देवता को जमींदार बना देने की दिक्कतें

20 February, 2019

इन दिनों हिंदू देवता विवादों के मूड में हैं. किसी जमाने में जहां बाबरी मस्जिद खड़ी थी वहां की 2.77 एकड़ जमीन पर रामलला की दावेदारी के बाद छोटे देवता भी अपने हिस्से की दावेदारी करने लगे हैं. पूर्वी राजस्थान में श्री गोविंद देव जी का मंदिर है ‘गार्डन टेंपल’. इसमें स्थापित मूर्ति को यहां की “400 बीघा जमीन का इकलौता मालिक” करार दिया गया है. योग गुरु रामदेव अपनी पतंजलि साम्रज्य के लिए इस जमीन पर नजर गड़ाए हुए थे. वहीं, भारत सरकार जो आम तौर पर विकास से जुड़ी गतिविधियों के लिए अपने नागरिकों को विस्थापित करने में देर नहीं करती, इन देवताओं की बात आने पर बेहद मजबूर नजर आ रही है.

मूर्तियों को लंबे समय से राज्य का संरक्षण प्राप्त रहा है. 1988 में भारत सरकार ने ब्रिटिश संग्रहालय से भगवान शिव की पाथुर नटराज की मूर्ति वापस लाने के लिए ब्रिटिश कोर्ट में भगवान शिव का प्रतिनिधित्व किया था. कानूनी कार्यवाही के दौरान तर्क दिया गया कि “भले ही लंबे समय तक मूर्ति दफन रही है या क्षतिग्रस्त ही क्यों न हो, मूर्ति एक न्यायिक व्यक्ति बनी रहती है, क्योंकि देवताओं पर सांसारिक रूप के विनाश का प्रभाव नहीं पड़ता."

गैर-मानव इकाई को "कानूनी व्यक्तित्व" मानना मानव अधिकार नहीं है. यह एक ‘विशेषाधिकार’ है. यह कानूनी गल्प है. इनकी सामाजिक उपयोगिता के आधार पर राज्य और अदालत कुछ गैर-मानव संस्थाओं से इस तरह पेश आए हैं जैसे कि उन्हें व्यक्ति के अधिकार प्राप्त हों. ये संस्थाएं हाड़-मांस से बने व्यक्ति नहीं हैं. इनका शरीर या आत्मा नहीं होती. वे तर्क नहीं कर सकते. कुछ महसूस नहीं कर सकते. और न ही वे शादी या बच्चे पैदा कर सकते हैं. फिर भी कानूनी व्यक्तित्व के पास करार करने, मुकदमा दायर करने और संपत्ति का अधिकार है. हिंदू देवताओं की मूर्तियों को इस मामले में ‘व्यक्ति’ माना जाता है. दिव्य अवतार होने के नाते उन्हें एक अलौकिक इंसान के रूप में वर्णित किया जाता हैं.

मूर्तियां आधुनिक हिंदू धर्म के लिए वह हैं, जो व्यापार की दुनिया के लिए कॉर्पोरेशन हैं. अमेरिका जैसे हाइपर-पूंजीवादी देश में बिजनेस कॉर्पोरेशन को बोलने की आजादी और धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार दिए गए हैं, जो पहले केवल नागरिकों के लिए आरक्षित होते थे. भारत जैसे एक अति-धार्मिक देश में मंदिर की मूर्तियों को संपत्ति का अधिकार और मुकदमा दायर करने का अधिकार दिया गया है, जो आम तौर पर नागरिकों के लिए आरक्षित अधिकार हैं. फिर भी इन सब में जो भुलाया जा रहा है वह यह है कि इंसान और अन्य जीवित प्राणी वह श्रेणी हैं जो समाज में रहने वाले अधिकारों का आनंद लेने के हकदार हैं.

