झारखंड के मंडल बांध से नष्ट होगा पर्यावरण, आजीविका और 3.4 लाख पेड़

सुष्मिता
19 February, 2020

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 5 जनवरी 2019 को कुटकु मंडल बांध परियोजना की आधारशिला रखने झारखंड पहुंचे. उसी दिन हजारों ग्रामीणों ने परियोजना के विरोध में परियोजना स्थल से उस जगह तक मार्च किया जहां मोदी के विमान को उतरना था. स्थानीय लोग बांध के कारण होने वाले अपने संभावित विस्थापन का विरोध कर रहे थे और उचित पुनर्वास, मुआवजे और नौकरियों की मांग कर रहे थे. हवाई पट्टी पर पहुंचने से पहले ही उनकी रैली को रोक दिया गया.

1970 के दशक की शुरुआत में प्रस्तावित कुटकु मंडल बांध परियोजना, जिसे उत्तरी कोयल बांध परियोजना भी कहा जाता है, पलामू टाइगर रिजर्व (पीटीआर) के भीतर आती है.  यह इलाका झारखंड के लातेहार और पलामू जिलों तक फैला हुआ है. 1990 के दशक से स्थानीय विरोध के बाद परियोजना का काम रोक दिया गया. 2015 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने परियोजना के लिए वन, पर्यावरण और वन्यजीव से संबंधित मंजूरियों को "तेज" करने के लिए एक टास्क फोर्स के गठन की घोषणा की.

पीटीआर बेतला राष्ट्रीय उद्यान का हिस्सा है, जिसे 1947 में भारतीय वन कानून के तहत संरक्षित वन घोषित किया गया था. बेतला को 1973 में वन्यजीव अभयारण्य और 1986 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया था. यह भारत के शुरुआती राष्ट्रीय उद्यानों में से एक है. कालांतर में यह भारत में बाघों की यथोचित आबादी को बनाए रखने की सरकारी पहल ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ के तहत बाघ का आरक्षित क्षेत्र बन गया. बाघों का निवास स्थल होने के अलावा, इस रिजर्व में जंगली सूअर, हाथी, काकड़, सुनहरे गीदड़ और भालू भी रहते हैं. यह खेरवारों, चेरो, उरांव, मुंडा, बिरजिया, कोरवा जैसे आदिवासी समुदायों का भी घर है.

लेकिन जब मंडल बांध चालू हो जाएगा, तो यह पीटीआर के कुछ हिस्सों को जलमग्न कर देगा. नवंबर 2018 में, पर्यावरण मंत्रालय ने बांध के लिए आवश्यक अंतिम मंजूरी और पर्यावरणीय मंजूरी दी, जिससे झारखंड सरकार को परियोजना के लिए 1000 हेक्टेयर से अधिक वन भूमि को नष्ट करने की अनुमति मिल गई. यह भूमि बांध के डूब क्षेत्र में आती है. पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के दस्तावेज यह भी बताते हैं कि इस परियोजना के लिए लगभग 3.4 लाख पेड़ों को गिराया जाना है. पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि बांध के कारण क्षेत्र के पर्यावरण, वन्यजीव और पारिस्थितिकी तंत्र को खतरा है. यह क्षेत्र में रहने वाले सैकड़ों आदिवासियों को भी विस्थापित करेगा. सरकार नियोजित साइट स्पेसिफिक वाइल्डलाइफ मैनेजमेंट प्लान (स्थल विशेष वन्यजीव प्रबंधन योजना) - एक दस्तावेज जो आसपास की जैवविविधता, वन्य जीवन और क्षेत्र के लोगों पर बांध के प्रभाव का आकलन करती है - के आंकड़ों के अनुसार उत्तर कोयल नदी के पानी से कम से कम 8 गांव जलमग्न हो जाएंगे.

