जुलाई 1967 में बुधवार की एक शाम का वाकया है, जब दो गोरे पुलिस अधिकारी एक काले व्यक्ति जॉन विलियम स्मिथ को नेवार्क शहर के सीमांत पर स्थित अपनी इमारत के परिसर में घसीट कर ले जा रहे थे. स्मिथ एक टैक्सी ड्राइवर थे और उन्हें अभी-अभी गिरफ्तार किया गया था और उन्हें इतनी बेरहमी से पीटा गया था कि वह चल नहीं पा रहे थे. उनके ऊपर उन अधिकारियों की कार को गलत तरीके से पार करने के कथित अपराध का आरोप लगाया गया था. एक आवासीय परिसर के निवासियों ने उन्हें घसीटे जाते हुए देखा और एक अफवाह फैल गई : “पुलिस ने एक और काले व्यक्ति को मार डाला.” एक भीड़ उमड़ पड़ी और उस इमारत पर हमला कर दिया. पांच दिनों तक पूरे शहर में हिंसा का माहौल बना रहा जिसमें दो दर्जन से अधिक लोगों की जान गई. कुछ ने इसे दंगा कहा तो कुछ ने विद्रोह.
यह वाकया तो उस दौर की चरम उत्तेजना का महज एक उदाहरण है जिसे “1967 की लंबी गर्मी” के रूप में जाना जाता है. इस दौर में अमरीका में 150 से अधिक "नस्लीय दंगे" हुए जिनमें चिंगारी भड़कने का आम कारण काले लोगों के खिलाफ पुलिस की बर्बरता थी. इस चिंगारी ने आक्रोश के एक लंबे सिलसिले का रूप ले लिया- 1966 में होफ में, 1965 में वाट्स में, 1964 और 1943 में हार्लेम में, 1935 और 1919 में शिकागो में और इसी तरह अनेक अन्य शहरों में भी. वियतनाम पर हमले के चलते पहले से ही लोगों के गुस्से से जूझ रहे अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन को इस नए संकट का भी सामना करना पड़ा. उन्होंने तीन सवालों के जवाब देने के लिए एक समिति बनाई : “क्या हुआ? ऐसा क्यों हुआ? और दुबारा ऐसा न हो, इसके लिए क्या किए जाने की जरूरत है?"
कर्नर आयोग ने अपने काम के दौरान, अपने शोध में सहयोग के लिए समाज-वैज्ञानिकों के एक समूह की मदद ली. आयोग के समक्ष प्रस्तुत उनके मसौदे से उभरते हुए ब्लैक पावर आंदोलन की उग्र भाषा और विचारों की अनुगूंज सुनाई दे रही थी और इस मसौदे ने कुछ चेतावनी भरे निष्कर्ष भी निकाले. शोधकर्ताओं ने लिखा कि, मौजूदा हालात में, अमरीका एक पूर्ण विकसित नस्लीय युद्ध की दिशा में अग्रसर है, जिसमें “अमरीका के प्रमुख शहरों में गोरों की सत्ता के खिलाफ काले युवाओं के छापामार युद्ध" भी शामिल हैं. इन परिस्थितियों से बाहर निकलने का एकमात्र उपाय यह है कि अब तक इस समुदाय को “नाममात्र के लिए दी जा रही छोटी-मोटी रियायतों" से आगे बढ़कर कुछ प्रभावी बुनियादी बदलाव किए जाएं. इसके लिए जरूरी है कि उग्र सुधार वाले ऐसे कार्यक्रम शुरू किए जाएं, जो काले समुदायों द्वारा झेली जा रही गरीबी और गतिरोध का शिकार हो चुकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति का समाधान करने वाले हों, तथा जिनसे पुलिस तथा अन्य संस्थाएं, जो कालों के खिलाफ खुलेआम भेदभाव करती हैं, उनके रवैये में बदलाव हो. शोधकर्ताओं ने आगे लिखा कि “अभी भी समय है, कि हम एक राष्ट्र बने रहने के लिए हमारे बीच मौजूद नस्लवाद पर सम्मिलित हमला शुरू कर दें." यदि ऐसा नहीं होता है, तो "नस्लवाद की यह फसल अमेरिकी सपने का अंत कर देगी."
इस दस्तावेज को, इसके पहले पृष्ठ पर “इसे नष्ट कर दिया जाए" की टिप्पणी के साथ, गुमनामी के अंधेरे में फेंक दिया गया था. आधी सदी बाद यह एक अभिलेखागार में मिला और इसे प्रकाशित किया गया. इसे तैयार करने वाले सभी शोधकर्ताओं को बर्खास्त कर दिया गया था. फिर भी, जैसा कि इतिहासकार जूलियन ई ज़ेलिज़र ने लिखा है कि, उनके द्वारा एकत्र किए गए अधिकांश आंकड़े आयोग की अंतिम रिपोर्ट में भी बचे रह गए थे और इसके निष्कर्षों में भी शामिल थे. आयोग ने अपना “मूल निष्कर्ष प्रस्तुत किया : हमारा राष्ट्र काले और गोरे, दो पृथक और असमान समाजों की ओर बढ़ रहा है."
इस रिपोर्ट ने ऐसी किसी भी धारणा को खारिज कर दिया कि ये दंगे किसी बड़ी साजिश का हिस्सा थे, या कि पूरी शिद्दत से बदलाव का इंतजार कर रहे आम काले लोगों की बजाय सड़कों पर कुछ अन्य लोग उतर आए थे. जॉनसन की उम्मीद के विपरीत, यह रिपोर्ट उनके सामाजिक कार्यक्रमों के प्रति खास उम्मीद जगाने वाली नहीं थी, न ही यह समस्या के कारण के रूप में "नीग्रो परिवारों" की ढहती हुई व्यवस्था का रोना रो रही थी. (इसके पहले मोयनिहान रिपोर्ट के रूप में प्रस्तुत एक सरकारी अध्ययन में "नीग्रो परिवारों" की ढहती हुई व्यवस्था को ही समस्या का कारण बताया गया था.) इसके बजाय यह रिपोर्ट पुलिसिया हिंसा, संस्थागत बहिष्करण, बेरोजगारी और बिलगाव को दंगों का कारण बता रही थी, और यह आह्वान कर रही थी “एक ऐसी राष्ट्रीय कार्रवाई शुरू की जाए, जिसके मूल में अपार और शाश्वत करुणा का भाव हो और इसमें धरती के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र के संसाधन खर्च किए जाएं," और हालांकि इस स्थिति को पैदा करने वाले कारक जटिल हैं, फिर भी “कुछ बुनियादी मामले स्पष्ट हैं. इनमें से सबसे प्रमुख है काले अमरीकियों के प्रति गोरे अमरीकियों का नस्लीय रवैया और व्यवहार. नस्लीय पूर्वाग्रह हमारे इतिहास पर अपना निर्णायक प्रभाव डाल चुका है; अब इससे हमारे भविष्य के भी प्रभावित होने का खतरा पैदा हो गया है."
जॉनसन ने पुरजोर तरीके से रिपोर्ट को स्वीकार करने से इंकार कर दिया, लेकिन वे इसे मार्च 1968 में इस सार्वजनिक होने से नहीं रोक सके. रिपोर्ट का दो टूक कथन बहुत सारे काले नेताओं के लिए एक अविश्वसनीय चीज थी. मार्टिन लूथर किंग, जूनियर, ने इस रिपोर्ट में गोरों के नस्लवाद की स्वीकृति को “एक कटु सत्य की महत्वपूर्ण आत्मस्वीकृति ” के रूप में वर्णित किया. नागरिक अधिकार कार्यकर्ता फ़्लोयड मैककिस्सिक ने इसे ऐतिहासिक मील का पत्थर के रूप में देखा और कहा कि “यह पहली बार है, जब गोरों ने कहा, ‘ हम नस्लवादी हैं’.”
अगले महीने मेम्फिस में हड़ताली सफाई कर्मचारियों के सामने भाषण देने के बाद किंग की हत्या कर दी गई थी. उसके बड़े पैमाने पर दंगे भड़कर उठे. अगल वर्ष के चुनावों में जॉनसन राष्ट्रपति पद के लिए पुनः निर्वाचन के लिए खड़े नहीं हुए और व्हाइट हाउस में उनका स्थान रिचर्ड निक्सन ने लिया था. नए राष्ट्र ने नस्लीय भेदभाव और असमानता पर नियंत्रण के लिए “राष्ट्रीय कार्रवाई” की मांग को अनसुना कर दिया. उन्होंने नस्लीय दंगों को “कानून और व्यवस्था” की समस्या के रूप में प्रस्तुत किया और कालों की बढ़ती दावेदारी को गोरों के बीच भय की बढ़ती आशंकाओं की ओर इशारा किया. इसके साथ ही उन्होंने कर्नर आयोग, जिसने प्रवृति की निंदा की थी, उसे और बढ़ावा दिया. आयोग ने यह आरोप लगाया था कि बहुत सारे शहरों में मुख्य अधिकारियों की दंगों के प्रति प्रतिक्रिया कालों के असंतोष के मुख्य कारणों का समाधान करना नहीं थी, इसकी जगह पर “पुलिस को प्रशिक्षित करने और ज्यादा अत्याधुनिक हथियारों से पुलिस को लैस करने पर जोर था.”
कभी-कभार के अपवादों के छोड़कर निक्सन का सांचा ( नस्लवाद के प्रति रवैया) आधी शताब्दी तक जारी रहा. हालांकि एक काला आदमी व्हाइट हाउस के लिए चुना गया था, लेकिन निक्सन की नीति ने अमेरिका की सार्वजनिक नीति में अपना स्थान कभी नहीं खोया. जब कर्नर की रिपोर्ट प्रकाशित हुई, तो वह सबसे अधिक बिकने वाली चीज बन गई थी, लेकिन देश ने ( अमेरिका) ने इसके संदेश को साफ दिल से स्वीकार नहीं किया. अब पीढ़ियों बाद ब्रौन टेलर और जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस द्वारा की हत्याओं और सड़कों पर विद्रोह के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका उसी तरह की बदसूरत सच्चाईयों का सामना कर रहा है.
बहुत से लोग वर्तमान स्थिति के बारे में ठोस राय कायम करने के लिए 1967 और 1968 की बीती घटनाओं की ओर देखने की कोशिश कर रहे हैं और शायद स्वयं से प्रश्न पूछ रहे हैं, क्या हो सकता है. दोनों के बीच समानाताएं और भिन्नताएं हैं. दोनों स्थितियों के बीच एक बड़ा अंतर ब्लैक लाइव्स मैटर कहने के लिए खड़े होने वाले और बोलने वाले गैर-काले लोगों की संख्या के रूप में सामने आया.
काले लोगों के साथ 1960 के दशक और उसके पहले भी नस्लीय सीमीओं को तोड़कर लोग खड़े होते थे, लेकिन कभी भी इतने बड़े पैमाने पर नहीं. आज भी काले लोग ही प्रतिरोध के पीछे की मुख्य शक्ति बने हुए हैं, लेकिन खुले तौर पर सड़कों पर और ऑनलाइन, उनके साथ-साथ युवा गोरे लोग, हिस्पैनिक लोग, दक्षिण एशियाई, पूर्वी एशियाई और अन्य लोग खड़े हैं, कहने की जरूरत नहीं है कि लिंग, सेक्सुअलिटी और धर्म की सीमाओं को तोड़कर. यह विविधता उन कार्यकर्ताओं के कामों का जीता-जागता सबूत है, जो अमेरिकी विवेक के विस्तार के लिए संघर्ष कर रहे थे, खासकर उन वर्षों में जब बहुत कम लोग उनकी बातों को सुनते थे.
यह व्यापक समर्थन अभी भी एक आलोचनात्मक दृष्टि की मांग करता है. इसका अधिकांश हिस्सा सच्चा है, लेकिन कई सारे लोग अभी भी गोरे प्रदर्शनकारियों के “अभिनयात्मक एकजुटता” के बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं. जैसा कि काले लेखक स्टेसी पैटन ने पूछा “क्या गोरे लोग इसलिए प्रदर्शन कर रहे हैं, क्योंकि उनके भीतर सच्चा ऐक्यभाव है या वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि ऐसा करना उनके विवेक को राहत देता है या वे अपने अपराधबोध का शमन करना चाहते हैं?” यह प्रश्न उन ब्रांडों और कॉर्पोरेशनों पर भी लागू होता है, जो अचानक काले लोगों के संघर्ष के प्रति अपनी सद्भावना प्रकट कर रहे हैं. ये वही ब्रांड और कॉर्पोरेशन हैं,जिनके खुद के ऑफिसों और बोर्डरूमों में बहुत ही कम काले लोगों के लिए जगह है और कुछ तो सीधे-सीधे दमनकारी पुलिस व्यवस्था में साझेदार हैं.
फिर भी काले लोगों के प्रदर्शन के समर्थन में आए बड़े पैमाने पर सार्वजनिक बयान अभी तक के अभूतपूर्व ऐतिहासिक दस्तावेज हैं, भले इनके पीछे प्रयोजन जो कुछ रहा हो. पूरे संयुक्त राज्य अमेरिका में एक निश्चित स्तर तक उदारवादी झुकाव वाले लोगों ने यह कबूल किया कि उतना नहीं किया गया है, जितना किया जाना चाहिए और वे संकल्प लेते हैं कि बेहतर करेंगे. उन्हें इस संदेह का लाभ दिया गया कि वे व्यक्तिगत तौर पर बीमार नहीं हैं, वे यह स्वीकार करते हैं कि जिन संस्थाओं, समुदायों और व्यवस्था में रहते हैं, वह पृथक और असमान-दो तरह के समुदायों की रचना करती है. कुछ लोग दो टूक सच बोलेंगे, लेकिन उसकी अनुगूंज स्पष्ट है कि उन्होंने क्या कहा. अमेरिका, गोरों का अमेरिका, जहां गोरे सत्ता और संपदा पर हावी हैं और जनसंख्या में भी उनका वर्चस्व है- नस्लवादी है.
ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन ने संयुक्त राज्य अमेरिका से बाहर भी अपनी शक्ति दिखाई. प्रदर्शनकारी इंग्लैंड, जर्मनी, बेल्जियम, ऑस्ट्रेलिया और कई अन्य देशों में इकट्ठा हुए, जहां नस्लवाद का इतिहास है और जहां वर्तमान में भी नस्लवाद मौजूद है. जहां एक ओर अमेरिका से बाहर के इन प्रदर्शनों का उद्देश्य अमेरिकी प्रदर्शनकारियों के साथ एकजुटता जाहिर करना था, वहीं अपने-अपने समाजों में नस्लवाद की ऐतिहासिक उपस्थिति के सवाल को संबोधित करना भी इसका एक निर्णायक तत्व था. #BlackLivesMatter हैशटैग (ब्लैक लाइव्स मैटर) भारत में भी आया, भले ही यहां प्रदर्शन न हुए हों, लेकिन बमुश्किल से यहां आंदोलन ने आत्म-निरीक्षण के लिए किसी को प्रेरित किया.
