ईद-उल-अजहा से पहले के आखिरी शुक्रवार को 9 अगस्त के दिन, श्रीनगर के सौरा इलाके में भारत सरकार के खिलाफ बहुत बड़ा प्रदर्शन करने के लिए हजारों की संख्या में लोग जमा हुए. इससे चार दिन पहले भारत के गृहमंत्री अमित शाह ने संविधान के अनुच्छेद 370 को तत्काल प्रभाव से हटाने की घोषणा की थी. यह वह अनुच्छेद था जिसने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा दे रखा था जिसके तहत इस राज्य को अपना खुद का संविधान और झंडा रखने की अनुमति मिली हुई थी. इसके अलावा सरकार ने इस राज्य को जम्मू-कश्मीर और लद्दाख इन दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया. इस कदम ने यहां के स्थानीय नेतृत्व से उसकी राजनीतित शक्ति पूरी तरह छीन ली और इसे पूरी तरह से केंद्र सरकार के हाथों में दे दिया.
न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक इस भीड़ ने आजादी के नारे लगाए और कश्मीरी झंडे लहराए. इस जुलूस को सुरक्षा बलों ने रोक दिया जो द वॉशिंगटन पोस्ट के अनुसार “भीड़ पर आंसू गैस के गोले और पैलेट राउंड वाली शॉटगन चलाने लगे.” हालांकि इन दोनों अखबारों ने अपने खुद के चश्मदीद गवाह ढूंढ़ लिए थे, लेकिन वे बीबीसी और अल जजीरा द्वारा लगाई गई वीडियो रपट की मदद भी ले रहे थे जिसमें सब जिक्र की गई बातों को देखा और सुना जा सकता है.
ये कहानियां और वीडियो बहुत महत्वपूर्ण थे क्योंकि इन्होंने ऐसा कश्मीर दिखाया जो उस कश्मीर से बिलकुल अलग था जिसे भारत का राष्ट्रीय मीडिया दिखा रहा था. जब से शाह ने घोषणा की, तब से भारत सरकार को यह दिखाने में भारी सिरदर्दी हुई है कि इस फैसले को लेकर राज्य में कोई बड़ा असंतोष नहीं है. राष्ट्रीय मीडिया ने लगातार दोहराया कि कश्मीर में सबकुछ “सामान्य” है. हालात सामान्य होने का यह कथानक (नैरेटिव) प्राइम टाइम टेलीविजन और अखबारों के पहले पन्नों पर दिखाया गया और उन पत्रकारों ने इसे अंतहीन ढंग से दोहराया जिन्होंने शेखी बघारी थी कि वे सरकारी हैलीकॉप्टरों में कश्मीर गए थे. सौरा में इकट्ठा हुए भारी जनसमुदाय के वीडियो, इधर-उधर भागते लोगों का दृश्य और पृष्ठभूमि से आती शॉटगनों की जोरदार गर्जना ने इस कथानक को पंक्चर कर दिया.
सरकार ने तुरंत बयान जारी किया और कहा कि ऐसा कोई प्रदर्शन हुआ ही नहीं. गृह मंत्रालय ने 10 अगस्त 2019 को ट्वीट किया कि यह खबर “पूरी तरह मनगढंत और झूठी है.” एक पूर्व सैन्य अधिकारी और रक्षा विश्लेषक गौरव आर्य ने अगले दिन ट्विटर पर दावा किया कि ये वीडियो जाली थे. इन प्रदर्शनों के बारे में सवाल करने वाले एक ट्वीट के जवाब में गौरव ने कहा, “कश्मीर में अभी 100 से ज्यादा रिपोर्टर हैं, जो पिछले 5 दिन से लगातार रिपोर्टिंग कर रहे हैं. बीबीसी झूठ बोल रहा है.” दिल्ली स्थित रक्षा विश्लेषक और द प्रिंट के लिए नियमित रूप से लिखने वाले अभिजीत अय्यर-मित्रा ने एक ट्विट्टर थ्रेड शुरू की, ताकि हर संभावित तरीके से प्रदर्शनकारियों को बदनाम किया जा सके. उसने कहा कि वीडियो में प्रदर्शनकारियों ने जो झंडे ले रखे थे, उन पर इस्लामिक स्टेट और जैश-ए-मोहम्मद के निशान बने हैं और यह कि वे सब अल-कायदा के आतंकवादियों के नाम पुकार रहे थे. (उसने खुद जिस वीडियो का स्क्रीनशॉट लगाया था उसमें सबसे बड़ा बैनर था वह अनुच्छेद 370 हटाए जाने को लेकर था) वे सब पत्थर फेंक रहे थे. और वे “जरूर हमेशा कि तरह हिंसक हो गए होंगे ताकि उन पर गोली चलाई जा सके.” अभिजीत अय्यर-मित्रा के ट्वीट के बारे में एक खबर स्वराज्य ने अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित की.
इस दौरान बेबुनियाद दावे किया जा रहे थे. मसलन यह कि यह वीडियो पुराना था और श्रीनगर का नहीं था बल्कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) का था. भले ही यह एकदम साधारण जांच पर भी खरे नहीं उतर पाए, लेकिन कई अन्य लोगों ने भी इन्हीं दावों को फिर उगला जबकि वीडियो में भीड़ ने जो बैनर ले रखे हैं, उन पर लिखा था कि यह प्रदर्शन अनुच्छेद 370 हटाए जाने के विरोध में है और पृष्ठभूमि में जेनब मस्जिद का गुंबद दिखाई दे रहा था जो पीओके में नहीं है श्रीनगर के सौरा में है.
अंग्रेजी भाषा के चार सबसे बड़े दैनिक अखबारों- टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द हिंदू और द इंडियन एक्सप्रेस- ने या तो इस वाकये को कवर नहीं किया या फिर इसके महत्व को बहुत अधिक कम करके दिखाया. द हिंदू ने 10 अगस्त 2019 को एक छोटी सी खबर में इस घटना का जिक्र किया जिसका शीर्षक था, “शुक्रवार की नमाज शांतिपूर्ण रही.” पहले पन्ने पर लगभग दोगुना बड़े आकार की एक अन्य रपट में कश्मीरियों को एक फोन कॉल करने के लिए लंबी कतारों में खड़ा बताया गया, जिसमें रिपोर्टर को “गुस्से और राहत दोनों के आंसू” नजर आए. द इंडियन एक्सप्रेस ने अपने पहले पन्ने के मुख्य शीर्षक में एक सरकारी बयान का इस्तेमाल करते हुए पाकिस्तान को डांटा जिसमें सरकारी अस्पतालों में पहुंचने की कोशिश कर रहे बीमार कश्मीरियों के बारे में भी एक खबर थी. हिंदुस्तान टाइम्स ने इस घटना का जिक्र घाटी में “उदास ईद” के बारे में अपनी जमीनी रपट में किया जिसमें विरोध प्रदर्शनों का जिक्र आने के तुंरत बाद आधिकारिक खंडन आता है. टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने फ्रंट पेज से पहले जैकेट पर लीड हेडिंग के तौर पर सरकारी बयान लगाया और एक खबर में प्रदर्शन का जिक्र किया जिसका शीर्षक थाः“घाटी में छिटपुट हिंसक प्रदर्शन हुए.”
टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर करने वाले आरती टिक्कू सिंह और रोहन दुआ इसे लेकर अनाश्वस्त दिखे कि यहां विरोध प्रदर्शन हुए यह कहने के लिए उन्हें कितने आरोपों की जरूरत है. उन्होंने लिखा, “रॉयटर्स की एक रपट ने कहा कि एक पुलिस अधिकारी और दो प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार पुलिस ने कम से कम 10 हजार प्रदर्शनकारियों का मुकाबला करने के लिए आंसू गैस और पैलेटों का इस्तेमाल किया.” एक प्रत्यक्षदर्शी ने उन्हें कहा, “कुछ महिलाएं और बच्चे तो पानी में भी कूद गए” जब सुरक्षा बलों ने “दोनों तरफ से हम पर हमला कर दिया.”
इस खबर के अंत में इन रिपोर्टरों को वह सामान्य हालात मिल गए, जिन पर भारत सरकार बहुत जोर दे रही है. सिंह और दुआ ने पाया कि “ताजा मछली और भुने हुए मक्के बेच रहे फेरीवालों” के लिए “मुस्कुराने का यह दुर्लभ अवसर था क्योंकि चार दिनों के बंद के बाद लोग रुककर उनके पास से फिर से खरीदारी कर रहे थे.” यह बहुत अजीब था कि सुरक्षा बलों द्वारा 10 हजार से ज्यादा प्रदर्शनकारियों पर पैलेट गन और आंसू गैस के इस्तेमाल का जिक्र करने के बाद उनमें से कुछ को नदी में कूद जाना सुरक्षित लगा. यह खबर पुलिस महानिदेशक के बयान के साथ खत्म हुई, “आज कुल मिलाकर सब कुछ शांतिपूर्ण रहा. आने वाले दिनों के साथ ही आवाजाही पर लगे प्रतिबंधों में ढील दी जाएगी.”
हालांकि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया सरकार के खंडन के बावजूद इस खबर पर कायम रहा. तीन दिन बाद गृह मंत्रालय ने इन प्रदर्शनों की बात कबूल की, हालांकि उन्हें कुछ “शरारती तत्वों” की कारस्तानी कह दिया “जिन्होंने बड़े पैमाने पर अशांति फैलाने के लिए बगैर किसी उकसावे के सुरक्षा बलों पर पत्थरबाज़ी की.” जहां राष्ट्रीय मीडिया बिना कोई सवाल पूछे और बेरहमी से आगे बढ़ गया, इस वाकये ने दिखा दिया कि भारत में मुख्यधारा का मीडिया कैसे सरकार द्वारा बनाए हुए एजेंडा का अनुसरण करता है और कैसे योजनाबद्ध ढंग से कश्मीरियों के विरोध की आवाजों दबाया जा रहा है.