अक्टूबर 2019 में मैंने पीटीआर का दौरा किया और बांध से प्रभावित होने वाले दो गांवों, मेराल और केमो के निवासियों से मुलाकात की. मैंने जिन आदिवासियों से बात की वे बांध का काम दुबारा शुरू होने से नाराज थे. कई ग्रामीणों ने मुझे बताया कि वे इस परियोजना का इसलिए विरोध कर रहे हैं क्योंकि यह उन्हें जबरन विस्थापित कर देगी और उनकी आजीविका छीन लेगी. उन्होंने कहा कि बांध उस जमीन को जलमग्न कर देगा जहां वे पीढ़ियों से रहते आ रहे हैं. उन्होंने बताया कि इसके चलते वे अपने अस्तित्व के जरूरी वन भूमि भी खो देंगे. कई ग्रामीणों ने यह भी कहा कि उन्हें पुनर्वास के लिए वैकल्पिक भूमि की पेशकश नहीं की गई. हालांकि कई अन्यों को वैकल्पिक भूमि दिखाई गई थी जो बंजर होने के चलते खेती के लिए उपयुक्त नहीं थी.

मेराल गांव के निवासी रणजय ओरांव ने कहा, "जब सिंचाई विभाग के अधिकारी आए और क्षेत्र का सर्वेक्षण किया, तो हमें इसकी जानकारी नहीं थी कि यह सब किस लिए हो रहा है. अधिकारियों ने दावा किया था कि हममें से हर एक के बैंक खाते में 15 लाख रुपए आएंगे. लेकिन हमने उन पर विश्वास नहीं किया. जब भी अधिकारी आए, उन्होंने बस हमसे हमारे पैन और आधार कार्ड के बारे में पूछा. उन्होंने हमें कभी नहीं बताया कि वे इसलिए आ रहे थे कि हमारे गांव डूब क्षेत्र में आते हैं. जब हमारे गांव जलमग्न हो जाएंगे, तो हम कहां जाएंगे? इस पर कोई चर्चा नहीं हुई.”

2017 में परियोजना के फिर से शुरू होने की खबरे आने के बाद से इसका विरोध कर रहे स्थानीय कार्यकर्ता और लेखक जेरोम जेराल्ड कुजूर ने बताया कि इससे प्रभावित होने वाले गांवों की संख्या आधिकारिक आंकड़ों से अधिक है. कुजूर का अनुमान है कि बांध से कम से कम 25 गांव प्रभावित होंगे. उन्होंने बताया कि गांव दो तरह से प्रभावित होंगे. एक, बांध के पानी की वजह से सीधे डूब जाने से और दूसरा, वन क्षेत्र के जलमग्न हो जाने से वन्यजीवों की चहलकदमी के पैटर्न में बदलाव के चलते पीटीआर का परिदृश्य बदल जाएगा.

कुजूर ने जोर दिया कि सरकार वनवासियों की सहमति के बगैर परियोजना को आगे बढ़ा रही है, जो कि वन अधिकार कानून (एफआरए) 2006 का उल्लंघन है. एफआरए दशकों से वन्य भूमि पर रहने वाले वनवासी समुदायों के साथ हुए "ऐतिहासिक अन्याय" को मान्यता देता है. यह कानून अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों को वन भूमि पर अपने अधिकार का दावा करने की इजाजत देकर उन्हें उस भूमि का स्वामित्व देता है जिस पर वे रहते आए हैं. कानून में कहा गया है कि जिस वन भूमि पर उनका अधिकार है उससे हटाने के लिए उनकी सहमति आवश्यक है. यह निर्धारित करता है कि वनवासी समुदायों को स्थानीय ग्राम सभाओं की "स्वतंत्र और सूचित सहमति" के बिना स्थानांतरित नहीं किया जा सकता. परियोजना प्राधिकरण द्वारा ग्रामीणों को उनकी भाषा में भूमि और आजीविका पर परियोजना के प्रभावों को स्पष्ट करने के बाद ग्राम सभा की पूर्व स्वीकृति लेना आवश्यक है. जिला स्तर पर इस विस्तृत प्रक्रिया के बाद, जिला कलेक्टर या राज्य प्राधिकारियों को यह प्रमाणित करने के लिए एक पत्र प्रस्तुत करना आवश्यक है कि इससे पहले कि वन भूमि को गैर-वन उपयोग के लिए बदला जा सके एफआरए के तहत समुदायों के अधिकारों का ध्यान रखते हुए सभी कदम उठाए गए हैं. कानून में कहा गया है कि वनवासियों का कोई भी पुनर्वास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि पुनर्वास स्थान पर सुविधाएं और भूमि का आवंटन “वादा किए गए पैकेज के अनुसार पूरा न हो जाए.”