बॉलीवुड के जिन सितारों ने नस्लवाद के खिलाफ पोस्ट लिखे, उनमें से बहुत सारे त्वचा को गोरी बनाने वाली क्रीमों का प्रचार करते हैं. विरोध प्रदर्शन की खबरें चलाने वाले मीडिया आउटलेट्स में से अपवादस्वरूप कुछ एक को छोड़कर किसी ने भी बमुश्किल एक महीने पहले दिल्ली में मुस्लिम विरोधी दंगे में पुलिस की भूमिका पर सवाल उठाया हो या सत्ताधारी हिंदू वर्चस्ववादी नरेन्द्र मोदी की सरकार को देश में उत्पीड़ित जातियों और नृजातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ बड़े पैमाने पर होने वाले अत्याचारों की घटनाओं में बढ़ोत्तरी के लिए कटघरे में खड़ा किया हो. वैश्विक निगमों से कई नस्लवाद के खिलाफ भारत में अभियान चला रहे हैं, जिनका यहां बड़े पैमाने पर कार्यव्यापार है, लेकिन इनमें से कोई दलित अधिकारों के पक्ष में खड़ा नहीं हुआ, न तो कोई भारतीय निगम ही खड़ा हुआ. यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि हाल के दिनों में देश में दलितों के खिलाफ हुए जातिगत अपराधों के अंतहीन सिलसिले की तुलना में जॉर्ज फ्लॉयड के मामले ने भारत में लोगों का ज्यादा ध्यान खींचा. उत्तर प्रदेश में एक युवा दलित को सिर्फ इसलिए मार दिया गया था, क्योंकि उसने गांव के मंदिर में प्रार्थना करने की जुर्रत की थी, दलित राजनीतिज्ञ छोटे लाल दिवाकर और उनके बेटे को जमीन के प्रश्न पर तर्क-वितर्क करने के चलते गोली मार दी गई थी. इन दोनों मामलों में हत्यारे वर्चस्वशाली जातियों के थे. केरल में एक युवा दलित के हाथों को, उस लड़की के भाई द्वारा काट दिया गया, जिससे वह प्रेम करता था. लड़की वर्चस्वशाली जाति की थी. सरकारी आंकड़े इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि प्रत्येक वर्ष सैकड़ों दलित जातिगत अपराधों के चलते अपनी जान गवांते हैं.
कुछ टिप्पणीकारों और सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों ने इस पाखंड को ठीक तरीके से उजागर किया और दो टूक प्रश्न पूछा : दलितों का जीवन मायने रखता है, आदिवासियों का जीवन मायने रखता है, मुसलमानों का जीवन मायने रखता है, उन सभी लोगों का जीवन बहुत मूल्यवान है, जिन्हें भारतीय समाज में हाशिए पर फेंक दिया गया है, इसका शिद्दत से अहसास कराने वाला ब्लैक लाइव्स मैटर जैसा आंदोलन भारत में कब होगा? लोगों ने इसकी बाधाओं को ठीक तरीके से रेखांकित किया, जिसमें जातिवादी, नस्लवादी और धार्मिक घृणा शामिल है. लेकिन जब इसकी जवाबदेही तय करने का समय आया, यह तय करने का समय आया कि वास्तव में इसका संबंध किससे है, तो वे निशाना चूक गए.
अन्य समयों की तरह, इस समय भी भारत को एकरूप समूह के रूप में देखने की प्रवृत्ति मौजूद है. यह तय है कि ऐसा नहीं है और ब्लैक लाइव्स मैटर के बारे में जो लोग लिख रहे हैं, पोस्ट कर रहे हैं और पढ़ रहे हैं, उनका बहुलांश हिस्सा भारत के एक विशिष्ट समूह का हिस्सा है. इस हिस्से को अंग्रेजी में महारत हासिल है, यह डिजिटल मामलों में विशेषज्ञ है, यह अमेरिकी राजनीति से इतनी अच्छी तरह वाकिफ है और उसके मुद्दों को बखूबी समझ सकता है, इसके लिए सारे जरूरी तत्वों का संयोजन उनके पास है. इनमें से करीब सभी देश के सामाजिक और आर्थिक आभिजात्य वर्ग के विशिष्ट लोग हैं. और इनमें करीब सभी आभिजात्य लोग “द्विजों” के एक छोटे से समूह से आते हैं. ये हिंदुओं के चार स्तरीय वर्ण-व्यवस्था के शीर्ष पर विराजमान तीन वर्णों की जातियां हैं.ये जातियां देश की आबादी का एक अल्पसंख्यक हिस्सा हैं, उसके बावजदू भी देश की सभी सामाजिक संस्थाओं, संस्कृति, राजनीति और आर्थिक सत्ता पर इनका बहुसंख्यक के रूप में वर्चस्व है. ये वह लोग हैं, जो इस देश को चलाते हैं.
एक दलित- एक बहिष्कृत जाति- के रूप में मेरे लिए यह एक विचित्र सा दृश्य है कि वर्चस्वशाली जातियां “भारतीय” नस्लवाद और जातिवाद और धार्मिक पूर्वाग्रहों की निंदा करती हैं. देश इसमें से किसी भी चीज से अनभिज्ञ नहीं है, लेकिन ये समस्याएं जब खासकर इन जातियों के संदर्भ में सामने आती हैं, तो आखिरकार उतनी “भारतीय” नहीं रह जाती हैं.
संयुक्त राज्य अमेरिका के उदाहरण पर विचार करें. अमेरिकी समस्या के रूप में नस्लवाद की बात करना आसान है, लेकिन इसे इस रूप में प्रस्तुत करना एक सुस्पष्ट मामले को धुंधला बना देना है. संयुक्त राज्य अमेरिका में नस्लवाद एक गोरा उपकरण है, जिसके शिकार काले लोग बनते हैं. अमेरिकी नस्लवाद के इतिहास के हर निर्णायक मोड़ पर, भले यह अपर्याप्त और अधूरा रहा हो, गोरे लोगों के विश्वास और व्यवहार में परिवर्तन की मांग हुई, कुछ परिवर्तन स्वैच्छिक तौर पर हुए और कुछ राज्य द्वारा बाध्य किए जाने पर.
गोरे पुरुषों द्वारा स्थापित अमेरिका कभी भी सर्वाभौमिक तौर पर लोकतांत्रिक और समान नहीं था. दासता की निरंतरता को सहज स्वीकृति प्राप्त थी. काले लोगों को कभी भी दासता के अभिशाप पर यकीन करने की जरूरत नहीं थी, लेकिन गोरे लोगों को थी. अमेरिकी गृहयुद्ध उसका एक नैतिक प्रतिशोध था. हालांकि उसके बाद दास मुक्त हो गए थे, लेकिन उनके मुक्त होने के बाद भी गोरे आभिजात्य वर्ग ने काले लोगों को उनके अधिकारों, उनकी बुद्धिमत्ता और खासियत से वंचित करने का तरीका ढूंढ लिया था. कालों के दशकों के संघर्ष ने अमेरिका को कानून तौर पृथक्करण (गोरे-कालों के बीच) पर पुनर्विचार करने पर मजबूर किया और 1964 का नागरिक अधिकार अधिनियम बना, जो नस्ल, रंग, धर्म, लिंग या राष्ट्रीय मूल के आधार पर भेद-भाव को प्रतिबंधित करता है. लेकिन उसके बाद भी काले लोगों का बहिष्करण और उन्हें हाशिए पर ढकेलना जारी रहा. नागरिक अधिकार कानून अधिनियम बनने के आधी सदी बाद भी काले लोगों पर गोरों का आर्थिक शिकंजा कसा रहा, जो संपत्ति और अवसरों के मामले में गोरों और कालों के बीच अंतर पैदा करता है. कालों को किनारे लगाने वाली नीतियों ने काले लोगों को झुग्गी बस्तियों (घेटो) में ढ़केल दिया और पुलिस और अदालतों के पक्षपाती रवैए ने उन्हें जेलों में बंद कर दिया. गोरे लोगों की तुलना में पांच गुना अधिक काले लोग जेलों में बंद हैं. ब्लैक लाइव्स मैटर ने इस सच्चाई को स्वीकार करने को एक बार फिर मजबूर किया कि अमेरिका गोरों के प्रभुत्व वाला एक देश है. यही कारण है कि काले अध्येता खलील जिब्रान मुहम्मद की इस चेतावनी को याद रखना जरूरी है कि “जब नस्लवाद की बात आती है, तो अमेरिकी लोगों की स्मृतियां बहुत क्षणिक होती हैं और पचाने कि क्षमता बहुत ज्यादा”- यह वह समय है, जब ठोस उपायों पर पकड़ मजबूती से बनाए रखी जाए.
भारत में चलताऊ तरीके से “भारतीय’ पूर्वाग्रह की बात करना इसकी सामाजिक व्यवस्था के वास्तविक संस्थापकों को सुरक्षा कवच प्रदान करता है और उन्हें उनकी जवाबदेही से मुक्त कर देता है. जाति को जीवन प्रदान करने वाली ताकते सुस्पष्ट हैं. हिंदुओं के पवित्र धार्मिक ग्रंथ जाति व्यवस्था को प्रतिष्ठापित करते हैं और ब्राह्मणों द्वारा सहस्राब्दियों से उन्हें संरक्षित किया गया और प्रचारित-प्रसारित किया गया, जिनका पुरोहित पद पर एकाधिकार था और सामाजिक सोच पर व्यापक तौर से नियंत्रण था. अन्य वर्चस्वशाली जातियों ने खुद के सोचन-समझने की शक्ति को ब्राह्मणवादी विश्वासों के सामने समर्पित कर दिया और उसे व्यवहार में उतारने की परियोजना में शामिल हो गए. समय के साथ वर्चस्वशाली जातियों के बीच विभिन्न तरह के समीकरणों का संयोजन बना. पूरे ऐतिहासिक काल में राजनीतिक शासकों में परिवर्तन के साथ इनके रिश्ते भी परिवर्तित होते रहे, लेकिन आज के हालात को आकार देने में उनका परस्पर सहयोग निर्विवाद है.
नस्लवाद और धार्मिक घृणा गहरे स्तर पर जाति में विश्वास से जुड़े हुए हैं. जाति के नियमों के अनुसार हर वह व्यक्ति जो वर्णों (चार वर्णों) में पैदा नहीं हुआ है, वह मानवीय दर्जे से नीचे का व्यक्ति है, सिर्फ उसका सामीप्य और स्पर्श ही आध्यात्मिक अपवित्रता का स्रोत बन जाता है. यह देश बहुत सारे नृजातीय समूहों के बहिष्करण की व्याख्या करता है. इन समूहों में विशेषतौर पर मूलनिवासी आदिवासी शामिल हैं, इनके साथ ही ब्राह्मणवादी श्रेणीक्रम की इस पंक्ति में दलित हैं. भारतीय मुसलमानों, क्रिश्चियनों, बौद्धिस्टों और सिखों की सबसे बड़ी संख्या इसी बहिष्कृत समूहों से हैं. जिन्हें हिंदुओं द्वारा कलंकित किया गया था और उस कलंक से बचने के लिए उन्होंने धर्मांतरण किया. लेकिन वर्चस्वशाली जातियां आसानी से इस कलंक को भूली नहीं और उन्होंने हिंदू धर्म छोड़ने का एक और कलंक भी उनके साथ जोड़ दिया. यहां तक कि उनके इस नए धार्मिक विश्वास ने भगवान के सामने तो सबको समान घोषित कर दिया, लेकिन इन धर्मों में अक्सर उच्च जातियों से धर्मांतरित एक छोटे से आभिजात्य समूह ने धर्मांतरित दलितों और आदिवासियों से दूरी बनाए रखना जारी रखा.
रंग भी इस जातीय भेदभाव की परिघटना का हिस्सा है, हालांकि पश्चिम की तरह त्वचा के रंग के आधार पर भारत में उत्पीड़क और उत्पीड़ित को साफ-साफ तौर पर अलग-अलग नहीं किया जा सकता है. एक आम धारणा है कि काली त्वचा वाले निम्न जाति के होते हैं, हालांकि यह हमेशा सही नहीं होता. भारतीयों के शब्दकोश में जाति और रंग अपमानजनक शब्द के रूप में एक दूसरे को ओवरलैप करते हुए और एक साथ जोड़े के रूप में इस्तेमाल होते हैं. काली त्वचा वाले अक्सर भेद-भाव के शिकार होते रहते हैं, जिनमें दक्षिण भारतीय, सिद्धी, अफ्रीकन और अन्य शामिल हैं. अक्सर किसके साथ कैसा व्यवहार करना है, यह तय करने वाले विशेषाधिकार संपन्न लोग वर्चस्वशाली जातियों से आते हैं, जिनमें पुलिस, सरकारी अधिकारी, भूस्वामी और नियोक्ता शामिल हैं. ऐसे ही जो लोग मीडिया, फिल्मों, विज्ञापनों और अन्य सांस्कृतिक उद्योगों में काम करते हैं, वह अपनी पूरी ताकत से साथ दिखावटी (कॉस्मेटिक) आदर्शों को आकार देते हैं. यह तर्क दिया जा सकता है कि गोरी त्वचा के प्रति सम्मोहन औपनिवेशिक शासकों द्वारा आपरोपित की गई हीनतबोध की ग्रंथि का परिणाम है, लेकिन इस तर्क का इस्तेमाल देशज पूर्वाग्रहों को ढकने के लिए नहीं किया जा सकता है. भारतीय अभिजात्य वर्ग इस तर्क को पुरजोर तरीके से इस्तेमाल करता है कि वह अतीत या वर्तमान में गोरों के नस्लवाद के शिकार रहे हैं और यह उनकी कालों के साथ एकजुटता का आधार है. लेकिन यह चाहे स्वयं भारत में या विदेशों में रहने वाले भारतीयों के साथ हो, भेदभाव का एकमात्र यही रूप है, जिसकी वह आलोचना करने को तैयार हैं.
भारत में जातिवाद,नस्लवाद और धार्मिक घृणा दलितों, आदिवासियों, मुस्लिम और क्रिश्चियन और कई अन्य लोगों के जीवन पर वर्चस्वशाली जातियों द्वारा नियंत्रण का ब्राह्मणवादी उपकण है. वर्चस्वशाली जातियों द्वारा इस तथ्य से इंकार करने से यहां ब्लैक लाइव्स मैटर का कोई वास्तविक असर नहीं पड़ा और उनका यह इंकार उन्हें कैसे समाज उत्पीड़ित नृजातियों और जातियों और धार्मिक अल्पसंख्यों के जीवन का अवमूल्यन करता है, इसका राष्ट्रीय स्तर पर आत्मनिरीक्षण करने से रोकता है.
महान दलित चिंतक और नेता बी. आर. आंबेडकर ने जाति व्यवस्था के बदत्तर चरित्र को “श्रेणीबद्ध असमानता” के रूप में वर्णित किया किया है. ब्राह्मणवादी व्यवस्था प्रकट रूप में जातियों और उपजातियों के असीम विखंडन पर पनपती है, प्रत्येक की स्थिति उसके खिलाफ होने वाले भेदभाव और हिंसा पर निर्भर करती है, जो अपनी हैसियत को मजबूत करने और उसकी रक्षा करने की अंतहीन चाहत में अपनी श्रेष्ठता के दावों से पैदा होती है. यह पदानुक्रम करीब पूर्ण गारंटर है. यह गारंटी जातियों द्वारा स्वयं लागू की जाती है, विस्तारित की जाती है और स्वयं ही पक्की बनाई जाती है. यह उत्पीड़ितों की एकता के खिलाफ एक अंतर्निहित तंत्र का निर्माण करता है. यह प्रणाली अपने बुनियादी ढांचे में बदलाव के बिना हजारों वर्षों से कायम है, राजनीतिक क्रांतियों और वैचारिक चुनौतियों के लिए अभेद्य है, यह स्वयं को नए धर्मों और जगहों में प्रत्यारोपित करने में सक्षम है.