अगर आप अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संस्थानों को नहीं पढ़ते या देखते हैं, जो कि अधिकतर भारतीय नहीं ही करते हैं, तो यह ऐसा था जैसे कि सौरा के भयानक और हिंसक विरोध प्रदर्शन कभी हुए ही नहीं और सुरक्षा बलों ने भारतीय नागरिकों पर आंसू गैस और पैलेट दागे ही नहीं.
कश्मीर को कवर करने के मामले में भारतीय मीडिया का रिकॉर्ड उसी तरह रहा है जैसे उन्होंने सौरा वाकये के दौरान किया था. घटनाक्रम के सरकारी वर्जन को वरीयता देने में इन्हें कोई झिझक नहीं होती है. इसने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में कश्मीर को लेकर अक्सर मुक़्तलिफ़ कथानक पैदा किए हैं. इस भिन्नता को परिभाषित करते हुए एक वरिष्ठ कश्मीरी पत्रकार ने मुझे कहा, “आप लोग कश्मीर की तरफ राष्ट्रीय गौरव और राष्ट्रीय सुरक्षा के चश्मे से देखते हो. वहीं बाकी दुनिया के लिए यह एक कॉनफ्लिक्ट जोन यानी संघर्ष क्षेत्र है.” राष्ट्रीय हित की सेवा में कुछ तथ्य अक्सर इधर-उधर हो जाते हैं, निहत्थे नागरिक प्रदर्शनकारियों को अक्सर आतंकवादियों की तरह चित्रित कर दिया जाता है, शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चला रहे सुरक्षा बलों को दोनों तरफ की गोलीबारी बता दिया जाता है और कश्मीर के राजनीतिक नेताओं को लगातार खलनायक बनाया जाता है.
एक और वरिष्ठ कश्मीरी पत्रकार जिनसे मैं श्रीनगर में मिला था, उनके मुताबिक कश्मीर के इतिहास की बहुत सारी प्रमुख घटनाओं को तोड़-मरोड़कर भारतीय जनता के सामने पेश किया गया है. उन्होंने कहा, “भारतीय मीडिया पर एक आम कश्मीरी का भरोसा लंबे वक्त पहले ही खत्म हो गया था.” बेहद लोकप्रिय आतंकी बुरहान वानी के मारे जाने के बाद की कवरेज का संदर्भ देते हुए वे कहते हैं, “आप मुझसे पूछते हैं कि 5 अगस्त के बाद की कवरेज के बारे में मैं क्या सोचता हूं? मैं आपसे पूछता हूं कि भला यह 2016 से कहीं जुदा है क्या?” “या पूरे 1990 वाले दशक के दरमियान कुछ अलग था क्या?” जब इस राज्य में आतंकवाद अपने चरम पर था.
1990 के दशक में यहां का स्थानीय मीडिया भारत की मुख्यधारा की प्रेस का एक विकल्प बनकर उभरा था. हालांकि कॉनफ्लिक्ट ज़ोन में होने वाली पत्रकारिता जो सरकार के कुप्रचार वाले मकसद का साथ नहीं देती, वह एक खतरनाक संभावना साबित हुई है. पत्रकारों को सरकार से और विभिन्न आतंकवादी समूहों, इन दोनों की ओर से धमकियों और हिंसा का सामना करना पड़ा है. पिछले साल कश्मीर के दूसरे सबसे बड़े अखबार के संपादक शुजात बुख़ारी की अज्ञात बंदूकधारियों ने गोली मारकर हत्या कर दी. यहां की स्थानीय प्रेस इस हद तक सरकार के दबाव में आ चुकी है कि श्रीनगर के एक पत्रकार ने मुझे बताया, “हर अखबार अब बीजेपी का मुखपत्र बन चुका है.” यहां कश्मीर प्रेस क्लब की शामों में बहुत से स्थानीय पत्रकार गुजरे दिनों को याद करते हुए पाए जा सकते हैं.
5 अगस्त के बाद से यहां एक कार्यशील स्थानीय मीडिया की जो गैर-मौजूदगी हुई है, उसने कश्मीरी लोगों को पहले से भी ज्यादा दुखी कर दिया है. राज्य में संपूर्ण संचार ब्लैकआउट लागू कर दिया गया, जिससे इंटरनेट कनेक्टिविटी, मोबाइल नेटवर्क और फोन लाइन पूरी तरह बाधित हो गईं. कंटीले तारों से लैस सड़कों पर करीब 50 हजार की तादाद में सेना ने पेट्रोलिंग करनी शुरू कर दी. (करीब 5 लाख सुरक्षा बल इस इलाके में पहले ही तैनात हैं) विरोध प्रदर्शन के किसी भी प्रयास को सुरक्षा बलों ने सख्ती से कुचला. बहुत सारी गिरफ्तारियां की गईं और बहुत से लोग हताहत भी हुए. एक पूरे राज्य को जेल में तब्दील कर दिया गया और यहां रहने वाले लोगों के बाहरी दुनिया से संपर्क को प्रतिबंधित कर दिया गया. अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने रिपोर्ट किया है कि सुरक्षा बलों ने हर उस इंसान के साथ बर्बर हिंसा की है जिसने रेखा पार करने की कोशिश की है.
इस पर भारतीय मीडिया ने खुशी का इजहार किया है और जम्मू एवं कश्मीर राज्य के राजनीतिक रूप से अशक्त होने को उसके बाकी भारत के साथ एकीकृत होने के तरह चित्रित किया है. टेलीविजन न्यूज पैनलिस्टों ने इस कदम को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह का मास्टरस्ट्रोक कहा, ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने सरकार के नोटबंदी के फैसले को कहा था और पाकिस्तान पर “सर्जिकल स्ट्राइक” करने को कहा था. वे तर्क दे रहे हैं कि यह कदम कांग्रेस पार्टी और जवाहरलाल नेहरू की अक्षमता को रेखांकित करता है जिन्होंने इस राज्य को विशेष दर्जा दिया था. इस पूरे विचार में कश्मीरी लोगों के दृष्टिकोण के लिए कोई जगह नहीं है.
अंग्रेजी भाषा के अखबारों का मूड हालांकि टेलीविजन न्यूज चैनलों जितना उल्लास भरा नहीं रहा है लेकिन वे भी प्रसन्न दिखाई दिए हैं. टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द इंडियन एक्सप्रेस और द हिंदू अखबारों की सुर्खियां अधिकतर सरकारी दावों को ही समर्पित रही हैं और ऐसी खबरों को पहले पन्नों पर कभी कभार ही जगह मिली है जो सरकारी कहानी को चुनौती देने वाली हैं. इसमें सबसे अधिक महत्व की बात यह है कि अनुच्छेद 370 द्वारा कश्मीरी लोगों को जो अधिकार दिए गए थे उन्हें खोने के बाद उनको क्या कहना है, इसे लेकर जिज्ञासा या जांच का गहरा अभाव नजर आया है.
सोशल मीडिया पर कुछ पत्रकारों ने कश्मीर में हालात सामान्य होने का झूठा प्रचार करने के लिए फोटो और वीडियो पोस्ट किए. कम्युनिकेशन को लेकर जो ब्लैकआउट था, उसने उन्हें छुआ भी न था और इंटरनेट का इस्तेमाल कैसे कर पा रहे थे, इसे लेकर भी उनके पास कोई जवाब नहीं था. न्यूज एजेंसी एशियन न्यूज इंटरनेशनल ने भी सरकार के कथानक को प्रचारित करने में खास भूमिका निभाई है. इस मैगज़ीन के लिए मार्च 2019 में अपने लेख में प्रवीण दोंती ने लिखा कि यह एजेंसी कश्मीर पर कुप्रचार निर्मित करने में लंबे वक्त से शामिल रही है और सरकार के साथ बहुत करीब से काम करती है.
प्राइम टाइम एंकरों, प्रिंट कवरेज, सोशल मीडिया पंडितों और पैनल चर्चाओं के बीच एक जानकारी चक्र निर्मित किया गया है जिसकी शब्दावली ऐसी है जिसका कश्मीर के इतिहास या वर्तमान से कोई लेना-देना नहीं है. वे मोदी और शाह के परे देख ही नहीं सकते हैं इसलिए अनुच्छेद 370 हटाए जाने का ऐतिहासिक संदर्भ तो नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइकों को बनाया ही जाना था.
वहीं इसके उलट, अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने अपनी कवरेज के केंद्र में कश्मीरी लोगों को रखा हुआ है. द वॉशिंगटन पोस्ट, द न्यूयॉर्क टाइम्स, बीबीसी और द एसोसिएट प्रेस व अन्य द्वारा प्रकाशित की हुई रपटें दिखाती हैं कि लोग घेरेबंदी की स्थिति में रह रहे हैं और उन्हें मोबाइल कनेक्शन व अस्पतालों तक पहुंच जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं दी जा रही है. इन रपटों में आप चुप्पी के नीचे निर्मित होता हुआ गुस्सा महसूस कर सकते हैं. जैसे कि एक रपट में कहा गया कि कश्मीर एक “सोया हुआ ज्वालामुखी” नजर आता है. ये रपटें न सिर्फ कश्मीर में भारत सरकार की दोषसिद्धि है बल्कि भारतीय मीडिया पर भी कलंक है.
