19 जून को चेन्नई के अधिकारियों ने घोषणा की कि “डे जीरो”, अथवा ऐसा दिन जब पानी नहीं होगा, आ गया है. चेन्नई को जलापूर्ति करने वाले चार जलाशय लगभग सूख चुके हैं. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समाचार संस्थाओं ने खबर दी है कि हजारों-हजार लोग अपनी दैनिक जरूरत के पानी के लिए सरकारी टैंकरों के सामने लाइन लगाकर खड़े हैं. पानी की कमी का असर अस्पतालों और स्कूलों पर पड़ा है और समाचारों के मुताबिक सर्जरी तक के लिए डॉक्टरों को पानी खरीदना पड़ रहा है.
चेन्नई की स्थिति इस बात का संकेत है कि भारत में जल संकट भविष्य की बात नहीं बल्कि देश का वर्तमान है. भारत में लगातार दो कमजोर मानसूनों के कारण 33 करोड़ लोग प्रभावित हुए हैं.
यह संख्या बहुत बड़ी है. 1950 में प्रति व्यक्ति जल आपूर्ति 3000- 4000 क्यूबिक मीटर थी जो 2011 के सेंसस में घट कर 1545 प्रति व्यक्ति रह गई और जो वर्तमान में और भी कम हो चुकी होगी. संयुक्त राष्ट्र संघ की परिभाषा के मुताबिक जिन देशों में प्रति व्यक्ति जल आपूर्ति 1700 क्यूबिक मीटर से कम है उन देशों को जल दबाव वाला देश माना जाता है. जब भी जल उपलब्धता 1000 क्यूबिक मीटर से कम हो जाती है तो देश को जल की कमी वाला देश घोषित किया जाता है. भारत के शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में जलापूर्ति 1000 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति से कम हो चुकी है, खासकर पश्चिमी भारत और दक्कन के पठार में. आशंका जताई जा रही है कि यदि यह पैटर्न जारी रहता है तो स्थिति और गंभीर हो जाएगी और प्रभाव क्षेत्रों की संख्या भी बढ़ेगी.
इसीलिए माना जा सकता है कि नई सरकार के लिए जल की कमी शायद सबसे बड़ी चुनौती होगी. इससे निपटने के लिए जरूरी है कि सरकार इस संकट के कारणों को समझे जिनमें प्रमुख हैं- अदक्ष प्रयोग, प्रदूषण, कमजोर जल नीति और जलवायु परिवर्तन. सरकार को यह समझना होगा कि इस समस्या के प्रति उसके प्रयास दिशाहीन रहे हैं और इसमें रेडिकल बदलाव करने की जरूरत है. सरकार को कुछ असहज करने वाली सच्चाईयां स्वीकार करनी होंगी और उसे कड़े निर्णय लेने की इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना होगा. मोदी सरकार ने जल शक्ति नाम से जल मंत्रालय बनाया है और उसका दावा है कि जल संरक्षण उसके लिए प्राथमिक है. लेकिन सरकार ने इस मामले को समझने की बहुत सीमित कोशिशें की हैं.
एक प्रभावशाली जल संरक्षण उपाय के लिए हमें यह समझना होगा कि जल का उपयोग कैसे होता है. अधिकांश अनुमानों के अनुसार भारत में तकरीबन 80 प्रतिशत जल का उपभोग फसलों में पानी देने के लिए होता है. जिस समय से ब्रिटिश शासन ने गंगा और सिंधु नदी बेसिन पर नहर सिंचाई व्यवस्था बनानी शुरू की, तभी से कृषि के लिए अधिक से अधिक जल इस्तेमाल करने की प्रक्रिया तीव्र हो गई और इसमें हरित क्रांति ने ओर तेजी ला दी. हरित क्रांति ने भारत को खाद्यान्न में आत्मनिर्भर तो बना दिया लेकिन दीर्घकालीन अवस्था के लिए इसके गंभीर परिणाम दिखाई दे रहे हैं.
