “यह सभी तरीके खरपतवार को अनियंत्रित रूप से बढ़ने में मददगार साबित हुए हैं."

सीआरएस विधि, जिसे बाबू-कट विधि के रूप में जाना जाता है, में खुरपी का प्रयोग करते हुए पौधे के प्रजनन भाग के ठीक नीचे मुख्य जड़ को सतह से पांच सेंटीमीटर गहराई तक काटकर अलग कर देना शामिल है. लैंटाना के कटे हुए गुच्छों को फिर उल्टा करके रखा जाता है, ताकि पुनर्जनन को रोका जा सके और जलाने से पहले दस दिनों तक सुखाया जाता है. सीआरएस मिट्टी और अन्य पौधों को न्यूनतम नुकसान पहुंचाता है और काटने और चीरने की तुलना में बहुत कम लोगों की आवश्यकता होती है. बाबू और उनके सहयोगियों ने पाया कि इस कार्य के दौरान एक अकेला मजदूर प्रतिदिन औसतन बीस से पचास झाड़ निकाल सकता था, जिससे निकालने का खर्च दो हजार से चार हजार रुपए प्रति हेक्टेयर के बीच आता.

बांदीपुर में स्थित चरागाह प्रबंधन कार्यक्रम लैंटाना से प्रभावित क्षेत्र के एक प्रतिशत से भी कम को कवर करता है. अपने मौजूदा बजट के अनुसार चलने पर इसे राष्ट्रीय उद्यान को खरपतवार से मुक्त करने में एक सदी से अधिक समय लगेगा. इस योजना में लैंटाना उन्मूलन के लिए सीआरएस पद्धति का परीक्षण करने के अलावा घास के मैदान और मिश्रित वन स्थलों को बहाल करना शामिल था. शोधकर्ताओं ने शाकाहारी जानवरों जैसे चीतल और सांभर द्वारा खाई जाने वाली घास और फलियों की प्रजातियों की भी पहचान की, जो कॉर्बेट के बाघों के लिए शिकार करने का केंद्र बन गया था. फिर उन्होंने फील्ड नर्सरी विकसित की उसमें घास, फलियां और पेड़ के पौधे लगाए जिनकी उन्होंने पहचान की थी और निगरानी और अनुवर्ती गतिविधियों को अंजाम दिया.

यह पायलट प्रोजेक्ट एक बड़ी सफलता थी. शोधकर्ताओं ने लिखा, "सीआरएस विधि द्वारा हटाए गए झाड़ के नीचे दबे लैंटाना बीज अंकुरित होने में विफल रहे जहां अब नए पौधों ने जगह बन ली है. अगस्त 2008 तक बहाली परियोजना को सोलह सौ हेक्टेयर से अधिक तक विस्तारित किया गया था, जहां लैंटाना की जगह एक लाख पचास हजार से अधिक घास और पांच हजार से अधिक पौधे और फलियां के पौधे लगाए गए थे.

पायलट प्रोजेक्ट के दौरान कॉर्बेट के फील्ड डायरेक्टर और अब उत्तराखंड जैव विविधता बोर्ड के अध्यक्ष राजीव भारती ने मुझे 2019 के एक साक्षात्कार में बताया कि घास के मैदान की बहाली ने राष्ट्रीय उद्यान की तस्वीर बदल दी थी. उन्होंने बताया, "लालढांग जगह अद्भुत है. यहां पांच सौ हेक्टेयर घास का मैदान है. जहां 2006 में बाघ घनत्व सिर्फ 108 था. आज हमारे पास 231 यही रहने वाले और 35 बाहरी बाघ हैं जो नियमित रूप से पार्क में हलचल करते रहते हैं. लैंटाना को हटाने और घास और फलियों के साथ जगह को बहाल करने से जानवरों के व्यवहार और चरने के पैटर्न में बदलाव आया है. अब हम घास के मैदान में अधिक हिरणों और उनके बच्चों को देख सकते हैं.”