यदि आभिजात्य जातियां धार्मिक घृणा, नस्लवाद और जातिवाद से संघर्ष करने के बारे में कभी सोचती हैं, तो उन्हें जाति के बुनियादी आधारों पर हमला करने के शिष्ट आचरण को अपनाना होगा. जैसा कि आंबेडकर ने चिन्हित किया है, ब्राह्मणवादी धर्म, हिंदू धर्म, जो वर्ण व्यवस्था पर केंद्रित है, इसके आधार स्तंभ हैं, यह बिना जाति के कायम नहीं रह सकते हैं. इसको दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जाति का विनाश हिंदू धर्म को ध्वस्त करने पर निर्भर करता है. दलित, मुस्लिम और आदिवासी और बहुत सारे अन्य भारतीयों का जीवन मायने रखता है एक तरफ यह कहना, दूसरी ओर इस वास्तविकता को कम करके आंकना और हिंदू धर्म और भारतीय इतिहास की सच्चाई को छिपाना, यों ही इस पर हैरत जताने से अधिक, कोई मायने नहीं रखता.
भारत की दलित जातियां शताब्दियों से संयुक्त राज्य अमेरिका के काले लोगों के संघर्ष से प्रेरणा लेती रही हैं, क्योंकि उन्हें जाति और नस्ल के अभिशाप के बीच समानाएं दिखती हैं. लेकिन वर्चस्वशाली जातियों के चिंतकों ने एकजुटता और साझे अनुभव के दावों को कमतर आंकने की कोशिश की है. स्वतंत्र भारत के निर्माण से पहले और बाद में, उत्पीड़ित जातियों ने बार-बार वर्चस्वशाली जातियों को अपनी दुर्दशा को पहचानने, उसमें अपनी भागीदारी को स्वीकार करने और अन्याय का निवारण करने के लिए कहा. फिर भी हर कदम पर, वर्चस्वशाली जातियों ने उन्हें सहानुभूति देने से इनकार कर दिया और बदलाव के लिए उनके प्रयासों को कमतर करके आंका. संयुक्त राज्य अमेरिका में, काले लोग, गोरे लोगों को खुद को जवाबदेह ठहराने के लिए कह रहे हैं और वह उनकी बात सुन रहे हैं. भारत में, हम लंबे समय से वर्चस्वशाली जातियों से ठीक यही बात कर रहे हैं, लेकिन उनका जवाब खारिज करने वाला होता है या वह मौन हैं.
अपने प्रचलित अर्थों में “दलित” एक जाति विशेष जुड़ा हुआ पद है, जो उन लोगों की दावेदारी को प्रकट करता है, जिन्हें कभी अछूत कहा जाता था. और अब जिन्हें आधारिक तौर अनुसूचित जातियां के रूप में वर्गीकृत किया जाता है. 1920 के दशक में जब यह पहली बार मराठी में उभर कर सामने आया, तब दलित का शाब्दिक अर्थ “ब्रोकेन पीपुल” (टूटे-बिखरे लोग) था. उस समय यह सिर्फ अछूत लोगों के लिए ही इस्तेमाल होता. लेकिन समय के साथ इस शब्द ने व्यापक अर्थ ग्रहण कर लिया. अध्येता आनंद तेलतुंबड़े का कहना है कि आंबेडकर ने इस “पद का इस्तेमाल एक हद तक वर्ग के रूप में किया था.” जो “अपने दायरे में दबे-कुचले और गरीब लोगों” को समाहित करता है. लेकिन आंबेडकर अक्सर उत्पीड़ित लोगों के लिए अन्य पद का इस्तेमाल करना पसंद करते थे. ऐसा वह सछूत और अछूत के बीच के अंतर को उजागर करने के लिए करते थे. आंबेडकर के निर्वाण के कई वर्षों बाद 1970 के दशक में “दलित” पद के इस्तेमाल की राजनीतिक गंभीरता का विस्फोट सामने आया.
इसका श्रेय दलित पैंथर को जाता है, जो एक जाति विरोधी संगठन था. जिसकी स्थापना 1972 में हुई थी. यह संयुक्त राज्य अमेरिका की ब्लैक पैंथर पार्टी से प्रेरित था. दलित पैंथर की विरासत आज भी बेहद प्रासंगिक है. जिसकी विरासत को भारत की मुख्य धारा के इतिहास द्वारा काफी हद तक नजरअंदाज कर दिया गया. दलित पैंथर की “दलित” शब्द की परिभाषा से बात शुरु करते हैं. जैसा कि उसके घोषणा-पत्र में परिभाषित किया गया, दलित पद अपने दायरे में सिर्फ उत्पीड़ित जातियों को ही समाहित नहीं करता है, बल्कि उसमें आदिवासी या अनुसूचित जनजातियां और “मेहनतकश लोग, भूमिहीन और गरीबी किसान, महिलाएं और वह सभी लोग शामिल हैं, जो राजनीति, आर्थिक और धर्म के नाम पर शोषित हैं.” इस परिभाषा का एक हिस्सा पैंथर के समाजवादी घोषणाओं की व्याख्या करता है, लेकिन लिंग और धर्म की पहचान आधारित अन्याय की उसकी स्वीकृति समाजवादियों और उस समय के वामपंथियों के वर्ग से बंधे खास तरह के कार्यक्रमों को चुनौती भी देता है.
पैंथर्स की राजनीति और शब्दावली ने उत्पीड़ित वर्गों की उत्पीड़न आधारित एकता, संगठन और गौरव को गति प्रदान की, भले तुलनात्मक तौर पर वह छोटा संगठन था और जाति आधारित हिंसा और अन्याय की प्रतिक्रिया में स्थापित हुआ था. पैंथर्स की दलित की परिभाषा के दायरे में जितना बड़ा समूह समाहित था, वह कभी उसके बैंनर तले एकजुट नहीं हो पाया. फिर भी उसकी दूरदर्शिता और महत्व कम नहीं होता.
2011 की जनगणना के अनुसार भारत की आबादी में अनुसूचित जातियों का अनुपात मोटी-मोटा 17 प्रतिशत है. उसके साथ अनुसूचित जनजातियों की 9 प्रतिशत आबादी जोड़ दी जाए, तो पैंथर्स की दलित की परिभाषा के अनुसार यह आबादी पहले से ही पूरे भारत की एक चौथाई का प्रतिनिधित्व करती है. यदि इसमें उत्पीड़ित धार्मिक अल्पसंख्यकों की आबादी जोड़ दी जाए, तो यह आबादी कुल मिलाकर भारत की आबादी के 40 प्रतिशत से अधिक हो जाती है. इसमें मुस्लिम सबसे अधिक, भारत की आबादी का करीब 15 प्रतिशत हैं.
आर्थिक और राजनीतिक शोषण के मापदंड के अनुसार, "दलित" की पैंथर्स की समझ में बड़ी संख्या में शूद्र भी शामिल हैं, जो बड़े पैमाने पर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के समूह के तहत आते हैं, जो वर्ण व्यवस्था की चार श्रेणियों में सबसे निचली श्रेणी में आते हैं. शूद्रों को वर्चस्वशाली जातियों द्वारा तुच्छ श्रेणी के रूप में देखा जाता है और उन्हें समाज और सत्ता के मध्य श्रेणी में सीमित कर दिया गया है, लेकिन इनकी श्रेणी दलितों और आदिवासियों से ऊपर है, जिन्हें किसी वर्ण में स्थान प्राप्त नहीं है. कम से कम सरकार का एक सर्वेक्षण ओबीसी की आबादी 40 प्रतिशत मानता है. मंडल कमीशन की आधिकारिक गणना के अनुसार इस अति स्तरीकृत समूह के सिर्फ “उच्च” शूद्र जातियों के एक छोटे से समूह के पास संपत्ति और सत्ता है. शेष के पास दोनों में कुछ भी नहीं के बराबर है.
इन सभी समुदायों के ठीक-ठीक जनसांख्यिकी अनुपात पर विवाद है, लेकिन हर तर्क यह साबित करता है कि यह लोग भारत की कुल आबादी के तीन चौथाई है, जिस रूप में पैंथर्स ने दलितों को परिभाषित किया है. मंडल आयोग ने यह अनुमान लगाया था कि वर्चस्वशाली जातियां बमुश्किल से भारत की कुल आबादी का सत्रह प्रतिशत है- मोटी-मोटा कुल आबादी का छठां हिस्सा.
भारतीय समाज को लाजमी तौर पर इसी रोशनी में देखना चाहिए. जातियों और नृजाति और धार्मिक अल्पसंख्यकों की व्यापक बहुसंख्या एक छोटे से धार्मिक और जातीय अभिजात्य के प्रभुत्व के अधीन है. इसके विपरीत संयुक्त राज्य अमेरिका में काले लोग कुल आबादी का छठा हिस्सा हैं और गोरे लोग करीब तीन चौथाई हैं. वहां प्रभुत्वशाली बहुमत अल्पसंख्यकों (कालों) के खिलाफ अपने अनुचित व्यवहारों को सही साबित करने का बहाना बना रहा है. यहां भारत में प्रभुत्वशाली अल्पसंख्यक (अल्पसंख्यक वर्चस्वशाली जातियां) इस हद तक अनुपातहीन विशेषाधिकार रखते हैं कि उनके द्वारा उत्पीड़ित बहुमत को जो आघात पहुंचाया जाता है, उससे वह आराम से कन्नी काट लेते हैं.
इस स्थिति को चुनौती प्रदान करने के लिए आवश्यक राजीतिक परिकल्पना के लिए पैंथर्स की परिभाषा ने एक मिसाल प्रस्तुत की. अन्य लोगों ने चुनावी राजनीति के संदर्भ में उत्पीड़ित बहुमत की शक्ति को साबित करने के लिए इस परिकल्पना को आगे बढ़ाया. इस संदर्भ में सबसे अहम व्यक्तित्व दलित नेता कांशीराम हैं. सबसे पहले दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस4) बनाने के बाद 1984 में कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की. इसका मतलब था कि जिन समूहों को वह साथ लाना चाहते थे, उनका विस्तार. यह पैंथर्स की परिभाषा के दायरे को और व्यापक बनाते हुए आगे बढ़ाता है. बहुजन, जिसका दूसरा अर्थ बहुमत या बहुत सारे लोग भी था, अपने भीतर सिर्फ उत्पीड़ित जातियों को समाहित नहीं करता, बल्कि इसमें आदिवासी और धर्मांतरित धार्मिक अल्पसंख्यक भी शामिल थे. इस लाइन (कार्यनीति) के आधार पर मतदाताओं को अपनी ओर खींचकर और गठजोड़ कायम करके बसपा ने कई बार अपनी सत्ता कायम की और पूरे देश में अपनी शक्ति और उपस्थिति का विस्तार किया.
दलित पैंथर्स की परिकल्पना ने राजनीतिक परिकल्पना और साथ ही ऐक्यभाव को अन्य सबक भी प्रदान किए. उन्होंने कालों और दलितों के संघर्षों के बीच उपयोगी रिश्ते की कल्पना की. भले उनके मामले में यह रिश्ता, पिछली डेढ़ शताब्दी में कभी ठोस वास्तविकता नहीं बना.
दोनों के बीच इस रिश्ते का पूर्व नजीर 1873 तक जाती है, जब शूद्रों के आईकन चिंतक और जाति-विरोध सुधारक जोतीराव फुले गुलामगिरी लिखते हैं. इस किताब में फुले वर्ण व्यवस्था के धर्म-शास्त्रीय आधारों पर हमला करते हैं और उत्पीड़ित जातियों की स्थिति को विरासत से प्राप्त दासता के एक रूप में वर्णित करते हैं. वह अंग्रेजी भाषा को भी एक हथियार बनाते हैं. वह अंग्रेजी भाषा की इस शक्ति को समझते हैं कि वह उनके संदेश को भारतीय भाषाओं के सीमित दायरे से बाहर ले जा सकती है. अंग्रेजी भाषा और उसके विचारों तक पहुंच पर वर्चस्वशाली जातियां मुस्तैदी के साथ अपना नियंत्रण कायम किए हुए थीं. गुलामगिरी मराठी में प्रकाशित हुई थी, लेकिन यह सुनिश्चित बनाने के लिए की उनके मुद्दे अंग्रेजी भाषियों तक पहुंचने से रह न जाएं, किताब के शीर्षक को अंग्रेजी में इस रूप में अनुवाद किया गया- स्लेवरी इन दी सिविलाइज्ड ब्रिटिश गर्वंमेंट अंडर क्लोक ऑफ ब्राह्मनिज्म. इस किताब का समर्पण और प्रस्तवाना भी अंग्रेजी में है. समर्पण इन शब्दों में है:
“संयुक्त राज्य अमेरिका के उन महान लोगों के सम्मान में, जिन्होंने नीग्रो लोगों को गुलामी से मुक्त कराने में स्वयं की कुर्बानी दी और उदात्तता एवं निष्पक्षता का परिचय दिया. मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरे देशवासी उनके इस महान कार्य की मिसाल का अनुकरण करें और अपने शूद्र भाई-बहनों को ब्राह्मणवादी मकड़जाल की गुलामी से मुक्त कराने में अपना सहयोग करें.”
संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा तेरहवें संशोधन को अपनाने के एक दशक से कम समय बाद ही वह लिख रहे थे. इस संशोधन ने 1864 में दासता का खात्मा कर दिया. यह जाहिर है कि नस्लवाद संबंधी इस संशोधन से पहले अमेरिका से प्रेरणा लेने की बात को अत्यन्त कम कर देता. फिर भी, एक घृणित और असमानता को बढ़ावा देने वाली व्यवस्था के खिलाफ विधायी कार्रवाई का सतही कानूनी प्रावधान ही सही, उस देश के लिए एक गहरी उत्सुकता पैदा करने वाली वाजिब वजह थी, जहां जाति व्यवस्था बेरोक-टोक फलफूल रही थी. 1947 में आजादी के बाद जब भारत को उसका मौका मिला, तो उसने छुआछूत के व्यवहार पर संवैधानिक प्रतिबंध का प्रस्ताव पास कर दिया, लेकिन कभी भी जाति व्यवस्था को गैर-कानून घोषित नहीं किया गया.
फुले के पास संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ संवाद करने का कोई प्रत्यक्ष जरिया नहीं था और वह सिर्फ दूर से प्रेरणा ले सकते थे. आंबेडकर का जन्म फुले की मृत्यु के बाद 1891 में हुआ, वह उस देश को ज्यादा गहराई से जान पाए. उन्होंने अपने विद्यार्थी जीवन के कुछ वर्ष न्यूयॉर्क शहर में बिताए. भारत लौटने के दशकों बाद उनका कालों के महान बौद्धिक व्यक्ति और नागरिक अधिकारों के नेता वेब डू ब्यायस के साथ पत्रों का आदान-प्रदान हुआ.