22 दिसंबर 1949 को उग्र हिंदू कार्यकर्ता बाबरी मस्जिद में घुसे और हिंदू देवी-देवता सीता और राम की मूर्तियों को वहां रखा दिया. मूर्तियों की स्थापना से संघर्ष का जन्म हुआ जिसने अगले 50 सालों में देश के राजनीतिक रूप को गहन तरीके से बदला. उस रात की घटनाओं को पौराणिक अंदाज में दोहराया जाता रहा. 1987 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पत्रिका ऑब्जर्वर ने इसे "ऐतिहासिक सुबह" के रूप में वर्णित किया जिसमें मूर्तियां "चमत्कारी रूप से अपने आप जन्मस्थान में प्रकट हो गईं." 1980 के दशक तक राम जन्माभूमि, राम का जन्मस्थान आंदोलन ने काफी मजबूती हासिल कर ली थी. सितंबर 1990 में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा शुरू की जो देश भर में 10000 किलोमीटर की दूरी तय करने वाली थी और इसके लिए एक जीप को रथ की तरह डिजाइन किया गया था, जिसमें "मंदिर वहीं बनाएंगे" का नारा लिखा था. यात्रा जहां कहीं से भी गुजरी वहां सांप्रदायिक संघर्षों के निशान छोड़ती चली गई. 300000 लोगों की मजबूत भीड़ द्वारा मस्जिद के विध्वंस के साथ यह यात्रा समाप्त हुई. घटना ने आधुनिक भारत में सांप्रदायिक हिंसा के सबसे बुरे प्रकोपों ​​में से एक को जन्म दे दिया. रथ यात्रा के दौरान आडवाणी ने सवाल किया, "क्या कोई अदालत तय कर सकती है कि राम यहां पैदा हुए थे या नहीं?"

इस बीच मूर्तियों से जुड़ा कानूनी मामला खिंचता रहा. सेवानिवृत्त न्यायाधीश देवकी नंदन अग्रवाल ने 1989 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर करने से पहले राम से संबंधित भूमि का दावा करने के लिए राजस्व रिकॉर्ड और अन्य दस्तावेज एकत्र किए. अपने मुकदमे में उन्होंने भगवान श्री राम विराजन को, स्वयं राम, मुख्य अभियोगी के रूप में पेश किया. उन्होंने स्वयं को राम लला के "दोस्त" के रूप में पेश किया. यह एक प्रावधान है जो उन्हें राम की ओर से कानूनी लड़ाई लड़ने की अनुमति देता है. 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि जमीन का एक-तिहाई हिस्सा राम लला को जाऐगा, जबकि बाकी दो अन्य अभियुक्तों के बीच विभाजित होंगे. अगले साल सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर यह आधार बनाकर रोक लगा दी कि कोई भी पार्टी तीन-तरफा विभाजन नहीं चाहती थी.

फैसले में न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि एक बार पवित्र किए जाने या लंबे समय तक पूजे जाने के बाद, "मूर्तियों और देवताओं के बीच" कोई अंतर नहीं रहता है." दूसरे शब्दों में कहें तो पत्थर की मूर्ति देवता बन जाती हैं और अपने भक्तों द्वारा देवता में निहित सभी संपत्ति पर निरंतर स्वामित्व का अधिकार प्राप्त करती हैं. संपत्ति के कानूनी मालिकों के रूप में अपने मानव मित्रों के माध्यम से मूर्तियों को, अदालतों में अपनी हितों को सुरक्षित रखने का अधिकार है, बजाए इस बात के कि मूल मूर्ति अस्तित्व में है या नहीं. अयोध्या के फैसले न केवल मूर्तियों की इस समझ को न्यायवादी व्यक्तियों के रूप में देखते हैं बल्कि ये इसे आगे भी बढ़ाते हैं. यह सिर्फ राम लला ही नहीं बल्कि राम जन्माभूमि यानी अयोध्या में पूरी विवादित जगह को ही एक न्यायवादी व्यक्ति मानती है.

ऐसे कानूनी तर्कों को लेकर झुकाव अतीत की एक अपरिहार्य वाक्पटुता है. हमें बताया जाता है कि हिंदुओं का मानना ​​है कि देवताओं की मूर्तियां ही देवता हैं और ये दोनों ही तरह के, लिखे और बिना लिखे इतिहास में मौजूद हैं. आयोध्या फैसले के मुताबिक, “प्राचीन काल से और कई पीढ़ियां से हिंदू, राम जन्मभूमि का सम्मान करते आए हैं जिसके बारे में उनका मानना ​​है कि यहां भगवान राम का जन्म हुआ था.” ये झूठ है.