भर्तारी ने कहा कि 2020-21 में राष्ट्रीय उद्यान को दिए गए 3 करोड़ रुपए के बजट का उपयोग करके दो हजार हेक्टेयर लैंटाना को साफ करने और इसे घास के मैदान में बदलने की योजना बनाई जा रही थी. उन्होंने कहा कि सबसे बड़ी चुनौती सीआरएस और बहाली के तरीकों में प्रशिक्षित कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति और स्थानांतरण और काम में दिलचस्पी न दिखाना सबसे थी, क्योंकि उनका प्रतिस्थापन ढूंढना या नए लोगों को प्रशिक्षण देना मुश्किल का है. उन्होंने बताया, "इस काम को बेहद ध्यानपूर्वक करने की जरूरत होती है. और ध्यान लगाए रखना मुश्किल काम था."

क्यासानूर वन रोग से, जिसे पहली बार 1957 में देखा गया था, अब तक पांच सौ से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है. लैंटाना थिकेट्स ने केएफडी वायरस को जंगली मुर्गी से बंदरों और अंततः मनुष्यों में फैलने में मदद की. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद

इसी तरह की पहल मई 2019 में बांदीपुर में शुरू की गई थी. पार्क में मैदान प्रबंधन कार्यक्रम के हिस्से के रूप में लैंटाना सहित विभिन्न खरपतवारों को 330 हेक्टेयर से हटाकर उस जगह पर घास उगानी थी. मुनिराजू ने मुझे बताया, उस साल नवंबर तक 16 हेक्टेयर जमीन साफ ​​कर दी गई थी. लगभग तीस हजार रुपए प्रति हेक्टेयर की वार्षिक लागत से होने वाला यह काम तीन साल तक चलना था. पार्क के पूर्व निदेशक टी बालचंद्र ने मुझे बताया कि मार्च 2016 में तर्श थेकेकारा द्वारा कर्नाटक वन विभाग को बांदीपुर में लैंटाना संक्रमण पर एक रिपोर्ट सौंपे जाने के बाद उन्होंने इस कार्यक्रम की शुरुआत की थी. एक क्षेत्र सर्वेक्षण में पाया गया था कि लगभग चालीस प्रतिशत पार्क में मतलब छत्तीस हजार हेक्टेयर से अधिक में या तो लैंटाना जड़ें जमाए हुए था, जबकि आगे के पचास प्रतिशत में सामान्य संक्रमण था. चरागाह प्रबंधन कार्यक्रम इस क्षेत्र के एक प्रतिशत से भी कम को कवर करता है. थेकेकारा की गणना के अनुसार परियोजना के आवंटित किए गए लगभग 1 करोड़ रुपए के वार्षिक बजट में लैंटाना के राष्ट्रीय उद्यान को साफ करने में एक सदी से अधिक समय लगेगा.

उन्होंने मुझे बताया, "हमारे पास दक्षिण भारतीय जंगलों में इस समस्या से निपटने के लिए अभी कोई तरीका नहीं है." सीआरएस ने भले ही कॉर्बेट के घास के मैदानों में काम किया हो, लेकिन बांदीपुर और अन्य पतझड़ी जंगल में यह मुश्किल से काम करती है. यहां घास इतनी आसानी से नहीं उगती है कि उखड़े हुए लैंटाना की जगह जल्दी से ले सके. पारिस्थितिकीविदों ने केरल और तमिलनाडु के वन विभागों से प्रत्येक संरक्षित क्षेत्र में पचास हेक्टेयर अलग रखने के लिए कहा है ताकि वे प्रयोग कर सकें और इस क्षेत्र में लैंटाना से निपटने के लिए एक आसान विधि का प्रयोग कर सकें.

