पंजाबियत : हिंद-पाक दुश्मनी के खिलाफ दो पंजाबों की साझी विरासत

पाकिस्तान के गुरुद्वारा दरबार साहिब करतारपुर में सिख श्रद्धालुओं की भीड़. 9 नवंबर 2019 को करतारपुर कॉरिडोर खोला गया. भारतीय श्रद्धालुओं को बिना वीसा सीमा पार जाने की अनुमति है. साभार: क्योडो न्यूज/गैटी इमेजिस
पाकिस्तान के गुरुद्वारा दरबार साहिब करतारपुर में सिख श्रद्धालुओं की भीड़. 9 नवंबर 2019 को करतारपुर कॉरिडोर खोला गया. भारतीय श्रद्धालुओं को बिना वीसा सीमा पार जाने की अनुमति है. साभार: क्योडो न्यूज/गैटी इमेजिस

लुधियाना जिले के गांव आंडलू में रहने वाले कुलवंत सिंह के खूबसूरत से मकान के आगे एक अटपटी-सी बैठकी है जो इस आधुनिक मकान की बनावट से बिल्कुल मेल नहीं खाती. मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि यह बैठकी ठीक वैसी ही है जैसी 1947 से पहले इस मकान में रहने वाला मुस्लिम परिवार छोड़ गया था. सिंह कहते हैं, “मैंने यह इसलिए किया की कभी  अगर लहंदे पंजाब (पाकिस्तानी पंजाब) से इस मकान के पुराने मालिकों की नई पीढ़ी यह मकान देखने आए तो उसे अपने बुजुर्गों की कोई तो निशानी मिले.” वह आगे कहते हैं, “खुद मेरा परिवार 1947 में लायलपुर (फैसलाबाद) से उजड़ कर यहां आया था. मुझे अपना पुराना घर देखने का मौका नहीं मिला, पर किसी और को तो नसीब हो.”

कुलवंत सिंह के मोहल्ले का गुरुद्वारा, 1947 से पहले मस्जिद की जमीन पर बना है लेकिन आज भी मस्जिद गुरुद्वारा का हिस्सा बनी हुई है. इस मस्जिद की देखरेख खुद कुलवंत करते हैं. उनके मुताबिक, “मैं इस गुरुद्वारे का कई सालों से अध्यक्ष हूं, जितना ख्याल मैं गुरुद्वारे का रखता हूं उतना ही इस मस्जिद का भी. पिछले साल विदेश में रहने वाले मेरे भतीजे ने धार्मिक कार्यों के लिए आठ लाख रुपए भेजे थे, मैंने चार लाख रुपए गुरुद्वारा साहिब पर और चार लाख रुपए मस्जिद पर खर्च कर दिए. आखिर हैं तो दोनों एक ही सच्चे रब्ब के घर.”  

लुधियाना जिले के ही हलवारा गांव के जगजीत सिंह ने 2009 में बनाई अपनी शानदार कोठी के सामने 1947 से पहले मौजूद मुस्लिम राजपूत की हवेली को वैसे का वैसा ही रखा है. वह कहते हैं, “मुझे मेरे बहुत से रिश्तेदारों ने कहा कि इतनी खूबसूरत कोठी के आगे पुरानी हवेली अच्छी नहीं लगती इसको तुड़वा दो. लेकिन मैं इसे नहीं तोडूंगा. बेशक मेरा परिवार पाकिस्तान से उजड़ कर नहीं आया, लेकिन अपने पुराने साझे पंजाब की तस्वीर मेरे मन में बसी हुई है. मैं पंजाबियत से मोहब्बत करने वाला इंसान हूं. मैं मानता हूं कि यह हवेली मुझे विरासत में मिली है. कैसे कोई आदमी अपनी विरासत को अपने से दूर कर दे?”

दोनों पंजाबों में ऐसी बहुत सी मिसालें हैं जो वहां बसने वाले पंजाबियों के साझेपन को दर्शाती हैं.

पंजाब सीमावर्ती राज्य है. पाकिस्तान के साथ भारत के खराब संबंधों का सीधा असर पंजाब पर पड़ता है. यहां के सरहदी इलाकों के लोगों को बार-बार उजड़ना पड़ता है. फिर भी पंजाब में पाकिस्तान के प्रति शत्रुता का वह भाव नहीं मिलता जैसा देश के उन हिस्सों में देखा जाता है जहां जंग दूरदर्शन और आकाशवाणी की खबर से ज्यादा कुछ नहीं है. पिछले सालों में जब-जब पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्ते खराब हुए (पठानकोट हमला, दीनानगर आतंकवादी हमला और पुलवामा जैसी घटनाएं) पंजाब से उठने वाली आवाज पूरे मुल्क से अलग थी. और जब भी भारतीय और पाकिस्तानी नेताओं ने दोस्ती की बात की, तो पंजाबियों ने इसका पुरजोर स्वागत किया. कैप्टन अमरिंदर सिंह की सरकार हो या प्रकाश सिंह बादल की, पाकिस्तान से मेहमान सरकारी कार्यक्रमों में भाग लेते हैं. और जब परवेज मुशर्रफ के सैन्य शासन में नवाज़ शरीफ को भ्रष्टाचार के आरोपों में गिरफ्तार किया गया था और उन्हें सजा होने वाली थी, तब भारतीय पंजाब में स्थित नवाज़ शरीफ के पुश्तैनी गांव के गुरुद्वारे में उसकी लंबी उम्र के लिए अरदासें की गई थीं.

हाल में जब पाकिस्तान ने करतारपुर कॉरिडोर खोलने की घोषणा की तो इस फैसले का सबसे ज्यादा स्वागत पंजाब में हुआ. कॉरीडोर के पास स्थित डेरा बाबा नानक गुरुद्वारे में मेरी मुलाकत एक श्रद्धालु से हुई जिनका विश्वास था, “यह काम (करतापुर कोरीडोर खोलने का) बाबे नानक ने इमरान खान के मन में मेहर पैदा कर किया है. इससे दोनों देशों के संबंध शांतिपूर्ण बनेंगे”. एक अन्य श्रद्धालु,65 वर्षीय रतन सिंह, ने बताया, “परला पासा (उस पार) मेरे पिता जी ने साईकिलों पर घूमा हुआ है, करतारपुर मेले की बहुत सारी बातें वह अक्सर मुझे बताते थे. उनके बहुत सारे मुस्लिम दोस्त उधर ही रह गए और वह उन्हें सारी उम्र याद करते-करते दुनिया से चल बसे.” सिंह ने आगे कहा, दिल्ली में बैठ कर जंग की बातें करना आसान है पर हम जैसे सरहदी इलाकों में बसने वाले लोगों पर जो बीतती है वह हम ही जानते हैं.”

