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मैं दक्षिणी पश्चिम बंगाल के डेल्टा, सुंदरबन, के पास एक गांव में पला-बढ़ा. पढ़ने के लिए मुझे पास के एक क़स्बे के स्कूल में जाना पड़ता था, जो 1990 के दशक में एक बेहद शांत इलाका हुआ करता था. मेरा स्कूल घनी हरियाली, सघन बसे घरों और उनके बीच से गुज़रती बेतरतीब गलियों से घिरा हुआ था. शाम ढलते ही, पक्षियों के झुंड आसमान को ढक लेते थे. पांच साल पहले जब मैं वहां गया, तब स्कूल तो वहीं था, लेकिन शहर घना हो गया था. पेड़ गायब हो गए थे. उनकी जगह जानवरों की मूर्तियां और उनकी सुरक्षा के लिए धूल भरी रेलिंगें लगी थीं.
यह सब मुझे हैदराबाद विश्वविद्यालय के एक दलित छात्र रोहित वेमुला के सुसाइड नोट की याद दिलाता है. रोहित ने 2016 में विश्वविद्यालय में लगातार जाति-आधारित हिंसा झेलने के बाद आत्महत्या कर ली थी. ‘हमारी भावनाएं हमारी नहीं हैं. हमारा प्यार बनावटी है. हमारी मौलिकता को सिर्फ़ कला के ज़रिए मान्यता मिलती है.‘ उनके पत्र के इन शब्दों ने मुझे यह समझने में मदद की कि कैसे वास्तुकला, सामाजिक और पर्यावरणीय अलगाव और अन्याय को सामान्य बनाने के लिए बनाई जाती है.
रोहित की तरह मैं भी ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर पड़े जाति समुदाय से आता हूं और भेदभाव सामना कर चुका हूं. एक समाज के रूप में, प्रकृति के साथ हमारा व्यवहार मुझे हमेशा हाशिए पर पड़े लोगों के साथ होने वाले व्यवहार जैसा ही है. पौधों और जानवरों को भी ‘अन्य’ समझा जाता है. यह सोच बताती है कि हमने अपने लिए कैसी दुनिया बनाई है.
कभी पक्षियों का घर रहे एक जीवित पेड़ का विनाश करके उसकी जगह कार्टून जैसे पक्षी की मूर्तियों ने मुझे एक तरह से डरा दिया. यह परिवर्तन एक प्रतीक और राजनीतिक रूप से प्रेरित था. यह सिर्फ़ इस बारे में नहीं था कि क्या खो गया, बल्कि इस बारे में था कि उसके स्थान पर मनुष्य जीवन का एक बेजान व्यंग्यचित्र लगाया जा रहा था. इसने ‘सिमुलाक्रम’ (एक प्रकार का प्रतिरूप) शब्द को जन्म दिया, जिसका प्रयोग सांस्कृतिक सिद्धांतकार जॉन बॉड्रिलार्ड ने यह बताने के लिए किया है कि कैसे प्रतिनिधित्व वास्तविकता पर हावी हो जाते हैं और अंततः उसे मिटा देते हैं. एक फ़ोटोग्राफ़र होने के नाते, इस बदलाव को दर्ज करने से मैं ख़ुद को रोक नहीं सका.
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