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अगर हम नरेन्द्र मोदी सरकार और नवउदारवादी टिप्पणीकारों पर यकीन करें तो सरकार के विरोध में प्रदर्शन करने वाले एक लाख से अधिक किसान, जिनमें से अधिकांश ने अपने खेतों पर काम करके, फसल पैदा कर और स्थानीय मंडियों में उसे बेचकर जिंदगी गुजारी है, खेती किसानी के बारे में कुछ नहीं जानते और उन्हें शरारती तत्वों द्वारा गुमराह किया जा रहा है. वे यह नहीं महसूस कर रहे हैं कि जो कुछ सरकार कर रही है, उनकी भलाई के लिए कर रही है.
2020 में सरकार द्वारा जिन तीन कृषि कानूनों को इन पर थोपा गया और जिन्हें अभी रोक रखा गया है, उनका मकसद भारत की कृषि अर्थव्यवस्था को नया रूप देना है. नए कानूनों के अनुसार कृषि उत्पादों की खरीद और बिक्री का काम सरकार द्वारा संचालित मंडियों के अलावा ऐसे किसी भी स्थान से किया जा सकता है जहां "उत्पादन, संचयन और संग्रहण’’ हो रहा हो; अब निजी क्षेत्र के लोग पहले से किए गए किसी करारनामे के जरिए किसानों के साथ समझौता कर सकते हैं और आपस में मिलकर कृषि उत्पादों का मूल्य तय कर सकते हैं; और अब सरकार उत्पादों को जमा करने की कोई सीमा व्यापारियों पर नहीं थोप सकती.
मोदी ने इसे ‘‘भारतीय कृषि के इतिहास में ऐतिहासिक क्षण’’ कहा है और उनके इस कदम का अधिकांश अर्थशास्त्रियों ने यह कहते हुए स्वागत किया है कि यह सही दिशा में उठाया गया कदम है. इन अर्थशास्त्रियों में शामिल हैं नीति आयोग के तहत प्रधानमंत्री द्वारा कृषि क्षेत्र के लिए गठित टॉस्क फोर्स के सदस्य अशोक गुलाटी; अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ; और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष में भारत के लिए कार्यकारी निदेशक सुरजीत भल्ला. विशेषज्ञता और ज्ञान की आड़ में इन कानूनों के पक्ष में जो टिप्पणियां आ रही हैं उनमें एक सवर्ण भद्रता है जिसकी कोशिश इस वर्ग के निहित स्वार्थों पर पर्दा डालना है. एक ऐसे देश में, जहां विभिन्न व्यवसाय मोटे तौर पर पुश्तैनी होते हैं, इसका भी सरोकार पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे ज्ञान से है. मोदी सरकार और उनके समर्थकों को ब्राम्हणों को पूजा-पाठ करने या बनियों को पैसे के लेन-देन की कला सिखाने की हिमाकत नहीं करनी चाहिए. (इसी महीने इस पत्रिका ने कांचा इलैया शेफर्ड का एक लेख छापा है जिसमें बताया गया है कि किस तरह कृषि संबंधी ये कानून राजनीतिक सत्ता में सवर्णों की ताकत को और मजबूती दिलाने की सत्ताधारी पार्टी की लंबे समय चली आ रही परियोजना को आगे बढ़ाते हैं.)
कृषि कानूनों को फौरी समाधान बताते हुए ये लोग जो सब्जबाग दिखा रहे हैं उसके उलट हकीकत में ये कानून किसानों को उन सुरक्षा उपायों से वंचित कर देते हैं जिनसे उन्हें पिछली व्यवस्थाओं में न्यूनतम संरक्षण और मदद मिलती रही है. किसानों के सरोकारों से संबंधित एक प्रमुख मुद्दा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का है जिसके जरिए चुनी हुई फसलों पर बाजार में आने वाले उतार चढ़ाव से उन्हें सुरक्षा मिलती है. कृषि कानूनों को समाप्त करने की मांग के साथ ही किसानों की एक मांग यह भी है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी अधिकार का रूप दिया जाए.
इन कानूनों के बनाए जाने के समय की विडंबना को भी समझना मुश्किल नहीं है. इन्हें जून 2020 में, जब कोविड-19 महामारी अपने चरम पर थी, एक अध्यादेश के जरिए लाया गया और उसके बाद सितंबर में बेहद हड़बड़ी में संसद में इसे कानूनी जामा पहना दिया गया. जिस समय अध्यादेश लाया गया देश के अंदर विभाजन के बाद का सबसे बड़ा प्रवासन देखा जा रहा था. लाखों की संख्या में मजदूर शहरों से गांवों की ओर लौट रहे थे जहां उनकी आजीविका उसी कृषि क्षेत्र के भरोसे चलती रही है जिनमें ये कानून सुधार लाना चाहते हैं. वे भागने को मजबूर हुए थे क्योंकि कारपोरेट द्वारा संचालित अर्थव्यवस्था विफल साबित हुई थी और अब कृषि कानूनों के जरिए उसी अर्थव्यवस्था का कृषि क्षेत्र में प्रवेश कराया जा रहा है.
गांवों में इनकी देखभाल छोटी जोतों पर आधारित बड़े परिवारों की व्यवस्था के जरिए होती रही है और वे मुख्य रूप से ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था पर निर्भर रहे हैं. जिनके पास कोई जमीन नहीं थी या जो इस ग्रामीण अर्थव्यवस्था के दायरे से बाहर थे, वे राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) के अंतर्गत काम पर और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत अनाज के वितरण पर निर्भर रहते थे. नरेगा का कानून 2005 में यूपीए की सरकार द्वारा बनाया गया था और इन्हीं टिप्पणीकारों ने, जो आज कृषि कानूनों का समर्थन कर रहे हैं, इस कानून को अपने निशाने पर लिया था. अगर यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में उनके मंसूबों को कामयाबी मिल गई होती तो इस महामारी के समय हम और भी ज्यादा विध्वंसकारी स्थिति का सामना कर रहे होते.
नरेगा की आलोचना करने वालों में मोदी का स्वर सबसे ज्यादा उग्र था. फरवरी 2015 में अभी उन्हें सत्ता में आए एक वर्ष भी नहीं हुए थे कि प्रधानमंत्री की हैसियत से संसद में उन्होंने इस योजना की आलोचना करते हुए इसे पिछली सरकार की असफलताओं का जीता जागता प्रमाण कहा था. इन गुजरे हुए वर्षों में मोदी सरकार इस बात के लिए मजबूर हो गई कि वह उसी योजना के लिए बजट की राशि में वृद्धि करे ताकि इसके लाभकारी लोग किसी भी विपदाकारी स्थितियों से बच सकें. इन स्थितियों का दायरा सूखे से लेकर आर्थिक मंदी तक फैला हुआ है जैसा कि हमने महामारी का मुकाबला करने के लिए बगैर सोचे समझे थोपे गए लॉकडाउन के समय देखा. जो लोग आज किसानों की इस बात के लिए आलोचना कर रहे हैं कि उनका नए कानूनों पर भरोसा नहीं है उन्होंने कभी अपनी असफलताओं को स्वीकार नहीं किया. उल्टे इन कृषि कानूनों ने एक बार फिर लफ्फाजों, नवउदारवादियों और संकीर्ण सोच वालों को एकजुट कर दिया है जिनकी कृपा से मोदी सत्ता में पहुंचे.
अक्टूबर 2020 में इंडियन एक्सप्रेस में गुलाटी ने लिखा, ‘‘मैं यह कहना चाहूंगा कि किसानों की आय बढ़ाने में मूल्य निर्धारण प्रणाली की अपनी कुछ सीमाएं हैं. ज्यादा टिकाऊ समाधान उत्पादकता बढ़ाने, अधिक मूल्य देने वाली फसलों की विविधता पर भरोसा करने और लोगों को कृषि क्षेत्र से निकाल कर उच्च उत्पादकता वाले कामों में लगाने में है.’’ इस तरह की दलीलें मोदी के खुद के झुकाव के अनुकूल होती हैं हालांकि उनकी सरकार ने उस हर क्षेत्र को विखंडित कर दिया है जो रोजगार देने में सक्षम थे और अभी इसके कोई संकेत नहीं हैं कि निजी क्षेत्र में नई नौकरियां पैदा होंगी. नरेगा के खिलाफ इन टिप्पणीकारों ने इन्हीं दलीलों का इस्तेमाल किया था और इसी के सहारे शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार की मौजूदगी को इन्होंने कम किया. गुजरात का उदाहरण हम देख सकते हैं जहां मोदी के मुख्य-मंत्रित्व काल में इन क्षेत्रों से सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से हाथ खींच लिया और इसके अत्यंत विनाशकारी नतीजे देखने को मिले.
किसानों के विरोध प्रदर्शन को कम करके आंकने के लिए मुख्य रूप से तीन दलीलें दी जाती हैं : एमएसपी और मंडी प्रणाली से किसानों के एक बहुत छोटे प्रतिशत को ही लाभ मिलता है; आंदोलन कर रहे किसानों में से अधिकांश पंजाब और हरियाणा के हैं; और इनमें से अधिकांशतः धनी किसान हैं. इनमें से सभी दलीलों को, जो किसी परिभाषा की अस्पष्टता के साथ हैं और जिनमें आंकड़ों की भी कोई निश्चितता नहीं है, चुनौती दी जा सकती है. कानूनों का समर्थन करने वाले प्रतिस्पर्द्धा और क्षमता के सिद्धांतों की भी दुहाई देते हैं और पंजाब जैसे राज्यों में सघन खेती की मौजूदा प्रणाली के पर्यावरणीय प्रभावों को देखकर चिंता भी जाहिर करते हैं. इस प्रक्रिया में वे ऐसी दलीलों के पक्ष में खड़े हो जाते हैं जिनको लेकर किसानों ने कभी कोई सवाल ही नही पैदा किए.
निश्चय ही मुक्त बाजार और समाजवाद के बीच अगर इस बहस को रखा जाए तो सच्चाई तक नहीं पहुंच सकते. आंदोलन करने वाले अधिकांश किसान भूस्वामी हैं- भले ही उनकी कितनी भी छोटी जोत क्यों न हो. या ऐसे किसान हैं जो लीज पर जमीन लेते हैं. उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि वे अपनी जमीन का स्वामित्व सरकार के हाथों या कारपोरेट घरानों के हाथों खो देंगे. उन्होंने निजी वसूली के लिए कृषि क्षेत्र को खोल देने का भी विरोध नहीं किया है. इनमें से अधिकांश को निजी वसूली का पहले से ही कुछ न कुछ अनुभव है. वे बस उस तरीके को चुनौती दे रहे हैं जिनके जरिए सरकार सुधारों को लाना चाहती है.
इसके अलावा पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आंदोलनकारी किसानों की ऐसी कोई इच्छा नहीं है कि वे खेती के काम को छोड़कर कहीं और नौकरी के लिए जाए. जट सिख और हिंदू जाट संस्कृतियों में, जिनसे अधिकांश आंदोलनकारी प्रेरणा लेते हैं, जमीन के साथ जो पहचान जुड़ी है उसमें विकास का वह मॉडल कहीं फिट नहीं बैठता है जिसे कुछ अर्थशास्त्री और मौजूदा सरकार लागू करना चाहती है. अगर हम इस क्षेत्र के पिछले सौ साल के इतिहास को देखें तो यह बात बहुत स्पष्ट हो जाती है. इस क्षेत्र में सत्तारूढ़ सरकार के खिलाफ सबसे पुराना आंदोलन 1907 का है. उस समय के आंदोलन और आज के आंदोलन की तुलना करते हुए बहुत कुछ लिखा गया है लेकिन उस आंदोलन के प्रति ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार और इस आंदोलन के प्रति मोदी सरकार के रवैयों की समानता पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है.
यथार्थ में देखें तो सारी बहस समाज की उस किस्म पर आकर टिक जाती है जो हम चुनते हैं और जैसे ही हम निजी क्षेत्र का दरवाजा खोलते हैं तो क्या हम उस समय एक मॉडल के रूप में पश्चिमी यूरोप अथवा अमेरिका को देख रहे होते हैं? मोदी सरकार भयावह स्वास्थ्य सुविधाओं, आर्थिक संकट से जूझते स्कूलों और जबर्दस्त सब्सिडी वाले कारपोरेट फॅार्मिंग वाली अमेरिकी प्रणाली की तरफ झुकी दिखाई देती है. यह बात पश्चिमी यूरोप के एकदम उलट है जहां राज्य शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और कारपोरेट खेती के मुकाबले पारिवारिक खेती को सुरक्षा देता है और सब्सिडी प्रदान करता है. ध्यान देने की बात है कि इन दोनों मामलों में से किसी में भी राज्य द्वारा सब्सिडी का इस्तेमाल कोई मसला नहीं है. मुख्य मुद्दा यह है कि राज्य कारपोरेट खेती को सब्सिडी देने का चुनाव करता है या परिवार द्वारा की जाने वाली खेती को.