कई साल पहले प्रसिद्द साहित्यकार मरहूम डॉ. महीप सिंह ने पंजाबी के दैनिक अखबार ‘अजीत’ में लिखा. “जब मैं पहली बार लहंदे पंजाब गया तो मुझे एक बुर्जुग औरत ने गले लगाते हुए कहा ‘मां सदके मेरे पुत्त’! हमने तो बंटवारे में वैसे ही अपने सोने जैसे सरदार पुत्त गंवा दिए और हमारे पल्ले पड़ गए बीड़ी तंबाकू पीने वाले (उनका इशारा उत्तर प्रदेश, बिहार से आए मुसलमानों के बारे में).”

पंजाबी के प्रसिद्ध स्तंभकार सुकीरत ने, जिन्होंने पुलवामा हमला और उसके जवाब में बालाकोट में की गई कथित सर्जिकल स्ट्राइक के दौरान दो बार पाकिस्तान का दौरा किया, पंजाबी के दैनिक अखबार ‘नवां ज़माना’ में लिखा, “भारत में पंजाब को छोड़कर पूरे देश में पाकिस्तान विरोधी नफरत का वातावरण था. अगर आप पुलवामा हमले के बारे भारत सरकार की नाकामी पर उंगली भी उठाते तो लोग आपके खिलाफ फतवा सुनाने को तैयार बैठे थे पर इसके उलट जब मैं पाकिस्तान पहुंचा तो लोगों ने मुझे हाथों में उठा लिया. जब किसी को पता लगता कि मैं चढ़दे पंजाब (भारतीय पंजाब) से आया हूं तो लोग मुझे दावतें पेश करते, लाहौर रेडियो ने मेरी इंटरव्यू किया, पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर के पंजाबी विभाग में छात्रों के साथ मेरा रूबरू करवाया गया.”

1947 में धार्मिक बुनियाद पर पाकिस्तान के वजूद में आने के कारण वहां की सत्ता पर शुरू से ही कट्टरपंथी ताकतों का दबदबा बना रहा. 1947 से पहले के बहुत सारे गैर-मुस्लिम चिन्हों और मूर्तियों को तोड़ा गया. जिन सड़कों, चौराहों और इमारतों के नाम गैर-मुस्लिम थे या कांग्रेसी नेताओं और अंग्रेज अफसरों के नाम पर थे, उन्हें भी बदल दिया गया. हालांकि अंग्रेजी साम्राज्यवादी दौर के कुछ चिन्हों को रख लिया गया लेकिन हिंदू और सिखों के प्रतीक सत्ता की कट्टरवादी मानसिकता का शिकार हो गए. इस्लामिक राष्ट्रवाद के नाम पर उपजे देश में क्षेत्रीय भाषाओं का गला घोंटकर ऊर्दू को राष्ट्रीय भाषा बना दिया गया जो कि पाकिस्तान के किसी क्षेत्र की मातृभाषा नहीं है. इस बात ने सबसे ज्यादा नुकसान पंजाबी भाषा और पंजाबियत की भावना का किया. पाकिस्तान में 60 प्रतिशत से अधिक आबादी पंजाबियों की है. पंजाबी भाषा की एक और त्रासदी यह है कि इसे लिखने के लिए दो लिपियां मौजूद हैं. पहली पैंतीस अक्षरी (गुरमुखी लिपी) जो भारतीय पंजाबी में इस्तेमाल की जाती है, दूसरी है शाहमुखी (फारसी लिपी) जो पाकिस्तान पंजाब में इस्तेमाल की जाती है. पंजाबी भाषा को मजहब के साथ जोड़ने से काफी नुकसान हुआ है. 2013 से पहले पाकिस्तानी पंजाब में पंजाबी मान्यता प्राप्त भाषा नहीं थी (2013 में पंजाबी को दूसरे दर्जे की भाषा माना गया). पंजाब सूबे की सूबाई असेंबली (पंजाब विधानसभा) में भी पंजाबी भाषा में बोलने की इजाजत नहीं है जबकि आज से 20 साल पहले असेंबली में पंजाबी बोली जाती थी. पाकिस्तान के सबसे बड़े सूबे पंजाब में उसकी मातृभाषा पहली कक्षा से नहीं बल्कि छठी कक्षा से पढ़ाई जाती है. पाकिस्तान में पंजाबी का कोई बड़ा दैनिक अखबार भी नहीं है. लेकिन पंजाबी प्रेमियों द्वारा कोशिशें जरूर हुईं हैं. 1990 के दशक में दैनिक पंजाबी अखबार ‘सज्जन’ ने करीब सात साल तक पंजाबियों के दिलों पर राज किया लेकिन बुरे आर्थिक हालातों के चलते वह दम तोड़ गया. 2005 में ‘खबरें’ ग्रुप द्वारा पंजाबी में ‘खबरां’ अखबार निकाला गया लेकिन तीन साल बाद वह भी बंद हो गया. इस समय वहां पंजाबी के दो दैनिक अखबार हैं जो बहुत कम संख्या में छपते हैं : ‘भुलेखा’ और ‘लोकाई’. करीब 15 साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, द्वैमासिक, त्रैमासिक, छमाही पंजाबी मैगजीन निकलती हैं (इनमें से ज्यादातर साहित्यिक हैं). 1990 के दशक के शुरुआत में गुलाम हैदर वाईं पंजाब सूबे के मुख्यमंत्री थे उन्हें ठेठ पंजाबी मुख्यमंत्री माना जाता था. उन्हीं दिनों की पाकिस्तान की केंद्रीय सरकार ने उन्हें कहा था कि अगर वह पंजाबी को पहली कक्षा से स्कूलों में लागू करना चाहते हैं तो कर सकते हैं लेकिन उन्होंने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया.