5 अगस्त की शाम को एक प्राइम टाइम बहस में न्यूज चैनल रिपब्लिक ने इस रात का अपना हैशटैग प्रदर्शित किया #कश्मीरइंटीग्रेटेड यानी कश्मीर एकीकृत हुआ. इस चैनल में कुछ फीसदी हिस्सेदारी के मालिक और एंकर अर्नब गोस्वामी ने घोषणा कर दी, “न्याय कर दिया गया है”. सत्तर साल के अन्याय को पलट दिया गया है. आपके, मेरे और हर भारतीय के दिल में गर्व का बहुत बड़ा एहसास है कि अपने जीवनकाल में, हमारी आंखों के सामने जम्मू एवं कश्मीर का एकीकरण सच में हो चुका है.”
अपने इस शुरुआती संवाद के तुरंत बाद गोस्वामी ने अपना गुस्सा उस “लॉबी (समूह)” पर उतारा जो इस खबर से नाखुश थी. गोस्वामी ने बाद में अपने शो में साफ किया कि ये लोग गुस्सा इसलिए थे क्योंकि उन्हें “उनके सेब के बगीचे वाले आजादी के धंधे से बाहर फेंक दिया गया है.”
गोस्वामी के शुरुआती संवाद के पीछे जो भाव था, उसकी गूंज आप देश के हर प्रमुख न्यूज संगठन में सुन सकते हैं. देश में सबसे अधिक बिकने वाले अखबार ने उन शब्दों को चुना जिनका मतलब एकीकरण भी हो सकता है और कब्जा भी. कैपिटल लेटर्स यानी बड़े अक्षरों में टाइम्स ऑफ इंडिया ने घोषणा की, “कश्मीर अब केंद्र का प्रदेश हो चुका है.” और हिंदुस्तान टाइम्स ने गरजकर कहा, “संघ का क्षेत्र.” अगले दिन द इंडियन एक्सप्रेस की बैनर हेडलाइन ने कहा, “इतिहास बना, सिर्फ एक झटके में.” इसके साथ ही संसद के उच्च सदन का एक वाइड एंगल फोटो भी लगाया गया था जिसमें मोदी शाह को बधाई देते दिख रहे थे. द इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने पर सभी डेटलाइन्स नई दिल्ली की थी. द हिंदू अखबार ने ज्यादा संयमित होते हुए कहा, “जम्मू एवं कश्मीर ने अपना विशेष दर्जा खोया, दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटा गया.” इस अखबार ने अपने पहले पन्ने पर जम्मू से प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की एक रपट को भी जगह दी, जिसमें कश्मीरियों ने इस कदम को लेकर अपने भय जाहिर किया. लेकिन मुख्य खबर ने सरकार के इस कदम को परिभाषित करने के लिए “सर्जिकल स्ट्राइक” शब्द का इस्तेमाल किया.
देश के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले अखबार दैनिक भास्कर ने हिंदू-राष्ट्रवाद की विचारधारा वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कथन को अपनी हेडलाइन के तौर पर इस्तेमाल कियाः “देश में अब एक विधान, एक निशान.” भास्कर जितनी ही प्रतियां बेचने वाले दैनिक जागरण के पहले पन्ने पर,“अनुच्छेद 370” शब्दों पर दो लाल पंक्तियों से क्रॉस का निशान लगा था और दोनों तरफ मोदी और शाह के आधे पन्ने के स्कैच बने थे, जो अपनी अंगुलियों से वी यानी विजय का निशान बना रहे थे. अंदर एक अन्य हेडलाइन में वही कहा गया, जो पहले अमित शाह और गोस्वामी कह चुके थे कि ऐतिहासिक भूल को सुधारा गया है. इसके बाद इनमें से किसी भी अखबार ने कश्मीर पर कोई ठोस रिपोर्टिंग नहीं की. हालांकि 11 अगस्त को दैनिक भास्कर ने अपने पहले पन्ने पर पूरे राज्य में जमीन की कीमतों का रेट कार्ड लगाया, क्योंकि इस रपट का कहना था, अनुच्छेद 370 खत्म हो जाने के बाद भारतीय लोग अब कश्मीर में जमीन खरीदना शुरू कर सकते हैं.
कश्मीर पर रिपोर्टिंग कर रहे कुछ चुनिंदा पत्रकारों ने कम्युनिकेशन ब्लैकआउट के दौरान भी अपने सोशल मीडिया खातों पर खुलकर पोस्ट किए. एक स्थानीय कश्मीरी पत्रकार के मुताबिक राज्य की पुलिस ने इन पत्रकारों को इंटरनेट तक पहुंच दिलाने में मदद की. इन पत्रकारों के पोस्ट अक्सर सरकार के आधिकारिक वर्जन के साथ मिले हुए थे.
कई टेलीविजन एंकरों ने एक और “राजनीतिक मास्टर स्ट्रोक” के लिए मोदी की जय जयकार की, यह मान लेते हुए कि यह कदम जनता के बीच लोकप्रिय होगा ही, जबकि तब तक किसी को प्रतिक्रिया देने का समय भी नहीं मिला था. इंडिया टुडे न्यूज चैनल पर राहुल कंवल ने इस फैसले को एक “वर्चुअल सर्जिकल स्ट्राइक” कह दिया. उन्होंने कहा, “चाहे आप नोटबंदी को गिने या न गिनें लेकिन 5 अगस्त नरेन्द्र मोदी के जीवन और दौर के सबसे अधिक महत्वपूर्ण दिनों में से एक है.” एनडीटीवी पर श्रीनिवासन जैन ने भी इस निर्णय को “धमाकेदार” और “खेल बदल देने वाला” कहते हुए नोटबंदी का जिक्र किया.
पहले दिन से ही जब घाटी में कम्युनिकेशन ब्लैकआउट लागू किया हुआ था तब राष्ट्रीय मीडिया हमें यह कहने लगा कि यह फैसला कश्मीरियों के लिए कितना स्वीकार्य है. 6 अगस्त को द हिंदुस्तान टाइम्स के कार्यकारी संपादक शिशिर गुप्ता ने एक खबर लिखी जिसमें अजीत डोभाल ने दावा किया कि जम्मू एवं कश्मीर के निवासी “अनुच्छेद 370 पर केंद्र सरकार की पहल के समर्थन में हैं.” राष्ट्रीय सुरक्षा की बीट देखने वाले शिशिर के एक साथी के मुताबिक उनका डोभाल के साथ “दशकों पुराना रिश्ता” रहा है.
7 अगस्त को एएनआई ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) डोभाल के वीडियो जारी किए जिनमें वह शोपियां में बिरयानी खा रहे थे और लोगों के एक छोटे से समूह के साथ बेतकल्लुफ़ी से बातें कर रहे थे. न्यूज चैनलों ने इन वीडियो को प्राइम टाइम पर चलाया. हालांकि कश्मीर से एक जमीनी रपट के दौरान एनडीटीवी पर रिपोर्टर ने इन वीडियो को “और कुछ नहीं, महज पब्लिसिटी स्टंट” कहा. बावजूद इसके गोस्वामी हर्षोन्मत्त थे और उन्होंने कहा, “यह कश्मीर है. हमारा कश्मीर. सुरक्षित कश्मीर. एक नया कश्मीर.”
एनएसए के इस दौरे को सारे राष्ट्रीय मीडिया ने प्रमुखता से दिखाया. टाइम्स ऑफ इंडिया में डोभाल के इस दौरे के बारे में आरती टिक्कू सिंह और रोहन दुआ की खबर की हेडलाइन पर ज़ोर दिया गया कि डोभाल कश्मीरियों के बीच पहुंचे, तो “उर्दू में बात कर रहे थे.” इसमें सारे बयान डोभाल के ही थे. द इंडियन एक्सप्रेस ने भी डोभाल की, इस यात्रा को कवर किया जहां पहले पन्ने पर एक फोटो लगी थी और पेज 7 पर प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया की खबर की प्रति लगी थी. वहीं सिंह और दुआ की खबर में सारे वक्तव्य डोभाल के थे.
कुछ दिन बाद द इंडियन एक्सप्रेस ने डोभाल के वीडियो में नजर आए, कश्मीरी लोगों में से एक के बारे में खबर प्रकाशित की. मंसूर अहमद मगरे ने रिपोर्टरों से कहा कि उन्हें कोई जानकारी नहीं थी कि वे जिस आदमी से बात कर रहे हैं, वह एनएसए हैं. अगर वह यह बात जानते तो उनसे कभी बात न करते. चूंकि डोभाल जम्मू एवं कश्मीर के डीजीपी के साथ थे तो मगरे ने सोचा कि डोभाल उनके सचिव हैं. मगरे ने इस रिपोर्टर को बताया, “उन्होंने हमसे 10-15 मिनट बात की. उसके बाद उन्होंने हम से अपने साथ दोपहर का भोजन करने के लिए कहा. मैंने उनसे कहा कि हम मेजबान हैं. इस बीच किसी ने जबरदस्ती मेरे हाथ में एक प्लेट पकड़ा दी. लोग कहते हैं कि मैंने बिरयानी खाई, वह चावल और गोश्त का एक टुकड़ा था.” लेकिन उस वीडियो को जो काम करना था उसने कर दिया. द इंडियन एक्सप्रेस ने इसकी फोटो अपने पहले पन्ने पर छापी. अखबार ने इस खबर को आठवें पन्ने पर प्रकाशित किया.