'' मैं नीग्रो समस्या का छात्र रहा हूं और आपके लेखन को पूरा पढ़ा है.” आंबेडकर ने अपना परिचय इस तरह से दिया. “भारत में अछूतों की स्थिति और अमेरिका में नीग्रो की स्थिति में इतनी समानता है कि नीग्रो की स्थिति का अध्ययन केवल स्वाभाविक ही नहीं बल्कि आवश्यक है." उन्होंने वेब डू ब्यायस को काले अमेरिकियों की ओर से संयुक्त राष्ट्र को सौंपी गई एक याचिका की एक प्रति साझा करने के लिए कहा, क्योंकि "भारत के अछूत भी उसी दिशा में सोच रहे हैं." डू ब्यायस ने अनुगृहित महसूस किया और जुलाई 1946 में लिखे अपने पत्र में कहा कि “मैंने कई बार आपके नाम और काम के बारे में सुना है और निश्चित रूप से भारत के अछूतों के साथ मेरी हर तरह की सहानुभूति है. भविष्य में संभव होने पर मैं यदि किसी तरह कोई मदद कर सका, तो मुझे खुशी होगी."
जहां तक ज्ञात रिकॉर्ड बताते हैं, आंबेडकर और वेब डू ब्यायस के बीच पत्राचार इसी बिंदु पर समाप्त हो गया.लेकिन दलितों ने एक बार फिर दलित पैंथर्स के उदय के साथ कालो के संघर्ष से प्रेरणा ली.
1956 में डॉ. आंबेडकर के निर्वाण ने दलितों के आंदोलन को मंझधार में छोड़ दिया था. बहुत सारे दलित नेताओं को पार्टी राजनीति ने अपनी ओर खींचा था, जहां वह आपसी संघर्षों में खप गए या सत्ताधारी वर्ग द्वारा आत्मसात कर लिए गए. आत्मसात करने का कार्य मुख्य रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने किया. दलित जातियों के खिलाफ अत्याचार बड़े पैमाने पर जारी रहे, बिना किसी राजनीतिक या आधिकारिक रोक-टोक के. इन अत्याचारों में बलात्कार, हत्याएं, कोड़े से पीटना, जान-बूझकर उनके जल-स्रोतों को गंदा करना शामिल था. इलैयापेरूमल समिति द्वारा इन तथ्यों को स्वीकार किया गया, जिसकी नियुक्ति छुआछूत और अनुसूचित जातियों की स्थिति की जांच करने के लिए की गई थी. इसने 1970 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी. 1972 तक दलितों के शोषण और उनके खिलाफ हमलों की रिपोर्ट आती रहीं. इसी तरह के एक मामले में महाराष्ट्र के एक गांव में दो दलित महिलाओं को नंगा किया गया और पीटा गया था. उनका कसूर सिर्फ यह था कि उन्होंने वर्चस्वशाली जातियों के आरक्षित कुंए से पानी पीने की कोशिश की थी. इस घटना ने नौजवान शहरी दलितों के बीच हिंसात्मक विस्फोट को जन्म दिया, यह विस्फोट उस समय के दलित नेतृत्व के खिलाफ भी था. इस विस्फोट को वास्तविक परिवर्तन की दिशा में ले जाने की कोशिश के तहत दलित पैंथर्स की स्थापना बाम्बे (अब मुंबई) में हुई थी. जिसका नेतृत्व दलितों के एक साहसी समूह ने किया, जिसमें राजा ढाले, नामदेव ढसाल और ज. वि. पवार शामिल थे.
ब्लैक पैंथर्स और दलित पैंथर्स के उभार के बीच कुछ समानताएं हैं. ब्लैक पैंथर्स का जन्म नागरिक अधिकार आंदोलन की सीमाओं से पैदा हुई हताशा के चलते 1966 में हुआ था. नागरिक अधिकार आंदोलन की अहिंसात्मक सक्रिय गतिविधियों के चलते नागरिक अधिकार अधिनियम बना था. लेकिन यह अधिनियम बेहरहम आर्थिक असमानता और नस्लीय हिंसा के सामने असहाय लग रहा था, इस स्थिति ने बाद में नस्लीय दंगों को भड़काया. ब्लैक पैंथर्स ने यह दो टूक कह दिया था कि अब बहुत हो चुका और उसने कालों की दावेदारी नई क्रांतिकारी पद्धति का प्रस्ताव किया.
अपने नाम के चुनाव में दलित पैंथर्स ने ब्लैक पैंथर्स की क्रांतिकारी भावना के ऋण को स्वीकार किया और इस अमेरिकी संगठन के गुर्राते हुए ब्लैक पैंथर प्रतीक को भी अपने प्रतीक के रूप में स्वीकार कर लिया. अपने घोषणा-पत्र में उन्होंने लिखा, “ब्लैक पैंथर्स से ब्लैक शक्ति का उदय हुआ. इसके संघर्ष की आग ने देश में चिंगारी फैलाई. हम इस संघर्ष के साथ एक करीबी रिश्ते का दावा करते हैं.” दोनों के बीच अन्य एकरूपताएं भी थी, जैसे सामूहिक जुटान, उत्तेजना पैदा करने वाले भाषण और उत्पीड़ित लोगों को मुक्त कराने का व्यापक लक्ष्य. इसी तरह से दोनों समूहों ने अपने समुदायों के खिलाफ हिंसा को रोकने के मामले में सरकारों की निराशाजनक विफलता और उनके खिलाफ हमलों में उनकी मिलीभगत, के चलते अपनी रक्षा की जिम्मेदारी अपने हाथों में लेने की कोशिश की. यहां तक कि दलित पैंथर्स के संस्थापकों ने समान सांस्कृतिक विरासत के कुछ हिस्सों से अपना घनिष्ठ रिश्ता कायम किया. राजा ढाले ने बहुत सारे काले कवियों की कविताओं का मराठी में अनुवाद किया. ऐसे कवियों में लैंगस्टन ह्यूजेस और रॉबर्ट हेडन शामिल थे. लेकिन बहुत सारे मामलों में वास्तव में दलित पैंथर्स और ब्लैक पैंथर्स के बीच एक दूसरे से एकरूपता की तुलना में भिन्नता अधिक थी.
जहां ब्लैक पैंथर्स एक राजनीतिक दल था. मूलरूप से आत्मरक्षा के लिए ब्लैक पैंथर्स पार्टी बनी थी. दलित पैंथर्स ऐसा नहीं था. ब्लैक पैंथर्स ने मार्क्सवाद-लेनिनवाद से गठबंधन कायम किया, जबकि दलित पैंथर्स ने आंबेडकरवाद के अलावा, कभी पूरी तरह से किसी राजनीतिक विचारधारा के तरफदारों को अपने भीतर नहीं लिया. ब्लैक पैंथर्स के नेतृत्वकारी समूह में कई महिलाएं थीं, लेकिन दलित पैंथर्स में कोई नहीं थी, यह उनकी राजनीति और पहुंच की गंभीर सीमा थी.
ब्लैक पैंथर्स ब्लैक राष्ट्रवाद के समर्थक थे और दलित पैंथर्स का अपना दलित राष्ट्रवाद था.लेकिन आत्म-स्वाभिमान के साझा आदर्श के बावजूद, दलित राष्ट्रवाद ने एक विशेष रूप लिया. इससे पहले आंबेडकर ने दलितों के लिए अलग बस्तियों की स्थापना का प्रस्ताव दिया था, जहां वह वर्चस्वशाली जातियों के उत्पीड़न से मुक्त हो सकते थे और भूमि के मालिक हो सकते थे. यह कोई पृथक्कतावादी परियोजना नहीं थी, इसे भारतीय संविधान के दायरे में ही हासिल किया जाना था. जब मैंने ज.वि. पवार से बात की, तो उन्होंने मुझे बताया कि जब दलित पैंथर्स ने “दलितस्थान” की मांग उठाई, तो उनके दिमाग में आंबेडकर की तर्ज पर इस तरह की बस्तियां थीं, एक जातिविहीन समाज की खोज में, दलितों के आर्थिक और सामाजिक विकास की गारंटी के रूप में.
ब्लैक पैंथर्स ने सामाजिक सहायता पर सबसे अधिक जोर दिया, जिसमें बच्चों के लिए मुफ्त नाश्ता के माध्यम से सहायता सबसे चर्चित योजना थी. हालांकि दलित पैंथर्स एक सामाजिक संगठन था, लेकिन उसके पास ऐसी कोई योजना नहीं थी और न ही कभी वह इस तरह की योजना को क्रियान्वित करने के लिए इतने बड़े पैमाने का संसाधन जुटा पाया. जब आत्मरक्षा का सवाल आता, तो उनके पास एक कमजोर और बमुश्किल से सशस्त्र संगठन था, हालांकि दलित पैंथर्स ने कुछ सशस्त्र जत्थों को वर्चस्वशाली जातियों की हिंसा का प्रतिरोध करने के लिए एकजुट किया था. लेकिन इसकी तुलना सैन्य अनुशासन वाले वर्दीधारी संगठन से नहीं की जा सकती, जो ब्लैक पैंथर्स का पर्याय बन गया था या उन सशस्त्र दस्तों से भी तुलना नहीं की जा सकती, जिन्हें पुलिस की हिंसा को रोकने के लिए काले पड़ोसियों के पास भेजा जाता था, जो पुलिस अमेरिकी कानून के तहत हथियार रखने के अधिकार से लैस थी.
दोनों के काम करने तरीकों में यह अंतर चकित करने वाले नहीं हैं. दोनों समूहों के बीच कोई वास्तविक रिश्ता नहीं था, कोई परस्पर आदान-प्रदान नहीं था. प्रत्येक ने अपने-अपने तरीके से काम किया, भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका की विशिष्ट और भिन्न परिस्थितियों में दोनों ने अपने तरह से प्रतिक्रियाएं प्रकट की. फिर भी दलित पैंथर्स अपने पहले के फुले और आंबेडकर की तुलना में इस संभावना को ज्यादा सामने लाया कि जाति के खिलाफ संघर्ष में विचारों और कार्रवाई के स्तर पर ब्लैक आंदोलन हमें काफी कुछ देता है. जितना वास्तविकता में चरितार्थ हुआ, उससे अधिक देने की क्षमता उसमें थी. लेकिन संभावना के चरितार्थ होने का समय जल्दी ही खत्म हो गया. दलित पैंथर्स 1977 में ही भंग कर दिया गया था. दमन और संस्थापकों के बीच आपसी ईर्ष्या और वैचारिक झगड़ों के मेल ने इसे खत्म कर दिया. यहां तक कि अपने छोटे से जीवन-काल में भी महाराष्ट्र के बाहर इसकी कभी मजबूत उपस्थिति नहीं बनी. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह अलग-थलग ही था. ब्लैक पैंथर्स संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार के दमन और आपसी फूट एवं हिंसा का शिकार होकर, 1982 में भंग हो गया. वह विभिन्न विदेशी सरकारों से संबंध बनाने और रिश्ते कायम करने में सफल रहा. उदाहरण के लिए क्यूबा, चीन और उत्तर कोरिया की कम्युनिस्ट सरकारें, लेकिन उसने भारत पर बहुत कम ध्यान दिया. क्योंकि गरिमा के लिए दलितों और कालों के संघर्ष के बीच अंकुरित हो रही समझ की प्रतिध्वनी ब्लैक पैंथर्स के विश्वदृष्टिकोण में अभिव्यक्ति नहीं हुई थी. उनके पास संबंध स्थापित करने की कोशिश करने का कोई कारण नहीं था.
जैसा कि अन्य चीजें उन्होंने की, उसी तरह काले लोगों और उत्पीड़ित भारतीयों के बीच एकता के सूत्र की तलाश के लिए दलित पैंथर्स को भारत की सरकार की अवज्ञा करने की आवश्यकता पड़ती. आजादी के बाद भारतीय विदेश नीति के ब्राह्मणों द्वारा अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जो शर्ते तैयार की गई, वह शर्तें नस्लवाद के शिकार और जाति के शिकार लोगों के बीच किसी तरह की एकता कायम करने इजाजत नहीं देती थी.
जब जवाहरलाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने विदेश मंत्री का पद भी संभाला. वह आजीवन, 1964 तक तक इस पद पर बने रहे. इस पूरी अवधि में, उनकी बहन विजय लक्ष्मी पंडित ने संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया. नेहरू और विजय लक्ष्मी पंडित ने संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ दोनों के प्रति तटस्थता पर आधारित एक कूटनीतिक रूपरेखा तैयार की और भारत को “गुट-निरपेक्ष” देशों-तथाकथित तीसरी दुनिया देशों के- अगुवा के रूप में प्रस्तुत किया. इस खेमें में भारत का मुख्य साझीदार बनने के लिए घाना, इंडोनेशिया और मिस्र सामने आए और इसकी राजनीति मुख्यत: पूर्ववर्ती औपनिवेशिक और नस्लीय तौर पर उत्पीड़ित देशों पर निर्भर थी. नेहरू उत्तर औपनिवेशिक दुनिया के सबसे प्रिय नेता बन गए.
सच्चाई यह है कि भारतीयों की बड़ी संख्या जातिगत उत्पीड़न के तहत जीती रही, उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति किसी भी औपनिवेशिक नस्लवादी शासन की तरह जन्म से तय होती रही और वैश्विक मंच पर इस बारे में किसी तरह की चर्चा घृणा करने लायक विषय बनी हुई थी, क्योंकि यह (जाति) इस परियोजना के अनुकूल नहीं बैठती थी. घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर पूरी तरह से वर्चस्वशाली जातियों के अधिकारी, अध्येता और व्यापारी भारत की एक खूबसूरत तस्वीर प्रस्तुत करते थे, जहां जाति कोई समस्या नहीं है. यह चालाकी भरी चालबाजी आज भी जारी है. डु बोइस को पत्र लिखते हुए जिस याचिका पर आंबेडकर ने विचार किया था, वह कभी यथार्थ में परिणत नहीं हुई. यदि ऐसा होता तो भी, भारत सरकार उसका स्वागत नहीं करती. जब 1951 में आंबेडकर ने नेहरू की कैबिनेट में कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया, तो उनकी एक शिकायत यह थी कि उन्हें विदेश नीति पर प्रमुख कैबिनेट समितियों से बाहर कर दिया गया था.
1940 के दशक के उत्तरार्ध में, भारत ने संयुक्त राष्ट्र में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ इस आरोप का नेतृत्व करने के लिए वाहवाही बटोरी कि वहां के शासन ने देश में रंगभेद की व्यवस्था को कानूनी तौर पर और कठोर बना दिया है. इस संदर्भ में भारत की विशेष शिकायत दक्षिण अफ्रीका के भारतीय मूल की जनसंख्या के प्रति भेदभाव, नस्लीय पृथक्करण और पूर्ण नागरिकता देने से इंकार करना था, न कि देश में सभी गैर-श्वेतों को दोयम दर्जे का मानने का व्यवहार. इसके बदले में दक्षिण अफ्रीका भारत में जाति आधारित हिंसा और भेद-भाव को निरंतर मुद्दा बनाता रहा, उसने कहा कि यह नस्लवाद का ही एक अन्य रूप है. भारत ने किसी भी तुलना से इंकार कर दिया. ऐसा करके भारत ने एक दृष्टांत प्रस्तुत किया, जो आज भी पूरी उग्रता से कायम है. फुले और आंबेडकर कि इस असुविधाजनक सोच का तिरस्कार कर दिया गया कि जाति और नस्ल के बीच तुलना वाजिब और प्रासंगिक है.