जो किसान सिंचाई वहन कर सकते हैं उन लोगों ने नहर या पंप लगाकर भूजल से अपने खेतों को भर दिया. वैश्विक औसत की तुलना में इन किसानों की जल प्रयोग दक्षता बेहद कम है. दुनिया के किसी भी राष्ट्र के मुकाबले भारत भूजल अधिक निकास करता है. इस मामले में भारत अमेरिका और चीन से आगे है.
लेकिन तमाम सरकारों ने इस मामले में दखल देने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई जबकि अप्रत्यक्ष तौर पर सरकारों ने इस अदक्षता को बढ़ावा दिया है. पानी पंप करने के संबंध में कोई नियामक कानून नहीं है और बिजली या तो निशुल्क है या भारी छूट के साथ दी जाती है इसीलिए सिंचाई में बहुत कम खर्च आता है. पानी की ज्यादा खपत वाली फसलें जैसे धान और गन्ने के लिए सरकार न्यूनतम खरीद मूल्य निर्धारित करती है. इसमें इन फसलों के व्यवसायियों की ताकतवर लॉबी संलिप्त है. मैंने इन वर्षों में जिन किसानों से बात कि उनमें से बहुतों का कहना था कि यह उपाय ठीक नहीं है लेकिन फिर भी इस मामले में बहुत कम बदलाव देखने को मिले हैं.
लगता नहीं कि जल शक्ति मंत्रालय के पास इस समस्या के समाधान की कोई योजना है. किसान विरोधी होने का आरोप लगने के डर से केन्द्र और राज्य सरकारें भूजल निकास पर नियामक की कमी और किसानों को मिल रही निशुल्क बिजली जैसे दो बड़े मुद्दों को अनदेखा कर रही हैं. यदि नेताओं को लगता है कि इससे उनका वोट बैंक कमजोर पड़ेगा तो उन्हें सोचना चाहिए कि जिन लोगों को इसका फायदा मिलता है वह सापेक्षिक रूप से धनी किसान हैं. छोटी जोत वाले किसानों के पास भूजल की कमी रहती है क्योंकि उनके धनी पड़ोसी इसका निकास कर लेते हैं और इसीलिए यह संभव है कि तार्किक नियामक के पक्ष में लोग होंगे.
हालांकि सरकार के कुछ उपाय ऐसे हैं जो इस समस्या को छूने की कोशिश करते लगते हैं. हाल ही में सरकार ने बाजरा, ज्वार और ऐसे अन्य अन्नों के लिए आधार मूल्य तय किया है जिनमें धान और गन्ने की तुलना में पानी की खपत कम है. सरकार छिड़काव और ड्रिप सिंचाई को प्रोत्साहन देने के उपाय भी कर रही है जिससे जल दक्षता में सुधार आएगा. लेकिन इन उपायों को व्यापक तौर पर नहीं अपनाया गया है जबकि सरकार को ऐसा जल्द से जल्द करना चाहिए.
इस साल आम चुनाव के लिए अपने घोषणा पत्र में बीजेपी ने सभी घरों में पाइप लाइन से जलापूर्ति करने का वादा किया था. पाइपों का विशाल संजाल बिछाने का तब कोई मतलब नहीं रह जाएगा यदि इनसे आपूर्ति करने के लिए जल ही नहीं होगा.
पानी की कमी से जूझने के लिए आधारभूत संरचना विकास का उपाय भारत की कई सरकारों ने अपनाया. बावजूद इसके कि हाल के वैज्ञानिक शोधों से पता चलता है कि यह उपाय सफल नहीं है. पिछली सरकारों की तरह ही मोदी सरकार भी प्रस्तावित बांध परियोजनाओं के जरिए इसे आगे बढ़ा रही है. केन्द्रीय जल आयोग के अनुसार, दिसंबर 2018 में भारत में 5701 बड़े बांध हैं जिनमें से 5264 बांध संचालित हैं और 437 बांधों का निर्माण कार्य चल रहा है. जल विद्युत परियोजना को पारित करते समय इस बात का ध्यान नहीं रखा जा रहा है कि भारत की वर्तमान ऊर्जा उत्पादन क्षमता उसकी वर्तमान मांग से पहले ही दुगनी है.