लेकिन आज चीजे बदल रही हैं और पाकिस्तानी पंजाब की नौजवान पीढ़ी पुरानी धार्मिक कट्टरवादी रीतियों को तिलांजलि देकर अपनी नई राहें खोज रही है. वहां के नौजवान सवाल करने लगे हैं कि क्या उनका इतिहास और विरासत सिर्फ 72 साल पुरानी है? इससे पहले उनके बुर्जुगों का इतिहास क्या था? नौजवान पीढ़ी साझी पंजाबी पहचानों की निशानदेही करने लगी है. नौजवान पंजाबी शायर अफज़ल साहिर कहते हैं, “अगर कोई मुझसे पूछे कि मैं पहले पाकिस्तानी हूं या पंजाबी, तो मेरा जवाब होगा पंजाबी क्योंकि पाकिस्तान को बने तो सिर्फ 72 साल हुए हैं जबकि मेरी ज़ात पंजाबी पांच हजार साल पुरानी है.”

नौजवान पीढ़ी साझी विरासत के टूटे तारों को एक करने के लिए नए प्रयोग भी कर रही है. यह पीढ़ी सोशल मीडिया पर सक्रिय है और एक दूसरे के संगीत, फिल्मों, साहित्य और कला से जुड़ी है.

1975 में पैदा हुए पंजाबी कवि अफ़ज़ल साहिर, जिनकी बंटवारे पर लिखी लंबी कविता ‘पंजाब दी वार’ दोनों पंजाबों में मशहूर है, का कहना है, “बंटवारे के 72 साल बाद भी नई पीढ़ी में बंटवारे के कारणों को जानने-समझने की इच्छा है. पाकिस्तान जिस खोखली धार्मिक बुनियाद पर बना है उसमें नई पीढ़ी को इतिहास ही गलत पढ़ाया गया है. अगर इतिहास की सही जानकारी दी जाए, तो इतिहास की जिन बातों पर कट्टरपंथियों ने पर्दे डाले हुए हैं वे उठ जाएंगे.”

1978 में जन्मी पंजाबी कवियत्री मोनिका कुमार, जिनके दादा 1947 में लहंदे पंजाब से उजड़कर नकोदर आकर बस गए थे, बताती हैं, “सन 47 के उजाड़े ने मेरे दादा-दादी के जीवन पर जो गहरा असर डाला वह कहीं न कहीं मेरी पीढ़ी पर भी दिख जाता है, बंटवारे के समय उन्होंने जो बातें सीखीं और मुझे बताईं वे आज भी मेरे जहन में रहती हैं,” कुमार का मानना है कि समय के साथ विभाजन के घाव भरने की जगह गहरे हुए हैं, “शायद बंटवारे के ही कारण मेरे अंदर घर का संकल्प नहीं बन सका. यह विभाजन सिर्फ मुल्कों का विभाजन नहीं था बल्कि संस्कृति और भावनाओं का भी विभाजन था.”

पाकिस्तानी पंजाब के साहित्यिक और सांस्कृतिक कर्मी पहले से ही दोनों पंजाबों को जोड़ने का काम कर रहे हैं. अस्सी के दशक में शुरू हुईं विश्व पंजाबी कॉन्फ्रेसों का भी दोनों पंजाबों को जोड़ने में योगदान रहा. पाकिस्तानी पंजाब की आवाम अपनी पंजाबी पहचान और भारतीय पंजाब से अपना साझापन कैसे दिखा रही है इसके कुछ उदाहरण हमारे सामने हैं : भगत सिंह के नाम पर चौक का नाम रखना, अलग-अलग पंजाबी ग्रुपों द्वारा पंजाबी भाषा के हक में सड़कों पर आना, पंजाब असेंबली की कार्यवाही पंजाबी में शुरू करने की मांग करना. पिछले साल मई में जब इमरान खान की सरकार ने पंजाब सूबे को दो हिस्सों में बांटने की ओर कदम बढ़ाया, तो पंजाबियों ने इसका कड़ा विरोध किया और नारे लगाए, “हमें पंजाब का एक और विभाजन मंजूर नहीं.” उस साल जून में, रणजीत सिंह की 180वीं बरसी के अवसर पर लाहौर किले में महाराजा रणजीत सिंह का एक बड़ा बुत लगाया गया. पंजाबी विद्वानों का मानना है कि करतारपुर कॉरिडोर खोलने का फैसला, गुरु नानक देव जी के 550वें जन्मदिवस पर पाकिस्तान सरकार द्वारा गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी को ननकाना साहिब में बनाए जाने का ऐलान, गुरु नानक देव जी से संबंधित बंद पड़े ऐतिहासिक स्थानों का नवीनीकरण करना और उन्हें श्रद्धालुओं के लिए खोलना, ‘गुरु नानक और उनकी विचारधारा’ विषय पर पिछले 31 अगस्त से 2 सितंबर तक विश्वस्तरीय तीन दिवसीय सेमिनार लाहौर में पाकिस्तान सरकार द्वारा आयोजित करना, ये तमाम फैसलों के पीछे इमरान खान सरकार पर दोनों तरफ के पंजाबियों का दवाब है.