ऐसा नहीं है कि हिंदुओं ने हमेशा मूर्तियों को मंदिर के जमीन का मालिक समझा है. असल में मूर्ति पूजा का चलन ईसवी की शुरुआत के आसपास हुआ. एक "जरूरी" प्रथा होने के उलट इसे कुछ ब्राह्मणों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा था. धर्मशास्त्र और रूढ़िवादी हिंदू दर्शन के प्रभावशाली धड़े विशेष रूप से पूर्वा मिमांसा परंपरा में इससे जुड़ी कई आशंकाएं मौजूद हैं. कुछ तो तिरस्कार के स्तर तक हैं. समय के साथ मूर्ति पूजा की लोकप्रियता इस स्तर पर पहुंच गई, जिसे हम हिंदू धर्म कहते हैं. इसकी कल्पना आज इसके बिना असंभव लगती है. हिंदू रूढ़ीवाद के साथ इस चलन को विरोधाभास का सामना करना पड़ा है जिसने कभी भी भगवान के विचार को इंसानी अधिकारों वाला स्वीकार नहीं किया.

इसी प्रकार मूर्तियों को कानूनी व्यक्तित्व प्रदान करने का आधार अस्पष्ट है. यह अंग्रेजों के जमाने में दिए गए फैसले के कारण और स्वतंत्र भारत में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बार-बार उसी फैसले को मानने के कारण ही हिंदू मूर्तियों को कानूनी और संपत्ति के अधिकार दिए गए हैं. लेकिन बीजन कुमार मुखर्जी, भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और 1951 की प्रभावशाली पुस्तक, द हिंदू लॉ ऑफ रिलिजियस एंड चैरिटेबल ट्रस्ट के लेखक तर्क देते हैं कि यह धारणा है कि "जैसे ही इसे पवित्र किया जाता है और इसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाती तो मूर्ति अपने आप ही एक कानूनी व्यक्ति का रूप ले लेती है" एक "विस्फोट सिद्धांत" है. मुखर्जी के मुताबिक ऐसा नहीं है कि "वे सर्वोच्च व्यक्ति जिसकी मूर्ति प्रतीक या छवि है, वे समर्पित संपत्ति का प्राप्तकर्ता या मालिक हो जाता है." इसके बजाय जब कानून किसी मूर्ति को एक कानूनी व्यक्ति के रूप में पहचानता है, तो यह केवल इसे "दाता के आध्यात्मिक उद्देश्य का प्रतिनिधित्व और संयोजन करने" के रूप में मान्यता देता है. उन्होंने आगे तर्क दिया, "मालिक के रूप में देवता कुछ और नहीं बल्कि संस्थापक के इरादे का प्रतिनिधित्व करते है."

लेकिन अगर हम मुखर्जी के तर्क को मान लें और स्वीकार कर ले कि भक्तों का आध्यात्मिक उद्देश्य, न कि मूर्ति की इच्छा, मूर्ति की कानूनी स्थिति तय करती है, तो भी एक सवाल पैदा होता है, क्या होगा जब भक्तों का उद्देश्य साफ तौर से आपराधिक हो ? एक मस्जिद में अवैध रूप से लाई गई मूर्ति को दैवीय पवित्र अवतार कैसे मान लिया जाता है ?

हालांकि कई टिप्पणीकार अयोध्या मामले में हिंदू मूर्तियों के न्यायिक व्यक्तित्व को एक निर्विवादित कानूनी सिद्धांत के रूप में लेते हैं, लेकिन यह एक कानूनी इतिहास है. इससे जुड़े सुप्रीम कोर्ट के प्रभावशाली फैसले हैं जो न्यायिक व्यक्तित्व के आधार के रूप में दैवीय से मानवीय इरादों पर जोर देते हैं. पूजा करने वालों के मानवीय उद्देश्यों के पक्ष में एक मूर्ति के दैव्य अधिकारों की ये भक्ति किसी "पश्चिमी" धर्मनिरपेक्ष विचारधारा को लागू करने का परिणाम नहीं है, बल्कि हिंदू दर्शन के भीतर मौजूद संदिग्ध तनाव का भी परिणाम है. मूर्तियों के व्यक्तित्व का कानूनी इतिहास दैवीय और भारतीय धर्मशास्त्र के भीतर मूर्तियों में अपने अवतार की व्यवहार्यता के बारे में दार्शनिक बहस से अलगाव में समझा नहीं जा सकता है.