जब हम इस नजरिए से चीजों को देखना शुरू करते हैं और यह मान लेते हैं कि अपना बहुत कुछ दांव पर लगा कर किसान दिल्ली की सीमाओं पर आकर प्रदर्शन कर रहे हैं तब हमें यह सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि वे क्या कर रहे हैं और तब हम समूचे घटनाक्रमों को समझना शुरू कर सकते हैं.
सितंबर 2020 में जैसे ही संसद में कृषि कानूनों को पारित किया गया, व्यापक विरोध शुरू हो गया और देशभर के किसान तथा किसान संगठन एकताबद्ध हो गए. पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से प्रदर्शनकारियों की सबसे बड़ी तादाद आई जबकि केरल, तामिलनाडु और ओडीशा जैसे राज्यों में भी विरोध प्रदर्शनों की शुरुआत हुई. सैकड़ों हजारों की संख्या में आंदोलनकारी किसान दिल्ली की सीमाओं पर और खासतौर पर सिंघु तथा टिकरी सीमाओं पर आकर डेरा डाल दिया. इन आंदोलनकारियों के संकल्प और बढ़ती ताकत से मोदी सरकार हैरान हो गई और उसने आंदोलन को विफल करने की हर तिकड़म अपनाने की कोशिश की. इसने लाठी चार्ज और आंसू गैस का सहारा लिया और आंदोलनकारियों की गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए अवरोध (बैरीकेड्स) खड़े किए. सरकार समर्थक मीडिया घरानों और बीजेपी के नेताओं ने किसानों को बदनाम करने की तरह तरह की कोशिशें कीं. इन्हें शहरी नक्सल और राष्ट्रविरोधी बताने से लेकर इनके खिलाफ तरह तरह के साजिश-सिद्धांतों की रचना की गई और कहा गया कि ये लोग खालिस्तानी तत्वों से निर्देशित हो रहे हैं. यहां तक कि उदारवादी समझे जाने वाले टिप्पणीकारों ने भी, जो कम से कम उन पर खालिस्तानी होने का बिल्ला नहीं लगाते थे, उन्होंने भी प्रायः इस बात पर जोर दिया कि प्रदर्शन कर रहे किसान बहुत समृद्ध हैं. मोदी सरकार द्वारा भारत की ओर से अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के लिए नियुक्त किए गए कार्यकारी निदेशक सुरजीत भल्ला ने हाल ही में लिखा- ‘‘इस बात की बहुत संभावना है कि इन ‘गरीब’ किसानों (जिन्हें हाल ही में प्रदर्शनस्थल पर आने वाले सभी लोगों को ड्राई फ्रूट के पैकेट बांटते हुए देखा गया) का आंख मूंदकर समर्थन करने वाली जनता कुछ सामान्य तथ्यों से अनभिज्ञ है. इन अपेक्षाकृत अत्यंत धनी किसानों का समर्थन कर आंदोलनकारी दरअसल पुराने औपनिवेशिक शासन को बनाए रखने की दलील दे रहे होते हैं.’’
औपनिवेशिक शासन का जो संदर्भ यहां दिया गया है वह देते समय इस तथ्य को भुला दिया गया है कि वह मंडी प्रणाली जिस पर अपने व्यापार के लिए अभी तक बहुत सारे किसान निर्भर करते हैं, पहली बार अविभाजित पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी के किसान नेता छोटू राम द्वारा 1939 में शुरू किया गया था. यह कहना तो वैसे ही है जैसे अगर कोई किसी थाने में अपनी प्राथमिकी दर्ज करा रहा हो और उसे कहा जाए कि वह औपनिवेशिक शासन की वापसी चाहता है क्योंकि भारतीय दंड संहिता ब्रिटिश शासनकाल में ही अस्तित्व में आयी थी.
दिल्ली सीमा पर आंदोलन कर रहे किसान न तो धनी हैं और न, जैसी कि दलील दी जाती है, पंजाब और हरियाणा के अपने अन्य साथियों से अलग हैं. पिछली भारतीय कृषि जनगणना 2015 में की गई थी और उसमें बताया गया है कि पंजाब के 98 प्रतिशत किसानों के पास दस एकड़ से भी कम जमीन है. इस आंकड़े से भी समूची कहानी का पता नहीं चलता- इन आंकड़ों में बताया गया है कि इन किसानों में से भी 90 प्रतिशत ऐसे हैं जिनके स्वामित्व में 12 एकड़ से कम जमीन है और जो औसत खेती सात एकड़ से भी कम जमीन पर करते हैं. बेशक यह बात सही है कि पंजाब में जमीन की कीमत प्रति एकड़ 20-30 लाख रुपए है और अगर इस नजरिए से देखें तो अनेक किसानों की कुल परिसंपत्ति एक करोड़ रुपए से भी अधिक होती है लेकिन यह केवल आंकड़ों वाली बात हुई क्योंकि अपनी आजीविका के लिए वे पूरी तरह उस जमीन पर ही निर्भर हैं.
राज्य में फसलों की खेती पर आने वाली लागत के बारे में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय ने 2018 में एक रिपोर्ट तैयार की जिससे पता चलता है कि बारी बारी गेहूं और धान पैदा करने वाले खेतों में प्रति एकड़ 50 हजार रुपए से कम की पैदावार होती है. इस पर जो लागत आती है उसमें हम जमीन और पारिवारिक श्रम का मूल्य नहीं लगाते हैं. इस तरीके से भी किए गए आकलन से भी पता चलता है कि पंजाब और हरियाणा में कृषि पर निर्भर परिवारों में से 90 प्रतिशत परिवारों की मासिक आय 30 हजार रुपए से कम है. अगर हम पंजाब के किसानों के 68 प्रतिशत हिस्से की औसत जोत को देखें जो 10 एकड़ से भी कम जमीन के मालिक हैं तो यह राशि और भी नीचे आ जाती है और प्रति माह 25 हजार रूपए हो जाती हैं.
इस अति आशावादी गणना की बजाए अगर हम सरकारी आंकड़ों पर निगाह डालें तो हमें पिछला नेशनल सैंपुल सर्वे दिखाई देता है जिसमें बताया गया है कि फसलों के उत्पादन से लेकर मवेशी पालने वाले सभी किसानों, जिनमें बड़े किसान भी शामिल हैं, की औसत मासिक आय पंजाब में 18059 रुपए और हरियाणा में 14434 रुपए है. खेतिहर परिवारों में अगर औसतन यह मान कर चलें कि कम से कम परिवार के पांच सदस्य होंगे तो यह पंजाब में प्रति व्यक्ति 3400 रूपए और हरियाणा में 2400 रुपए होती है. तुलनात्मक रूप से देखें तो गुजरात में जहां लंबे समय तक मोदी का शासन रहा, औसत कृषि आय 7926 रुपए या मोटे तौर पर प्रति व्यक्ति 1500 रुपए है.
सच्चाई यह है कि आंदोलनकारी किसान उत्तर भारत के अन्य स्थानों के अधिकांश किसानों की तुलना में बेहतर स्थिति में हैं इसीलिए वे विरोध कर रहे हैं. इस तरह के विरोध प्रदर्शनों के लिए कुछ संसाधनों को जुटाने की क्षमता होनी चाहिए और देश के उत्तरी हिस्से में पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही एकमात्र ऐसे कृषि क्षेत्र हैं जो इन संसाधनों को जुटा सकते हैं. इस क्षेत्र के किसानों का इतिहास भी ऐसा है जिसमें अधिकारों के प्रति चेतना का उनमें काफी विकास हुआ और इसकी शुरुआत आजादी से भी पहले से हुई. और सबसे बड़ी बात यह है कि वे खास किस्म की फसलें पैदा करते हैं जो उन्हें यह सहूलियत देती है कि वे अनाज की खरीद करने वाली मौजूदा व्यवस्था के होने और न होने के भेद को समझ सकें.
पंजाब के किसानों का विशाल बहुमत साल में दो फसलों की पैदावार करता है- इनमें से एक गेहूं है जबकि अन्य फसलों में धान, कपास या मक्का है. जिस क्रम में यहां फसलें दी गई हैं उसी क्रम में इनकी बुआई के रकबे में कमी होती जाती है. गेहूं और अनाज को सरकारी एजेंसी भारतीय खाद्य निगम न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद लेता है. कपास की खरीद भी सरकार द्वारा आंशिक तौर पर की जाती है लेकिन इसके द्वारा मक्के की खरीद नहीं के बराबर होती है. अन्य फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा होती रहती है लेकिन गेहूं और धान के मामले में इसका पूरी तरह पालन किया जाता है. कपास के मामले में कुछ हद तक लेकिन मक्के के मामले में इसका बिलकुल पालन नहीं होता. एमएसपी व्यवस्था का अपने आप में अर्थ यह है कि मूल्यों को स्थिर रखने के लिए सरकारी खरीद अथवा हस्तक्षेप के बिना कुछ नहीं किया जा सकता.
धान से होने वाली कुल आय निश्चित होती है जो लगभग 50 हजार रूपए प्रति एकड़ होती है. जबकि कपास से होने वाली आय अच्छी फसल पर निर्भर करती है. जहां तक मक्के की बात है, अगर इसकी बिक्री न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भी होती है, जोकि कभी कभार ही होता है तो भी इससे केवल 35 हजार रूपए की आय होती है. जो किसान धान की खेती करता है वह अच्छे लाभ की पूरी तरह उम्मीद कर आगे की योजनाएं बना सकता है. इसके विपरीत कपास की फसल की कीमत में साल दर साल उतार चढ़ाव आता रहता है और कभी मौसम की वजह से तो कभी इनमें लगने वाले कीड़ों की वजह से इसके नष्ट होने का अतिरिक्त रूप से खतरा बना रहता है.
यही वजह है कि आज धान ने यहां की मुख्य फसल का रूप ले लिया है जबकि ऐतिहासिक तौर पर देखें तो इस क्षेत्र में शायद ही कोई इसकी पैदावार करता रहा हो. हरित क्रांति की शुरुआत के बाद से इन लोगों ने इसकी खेती शुरू की. इसके साथ जुड़ी एमएसपी और खरीद व्यवस्था 1960 के दशक में अस्तित्व में आई. इसके पीछे मुख्य रूप से यह सुनिश्चित करना था कि पंजाब के किसान गेहूं-धान की बारी बारी फसल के क्रम का पालन करें क्योंकि इसने पिछले 50 वर्षों से भूख से बुरी तरह पीडि़त देश की अनाज की जरूरतों को पूरा किया है. इसने अपने मकसद को पूरा किया. 1971 में भारत की आबादी 56 करोड़ 80 लाख थी जो आज बढ़कर एक अरब तीस करोड़ हो गई है. लेकिन प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता में कमी नहीं हो सकी और इसका सारा श्रेय इस क्षेत्र में होने वाले अतिरिक्त उत्पादन को जाता है.
किसान इस उम्मीद में कर्ज लेता है कि वह पैदावार होने के बाद उसे वापस कर देगा. इस सिलसिले में धान के मुकाबले कपास की खेती पर कर्ज लेने से इसके मकड़जाल में फंसने का खतरा ज्यादा है. कपास की फसल अगर लगातार बर्बाद हो जाए तो किसान ऐसी स्थिति में पहुंच जाता है कि उससे होने वाली आय से वह कर्ज नहीं चुकता कर पाता. फसल बर्बाद होने और कर्ज लेने के इस दुष्चक्र की वजह से अनेक किसान आत्महत्या के लिए मजबूर होते हैं. लेकिन अनेक नवउदारवादी टिप्पणीकारों ने यह बताने की कोशिश की है कि किसानों की इस तरह होने वाली मौतों का संबंध उनके मानसिक स्वास्थ्य से है.
अब जरा तथ्यों पर गौर करें. 2002 से अब तक पंजाब में 15 हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की और उनमें से 80 प्रतिशत से भी ज्यादा वे किसान थे जो कपास की खेती करते थे. पंजाब में पांच लाख हेक्टेयर से कम जोत में कपास की खेती होती है. जबकि धान की खेती 20 लाख हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में होती है. पंजाब के किसानों में 20 प्रतिशत से भी कम किसान कपास की पैदावार में लगे हैं. इस जबर्दस्त असंतुलन की व्याख्या मानसिक स्वास्थ्य के बिगड़ने से नहीं की जा सकती- दोनों फसलों की अर्थव्यवस्था में जो विविधता है उस पर निगाह डालें तो तस्वीर साफ हो जाती है.
अभी जो किसान आंदोलन कर रहे हैं उन्हें अच्छी तरह पता है कि ये नए कानून किस बारे में हैं. उन्हें इस बात का खासा अनुभव है कि खरीद व्यवस्था को कब अच्छा माना जाता है, इसकी खामियां क्या हैं और अगर यह समाप्त कर दी गई तो उसका अर्थ क्या है.