पाकिस्तान में पंजाबी कौम या राष्ट्रीयता की अवधारणा प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो के दौर में उस वक्त शुरू हुई जब बंगाली, पख्तून, सिंधी और बलूची कौमें पाकिस्तानी राष्ट्रीयता को चुनौती देने लगी थीं. तब वहां के पंजाबी भी इस बारे सोचने लगे. ज्यादातर पाकिस्तानी पंजाबी सियासतदानों ने पंजाबी कौम की धारणा के पक्ष में स्वीकृति नहीं दी क्योंकि ऐसा करना पाकिस्तान के सिद्धांत को ही रद्द करना होता. हालांकि पंजाबियत के हितैषी कुछ सियासतदानों ने इसके हक में आवाज जरूर बुलंद की. पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के तीन नेताओं : हनीफ रामे (चित्रकार एवं पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री), एतजाज अहसन (वकील एवं बेनजीर भुट्टों की सरकार के समय गृह व कानून मंत्री) और फ़खर ज़मान (पंजाबी उपन्यासकार व पाकिस्तान के पूर्व सांस्कृतिक मंत्री) ने पंजाबी कौम की धारणा के बारे में शोध-पत्र लिखे. पाकिस्तान के मशहूर नाटककार व माओवादी मजदूर किसान पार्टी के नेता इसहाक मोहम्मद ने ‘पंजाब दी तारीख’ नामक पुस्तिका लिखी. (यह पुस्तिका तीन किश्तों में ‘नवां ज़माना’ में 15-29 सितंबर 1996 में छपी हनीफ रामे ने ‘पांच जवां मर्द पंजाबी’ लेख में पंजाबियों के पांच हीरो बताए : राजा पोरस, दुल्ला भट्टी, अहमद खान खरल, निज़ाम लुहार और भगत सिंह. पंजाबियत के बारे में इसी तरह की कृतियां आसिफ़ ख़ान, शफ़कत तनवीर मिर्ज़ा की मिलती हैं. 1970 के दशक की शुरुआत में ही भारतीय पंजाब में भी पंजाबी विद्वान अतर सिंह, प्रोफेसर प्रीतम सिंह और विश्वनाथ तिवारी (कांग्रेसी नेता मनीष तिवारी के पिता) ने भी अपने लेखों में पंजाबियत और पंजाबी कौम की धारणा के बारे में लिखा.

पंजाब के किस्सा व सूफी काव्य में भी पंजाबी कौम की धारणा की झलकियां मिल जाती हैं. पंजाबी के किस्साकारों और सूफी शायरों ने अपनी शायरी में पंजाब की अलग सांस्कृतिक और राजनीतिक हस्ती साबित करने की कोशिश की है.

पंजाबी किस्साकार शाह मोहम्मद अपने किस्से “जंगनामाः सिंहां ते फिरंगियां दा” (यह किस्सा सिखों की अंग्रेजों के साथ ऐतिहासिक आखिरी लड़ाई के बारे में है, जिसमें सिख बहादुरी से लड़े लेकिन अंत में हार गए हैं और पंजाब अंग्रेजी साम्राज्य के अधीन हो गया) में सिखों की बहादुरी की प्रशंसा करते हैं और अंग्रेजों की जीत व सिखों की हार से दुखी हैं. यह किस्सा अंग्रेजों और सिखों की लड़ाई को हिंदुस्तान और पंजाब के बीच हुए युद्ध के तौर पर पेश करता है :

“जंग हिंद पंजाब दा होण लग्गा
दोवें फौजा पातशाही भारीयां नी.”

*

“शाह मोहम्मदा विच पंजाब दे जी
कदे नहीं सी तीसरी जात आई”

*

“जे होवे सरकार तां मुल्ल पावे
जो खालसे ने तेगा मारीयां नी”

शाह मोहम्मदा इक सरकार बाझों
फौजां जित के अंत नूं हारीयां नी”

पंजाबी किस्साकार वारिस शाह अपने किस्से ‘हीर’ में कई जगह पंजाब की हिंदुस्तान से अलग पहचान कराते हैं. यह उस दौर की बात है जब पंजाब भारत के दूसरे इलाकों की तरह एक सूबा या गवर्नरी था. वारिस शाह ने उस समय पंजाब को एक वतन के रूप में देखा जिसकी भारत से अलग पहचान थी. ‘हीर’ की आंखों में फब रहे सुरमे की बात करते हुए वह पंजाब की हस्ती की इस तरह अलग पहचान करवाते हैं :

“सुरमां नैणां दी धार विच फब रह्या
चढ़िया हिंद ‘ते कटक (फौजों का लश्कर) पंजाब दा जी”

यहां हिंद और पंजाब दो पक्षों के तौर पर आमने-सामने खड़े दिखाए गए हैं. हालांकि इतिहास के हर दौर में हिंद, सिंध और पर्वत की तरफ से फौजें पंजाब पर हमले करती रही हैं और वारिस शाह के समय का पंजाब एक सहमे हुए बालक की तरह था, पर हिंद पर पंजाब का कटक चढ़ाने का सपना वारिस शाह अपनी कविता में देख रहे थे. वारिस शाह बाहरी मुस्लिम हमलावरों को भी दुश्मन के तौर पर देखते हैं :

“वारिस शाह जियों मुगलां पंजाब लुट्टी,
तिवें जोगी दी रसद उजाड़िओं ने.”

और

“अहमद शाह अज्ज गायब थी आण पाऊसी
रब्ब राखा जंडिआले नूं जासिआ वे.”

और

“हुकम होर दा होर है अज्ज होइया,
मिली पंजाब कन्धारीआं नूं.”

इसी तरह पंजाबी सूफी शायर बाबा बुल्ले शाह भी पंजाब के दुख में खुद रोते हुए दिखते हैं:

“दर खुल्ला हशर अजाब दा,
बुरा हाल होइया पंजाब दा.”

जहां दोनों तरफ के पंजाबियों की बोली, रस्मो-रिवाज, किस्से-कहानियां, मान्यताएं साझी हैं. वहां ऐतिहासिक साझे का जिक्र करना भी जरूरी है, जिसे हर धर्म के कट्टरपंथियों ने खत्म करने की कोशिशें की हैं. भारत में यह काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन कर रहे हैं.