कुजूर के अनुसार, प्रभावित गांवों की ग्राम सभाओं ने बांध के पुनर्वास के लिए सहमति नहीं दी थी. कुजूर ने कहा, “2017 में 8 गांवों को एक पत्र मिला, जिसमें ग्रामीणों को सूचित किया गया था कि उनका गांव कोर क्षेत्र में है और उनसे पूछा गया कि वे स्थानांतरित होने के लिए सहमत हैं या नहीं. पत्र में वैकल्पिक निवास या भविष्य के लिए किसी भी रूपरेखा का उल्लेख नहीं है. ग्राम सभा की बैठक के बाद, ग्रामीणों ने अपना विरोध विभाग को भेज दिया.” फिर भी 2017 में झारखंड के जल संसाधन विभाग को भेजे गए एक पत्र में लातेहार के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर प्रमोद कुमार गुप्ता ने कहा था कि एफआरए के तहत प्राप्त सभी दावों का निपटारा कर दिया गया है और संबंधित ग्राम सभाओं ने परियोजना के लिए सहमति दे दी है.

ग्रामीणों ने मुझे बताया कि न केवल एफआरए के तहत आने वाले उनके अधिकारों को मान्यता नहीं दी गई, बल्कि पुनर्वास की स्थिति का आकलन करने के लिए भी कोई उचित सर्वेक्षण नहीं कराया गया. कुजूर ने बताया कि परियोजना से प्रभावित होने वाले कुजरम गांव के निवासियों को एक बंजर भूमि को उनके पुनर्वास स्थल के रूप में दिखाया गया और बताया गया कि उन्हें मुआवजे के रूप में 10 लाख रुपए मिलेंगे. उन्होंने बताया कि "बंजर और बांझ भूमि को देखकर ग्रामीणों ने अधिकारियों से पूछा, ‘लेकिन हम और हमारी आने वाली पीढ़ियां यहां कैसे रहेंगी?’” कुजूर के अनुसार, अधिकारियों ने ग्रामीणों से कहा कि यह उनकी सरदर्दी नहीं है.

कुजूर ने कहा कि स्थानीय अधिकारियों ने ग्रामीणों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए हैं. उन्होंने कहा, “हमने कई सामुदायिक वन-अधिकार दावे दायर किए हैं. 2010 के बाद से उसी जमीन के लिए, जिस पर हमने दावा किया था, दावेदारों को अपराधी माना गया था और उन पर जंगलों को काटने और नष्ट करने का आरोप लगाया गया था."

मंडल बांध को शुरू में पलामू में सूखे के संकट के समाधान के रूप में प्रस्तावित किया गया था. 1990 में "कृषि संघर्ष" पर एक रिपोर्ट में नागरिक समाज संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स ने कहा था, "पलामू के लोग संदर्भ बिंदु के रूप में अपने जन्म और जीवन को याद करते हैं, अपने ऋण और हितों की गणना करते हैं, अकाल और सूखे के साथ अपने विवाह और मृत्यु को याद करते हैं." साल 2000 में झारखंड राज्य के निर्माण से पहले, बांध बिहार के अधिकार क्षेत्र में आता था. बिहार सरकार ने दावा किया कि नहरों का नेटवर्क पलामू, जो अब झारखंड में आता है, और आसपास के औरंगाबाद और गया जिलों को सिंचित करेगा.