जहां सबसे पुराने और बड़े मीडिया (लैगेसी मीडिया) वाले डोभाल को कवर करने में व्यस्त थे, तब 7 अगस्त को द हफिंगटन पोस्ट ने 17 साल के लड़के ओसैब अल्ताफ के बारे में एक खबर ब्रेक की जिसकी सुरक्षा बलों से बचकर भागते हुए झेलम नदीं में कूदने के बाद मौत हो गई. अल्ताफ अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेल रहा था जब उसके व अन्य लड़कों के पीछे केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के जवान दौड़े.
एक और मौत जो माना जाता है कि 6 अगस्त को हुई, उसका जिक्र करीब एक महीने तक राष्ट्रीय मीडिया में नहीं हुआ. एक 18 साल का नौजवान असरार खान जो उसी दिन श्रीनगर में एक अन्य इलाके में क्रिकेट खेल रहा था और कथित तौर पर उसे गोली मारी गई और पैलेट गन के घाव से उसकी मौत हो गई. उसकी मौत की खबर 5 सितंबर को आखिरकार द इंडिपेंडेंट द्वारा कवर किए जाने तक बाहर नहीं आई. इस खबर में अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक मुनीर ख़ान ने दावा किया कि असरार को “एक पत्थर आकर लगा था” जबकि इसी खबर में असरार के चेहरे की फोटो भी लगी थी जिसके एक्स-रे में दिख रहा था कि उसकी खोपड़ी में कई पैलेट शॉट लगे थे.
भारतीय मीडिया इस बात को लेकर उदासीन बना रहा कि कश्मीर में जिंदगी और मौत कैसे आकार ले रही हैं. 9 अगस्त को लगभग हर अखबार के पहले पन्ने पर कश्मीर मसले पर मोदी का राष्ट्र के नाम भाषण प्रकाशित था. हालांकि टाइम्स ऑफ इंडिया के पेज 7 पर एक रपट ने दर्ज किया कि घाटी में “गुस्सा, भय, चुप्पी और निराशा” छाई हुई है.
यहां तक कि कश्मीर में ईद की कवरेज में भी कश्मीरियों की आवाज़ें बमुश्किल थीं. 12 अगस्त को दैनिक भास्कर और दैनिक जागरण दोनों ने इस त्योहार के लिए सरकार के प्रतिबंधों में ढील के बारे में अपनी खबरें छापीं. अगले दिन जागरण ने रिपोर्ट किया कि ईद के मौके पर कश्मीर में शांति बनी रही और भास्कर ने पाया कि इस दौरान खुशियां गायब थीं. भास्कर के पहले पन्ने पर सुरक्षा बलों की इस पीड़ा को लेकर खबर छपी कि कम्युनिकेशन ब्लैकआउट की वजह से वे अपने परिवार के लोगों से बात नहीं कर सकते. इसी तरह की एक खबर द इंडियन एक्सप्रेस में भी छपी.
एक्सप्रेस ने यह भी रिपोर्ट किया कि घाटी में ईद की खुशी गायब थी. टाइम्स ऑफ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स ने भी यही छापा. द हिंदू अपनी कवरेज में मुंहफट था, उसकी पहले पन्ने की रपट का शीर्षक था, “ईद के त्योहार के दिन कश्मीर घाटी को बंद रखा गया.” टाइम्स ऑफ इंडिया में पेज 9 पर छपी रपट ने कहा कि “प्रदर्शनकारियों द्वारा कानून व्यवस्था को बिगाड़ने की कम से कम दो घटनाएं रिपोर्ट की गईं जिनमें से एक सौरा की थी जहां 1000-1500 लोगों की भीड़ शुक्रवार की नमाज के बाद सुरक्षा बलों से भिड़ गई.” इन विरोध प्रदर्शनों के बारे में अपनी पिछली रपट में इन्हीं रिपोर्टरों - सिंह और दुआ ने - लिखा कि यह संख्या करीब 10 हजार की थी जिसमें रॉयटर्स की एक रपट, एक पुलिस अधिकारी और दो प्रत्यक्षदर्शियों का हवाला दिया गया था. इस रपट में वह भी लिखा गया जिसका पिछली रपट में जिक्र नहीं था कि “इस मौके पर भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पंप एक्शन गन चलाई गईं, लेकिन सुरक्षा बलों के अधिकारियों ने कहा कि सोमवार को इस तरह की कार्रवाई की जरूरत नहीं है.” इस खबर को भारती जैन द्वारा लिए गए प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह के साक्षात्कार के आगे छापा गया, जिसका शीर्षक था, “जम्मू एवं कश्मीर के प्रतिबंध पाकिस्तान की बदमाशी रोकने के लिए हैं.” पिछले साल इन्हीं भारती जैन ने रिपोर्ट छापी थी कि नोटबंदी ने “जम्मू एवं कश्मीर में आतंकवाद को मिल रही फंडिंग पर जोरदार आघात किया है.”
द इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने पर 14 अगस्त को छपा, “एक चरणबद्ध तरीके से इन प्रतिबंधों में ढील दी जाएगीः जे एंड के प्रशासन.” उसी दिन टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस हेडलाइन के साथ एक खबर छापीः “यह असुविधा बनाम जान की हानि की बात है.” ये पूरी खबर एक अज्ञात “वरिष्ठ सरकारी अधिकारी” के कथनों पर आधारित थी और इसे टाइम्स न्यूज नेटवर्क की बाइलाइन से छापा गया. हिंदुस्तान टाइम्स में राहुल सिंह और ध्रुबो ज्योति की एक रपट ऐसे कोट्स से भरी पड़ी थी जिसने दिखाया कि सरकार के इस कदम के बारे में कश्मीरी क्या सोचते हैं:
वे अपने भविष्य के बारे में सोचकर आशंकित हैं, उन्हें लगता है कि तैनात अधिकारियों ने उन्हें निराश किया है और यह निराशा “आतंकवाद में बढ़ोतरी को हवा दे सकती है.” इस खबर का शीर्षक था, “स्थानीय लोग हालात सामान्य होने की एक लंबी राह ताक रहे हैं.”
जम्मू एवं कश्मीर के मुख्य सचिव बीवीआर सुब्रमण्यम द्वारा प्रतिबंधों में ढील देने का एक बयान 17 अगस्त को हर अखबार में सुर्खी बना. टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने पर छपी सलीम पंडित की खबर का शीर्षक था, “दूरसंचार फिर बहाल किया जाएगा, स्कूल अगले हफ्ते खुलेंगे.” इस खबर का उपशीर्षक एक सरकारी दावा थाः “22 में से 12 ज़िलों में जीवन सामान्यः सरकार.” इस खबर की शुरुआत में कहा गया, “टेलीकॉम कनेक्टिविटी को शुक्रवार रात से धीरे धीरे बहाल किया जाएगा.” इसके आगे सुब्रमण्यम के हवाले से लिखा गया, “इन हालातों को अस्थिर करने की पाकिस्तान और कट्टरपंथी समूहों की कोशिशों के बावजूद एक भी जीवन को क्षति नहीं पहुंची है.” फिर पेज 11 पर छपे एएफपी के एक लेख से स्पष्ट हुआ कि सुब्रमण्यम सिर्फ लैंडलाइन की बात कर रहे थे, मोबाइल कनेक्टिविटी या इंटरनेट की नहीं. टाइम्स ऑफ इंडिया जहां अपनी पहले पन्ने की खबर में यह अंतर करने में असफल रहा, वहीं दैनिक भास्कर ने अपनी हेडलाइन में इसे स्पष्ट किया. वहीं दूसरी ओर दैनिक जागरण की खबर में सुब्रमण्यम के दावों पर कोई उद्धरण चिन्ह या आरोपण नहीं लगाए गए थे और इन्हें पहले पन्ने पर इस शीर्षक से लगाया, “कश्मीर में जीवन सामान्य हो रहा है.”
टाइम्स ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित की गई एएफपी की खबर का शीर्षक था, “शुक्रवार की नमाज के बाद प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतरे.” इसमें कहा गया कि “सैकड़ों की संख्या में प्रदर्शनकारियों ने काले झंडे और नारे लिखी तख्तियां लेकर श्रीनगर की सड़कों पर जुलूस निकाला” जो तब तितर-बितर हुए जब “पुलिस ने आंसू गैस के गोले छोड़े और पैलेट वाली शॉटगन चलाईं.” इस खबर के साथ मिलाकर एक एएनआई की कॉपी भी लगाई गई थी जिसका बड़े और बोल्ड हेडलाइन फॉन्ट में शीर्षक था, “पीओके में आतंकवादियों ने घाटी में जिहाद को आवाज दी.” द हिंदू ने भी एएफपी की कॉपी छापी, लेकिन उसे छोड़कर मुझे भारत के किसी भी अखबार में इन प्रदर्शनों का जिक्र तक नहीं मिला. लेकिन रॉयटर्स और एसोसिएट प्रेस में इनकी रपट थी और अन्य अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशनों के साथ-साथ जापान टाइम्स और एलए टाइम्स में भी इसे छापा गया था.
अगस्त के पूरे महीने के दौरान भारतीय अखबारों ने घटनाओं के सरकारी वर्जन के परे बहुत ही कम कुछ छापा. न्यूज चैनलों ने भी सरकारी अधिकारियों और स्व घोषित विश्लेषकों के कहे के इतर बहुत कम ही कुछ कवर किया. न्यूयॉर्क टाइम्स द्वारा 14 अगस्त को जारी किए गए तीन मिनट के वीडियो ने एक बिल्कुल ही अलग कहानी प्रस्तुत की. कैमरों ने कश्मीर की खाली पड़ी सड़कें और वहां घूमते सुरक्षा बल दिखाए. इसमें विरोध प्रदर्शन दिखाए गए और उन कश्मीरियों को जो अपनी दर्द भरी कहानियां कह रहे थे, जैसे कि एक परिवार अपने बच्चे को डॉक्टर के पास ले जा रहा था और सड़क पर सुरक्षा बलों ने उन्हें पीटा.