गुरु नानक और भाई मरदाना की गहरी दोस्ती और बादशाह हुमायूं के शेर शाह सूरी से परास्त होने के बाद सिखों के दूसरे गुरु अंगद देव जी से आशीर्वाद लेने का प्रसंग मिलते हैं. अकबर बादशाह सिखों के तीसरे गुरु अमरदास जी के पास जाकर आम श्रद्धालुओं के बीच बैठकर लंगर खाते हैं और वह लंगर प्रथा से इतने प्रभावित होते हैं कि इस काम को जारी रखने के लिए गुरु साहब को जमीन दान करते हैं. बाद में उसी जमीन पर अमृतसर शहर बसा. सिखों के चौथे गुरु रामदास जी ने मुस्लिम फकीर साईं मियां मीर के हाथों दरबार साहिब की नींव रखवाई. सूफी फकीर शाह हुसैन की हिंदू माधो लाल से दोस्ती को कौन भुला सकता है. दारा शिकोह के सिख गुरुओं के साथ अच्छे संबंध मिलते हैं. मुसलमान पीर बुद्धु शाह गुरु गोबिंद सिंह जी के पक्के श्रद्धालु थे. वह और उनके पुत्र मुगल सेना से लड़ते हुए मारे गए. गुरु गोबिंद सिंह को जब माच्छीवाड़े के जंगलों में मुगल सेना ने घेर लिया तो गनी खां व नबी खां मुस्लिम भाईयों ने गुरु जी को मुस्लिम पीर का भेष बदलवाकर वहां से बचाया था. इसी तरह जब गुरु गोबिंद सिंह पहाड़ी राजाओं और मुगल फौज के बीच घिर गए तो मुस्लिम निहंग खान ने गुरु साहब को अपनी हवेली में शरण दी थी. रायकोट के चौधरी राय कल्ला भी गुरु गोबिंद सिंह के अच्छे मित्र थे. सरहिंद के नवाब वजीद खान ने जब गुरु गोबिंद सिंह के छोटे साहिबजादों को नीवों में जिंदा चिनवाने का आदेश दिया तब मलेरकोटला के नवाब शेर मोहम्मद ने इसका विरोध किया था.

ऐतिहासिक दस्तावेजों और लोक स्मृतियों में ऐसी ही बातें रणजीत सिंह के शासन के बारे में मिलती हैं. उनके मंत्रिमंडल में हिंदुओं और सिखों के अलावा मुस्लिम मंत्री भी शामिल थे. सिख होने के बावजूद रणजीत सिंह बहुत सारी हिंदू और मुस्लिम रस्मों को भी निभाते थे. वह मुस्लिम दरगाहों में जाते थे. पंजाबी शायर अफजल साहिर का कहना है, “रणजीत सिंह एक सेक्युलर राजा थे. उनका राज सही अर्थों में पंजाबी कौम का राज था. वह पंजाबियत के नुमाइंदे थे. यही कारण है कि उनके जिंदा रहते राज में कोई अंदरूनी बगावत नहीं हुई.” रणजीत सिंह ने लाहौर की सुनहरी मस्जिद का नवीनीकरण करवाया और उनकी पत्नी महारानी जिंद कौर (महाराजा दलीप सिंह की मां) ने कुरान शरीफ की हस्तलिखित कॉपियों का संग्रह दाता दरबार (लाहौर) में भेंट किया था.

1947 के सांप्रदायिक बंटवारे में करीब 10 लाख पंजाबी मारे गए. एक करोड़ पंजाबियों को उजड़ना पड़ा. लेकिन उस बुरे दौर में भी आपसी साझेपन की कई मिसालें इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं. अमृतसर जिले के छज्जलवड्डी गांव के गहिल सिंह ने हिंदू व सिख फसादियों से मासूम मुसलमानों की जान बचाई. सिख कट्टरपंथियों ने उसे धर्म विरोधी कहकर जिंदा जला डाला था. मेघ सिंह और सूबा सिंह को कट्टरपंथी सिखों ने इसलिए मार डाला कि दोनों मुसलमानों की जान बचा रहे थे. मासूम हिंदुओं और सिखों को बचा रहे लायलपुर (फैसलाबाद) के साईं उमरुद्दीन को मुस्लिम फसादियों ने कत्ल कर दिया था.

आजादी से पहले पंजाब में शासन कर रही यूनियनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष और पंजाब के उस वक्त के मुख्यमंत्री खिज़र हयात खान टिवाणा ने पंजाब के उस समय के गवर्नर के सामने प्रस्ताव रखा कि स्वायत्त बहुधर्मी पंजाब कायम किया जाए जो भारत और पाकिस्तान दोनों से अलग हो.

आधुनिक पंजाबी साहित्य पर पंजाबियत की इस साझी विरासत और फलसफे का गहरा असर है. पंजाबी साहित्य में बंटवारे और उसके असर का खुलकर जिक्र है, खासकर पंजाबी गल्प में. 1947 के साल को पंजाबियों ने कभी आजादी के साल के तौर पर नहीं देखा है. 1947 के लिए पंजाबी में जो शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं वे हैं- ‘वड्डे रौले’, ‘घल्लुघारा’, ‘वंडारा’, ‘पाड़ा’, ‘दंगे-फसाद’, ‘हल्ले’. पंजाबी विद्वानों का मानना है कि 1947 के जख्म भले ही भर जाएं पर इनके निशान सदियों तक दुख देते रहेंगे.

पाकिस्तान के वे पंजाबी साहित्यकार जिन्होंने गैर-पंजाबी भाषाओं में लिखा है उनकी लिखतों में भी पंजाब के बंटवारे का दुख झलकता है. मुनीर नियाज़ी की पूरी शायरी की तासीर बंटवारे पर है. उनकी पंजाबी में लिखी कविता ‘कित्थे जाइए’ में पंजाब के टूटने का मार्मिक जिक्र है. इसी तरह फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और हबीब जालिब ने भी अपनी शायरी में पंजाब के बंटवारे का मार्मिक जिक्र किया है.

पंजाबी लेखक अमरजीत चंदन बिल्कुल नया तथ्य उजागर करते हैं. वह अपनी संपादित किताब ‘संताली’ की भूमिका में लिखते हैं : “पाकिस्तान में चित्रकला, मूर्तिकला और साहित्य में “पाकिस्तानियत” को थोपने के यत्न किए गए हैं लेकिन वहां के किसी भी पंजाबी कलाकार या साहित्यकार ने ऐसा नहीं किया है. न ही पंजाबी मुस्लिम कवियों ने पंजाब के लाखों लोगों के उजड़ने को हिजरत का धार्मिक रंग चढ़ाया है, जैसे की यूपी से पाकिस्तान गए ऊर्दू के लेखक इंतजार हुसैन, जॉन एलिया आदि ने उजड़ने को पैगंबर मोहम्मद की हिजरत की अगली कड़ी बताया है.” इसके उलट मुसलमान पंजाबी कवियों को भारतीय पंजाब से उजड़कर नए बने पाकिस्तान में मरते दम तक चैन नहीं मिला. इसका उदाहरण है पंजाबी कवि अहमद राही, जो लाहौर के अस्पताल में आखिरी सांस तक मिन्नतें करते रहे, “मुझे अमृतसर ले चलो...मुझे अमृतसर ले चलो...”