कुजूर ने कहा, “मुझे नहीं लगता कि सिंचाई के सरकारी दावे सही हैं. झारखंड राज्य को केवल 20 प्रतिशत पानी मिलेगा और वह भी आदिवासियों या किसानों को नहीं." कुजूर ने कहा, "अगर बांध काम करना शुरू कर देता है, तो भी इसका जीवन काल 15-20 साल से अधिक नहीं होगा क्योंकि बांध से बहने वाले पानी में काफी मात्रा में बालू होती है. बालू मिश्रित पानी के भारी प्रवाह से कुछ वर्षों में बांध कमजोर हो जाएगा. ”

सरकार के इस दावे का कि बांध से सिंचाई में मदद मिलेगी, एक्टिविस्टों ने व्यापक विरोध किया है, जो बताते हैं कि क्षेत्र की अधिकांश नदियां बारिश पर निर्भर हैं. विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन के संयोजक दामोदर तुरी ने बताया, “यह सही है कि सिंचाई स्रोत उपलब्ध कराया जाना चाहिए. लेकिन क्या सिंचाई के लिए गांवों को डुबो देने का कोई मतलब है? इसके अलावा, लोगों को यकीन भी नहीं है कि यह हमारे हक में होगा. क्या गारंटी है कि यह बड़े उद्योगों के लिए नहीं किया जाएगा?" तुरी ने आगे कहा, “अगर हम इसके लिए सबसे अधिक कीमत चुकाते हैं, तो क्या हमें इससे कोई फायदा नहीं मिलना चाहिए?”

मंडल बांध पर निर्माण कार्य पहली बार 1975 में शुरू हुआ. कंजरवेशन फ्रॉम मार्जिंस नामक किताब में पर्यावरणविद रजा काजमी ने मंडल बांध पर एक अध्याय लिखा है. उन्होंने बताया है कि 1980 में, पर्यावरण और वन मंत्रालय (एमओईएफ) द्वारा वन (संरक्षण) कानून पारित किए जाने और कई अन्य अधिसूचनाओं के साथ, संघ सरकार की भूमिका आवश्यक हो गई. एमओईएफ, वन और पर्यावरण मंजूरी देने के लिए नोडल एजेंसी बन गया. एमओईएफ ने 1984 में पहली पर्यावरणीय मंजूरी दी, जो 8 शर्तों के अधीन है. उनमें बांध से प्रभावित होने वाले गांवों का पुनर्वास प्रमुख थी. काजमी ने अपने अध्याय में लिखा है कि, "जबकि कागजों में यह सब दर्ज है लेकिन परियोजना का काम, कानूनों का घोर उल्लंघन कर, बेरोकटोक जारी रहा."

ऑनलाइन समाचार पोर्टल स्क्रॉल की एक रिपोर्ट के अनुसार 1997 में अधूरे बने बांध से पहली बार पानी छोड़ा गया था. स्क्रॉल ने नागरिक अधिकार समूहों के एक साझा मंच ‘कोआर्डिनेशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स ऑर्गेनाइजेशन’ (सीडीआरओ) के हवाले से अपनी रिपोर्ट में बताया है कि बांध के एक इंजीनियर ने बांध के अस्थायी जलद्वार को बंद कर दिया और परियोजना का विरोध कर रहे स्थानीय लोगों को दबाने के लिए पानी छोड़ दिया.

सीडीआरओ ने कहा, "ग्रामीणों के विरोध को दबाने के लिए, बांध इंजीनियर बैजनाथ मिश्रा ने अगस्त 1997 में बांध का अस्थायी जलद्वार बंद कर दिया. जिसके चलते आई बाढ़ में निकटवर्ती 32 गांव रातोरात जलमग्न हो गए और लगभग 1100 परिवार प्रभावित हुए. बड़ी संख्या में जानवर मारे गए और बहुत से लोगों की संपत्ति और सामान नष्ट हो गए. गांव के बुजुर्ग लोगों ने बताया कि लोगों को बचाने के लिए सीमेंट और मलबा ले जाने वाले तसलों को नावों के रूप में इस्तेमाल किया गया था. 21 लोग डूब गए. … 16 अगस्त को माओवादियों ने बांध इंजीनियर बैजनाथ मिश्रा की हत्या कर दी. तब से ही यह परियोजना बंद हो गई.”