1925 में ब्रिटिश साम्राज्य की सबसे बड़ी अपीलीय अदालत किंग जॉर्ज पंचम के प्रिवी काउंसिल के सामने एक प्रश्न था. प्रमथा नाथ मलिक बनाम प्रद्युमन कुमार मलिक में मूर्ति का संरक्षक इसे परिवार के मंदिर से अपने निवास में स्थानांतरित करना चाहता था. परिषद ने इस अनुरोध को आधार पर खारिज कर दिया कि "स्थान के संबंध में मूर्ति की इच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए" और इस प्रसिद्ध निर्णय में आगे कहा गया :

“एक हिंदू मूर्ति, हिंदुओं के धार्मिक रीति-रिवाजों पर लंबे समय से स्थापित प्राधिकरण के अनुसार और न्यायालयों या कानून द्वारा मान्यता प्राप्त एक "कानूनी इकाई" है. इसे न्यायिक अधिकार प्राप्त हैं जिसके तहत ये मुकदमा कर सकती है या इस पर मुकदमा हो सकता है. इसके हितों की देख रेख वह व्यक्ति करता है जो देवता की देख रेख में लगा होता है और जो कानूनी रूप से तमाम ताकतों के साथ इसका प्रबंधक है, जिसे वैसे अधिकार प्राप्त हैं जैसे एक बच्चे की संपत्ति के वारिस के रूप में देख रेख में लगे व्यक्ति को होते हैं. इस सिद्धांत के लिए अधिकारियों को उद्धृत करना (उन्होंने जो कहा है वह कहना) अनावश्यक है, सो इसे आसानी से कहा गया है और दृढता से स्थापित किया गया है.”

मंदिरों और देवताओं से संबंधित भारतीय मामलों से जुड़े कानून में यह सबसे उद्धृत बातों में से एक है. अयोध्या निर्णय, व्यावहारिक रूप से मूर्ति के लिए नहीं, बल्कि पूरी जमीन के लिए कानूनी व्यक्तित्व की इस अवधारणा पर भी खड़ा है. जस्टिस शर्मा साफ तौर से प्रिवी काउंसिल के फैसले को उनके निष्कर्ष के आधार के रूप में स्वीकार करते हैं कि पूरी साइट राम से संबंधित है.

इसके पीछे की वजह ये है कि पहले के फैसलों के मुताबिक टैक्स वसूली और बाकी के प्रशासनिक कामों के लिए मूर्तियों से न्यायिक कथा के रूप में पेश नहीं आया जा सकता, बल्कि इन्हें जीवित लोगों की "इच्छा" और "रुचियों" जैसे अधिकार दिए गए हैं. सो फैसले ने इस बात पर जोर दिया कि शिबेत या मंदिर के संरक्षक, पुजारी को पूजा के स्थान और तरीके के बारे में मूर्ति से अवश्य परामर्श करना चाहिए क्योंकि “अपने रखवाले के सहारे से काम करते हुए एक मूर्ति को इसका हक है कि ये अपने तरीके से अपनी पूजा अपनी पसंद की जगह पर करवाए.” दूसरे शब्दों में मूर्ति के पास इस बात की प्राथमिकता या पसंद है कि ये अपनी पूजा कैसे करवाना चाहती है. जैसा कि ये खुद नहीं बोल सकती है, क्योंकि इसे अजैवीय चीजों से बनाया गया है. कानून के मुताबिक पुजारी का कर्तव्य इसकी प्राथमिकताओं की रक्षा करना है. अगर मूर्ति और पुजारी के बीच कोई विवाद होता है तो ऐसे में कोर्ट “अगले स्वार्थहीन दोस्त” को ये काम सौंप देता है. संयोग से, अगले दोस्त के इस प्रावधान ने वर्तमान अयोध्या विवाद में राजनीतिक कुचक्र के लिए दरवाजा खोला है. पहले “राम सखा” देवकी नंदन के नक्शे कदमों पर चलते हुए राम लला के बाद के सभी “अगले दोस्त” या तो आरएसएस या विश्व हिंदू परिषद से रहे हैं.