पंजाबी कवि उस्ताद दामन ने पाकिस्तान के सिद्धांत को ‘वटवाणी दे रोड़’ (हाजत-रफा के बाद सफाई करने वाली मिट्टी की रोड़ी) की संज्ञा दी है :

“लोकां पहाड़ां दे पहाड़ पलट छड्डे
असीं आए वटवाणी दे रोड़ हेठां.”

आजादी और बंटवारे के बारे में उनकी एक और कविता  हैः

“भावें मुंहों ना कहिए, पर विचों विची,
खोए तुसीं वी ओ,
खोए असीं वी आं.

इन्हां आजादियां हथ्थों बरबाद होणा,
होए तुसीं वी हो,
होए असीं वी आं.

कुझ उमीद ए जिंदगी मिल जाएगी,
मोऐ तुसीं वी ओ,
मोऐ असीं वी आं.

जीउंदी जान ई मौत दे मुंह अंदर,
ढोए तुसीं वी ओ,
ढोए असीं वी आं.

जागण वालिआं रज्ज के लुट्टिया ए,
सोए तुसीं वी ओ,
सोए असीं वी आं.

लाली अख्खियां दी पई दस्सदी ए,
रोए तुसीं वी ओ,
रोए असीं वी आं.

भारतीय पंजाब के पंजाबी अखबार लगभग पिछले दो दशक से पाकिस्तानी पंजाब को लहंदा पंजाब (पश्चिमी पंजाब) व भारतीय पंजाब के लिए चढ़दा पंजाब (पूर्वी पंजाब) शब्द प्रयोग करते हैं. इन शब्दों की शुरुआत दोनों तरफ के कुछ पंजाबी-प्रेमियों और पंजाबी साहित्यकारों ने की थी. चढ़दे पंजाब के अखबारों में लहंदा पंजाब के लेखकों की रचनाएं आम तौर पर छपती रहती हैं. यह पंजाबी पाठकों की पसंद और मांग के चलते है.

पंजाब सरकार ने (चाहे वह कांग्रेसी सरकार हो या अकाली-बीजेपी की सरकार हो) समय-समय  पर लहंदा पंजाब के पंजाबी साहित्यकारों को पंजाब सरकार के शीर्ष पुरस्कार शिरोमणी साहित्यकार पुरस्कार से सम्मानित किया है.

2001 में पंजाब सरकार का सबसे बड़ा साहित्यिक पुरस्कार ‘साहित्य शिरोमणी पुरस्कार’ (आजकल इस पुरस्कार का नाम ‘पंजाब रत्न’ है और इसकी इनामी राशि 10 लाख रूपए है) लहंदा पंजाब के साहित्यकार नज़म हुसैन सैयद को दिया गया. ‘शिरोमणी साहित्यकार पुरस्कार‘, जिसकी इनामी राशि पांच लाख रुपए है, लहंदा पंजाब के साहित्यकारों : फिरोज़दीन शर्फ़, चौधरी जोसूआ फज़लूदीन, अफ़ज़ल अहसन रंधावा, बुशरा एजाज़, फ़खर ज़मान और इलियास घुम्मन को मिल चुका है.

लहंदे पंजाब के बड़े साहित्यकार नजम हुसैन सैयद अपने घर पर 1972-73 से हर शुक्रवार ‘संगत’ नाम से मजलिस (बैठकी) लगाते हैं जिसमें पंजाबी के सूफी-संतों, सिख गुरुओं और किस्साकारों की रचनाओं और उनकी आज की प्रासंगिकता पर गंभीर चर्चाएं की जाती है. इसी तरह की एक मजलिस पंजाबी की ‘पंचम’ मैगजीन के संपादक और ‘सुचेत पंजाबी किताब घर’ प्रकाशन के मालिक साकब मकसूद हर हफ्ते अपने घर आयोजित करते हैं जिसमें वे आधुनिक पंजाबी कवियों की रचनाओं पर गहन चर्चा रखते हैं. 

आज दोनों पंजाबों के कालेजों के पाठ्यक्रम में दोनों ओर के साहित्यकारों और लेखकों को पढ़ाया जाता है. पाकिस्तानी पंजाब के विश्वविद्यालयों में प्रसिद्ध पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर के पंजाबी विभाग द्वारा पंजाबी में आलोचना की ‘खोज’ नामक मासिक पत्र निकाली जाती है जिसमें भारतीय पंजाब के पंजाबी लेखकों को भी शामिल किया जाता है. पंजाबी के नामवर कहानीकार जमील अहमद पॉल पंजाबी के दैनिक अखबार ‘लोकाई’ के संपादक हैं और सरकारी कॉलेज लाहौर से पंजाबी के सेवानिवृत्त प्रोफसर हैं, उनके मुताबिक चढ़दे पंजाब के साहित्यकारों को यूनिवर्सिटी सिलेबस में पढ़ाया जाता है. बी.ए. से एम.ए. तक कविता भाग में अमृता प्रीतम, प्रोफसर मोहन सिंह, शिव कुमार बटालवी, धनीराम चात्रिक को पढ़ाया जाता है, कहानियों में अमृता प्रीतम, अजीत कौर, कुलवंत सिंह विर्क, गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी और नानक सिंह पढ़ाए जाते हैं. एम.ए. के सिलेबस में अमृता प्रीतम का उपन्यास ‘नवीं रुत्त’ पढ़ाया जाता है. कुछ समय पहले प्रोफेसर मोहन सिंह की पुस्तक ‘सावें पत्र’ एम. ए. के सिलेबस में शामिल थी. एम.ए. में गुरमुखी लिपी का पेपर लाजमी है. पाकिस्तान के तकनीकी विश्वविद्यालय फैसलाबाद में पंजाबी के सिलेबस में भी भारतीय पंजाब के साहित्यकार पढ़ाए जाते हैं. पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर में होने वाली पंजाबी कॉन्फ्रेंसों में भी भारतीय पंजाब के साहित्यकारों को आमंत्रित किया जाता है. दोनों पंजाबों के स्कूली सिलेबस में पंजाबी सूफी कवि और किस्साकार पढ़ाए जाते हैं.