1997 की बाढ़ को याद करते हुए तुरी ने बताया, "इससे जल्द से जल्द उबरने के लिए ट्रकों और अन्य व्यवस्था उपलब्ध कराने के हमारे कई अनुरोधों को भी खारिज कर दिया गया." मिश्रा की मृत्यु के बाद, मंडल बांध परियोजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. 2015 में जब जावड़ेकर ने मंजूरी प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए एक टास्क फोर्स बनाने का फैसला किया तो इस परियोजना को एक नई ऊर्जा मिली. अब इसके लिए ताजा मंजूरी की आवश्यकता थी क्योंकि उस अवधि में जब 1997 से 2015 के बीच बांध का निर्माण रुका हुआ था, विकास परियोजनाओं को विनियमित करने के लिए कई नए कानून अस्तित्व में आ गए थे. इनमें वन अधिकार अधिनियम (2006) और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (1972) में संशोधन शामिल थे.

एमओईएफसीसी ने अनुपालन के लिए कई शर्तों के साथ, 23 फरवरी 2018 को मंडल बांध को "मूलत:" या स्टेज-I अनुमोदन प्रदान किया गया. पर्यावरण पत्रिका डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के अनुसार, शर्तों में से एक शर्त थी कि परियोजना पर आगे के निर्माण से पहले परियोजना प्रभावित परिवारों का निपटान होना चाहिए. लेकिन झारखंड सरकार ने मई 2018 में एमओईएफसीसी को एक पत्र लिख अनुरोध किया था कि इस शर्त को संशोधित कर दिया जाए.

वन परामर्श समिति ने झारखंड सरकार के अनुरोध पर विचार किया. डाउन टू अर्थ में प्रकाशित एक रिपोर्ट में उस बैठक के मिनट के हवाले से बताया गया है कि समिति ने राज्य सरकार का अनुरोध मान लिया था. मिनट में लिखा है, “राज्य सरकार ने कहा है कि जलमग्न हुए गांवों के पुनर्वास से पहले कार्य योजना को लागू नहीं किया जा सकता.” “इस परिप्रेक्ष्य में, शर्त में... संशोधन कर दर्ज किया जाना चाहिए कि बांध के जलद्वार को बंद करने से पहले राज्य सरकार तय अवधि में जलमग्नावस्था वाले गांवों के पुनर्वास को सुनिश्चित करेगी.” नवंबर 2018 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने कुटकु मंडल बांध परियोजना को अंतिम स्वीकृति या दूसरे चरण की स्वीकृति प्रदान कर दी. पहले और दूसरे चरण की स्वीकृतियों के बीच की अवधि में सरकार ने उन ग्रमीणों का पुनर्वास नहीं किया जिन पर बांध का असर होना था.

स्वीकृतियों की इस प्रक्रिया के अलावा, झारखंड सरकार ने स्थल विशेष वन्य जीव-जंतु प्रबंधन योजना तैयार करने के लिए नेचर कंजर्वेशन सोसाइटी की सेवा ली. यह संस्था 1976 से इस इलाके में जैवविविधता संरक्षण पर काम कर रही है. उपरोक्त योजना वन संरक्षण कानून और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम की बाध्यात्मक शर्त है. सरकार द्वारा नियोजित एनसीएस रिपोर्ट बताती है कि सरकार के इस दावे के विपरीत कि गांववालों का पुनर्वास किया जा चुका है, गांववाले अब भी परियोजना से प्रभावित इलाकों में रह रहे हैं.

एनसीएस की रिपोर्ट में उत्तर कोयल परियोजना के पुनर्वास अधिकारी के 25 जनवरी 2017 के एक पत्र का संदर्भ दिया गया है. इस पत्र के अनुसार 15 प्रभावित गांवों के 634 परिवारों का पुनर्वास कर पुनर्स्थापित किया जा चुका है. इनमें से 83 परिवारों को यातायात खर्च दिया गया है. एनसीएस की रिपोर्ट में कहा गया है, “पुनर्स्थापना की जगहों का कोई उल्लेख नहीं है. केवल 83 के बारे में ही यह जानकारी है.” गौरतलब है कि आधिकारिक रूप से भी केवल 83 परिवारों को वैकल्पिक भूमि देने की जानकारी है.