संयुक्त राष्ट्र महासभा से पहले सितंबर 1949 में, भारत ने भारतीय दक्षिण अफ्रीकियों की सहायता के लिए संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप का आह्वान किया. इसी बीच आंबेडकर ने भारतीय संसद के सामने यह उजागर किया कि “हिंदुओं द्वारा सतत और बेशर्मी से हिंसा और क्रूरता का सहारा लेना” दलितों की स्थिति को “दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों की स्थिति से बहुत ज्यादा बदत्तर बना देता है.” नस्लवाद के सवाल पर भारत की महान अवस्थिति की हवा निकालते हुए उन्होंने कहा, “दक्षिण अफ्रीका प्रत्येक भारतीय गांव में दोहराया जाता है.”
राजनयिक गतिरोध के बावजूद, भारत ने इस मुद्दे पर प्रारंभिक वार्ता में दक्षिण अफ्रीका पर दबाव बनाने में कामयाबी हासिल की. जिस दौरान संयुक्त राष्ट्र की आमसभा का सत्र चल रहा था, संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के स्थायी प्रतिनिधि बीएन राऊ ने भारत सरकार की अनुमति से अपने दक्षिण अफ्रीकी समकक्ष से एक समझौते के लिए संपर्क किया. दक्षिण अफ्रीकी प्रतिनिधि ने इस संवाद को विस्मयकारी तरीके से अपनी राजधानी (सरकार) को सूचित किया कि यह “गैर-सरकारी और गुप्त” है. इस ज्ञापन को अध्येता विनीत ठाकुर द्वारा उजागर किया गया.
भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए आंबेडकर के साथ काम करने वाले राऊ ने दक्षिण अफ्रीकी लोगों के प्रति खेद और दुख प्रकट करते हुए कहा कि “मेरे देश में सभी तरह की जातीय असमनाताओं को खत्म करने के लिए उत्तेजनात्मक कोशिश की है, जिसके परिणामस्वरूप वास्तव में पहले के शासकों के खिलाफ बड़े पैमाने पर भेदभाव हो रहा है, जैसे कि ब्राह्मण के खिलाफ, जो पहले शासक वर्ग से संबंधित रहे हैं.” उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि जो लोग दक्षिण अफ्रीका गए थे, वह मुख्यत; दलित और शूद्र जातियों के गिरमिटिया मजदूर थे- “वह सबसे उत्कृष्ट तरह के लोग नहीं थे.” उनका सोचना था कि दक्षिण अफ्रीकियों का उनके प्रति व्यवहार “पूरी तरह न्यायसंगत हो सकता है और हकीकत यह है कि भारत की हमारे स्थानीय भारतीय समुदाय के साथ व्यवहार की कोई चिंता नहीं है, यदि यह सिर्फ नस्लीय भेद-भाव पर आधारित न हो.” राऊ ने यह प्रस्ताव किया कि दक्षिण अफ्रीका “10 प्रतिशत की एक छोटी संख्या को, जो सुसंस्कृत हैं और सबसे उत्कृष्ट किस्म के भारतीय हैं” उन्हें नागरिकता दे- संभवत: इसके उपयुक्त उच्च जातियों के लोग हैं, जो गैरे-श्रमिक “पैसेंजर” भारतीय हैं- “दुनिया के लिए टोकन के रूप में, जिससे भारतीयों की नस्लीय समानता स्वीकृत होती थी.” जैसा की ठाकुर (विनित ठाकुर) ने रेखांकित किया है इसका असल निहितार्थ यह था कि भारत नस्लीय समस्या का एक जातिवादी समाधान चाहता था. दक्षिण अफ्रीका ने इस विचार को आगे नहीं बढ़ाया.
दलित पैंथर्स के समय में भारत मजबूती से सोवियत संघ के साथ गठबंधन कायम कर चुका था. इसने अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ गठबंधन की नींव रखी, उदाहरण के लिए कई अफ्रीकी देश इस गठबंधन के सदस्य बने. लेकिन इस ढांचे ने नस्लवाद और जातिवाद विरोधी प्रतिरोध के बीच संबंध कायम करने के लिए भी कोई जगह नहीं छोड़ी. भारत सामूहिक गरीबी की समस्या को स्वीकार करने के लिए तैयार था, लेकिन जातिगत भेदभाव की समस्याओं को नहीं. भारतीय कूटनीति के लिए एक उत्पीड़ित वर्ग के रूप में दलितों का कोई अस्तित्व नहीं था. पैंथर्स ने हर हालात में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सोचने की हिम्मत की, खुद को अंतरराष्ट्रीय मानवीय गरिमा के व्यापक संघर्ष के साथ जोड़ा, जबकि स्थानीय स्तर के उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष किए. अपने घोषणापत्र में उन्होंने "थर्ड दलित वर्ल्ड, यानी उत्पीड़ित राष्ट्रों" की सदस्यता का दावा किया.
जाति के प्रश्न पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान खींचने और वैश्विक स्तर पर नस्लवाद विरोधी संघर्ष के साथ रिश्ता कायम करने की वह कोशिश दूसरे दलितों ने की, जो आंबेडकर और पैंथर्स कभी नहीं कर पाए. 1965 में संयुक्त राष्ट्र ने नस्लीय भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया था. भारत ने उस दस्तावेज पर दस्तखत किया और उसकी पुष्टि की, जो नस्लीय भेदभाव को “नस्ल, रंग, वंश या राष्ट्रीयता या नृजातीय मूल के आधार पर विभेद, बहिष्करण, प्रतिबंध या वरीयता के रूप में पारिभाषित किया और जिसका उद्देश्य या प्रभाव ...राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या सार्वजनिक जीवन के किसी अन्य क्षेत्र में मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता को अमान्य करना या अशक्त करना है.” लेकिन भारत के जाति-उत्पीड़ित समूहों के साथ व्यवहार को इस परिभाषा के अंतर्गत नहीं माना गया. दलित कार्यकर्ताओं ने इस पर आपत्ति जताई और उनमें से बहुत सारे लोगों ने बाद के वर्षों में संयुक्त राष्ट्र के सभी निकायों में अपनी राय रखी -1968 में ईवी चिनहिया, 1982 में लक्ष्मी बेरवा और 1983 में भगवान दास ने यह काम किया. दशकों की पैरवी के बाद, संयुक्त राष्ट्र ने आखिरकार 1996 में दलितों और आदिवासियों के उत्पीड़न के मुद्दे को स्वीकार किया. यह तब हुआ, जब 1996 नस्लीय भेदभाव उन्मूलन समिति, या सीईआरडी ने स्वीकार किया कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की स्थितियां सम्मेलन के दायरे में आती हैं. भारत सरकार ने इसका विरोध जारी रखा.
2001 में संयुक्त राष्ट्र ने नस्लवाद, नस्लीय भेदभाव, विदेशियों से घृणा और संबंधित अहिष्णुताओं के खिलाफ डरबन में सम्मेलन बुलाया. इसका लक्ष्य संयुक्त राष्ट्र के दायरे से अब तक बाहर भेदभाव के रूपों की पहचान करना और उसे मान्यता प्रदान करना था. विशेषकर उन भेदभावों की पहचान करने और उन्हें मान्यता प्रदान करने के लिए, जो उन आधारों पर होते हैं, जो पश्चिम के रंग और नस्ल की धारणा में फिट नहीं बैठते. दलित नेता और बुद्धिजीवी नस्लवाद के साथ जातिवाद को मान्यता प्रदान करने के पक्ष में तर्क देने और दुनिया के सामने भारतीय सरकार द्वारा जातिगत भेदभाव को तवज्जों न देने खिलाफ तर्क देने के लिए डरबन गए.
सरकार अपने चरित्र (बनावट) पर कायम रही. सम्मेलन से पहले विदेश मंत्री, जसवंत सिंह ने कहा कि जाति आधारित भेदभाव “किसी अंतरराष्ट्रीय पहलकदमी या हस्तक्षेप का मुद्दा नहीं था.” सिंह के मंत्रालय के मातहत राज्य मंत्री उमर अब्दुल्ला ने घोषणा की, “आप जातिवाद को नस्लवाद के समान नहीं कह सकते हैं.” भारत के अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी के नेतृत्व में डरबन के आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल ने सम्मेलन के कार्यक्रम में जाति के किसी भी जिक्र का विरोध किया, उन्होंने सम्मेलन में कडुवाहट भरे तर्कों के माध्यम से इन मुद्दों के लिए दरवाजे बंद करा दिए. वर्चस्वशाली हिंदू जाति के सदस्य के रूप में सिंह, कश्मीरी ब्राह्मण वंशज के रूप में अब्दुला, मुंबई के धार्मिक अल्पंसख्यक पारसी समुदाय के सदस्य के रूप में सोराबजी, भारत की आधिकारिक स्थिति को प्रस्तुत करने वाले इन लोगों में से कोई भी दलित पृष्ठभूमि से नहीं आया था. सम्मेलन की अंतिम घोषणा और कार्य योजना पर सम्मेलन में जो सहमति बनी, उसमें जाति-आधारित भेदभाव का कोई संदर्भ नहीं था.
यह सब होने के बावजदू भी, अगले वर्ष सीईआरडी ने औपचारिक तौर यह स्वीकार किया कि ‘जन्म’ पर आधारित भेदभाव, जिसमें सामाजिक स्तरीकरण पर आधारित रूपों के आधार पर किसी समुदाय के सदस्यों के खिलाफ भेदभाव शामिल है, जैसे जाति और इसके जैसे विरासत में मिली व्यवस्था. सीईआरडी ने यह स्पष्ट कर दिया कि इस तरह के भेदभाव 1965 के समझौते का उल्लंघन है.
नस्ल और जाति के बीच समानता और भिन्नता पर बड़े विस्तार से बहसें हो चुकी हैं. दोनों ठीक-ठीक एक तरह नहीं है. लेकिन दोनों के बीच बहुत सारे साझे तत्व हैं : दोनों भेदभाव की व्यवस्था की बुनियादें खड़ी करते हैं, हर मानव समान रूप में मूल्यवान नहीं होता, सामाजिक तौर पर गढ़ी गई इस धारणा को दोनों बढ़ावा देते हैं, जहां पूर्वाग्रह के लक्ष्यों का चुनाव जैविक वंश के आधार पर किया जाता है. जैसा कि डरबन सम्मेलन के बाद दलित मानवाधिकारों के राष्ट्रीय अभियान ने टिप्पणी कि “जाति नस्ल के समान है या नहीं, सच्चाई यह है कि जाति नस्लवाद और रंगभेद की तरह ही भेदभाव का एक आधार है और भारत के खुद कम से कम 16 करोड़ नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता को गंभीर रूप में कम कर रही है.” निर्णायक विकल्प यह हैं कि दोनों के बीच की इन समानताओं को मुख्य मानकर दोनों जघन्य धारणाओं का खात्मा करने के लिए वैश्विक और स्थानीय स्तर की कार्रवाई के लिए प्रतिबद्ध हों या भिन्नताओं का इस्तेमाल इनसे ध्यान भटकान के लिए करें और जातिवाद की उतनी ही कीमियागिरी करें और उससे इंकार करें, जैसा कि नस्लवाद की करते हैं.
भारत सरकार ने भी अनगिनत वर्चस्वशाली जातियों के नेताओं और चिंतकों की तरह दूसरे विकल्प को तरजीह दी. 1997 में नस्लवाद के समकालीन रूपों पर अपना विशेष प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुए सरकार ने लिखा, “इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि भिन्न-भिन्न जातियों से संबंध रखने वाले व्यक्तियों के नस्लीय लक्षण एक हैं...अनुसूचित जाति से संबंध रखने वाला व्यक्ति अपने सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के चलते अन्य समुदायों से भिन्न माना जाता है, न कि इसलिए कि वह पृथक ‘नस्ल’ का है.” लेकिन इस कथन में जो बात अनकही रह गई, वह यह कि सामाजिक स्थिति जन्म के आधार पर और जाति के पहचान के आधार पहले ही निर्धारित हो जाती है और वह शैक्षिक और आर्थिक अवसरों तक पहुंच को निर्धारित करती है. वर्ण-व्यवस्था किसी तरह की जातीय गतिशीलता की इजाजत नहीं देती है, इसका मतलब है कि एक व्यक्ति उसी सामाजिक श्रेणी में मर जाता है, जिसमें उसने जन्म लिया था, यह कोई मायने नहीं रखता कि उसने जीवन में क्या कुछ हासिल किया, यह संयुक्त राज्य के कालों के अनुभव की तरह ही है.
सरकार ने यह भी कहा कि जाति "भारतीय समाज के कार्यात्मक विभाजन की उत्पत्ति है." सरकार ने यह नहीं बताया कि उसका यह शिष्टोक्ति भरा “कार्यात्मक विभाजन” सभी उत्पीड़ित जातियों को वर्चस्वशाली जातियों को शारीरिक श्रम उपलब्ध कराने और सबसे अपमानजनक कार्य करने के लिए बाध्य करता है, जैसे कि अपने नंगे हाथों से मानव मल को साफ करना. यह सब कुछ उनसे उनके आध्यात्मिक कर्तव्य के रूप में कराया जाता है.
2007 में, एक आधिकारिक भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने इस मामले को फिर से दबाने के लिए सीईआरडी के साथ मुलाकात की और कहा कि जातिगत भेदभाव 1965 के समझौते के तहत नहीं आता है. इस प्रतिनिधिमंडल में समाजशास्त्री दीपांकर गुप्ता शामिल थे, जिन्होंने जातीय भेदभाव क्यों नस्लीय भेदभाव नहीं है, इसके लिए अकादमिक तर्क प्रस्तुत किए. बाद में अध्येता बालमुरली नटराजन ने सेमिनार पत्रिका में निपुणतापूर्वक इन तर्कों की हवा निकाल दी.
नटराजन ने लिखा कि गुप्ता द्वारा “‘जाति नस्ल नहीं है' बहस को इस रूप में प्रस्तुत करके उन्होंने सारहीन तर्कों के आधार पर बहस को भटकाया. जब यह असल सवाल आया कि 'कैसे जाति और नस्ल आधारित भेदभाव एक हैं?' गुप्ता के पास सवाल के जवाब में कुछ कहने के लिए नहीं था. गुप्ता के दावों में यह विसंगतियां शामिल थी कि ''जाति का वंश से कुछ लेना—देना नहीं है.'' और “प्रत्येक जाति समान रूप से दूसरी जाति के साथ भेदभाव करती है.” नटराजन ने लिखा “हालांकि यह तर्क देना पूरी तरह संभव है कि जातिवादी (या नस्लवादी) समाज में प्रत्येक व्यक्ति पूर्वाग्रह ग्रसित हो सकता है, लेकिन यह सहज सत्य नहीं है कि प्रत्येक का पूर्वाग्रह समान प्रभाव डालता है. क्या प्रोफेसर गुप्ता दलितों पर वर्चस्व रखने वाली, उन सभी जातियों की दलितों से बराबरी करेंगे, जो प्रत्येक दिन उन्हें अपमानित करती हैं, उनकी हत्या करती हैं और उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार करती हैं. उस पूर्वाग्रह के बारे में अंदाजा लगाइए, जो दलित अन्य जातियों के खिलाफ रख सकते हैं?”