बहस के केंद्र में मंडी व्यवस्था है. 1960 और 1970 के दशक में लगभग सभी राज्यों ने कृषि उत्पाद विपणन विनियमन (एपीएमआर) को कानूनी रूप दिया जिसका मकसद किसानों को फुटकर खरीद करने वाले लुटेरों से बचाना और मूल्यों को नियंत्रण में रखना था ताकि वे बहुत कम कीमत पर अपने उत्पाद बेचने के लिए मजबूर न हों. विशाल विपणन क्षेत्रों का निर्माण किया गया जहां सरकार द्वारा संचालित कृषि वाणिज्य का काम-धाम संपन्न हो सके. ये मंडियां, यद्यपि इनके साथ बहुत सारे मुद्दे जुड़े हैं और इनमें गंभीरता के साथ सुधार करने की जरूरत है, कृषीय जीवन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं. ‘फारमर्स प्रोड्यूस ट्रेड ऐंड कामर्स (प्रोमोशन ऐंड फैसिलिटेशन) ऐक्ट’ नाम से जो नया कानून आया है वह इस व्यवस्था के लिए हथौड़े की चोट की तरह है. यह खरीद व्यवस्था और अपेक्षाकृत ज्यादा लाभकारी मूल्यों का निजीकरण कर देगा.
कृषि उत्पादों की खरीद के क्षेत्र में निजी व्यापारियों के प्रवेश के बारे में काफी कुछ कहा गया है लेकिन सच्चाई यह है कि नए कानून आने से काफी पहले से ही अनेक राज्यों ने अपने यहां इन निजी खिलाडि़यों का प्रवेश संभव बना दिया है. दरअसल केंद्र सरकार यह चाहती है कि वह कृषि क्षेत्र में निजी व्यापारियों की बिना किसी नियम के प्रवेश की इजाजत दे दे. जैसा कि बिहार के मामले में देखा गया यह किसी भी हालत में किसानों के लिए वरदान नहीं हो सकता.
2017 में पंजाब ने कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम में एक संशोधन किया जिसके अनुसार निजी व्यापारियों को मौजूदा मंडियों में खरीद करने की इजाजत मिल गई. पंजाब के इस संशोधित कानून और मोदी सरकार द्वारा बनाए गए कानून में जो फर्क है वह बहुत महत्वपूर्ण है. एफपीपीसी ऐक्ट के तहत सभी निजी व्यापारी जहां चाहें वहां से फसल खरीद सकते हैं बशर्ते उनके पास पैन कार्ड हो. इन व्यापारियों को नियमबद्ध करने के लिए लगभग कोई तरीका नहीं है सिवाय इसके कि वे तीन कार्य दिवस के भीतर भुगतान कर दें और अगर इसमें वे विफल होते हैं तो इस मामले को आपसी बातचीत से सुलझा लिया जाए या स्थानीय सब-डिवीजनल मजिस्ट्रेट की मदद से इसका निपटारा हो. अब यह खरीदार रातों रात बना कोई खरीदार हो या कोई बड़ा व्यापारी, सरकारी स्तर पर कोई नियम न होने की वजह से देखा जाए तो किसान को किसी भी तरह की सुरक्षा नहीं प्राप्त है. इसके विपरीत पंजाब का संशोधित कानून केवल उन्हीं व्यापारियों को खरीद की इजाजत देता है जिन्हें राज्य द्वारा लाइसेंस जारी किया गया हो. वे एपीएमसी नियमों का पालन करने वाली सरकारी मंडियों या प्राइवेट मंडियों से खरीद कर सकते हैं. इसके साथ ही यह व्यवस्था है कि वे करों का भुगतान करें जिनमें मंडी के रख-रखाव के लिए निर्धारित बाजार शुल्क, दलालों (जिन्हें आढ़तिया कहा जाता है) का कमीशन और ग्रामीण अधिसंरचना से संबंधित कर शामिल है. पंजाब ने कुल 8॰5 प्रतिशत जबकि हरियाणा ने 6॰5 प्रतिशत टैक्स निर्धारित किया है.
बाजार शुल्क से मंडियों के इन्फ्रास्ट्रक्चर का रख रखाव किया जाता है, ग्रामीण कर से उन इलाकों तक पहुंचने वाली सड़कों और अन्य सुविधाओं का रख रखाव किया जाता है और आढ़तियों का कमीशन साफ सफाई, तौल और खरीद से पहले अनाज को छांटकर सही रूप देने जैसी सेवाओं के बदले में निर्धारित है. मंडियों के काम-काज के लिए आढ़तियों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है और शोषक के रूप में उनकी जो छवि बनी है उसके पीछे उनका सूदखोर महाजन होना मुख्य बात है. उनकी इस भूमिका के लिए भी केंद्र सरकार कोई बेहतर विकल्प नहीं प्रस्तुत कर रही है. निश्चय ही कारपोरेट कंपनियों के खरीदार फसलों की क्षतिपूर्ति के लिए अग्रिम नकद राशि देने के प्रति उत्सुक नहीं हैं.
नए कृषि कानून आढ़तियों और ग्रामीण कर को समाप्त कर देंगे और भारतीय खाद्य निगम को भी कोई बाजार शुल्क का भुगतान करने की इजाजत नहीं देंगे. भारतीय खाद्य निगम के गोदाम अब निजी मंडियों का रूप ले लेंगे जिन पर कर और बाजार शुल्क लागू नहीं होता.
यहीं सरकार की नीयत को लेकर जबर्दस्त आशंकाएं पैदा हो जाती हैं. पंजाब में और थोड़े छोटे पैमाने पर हरियाणा में अभी जो मंडी व्यवस्था है वह अच्छी तरह काम कर रही है और खरीद की प्रक्रिया को सहज बनाना सुनिश्चित करती है जिससे किसान संतुष्ट हैं और उनकी ओर से बहुत कम शिकायतें देखने को मिलती हैं. यह एक ऐसी व्यवस्था है जो बाजार शुल्क के जरिए अपने को बनाए हुए है. भारतीय खाद्य निगम से इस शुल्क के न होने और खरीद का एक बड़ा हिस्सा कहीं और जाने की वजह से राज्य की मंडियों की संरचना को कायम रखने के लिए जो पैसा इकट्ठा होता है वह अब नहीं हो सकेगा.
इसके अलावा अगर भारतीय खाद्य निगम अपने गोदामों के लिए सीधे अनाज की खरीद करता है तो अनेक व्यावहारिक कठिनाइयां हैं. अभी तो बहुत सारी मंडियां हैं जो हर 8 से 10 किलोमीटर पर बनी हुई हैं जबकि भारतीय खाद्य निगम के गोदामों की संख्या इतनी ज्यादा नहीं है. इसे अलावा अगर कोई किसान सीधे इन गोदामों तक अपना अनाज लेकर आता है तो इसकी ढुलाई का खर्च बढ़ जाएगा, माल उतारने और चढ़ाने, सफाई करने और तौलने की जरूरत बनी रहेगी. अब या तो निगम इस अतिरिक्त खर्च का बोझ किसानों पर डाले या खुद वहन करे लेकिन दोनों स्थितियों में मौजूदा व्यवस्था के मुकाबले कोई सुधार नहीं है.
इन नए कानूनों से एपीएमसी की मंडी व्यवस्था के खत्म होने का जो खतरा है उसके दुष्परिणाम पहले ही बिहार में देखे जा चुके हैं जहां 2006 में एपीएमसी ऐक्ट को समाप्त किया गया. अहमदाबाद के इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट के सुखपाल सिंह ने हिंदुस्तान टाइम्स में एक लेख में बताया कि एक तरफ तो बिहार में खरीद केंद्रों में पिछले पांच वर्षों के दौरान जबर्दस्त गिरावट देखने को मिली (2015-16 में इनकी संख्या 9035 थी जो 2019-20 में घटकर 1619 हो गयी.) वहीं पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में इसी अवधि के दौरान इन केंद्रों की संख्या में वृद्धि हुई.
जाहिर बात है कि खरीद के निजीकरण से जरूरी नहीं कि बुनियादी संरचना में कोई विकास हो. फिर लाभकारी मूल्यों के संदर्भ में दूसरी महत्वपूर्ण बात क्या है? सरकार की तरफ से बार बार दावा किया जा रहा है कि मंडी कर को हटाने से जिस राशि की बचत होगी वह किसानों पर खर्च की जाएगी. इस संदर्भ में एक बार फिर हम बिहार के उदाहरण को देखें. अपने उसी लेख में सुखपाल सिंह ने लिखा, ‘‘2016-17 के दौरान गेहूं, धान और मक्का के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य क्रमशः 1625, 1410 और 1365 रुपए निर्धारित किया गया लेकिन किसानों को 1299, 1113 और 1140 रुपए प्रति क्विंटल मिला. 2019-20 के दौरान किसानों को सभी प्रमुख फसलों के लिए जो न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित था उससे प्रति क्विंटल 350-450 रुपए कम की राशि मिली.’’
इसलिए जहां तक देश की दो प्रमुख फसलों गेहूं और चावल की बात है एपीएमसी की खरीद प्रणाली के साथ जो न्यूनतम समर्थन मूल्य जुड़ा हुआ है वह बिहार की निजी खरीद व्यवस्था के मुकाबले प्रति क्विंटल 300 से 400 रुपए से ज्यादा का मूल्य सुनिश्चित करती है. इससे होने वाली बचत को राज्य के ग्राहकों को नहीं दिया गया. कहा यह जाता है कि निजीकरण का मकसद बिचौलियों को किनारे करना है लेकिन इससे बिहार में वे और भी ज्यादा समृद्ध हो गए. आंदोलनकारी किसानों का कहना है कि नए कानूनों का वही असर होगा जिससे पहले से ही बिहार गुजर चुका है- खरीद वाला बुनियादी ढांचा ध्वस्त हो जाएगा, निजी व्यापारियों का एकाधिकार कायम होगा और किसानों के लिए खरीद मूल्य में अचानक कमी आ जाएगी.
इन तथ्यों की रोशनी में देखें तो जो लोग इन कानूनों के पक्ष में दलीलें देते हैं वे उन लोगों की उस आदत को बढ़ावा दे रहे हैं जो पुरानी व्यवस्था के अंतर्गत लाभ वाली स्थिति में थे.
अशोक गुलाटी ने, जिन्हें सुप्रिम कोर्ट द्वारा नियुक्त पैनल में भी रखा गया है, नए कानूनों पर एक रिपोर्ट तैयार करने का काम पूरा किया और उनकी दलील है कि पुरानी व्यवस्था ने केवल बहुत छोटे समुदाय को लाभ पहुंचाया हैः
‘‘एमएसपी की सच्चाई क्या है? एनएसएसओ के परिस्थिति आकलन सर्वेक्षण (70वां चक्र) में बताया गया है कि केवल 6 प्रतिशत किसानों ने अपना अनाज न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेचा. और बेशक उनमें से अधिकांश पंजाब-हरियाणा इलाके के थे--- और याद रखिए कि एमएसपी और एपीएमसी प्रणाली बुनियादी तौर पर उन्हीं को फायदा पहुंचाती है जिनके पास अनाज का अतिरिक्त भंडार है अर्थात मुख्य रूप से धनी किसानों को--- इसलिए जो लोग एपीएमसी मंडियों और एमएसपी के पक्ष में दलीलें दे रहे हैं वे मुख्यतः उन 6 प्रतिशत किसानों अथवा कृषि उत्पाद के 6 प्रतिशत मूल्य के पक्ष में दलीलें दे रहे हैं.’’
गुलाटी द्वारा इन आकड़ों का इस्तेमाल हाथ की सफाई है क्योंकि इनसे जितना पता चलता है उससे ज्यादा इनकी मदद से छिपा लिया जाता है. एनएसएसओ के आंकड़े में देश में अनाज पैदा करने वाले सभी किसानों की गिनती की गई है. इस संदर्भ में न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली व्यवस्था का कोई मतलब नहीं होता क्योंकि अधिकांश फसलों के लिए खरीद में न्यूनतम समर्थन मूल्य का इस्तेमाल नहीं किया जाता. इसका मतलब यह हुआ कि किसानों की एक बहुत बड़ी आबादी इससे वंचित रह जाती है. किसी प्रणाली की अनुपस्थिति का इस्तेमाल उसके खिलाफ दलील देने के लिए नहीं किया जा सकता. इन सबसे यही पता चलता है कि किसानों का एक बहुत बड़ा वर्ग उस प्रणाली के अनुभव को महसूस कर रहा है जिसे अब सब पर लागू करने का खतरा पैदा हो गया है.
अगर आप कुछ फसलों को ध्यान में रखकर सोचें मसलन धान की फसल और उन किसानों के प्रतिशत पर विचार करें जो पुराने नियमों से लाभ उठाते रहे हैं तो आपको बहुत अलग किस्म की स्थिति दिखायी देगी. पंजाब में धान की उपज करने वाले 86 प्रतिशत किसानों ने अपना उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य की दर पर बेचा. हरियाणा में ऐसे किसानों की संख्या 78 प्रतिशत, तेलंगाना में 73 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 61 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश में 55 प्रतिशत और उड़ीसा में 51 प्रतिशत थी.