उस पत्र में सरकार के दावे के विपरीत, एनसीएस रिपोर्ट कहती है, “डूब क्षेत्र के हमारे सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण से खुलासा होता है कि 8 गांवों के 670 परिवार अब भी गांवों में मौजूद हैं और अपनी जमीन पर खेती कर रहे हैं.” रिपोर्ट में लिखा है, “यह जानना महत्वपूर्ण है कि जल संसाधन विभाग का विचार है कि तमाम डूब क्षेत्र के सभी 8 गांवों को मुआवजा दिया जा चुका है और पुनर्वास किया जा चुका है. लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि ये गांव अब भी मौजूद हैं और इन गांवों का स्थानीय प्रशासन, पंचायत और मुखिया सक्रिय हैं. प्रभावित गांवों के मुखिया अब भी उचित मुआवजे और पुनर्वास पैकेज की मांग कर रहे हैं.” इन इलाकों के लोगों से मेरी बातचीत में उपरोक्त बात की पुष्टि होती है.

एनसीएस की रिपोर्ट के मुताबिक, 46 गांव डूब क्षेत्र के 10 किलोमीटर के प्रभावित जोन में आते हैं और इन पर आजीविका और वन्यजंतु की चहलकदमी पर बहुत असर पड़ेगा.” इन इलाकों में 5852 परिवार आते हैं. इसके साथ ही कम से कम 10 अन्य गांवों पर “वन्यजंतु, खासकर हाथियों की चहलकदमी के पैटर्न में संभावित बदलाव” का असर पड़ेगा. इन 10 गांवों में 1138 परिवार हैं.

एनसीएस की रिपोर्ट कहती है, “डूब क्षेत्र में आदिवासी गांव हैं, जिनमें ऐसे गांव भी हैं जहां आदिम कबीले के लोग रहते हैं. ये लोग विकास के नाम पर उजाड़े जाएंगे.” संख्यात्म दृष्टि से छोटे और अलग-थलग रहने वाले आदिवासियों को सरकार ‘मुख्य रूप से असुरक्षित आदिवासी समूह’ मानती है. पहले इन्हें आदिम कबीले कहा जाता था. इनके लिए सरकार अतिरिक्त सुरक्षा उपाय करती है. एनसीएस की रिपोर्ट में लिखा है, “वन और वन्यजीव पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा और संभवतः बांध पूरे इलाके के पर्यावरण को बदल डालेगा.”

झारखंड सरकार वृक्षों की बर्बादी की क्षतिपूर्ति के लिए वनीकरण करेगी. यह पर्यावरण अनुमति की अंतिम शर्तों में से एक थी. सरकार ने दावा किया है कि उसने 2015 से अब तक 120989185 पौधे लगाए हैं जिससे राज्य के वन क्षेत्र में 33.21 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है और सरकार ने राष्ट्रीय वन नीति द्वारा तय लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है.

लेकिन स्थानीय लोग इस दावे को नहीं मानते. तुरी ने मुझे बताया, “हमने इलाके में वृक्षारोपण होते नहीं देखा और न हमें यकीन है कि वन क्षेत्र में बढोतरी हुई है. यह दावा करना सच में धृष्टतापूर्ण है कि पेड़ लगाते ही वनक्षेत्र बढ़ गया, जबकि जंगलों के पूर्ण विकास में दशकों का वक्त लग जाता है. क्या सरकार को यह भी पता है कि साल का एक पेड़ कितने साल में बड़ा होता है?”

मैंने ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के वकील सोनल तिवारी से इस बारे में बात की जो मंडल बांध परियोजना के कानूनी उल्लंघनों पर काम कर रहे हैं. “बाध्यात्मक वनीकरण प्रक्रिया को चुनौती दी जानी चाहिए क्योंकि यह प्रक्रिया जैवविविधता को हुए नुकसान पर कुछ नहीं कहती.” सोनल ने मुंबई के आरे में पेड़ों की कटाई का उल्लेख करते हुए बताया, “आरे में सवाल था कि क्या वह जंगल है या नहीं. यह सवाल यहां नहीं है. वहां 200-300 पेड़ों की कटाई से बखेड़ा खड़ा हो गया लेकिन जो झारखंड में हो रहा है वह एक पर्यावरण प्रलय है, जैवविविधता के लिए इतना बड़ा खतरा है कि इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती. लेकिन इस पर एक शब्द तक नहीं सुनाई देता.”