न्यू मीडिया के उभार के बाद दोनों पंजाबों को और करीब लाने के प्रयास बढ़े हैं. खासकर पाकिस्तानी पंजाब में इस तरह की कोशिशें ज्यादा हो रही हैं. पंजाबी के कुछ लेखकों ने वेबसाइटों की मदद से लिपियों की सरहदों को भी तोड़ने की कोशिशें की हैं. कुछ वेबसाइटों ने दोनों लिपियों (गुरुमुखी और शाहमुखी) में अपने संस्करण शुरू किए हैं, इनमें से प्रमुख नाम हैं- ‘अपना ओआरजी’, ‘विचार डॉट कॉम’, ‘साझा पंजाब डॉट नेट’, ‘सूही सवेर’. हाल ही में अमृतसर में बना विभाजन की दर्दनाक यादों को सहेजता म्यूजियम चर्चा का विषय बना हुआ है. यूट्यूब चैनलों द्वारा भी विभाजन के दुख और दोनों पंजाबों की साझी संस्कृति को लोगों के सामने पेश किया जा रहा है. ये यूट्यूब चैनल दोनों पंजाबों के लोगों के दिलों को जोड़ने का काम भी कर रहे हैं. सांवल धामी के यूट्यूब चैनल ‘संतालीनामा’ सन 1947 के चश्मदीदों की मुलाकातों को पेश करता है. धामी ने यह चैनल 2011 में शुरू किया था. पाकिस्तान से कुछ नौजवानों द्वारा ‘पंजाबी लहर’ नाम का यूट्यूब चैनल बंटवारे से जुड़ी यादों, चश्मदीदों की इंटरव्यू, उजड़े लागों के घरों, साझी विरासतों को दर्शाने वाला चैनल है. इसके इलावा पाकिस्तानी पंजाबियों द्वारा चलाए जाने वाले और पंजाबियत का पैगाम देने वाले कुछ और प्रमुख यू ट्यूब चैनल हैं जैसे- ‘देसी इनफोटेनर’, ‘इक सी पंजाब’, ‘इक पिंड पंजाब दा’, ‘साझा पंजाब’, ‘सब दा पंजाबी टीवी’, ‘साझा पंजाब 1947’, ‘दर्द पंजाब’, ‘नासिर ढिल्लों’, ‘खियाम चौहान’, ‘प्रोफेसर तारिक गुज्जर’, ‘नासिर किसाना’. सोशल मीडिया ने भी दोनों तरफ के पंजाबियों को एक मंच पर लाने में सहायता की है. दोनों ओर के आम पंजाबी लोगों ने फेसबुक और व्हाट्सएप्प ग्रुप बनाकर अपनी दोस्ती को और पक्का किया है. एक तरफ के लोग दूसरी तरफ के लोगों से संपर्क करके अपने पुराने गांवों की, जिन्हें उनके बुर्जुग 1947 में छोड़कर चले आए थे, तस्वीरें व वीडियो मंगवाते हैं. साझी पंजाबी संस्कृति और विरासत पर चर्चाओं के लिए दोनों ओर के पंजाबी के नामवर साहित्यकारों ने फेसबुक पर अपने पेज और ग्रुप बनाए हुए हैं. पाकिस्तानी पंजाबी कहानीकार करामत अली मुग़ल कहते हैं, “सोशल मीडिया ने हमें आपस में जोड़ा है और कुछ हद तक सरहदों को तोड़ने का भी काम किया है.”

पंजाबियत भारत-पाक की भौगोलिक सीमाओं से ऊपर है. दोनों पंजाबों के लोग इस विचार को जिंदा रखने के लिए अपनी-अपनी ओर से लगातार प्रयास कर रहे हैं.

केवल धालीवाल पंजाबी रंगमंच का प्रसिद्ध नाम है. धालीवाल ने मंच रंगमंच की स्थापना की और लंबे समय से नाटकों के जरिए दोनों पंजाबों को जोड़ने का काम कर रहे हैं. उन्होंने ‘अजोका’ थियेटर (लाहौर) की संस्थापक मरहूम मदीहा गौहर के साथ मिलकर थियेटर वर्कशाप शुरू की थी जिसके तहत 10-11 साल तक भारतीय पंजाब के थियेटर कलाकार पाकिस्तानी पंजाब में जाते रहे और पाकिस्तानी पंजाब के थियेटर कलाकार अमृतसर में ट्रेनिंग लेने आते रहे. इन कलाकारों ने दोनों पंजाबों में संयुक्त रूप से नाटक किए.

ऐसा ही एक प्रयास किया डॉ. निर्मल सिंह ने. 1990 में सिंह ने समान सोच वाले दोस्तों के साथ मिलकर ‘पंजाबी सथ्थ लांबाड़ा’ नाम की संस्था बनाई थी. संस्था ने दोनों पंजाबों के साहित्यकारों को एक मंच पर लाने में अहम भूमिका निभाई है. संस्था की ओर से हर साल विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली शख्सियतों को सम्मानित किया जाता है. सम्मानित हस्तियों में हर साल एक हस्ती लहंदे पंजाब से चुनी जाती है. ‘पंजाबी सथ्थ’ ने पहली बार विभाजन के बारे में दोनों पंजाबों में लिखी कविताओं को ‘जुल्मों कूक गई असमानीं’ नामक किताब में संयुक्त रूप से प्रकाशित किया. इस किताब में दोनों पंजाबों के 200 कवियों की कविताएं शामिल हैं. विभाजन के बारे में दोनों तरफ लिखी गई कहानियों को पंजाबी सथ्थ ने ‘अंबर काला इत्त विद होया’ नामक किताब में प्रकाशित किया है. इसमें दोनों तरफ के तकरीबन 100 कहानीकारों की कहानियां शामिल हैं. दोनों पंजाबों का बाल साहित्य भी संयुक्त रूप से ‘चीचो चीच गनेरीयां’ पुस्तक में छापा गया है. इन कामों के अलावा वारिस शाह की संपूर्ण ‘हीर’ को पंजाबी सथ्थ ने छापा है. भारतीय और पाकिस्तानी पंजाब के अलावा दुनिया के अन्य कई देशों में भी पंजाबी सथ्थ की ईकाइयां है.