ब्रिटिश न्यायविद जिनका भारत या इसकी धार्मिक परंपरा से शायद ही कोई संबंध था, आखिरकार वे ऐसे अहम फैसले तक कैसे पहुंचे वह भी इतने आत्मविश्वास के साथ कि उन्होंने “अधिकारियों के कहे का उल्लेख करना” भी गैर जरूरी समझा. असल में इस मामले में भारतीय प्रतिवादी ने तर्क दिया था कि मूर्ति उनकी निजी संपत्ति थी और वो इसके साथ जैसा चाहे कर सकते हैं, “यहां तक कि अगर चाहें तो इसे गंगा में फेंक सकते हैं.” मूर्ति को “महज चल संपत्ति” समझने के लिए प्राइवी कांउंसिल ने उन्हें फटकार लगाई और प्रथाओं के अलावा बिना नाम वाले धर्मिक प्राधिकारियों का आह्वान कर मूर्ति को एक स्वायत्त व्यक्ति घोषित कर दिया. न्यायाधीशों ने साफ तौर से 19वीं सदी में बने एंग्लो-अमेरिकी कंपनी कानून का बेतरतीबी से इस्तेमाल किया. ये उनके हिंदू धर्म की अपनी समझ पर आधारित था जिसकी जटिलताओं से वो अनभिज्ञ थे. इंग्लैंड संयुक्त स्टॉक कंपनी का जन्मस्थान था, सन् 1600 में बनाई गई ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ इसका प्रमुख उदाहरण है. 20वीं सदी के शुरुआत में ब्रिटिश और अमेरिकी कानून ऐसी कंपनियों को पूरे तरह से एक “व्यक्ति” मानते थे जिसके पास संपत्ति, करार और मुकदमा करने का अधिकार था. प्राइवी काउंसिल ने फैसले देने में विश्वास के मामलों में व्यापार को नियंत्रित करने के कानूनों का आसानी से इस्तेमाल किया.

दरअसल ब्रिटिश न्यायविद ओरिएंटलिस्ट नीति के लगभग दो सदियों तक उत्तराधिकारी थे. वहीं भारत पर धार्मिक भावनाओं और अपने मूल निवासियों के रीति-रिवाजों के अनुसार शासन किया गया था. 1841 में ऐसा तब हुआ, जब ईसाई मिशनरियों में "मूर्तिपूजा" पर मचे रोने पीटने के कारण इसे उलट दिया गया था. ईस्ट इंडिया कंपनी के लोगों ने खुद को मंदिर के मामलों में सक्रिय रूप से शामिल कर लिया था. बार्ड कॉलेज में धर्म और एशियाई अध्ययन के प्रोफेसर रिचर्ड डेविस इसे अपनी 1997 की किताब ‘लाइव्स ऑफ इंडियन इमेजेस’ में लिखते हैं, उन्होंने “मंदिर का राजस्व इकट्ठा किया और फिर से बांट दिया, अनुष्ठान विशेषाधिकार से जुड़े विवाद पर मध्यस्थता की, धार्मिक निधि की देख रेख की, पुरानी इमारतों का पुनर्निमाण किया, देवता को तोहफे दिए और और मंदिर के प्रमुख त्यौहारों में सार्वजनिक रूप से भाग लिया. संक्षेप में, उन्होंने पूरी तरह से भारतीय संप्रभुओं की भूमिका अपना ली.” ऐसी खिचड़ी को फिर हिंदू रीति-रिवाजों और प्रथाओं के साथ सजाया जाता है और माना जाता है कि यह इतनी अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है कि “अधिकारियों का उल्लेख करने” की कोई जरूरत ही नहीं है. यह बेहद अद्भुत विडंबना है कि अंग्रजों के जमाने का ये कानून अब भारतीय न्यायशास्र का आधार बन गया है और हिंदू राष्ट्रवादी इसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं.