जनवरी 2016 में उसी नीति आयोग ने जहां प्रधानमंत्री के कार्यदल के सदस्य के रूप में गुलाटी नियुक्त हैं, किसानों पर एमएसपी के प्रभाव से संबंधित एक मूल्यांकन रिपोर्ट तैयार की. इस रिपोर्ट ने निष्कर्ष रूप में कहा था कि ‘‘लगभग सभी लाभकर्ता इस विचार से एकमत थे कि एमएसपी को जारी रखा जाना चाहिए--इससे उन्हें बाजार की विषम परिस्थितियों में संरक्षण मिलता है क्योंकि यह उनके उत्पादों के लिए एक न्यूनतम राशि सुनिश्चित करती है.’’
जहां तक गुलाटी का यह दावा है कि प्राथमिक लाभकर्ता खासतौर पर महज पंजाब और हरियाणा के बड़े किसान थे, इससे भी एक भ्रम फैलता है. जिसे हम ऊपर के आंकड़ों में दे चुके हैं. यह बहस करना कि भारी अनुपात में बड़े किसानों को फायदा हुआ कुछ न कहने के बराबर है. यह बात उस समय भी सही होगी जब निजी व्यापारी अनाज की खरीद करेंगे.
एपीएमसी और एमएसपी की व्यवस्था से छोटी संख्या में किसानों के लाभान्वित होने का एकमात्र कारण यह है कि इस तक केवल छोटी संख्या में किसानों की पहुंच हो पाती है. इस प्रणाली तक पहुंच रखने वालों में से किसी ने इसे खत्म करने के लिए नहीं कहा. देखा जाए तो गुलाटी जैसे लोग देश के उन हिस्सों में जहां यह प्रणाली काम कर रही है इसे खत्म करने के लिए देश के व्यापक हिस्से में मंडियों के न होने की बात प्रस्तुत कर रहे हैं.
योगेंद्र यादव ने एक लेख लिखा जिसका उचित ही शीर्षक था- ‘‘वह क्या चीज है जो अशोक गुलाटी जैसे अर्थशास्त्री अभी भी भारतीय कृषि के बारे में नहीं जानते.’’ इस लेख में योगेंद्र यादव ने लिखा किः
‘‘---कुल कृषि उत्पाद का महज एक चौथाई हिस्सा इन मंडियों के जरिए बेचा जाता है. तीन चौथाई भारतीय किसान पहले से ही उस आजादी का लाभ उठा रहे हैं जो सरकार उन्हें देने का वादा कर रही है. किसानों की इस विशाल आबादी को वस्तुतः मंडियों से आजादी नहीं चाहिए बल्कि उन्हें और भी ज्यादा तथा बेहतर ढंग से संचालित मंडियां चाहिए. इन वर्षों में जगह जगह घूमने और किसानों से मिलने के दौरान मैंने मंडियों के न होने की या इनके खराब ढंग से काम करने की शिकायतें सुनीं लेकिन मुझे ऐसा कोई किसान नहीं मिला जिसने यह शिकायत की हो कि उसे मंडी से बाहर अनाज बेचने की इजाजत नहीं मिलती.’’
इस विषय पर बहुत चर्चा हुई है कि खरीद के क्षेत्र में निजी खरीदारों के प्रवेश का कृषि अर्थव्यवस्था के लिए क्या मायने हो सकता है. भारतीय खाद्य निगम द्वारा सीधी खरीद के पक्ष में दी गई दलीलें ऐसे किसी भी खरीदार पर लागू होती हैं. सरकार की यह उम्मीद कि ये खरीदार किसी सार्थक निजी खरीद के लिए समूचे राज्य में खरीद के कामों में पूंजी लगाएंगे से यही पता चलता है कि सरकार बड़ी बड़ी निजी कंपनियों को इस क्षेत्र में प्रवेश कि लिए प्रोत्साहित कर रही है.
इसकी वजह से किसानों ने खुले तौर पर यह आशंका प्रकट की कि कृषि उत्पादों की खरीद के क्षेत्र में अडानी और रिलायंस ग्रुप का प्रवेश कराया जा रहा है. इन दोनों समूहों ने फौरन खुद को कृषि कानूनों से अलग रहने की घोषणा की. अदानी समूह ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा- ‘‘हमारे पास किसानों से खरीदा गया कोई खाद्यान्न नहीं है और हमारा अनाजों की कीमतों के निर्धारण से किसी तरह का संबंध नहीं है."
यह जो सवाल पैदा हुआ था कि क्या नए कानूनों के अमल में आने के बाद इस समूह को किसी तरह का लाभ मिलेगा, अनुत्तरित रह गया. कृषि कानूनों की प्रकृति को देखते हुए सीधा साधा निष्कर्ष यह है कि इनसे लाभ उठाने की स्थिति में अडानी समूह खुद को अच्छी तरह तैयार कर चुका है. यह बात खुद इस समूह द्वारा किए गए इस स्पष्टीकरण से साफ हो गई जिसमें उसने कहा था कि अडानी समूह 2005 से ही भारतीय खाद्य निगम के लिए ‘‘अनाज के गोदामों को विकसित और संचालित करने के काम में लगा हुआ है.’’ इस स्पष्टीकरण के साथ यह भी जुड़ा हुआ था कि देश भर में अनाज के भंडारण के लिए परिवहन व्यवस्था सुनिश्चित करने के मकसद से निजी रेल लाइनों की जरूरतों से संबंधित टेंडर भारतीय खाद्य निगम द्वारा जारी किया गया था.
अडानी समूह के पास पहले से ही अनाज के परिवहन और भंडारण का इंफ्रास्ट्रक्चर मौजूद है. जिन दिनों कोविड महामारी अपने चरम पर थी, इस समूह ने एक प्रेस वक्तव्य जारी किया :
‘‘अडानी ऐग्री लॉजिस्टिक्स लिमिटेड (एएएलएल) ने, जो अडानी पोर्ट्स ऐंड स्पेशल इकोनॉमिक जोन्स लिमिटेड का एक हिस्सा है, लॉकडाउन के दौरान 30 हजार मेट्रिक टन अनाज प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के लिए भेजने की व्यवस्था की--- इस कंपनी के स्वामित्व में चल रही सात ट्रेनों को उत्तर भारत के उत्पादन केंद्रों से तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के उपभोग केंद्रों तक अनाज ढोने के लिए लगाया गया.’’
जैसा कि इस प्रेस विज्ञप्ति से स्पष्ट होता है कि कृषि व्यापार से जुड़ी कंपनी एएएलएल अडानी पोर्ट्स का एक हिस्सा है और भंडारण से अगले केंद्र तक पहुंचाने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया है. और भले ही अगर यह बात सही हो कि एएएलएल का न तो अनाज पर स्वामित्व है और न मूल्य निर्धारण का यह फैसला करती है, लेकिन अडानी समूह का एक दूसरा हिस्सा ठीक इसी काम में लगा हुआ है.
अडानी विलमार एक संयुक्त उपक्रम है जिसे 1999 में शुरू किया गया. यह अडानी समूह और सिंगापुर स्थित विलमार इंटरनेशनल लिमिटेड का मिला जुला समूह है. विलमार इंटरनेशनल लिमिटेड कृषि व्यापार से संबंधित एशिया का एक प्रमुख ग्रुप है. इस कंपनी की उस समय काफी बदनामी हुई जब इसने बड़े पैमाने पर खजूर के तेल का व्यापार किया. इस पर आरोप है कि इसने दक्षिणपूर्व एशिया में बड़े पैमाने पर रेन फॉरेस्ट के पेड़ों की कटाई की. हाल के वर्षों में इसने अपने व्यापार का दायरा बढ़ाया है और अब खजूर के तेल के अलावा अन्य कृषि उत्पादों के क्षेत्र में भी व्यापार शुरू किया है. फरवरी 2020 में अडानी विलमार के डिप्टी सीईओ अंशु मलिक ने पीटीआई समाचार एजेंसी से बात करते हुए दावा किया कि ‘‘सात वर्षों के अंदर हम सबसे बड़ी खाद्य कंपनी होना चाहते हैं. इसके लिए हमें चावल, गेहूं, दाल, और चीनी के क्षेत्र में राष्ट्रीय स्तर पर तीन बड़ी कंपनियों में से एक होना होगा. अगर हम इन क्षेत्रें में तीन सर्वोच्च कंपनियों में शामिल हो जाते हैं तो खाद्य के क्षेत्र में हम अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेंगे.’’
इस ग्रुप को पहले ही दुनिया के सबसे आकर्षक अनाज बाजार चीन के लिए चावलों के निर्यात की हरी झंडी मिल चुकी है. 2018 की फाइनेंशियल एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘‘चीन ने भारत में चावल की प्रोसेसिंग करने वाली पांच और कंपनियों को अनुमति दे दी है जिनमें चमन लाल सेतिया और अडानी विलमार शामिल हैं.’’
चीन को बिक्री करने की हरी झंडी लगभग उसी समय दी गई जब 2016 में मोदी ने चीन की यात्रा की थी लेकिन 2020 में ही चीन ने भारत से सीमित मात्रा में चावल के आयात की पहली बार अनुमति दी. यह महज एक लाख टन की थी. इस मात्रा में वृद्धि हो सकती है क्योंकि चीन चावल का आयात करने वाले दुनिया के सबसे बड़े आयातकर्ताओं में से एक है. यह चालीस लाख टन चावल का आयात करता है और अब इसने दक्षिण पूर्व एशिया के अपने परंपरागत सप्लायर्स से अलग अन्य देशों की तलाश शुरू कर दी है.
अडानी विलमार ने चावल के बाजार में पहली बार 2014 में प्रवेश किया और तब से ही यह देश के अंदर ब्रांडेड बासमती राइस बेच रहा है. यह सीधे पंजाब और हरियाणा से बासमती धान लेता है क्योंकि बासमती खरीद वाली व्यवस्था के अंतर्गत नहीं आता. इससे नए कानूनों का समर्थन करने वालों के लिए बासमती एक ‘टेस्ट केस’ हो गया है. इस क्षेत्र में इसका मामला कृषि व्यापार को निजी हाथों में देने के मामले से जुड़ा हुआ है.
बासमती की पैदावार के लिए सामान्य चावल के मुकाबले कम पानी की जरूरत होती है जो पंजाब और हरियाणा के लिए महत्वपूर्ण मुद्दा है क्योंकि यहां पानी का स्तर कम होता जा रहा है. इसके साथ ही इसमें काफी मुनाफा भी है. लेकिन सामान्य किसान आम चावल की पैदावार से बासमती की पैदावार के क्षेत्र में जाने के इच्छुक नहीं हैं. जैसा कि पठानकोट के प्रखंड कृषि अधिकारी अमरीक सिंह ने हाल में इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि ‘‘पंजाब के किसान बासमती चावल के उत्पादन के क्षेत्र को बढ़ाने के लिए तैयार हैं बशर्ते उन्हें सामान्य धान की ही तरह एक निश्चित मूल्य की गारंटी हो.’’
इस मांग के पीछे उनके पास वाजिब कारण हैं. इस वर्ष पंजाब और हरियाणा दोनों राज्यों के किसानों को बासमती काफी कम कीमत पर बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा- पिछले वर्ष उन्हें 2700 रुपए प्रति क्विंटल मूल्य मिला था लेकिन इस वर्ष उन्हें पहले के मुकाबले प्रति क्विंटल 600 रुपए कम मिले. इसके लिए खरीदारों ने ईरान को दोषी ठहराया. उनका कहना था कि ईरान प्रतिवर्ष भारत से 15 लाख टन चावल खरीदता था लेकिन अमेरिका द्वारा आर्थिक प्रतिबंधों को लागू किए जाने से उसकी भुगतान स्थिति प्रभावित हुई और उसने पहले के मुकाबले महज एक चौथाई चावल खरीदा. भारत का मध्यवर्ग, जो बासमती के लिए अभी भी पहले ही जैसी कीमत चुकता करता रहा है, यह शायद ही समझ सका हो कि इस गोरख धंधे में निजी व्यापारियों ने काफी कमाई की.
बिहार में मंडी प्रणाली के ध्वस्त होने के बाद जो कहानी तैयार हुई वह पंजाब और हरियाणा में वार्षिक आधार पर बासमती खरीद के मामले में नजर आई. मूल्यों में गिरावट का बोझ किसानों के ऊपर डाल दिया गया लेकिन उपभोक्ताओं को इसका कोई लाभ नहीं मिला.
ठेका खेती (कांट्रैक्ट फार्मिंग) के लिए नए कानूनों में एक प्रावधान है जिसके जरिए निजी कंपनियों के शोषण के खिलाफ सरकार ने कुछ उपायों की व्यवस्था की है. भारतीय संदर्भ में देखें तो इस तरह की व्यवस्था की जो असमान प्रकृति है उस पर हाल की टिप्पणी ने कुछ खास असर नहीं डाला है. उन पत्रकारों ने जिन्होंने कांट्रैक्ट फार्मिंग को एक समाधान के रूप में चित्रित किया है वे खुद अपने मामले में अपने मालिकों से समान शर्तों पर अनुबंध नहीं कर सके हैं. मीडिया उद्योग में कांट्रैक्ट प्रणाली लागू किए जाने में इन तीस वर्षों में ऐसे मामले गिने चुने हैं जिनमें अन्याय के शिकार कर्मचारियों को कानून का सहारा लेने पर कुछ राहत मिली हो. यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि एक पत्रकार और मीडिया समूह के मालिक के बीच सत्ता की जो असमानता है उसके मुकाबले एक किसान और किसी बड़ी कंपनी के बीच वह कहीं ज्यादा है.