संयुक्त राष्ट्र के डरबन सम्मेलन में जिन लक्ष्यों पर सहमति बनी थी, उसकी समीक्षा करने के लिए 2009 में एक सम्मेलन आयोजित किया. कई दलित और मानवाधिकार समूहों ने यह बयान जारी किया कि भले ही जाति को डरबन घोषणा-पत्र से बाहर कर दिया गया था, लेकिन सीईआरडी ने बाद में जन्म आधारित भेदभाव को स्वीकार किया था, जिसमें जाति आधारित भेदभाव शामिल था, इसका निहितार्थ यह है कि समीक्षा सम्मेलन में इसकी भी जांच-पड़ताल होनी चाहिए. भारत इससे असहमत था और जाति के संदर्भ में सारा विचार-विमर्श रोक दिया गया था, ठीक यही चीज उसके बाद के 2011 के एक अन्य समीक्षा सम्मेलन भी दुहराई गई थी.
2010 में जाति-विरोधी कार्यकर्ताओं को एक बड़ी विजय तब मिली, जब ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने एक समानता विधेयक पारित किया, जिसमें जातीय भेदभाव को नस्लवाद के रूप में मान्यता दी गई. भारत सरकार और हिंदू समूहों ने इसका विरोध किया और 2018 में ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि अब उस विधेयक को कानून के रूप में लाने की योजना नहीं बनाई है. संयुक्त राज्य अमेरिका में मौजूदा नस्लवाद विरोधी कानूनों के तहत जातीय भेदभाव करने वालों को दंडित करने की मांग के लिए अभियान चलाने वाले दलित कार्यकर्ताओं को भी ठीक इसी तरह के विरोध के चलते निराशा का सामना करना पड़ा. लेकिन इस जून में, कैलिफोर्निया सरकार ने एक दलित इंजीनियर के खिलाफ कथित भेदभाव के लिए प्रौद्योगिकी दिग्गज सिस्को और उसके दो वर्चस्वशाली-जाति के कर्मचारियों को अदालत का सामना करने के लिए बाध्य किया. इस ऐतिहासिक मामले में तर्क दिया गया कि सिस्को "धर्म, वंश, राष्ट्रीय मूल / जातीयता और नस्ल / रंग के आधार पर गैरकानूनी रोजगार प्रक्रियाओं में लगी हुई है," अमेरिकी अदालत ने जाति और वंश आधारित भेदभाव के संदर्भ में एक निर्णायक मिसाल कायम की .
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव और मानवाधिकारों के उच्चायुक्त ने पिछले दशक में संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों में और वैश्विक मंचों पर बार-बार जाति के खतरों का खात्मा करने की जरूरत के बारे में कहा. अंतरराष्ट्रीय मंच पर जातिगत भेदभाव के खिलाफ कार्रवाई के खिलाफ भारत सरकार का विरोध बिना किसी बदलाव के कायम है.
काले और “भूरे” लोगों के बीच सार्वभौमिक एकता के मिथ के इतिहास पर बहुत सारे ग्रहण हैं, साथ ही और भी बहुत कुछ है. भारत में काले लोगों के खिलाफ किया जाने वाला भयावह व्यवहार, इस मिथक की असलियत को उजागर कर देता है.अफ्रीकी छात्र बार-बार उत्पीड़न और शारीरिक हमलों का सामना करते हैं. वेस्टइंडीज के क्रिकेटर डेरेन सैमी ने हाल ही में इंडियन प्रीमियर लीग में एक फ्रैंचाइजी के साथ काम करने के अपने उस समय के अनुभव को साझा करते हुए बताया कि कैसे, कुछ भारतीय खिलाड़ी साथियों ने उनके रंग को उनके उपनाम के रूप में उल्लेख करते हुए उनके लिए अपमानित करने वाले शब्दों का इस्तेमाल किया. इस तरह का व्यवहार इतना सहज है कि भारत में बहुत कम लोग इसे एक समस्या के रूप में देखते हैं. पूरे देश में काले लोगों को "नाइजीरियाई" नशीली दवाओं के विक्रेता और सेक्स वर्कर के रूप में चित्रित करने की रूढ़िबद्ध धारणा है और ये लोग बेजा तरीके से सार्वजनिक निगरानी और पुलिस के ध्यानकर्षण का शिकार बनते हैं. सेलिब्रिटीज और सरकार के मंत्री कभी-कभी इस तरह के नस्लवाद की निंदा करते हैं, लेकिन इनके शब्दों से कभी कोई ठोस परिवर्तन की बात नहीं होती है.
एकजुटता की भावना सिर्फ भारत के बाहर विद्यमान रहती है, जो सार्वभौमिक मानव गरिमा के सिद्धांत पर आधारित है. यह वहां संभव है, क्योंकि भारत की सामाजिक वास्तविकता इसको किनारे लगा देती है कि कैसे जातिवाद सामाजिक समानता के खिलाफ है और इसे भी भुला दिया जाता है कि विदेशों में रहने वाले भारतीयों में कैसे जातिवाद मौजूद है. उत्पीड़ितों के लिए न्याय ही सच्चा साझा लक्ष्य है, तो भूरे रंग की दुनिया के प्रवक्ताओं को अपने भीतर के शैतान से संघर्ष करने के लिए जरूर तैयार होना चाहिए. भूरे रंग के अधिकांश प्रवक्ता विशेष तौर पर वर्चस्वशाली जातियों के हैं. वर्चस्वशाली जातियां पक्षधरता के इस रूप में जब प्रगतिशील मूल्यों का परिचय देती हैं, तो गहरे स्तर पर जड़ जमाए अपवादात्मक क्रिया-कलापों को अंजाम दे रही होती हैं. उन्हें कालों के आंदोलन के फायदों से प्रसन्नता होती है, क्योंकि नस्लवादी व्यवस्था के भीतर उनके साथ जो दुर्व्यवहार होता, उसको चुनौती मिलती है. साथ ही काले लोगों और जाति से उत्पीड़ित लोगों के साथ एकजुटता को कमजोर बनाती है.
संयुक्त राज्य अमेरिका में बसे भारतीय मूल के लोगों पर कालों के संघर्ष का बहुत कर्ज है. बड़ी संख्या में भारतीयों का यहां आगमन 1965 के बाद ही संभव हुआ था, जब एक नए आव्रजन कानून ने नस्ल, लिंग, राष्ट्रीयता, जन्म स्थान या निवास स्थान के आधार पर भेदभाव पर रोक लगा दी. हाल के बयान में मैसाचुसेट्स के राष्ट्रमंडल के एशियाई अमेरिकी आयोग ने ब्लैक लाइव्स मैटर के साथ अपनी एकजुटता के, अपने हालिया बयान में यह स्वीकार किया कि यह निर्णायक घटनाक्रम “कालों के नेतृत्व में चले नागरिक अधिकार की विजयों का परिणाम था.” इसके साथ ही उसने साझे इतिहास को भी स्वीकार किया और कहा कि कैसे “कैसे दलित पैंथर आंदोलन ने संयुक्त राज्य अमेरिका के ब्लैक पैंथर्स से प्रेरणा ग्रहण की.” भारतीय अमेरिकी, नस्लीय समानता के अन्य जीतों से भी लाभान्वित हुए, जो कालों के आंदोलन के बिना कभी संभव नहीं हो सकता था. इसमें सकारात्मक कार्रवाई की नीतियां भी शामिल हैं, जिसने उनमें से बहुत सारे लोगों के लिए रोजगार और शिक्षा के दरवाजे खोल दिए.
फिर भारतीय अमेरिकी लोगों का काले लोगों के साथ संबंध द्विविधापूर्ण और अक्सर शत्रुतापूर्ण बना रहा. काले उपन्यासकार टोनी मॉरिसन ने एक बार कहा था कि जब यूरोपीय प्रवासियों ने संयुक्त राज अमेरिका को पाया, जिस क्षण “वह नाव से उतरे, जो दूसरा शब्द उन्होंने सीखा, वह था- ‘निगर.” वह व्याख्या करती हैं कि बिना काले लोगों के “अप्रवासियों ने एक दूसरे का गला काट दिया होता, जैसा कि उन्होंने अन्य जगहों पर किया.” घृणा के लिए एक साझा दुश्मन पाकर, वह “सब मिलकर कह सके, ‘मैं वह नहीं हूं.’ इन अर्थों में अमेरिकन होना इस दृष्टिकोण पर आधारित है : और मुझे बहिष्कृत कर दिया.” भारतीय अमेरिकी भी ठीक इसी प्रक्रिया के हिस्से रहे हैं, और मॉरिसन इनके बारे में भी उसी तरीके से बात कर सकती थीं.
भारतीय अमेरिकी कुछ पीढ़ियों से संयुक्त राज्य अमेरिका में रह रहे हैं, इसके बावजूद भी वे वहां के “आदर्श अल्पसंख्यक” हैं. वह उच्च शिक्षित हैं, काम के प्रति अपनी नैतिकता के लिए जाने जाते हैं, उनकी प्रभावी राजनीतिक दखल है, देश के किसी भी नृजातीय समूह से अधिक उनकी औसत घरेलू आय है. सदियों से शोषण का शिकार कठिन श्रम करने के बाद भी, काले लोगों की औसत घरेलू आय सबसे कम है और अक्सर उन्हें बेहतरीन शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य से वंचित रखा जाता है. आदर्श अल्पसंख्यक का यह तमगा, गोरे लोगों द्वारा उन्हें प्रदान किया गया है, क्योंकि इन्होंने गोरे लोगों को स्वयं के प्रतिमान के रूप चुना है, जो उन्हें असुविधाजन दृश्य से दूर रहने का विकल्प मुहैया करता है. प्रवासी लोगों ने काले लोगों के लिए न्याय की सेवा में अपनी बढ़ती पूंजी का उपयोग नहीं किया है. भारतीय अमेरिकी तकनीक कंपनियों और निगमों में बहुतायत में हैं, जहां काले लोगों को मुश्किल से ही जगह मिल पाती है. कई मामलों में, वह उनका नेतृत्व भी करते हैं.
प्रवासी भारतीयों की सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है. विशेष रूप से आप्रवासन की हाल की लहरों के संदर्भ में, हाल में आए लोगों में सबसे बड़ी संख्या वर्चस्वशाली जातियों की थी. कुछ अपवादों को छोड़कर भारत की उत्पीड़ित जातियों और नृजातीय अल्पसंख्यकों के साथ-साथ गैर-हिंदू धर्मों में धर्मांतरित हाशिए के लोगों के पास इस तरह के लिए आप्रवासन का पैसा नहीं है या अंग्रेजी भाषा की शिक्षा नहीं है, जो अमेरिका में एकीकरण और रोजगार की राह को आसान बना देती है. न वहां उनका स्वागत करने के लिए परिवार और जातीय नेटवर्क है, जो भारतीय मूल के इन लोगों में जगह बनाने, वहां पहुंचना आसान बनाने और सफलता पाने में मदद करता है, जो ज्यादा से ज्यादा वर्चस्वशाली जातियों के लिए उपलब्ध है.
प्रवासी भारतीयों के अधिकांश हिस्से के सामुदायिक जीवन का केंद्र मंदिर हैं, जो ब्राह्मण पुजारियों द्वारा संचालित होते हैं, वह उन ग्रंथों का पाठ करते हैं जो पुरजोर तरीके से जाति का समर्थन करते हैं और त्यौहारों में उन भगवानों और शास्त्रीय कला रूपों का जश्न मनाते हैं, जिन पर वर्चस्वशाली जातियों का सदियों से एकाधिकार है. इस नए देश (अमेरिका) में भी सामाजिक असमानता और पृथक्करण का उत्सव उसी तरह मनाया जाता है, जैसे वह पुराने देश (भारत) में वर्चस्वशाली जातियों के परंपरा का हिस्सा था. सिर्फ खुद के साथ होने वाले उत्पीड़न को वर्चस्वशाली जातियां बर्दाश्त नहीं करतीं.
भारत से अमेरिका में उत्पीड़ित जातियों के प्रवासियों की संख्या हाल के दशकों में धीरे-धीरे बढ़ी है, खासकर 1990 के दशक के बाद, जब सार्वजनिक शिक्षा में आरक्षण और अर्थव्यवस्था के उदारीकरण ने उन्हें कुछ नए अवसर प्रदान किए, लेकिन प्रवासी भारतीयों का जातिवादी स्वरूप जस का तस बना रहा. भारतीय अमेरिकी की पहचान में दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों, ईसाइयों और सिखों के लिए करीब-करीब कोई जगह नहीं है. प्रवासी इसे एक जीत के रूप में देखते हैं कि व्हाइट हाउस में अब दीपावली मनाई जाती है. वह इस बात की परवाह नहीं करते कि “अच्छे” हिंदुओं की देवी दुर्गा जिस “बुराई” का प्रतीक बनाकर महिषासुर की हत्या करती है, यह गहरे स्तर पर बहुत सारे दलितों और आदिवासियों के लिए आहत करने वाला है, जिनके लिए महिषासुर उनके पूर्वज हैं.
भारतीय अमेरिकी मूल के वर्चस्वशाली जातियों के ये प्रवासी नस्लीय विविधता के विचार का फायदा उठाते हैं, हालांकि जाति की समावेशिता और विविधता की बहुत कम परवाह करते हैं. विश्वविद्यालय वर्चस्वशाली जातियों के बच्चों को प्रवेश देते हैं और निगम अपने दायरे में नस्लीय विविधता को बढ़ाने के लिए वर्चस्वशाली जातियों के कर्मचारियों की भर्ती करते हैं. जब भारतीय अमेरिकी सार्वजनिक और कॉरपोरेट जीवन में अपने साथियों की पदोन्नति के लिए कहते हैं, तो यह अक्सर सुखी वर्चस्वशाली जातियां खुद के लिए प्राप्त करती हैं. इस सबके बीच इन्हीं प्रवासी भारतीयों के बड़े हिस्से का भारत में उत्पीड़ित जातियों के लिए सार्वजनिक शिक्षा और नौकरियों में सीमित सकारात्मक भेदभाव (आरक्षण) के प्रति शत्रुततापूर्ण रूख है, जो भारत की वर्चस्वशाली जातियों की सोच को ही प्रतिबिंबित करता है. उसका यही रुख देश में दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों और उत्पीड़ित समूहों के समान अधिकारों की किसी भी मांग के प्रति भी है.
यहां तक कि संयुक्त राज्य अमेरिका के भीतर भी भारतीय अमेरिकियों की नस्लीय विविधता के प्रति चाहत की अपनी सीमाएं हैं. हार्वर्ड विश्वविद्यालय एशियाई अमेरिकी समूहों के साथ कानूनी लड़ाई में उलझा हुआ है, यह समूह यह दावा कर रहे हैं कि छात्रों के बीच नस्लीय विविधता को बढ़ावा देने के लिए उच्च शिक्षित एशियन अमेरिकनों के आवेदकों की बढ़ती संख्या के खिलाफ भेदभाव करती है. कई भारतीय अमेरिकी समूह इस मुकदमें का हिस्सा हैं, उन्हें इसकी भारी कीमत की बहुत कम चिंता है, जिसे सबसे वंचित समूहों, विशेषकर काले और हिस्पैनिक लोगों, को चुकानी पड़ेगी, जो पहले से ही उच्च शिक्षा में अवसर पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिनकों नस्लीय विविधता के आधार पर प्रवेश मिल पाता.