कई शोधों में यह बात सामने आई है कि बांधों से नुकसान ज्यादा और फायदा कम होता है. बांध लोगों को विस्थापित करते हैं और उपजाऊ जमीन को डुबा देते हैं. अवसादन से बांधों की आयु कम हो जाती है और किसी नदी की अवसादन दर का अनुमान लगाना कठिन कार्य होता है.
बांधों के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि जो यूरोप और अमेरिका के लिए अच्छा है वही भारत के लिए भी अच्छा है. यह तर्क देते हुए इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता कि उत्तर भारत में बहने वाली नदियों का उद्गम स्थल सबसे नई पर्वत श्रृंखला हिमालय है. इसका मतलब है कि यह श्रृंखला अभी भी झड़ रही है इसलिए यहां की नदियों में दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले अधिक गाद होती है.
जब भी नुकसानदायक बाढ़ आती है तो बांध के दरवाजे खोलने पड़ते हैं ताकि बांध को क्षति न पहुंचे. ऐसा करने से बांध के निचले हिस्से में रहने वाले लोगों की समस्याएं बढ़ जाती हैं. हाल में कोसी बराज के सभी 56 गेट खोलने से उत्तर-पश्चिम बिहार में स्थिति और बिगड़ गई थी. वहां के प्रबंधकों ने बताया कि यदि वे बराज के गेट नहीं खोलते तो बराज को बचाया नहीं जा सकता था. इसके बावजूद इस पुरानी पड़ चुकी तकनीक के प्रति अच्छा खासा लगाव है. यह इसलिए है कि भ्रष्टाचार और बड़े बांधों की समर्थक लॉबी “फीजिबिलिटी अध्ययन” में बड़े बांधों से होने वाले लाभों को बढ़ा-चढ़ा कर और समस्याओं को न्यूनतम कर दिखाती हैं.
यही वह सोच है जिसके चलते बीजेपी नदियों को आपस में जोड़ने की योजना से चिपकी हुई है. सरकार के योजनाकार दावा करते हैं कि नदियों को आपस में जोड़ कर भारत में जल की कमी की समस्या को हल करने के लिए अतिरिक्त जल वाली नदियों से कम पानी वाली नदियां में जल भरा जा सकेगा.
यह योजना 1960 के दशक से कागजों में है लेकिन इस बात का बहुत कम अध्ययन किया गया है कि नदियों में वास्तव में पानी आवश्यकता से अधिक है. एक मोटा-मोटी समझदारी है कि ब्रह्मपुत्र नदी बेसिन में अतिरिक्त जल है. लेकिन ऐसा सिर्फ मानसून में ही होता है. योजना निर्माता जरा बताएं कि वे मानसून के समय ब्रह्मपुत्र के अतिरिक्त जल को किस प्रकार पानी की कमी वाले पश्चिमी और दक्षिणी हिस्से में जाएंगे? मानसून के दौरान गंगा बेसिन की नदियां ओवरफ्लो रहती हैं. प्रस्तावित योजना के तहत जल हस्तांतरण इन नदियों से होगा जो सिर्फ गुरुत्वाकर्षण बल से संभव नहीं है. यदि जल को ब्रह्मपुत्र बेसिन से पंप के जरिए खींचा जाता है तो ऊर्जा लागत अत्याधिक होगी.