ठेका आधारित खेती की प्रकृति ही ऐसी है जिसमें बड़ी निजी कंपनियां बड़े किसानों के साथ अनुबंध करना पसंद करेंगी. इसके साथ जो अर्थव्यवस्था जुड़ी हुई है उसमें ऐसा करना अनिवार्य है. मौजूदा सरकारी मंडी व्यवस्था से बाहर जाने का मतलब जैसा कि नए कानून में कहा गया है कि खरीदारों को खरीद करने वाली माल की क्वालिटी सुनिश्चित करना है और उसमें यह भी व्यवस्था है कि जो किसान उस तक अपना माल पहुंचाता है उसकी ढुलाई का खर्चा भी दिया जाय. जाहिर सी बात है कि इस स्थिति को देखते हुए 20 छोटे छोटे किसानों से अनाज खरीदने के मुकाबले एक बड़े किसान से अनाज खरीदने को तरजीह दी जाएगी.
आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्र बाबू नायडू ने 2002 में मैक किन्से नामक मैनेजमेंट कंसल्टिंग कंपनी द्वारा जो ‘‘विजन 2020’’ दस्तावेज तैयार कराया था उसमें भी कांट्रैक्ट फार्मिंग के बारे में इसी तरह की भाषा का प्रयोग किया गया था. इसमें अनुमान लगाया गया था कि स्वास्थ्य सुविधा और शिक्षा का निजीकरण करने से आंध्र प्रदेश के दो करोड़ किसान खेती किसानी के धंधे से बाहर हो जाएंगे. इस दस्तावेज में बड़े पैमाने पर कांट्रैक्ट फार्मिंग अपनाने की बात कही गई थी और साथ ही यह दावा किया गया था कि ‘‘कृषि के क्षेत्र में छोटे और सीमांत किसानों की मौजूदगी अब लंबे समय तक व्यावहारिक नहीं है.’’
यह विचार कि सेवा क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी द्वारा संचालित विकास दो करोड़ नई नौकरियों को जन्म देगा- इस विचार का वैचारिक अंधापन उन तथ्यों की रोशनी में जो मैककिन्से जैसे कारपोरेट संगठन में व्याप्त है, बहुत स्पष्ट हो जाता है. यह अंधापन उन टिप्पणीकारों तक पहुंचता है जो इसी विचारधारा की आज भी दुहाई देते हैं बावजूद इसके कि इसी को लागू करने के अपने प्रयास में चंद्र बाबू नायडू को चुनावों में मुंह की खानी पड़ी.
कृषि सुधार के इस मॉडल ने अमेरिका में भी अपना रंग दिखाया. गार्डियन अखबार में फरवरी 2019 में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी जिसका शीर्षक था- ‘‘अमेरिका के विशाल खाद्य घरानों ने कैसे पारिवारिक कृषि व्यवस्था को निगल लिया.’’ इस रिपोर्ट में बताया गया है कि :
‘‘1970 के दशक के शुरुआती वर्षों में अमेरिका के कृषि मंत्री अर्लबुज ने ‘‘गेट बिग ऑर गेट आउट’’ मंत्र के साथ बड़े पैमाने की खेती का विचार प्रस्तुत किया. वह चाहते थे कि किसान उनकी निगाह में अपेक्षाकृत कारगर रणनीति अपनाते हुए मक्का और सोयाबीन जैसी व्यापारिक फसलों को पैदा करने की रणनीति अपनाएं. कुछ किसानों ने काफी कर्ज लेकर उन पैसों को जमीन खरीदने और उत्पादन बढ़ाने के मकसद से नई मशीनें खरीदने में लगाया. एक दशक बाद जरूरत से ज्यादा उत्पादन होने की वजह से और साथ ही सोवियत संघ के खिलाफ अनाज की खरीद फरोख्त पर अमेरिका द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने से तथा ब्याज दरों में नाटकीय वृद्धि होने से भी लागत में बहुत वृद्धि हो गई और किसानों पर कर्ज का बोझ बहुत ज्यादा बढ़ गया. जमीन की कीमतें गिर गईं और एक तबाही का आलम पैदा हो गया--- 1990 में छोटे और मझोले किसानों की संख्या अमेरिका में कुल कृषि उत्पादन के मुकाबले लगभग आधा थी. आज यह एक चौथाई से भी कम हो गई है.
अमेरिका ने बड़े फार्मों का नवउदारवादी सपना तो पूरा कर लिया लेकिन इसने कृषि क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप को कम करने का उनका लक्ष्य नहीं हासिल किया. अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन द्वारा सब्सिडी पर भुगतान पर टिप्पणी करते हुए न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा कि ‘‘सरकारी समर्थन जो दिया गया है वह इस वर्ष कृषि से होने वाली कुल आय का लगभग 40 प्रतिशत है. अगर यह सब्सिडी नहीं दी जाती तो अमेरिका में कृषि से होने वाली आय में 2020 में गिरावट आनी ही थी.’’
अमेरिका और यूरोप दोनों जगह किसानों को बड़े पैमाने पर जो सब्सिडी दी जाती है उनसे उपभोक्ताओं को सस्ते दर पर खाद्यान्न मिलना सुनिश्चित होता है. भारत में सब्सिडी की बात से ही शहरी मध्यवर्ग और उच्चवर्ग बेचैन हो उठता है जो खुद इस मॉडल की ओर देखता रहा है. आंदोलनकारी किसानों के प्रति अपनी चिढ़ व्यक्त करते हुए कॉलमिस्ट मिहिर शर्मा ने उनके बारे में कहा कि उन्हें भारी सब्सिडी मिलती है. मिहिर शर्मा ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के लिए काम करते हैं जो रिलायंस ग्रुप के पैसे से चलने वाला एक थिंक टैंक है और इसकी नीतिगत सिफारिशों में उन्हीं नीतियों की भरमार होती है जो रिलायंस के फायदे में हों. शर्मा ने आगे लिखा है, ‘‘खतरा केवल कुछ कानूनों को नहीं है बल्कि भारत की उस प्रतिबद्धता को है जो पर्यावरण की दृष्टि से ज्यादा टिकाऊ और समानता पर आधारित विकास मॉडल में संक्रमण के लिए है॰॰॰ यह मांग करते हुए कि इस नए और पर्यावरण की दृष्टि से अपेक्षाकृत ज्यादा जागरूक जमाने में वे तौर-तरीके जारी रहें जो टिक नहीं सकते हैं, ये आंदोलनकारी फ्रांस के 'जिलेट्स जानेस' आंदोलनकारियों जैसे लगते हैं."
शर्मा का संकेत पंजाब में किसानों को बिजली पर दी जाने वाली सब्सिडी और पराली जलाने से है जो हर सर्दियों में पहले से ही प्रदूषित दिल्ली की हवा को और प्रदूषित करती है. अभी खेती के कामकाज का जो तरीका है उससे पंजाब के पर्यावरण को कितना नुकसान हो रहा है यह स्पष्ट है. पानी का स्तर तेजी से नीचे गिरता जा रहा है, उर्वरकों और कीटनाशकों से जो रसायन निकलते हैं उससे खेतों की मिट्टी खराब हो रही है. लेकिन यह कहना कि बड़े कारपोरेट घरानों द्वारा मनमाने ढंग से निजी खरीद की अनुमति दे देने से पंजाब कृषि के मामले में स्वर्ग बन जाएगा, इसका कोई आधार नहीं है. उल्टे, ज्यादा आशंका इस बात की है कि इन घरानों के आने से उन्हीं तौर तरीकों में और भी ज्यादा इजाफा होगा जिनकी वजह से पंजाब के पर्यावरण को लेकर ढेर सारी समस्याएं पैदा हुई हैं.
दिलचस्प बात यह है कि एक तरफ तो शर्मा नए कानूनों का पक्ष लेते हुए दलील देते हैं कि इन किसानों को भारी सब्सिडी दी गई है वहीं 2019 में अशोक गुलाटी ने यह दलील दी कि भारत में किसानों पर जितना बोझ डाला गया है वह दुनिया के अन्य किसी भी देश में देखने को नहीं मिलता. इस सिलसिले में गुलाटी ने कृषि नीति पर (ICRIER-OECD के लिए) 2018 के एक अध्ययन की रिपोर्ट का हवाला दिया है जिसमें वह दो वर्षों तक सहनेतृत्व की भूमिका में थे. गुलाटी का कहना है कि इसके प्रमुख निष्कर्षों में से एक निष्कर्ष यह था कि उत्पादक समर्थन आकलन जिसका संबंध कृषि आय के मुतल्लिक उपभोक्ता के योगदान के हस्तांतरण से है, वह 2000 से लेकर 2017 के बीच औसतन कृषि से प्राप्त होने वाली कुल धनराशि का माइनस 14 प्रतिशत था. इस संदर्भ में गुलाटी ने लिखा कि, ‘‘इससे यह पता चलता है कि भारतीय किसानों को कड़ाई के साथ लागू विपणन और व्यापार नीतियों के जरिये ‘प्रकारांतर से कर की चपेट में’ लाया गया. इन नीतियों में कृषि मूल्यों को नियंत्रित रखने की आंतरिक व्यवस्था है.’’ इन आंकड़ों का विवरण देते हुए उन्होंने निष्कर्ष निकाला- ‘‘इस अवधि के दौरान दुनिया के किसी भी देश ने अपने किसानों पर कर का इतना भारी बोझ नहीं डाला. यह किसानों की आय के लूट से कम नहीं है.’’
गुलाटी और शर्मा के बीच किसानों से यही कहा जा रहा है- चित भी मेरी पट भी मेरी.
मध्य पश्चिमी अमेरिका के बड़े बड़े मक्के के खेत और सुअर पालने वाले फार्म हाउस या दक्षिण पूर्व एशिया के जंगलों को काटने वाले अडानी विलमार का नजरिया वही है जो हमारे प्रति इन नए कानूनों का नजरिया है. दूसरी तरफ पर्यावरण संबंधी नुकसान को रोकने के लिए जरूरत है कि पंजाब में जितने क्षेत्रफल में धान की खेती होती है उसमें एक तिहाई की कमी की जाए. अभी लगभग 27 लाख हेक्टेयर में यह खेती हो रही है. इस लक्ष्य को हासिल करने का अर्थ चावल के उत्पादन में 40 लाख टन की कमी करना होगा. इस आंकड़े को ध्यान में रखकर देखें तो पता चलता है कि दुनिया का सबसे बड़ा चावल आयातकर्ता चीन इतनी ही मात्रा में प्रतिवर्ष चावल की खरीद करता है और उसकी मांग लगातार बढ़ रही है. जो निजी खरीदार चीन की इस मांग को पूरा करने की आस लगाये हुए हैं वे शायद ही पंजाब को धान की खेती करने से रोकें.
शर्मा ने जिन मुद्दों को उठाया है उनका अगर समाधान किया जाना है तो इसे सरकार के और ज्यादा हस्तक्षेप से ही किया जा सकता है न कि इसमें कमी लाकर. अपने एकदम हाल के लेख में लगता है कि गुलाटी को भी इस सच्चाई का एहसास हो गया. उन्होंने लिखा कि, ‘‘मुफ्त बिजली, यूरिया पर भारी सब्सिडी और बगैर किसी रोकटोक वाली खरीद एक ऐसा खतरनाक मिश्रण है जो पंजाब की प्राकृतिक संपदा का भक्षण कर रहा है. पंजाब के उज्ज्वल भविष्य और हमारे अपने बच्चों के भविष्य के लिए एक अभिनव सोच की जरूरत है और तभी हम इस प्रतिगामी चक्र को तोड़ सकते हैं. यह बहुत कठिन काम है लेकिन बिलकुल संभव है बशर्ते हमारे नीति निर्माताओं के पास पांच से सात वर्ष का एक ऐसा नजरिया हो जो इस क्षेत्र को मूल्यवान फलों, साग सब्जियों, दुग्ध पदार्थों, मुर्गी पालन, मछली पालन और यहां तक कि दाल और तिलहन के क्षेत्र के रूप में रूपांतरित कर सकें. यह आने वाले दिनों की मांग के अनुरूप होगा. क्या केंद्र और पंजाब सरकार हमारे बच्चों के बेहतर भविष्य को ध्यान में रखकर मिलजुल कर इस काम को कर सकती हैं?’’