जैसे-जैसे महीना आगे बढ़ा अखबारों ने सुर्खियां लगाईं कि लैंडलाइन चालू हो रहे हैं, ट्रैफिक चलने लगा है और स्कूल जल्द ही खोले जाने का वादा है. एक्सप्रेस में दीप्तिमान तिवारी ने लिखा कि कश्मीर में मौजूदा स्थिति ने दिखाया है कि बुरहान वानी के मारे जाने के बाद “घाटी में जो भारी हिंसा हुई थी, उस दौरान सबक सीख लिए गए थे.” यह पूरी खबर एक “वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारी” के कथनों पर आधारित थी. इसमें एक तालिका बनाई गई थी जिसमें “पत्थरबाज़ी की घटनाओं”, “सुरक्षा बलों को आई चोटों” और क्षतिग्रस्त हुए वाहनों की संख्या की तुलना की गई थी. मेरा अनुमान है कि ये आंकड़े उसी वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारी ने मुहैया करवाए होंगे. इन आंकड़ों में दिखाया गया कि सभी श्रेणियों की संख्या में कमी आई है. संबंधित अधिकारी ने दावा किया कि सिर्फ कम्युनिकेशन ब्लैकआउट की वजह से और राज्य के राजनीतिक वर्ग को बंदी बनाने से ही यह संभव हो पाया है.
टाइम्स ऑफ इंडिया में सलीम पंडित ने पहले पन्ने पर अनूठी खबर की. यह खबर घर में नजरबंद कर दिए गए निर्वाचित नेताओं के जीवन के बारे में थी, ऐसी कि पढ़कर आपको उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती से रश्क होने लगे. इस खबर में लिखा गया कि अब्दुल्ला “हॉलीवुड फ़िल्में देखते हुए और जिम में कसरत करते हुए अपना वक्त बिता रहे हैं” और “नौ हेक्टेयर में फैले अपने पैलेस के मैदान में सुबह की सैर” कर रहे हैं. इस बीच मुफ्ती “चश्मे शाही स्थित जेकेटीडीसी (जम्मू एवं कश्मीर पर्यटन विकास निगम) की कुटिया में किताबें पढ़ते हुए अपने एकांतवास के दिन गुजार रही हैं.” फिर से कहें तो यह खबर पूरी तरह से अनाम “आधिकारिक सूत्रों” की बातों पर आधारित थी.
राष्ट्रीय सुरक्षा विश्लेषकों ने कश्मीरी आतंकवादियों द्वारा की गई हिंसा पर अपना ध्यान केंद्रित किया है. प्रवीण स्वामी एक ऐसे पत्रकार हैं जिनका गुप्तचर एजेंसियों के दावों को प्रकाशित करने का लंबा इतिहास रहा है. उन्होंने 9 सितंबर कोफर्स्टपोस्ट के लिए एक आलेख में लिखा कि “सरकार का यह कठोर कर्फ्यू एक क्रूर, नई कार्रवाई की राह बना रहा हैः इसे जिहादी समूहों द्वारा लागू किया गया है जो यह दिखाने को प्रतिबद्ध हैं कि कश्मीर अपनी तकदीर भारतीय गणराज्य के साथ बांधे जाने के नई दिल्ली के प्रयासों का प्रतिरोध करेगा.” मुख्यधारा में प्रकाशित ज्यादातर टिप्पणियां “प्रदर्शनकारियों” और “जिहादियों” जैसे शब्दों को अदल बदलकर इस्तेमाल करती हैं ताकि सरकार के कदमों के किसी भी विरोध को इस्लामिक कट्टरपंथियों के काम की तरह परिभाषित कर सकें.
तब से इस कवरेज में ज्यादा कुछ बदला नहीं है. पिछले महीने कश्मीर ने बिना इंटरनेट के 100 दिन पूरे कर लिए और ऐसी खबरें रही हैं जो इतनी लंबी तो थीं कि इस तथ्य को स्वीकार किया जा सके. यहां वहां आप प्रदर्शनों के बारे में, या दवाइयों की उपलब्धता या अस्पतालों की दशा या फिर सेब किसानों के बारे में रपटें देख सकते हैं. कुल मिलाकर राष्ट्रीय मीडिया अन्य मुद्दों की तरफ बढ़ गया. टेलीविजन की बहसों में सरकारी प्रवक्ता अनुच्छेद 370 हटाए जाने को अपनी पार्टी और शाह व मोदी की एक और जीत के तौर पर दोहराते हैं.
कश्मीर की स्थानीय प्रेस जो एक समय में मुख्यधारा के भारतीय मीडिया का विकल्प थी वह 5 अगस्त तक पहुंचने वाले महीनों में पूरी तरह से अपंग हो गई थी. इस जाल को वैसे ही बुना गया जिससे राष्ट्रीय मीडिया वाकिफ हैः सरकारी विज्ञापनों की आपूर्ति सूख जाती है, और मीडिया संस्थान का मालिक ख़ुद को जांच एजेंसियों के साथ उलझा पाता है, जिसका नतीजा यह होता है कि कुछ संपादकों को उनके पदों से हटाया जाता है, तनख्वाहें काटी जाती हैं, अंततः नौकरियों से निकाला जाता है. जल्द ही कोई फरमान जारी हुए बगैर भी संपादकीय नजरिया पूरी तरह से बदल जाता है और इतना बदल जाता है कि अखबार के मास्टहेड को छोड़कर संबंधित प्रकाशन को पहचान पाना भी मुश्किल हो जाता है, जो वह कभी हुआ करता था.
जुलाई में कश्मीर के सबसे बड़े अखबार ग्रेटर कश्मीर के मालिक फैयाज कालू से राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) द्वारा की गई एक हफ्ते लंबी पूछताछ इस प्रक्रिया के अनुरूप थी. 1987 में शुरू होने वाला ग्रेटर कश्मीर, घाटी का पहला अंग्रेजी दैनिक है. अभी भी इसे सबसे ज्यादा पढ़ा जाता है. राइजिंग कश्मीर और कश्मीर रीडर जैसे बाकी अखबारों के लिए एजेंडा यही अखबार तय करता है. अमरनाथ जमीन हस्तांतरण के बाद फैली अशांति को लेकर इस अखबार की रिपोर्टिंग के बाद सरकार ने ग्रेटर कश्मीर में विज्ञापन देने (2008) बंद कर दिए थे. राज्य सरकार ने इस साल फरवरी में ऐसा करना बंद कर दिया.
ग्रेटर कश्मीर में एक दशक से ज्यादा समय तक काम करने वाले एक पूर्व संपादक ने याद किया कि 2004 में यह अखबार कैसा हुआ करता था. इस अखबार ने “हिरासत से गायब” हो गए गुमशुदा लोगों पर प्रोफाइल की एक सीरीज चलाई थी. इस पूर्व संपादक ने कहा, “हमने पहले पन्ने पर लगातार 21 दिन तक रोज एक नई प्रोफाइल छापी. 22वें दिन एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी ने हमारे दफ्तर फोन किया और कॉल का जवाब देने वाले संपादक को गालियां देने लगा. अगले दिन हमने फोन की उस बातचीत को हूबहू वैसे ही अपने पहले पन्ने पर छापा.”
इस साल विज्ञापन आना बंद होने के बाद पत्रकारों के मेहनताने में 60 प्रतिशत तक की कटौतियां हुईं. मैनेजिंग एडिटर, कार्यकारी संपादक और एक वरिष्ठ संपादक को मेल मिले जिनमें लिखा गया था कि वे कम की गई सैलरी पर काम करना जारी रख सकते हैं लेकिन “दफ्तर के हिस्से के तौर पर नहीं.” उन लोगों ने इसके बजाय नौकरी छोड़ने को चुना. जुलाई के अंत तक तो अमित शाह को लिखे जाने वाले खुले खत और अनुच्छेद 370 और 35ए की तरफदारी करने वाले आलेख इस अखबार के संपादकीय पन्नों से गायब हो गए और एक के बाद एक कॉलम में यहां के ड्रग और पर्यावरण संबंधी संकट का रोना रोया जाने लगा.
राइजिंग कश्मीर में काम करने वाले एक अनुभवी व्यक्ति ने मुझे कहा, “हर कोई (ग्रेटर कश्मीर की ओर) देख रहा था. हर किसी ने सोचा कि अगर ये फैयाज कालू के साथ हो सकता है जो कि कश्मीर का सबसे ताकतवर संपादक है तो फिर हम लोगों के साथ भला क्या होगा?” इस साल के शुरू से ही हवाएं बदलनी शुरू हो गई थीं. एक अन्य स्थानीय पत्रकार ने कहा, “आप समझ जाते हो. किसी ने कुछ नहीं कहा लेकिन आप समझ गए कि अपनी नौकरी बचाए रखने के लिए और अपने किराए चुकाने के लिए आपको क्या लिखना है. आप ऐसे वक्त में असुविधा में नहीं पड़ना चाहते हो या अपनी नौकरी नहीं खोना चाहते हो, जब ज्यादा नौकरियां हैं भी नहीं.” 5 अगस्त के बाद से अखबार सिर्फ जगह भरने की कोशिश कर रहे हैं. छपाई के लिए जो टेक्स्ट गया है तब से, उसमें मांस का अचार और केले का शेक बनाने की रेसिपियां हैं और द मेटामॉरफोसिस और हार्ट ऑफ डार्कनेस जैसे यूरोपियन क्लासिक उपन्यासों के अंश शामिल हैं.