इसका दूसरा उपाय यह है कि ब्रह्मपुत्र बेसिन पर बड़े-बड़े जलाशय बनाए जाएं जो मानसून में जल संग्रहित करे और बाद में इस जल को पंप कर गंगा बेसिन में पहुंचाया जाए. इस योजना से राज्यों के बीच विवाद पैदा होगा जो इतना बड़ा होगा कि उसके सामने कावेरी, सतलुज, यमुना लिंक केनाल, महानदी और अन्य विवाद फीके पड़ जाएंगे.
लेकिन सरकार इस योजना को आगे बढ़ा रही है. फिलहाल वह मध्य भारत में केन से बेतवा तक एक नहर खोद रही है. ऐसा करते हुए वह एक दशक पुराने इस तथ्य पर निर्भर है कि केन नदी में बेतवा से अधिक पानी है. हालांकि पिछले सालों में यह बात उल्टी हो चुकी है. उपरोक्त तथ्य और यह बात भी कि यह नहर पन्ना राष्ट्रीय उद्यान से गुजरेगी जो एक संरक्षित इलाका है, सरकार काम नहीं रोक रही है.
पानी को यहां से वहां करने के अलावा दूसरे उपाय भी हैं जिससे जल की कमी का सामना किया जा सकता है. सदियों से भारतीयों को यह पता है कि यहां कुल बारिश का 75 फीसदी, मानसून के चार महीनों में होता है और उन्हें साल भर खुद को बचाए रखने के लिए जलसंग्रह करना पड़ता है. इतिहास के अधिकांश समय भारत में बारिश के पानी को संग्रह करने की अच्छी खासी व्यवस्था अस्तित्व में रही है. लेकिन 1950 से राज्य सरकारों के अधिकारी गांव-गांव जाकर पारंपरिक जल संग्रहण व्यवस्था को बचाए रखने के प्रति लोगों को निरुत्साहित करते रहे. अधिकारियों ने लोगों को बताया कि तालाब में एकत्र पानी में बैक्टीरिया पैदा होता है और ट्यूबवेल इसका बेहतर विकल्प है. संक्रमण का खतरा वास्तविक होने के बावजूद जल के स्रोत को बदल देने से पारंपरिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई. जब लोगों को यह लगने लगा कि वह बिना पानी संग्रह करे जल प्राप्त कर सकते हैं तो उन्होंने जल संग्रह की जगहों का रखरखाव करना बंद कर दिया. पिछली शताब्दी के शुरुआत में हुए विकास ने जिन जटिलताओं को पैदा किया था आज चेन्नई उसी का सामना कर रहा है. महाराष्ट्र के लातूर में भी ऐसी ही समस्या है जहां रेल द्वारा पानी पहुंचाया जा रहा है. यहां तक कि बेंगलुरु, हैदराबाद और पुणे में भी लोग आस-पास के गांव से पानी की आपूर्ति करने वाले निजी आपूर्तिकर्ता पर निर्भर हो गए हैं.
भूजल कम हो रहा है और सरकार पारंपरिक जल संग्रह की व्यवस्था को पुनः जीवित करने के लिए जन आंदोलन की योजना बना रही है. लेकिन ऐसा करना कठिन होगा क्योंकि जल संग्रह की पुरानी जगहों पर लोगों का कब्जा हो चुका है.
इसके कमजोरी के बावजूद देशभर में पारंपरिक तरीकों से जल संग्रह का तरीका अपनाना चंद संभव समाधानों में से एक है. सरकार की आपूर्ति केन्द्रित बड़ी परियोजनाएं आर्थिक, सामाजिक, जलविज्ञान और पर्यावरण की दृष्टि से बेकार साबित हो चुकी हैं. आगे बस यही रास्ता रह गया है कि किसी तरह मांग को कम किया जाए. इस जल उपभोग और दीर्घकालिक कृषि उपायों के प्रति जागरुकता बढ़ाई जानी चाहिए एवं प्राकृतिक स्रोतों को प्रदूषण और अनावश्यक हस्तक्षेप द्वारा नष्ट होने से बचाया जाना चाहिए.