काले और भूरे रंग की एकजुटता के मिथक को मिथक बने रहने की जरूरत नहीं है. संयुक्त राज्य अमेरिका में इसे वास्तविकता बनाने के लिए पहला कदम प्रवासी भारतीयों को अपना आत्मान्वेषण करते हुए स्वयं से काले लोगों के बारे उनका नजरिया क्या है, यह सवाल पूछना है. यह सवाल कालों के प्रति गोरों के रिश्ते और उनके सामाजिक मूल्यों के संदर्भ में पूछना है. यह नस्ल पर संवाद की मांग करता है और अत्यावश्यक तौर पर जाति पर भी. बहुत सारे युवा भारतीय ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन के समर्थन में आए, जिसमें कई वर्चस्वशाली जातियों के थे. उनमें से कुछ ने एकजुटता जताने से आगे बढ़कर खुद से, अपने परिवार से और अपने समुदाय से सवाल पूछने की शुरुआत की. इसका विस्तार होना और इसकी गति को तेज किया जाना चाहिए.
कालों का आंदोलन इस प्रक्रिया द्वारा जाति और उसके नतीजों को बेहतर ढ़ंग से समझने में मदद कर सकता है. इस संदर्भ में एक बड़ी बाधा भारत की गढ़ी गई हिंदूवादी छवि है, जो वर्तमान में चल रहे बहुत सारे आंदोलनों में मौजूद हैं. इसका एक साफ लक्षण मोहनदास गांधी के प्रति कायम आदर है.
मार्टिन लूथर किंग, जूनियर और अमेरिकी नागरिक-अधिकार आंदोलन द्वारा गांधी की आलोचना विहीन गैर-जरूरी प्रशंसा ने, उन्हें चढ़ा-बढ़ाकर प्रस्तुत किया. किंग ने गांधी के अहिंसात्मक तरीकों को भारत को औपनिवेशिक और नस्लीय प्रभुत्व से मुक्त कराने वाले के रूप में देखा, जैसा कि आमतौर दुनिया उन्हें देखती है, जो हिंदू धर्म के सार्वभौमिक सम्मान और शांति में विश्वास का प्रतिपादक है. यह छवि गांधी द्वार गढ़ी गई थी और भारतीय राज्य द्वारा इसे बढ़ावा दिया गया था, लेकिन इस छवि में गांधी के विश्वासों और राजनीति के बड़े हिस्से को कांट-छांट करके ढंक दिया गया.
हालांकि गांधी ने छुआछूत का विरोध किया, लेकिन उन्होंने जाति व्यवस्था का बचाव किया. आज के कई वर्चस्वशाली जातियों के चिंतकों की तरह ही उन्होंने भारत के परंपरागत समाज को आदर्शीकृत किया. जाति व्यवस्था उनके लिए श्रम विभाजन की एक वैधानिक व्यवस्था थी और भारतीय सभ्यता के कथित सामंजस्य का एक अपरिवर्तनीय हिस्सा. औपनिवेशिक शासन के दौरान, जब भारतीय प्रांतीय विधान परिषदों के लिए अपने प्रतिनिधि चुन सकते थे, आंबेडकर ने उत्पीड़ित जातियों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग की अगुवाई की. ऐसा उन्होंने व्यवस्था के भीतर उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व और स्वायत्तता की गारंटी के लिए किया, अन्यथा वह वर्चस्वशाली जातियों द्वारा एक समूह के रूप में बाहर ढ़केल दिए गए थे. जब ब्रिटिश शासन 1930 के दशक की शुरूआत में इसके लिए सहमत हो गया, गांधी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया. आंबेडकर ने इसे ब्लैकमेल करने के एक तरीके रूप में वर्णित किया : इसमें एक खतरा निहित था, यदि इस मुद्दे पर गांधी की मृत्यु हो जाती, तो वर्चस्वशाली जातियां सामूहिक तौर पर उत्पीड़ित जातियों को इसके लिए जिम्मेदार ठहराती और सामूहिक कत्लेआम शुरू कर देतीं. वह पीछे हट गए और भारतीय उत्पीड़ित जातियों को भारतीय विधान सभाओं में पहले की किसी भी समय के प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व की तुलना में थोड़ा ज्यादा प्रतिनिधित्व मिल गया.
आंबेडकर गांधी और कांग्रेस पार्टी को दलित जातियों के विरोधी के रूप में देखते रहे. जब ब्रिटिश शासन से आजादी हासिल कर ली गई, तब भी वह भारतीय जनता की मुक्ति को एक अधूरी परियोजना के रूप में देखते रहे. आंबेडकर ने भारतीय संविधान के लेखन की अगुवाई की, लेकिन बड़े पैमाने पर वर्चस्वशाली जातियों से बनी संविधान सभा उनके मार्ग में बाधाएं पैदा करती रही, वह जाति व्यवस्था के खिलाफ सीमित प्रावधान ही शामिल कर पाए. जैसे ही संविधान प्रभावी हुआ, उन्होंने एक भविष्यदर्शी की तरह चेतावनी दी, “हम विरोधाभासों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीति में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी. राजनीति में हम एक आदमी एक वोट और एक वोट का एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता देंगे. अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में, हम अपनी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण, एक व्यक्ति के एक मूल्य के सिद्धांत को अस्वीकार करना जारी रखेंगे.”
भारत में प्रभावी स्थिति हासिल करने से पहले, गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार का सामना करने वाले के रूप में खुद के लिए नाम कमाया. उनका संघर्ष सभी गैर-श्वेत लोगों के खिलाफ भेदभाव के विरूद्ध नहीं था. यह संघर्ष भारतीयों- विशेषकर वर्चस्वशाली जातियों और पैसेंजर भारतीयों- के लिए था. जिन्हें गोरे दोयम दर्जे का मानते थे. आजादी के बाद भारत की कूटनीति ने इस उदाहरण का अनुसरण किया.
गांधी इस नस्लवादी सिद्धांत से पूरी तरह सहमत थे कि श्वेत लोग श्रेष्ठ आर्यन समूह से आते हैं, वे इस तथ्य से पूरी तरह आश्वस्त थे कि वर्चस्वशाली जातियां भी उसी श्रेष्ठ आर्य नस्ल से आती हैं. उनका खुद का लेखन काले विरोधी नस्लवाद से भरा हुआ है. इस तथ्य के अहसास ने बहुत बाद में उनकी विरासत के तीखे पुनर्मूल्यांकन को जन्म दिया. 2015 में दक्षिण अफ्रीका में छात्र प्रदर्शनों के दौरान, जोहान्सबर्ग में गांधी की एक प्रतिमा को क्षतिग्रस्त किया गया था. भारत सरकार द्वारा घाना विश्वविद्यालय को उपहार में दी गई गांधी की एक प्रतिमा को 2018 में छात्रों और शिक्षकों के विरोध के बाद परिसर से हटा दिया गया था. ब्लैक लाइव्स मैटर विरोध प्रदर्शन के दौरान, लंदन, एम्स्टर्डम और वाशिंगटन डीसी में गांधी की प्रतिमाओं के आधार स्तम्भों पर "नस्लवादी" शब्द का स्प्रे करके पेंट किया गया था और पश्चिम में कई शहरों में उनकी प्रतिमाओं को हटाने की मांग की गई थी.
गांधी के लिए प्रशंसा और जाति विरोधी विचारों से अनभिज्ञता दोनों साथ चलती रहती हैं. आंबेडकर और जाति विरोधी अन्य चिंतक मुश्किल से ही संयुक्त राज्य अमेरिका में पढ़े जाते हैं. उन्हें न पढ़ने वालों में काले बुद्धिजीवी भी शामिल हैं. जब मैं ब्लैक पैंथर के एक संस्थापक सदस्य बॉबी सीले से मिला, तो उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे यह पता है कि दलित पैंथर्स मौजूद था, लेकिन वह उनके बारे में ज्यादा नहीं जानते. एंजेला डेविस ने, जो भूतपूर्व पैंथर भी हैं, 2016 में भारत में अपने एक भाषण के दौरान स्वीकार किया कि कालों के आंदोलन में दलितों के मुद्दों के बारे में गहन गलतफहमी और सरलीकृत समझ है. एक उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा था कि मार्टिन लूथर किंग ने जाति के मुद्दे पर व्यापक सहिष्णुता के लिए भारत सरकार को जवाबदेह ठहराए बिना, अस्पृश्यता पर भारत के प्रतिबंध का समर्थन किया था. दूसरी बात ब्लैक पैंथर्स की दलित संघर्ष की समझ थी. उनका मानना था कि दलित संघर्ष नस्लवादी रंग आधारित उत्पीड़न है- “जैसे सिर्फ इसी तरीके से दोनों के बीच रिश्ता बोधगम्य होता.” इस तरह के अंतराल की उम्मीद दोनों आंदोलनों की परिस्थितियों और शक्तिशाली ताकतें जिन्होंने हमेशा उनकी वृद्धि का विरोध किया है, के मद्देनजर की जानी है, लेकिन अब उन्हें पाटने का समय है.
भविष्य में बेहतर रास्ता निकालने के लिए पहले से ही कुछ उदाहरण मौजूद हैं. इनमें से एक ‘विजन’ है. यह भारत के उत्पीड़ित और हाशिए पर फेंक दिए लोगों को सेवा प्रदान करता है. यह एक अग्रणीय बहुजातीय और बहु धार्मिक संगठन है. जिसकी स्थापना 1970 के दशक के मध्य में दलित पेशेवरों द्वारा की गई थी. हालांकि इस समूह का मुख्य मिशन उत्तरी अमेरिका में आंबेडकर के आदर्शों को बढ़ावा देने पर केंद्रित किया, लेकिन इसने काले समुदायों से कुछ शुरूआती लिंक भी कायम किए. बाधाओं के बावजूद जैसा कि ‘विजन’ के एक संस्थापक योगेश वरहाडे ने मुझे बताया कि “समहू बहुत गौर से कालों के आंदोलन का अवलोकन कर रहा और स्पष्ट समानाताएं देखता है.” इसमें ब्लैक पैंथर्स आंदोलन भी शामिल है. लेकिन उस समय कई काले कार्यकर्ताओं की अमेरिकी सरकार द्वारा निगरानी की जा रही थी और परेशान किया जा रहा था, और वरहाडे और उनके सहयोगियों ने उनसे रिश्ते कायम करने में हिचकिचाहट की थी. इस स्थिति की व्याख्या करते हुए वह कहते हैं, “हम स्वयं को स्थापित करने की कोशिश कर रहे थे और किसी तरह का खतरा मोल नहीं ले सकते थे.” एक ऑन्कोलॉजिस्ट और विजन की एक अन्य सह-संस्थापक डॉ. लक्ष्मी बेरवा, अतीत के घटना क्रम को याद करते हुए कहती हैं कि क्या समूह ने वह किया, जो वह कर सकता था.
पेटी ग्रीन, वाशिंगटन डीसी में एक लोकप्रिय टॉक-शो होस्ट करने वाले और काले कार्यकर्ता, बेरवा के रोगियों में से एक थे. ग्रीन ने आपसी बात-चीत में जाति के मुद्दे की ओर ध्यान खींचा था और बेरवा को कालों के नेटवर्क से परिचित कराया. बेरवा बताती हैं कि इसके चलते बहुत सारे मीडिया कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति हुई और बैठकों एवं सम्मेलनों में बात-चीत हुई, जहां उन्होंने दर्शकों-श्रोताओं को दलित संघर्ष से परिचित कराया.
वर्षों बाद हावर्ड विश्वविद्यालय में अफ्रीकी अध्ययन के प्रोफेसर सुलेमान एस न्यांग ने बेरवा को दलित हित में रुचि रखने वाले स्नातक छात्र रैंडी शॉर्ट से मिलवाया. हावर्ड विश्वविद्यालय अमेरिकी राजधानी में ऐतिहासिक रूप से एक अश्वेत विश्वविद्यालय है. 1998 में शॉर्ट एंड बेरवा ने हावर्ड में आंबेडकर जयंती मनाने के लिए एक कार्यक्रम आयोजित किया. ऐतिहासिक रूप से यह काले अमेरिकी परिसर में आंबेडकर जन्मदिन का पहला ऐसा स्मरणोत्सव था. इस कार्यक्रम में आंबेडकर को “भारत के मार्टिन लूथर किंग, जूनियर” के रूप में प्रस्तुत किया गया और “जातिवाद के 3,000 साल की जकड़न को तोड़ने” के लिए एकता का आह्वान किया गया.
जब इस तरह का गठजोड़ बना रहा था, विजन ने अंतरराष्ट्रीय निकायों की निगाह में जाति उत्पीड़न को लाने के लिए भी अभियान चलाया. बेरवा उन शुरूआती दलितों में से एक थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र और अमेरिकी सरकार से संपर्क किया. 1982 में, भारतीय प्रधान मंत्री, इंदिरा गांधी ने कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका की राजकीय यात्रा की. दोनों देशों में, उन्हें उन प्रदर्शनकारियों का सामना करना, जिन्होंने भारत में दलितों के खिलाफ अत्याचार के बारे में उनसे बात करने की मांग की. जब इसका कोई जवाब नहीं मिला तो विजन के तत्कालीन अध्यक्ष बेरवा ने अमेरिकी सीनेट की विदेशी संबंधों पर समिति के एक सदस्य को गांधी के साथ मामले को उठाने के लिए सहमत किया. प्रधानमंत्री ने क्षुब्ध होकर विजन को एक पत्र भेजा, जिसे बेरवा ने आज तक सहेज कर रखा है. उस पत्र में उन्होंने झिड़कते हुए लिखा कि “विदेशों में संपन्नता की स्थिति में रहने वाले लोगों की टिप्पणी, जो उस बारे में बहुत कम जानकारी रखते हैं, उनकी कोई मदद नहीं करती.” बेरवा ने गांधी पर "अहंकार, तुच्छता और उदासीनता" का आरोप लगाते हुए एक पत्र के साथ पलटवार किया और उनके "अनुसूचित जातियों के प्रति कठोर रवैये" की निंदा की. विजन ने भविष्य के भारतीय प्रधानमंत्रियों की यात्राओं के दौरान भी विरोध करने की परंपरा बना ली.
विजन के अलावा, 1990 के दशक में अंबेडकर इंटरनेशनल मिशन के संस्थापक राजू कांबले का एक और उदाहरण है. कांबले ने दुनिया भर में दलित कार्यकर्ताओं का एक नेटवर्क बनाने के लिए आंबेडकरवादी हलकों में पहचान कायम की. लेकिन जो कम ज्ञात है वह यह कि उन्होंने टेक्सास में काले कार्यकर्ताओं के साथ संबंध स्थापित किए, जहां वे रहते थे. कांबले के नक्शेकदम पर चलने वाले युवा दलित कार्यकर्ता बड़ी संख्या में हैं. मैंने 2017 में ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन के बोस्टन वाले हिस्से के साथ मिलकर काले और दलित संघर्षों पर एक संगोष्ठी संपन्न कराने में योगदान दिया. जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद, कई आंबेडकरवादी समूहों ने ब्लैक लाइव्स मैटर प्रतिरोध के समर्थन में बयान जारी किए.
भारत में, कार्यकर्ता भारती प्रभु एकजटुता की दिशा में पथप्रवर्तक प्रयास करने वाले की भूमिका निभा रहे हैं. चेन्नई शहर में, पिछले एक दशक से वह संयुक्त राज्य अमेरिका में काले स्नातक समारोहों की परंपरा का अनुकरण करते हुए, दलित और अफ्रीकी छात्रों के लिए विशेष स्नातक समारोह आयोजित कर रहे हैं. यह आयोजन कालों के संघर्ष के नायकों के साथ-साथ दलित नायकों को याद करते हैं.