इसी तरह के एक प्रयास की शुरुआत दिवंगत पत्रकार कुलदीप नैयर ने ‘हिंद-पाक दोस्ती मंच’ की नींव रख कर की थी. सन 1947 में वह सियालकोट (पाकिस्तान) से उजड़कर आए थे. इस संस्था की ओर से हर साल 14-15 अगस्त की रात को वाघा बार्डर पर मोहब्बत और अमन की मोमबत्तियां जलाई जाती हैं. चंद लोगों से हुई शुरुआत आज काफिला बन गई है. संस्था के महासचिव सतनाम सिंह मानक बताते हैं, “1996 में संस्था का पहला कार्यक्रम हुआ था, जिसमें मोमबत्तियां जलाने के अलावा भारत-पाक दोस्ती विषय पर सेमिनार करवाया गया. 1997 आते-आते आम लोग भी इससे जुड़ गए और कुछ लोग पाकिस्तान की तरफ से भी मोमबत्तियां जलाने पहुंचे. अब हर साल यहां 14-15 अगस्त की रात बहुत बड़ा कार्यक्रम होता है जिसमें सेमिनार, सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं और आम लोग ट्रैक्टर-ट्रालियों के साथ मेले की तरह इसे देखने पहुंचते हैं. वहां पहुंचे लोगों के खाने का प्रबंध स्थानीय लोग खुद ही करते हैं”. ‘हिंद-पाक दोस्ती मंच’ के अलावा अब कुछ अन्य समान सोच वाली संस्थाएं भी इस मेले के साथ जुड़ गई हैं जैसे ‘फोकलोर रिसर्च अकेडमी’, ‘हिंद-पाक पीपल्स फोरम फॉर पीस एण्ड डैमोक्रेसी’, ‘आगाज़-ए-दोस्ती’, ‘साफमा’, ‘पंजाब जागृति मंच’. इन संस्थाओं के अलावा दोनों देशों में कुछ और महत्वपूर्ण संस्थाएं और व्यक्ति दोनों पंजाबों को जोड़ने का काम कर रहे हैं.

विदेशों में रहने वाले भारतीय और पाकिस्तानी मूल के पंजाबियों के भी बहुत मधुर संबंध हैं. वे एक-दूसरे के सुख-दुख के साथी हैं और बहुतों की कारोबारी साझेदारियां हैं. प्रवासी पंजाबियों के रिश्तों में कोई वाघा बार्डर बीच में नहीं आती. कनाडा भारतीय मूल के पंजाबी पत्रकार गुरप्रीत सिंह अपने अनुभव साझा करते हुए बताते हैं, “जब मैं फिरोजपुर रहता था तो महसूस करता था कि पाकिस्तान बिल्कुल नजदीक है पर बार्डर होने के कारण मैं दूसरी तरफ बस रहे लोगों से मिल नहीं सकता. कनाडा आकर मेरे सबसे अधिक पाकिस्तानी पंजाबी मित्र बने. भारत में हम पास होकर भी दूर थे लेकिन कनाडा ने हमारे बीच की दूरियां खत्म कर दीं.”

विदेशों में दोनों तरफ के पंजाबियों की सांस्कृतिक और साहित्यिक साझ आम ही दिखने को मिलती है. वहां सांस्कृतिक कार्यक्रम करवाने वाले प्रमोटर भारतीय पंजाब के साथ-साथ पाकिस्तान पंजाब से भी कलाकारों को बुलाते हैं. कनाडा के साहिब सिंह जैसे प्रमोटर इसकी एक मिसाल हैं. कनाडा की ‘ढाहां इंटरनेशनल पंजाबी संस्था’ की ओर से हर साल गल्प साहित्य के लिए तीन इनाम दिए जाते हैं. इन तीन ईनामों में से एक खासतौर पर पाकिस्तानी साहित्यकार के लिए होता है. प्रवासी पंजाबी मीडिया से जुड़े लाहौर के पत्रकार आसिफ रजा कहते हैं, “प्रवासी पंजाबी मीडिया जो अधिकतर भारतीय पंजाबी लोगों द्वारा संचालित होते हैं वे हमें भी काम देते हैं.” सन 2009 से कनाडा में रह रहीं तर्कशील कार्यकर्ता और पंजाबी कवयित्री जसवीर कौर मंगूवाल ने पहलकदमी करते हुए भारत और पाकिस्तान के पंजाबियों को प्रेरित किया कि वे 14-15 अगस्त को आजादी दिवस मनाने की जगह विभाजन के दौरान मरे 10 लाख पंजाबियों की याद में मोमबत्तियां जलाएं. तब से लेकर अब तक कनाडा के सरी में बसने वाले भारत और पाकिस्तान मूल के पंजाबी हर साल 14-15 अगस्त की रात मोमबत्तियां जलाते हैं.

लंदन में रहने वालीं पाकिस्तानी मूल की पंजाबी शायरा नुज़हत अब्बास कहती हैं, “आप हमारे प्रवासी पंजाबियों की साझेपन के बारे में पूछते हो, इसका एक उदाहरण मैं देना चाहती हूं. अब जब मैं आपसे फोन पर बातें कर रही हूं तब मेरे घर में एक भारतीय सिख पंजाबन सोई हुई है जो दो दिन पहले ही मेरी सहेली बनी है. हमारी इतनी जल्दी दोस्ती का कारण हमारी भाषा, साहित्य और संस्कृति का साझापन है जो कि साझे धर्म से कहीं ऊपर होती है. हमारे अंदर पंजाबी होने की भावना ही हमें नजदीक लेकर आती है.”

भारत-पाकिस्तान के बीच लाखों तल्खियों के बावजूद दोनों तरफ के पंजाबियों के दिल मोहब्बत के लिए धड़कते हैं, उनकी साझी भाषा और संस्कृति उन्हें एक दूसरे की तरफ खींचती है. यही कारण है कि 72 साल बीत जाने के बावजूद नई पीढ़ी के अंदर परले पार को समझने, जानने का जज्बा खत्म नहीं हुआ. 1947 के विभाजन की पंजाबियों को बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी है. आज इस सच्चाई को स्वीकारना होगा कि भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को सुधारने में दोनों तरफ के पंजाबी अपनी अहम भूमिका निभा सकते हैं.