ऐसी कई महत्वपूर्ण बाते हैं जिनकी वजह से ‘हिंदू मूर्तियों का एक व्यक्ति होना’ किसी कंपनी के होने जैसा नहीं है. हालांकि दोनों गैर-मानवीय संस्थाएं हैं जिन्हें कानून द्वारा आधे-व्यक्ति का "अधिकार" प्राप्त होता है, फिर भी अंतर तो है. एक मूर्ति के उलट कॉर्पोरेट एजेंडा मनुष्यों के लिए अपरिहार्य (जिसे बदला नहीं जा सकता) नहीं है. मूर्तियों के उलट कंपनियां दरअसल हाड़ और मांस से बने शेयरधारकों के लिए उत्तरदायी हैं.

जब भगवान की बात आती है तो लोकप्रिय और दार्शनिक हिंदू धर्म के बीच मौजूद इससे जुड़े तनाव को सुलझाया नहीं जा सका है. यह लिखित इतिहास में मूर्ति पूजा की शुरुआत और वेदों के रूढ़िवादी रक्षकों की ओर से कड़वे विरोध का सामना करने से शुरू होता है.

जैसा कि जर्मन भाषाविद् मैक्स मुलर ने कहा, "वेदों के धर्म में मूर्तियों के बारे में कुछ नहीं है." वैदिक काल में देवताओं की पूजा यज्ञों, बलि चढ़ाने, मंत्रों, पवित्र शब्दों आदि के माध्यम से की जाती थी. इसका मतलब था कि अनुष्ठान समारोह कहीं भी आयोजित किए जा सकते हैं और भगवान का किसी मूर्ति से कोई लेना देना नहीं था. देवताओं को अपने दिव्य निवास से नीचे आकर यज्ञों में भाग लेना होता था और उनसे बलि और पेय का आनंद लेने की उम्मीद की जाती थी.

ईसवी की शुरुआत के दौरान ओपन-एयर वैदिक वेदियों ने छवियों और देवताओं की मूर्तियों के साथ स्थायी संरचनाओं को रास्ता देना शुरू किया जो काफी हद तक इंसानों जैसी लगती थीं. भक्तों को अब अपने नए सांसारिक घरों में स्थायी रूप से रहने वाले देवताओं के इन घरों का दौरा करना होता था. पहली मान्यता प्राप्त हिंदू मूर्तियां दूसरी शताब्दी की है. धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से, "मंदिर हिंदुत्व"-  रिचर्ड डेविस द्वारा दिए गए एक शब्द का उपयोग करके इसकी व्याख्या करें तो- वैदिक, हिंदू धर्म पर हावी होना शुरू हुआ. विद्वानों ने इसके कई कारण बताए हैं, उनमें प्रमुख कारण यह है कि इसे बौद्धों और जैनों की नकल बताया गया, जिन्होंने अपने संस्थापकों की छवियां बनाना शुरू की थीं. द्रविड़ या शूद्र देवताओं और अहिंसा के सिद्धांत का पुनर्मूल्यांकन इस उल्लेखनीय बदलाव के संभावित कारणों के तौर पर पेश किया जाता है.

