अगर हम नरेन्द्र मोदी सरकार और नवउदारवादी टिप्पणीकारों पर यकीन करें तो सरकार के विरोध में प्रदर्शन करने वाले एक लाख से अधिक किसान, जिनमें से अधिकांश ने अपने खेतों पर काम करके, फसल पैदा कर और स्थानीय मंडियों में उसे बेचकर जिंदगी गुजारी है, खेती किसानी के बारे में कुछ नहीं जानते और उन्हें शरारती तत्वों द्वारा गुमराह किया जा रहा है. वे यह नहीं महसूस कर रहे हैं कि जो कुछ सरकार कर रही है, उनकी भलाई के लिए कर रही है.
2020 में सरकार द्वारा जिन तीन कृषि कानूनों को इन पर थोपा गया और जिन्हें अभी रोक रखा गया है, उनका मकसद भारत की कृषि अर्थव्यवस्था को नया रूप देना है. नए कानूनों के अनुसार कृषि उत्पादों की खरीद और बिक्री का काम सरकार द्वारा संचालित मंडियों के अलावा ऐसे किसी भी स्थान से किया जा सकता है जहां "उत्पादन, संचयन और संग्रहण’’ हो रहा हो; अब निजी क्षेत्र के लोग पहले से किए गए किसी करारनामे के जरिए किसानों के साथ समझौता कर सकते हैं और आपस में मिलकर कृषि उत्पादों का मूल्य तय कर सकते हैं; और अब सरकार उत्पादों को जमा करने की कोई सीमा व्यापारियों पर नहीं थोप सकती.
मोदी ने इसे ‘‘भारतीय कृषि के इतिहास में ऐतिहासिक क्षण’’ कहा है और उनके इस कदम का अधिकांश अर्थशास्त्रियों ने यह कहते हुए स्वागत किया है कि यह सही दिशा में उठाया गया कदम है. इन अर्थशास्त्रियों में शामिल हैं नीति आयोग के तहत प्रधानमंत्री द्वारा कृषि क्षेत्र के लिए गठित टॉस्क फोर्स के सदस्य अशोक गुलाटी; अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ; और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष में भारत के लिए कार्यकारी निदेशक सुरजीत भल्ला. विशेषज्ञता और ज्ञान की आड़ में इन कानूनों के पक्ष में जो टिप्पणियां आ रही हैं उनमें एक सवर्ण भद्रता है जिसकी कोशिश इस वर्ग के निहित स्वार्थों पर पर्दा डालना है. एक ऐसे देश में, जहां विभिन्न व्यवसाय मोटे तौर पर पुश्तैनी होते हैं, इसका भी सरोकार पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे ज्ञान से है. मोदी सरकार और उनके समर्थकों को ब्राम्हणों को पूजा-पाठ करने या बनियों को पैसे के लेन-देन की कला सिखाने की हिमाकत नहीं करनी चाहिए. (इसी महीने इस पत्रिका ने कांचा इलैया शेफर्ड का एक लेख छापा है जिसमें बताया गया है कि किस तरह कृषि संबंधी ये कानून राजनीतिक सत्ता में सवर्णों की ताकत को और मजबूती दिलाने की सत्ताधारी पार्टी की लंबे समय चली आ रही परियोजना को आगे बढ़ाते हैं.)
कृषि कानूनों को फौरी समाधान बताते हुए ये लोग जो सब्जबाग दिखा रहे हैं उसके उलट हकीकत में ये कानून किसानों को उन सुरक्षा उपायों से वंचित कर देते हैं जिनसे उन्हें पिछली व्यवस्थाओं में न्यूनतम संरक्षण और मदद मिलती रही है. किसानों के सरोकारों से संबंधित एक प्रमुख मुद्दा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का है जिसके जरिए चुनी हुई फसलों पर बाजार में आने वाले उतार चढ़ाव से उन्हें सुरक्षा मिलती है. कृषि कानूनों को समाप्त करने की मांग के साथ ही किसानों की एक मांग यह भी है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी अधिकार का रूप दिया जाए.
इन कानूनों के बनाए जाने के समय की विडंबना को भी समझना मुश्किल नहीं है. इन्हें जून 2020 में, जब कोविड-19 महामारी अपने चरम पर थी, एक अध्यादेश के जरिए लाया गया और उसके बाद सितंबर में बेहद हड़बड़ी में संसद में इसे कानूनी जामा पहना दिया गया. जिस समय अध्यादेश लाया गया देश के अंदर विभाजन के बाद का सबसे बड़ा प्रवासन देखा जा रहा था. लाखों की संख्या में मजदूर शहरों से गांवों की ओर लौट रहे थे जहां उनकी आजीविका उसी कृषि क्षेत्र के भरोसे चलती रही है जिनमें ये कानून सुधार लाना चाहते हैं. वे भागने को मजबूर हुए थे क्योंकि कारपोरेट द्वारा संचालित अर्थव्यवस्था विफल साबित हुई थी और अब कृषि कानूनों के जरिए उसी अर्थव्यवस्था का कृषि क्षेत्र में प्रवेश कराया जा रहा है.
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