2016 में कश्मीर रीडर इस घाटी में 1990 के बाद बैन होने वाला पहला अखबार बन गया था. इसके मालिक हाजी हयात भट के साथ अलग तरह का बर्ताव किया गया जिससे राष्ट्रीय मीडिया के मालिकान भी परिचित हैं. इस अखबार के एक पूर्व वरिष्ठ संपादक ने मुझसे कहा कि अखबार ने बुरहान वानी की मौत पर जो कवरेज की थी उसकी वजह से भट के आउटडोर विज्ञापन का कारोबार प्रभावित होने लगा. इस वरिष्ठ संपादक ने कहा, “नगर निगम से उन्हें जो नोटिस आने लगे थे उसके बारे में न्यूजरूम में बातें होने लगी थीं.” कुछ वक्त तक भट अपने संपादकों के समर्थन में खड़े रहे, लेकिन उन्होंने मुझसे कहा कि विज्ञापन से होने वाली आय की गैर मौजूदगी में रिपोर्टिंग जारी रखना कठिन है. भट ने कहा कि कालू के बाद उन्हें भी एनआईए ने पूछताछ के लिए बुलाया था. उन्होंने कहा, “जैसी रिपोर्टिंग की जानी चाहिए, वैसी अभी कर पाने में हम सक्षम नहीं हैं.”
राइजिंग कश्मीर को शुजात बुखारी ने शुरू किया था जिनकी पिछले साल जून में हत्या कर दी गई थी. इस अखबार के एक संपादक ने कहा, “शुजात के बाद अखबार को उनके ब्रदर-इन-लॉ (अयाज गनी ) द्वारा पेशेवर ढंग से चलाया गया.” इस संपादक के मुताबिक इन गर्मियों से अखबार में तब्दीली शुरू हुई. इस संपादक ने कहा, “हमें कहा जाने लगा कि इस खबर को दबा दो. उस खबर को पहले पन्ने पर मत लगाओ. इसे अंदर कहीं लगा दो.” इस संपादक ने कहा कि किसी को नहीं पता था यह क्यों हो रहा था लेकिन हर किसी ने अनुमान लगाया कि फैयाज कालू के साथ जो हो रहा था उसकी वजह से. इस संपादक ने कहा, अगस्त के बाद से “हम भी बीजेपी का मुखपत्र बन गए हैं.”
अक्टूबर के आखिर में सरकार ने कश्मीरी कारोबारियों और राजनीतिक वर्ग के लिए एक लंच बैठक आयोजित की जिसके अंदर इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार “केंद्र द्वारा एक नए राजनीतिक विकल्प को उत्प्रेरित किया जा रहा था.” अजीत डोभाल द्वारा आयोजित इस लंच के दौरान कश्मीरियों ने यूरोपीय संसद के फार-राइट यानी चरम दक्षिणपंथी विचारधारा वाले सदस्यों के अनाधिकारिक प्रतिनिधिमंडल के साथ बातचीत की, जिन्हें कश्मीर यात्रा करने के लिए भारत सरकार द्वारा आमंत्रित किया गया था. इसमें मौजूद रहने वाले लोगों में अयाज गनी भी थे.
राइजिंग कश्मीर में काम करने वाले इस संपादक ने मुझे कहा, “अगस्त से पहले के कुछ महीनों में आप मोदी या राज्यपाल के बारे में कुछ प्रतिकूल नहीं लिख सकते थे. अब तो आप निचले स्तर के नौकरशाहों के बारे में भी नहीं लिख सकते हैं.” इस संपादक के मुताबिक कुछ हफ्ते पहले एक स्थानीय बीजेपी राजनेता ने संपादक को फोन करके शिकायत की कि उनके स्पोर्ट्स पेज पर एक पाकिस्तानी क्रिकेटर की फोटो लगी है.. “यहां तक कि अब तो यह भी बहुत ज्यादा है.” एक फोन कॉल में गनी ने इन आरोपों से इनकार किया. उन्होंने कहा, “जिस किसी ने भी आपसे यह कहा है यह पूरी तरह से बकवास बात है. इस बयान में कोई सत्यता नहीं है. मैं इसकी कड़ी निंदा करता हूं.”
ग्रेटर कश्मीर के सहयोगी प्रकाशन कश्मीर उज्मा को छोड़ दें, तो अधिकतर उर्दू प्रेस ने काफी वक्त से अपने यहां रिपोर्टर नहीं रखे हैं. ये अखबार वायर से आने वाली प्रतियों को अनुवाद करके और सरकारी विज्ञापनों को छापते हैं. इन सबका नतीजा यह हो रहा है कि स्थानीय पत्रकार कश्मीरी लोगों के गुस्से का सामना कर रहे हैं जो गुस्सा पहले राष्ट्रीय मीडिया के लिए हुआ करता था. एक रिपोर्टर ने कहा, “एक स्थानीय पत्रकार के तौर पर अगर आप आज जाते हैं और लोगों से बात करते हैं तो वे आपको गाली देते हैं. आज वे सिर्फ उन्हीं पत्रकारों से बात करते हैं जो अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशनों से हैं.”
कश्मीर प्रेस क्लब में पत्रकार लोग टेबल पर पड़े-पड़े फड़फड़ाने वाले अखबारों को कभी-कभार ही उठाते हैं और कश्मीर के बारे में छपी खबर पढ़कर हंसने लगते हैं. उसके बाद अखबार की उस प्रति को एक दूसरे के आगे सरका दिया जाता है और सब उस जोक को साझा करते हैं. वरिष्ठ पत्रकार उन दिनों को याद करते हैं, जब वे ग्रेटर कश्मीर या कश्मीर रीडर या कहीं और काम करते हुए साहसी हेडलाइनों के साथ महत्वपूर्ण खबरें प्रकाशित किया करते थे. स्थानीय युवा पत्रकार जो राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के लिए फ्रीलांसिंग करते हैं उनके पास सुनाने के लिए अपनी कहानियां हैं कि कैसे मीडिया सुविधा केंद्रों से उन्हें बाहर कर दिया जाता है और वे दिल्ली में बैठे अपने बॉसों के बारे में घृणा से बात करते हैं जो अक्सर उनकी खबरों को प्रकाशित ही नहीं करते हैं.
यहां के वरिष्ठ पत्रकारों में से एक ने मुझे कहा, “यहां पर पत्रकारिता का तो यूं है कि अब वह एक बीती हुई कहानी है.”
कश्मीर में पत्रकारों के लिए कम्युनिकेशन ब्लैकआउट का मतलब था कि अपनी स्टोरी पर रिपोर्टिंग करने के बाद उनके लिए अपने संपादकों को उसकी कॉपी भेजना बहुत कठिन साबित हुआ. कोई इंटरनेट नहीं था, मोबाइल नेटवर्क नहीं थे और न ही काम करने वाले लैंडलाइन थे. इन हालातों में रिपोर्टिंग कैसे की गई, यह भी अपने आप में न्यूज है. आप इसके बारे में न्यूयॉर्क टाइम्स, द इंडिपेंडेंट, कोलंबिया जर्नलिज्म रिव्यू, नाइमैन रिपोर्ट्स या अन्य जगहों पर पढ़ सकते हैं. रिपोर्टर कहानियां बताते हैं कि कैसे उन्होंने फ्लाइट से दिल्ली जा रहे लोगों के हाथ पेन ड्राइव भेजीं और उन्हें यह तक नहीं पता था कि उनकी खबरें प्रकाशित भी हो रही थी या नहीं, या यह कि क्या वे संपादकों तक पहुंचीं भी कि नहीं. वहीं संपादकों को यह नहीं पता था कि उनके रिपोर्टर हैं कहां. एक स्थानीय पत्रकार ने न्यूजलॉन्ड्री के रिपोर्टर से कहा, “हम फिर से पाषाण युग में पहुंच गए हैं.”
हालांकि वे चंद पत्रकार जिन्होंने पूरे शोर-शराबे के साथ कश्मीर में सरकार की इस कार्रवाई का बचाव किया है, उन्हें इंटरनेट प्राप्त करने में या इस इलाके में आवाजाही करने में कोई भी दिक्कत नहीं हुई है. एक स्थानीय कश्मीरी पत्रकार ने दावा किया कि इस ब्लैकआउट के बीच इन पत्रकारों को बुलेटप्रूफ वाहन मुहैया करवाए गए और आने-जाने के लिए ईंधन दिया गया और वे वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के कार्यालयों में इंटरनेट का उपयोग कर सकते थे.
मजे की बात यह है कि इनमें से अधिकतर पत्रकार कश्मीरी पंडित हैं. 2010 के अपने एक भाषण में अजीत डोभाल ने कश्मीरी पंडितों को “कश्मीर के सबसे बड़े पीड़ित कहा था.” उन्होंने कहा कि देश के “रणनीतिक योजनाकारों” की गलतियों में से एक यह रही कि उन्होंने “इस नाटक में कश्मीरी पंडितों को अभिनेता नहीं बनाया.” उन्होंने कहा, “अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो भारत के पास एक इंट्रेस्ट ग्रुप के जरिए अपने विचार, चिंताएं और राष्ट्र हित व्यक्त करने के लिए सबसे ताकतवर प्रतिनिधि होते.” और ऐसा किसलिए नहीं किया गया? डोभाल ने इसके जवाब में कहा, “क्योंकि गिलानी से बात करना धर्मनिरपेक्ष था और कश्मीरी पंडितों से बात करना सांप्रदायिक था.”