1880 के दशक तक मध्य पंजाब में, जिस क्षेत्र को हम आज भारत में पंजाब कहते हैं, व्यावसायिक खेती ने जड़ जमा ली थीं जिसका मकसद परिवार के भरण पोषण के लिए नहीं बल्कि बाजार के लिए फसलें तैयार करना था. कुछ ही समय बाद अंग्रेजों ने कई सारी सिंचाई योजनाएं शुरू कीं जिनकी मदद से दक्षिण पश्चिम पंजाब में जो फिलहाल पाकिस्तान में है, खेती योग्य जमीन का रकबा बढ़ गया. इस जमीन पर किसान आकर बसे. इनमें से अधिकांश का संबंध अंग्रेजों की सेना से था और ये मध्य तथा दक्षिण पूर्वी पंजाब से आये थे जो आज का हरियाणा है.
औपनिवेशिक शासन में एक अभिभावक जैसे तौर तरीकों का पालन करते हुए राज्य ने यह तय किया कि पंजाब के शेष हिस्सों में प्रचलित कानून इन इलाकों में नहीं लागू होंगे. 1906 में इसने एक कानून पारित किया जिसने अपनी संपत्ति की वसीयत करने के किसानों के अधिकार पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए, दंड का प्रावधान किया और यह भी नियम बनाया कि इस नए कानून के प्रावधानों पर विचार करने का अधिकार अदालतों का नहीं होगा. औपनिवेशिक सरकार ने एक और कानून पारित कर लाहौर, अमृतसर और गुरदासपुर से बहने वाली बड़ी दोआब सिंचाई नहर के पानी के दर को और भी ज्यादा बढ़ा दिया.
इनके खिलाफ किसानों का विरोध स्वतःस्फूर्त ढंग से अचानक शुरू हुआ. 1907 के इस आंदोलन के बारे में इतिहासकार एन गेराल्ड बैरियर ने लिखा कि, ‘‘गांव आधारित आंदोलन होने के अलावा यह आंदोलन अपनी गैर सांप्रदायिक प्रकृति की वजह से अतीत के राजनीतिक आंदोलनों से भी भिन्न था. हिंदू और मुसलमान दोनों समान रूप से इन कानूनों से प्रभावित हुए थे और वे विरोध सभाओं में खुलकर एक दूसरे के साथ भाग ले रहे थे. इस सामुदायिक एकता की परिणति इलाके की राजधानी लायलपुर में 3 फरवरी को 10 हजार लोगों की सभा में पारित एक प्रस्ताव के रूप में हुई. प्रस्ताव में हिंदुओं और मुसलमानों से कहा गया था कि वे एक दूसरे के खिलाफ आक्रामक गतिविधियों से दूर रहें और ब्रिटिश उत्पीड़न का मिलजुल कर मुकाबला करें.’’
आज उस आंदोलन की गूंज हमें फिर सुनाई दे रही है. किसानों से संबंधित मुद्दों पर छिड़े आंदोलनों में वे समुदाय भी एक साथ दिखाई दे रहे हैं जो एक दूसरे के खिलाफ हुआ करते थे मसलन हरियाणा के हिंदू जाट और पंजाब के जट सिख. फिलहाल इन आंदोलनों ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों और हिंदू जाटों के बीच तनावपूर्ण संबंधों को समाप्त कर दिया है जिसने 2013 की मुजफ्फरनगर हिंसा के बाद गंभीर रूप ले लिया था.
1907 के आंदोलन के जवाब में अंग्रेजों ने क्या किया इसका ब्यौरा देते हुए बैरियर ने लिखा है :
‘‘पंजाब का नया लेफ्टिनेंट गवर्नर डेंजिल इबटसन इस बात से सहमत था कि आंदोलन सोच समझ कर शुरू किया गया है--- उसका पहला कदम एक प्रस्ताव का प्रकाशन था जिसमें कहा गया था कि पानी की दर में जो वृद्धि की गई है उसे यह सोचकर एक साल के लिए मुल्तवी किया जा रहा है क्योंकि फसल की जो स्थिति है और प्लेग महामारी को देखते हुए इस तरह की वृद्धि करना बुद्धिमानी का काम नहीं है. उसके इस प्रस्ताव पर भी आंदोलन खत्म नहीं हुआ. दरअसल अमृतसर, लाहौर और रावलपिंडी में अनेक दंगे हुए और आंदोलन ने पहले से ज्यादा तीब्र रूप ले लिया. इबटसन ने फिर स्थिति की छानबीन की और तय किया कि ग्रामीण क्षेत्रों के प्रदर्शन, सेना में विद्रोह की चर्चा और हाल के हुए दंगे ब्रिटिश सरकार का तख्ता पलटने की गुप्त योजना के फलस्वरूप हुए हैं.’’
देखा जाए तो कमोबेश मोदी सरकार ने भी यही रास्ता अख्तियार किया है. उसने कानूनों को लागू करने के काम को कुछ दिनों के लिए मुल्तवी करने जैसी रियायतें देकर यह उम्मीद की कि आंदोलन समाप्त हो जाएगा. कुछ महीनों तक शांतिपूर्ण ढंग से चलने के बाद पहली बार गणराज्य दिवस के मौके पर यह आंदोलन हिंसक हो उठा. लगता है कि 1907 के दंगों का ब्रिटिश प्रशासन पर वैसा ही प्रभाव पड़ा था जैसा गणराज्य दिवस पर लाल किले की हिंसा का प्रभाव मोदी सरकार पर पड़ा है. इसने मोदी सरकार को ऐसा अवसर दे दिया जिसमें वह स्थिति को खतरनाक बताने में सक्षम हो सके. बैरियर ने अपनी टिप्पणी में लिखा : ‘‘पंजाब में पुलिस को खबर देने वालों ने, जिनकी नौकरी ही इस बात पर निर्भर रहती थी कि वे राजद्रोह के मामले को सामने लाएं या बढ़ा चढ़ाकर पेश करें, संभावित विद्रोह की अविश्वसनीय कहानियां गढ़ीं और बताया कि सीमावर्ती जिलों पर कब्जा करने के लिए अफगानी-रूसी-पंजाबी षडयंत्रकारियों का गिरोह सक्रिय हो गया है.’’ आज सरकार का राष्ट्रीय सुरक्षा की जो मशीनरी है उसने एक कहानी गढ़ी है जिसमें बताया जाता है कि मोदी सरकार का तख्ता पलटने के लिए कोई गुप्त षडयंत्र चल रहा है, इस षडयंत्र के पीछे शहरी नक्सलियों का दिमाग है जिसे एक हिप-हाप गायक, जलवायु परिवर्तन पर काम करने वाले कुछ कार्यकर्ताओं और खालिस्तानियों ने मिलकर तैयार किया है.
इन सौ वर्षों के दौरान ऐसा लगता है कि देश के सुरक्षातंत्र में कोई भी तब्दीली नहीं हुई है. यह आज भी उन्हीं कानूनों और उन्हीं पूर्व धारणाओं के अनुसार काम कर रहा है.
1907 का आंदोलन अंत में तब समाप्त हुआ जब ब्रिटिश सरकार ने आज के मोदी सरकार की तुलना में ज्यादा समझदारी का परिचय दिया. वायसराय ने पंजाब के लेफ्टनेंट गवर्नर के फैसले को पूरी तरह पलट दिया और कहा- ‘‘इन कानूनों को खारिज करने का मेरा आधार इस यकीन पर बना है कि हम शायद अत्यंत दोषपूर्ण कानून को स्वीकृति दे रहे हैं- ऐसे कानून को जिसे किसी भी समय लागू करना सही नहीं होगा लेकिन जो आज अगर कानून बन गया तो अभी के न्यायपूर्ण असंतोष की आग में घी डालने का काम करेगा.’’
इसके ठीक विपरीत मोदी सरकार खुद अपने ही बनाए जाल में फंस गई है. इंदिरा गांधी की तरह मोदी जनतांत्रिक तरीके से चुने गए एक तानाशाह हैं और उन्हें अपनी साख खत्म होने का डर सता रहा है. 1980 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में इंदिरा गांधी भी लगभग ऐसी ही मजबूरियों के तहत काम कर रही थीं जिनकी वजह से पंजाब और देश विध्वंस के कगार तक पहुंच गया और जिसे हम पंजाब विद्रोह के रूप में जानते हैं. यह बात अब किसी से छिपी नहीं है और इसके दस्तावेज भी सामने आ चुके हैं कि इंदिरा गांधी ने हरचंद सिंह लोंगोवाल के नेतृत्व वाले अकाली दल के साथ समझौता लगभग कर ही लिया था जिससे यह संकट टल सकता था लेकिन अंतिम क्षण में उन्होंने अपना हाथ खींच लिया. एक ऐसा अवसर जिससे श्रीमती गांधी ने मुंह फेर लिया, नवंबर 1982 में एशियन गेम से कुछ ही समय पहले उनके सामने आया. प्रधानमंत्री के तत्कालीन मुख्य सचिव पी सी एलक्जेंडर का मानना है कि वह निर्णय एक उल्लेखनीय गलत कदम था. उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा कि ‘‘चाहे इसका कोई भी औचित्य क्यों न दिया जाय, मैं उन लोगों में से हूं जो यह मानते हैं कि उस समय की सत्ता ने सचमुच शांति स्थापित करने का एक सुनहरा अवसर खो दिया.’’
आज जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि 1982 में इंदिरा गांधी ने ऐसा कुछ भी हासिल नहीं किया जो पंजाब में शांति स्थापित करने की रियायत के मुकाबले ज्यादा कहा जा सके. इंदिरा गांधी की सरकार की ही तरह लगता है कि मोदी सरकार यही सोचती है कि आंदोलन के विलुप्त हो जाने का वह इंतजार कर सकती है. यह एक गलती होगी.
अगर मौजूदा सुरक्षा तंत्र ने वही तौर तरीका अपनाया है जैसा ब्रिटिश साम्राज्य ने अपनाया था तो इसका विरोध करने वालों को भी 1907 के आंदोलन की तरह कुछ अग्रदूत मिल जाएंगे. उस समय के आंदोलन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण नेता अजित सिंह थे जिन्हें उनकी भूमिका के लिए देश निकाला दे दिया गया और बर्मा भेज दिया गया. वहां से जल्दी ही रिहा होने के बाद वह भारत से ईरान और फिर यूरोप के लिए रवाना हुए और यूरोप तथा ब्राजील में अनेक वामपंथी क्रांतिकारी संगठनों से उन्होंने संबंध स्थापित किए. आगे चलकर उन्होंने गदर पार्टी के साथ घनिष्ठता कायम की. गदर पार्टी उन भारतीय क्रांतिकारियों का एक समूह था जिनमें से अधिकांश पंजाब के थे और जिन्हें अमेरिका से निकाले जाने के बाद भारत लौटना था. इस अवधि के दौरान अजित सिंह ने अपने घर जो पत्र भेजे उनका जबर्दस्त प्रभाव उनके भतीजे भगत सिंह पर पड़ा.
गदर पार्टी और भगत सिंह की नौजवान सभा- ये दोनों ऐसे स्रोत थे जिनसे वामपंथी सोच की विभिन्न धाराएं निकलीं जो पंजाब की 20वीं शताब्दी की राजनीति का हिस्सा बनीं. इनमें से अनेक धाराएं सीपीआई-सीपीएम की परंपरागत वाम धारा से अलग थीं और उन धाराओं को मानने वाले अनेक अवसरों पर जमीन के संघर्षों में शामिल दिखायी दिये.
संभवतः पंजाब के इस तरह के आंदोलनों में सबसे महत्वूपर्ण आंदोलन प्रजामंडल आंदोलन था जो पंजाब के मौजूदा मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के दादा पटियाला के तत्कालीन महाराजा के खिलाफ था. समय बीतने के साथ महाराजा के प्रतिनिधियों ने पटियाला राज्य के विभिन्न हिस्सों में, जिसका विस्तार आज के हरियाणा और हिमाचल प्रदेश तक हुआ था, एक तरह से सम्पत्ति का सारा अधिकार अपने कब्जे में ले लिया था. 1928 में आंदोलन राजा के प्रतिनिधियों के खिलाफ हुआ जो काश्तकारी के भुगतान की मांग कर रहे थे.
शुरुआत में कांग्रेस और अकाली दल दोनों इस आंदोलन में शामिल थे लेकिन आगे चलकर आंदोलन की सारी जिम्मेदारी अकेले प्रजामंडल पर छोड़ दी गयी. मुजारा अथवा काश्तकारी आंदोलन के नाम से प्रचलित यह आंदोलन 1953 तक चला और फिर अंत में काश्तकारी अधिकार अधिनियम पारित हुआ. इस आंदोलन ने सीमांत किसानों और दक्षिण पूर्वी पंजाब के भूमिहीन किसानों पर वामपंथी विरोध की एक मजबूत विरासत छोड़ी. इस तरह के संघर्षों में सक्रिय अनेक वामपंथी यूनियनों ने चुनावी राजनीति का त्याग किया और इसी का नतीजा है कि बाहर से जो लोग पंजाब को देखते हैं उन्हें ये लोग कहीं नजर नहीं आते.