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय और झारखंड सरकार ने इस पर टिप्पणी करने के मेरे अनुरोध का जवाब नहीं दिया.

इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट के मुताबिक सरकारी डेटा के अनुसार पिछले 30 सालों में भारत में औद्योगिक परियोजनाओं के कारण 14000 वर्ग किलोमीटर जंगल नष्ट हो गया है. रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के डेटा के मुताबिक इस 14000 वर्ग किलोमीटर जंगल का सबसे ज्यादा नुकसान खनन ने फिर रक्षा और बिजली परियोजनाओं के किया है. जो क्रमशः इस प्रकार है : 4947 वर्ग किलोमीटर, 1546 वर्ग किलोमीटर और 1351 वर्ग किलोमीटर.

रिपोर्ट में बताया गया है कि 2016 में राज्य सभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में सरकार ने माना था कि प्राकृतिक वनों का स्थान कृत्रिम वन नहीं ले सकते. सवाल का जवाब देते हुए जावड़ेकर ने कहा था, “यह सच है कि वन संरक्षण कानून (1980) के प्रवधानों के तहत होने वाले बाध्यकारी वनीकरण, प्राकृतिक वनों का स्थान नहीं ले सकते लेकिन विकास की जरूरतों और राजमार्ग सहित अन्य विकास परियोजनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका के मद्देनजर, एफसीए के तहत केवल तभी वनभूमि की कटाई की अनुमति दी जाती है जब ऐसा करना अपरिहार्य होता है. बाध्यकारी वनीकरण, वक्त के साथ कटाई के प्रभाव को कम करने के लिए किया जाता है.

पर्यावरण मंत्रालय और लातेहार जिला कलेक्टर ने मेरे भेजे सवालों का जवाब नहीं दिया. पर्यावरण संबंधी खतरे के अलावा सरकार की इस परियोजना में एक दूसरा अंतरविरोध भी है. लंबे अर्से से स्थानीय प्राधिकरण पीटीआर इलाके के कोर क्षेत्र में रह रहे आदिवासियों को यह कह कर विस्थापन की धमकी देते रहे हैं कि ये लोग “संरक्षित” टाइगर रिजर्व में रह रहे हैं और उनके रहने से बाघ आवास नष्ट हो सकता है. इंसान की कीमत पर बाघों का संरक्षण करने का दावा करने वाले प्राधिकरणों को, उसी टाइगर रिजर्व के बड़े इलाके का बांध द्वारा डुबो दिया जाना मंजूर है.

कुजूर ने मुझे बताया, “1970 के दशक में जब बांध बनाया जा रहा था, तो बहुतों को इस बात की जानकारी नहीं थी कि बड़ी परियोजनाएं पर्यावरण पर कैसा प्रलय लाती हैं. उनको लगता था कि बांध लोगों के हित में है. लेकिन अनुभव ने सिखाया है कि बांध कैसी-कैसी विपदाएं साथ लाते हैं. पीटीआर हजारों आदिवासियों का निवास स्थान है जिनके ऊपर आज एक भयानक खतरा मंडरा रहा है. हम केवल जमीन ही नहीं खो रहे हैं बल्कि पर्यावरण पर हमेशा के लिए होने वाले असर के भी गवाह बनने जा रहे हैं.” उनका मानना है कि मंडल परियोजना को बंद कर दिया जाना चाहिए. “एफआरए (2006) जैसे सुरक्षा कानूनों को उनकी भावना के अनुरूप तत्काल लागू करने जरूरत है. इससे ही पर्यावरण और सामाजिक न्याय सुनिश्चित हो सकता है.”


Sushmita is a researcher, journalist and a multimedia artist. She works on issues related to the rights of indigenous people, environment, climate change, violence against women, governance and more. She is part of an ongoing assessment on the impact of COVID-19 on Adivasis and forest communities.