तमिलनाडु के गुडलुर में 2021 की गर्मियों के दौरान लंदन में सार्वजनिक पार्कों की शोभा बढ़ाने के लिए एक सौ पचास नकली हाथी तैयार किए गए थे. वे कर्नाटक में माले महादेश्वर पहाड़ियों में टीआरईसी की इकाई में लैंटाना के डंठल का उपयोग करके बनाए गए थे. जहां डंठल को पानी में उबाला गया ताकि उनकी लचीलापन में सुधार हो, फिर सूखाया गया. यह व्यापार टीआरईसी और ब्रिटेन में स्थित हाथियों के संरक्षण संगठन के बीच एक सहयोग, एशियाई हाथी के सिकुड़ते आवासों के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए था. इसमें बेट्टा कुरुबा, पनिया और कट्टू नायकर जैसे क्षेत्र के आदिवासी समुदाय शामिल थे. काम की निगरानी करने वाली रंजिनी जानकी एक बेट्टा कुरुबा हैं जो जूलॉजी में मास्टर डिग्री पूरी करने के बाद टीआरईसी में शामिल हुईं. उसने मुझे बताया कि आदिवासी पुरुषों ने वास्तविक हाथियों की पहचान की जिन्हें बनाया जाना था और तस्वीरों और चित्रों के आधार पर "स्टील की छड़ों को हाथियों के आकार में वेल्ड किया जाता है और फिर लैंटाना डंठल को कंकाल के लिए प्रयोग किया जाता है." विभिन्न आकारों के हाथी बनाए गए, सबसे बड़ा वह ग्यारह फीट लंबा था. बाद में संरक्षण के प्रयासों के लिए धन जुटाने के लिए उन्हें लंदन में नीलाम किया गया था.

जबकि भारतीय जंगलों से लैंटाना को पूरी तरह से समाप्त करना कठिन दिखाई पड़ता है, तब पारिस्थितिकीविद और उद्यमी खरपतवार के प्रबंधन और इससे पैदा होने वाली जैव विविधता के नुकसान को कम करने के लिए विभिन्न तरीकों की जांच कर रहे हैं. पारिस्थितिकी और पर्यावरण में अनुसंधान के लिए अशोक ट्रस्ट लैंटाना से फर्नीचर बनाने के लिए सोलिगा के साथ काम कर रहा है. एटीआरईई परियोजना की देखरेख करने वाले एक वनस्पति विज्ञानी सिद्दप्पा सेट्टी ने मुझे बताया कि इसने आजीविका का एक अच्छा विकल्प प्रदान किया है.

लैंटाना के डंठल से बने हाथियों को 2021 की गर्मियों के दौरान लंदन में प्रदर्शित किया गया था. संरक्षण के प्रयासों में सहायता के लिए उनकी नीलामी की गई. वुक वाल्सिक / सोपा इमेजिज / लाइट्रोकेट / गेट्टी इमेजिज

सेट्टी ने बताया, "यह कचरे से धन बनाने की एक तरकीब है. एमएम हिल्स के लगभग तीन सौ सोलिगा आदिवासियों को लैंटाना शिल्प में प्रशिक्षित किया गया है, जिनमें से एक सौ बीस लोग हमारे साथ कार्य कर रहे हैं. उद्यम की सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि सात से आठ साल पहले सात हजार से आठ हजार रुपए सालाना कमाने वाली सोलिगा अब लगभग पैंतीस हजार रुपए सालाना कमा रहे हैं. उन्होंने कहा कि लैंटाना शिल्प-निर्माण में बांस की जगह ले सकता है, जो पारिस्थितिक रूप से उपयोगी पौधा है.

कॉर्बेट में भी जंगल के किनारे रहने वाली महिलाओं के साथ काम करने वाले गैर सरकारी संगठनों ने लैंटाना से फर्नीचर बनाना सीख लिया है. हिमालय के कुछ हिस्सों में लैंटाना के तने पहले से ही टूथब्रश और टोकरियां बनाने के लिए उपयोग किए जा रहे हैं. पत्तियों का उपयोग लकड़ी को चमकाने के लिए और अनाज के कंटेनरों में कीड़ों को भगाने के लिए किया जाता है.