पंजाब में आम आदमी पार्टी को राज्य विधानसभा के पिछले चुनाव में जो समर्थन मिला वह ठीक उसी इलाके से मिला जहां कभी प्रजामंडल सक्रिय था : मालवा से जो सतलज नदी के पास है. पंजाब की इकाई को दिल्ली से संचालित करने की आम आदमी पार्टी की कोशिशों ने इसे पराजय का मुंह दिखाया और पंजाब में इसका हृास भी हुआ लेकिन इसके उभार के पीछे जो प्रेरणा थी वह आज भी इस आंदोलन में जीवित है.
राज्य के अन्य हिस्सों में किसान आंदोलन को अलग अलग तरह से समर्थन मिल रहा है. सतलज और ब्यास के बीच के दोआबा वाले इलाके में और ब्यास से उत्तर में माझा के इलाके में आंदोलन की प्रकृति देखें तो यहाँ वामपंथ का प्रभाव कम है और यहां प्रकट रूप में सिख राजनीति का प्रभाव है. सिंघु और टीकरी बॉर्डर के दोनों धरना स्थलों में यह भेद स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है. जोगिंदर सिंह उगराहां पंजाब में वामपंथी संघर्ष के इतिहास का प्रतीक हैं जबकि उनके कार्यकर्ता मुख्य रूप से जट सिख हैं और इनका तौर तरीका अपेक्षाकृत ज्यादा संयमित है. सिंघु बार्डर के धरना स्थल में पंजाब की परंपरागत गंध मिलती है- यहां संगीतकार मिलेंगे, शोरगुल सुनने को मिलेगा, इठलाहट मिलेगी और उत्सव का माहौल दिखाई देगा.
दोनों धरना स्थल समूचे राज्य को एक दूसरे से जोड़ते हैं. पंजाब का कोई गांव ऐसा नहीं है जो इन आंदोलनों से प्रभावित न हो या जो इनसे अछूता हो. आमतौर पर इन गांवों में गुटबाजी का माहौल रहता है लेकिन प्रत्येक गांव ने खुद को आंदोलन के इर्दगिर्द संगठित कर लिया है. इन गांवों के प्रतिनिधि बारी बारी धरना स्थलों पर आते जाते हैं और खाद्य सामग्री का स्टॉक का भंडार पहुंचाते रहते हैं. सबसे दिलचस्प बात यह है कि यह समूचा आंदोलन पंजाब की किसी भी राजनीतिक पार्टी के नियंत्रण अथवा प्रभाव से पूरी तरह बाहर है.
वामपंथी नेतृत्व के बावजूद टिकरी बॉर्डर और सिंघु बॉर्डर दोनों जगह के आंदोलनों ने अपना मूल तत्व सिख नैतिकता से लिया है- यहां स्वतःस्फूर्त ढंग से बड़े पैमाने पर लंगर की व्यवस्था है और धरना स्थलों का संचालन करने के लिए विकेंद्रित संगठन प्रणाली है. यही सिख प्रकृति बताती है कि इन कानूनों का विरोध करने के लिए क्यों पंजाब के किसानों ने पहल ली. ये लोग कभी मोदी की आभा के प्रभाव में नहीं आए और हिंदुत्व के प्रति भी इनके अंदर कोई आकर्षण नहीं है.
2017 में मोदी द्वारा नोटबंदी की घोषणा करने के कुछ ही समय बाद विधानसभा चुनावों के दौरान मैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब के इलाकों के दौरे पर गया. मोदी की इस विनाशकारी नीति पर इन दोनों राज्यों की प्रतिक्रियाओं में एक फर्क देखने को मिला. पंजाब के किसान नोटबंदी की जोरदार ढंग से भर्त्सना कर रहे थे. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान, जो अभी भी मोदी के प्रभाव में थे, वे सोचते थे कि शायद इसका कुछ लाभ मिले.
आज अगर दोनों राज्यों की प्रतिक्रियाओं में फर्क मिटता हुआ दिखाई दे रहा है तो इसकी वजह यह है कि किसान आंदोलन ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मोदी के प्रभाव को बहुत कम कर दिया है. इस आंदोलन पर वामपंथ और सिखवाद दोनों की छाप होने के साथ ही इनमें कबीलाई मानसिकता की भी अभिव्यक्ति दिखाई दे रही है जो पंजाब के जट सिखों और हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश के जाटों के बीच समान रूप से मौजूद है.
‘‘पगड़ी संभाल जट्टा’’ गीत 1907 के आंदोलन की उपज था और इस गीत में यह मानसिकता दिखायी देती है. पगड़ी को सम्मान का प्रतीक माना जाता है और इसे उतारने या गंवाने का मतलब अपमान का सामना करना होता है. इस विचार ने आंदोलन के नेताओं के लिए सरकार के साथ समझौता करने की कोशिश खत्म कर दी है. अब राकेश टिकैत जैसे नेताओं के कामों का इतिहास चाहे जो रहा हो, आंदोलन के दौरान समझौता करने या पीछे हटने का भी जैसा भी इतिहास रहा हो, इस विचार ने उनकी अतीत की आदतों को सीमित कर दिया है और यह सुनिश्चित कर दिया है कि वे कोई समझौता नहीं कर सकेंगे.
शायद बीजेपी यह अनुमान लगाने में नाकाम रही कि सम्मान की यह भावना कितनी मजबूत है. 26 जनवरी की लाल किले की घटना के बाद आंदोलन के भविष्य को लेकर फुसफुसाहट होने लगी थी. लेकिन जल्दी ही यह कयास लगाना गलत साबित हुआ कि उत्तर प्रदेश में आंदोलन अब समापन की ओर बढ़ रहा है. जिस समय टिकैत सबसे कमजोर हालत में थे और भाषण करते समय रो दिए थे ऐसे समय टिकैत को उकसाना बीजेपी की एक गलती थी. उनके आंसुओं ने एक बार फिर सम्मान की उसी भावना को किसानों के मन में जगा दिया.
बाद के दिनों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों ने अपने को संगठित करते हुए अपने खुद के आंदोलन के इतिहास को भी जनता को याद दिलाया. राकेश टिकैत के पिता महेंद्र टिकैत ने अतीत में उत्तर प्रदेश सरकार और दिल्ली की केंद्र सरकार को घुटनों के बल ला दिया था और इन सरकारों को इस बात के लिए मजबूर किया कि गन्ना के और लाभकारी मूल्य की किसानों की मांग को वे मान लें. अब आज भी राकेश टिकैत के लिए बुनियादी मांगों से पीछे हटकर कोई समझौता करना कठिन होगा.
अभी यह बता पाना मुश्किल है कि सरकार क्या सोच रही है. सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि वह अपने खुद के प्रोपोगेंडा पर कितना यकीन कर पा रही है. 1907 के ब्रिटिश प्रशासन से एक बार फिर इसकी तुलना करना दिलचस्प होगा. बैरियर ने पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर के बारे में लिखा कि, ‘‘सूचनाओं की अकुशल व्यवस्था ने इस गलत धरणा को जन्म दिया कि किसान अंग्रेजों का तख्ता पलटने की साजिश तैयार कर रहे हैं. उस समय लेफ्टिनेंट गवर्नर 15 वर्षों की लंबी गैर मौजूदगी के बाद कुछ ही समय पहले पंजाब लौटे थे. चूंकि उनके पास कोई जानकारी नहीं थी इसलिए आंदोलन का आकलन करने के लिए वह पूरी तरह अपने आदमियों पर और सीआईडी पर निर्भर करते थे. स्थानीय सीआईडी अपने खबरियों के जरिए सूचनाएं जुटाती थी जो खुद बहुत विभ्रम की स्थिति में थे और चीजों को बढ़ा चढ़ाकर बताते थे.’’
मोदी प्रशासन के पास ऐसा कोई तंत्र नहीं है जो बता सके कि सचमुच पंजाब में क्या हो रहा है. इसके पास एक भी विख्यात सिख नेता मंत्रिमंडल में नहीं है और पूर्व राजनयिक हरदीप सिंह पुरी, जो नागरिक उडड्यन और आवास तथा शहरी मामलों के मंत्री हैं, उनकी स्थिति अपने राज्य या अपने समुदाय को समझने के मामले में मुख्तार अब्बास नकवी की तरह है. बीजेपी के साथ गठबंधन से अकाली दल के अलग होने की घटना को इस बात का संकेत माना जाना चाहिए था कि बीजेपी सहित पंजाब की किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए कृषि कानूनों के पक्ष में पंजाब में खड़ा होना संभव नहीं है. खुद राज्य के बीजेपी नेताओं ने जो सलाह दी उसे किनारे कर दिया गया. पंजाब के शहरी क्षेत्रों में हाल के म्युनिसिपल चुनावों में बीजेपी का जिस बुरी तरह और अभूतपूर्व ढंग से सफाया हुआ- खासतौर पर हिंदुओं के प्रभुत्व वाले इलाके में- इससे इसी बात की पुष्टि होती है कि केंद्र सरकार को इसका तनिक भी आभास नहीं है कि पंजाब में किस सीमा तक असंतोष व्याप्त है.
मोदी सरकार उसी ब्रिटिश गवर्नर जनरल इबटसन की स्थिति में है जो ऐसे लोगों की सूचनाओं पर निर्भर करता था जिन्हें लगता था कि अगर सरकार के खिलाफ साजिश की किसी कहानी को बढ़ा चढ़ाकर बताया जाएगा तो इससे उन्हें लाभ होगा. वे जानते थे कि उनके आका इसी तरह की बातें सुनना चाहते हैं. लेकिन एक महत्वपूर्ण फर्क भी था. इबटसन के चारो तरफ कोई काल्पनिक प्रभामंडल नहीं तैयार किया गया था और उनके फैसलों से अगर किसी तरह का नुकसान होता तो वे दूसरों के लिए जवाबदेह थे. इसके अलावा ब्रिटिश साम्राज्य को कोई चुनाव नहीं जीतना था कि वह इबटसन के लिए किसी जनसमर्थन वाला आधार तैयार करे. मोदी लगातार अपने खिसकते हुए आधार को मजबूत करने में लगे हैं और ऐसा लगता है कि अगर कोई चीज उनके और उनकी पार्टी के लिए ठीक है तो देश के लिए वह ठीक हो या न इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं है.
सुरक्षा तंत्र जानता है कि मोदी क्या सुनना चाहते हैं और उसे यह भी अच्छी तरह पता है कि उससे क्या उम्मीद की जाती है. उसने पहले एक रणनीति पर काम किया हुआ है- उस समय जब नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के खिलाफ विरोध प्रदर्शन चल रहे थे और उनकी रणनीति काम कर गई थी. इस रणनीति के तहत उसने लंबे समय तक एक प्रचार अभियान चलाया जिसका मकसद मुख्य रूप से मुस्लिम प्रदर्शनकारियों की छवि खराब करना था और इसके लिए उन पर पृथकतावादी और आतंकवादी होने का बिल्ला चस्पा किया गया. इसके बाद बीजेपी के राजनीतिज्ञों द्वारा हिंसा उकसाई गई जिसे दिल्ली पुलिस का भरपूर समर्थन मिला. इस घटना की छानबीन के दौरान साजिशों और चालबाजियों का विशाल ताना बाना सामने आया जिसके अंतर्गत षडयंत्रकारी बताकर उन्होंने जिसको चाहा पकड़ लिया.
किसानों के आंदोलन के शुरुआती चार महीनों में सरकारी तंत्र का यह तरीका विफल साबित हुआ. बेशक, 26 जनवरी की घटनाओं से सरकार को इन काल्पनिक षडयंत्रों को कुछ हद तक विश्वसनीयता दिलाने में मदद मिली और कई नेताओं ने इसमें एक भूमिका निभाई. एक पखवाड़े से भी अधिक समय तक सुरक्षातंत्र के लोगों को यह उम्मीद थी कि गणतंत्र दिवस पर आयोजित ट्रैक्टर रैली दिल्ली की ओर रवाना होगी लेकिन किसान नेताओं ने रैली के लिए जो मार्ग तय किया उससे उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया. रैली से एक दिन पहले यह स्पष्ट हो गया था कि अनेक प्रदर्शनकारी पूर्व निर्धारित रास्ते पर नहीं जाएंगे. इस बीच सुरक्षा तंत्र ने भी यह प्रचार शुरू कर दिया था कि खालिस्तानी तत्वों और आइएसआइएस के षडयंत्रकारी मिलकर किसी गहरी साजिश में लगे हैं.
निर्धारित दिन वे किसान नेता जिन्हें उस रैली का हिस्सा होना चाहिए था जो दिल्ली की ओर बढ़ रही थी और अपने भटके उग्र समर्थकों को उचित निर्देश देना चाहिए था, उससे उन्होंने मुंह फेर लिया. पुलिस के साथ जबर्दस्त मुठभेड़ हुई लेकिन प्रदर्शनकारियों की जबर्दस्त उपस्थिति के बावजूद हिंसा का स्तर बढ़ा नहीं. किसान नेताओं ने भी, जिन्हें शायद पता था कि नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शनकारियों के प्रति सरकार का रवैया क्या था, खुद साजिश के विचार का समर्थन किया.