नस्ल और जाति से उत्पीड़ित लोग किस तरह आपसी प्रेरणा साझा कर सकते हैं, इसका एक और प्रयास दलित इतिहास माह है, जो हर अप्रैल में दुनिया भर की घटनाओं के साथ दलित आंदोलन को उजागर करने का एक प्रयास है. यह 1970 के दशक से संयुक्त राज्य अमेरिका में हर फरवरी में मनाए जाने वाले ब्लैक हिस्ट्री मंथ पर आधारित है. पहली बार 2000 के दशक की शुरुआत में तमिलनाडु के एक साहित्यिक बुद्धिजीवी और संसद के वर्तमान सदस्य डी. रविकुमार द्वारा इसकी परिकल्पना की गई. यह दलित इतिहास माह मूल रूप से 14 अप्रैल को आंबेडकर के जन्मदिन से लेकर 26 मई को एक अन्य जाति-विरोधी नायक, अयोथी थास के जन्मदिन तक चला. यह प्रयास आंबेडकर मेला पर आधारित था, जिसे 1980 के दशक में कांशीराम और बहुजन समाज पार्टी द्वारा शुरू किया गया था. यह मेला उत्तर भारत में आंबेडकर के जन्म दिन के बाद दो महीने तक प्रत्येक वर्ष लगता था, जिसमें दलित इतिहास का उत्सव मनाया जाता और दलित विचारों का प्रचार-प्रसार किया जाता था.
दलितों ने काले लोगों के जीवन की सुरक्षा के लिए खुद को समर्पित किया क्योंकि वे अपनी पीड़ा को अन्य उत्पीड़ित लोगों की पीड़ा में देखते थे. व्यक्तिगत स्तर पर, वे उस दर्द को महसूस करते हैं, जिसके लिए काले लोग आवाज उठा रहे हैं, और वर्चस्वशाली समूहों के पक्षपातपूर्ण मानकों द्वारा उन्हें निरंतर नीचा दिखाने के प्रति सहानुभूति रखते हैं. काले लोग क्रोधित नहीं हो सकते, क्योंकि वे उग्र प्रतिक्रिया कर रहे हैं, काले प्रतिरोध नहीं कर सकते, क्योंकि दंगे कर रहे हैं, काले संपदा में उचित हिस्से की मांग नहीं कर सकते, क्योंकि उनके आश्रय पर वे पल रहे हैं, वे अतीत के बारे में बात नहीं कर सकते, क्योंकि स्वयं उसके शिकार हैं. वे चिल्ला नहीं सकते, क्योंकि नकली क्रोध कर रहे हैं, वे हंस नहीं सकते, क्योंकि वे बहुत मुखर हैं, वे खुद को भावाभिव्यंजक तरीके अभिव्यक्त नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा न हो कि वे इससे नाराज हो जाएं. ऐसा वे तब भी नहीं कर सकते, जब उनकी बहनें और भाई सड़क पर मारे जा रहे हों.ये सब भी दलित अस्तित्व के तथ्य हैं.
प्रणालीगत स्तर पर, अमेरिकी आपराधिक-न्याय प्रणाली काले लोगों के खिलाफ कुख्यात रूप से पक्षपाती है, जिन्हें किसी भी अन्य समूह की तुलना में कहीं अधिक प्रतिशत में जेल भेजा जाता है. अश्वेत लोगों के खिलाफ पुलिस की बर्बरता सदियों से चली आ रही है, यहां तक कि कठिन हालातों में डालने वाली हिंसा के लंबे रिकॉर्ड वाले पुलिस अधिकारियों को भी दंड से मुक्ति मिल जाती है. कानून का क्रियान्वयन करने वाले समहू में घुसपैठ करने वाले श्वेत वर्चस्ववादियों के कई मामले सामने आए हैं. भारत में दलित,आदिवासी और मुस्लिम तीनों मिलाकर आबादी के आधे से बहुत अधिक कम हैं, लेकिन 2018 में कुल कैदियों में इनकी संख्या आधे से अधिक थी. अत्याचार के खिलाफ राष्ट्रीय अभियान ने पिछले साल पुलिस हिरासत में एक हजार सात सौ से अधिक मौतों की सूचना दी यानि प्रति दिन पांच से अधिक की दर से मौतें. मरने वालों में ज्यादातर दलित, आदिवासी और मुसलमान थे. फरवरी और मार्च में दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान, कई रिपोर्टों ने पुलिस पर मुस्लिम विरोधी भीड़ की सहायता करने और खुद मुसलमानों पर हमला करने का आरोप लगाया गया. एक वायरल वीडियो में पुलिसकर्मियों को बुरी तरह से घायल पांच मुस्लिम लोगों को पीटते और गाली-गलौज करते हुए और उन्हें राष्ट्रगान गाने के लिए मजबूर करते हुए दिखाया गया था. उनमें में से एक फैजान की बाद में मृत्यु हो गई.
2018 में, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत दलितों और आदिवासियों के खिलाफ लगभग पचास हजार अपराध दर्ज किए गए थे. इसमें करीब एक हजार हत्याएं और करीब चार हजार बलात्कार शामिल हैं. यहां तक कि जातिवादी अत्याचारों की कम रिपोर्टिंग को नजरअंदाज भी कर दिया जाए, तो इसका मतलब यह है कि भारत में हर दिन कम से कम दो दलित या आदिवासी मारे जाते हैं और आठ से अधिक दलित और आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार होता है. धर्म से प्रेरित अत्याचारों की नवीनतम दर अज्ञात है, क्योंकि मोदी सरकार ने 2017 में लिंचिंग और धार्मिक रूप से प्रेरित हत्याओं का आंकड़ा जारी करना बंद कर दिया.
पुलिस में दलितों और आदिवासियों की संख्या भारत के अधिकांश हिस्सों में आवश्यक सरकारी कोटे से कम है. लगभग पंद्रह प्रतिशत आबादी के बावजूद, देश भर में मुसलमानों की पुलिस में संख्या तीन प्रतिशत से भी कम है.
जैसा कि ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन ने निर्विवाद रूप से स्पष्ट कर दिया है, संयुक्त राज्य अमेरिका में राज्य और पुलिस एक नस्लवादी समाज के उपकरण के रूप में कार्य कर रहे हैं. दलित, मुस्लिम, आदिवासी और अन्य उत्पीड़ित समूह हमेशा से जानते हैं कि राज्य और पुलिस जातिवादी व्यवस्था के एजेंट हैं.
महाराष्ट्र के नांदेड़ में एक दलित इलाके में पलते-बढ़ते हुए, मैं इस तथ्य से दर्दनाक तौर पर परिचित था कि पुलिस लगातार उन पर निगरान रखती है, जैसे कि मुसलमानों पर निगरानी रखती है, जो पास की ही एक दूसरी कॉलोनी में रहते थे और वहां के नौजवानों पर विशेष तौर पर पुलिस झपट्टा मारने के लिए तैयार रहती थी. यह नस्ल और जाति के उत्पीड़न के अनुभवों के बीच की एकरूपता में एक है, इस तरह की एकरूपता यह स्वाभाविक बनाती है कि जातीय उत्पीड़न के शिकार लोग ब्लैक लाइव्स मैटर को प्रेरणा और उम्मीद से देखें, जैसा कि उन्होंने हमेशा कालों के संघर्ष को देखा. लेकिन भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका में वर्चस्वशाली जातियों की क्या स्थिति है, क्या उन्होंने कालों के आंदोलन का पक्ष लिया ?
ब्लैक लाइव्स मैटर में जाति-उत्पीड़ित की शिकार जातियों की तुलना में वर्चस्वशाली जातियों को सिखाने के लिए अधिक है. दलित संघर्ष को सार्वभौमिक मानवीय गरिमा के सिद्धांत की याद दिलाने की जरूरत नहीं है जो हमेशा से इसकी नींव में रहा है. इसे ब्लैक लाइव्स मैटर के मूल तरीकों की याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है, जो आंबेडकर के उत्पीड़ितों को शिक्षित, संगठित और आंदोलन करने के आह्वान से मेल खाते हैं. वर्चस्वशाली जातियों को यह समझने की जरूरत है कि वे एक ऐसे सामाजिक और धार्मिक पंथ के वाहक हैं जो मानवीय समानता को बर्दाश्त नहीं कर सकते. वर्चस्वशाली जातियों को अपने विशेषाधिकार और हिंसक पूर्वाग्रहों के बारे में खुद को शिक्षित करने, जाति व्यवस्था के खिलाफ संगठित होने और आंदोलन करने की जरूरत है, न कि इसके पक्ष में खड़ा होने की जरूरत है. जब वे गोरे लोगों के नस्लवाद का विरोध करते हैं, तो वर्चस्वशाली जातियां केवल अपनी आभिजात्य स्थिति को मजबूत कर रही होती हैं. वे तब तक समानता और सामाजिक न्याय के सहयोगी नहीं हो सकते, जब तक वह अपनी जातिवाद, नस्लवाद और धार्मिक घृणा से संघर्ष नहीं करते.
उत्पीड़ित जानते हैं कि जातिवाद को जड़ से उखाड़ने के लिए भारतीय संस्थानों, मंदिरों और विश्वविद्यालयों और निगमों, पुलिस और अदालतों और संविधान में बड़े पैमाने पर उलट-फेर की जरूरत है. वर्चस्वशाली जातियों में भी, ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन को देखते हुए संस्थागत सुधारों की जरूरत का इसी तरह का अहसास पैदा हो इसकी आवश्कता है. भारत के उत्पीड़ित जानते हैं कि उनकी पीड़ा जाति व्यवस्था और हिंदू धर्म में उसके स्थान से जुड़ी हुई है, जैसे कि काले लोग जानते हैं कि नस्लवाद गुलामी से बंधा है और संयुक्त राज्य की ऐतिहासिक यात्रा में इसका स्थान है. गोरे लोगों की तरह ही वर्चस्वशाली जातियां अपने विशेषाधिकार को इतिहास और विरासत से जुड़ा हुआ नहीं देखती हैं, उत्पीड़ितों के उत्पीड़न के अपने आपराधिक कृत्य को जन्मजात श्रेष्ठता के बारे में परियों की कहानियों के पीछे छिपाती हैं. संयुक्त राज्य अमेरिका में, काले लोगों ने पीढ़ियों से चले आ रहे नस्लीय पूर्वाग्रह को ठीक करने के लिए प्रायश्चित के बारे में लंबे समय से बात की है, और यह गोरे लोग हैं जो केवल धीरे-धीरे इस जरूरत के लिए सजग हो रहे हैं. भारत में, दलितों ने सदियों से जातिगत असमानता को दूर करने के लिए उत्पीड़ितों के लिए भूमि की मांग की है. प्रभुत्वशाली जातियों को अभी भी इसके प्रति सहमत होने की आवश्यकता है.
काले लोग हमेशा से जानते हैं कि गोरे लोगों की नफरत का स्रोत कहां है. यह नफरत गोरे के भय से आती है, कालों को बर्बर और बेलगाम पिंड मानने का भय, जिन्हें गोली मारने के लिए पुलिस की आवश्यकता है, कालों के इल्म और सफलता से भय, जिसके चलते वे हर कदम पर दरवाजा बंद कर लेते हैं. गोरों का भय बुजदिली है, वह हर किसी को उसका वाजिब अवसर देने से इंकार करते हैं. गोरों का भय कालों की मौत की मांग करता है, क्योंकि कालों की यातना और अंग-भंग बिना गोरे शक्तिशाली और सुरक्षित नहीं महसूस करते हैं. अमेरिका ने इसी डर के आधार पर एक समाज खड़ा किया है.
एक सदी पहले, वेब डू बोइस ने एक निबंध में इस स्थिति का विश्लेषण प्रस्तुत किया था, जिसे उन्होंने "द सोल्स ऑफ व्हाइट फोक" कहा था. उन्होंने लिखा "मैं उनमें और उनके माध्यम से देखता हूं," क्योंकि मैं देशी हूं, विदेशी नहीं, उनके विचारों की हड्डी और उनकी भाषा का मांस. ... मैं उनके विचारों को जानता हूं और वह जानते हैं कि मैं जानता हूं." डू बोइस क्या जानते थे:
तब तक, जब एक विनम्र काले व्यक्ति के रूप में, मालिक और उदार गोरों से पुराने कपड़ों का गट्ठर प्राप्त करके मानसिक शांति और नैतिक संतुष्टि प्राप्त करते थे, लेकिन जब काले व्यक्ति वेतन और पद, अधिकार और प्रशिक्षण में पिता की कुछ कथित वसीयत के लिए गोरे व्यक्ति की पदवी पर विवाद करना शुरू करते हैं, जब उनका रवैया दान के प्रति विनम्र उल्लास के बजाय म्लान क्रोध में बदलता है, जब वह अकड़, गाली और उपेक्षा के खिलाफ अपने मानवाधिकार पर जोर देते हैं, तब जादू अचानक टूट जाता है और परोपकारी यह मानने लगते हैं कि नीग्रो मुंहजोर हैं.
इसके बाद जहन्नुम का रास्ता आसान हो जाता है. मैं गोरों के चेहरों पर मलिनता देख सकता हूं ...उनके चेहरों पर मानवीय घृणा की लिखी इबारत पढ़ सकता हूं, एक गहरी और भाव-प्रवण घृणा, उसकी अभिव्यक्ति की अस्पष्टता का अति फैलाव देख सकता हूं.
गोरों की संस्कृति की श्रेष्ठता के दावों के लिए, डू बोइस ने प्रथम विश्व युद्ध के नरसंहार के साथ जवाब दिया. “यह यूरोप पागल नहीं हुआ है; यह विपथन या पागलपन नहीं है; यह यूरोप है; यह उभरकर सामने आता है कि यह भयानक गोरो की संस्कृति की वास्तविक आत्मा है ... यह वह जगह है जहां दुनिया आ गई है - यह अंधेरी और भयानक गहराई, न कि चमकदार और महान ऊंचाइयां, जिस पर वह घमंड करता है."
यह गोरे लोगों के लिए डू बोइस का उपहार था - आत्म-ज्ञान का उपहार. शायद इसी वजह से आंबेडकर ने उनकी इतनी प्रशंसा की. जो कुछ गोरों के भय के बारे में डू बोइस ने कहा, वह वर्चस्वशाली-जातियों के भय का भी वर्णन करता है और गोरों की संस्कृति के केंद्र में डू बोइस ने जो, हत्यारा दिल पाया, वही हत्यारा दिल ब्राह्मणवादी प्रभुत्व- जाति संस्कृति केंद्र में भी है - जिसे आमतौर पर हिंदू धर्म के रूप में जाना जाता है. ब्लैक लाइव्स मैटर गोरे लोगों को उनके द्वारा बनाई गई दानवीयता को जानने और त्यागने का एक और मौका देता है. यह प्रभुत्वशाली जातियों को एक उपहार है, यह उन्हें इस दानवीयता में अपने स्वयं के प्रतिबिंब को पहचानने का मौका देता है. उन्हें इस उपहार को लेने की जरूरत है. दलित अब और इंतजार नहीं करेंगे.
(कारवां अंग्रेजी के जुलाई 2020 अंक में प्रकाशित इस आलेख का हिंदी अनुवाद सिद्धार्थ ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)