कश्मीर से नियमित रूप से ट्वीट कर पाने लायक इंटरनेट पाने वाले कुछ चुनिंदा पत्रकारों में से एक राहुल पंडिता ने 7 अगस्त को ट्विटर पर लिखा कि सरकार के इस कदम से “बहुत सारे कश्मीरी खुश हैं. उन्होंने कहा कि लोग तो असल में “राजनीतिक शक्ति वाले उन मुट्ठी भर लोगों” से गुस्सा हैं जिन्होंने “इस जारी संघर्ष से बहुत फायदा उठाया है.”
उसी दिन उन्होंने ट्वीट किया कि प्रतिबंधों को “करीब 50 प्रतिशत तक ढीला कर दिया गया है.” जिन लोगों से मैंने श्रीनगर में बात की उनके मुताबिक यह वक्त वह था जब पूरे दिन लाउडस्पीकरों से कर्फ्यू की घोषणा होती रही और लोगों को घरों में ही रहने की हिदायत दी गई और रोज जगह बदलकर लगाए जा रहे चैकपॉइंट इतने करीब लगाए गए थे कि आप एक पार करें, तो तुरंत दूसरे को देख सकते हैं.
पंडिता ने जो वीडियो पोस्ट किए थे उनमें कश्मीर की सड़कें दिखाई गई थीं जिनमें से कुछ की पृष्ठभूमि में कार में बॉलीवुड के गाने बज रहे थे. तकरीबन हर दुकान का शटर इनमें बंद देखा जा सकता है लेकिन पंडिता के ट्वीट में दावा किया गया कि चूंकि लोग घरेलू सामान और दवाएं खरीद रहे हैं इसलिए कश्मीर में हालात सामान्य हैं. ओपन मैगजीन के लिए अपनी पहली रिपोर्ट में पंडिता ने लिखा कि कैसे स्थानीय कश्मीरियों से खतरे का सामना कर रहे प्रवासी मजदूर राज्य छोड़कर भाग रहे हैं. इस रिपोर्ट में भारतीय राजनेताओं के बयान गायब थे. सैटेलाइट टेलीविजन पर पूरे कश्मीर में उपनिवेशवादियों का दंभ दिख रहा था कि कैसे वे कश्मीरी महिलाओं से शादी करने और घाटी में जमीन खरीदने की बात कर रहे थे.
जब पंडिता से ट्विटर पर पूछा गया कि कैसे उन पर कम्युनिकेशन ब्लैकआउट का कोई फर्क नहीं पड़ा है तो इसके जवाब में उन्होंने बताया कि कश्मीर में इंटरनेट तक पहुंच पाना या इधर- उधर आने-जाने में सक्षम हो पाना उनकी “पत्रकारीय चतुराई” का हिस्सा था. उन्होंने एक अन्य महिला पत्रकार से कहा कि अगर वह और उसके दोस्त “रोजाना पांच मिनट के लिए इंटरनेट नहीं ढूंढ़ सकते, तो उन्हें पत्रकार होने का कोई हक नहीं है.” पंडिता ने इसके बाद कहा कि जो पत्रकार उनके काम को कमतर करने की कोशिश कर रहे हैं वे यह सब अपनी नाकाबिलियत छुपाने के लिए कर रहे हैं. जब उनसे पूछा गया कि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में जो रिपोर्ट किया जा रहा है उसके मुकाबले उनकी रिपोर्टें इतनी ज्यादा अलग कैसे हैं. इस पर उनका जवाब था, “मैंने जो देखा वह रिपोर्ट किया. मेरे पास कोई कर्फ्यू पास नहीं है, कोई पीएसओ नहीं है, गुपकार रोड़ (श्रीनगर का इलाका जहां नौकरशाह और कश्मीरी राजनेता रहते हैं) पर पूर्व मुख्यमंत्रियों तक कोई पहुंच नहीं है.” विडंबना की बात है कि इसी गुपकार रोड को कश्मीर के स्थानीय लोग इंडिया रोड कहते हैं.
गुपकार रोड का परिचय भाई-भतीजावाद और क्रोनीज्म के आकर मिलने वाले बिंदु के तौर पर देना, उसे ऐसी जगह बताना जहां समझौते करने वाले पत्रकार और नाना प्रकार के निहित स्वार्थों वाले लोग आते हैं, यह थीम एक और पत्रकार आदित्य राज कौल के ट्वीटों की भी थी जो कम्युनिकेशन ब्लैकआउट के दौरान निर्बाध ढंग से ट्वीट किए जा रहे थे. कहा कि क्या भारत के लोगों के लिए घाटी में जमीन खरीदना एक आंदोलन बन सकता है जैसे कि “ऑक्यूपाई गुपकार रोड?” बोले कि जो पत्रकार “इंटरनेट की उपलब्धता न होने का रोना रो रहे हैं” वे ऐसा नहीं करते “अगर ये गुपकार रोड पर उपलब्ध होता”, तब वे “गुपकार रोड पर रुके रहते और गोश्त बस, कबाब और फिरनी खाते हुए लच्छेदार रंगीन भाषा में भारत को बुरा भला कहते.” सितंबर के आखिर में पॉन्डी लिट फेस्ट में गोस्वामी की बहसों के #नेगेटिविटीगैंग #खानमार्केटडिप्रेशन जैसे जुमलों का इस्तेमाल करते हुए कौल ने श्रोताओं से पूछा, “आप में से ज्यादातर लोग जानते हैं कि खान मार्केट क्या है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि गुपकार रोड क्या है?”
पॉन्डी लिट फेस्ट में कश्मीर पर पैनल वार्ता का मॉडरेशन टाइम्स ऑफ इंडिया की आरती टिक्कू सिंह ने किया जिसका शीर्षक था “इतिहास का एक धब्बा मिटाना.” यह एक संदेश था जो सबसे पहले अमित शाह के मुंह से निकला था और फिर प्राइमटाइम टेलीविजन और राष्ट्रीय प्रेस के पहले पन्ने की खबरों के जरिए होता हुआ अब साहित्य महोत्सवों में दोहराया जा रहा था.
22 अक्टूबर को दक्षिण एशिया में मानव अधिकारों पर अमेरिकी संसद की विदेशी मामलों की समिति द्वारा आयोजित सुनवाई में आरती टिक्कू सिंह ने कश्मीर में सरकार के कदमों का बचाव किया. दो दिन बाद हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन ने उनका सत्कार किया और देश की राजधानी में नेशनल प्रेस क्लब में बोलने के लिए बुलाया. यह फाउंडेशन वॉशिंगटन स्थित एनजीओ है जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अमेरिकी शाखा चलाती है. इसने 2002 के मुसलमान विरोधी कत्लेआम के बाद अमेरिका में मोदी की छवि का दुरुस्त करने की दिशा में काम किया था.
12 अगस्त की सुबह कौल, पंडिता और जम्मू-कश्मीर पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी इम्तियाज हुसैन ने एक-एक घंटे के अंतराल में तकरीबन एक जैसे दिखने वाले वीडियो पोस्ट किए जिन्हें कश्मीर की शंकराचार्य हिल पर लगभग एक ही जगह पर शूट किया गया था. कौल ने लिखा, “बिना किसी प्रदर्शन या हिंसा के पूरी कश्मीर घाटी में शांतिपूर्ण ढंग से ईद मनाई जा रही है.” पंडिता ने लिखा, “यहां पर पूरी तरह शांति बनी हुई है. लेकिन खबर हासिल करना कठिन है. इसलिए मैं सिर्फ एक भिड़ंत/प्रदर्शन की ही पुष्टि कर सकता हूं, जो श्रीनगर में हुआ. हैलीकॉप्टर ऊपर से नजर रखे हुए थे.” जल्द ही ये दोनों सरकार के इन्हीं हैलीकॉप्टरों में उड़ान भर रहे थे और खाली पड़ी सड़कों को देख रहे थे, जो इसलिए खाली थीं क्योंकि त्योहार के दौरान भी लोग घरों के अंदर रहे.
हुसैन तब से ट्विटर पर कश्मीर के जारी हालातों के बारे में मुखर होकर बोल रहे हैं और अपने समय का इस्तेमाल उन अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारों को बुरा भला करने में करते हैं जो कश्मीर के बारे में “फिक्शन लिख रहे हैं” और उनकी रिपोर्टें “प्रोपोगैंडा” हैं. हुसैन उन पुलिसवालों में से एक हैं जिन पर राहुल पंडिता ने 2010 में ओपन मैगजीन में एक खबर की थी जिसका शीर्षक था “खाकी के फियादीन : पांच बहादुर पुलिसवाले जिन्होंने कश्मीर में आतंकवाद की कमर तोड़ दी.” इस खबर में हुसैन अपनी बड़ी वीरता की कहानियां याद करते हैं, मसलन “एक दुर्दांत लश्कर आतंकी” को “उसकी राइफल अपने से दूर करते हुए और मेरी पिस्टल से उसे शूट करते हुए” मारना - और इस खबर को पंडिता ने एक भी पुष्टि करने वाले स्त्रोत के बिना पन्ने पर प्रकाशित किया.
अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्टों में कश्मीर एक पूरी तरह से अलग जगह नजर आता है. 29 अगस्त को बीबीसी ने कश्मीरी गांववालों के आरोपों को जाहिर किया कि सेना उन्हें बुरी तरह से मार-पीट रही है और यातना का इस्तेमाल भी कर रही है. दक्षिण कश्मीर के गांववालों में से एक ने बीबीसी के पत्रकार से कहा:
“उन्होंने हमें पीटा. हम उनसे पूछ रहे थे : 'हमने किया क्या है? आप गांववालों से पूछ सकते हैं अगर हम झूठ बोल रहे हैं तो, अगर हमने कुछ गलत किया है तो?' लेकिन वे कुछ सुनना ही नहीं चाहते थे, उन्होंने कुछ भी नहीं बोला, बस हमें मारते-पीटते रहे.”
उन्होंने मेरे शरीर के हर हिस्से पर मारा. लातें मारी, डंडों से मारा, हमें इलेक्ट्रिक शॉक दिए, हमें तारों से मारा. उन्होंने हमारे पैरों में पीछे की तरफ मारा. हम बेहोश हो गए, तो होश में लाने के लिए बिजली के झटके दिए. जब उन्होंने हमें डंडों से मारा, तो हम चीखे, तो उन्होंने कीचड़ से हमारा मुंह बंद कर दिया.
हमने उनको बोला कि हम बेकसूर हैं. हमने पूछा कि वे यह सब क्यों कर रहे हैं? लेकिन उन्होंने हमारी एक बात नहीं सुनी. मैंने उनको कहा कि हमें पीटो मत, गोली मार दो. मैं अल्लाह से दुआ कर रहा था कि वह मुझे उठा ले, क्योंकि वह यातना असहनीय थी.”
एक और ग्रामीण “युवक” ने कहा :
“एक बार मैंने अपने कपड़े उतार दिए, उसके बाद उन लोगों ने बड़ी निर्ममता के साथ मुझे दो घंटे तक रॉड और डंडों से मारा. जब भी मैं बेहोश हो जाता था, वे लोग जगाने के लिए (मुझे) बिजली के झटके देते थे.
अगर वे मेरे साथ फिर से ऐसा करते हैं तो मैं कुछ भी करने को तैयार हूं, मैं बंदूक उठा लूंगा. मैं रोज रोज ये बर्दाश्त नहीं कर सकता हूं.”
भारतीय सेना के एक बयान में इस सबसे इनकार किया, लेकिन बीबीसी की रपट के साथ तस्वीरें भी लगी थीं जिनमें से एक में बुरी तरह से चोटिल पीठ दिखाई दे रही थी, दूसरी में पैरों के पीछे का हिस्सा दिख रहा था जहां जांघों की त्वचा काली और बैंगनी पड़ गई थी.
10 सितंबर को एसोसिएट प्रेस ने “50 से भी ज्यादा साक्षात्कारों” और “कश्मीर के एक दर्जन गावों के लोगों” के आधार पर एक अन्य खबर प्रकाशित की:
उन्होंने कहा कि सैनिकों ने उन्हें मारा-पीटा और इलेक्ट्रिक शॉक दिए, उन्हें मिट्टी खाने और गंदा पानी पीने को मजबूर किया, उनकी खाद्य आपूर्ति में जहर मिला दिया या उनके पशुओं को मार दिया और उनकी महिला रिश्तेदारों को साथ ले जाने या शादी कर लेने की धमकी दी. हजारों नौजवानों को गिरफ्तार किया जा चुका है.
पारीग्राम में रहने वाले एक बेकर ने एपी को कहा कि उनका परिवार “सो रहा था जब सैनिकों की टुकड़ी ने उनके घर पर धावा बोल दिया. सैनिक उनके दो बेटों को गली में ले गए और उन्हें बंदूकों की बट, लोहे की चेन और डंडों से मारा-पीटा.” गांव के दस और युवकों को सैनिकों द्वारा गांव के चौक पर लाया गया और “भारत-विरोधी प्रदर्शनकारियों” के नाम पूछते हुए उनसे पूछताछ की. उनमें से एक ने इस न्यूज एजेंसी को बताया कि उन्हें “तीन घंटे तक पैरों और पीठ पर मारा गया” और “बिजली के झटके दिए गए.”
वॉशिंगटन पोस्ट ने 13 गावों के 19 लोगों का इंटरव्यू लिया. जो कहानियां उन्होंने सुनी उनमें लोगों को कथित तौर पर “लोहे की छड़ों, डंडों, तारों से मारा गया, बिजली के झटके दिए गए और लंबे समय तक उल्टा लटकाए रखा गया.” तीन मामलों में रिपोर्टरों ने “तस्वीरों और चोटों का ब्यौरा देने वाले अस्पताल के रिकॉर्ड” की समीक्षा करने के बाद उनकी बातों की पुष्टि की. छह मामलों में उन्होंने “या तो चोटों के फोटोग्राफ देखे या फिर अस्पताल के रिकॉर्ड.” बाकी अधिकतर मामलों में वाकये की पुष्टि करने के लिए उन्होंने “परिवार के सदस्यों और कथित यातना के तुरंत बाद पीड़ितों को देखने वाले गवाहों से बात की.” इनमें से एक यासीन भट ने रिपोर्टरों से कहा कि वह आधी रात का वक्त था जब सैनिकों ने उसे बुलाया.
25 साल के इस युवक ने कपड़े पहने और अंधेरे में चला गया. भट ने कहा कि मुख्य सड़क के पास ही भारतीय सेना के दर्जनों सैनिकों को देखा. एक ने उससे पूछा कि कश्मीर की स्वायत्तता को हटाने के एक दिन पहले भारत के इस कदम के बारे में उसका क्या सोचना है. डरे हुए भट ने कहा कि ये अच्छा कदम है.
भट ने याद किया कि उस सैन्य अधिकारी ने कहा झूठ मत बोलो और सड़क के बीचों बीच उससे कपड़े उतारने के लिए कहा.
उसने कहा कि उसके बाद यातना शुरू हुई. कई सैनिकों ने उसे जमीन पर दबाकर रखा और बाकियों ने मोटी तारों का इस्तेमाल करके उसकी पीठ और पैरों पर चाबुक की तरह मारा. उसके बाद सैनिकों ने उसकी छाती और जननांगों पर तार लगा दिए जो बैटरी से जुड़े हुए थे. उसने याद किया कि जैसी ही करंट उसके शरीर में बहा, वह गतिहीन हो गया.
उसने कहा, “मैंने सोचा कि ये मेरी आखिरी रात होने वाली है.”
विदेशी मामलों की समिति के सामने अपनी गवाही में आरती टिक्कू सिंह ने कश्मीर की “तोड़ मरोड़कर पेश की गई हकीकत” प्रस्तुत करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मीडिया को दोष दिया. उन्होंने कहा, “पाकिस्तान द्वारा कश्मीर में 30 साल तक चलाए गए इस्लामी जिहाद और आतंक को दुनिया भर की प्रेस ने पूरी तरह से नजरअंदाज और अनदेखा कर दिया” जो कि कश्मीर की एक “तोड़ी मरोड़ी हकीकत” पेश करता है. “जहां वे भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा किए जा रहे उल्लंघनों के वाकयों को तो सही से उभार रहे हैं लेकिन इस कहानी को अक्सर बिना संदर्भ और ऐतिहासिक समझ के प्रस्तुत किया जाता है और कथानक में ऐसी निश्चितता और खुद के सच व पवित्र होने का भाव होता है कि वह कथानक कश्मीर में मानव अधिकारों के दुरुपयोग को नहीं बल्कि उसके दोषियों की मदद करता है.”
इस समिति के एक सदस्य इल्हाम उमर ने सिंह के दावों को “बहुत ही संदिग्ध” बताया. उमर ने उनसे कहा, “मैं जानता हूं कि रिपोर्टिंग द्वारा आकार दिया गया कथानक कैसे सच को तोड़ मरोड़ सकता है. और मैं इस बात से भी वाकिफ हूं कि कैसे यह सिर्फ कहानी में सरकार के आधिकारिक पक्ष को साझा करने तक ही सीमित है. एक प्रेस सबसे बदतर होती है, जब वह किसी सरकार का मुखपत्र होती है.”
भारत सरकार ने शुरू से कहा है कि कश्मीर में सब कुछ सामान्य है और इस दावे को भारतीय मीडिया ने पूरी वफादारी के साथ प्रतिबिंबित भी किया है. मैंने द इंडियन एक्सप्रेस, द हिंदू, हिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया की वेबसाइट्स खंगाल डाली, ये देखने के लिए कि विदेशी मीडिया द्वारा कश्मीर में भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा की गई ज़्यादतियों पर क्या छापा गया है लेकिन मुझे कुछ भी नहीं मिला. न सिर्फ देश के हिंदी और अंग्रेजी टेलीविजन व प्रिंट मीडिया ने इन खबरों को कवर नहीं किया है बल्कि उन्होंने उन तथ्यों को भी दरकिनार कर दिया है जो अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारों ने ढूंढ़े हैं. सोशल मीडिया पर कश्मीर के सामान्य हालातों का प्रसारण करने वालों ने भी इन तथ्यों को लेकर चुप्पी बनाए रखी है.
एक कश्मीरी पत्रकार जिनसे मैं कई बार मिला, उन्होंने इन चूकों की वजह समझाईः “भारत ने अपने मीडिया का इस्तेमाल सेना के ही एक विस्तार की तरह किया है. एक हमें शारीरिक रूप से खत्म करता है और दूसरा सच को मिटाता जाता है.”
हिंदी में अनुवाद- गजेन्द्र सिंह भाटी