लैंटाना के अंदर जहरीले पदार्थों का 1940 के दशक से बड़े पैमाने पर अध्ययन किया गया है और इसमें रोगाणुरोधी और कीटनाशक गुण पाए गए हैं. पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों के हिस्से के रूप में पौधे का उपयोग कई बीमारियों के इलाज के लिए किया गया है, जिसमें घाव और कट से लेकर टेटनस, गठिया, मलेरिया और पित्त बुखार शामिल हैं. लैंटाना के विभिन्न रासायन भी मच्छरों, घोंघे, दीमक और जलकुंभी को मारने में उपयोगी पाए गए हैं. इसके अलावा, कृषि में लैंटाना के उपयोग पर शोध से पता चला है कि चूंकि इसकी पत्तियां नाइट्रोजन से भरपूर होती हैं इसलिए इन्हें एक महीन तक गीली घास के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, जो मिट्टी की उर्वरता में सुधार करती है, नमी बनाए रखने में मदद करती है, जड़ की वृद्धि को बढ़ाती है, पोषक तत्वों के अवशोषण और मक्का और गेहूं की पैदावार में सुधार करती है.

लैंटाना का अन्य महत्वपूर्ण उपयोग बायोमास के रूप में होता है, जिससे ईंधन, उर्वरक और पेपर पल्प बनाया जा सकता है. कुछ पहाड़ी गांवों में यह कुल जलाऊ लकड़ी की खपत का पांचवां हिस्सा है. कचरे को ऊर्जा में बदलने के लिए प्रौद्योगिकी प्रदान करने वाली बेंगलुरू की एक कंपनी बायोएन में प्रौद्योगिकी सलाहकार राजपाल नवलकर ने मुझे बताया कि लैंटाना से बनी बायोगैस में साठ से सत्तर प्रतिशत मीथेन होता है. नवलकर ने आगे बताया, एक टन लैंटाना लकड़ी प्रति दिन 45 क्यूबिक मीटर बायोगैस पैदा करती है और एक महीने में पांच सौ किलोग्राम अपचित सामग्री का उत्पादन करता है, जिसे उर्वरक के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है.

टीआरईसी के सह-संस्थापक थेकेकारा ने लैंटाना की उत्पादक शक्ति की सराहना की लेकिन सावधानी बरतना भी जरूरी बताया.  उन्होंने कहा, "आपको बहुत सारे शोध मिलेंगे लेकिन उनपर बहुत कम काम किया गया है.” वर्गीस ने बताया, "यह सिर्फ एक खास प्रजाति के खिलाफ लड़ाई नहीं हो सकती है, हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि अगर हमने लैंटाना से छुटकारा पा लिया तो हमने नुकसान पहुंचाने वालो की बड़ी समस्या को हल कर लिया है." उन्होंने सुझाव दिया कि किसी एक प्रजाति के पीछे पड़ने और अकेले इससे निपटने की कोशिश करने के बजाय यह अधिक व्यावहारिक और प्रभावी होगा कि हम एक भू-भाग को चुनकर उसे सभी खतरनाक पौधों से मुक्त करने का एक तरीका खोंजे.

कीस्टोन फाउंडेशन एटीआरईई के साथ मिलकर नीलगिरी के नागरिकों से मोबाइल एप्लिकेशन का उपयोग करके खरपतवार को खोजने करने की कवायद का हिस्सा बनने का आग्रह कर रहा है. वर्गीस ने कहा, "यह खरतवार न केवल वन विभाग की जिम्मेदारी है. अपने बगीचों में सुंदर फूलों के साथ इन खरपतवारों को रखकर हम सभी भी इसके आक्रमण के लिए एक तरह से जिम्मेदार हैं. समय आ गया है कि हम इसके प्रबंधन में हिस्सा लें."

 
(अनुवाद : अंकिता)


आरती मेनन कर्नाटक स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. वह पर्यावरण, स्थिरता और जेंडर पर लिखती हैं।