हरदीप सिंह डिबडिबा उस युवा किसान नवरीत सिंह के दादा हैं जिनके बारे में परिवार के लेागों का आरोप है कि उसे पुलिस ने गोली का शिकार बनाया जबकि पुलिस का दावा है कि उसका ट्रैक्टर पलट गया था जिसकी वजह से उसकी मृत्यु हुई. उसके दादा ने इन नेताओं के प्रति अपनी निराशा व्यक्त की है. कारवां के साथ एक बातचीत में उन्होंने कहा कि यह ऐसे नेता हैं जो छोटे छोटे संघर्षों से पैदा हुए हैं और उनके ऊपर एक बड़ी लड़ाई का बोझ पड़ गया जिसके लिए वे तैयार नहीं थे. निश्चित रूप से यह एक आशंका है जो 26 जनवरी की घटना के बाद पंजाब में बनी हुई है जहां लोगों की मानसिकता संयमित और विषादपूर्ण तो है पर संकल्पों में कोई कमी नहीं है.
दिल्ली पुलिस ने, जो सीधे मोदी सरकार को रिपोर्ट करती है, लाल किले की घटना का सहारा लेकर लगातार गिरफ्तारियां शुरू कीं ताकि वह अंतर्राष्ट्रीय साजिश की अपनी कहानी को सच साबित करे. जहां तक प्रदर्शनकारियों और आंदोलनकारियों की बात है उन पर इसका कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ा लेकिन देश भर में जो लोग इस आंदोलन का समर्थन कर रहे थे उनमें से अनेक लोगों तक जो संदेश गया वह अच्छा नहीं था. उन्होंने सोचा कि इस आंदोलन को समर्थन देना एक आपराधिक काम है.
इसी तरह का संदेश ऐसे पत्रकारों और संस्थानों को पहुंचा जिनकी रपटों से आधिकारिक विवरणों को चुनौती मिलती थी. कारवां में लिखने वाले पत्रकार मनदीप पुनिया को ठीक उसी दिन गिरफ्तार कर लिया गया जिस दिन बीजेपी से जुड़े बहुत सारे लोग खुद को स्थानीय नागरिक बताते हुए सिंघु बार्डर पर इकट्ठा हुए थे और उन्होंने पुलिस की मौजूदगी में आंदोलनकारियों पर हमला किया. नवरीत सिंह की मौत के बारे में अन्य पत्रकारों के साथ हमारे पत्रकारों को भी गिरफ्तार किया गया जिन्होंने चश्मदीदों के बयान को अपनी रिपोर्ट में स्थान दिया था. हमारे कार्यकारी संपादक विनोद जोश, संपादक अनंत नाथ और प्रधान संपादक परेश नाथ के खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगाया गया.
पंजाब से बाहर हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां बीजेपी की अपेक्षाकृत ज्यादा मौजूदगी है, खुद पार्टी के सूत्र पार्टी को बताते रहे हैं कि इन प्रदर्शनों से पार्टी को राजनीतिक तौर पर नुकसान पहुंच सकता है. ऐसा लगता है कि इसे ध्यान में रखते हुए अमित शाह ने कोई नीति तैयार की है. हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस ने एक खबर प्रकाशित की जिसमें कहा गया है कि “शाह ने पार्टी नेताओं से कहा कि वे अपने अभियान को तेज करें और लोगों को इन तीनों कानूनों के फायदों के बारे में बताएं. इसके साथ ही वे यह भी सुनिश्चित करें कि किसानों को जो लोग ‘गुमराह’ कर रहे हैं उन्हें ‘जनता माकूल जवाब दे.’”
अमित शाह शायद यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि जाटों के खिलाफ जो जाति आधारित गठबंधन हुआ था और जिससे हरियाणा में बीजेपी को फायदा मिला था, उस मॉडल को अन्य जाट बाहुल्य क्षेत्रों में लागू किया जा सकता है. पहले यह रणनीति इसलिए सफल हो गई थी क्योंकि बीजेपी की मदद के लिए दुष्यंत चौटाला आगे आए थे. हरियाणा के पिछले चुनाव में सरकार बनाने के लिए बीजेपी के पास पर्याप्त संख्या नहीं हो रही थी तो राजनीतिज्ञ चौटाला ने पार्टी की मदद की और फिर सरकार बन सकी. अभी जाटों के अंदर जो गुस्सा दिखाई दे रहा है उसकी वजह से अब इस बात की कोई संभावना नहीं है कि हरियाणा में बीजेपी को दुबारा चौटाला जैसा कोई मिलेगा.
लेकिन देश पर नियंत्रण बनाए रखने की बड़ी लड़ाई में पंजाब की तरह हरियाणा का योगदान बहुत मामूली है. इस मामले में उत्तर प्रदेश सचमुच काम का है. इस राज्य में अगर जाटों का समर्थन मिलना बंद हो गया तो इससे बीजेपी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंच सकता है. राज्य में इसकी सफलता इनके समर्थन पर टिकी हुई है जिसके बारे में 2013 की मुजफ्फरनगर हिंसा से वे बराबर निश्चिंत रहा करते थे कि जाटों का समर्थन उन्हें मिलता रहेगा. अभी हिंदू और मुसलमान जाटों का करीब आना और राष्ट्रीय लोकदल का फिर से मजबूत होना पार्टी के लिए सबसे ज्यादा चिंता का सबब है.
पश्चिम बंगाल और असम के चुनाव खत्म होते ही बीजेपी फिर इस क्षेत्र पर अपना ध्यान केंद्रित करेगी. पार्टी के पास कुछ पहले से आजमाए हुए विकल्प मौजूद हैं. इनमें से एक है हरियाणा वाली रणनीति को दुहराना और इसे ध्यान में रखते हुए जाटों के खिलाफ अन्य जातियों को गोलबंद करना. अभी चूंकि कुछ गुज्जर नेता किसान आंदोलन के समर्थन में आने लगे हैं इसलिए साफ तौर पर नहीं कहा जा सकता कि इस तरह के प्रयास को कितनी कामयाबी मिल सकेगी. दूसरा विकल्प वही होगा जो बीजेपी पहले से तय किए हुए है : उत्तर प्रदेश के अगले चुनाव को राम मंदिर को केंद्र में रखकर लड़ा जाए और ऐसा सांप्रदायिक उन्माद पैदा किया जाए कि कृषि कानूनों जैसे गैर सांप्रदायिक मुद्दे अप्रासंगिक हो जाएं. यह कुछ हद तक काम कर सकता है क्योंकि हरियाणा के मुकाबले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट हिंदुत्व की चपेट में ज्यादा आसानी से आ सकते हैं.
तीसरा विकल्प- और मुमकिन है कि इन सभी विकल्पों को किनारे रख दिया जाए- यह होगा कि टिकैत बंधुओं को या तो कमजोर किया जाए या उन्हें अलग-थलग कर दिया जाए. राकेश टिकैत और उनके भाई नरेश टिकैत दोनों बीजेपी के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े रहे हैं और इसके धार्मिक ध्रुवीकरण और जातिगत गोलबंदी को लेकर उनमें कभी कोई मलाल नहीं रहा है. सिंघु बॉर्डर और टिकरी बॉर्डर पर जो वामपंथी नेता डटे हुए हैं उनके विपरीत टिकैत बंधुओं के भीतर जबर्दस्त राजनीतिक आकांक्षा है जिनकी पूर्ति बीजेपी कर सकती है. पार्टी कुछ ऐसी रियायतों की पेशकश कर सकती है जो टिकैत बंधुओं को लुभा सके और वे अन्य आंदोलनकारियों से अपने को अलग भी कर लें और अपना आधार भी बचाए रखें.
लेकिन मोदी और शाह ने तय किया है कि तीनों कानूनों की वजह से जो राजनीतिक संकट पैदा होगा उससे निपटा जाएगा. जहां तक सरकार की बात है, इन कानूनों को 18 महीनों तक स्थगित रखने के सुप्रिम कोर्ट के फैसले से समझौता वार्ता करने और अलग अलग प्रस्तावों को रखने के लिए काफी गुंजाइश पैदा हो गई है. जहां तक किसान नेताओं की बात है उनका कहना है कि वे कानूनों के रद्द होने से कम पर किसी भी समझौते के लिए तैयार नहीं हैं लेकिन उन्हें यह भी पता है कि यह आंदोलन जितना ही लंबा होता जा रहा है उनके विकल्प भी लगातार सीमित होते जा रहे हैं.
इस गतिरोध को देखते हुए एक हल्की संभावना यह नजर आती है कि शायद सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी कोई समाधान प्रस्तुत कर सके. कोर्ट को दी जाने वाली अपनी रिपोर्ट में अगर यह कमेटी सरकार के प्रस्तावों के मुकाबले कुछ ज्यादा किसानों के सामने प्रस्तुत कर सकती है तो हो सकता है कि आंदोलनकारी नेता उस प्रस्ताव को लेकर उनकी स्वीकृति के लिए आंदोलनकारियों के पास जाएं.
4 जनवरी को अर्थात सुप्रीम कोर्ट की कमेटी में नियुक्त होने से एक सप्ताह पहले गुलाटी ने लिखा था :
‘‘...आंदोलनकारी किसानों के अंदर से हम भय और आशंकाओं को कैसे दूर करें? पहली बात तो यह है कि सरकार को इस बात को तैयार होना चाहिए कि वह लिखकर दे कि एपीएमसी बाजारों और एमएसपी की मौजूदा व्यवस्था जारी रहेगी और इस मामले में वह किसी तरह की लाग-लपेट की भाषा न इस्तेमाल करे. दूसरे, सरकार यह भी लिखकर दे सकती है कि कंपनियों का किसानों के साथ जो अनुबंध होगा वह जमीन के लिए नहीं बल्कि फसल के लिए होगा. तीसरे, अगर किसान चाहते हैं तो अपने विवादों को जिला अदालतों तक ले जा सकते हैं. चौथे, इन लिखित आश्वासनों के साथ-साथ सरकार मूल्य स्थिरीकरण योजना के तहत 25000 करोड़ रूपए का एक कोष तैयार करने की अपनी प्रतिबद्धता प्रकट कर सकती है. इस कोष का इस्तेमाल सरकार उस हालत में कर सकती है जब किसी खास वस्तु का बाजार मूल्य एमएसपी से 10 प्रतिशत नीचे चला जाए.’’
गुलाटी ने यह स्वीकार किया कि असल बात यह है कि आज आगे बढ़ने का रास्ता सरकार के कम हस्तक्षेप से नहीं बल्कि ज्यादा हस्तक्षेप से निकल सकता है. जहां तक उनके द्वारा उठाए गए कुछ खास खास मुद्दे हैं, हमने पहले ही गौर किया है कि अगर एफसीआई और बड़ी-बड़ी निजी कंपनियां इससे बाहर कदम रखती हैं तो एपीएमसी द्वारा संचालित बाजारों की मौजूदा प्रणाली को जारी नहीं रखा जा सकता. इसलिए या तो सरकार इस बात पर सहमत हो कि एफसीआई और निजी कंपनियां बाजार के मूल्य का भुगतान करेंगी और ऐसी स्थिति में एपीएमसी कानून बेकार हो जाएगा या वह यथार्थ में किसी भी तरह की पेशकश न करे. जहां तक ठेके पर खेती देने का मामला है, पंजाब सहित अनेक राज्यों मे पहले से ही ठेका खेती से संबंधित कानून बने हुए हैं और इनकी वजह से इस संदर्भ में एक केंद्रीय कानून की जरूरत महसूस होती रही है. अंत में अगर सरकार खरीद और एमएसपी की प्रणाली को जारी रखने के बारे में गंभीर है तो फिर निम्नतम निर्धारित कीमत की किसी दूसरी व्यवस्था को क्यों पैदा किया जा रहा है जबकि मौजूदा व्यवस्था के विस्तार से और बेहतर ढंग से मकसद पूरा किया जा सकता है.
प्रभावकारी ढंग से देखें तो जैसा कि किसान नेताओं की दलील है इन कानूनों को वापस लेना ही तार्किक लगता है.
सरकार ने इन कानूनों को लाने में बहुत हड़बड़ी दिखाई. पहले उसने जून में एक अध्यादेश के जरिए चोर दरवाजे से इसे लाने की कोशिश की और इस बात को तरजीह नहीं दी कि कृषि की मौजूदा संरचना और कृषि से संबंधित व्यापार पर पुनर्विचार किया जाए. अगर कानून बनाने से पहले किसानों से सलाह मश्विरा कर लिया गया होता तो अभी जो कुछ हो रहा है उनसे बचा जा सकता था. फिलहाल अडानी विलमार को बाजार में अपना दबदबा बनाए रखने का तरीका ढूंढना होगा और इसमें इन तीनों कानूनों से कोई मदद नहीं मिलनी चाहिए.
(कारवां पत्रिका के मार्च 2021 अंक में प्रकाशित इस कवर स्टोरी का हिंदी में अनुवाद वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
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