हालांकि, हिंदु्त्व मंदिरों को उन लोगों से कठोर प्रतिरोध का सामना करना पड़ा जिन्होंने सदियों से वैदिक वेदियों में बलि चढ़ाने की प्रथा जारी रखी थी. उनका विपक्ष उन खतरों पर आधारित था, जो मंदिरों से उनकी आजीविका और प्रतिष्ठा को थी. अगर पूजा करने वालों के पास मूर्तियों के सहारे सीधे भगवान से मिलने की व्यवस्था होगी, तो वो महंगे वैदिक अनुष्ठानों पर खर्च करने की परेशानी क्यों उठाना चाहेंगे, या आश्रम और गुरुकुल में निवेश करना जारी रखेंगे, जहां वैदिक शिक्षा जिंदा को रखा गया था? वैदिक अनुष्ठानों का संचालन करने वाले लोगों को दी जाने वाली बेहद अच्छी दक्षिणा अब उन पुजारियों के पास जा रही थी जो मंदिर में स्थापित मूर्तियों की देखभाल में लगे थे. ‘मनुस्मृति’, मंदिर के पुजारियों को डॉक्टर, कसाई, अभिनेता, गायक, जुआरी, शराब पीने वाले, बौद्ध और अन्य नास्तिकों की उस जमात में रखती है, ‘जो लूटते हैं’- इन सभी का त्याग किया जाना चाहिए. शिकायती लहजे में मनु कहते हैं कि उनकी तरह जो दुकानदारी के सहारे रहते हैं, मंदिर का पुजारी धर्म के बजाए अपने फायदे के लिए ज्यादा काम करता है.

लेकिन संरक्षण के लिए सिर्फ प्रतिस्पर्धा की तुलना में ज्यादा चीजें दांव पर थीं. विशेष रूप से पुराण-मीमांसा में प्रशिक्षित रूढ़िवादी वैदिक वेद के शब्दों को आत्मनिर्भरता यानी स्वयं में परिपू्रण रूप में देखते थे. उनका मानना ​​था कि वैदिक बलिदान अगर सही ढंग से मंत्रों के उच्चारण के साथ किए जाएं तो इससे एक अपूर्व पैदा होता है जिससे मनमाफिक सांसारिक नतीजे हासिल होते हैं. यह पुराण-मीमांसा स्कूल के प्राचीन विद्वान थे, जैसे तीसरी शताब्दी में जैमिनी और पांचवीं शताब्दी में सबारा से लेकर नौवीं शताब्दी में मेधातीथी तक. जिन्होंने देवताओं पर कट्टरपंथी हमला शुरू किया जिनके बारे में माना जाता था कि वो शारीरिक रूप ले सकते हैं. यह मिमांसा के प्रतीकात्मक ग्रंथ हैं जिन्हें मूर्तियों के न्यायवादी व्यक्तित्व पर सवाल उठाने और समझने के लिए भारतीय न्यायविदों को फिर से खोजना होगा.

मिमांसा इस बात से इनकार करता है कि देवताओं को शरीर, स्वतंत्र इच्छा या संपत्ति के मालिक होने का अधिकार है. वेदों के भजन, देवताओं को इस तरह से वर्णित करते हैं जैसे कि वो इंसानों की तरह खाते पीते और इसका आनंद लेते हैं. मिमांसा जो इन ग्रंथों की व्याख्या के लिए है, उसने इन छंदों की पूरी तरह से रूपक के रूप में व्याख्या की है. ऐसे में जब एक वैदिक भजन में गाया जाता है कि “हे इंद्र, मैं आपका हाथ पकड़ता हूं” साबारा इस बात पर जोर देता है कि इसका मतलब सिर्फ यह है कि “हम इंद्र पर निर्भर हैं.” साबारा के मुताबिक इंद्र कोई व्यक्ति नहीं है बल्कि केवल अपने नाम की ध्वनि (शब्द) मात्र हैं. यदि दिव्यता सिर्फ बिना आकार वाली एक ध्वनि है, तो वह खुद को एक मूर्ति में नहीं बदल सकती, ना तो वह खा-पी सकती है और अवतार भी नहीं ले सकती. दूसरी इच्छा: यदि देवता केवल रूपक हैं, तो इस परिभाषा के अनुसार, उनकी इच्छा नहीं हो सकती. वे ऐसा कुछ भी कहने में असमर्थ हैं जैसे कि "ये मेरा है." अंतत: स्वामित्व: मेधातिथि के मुताबिक स्वामित्व, एक मालिक और एक वस्तु के बीच एक रिश्ता है. इस रिश्ते में अहम ये है कि जो चीज सवालों के घेरे में है “उसके साथ कोई जैसा चाहे वैसा कर सकता है.” लेकिन वो कहते हैं कि भगवान “धन का इस्तेमाल आनंद के लिए नहीं करते हैं, वो इसकी रक्षा के लिए स्वयं नजर भी नहीं आते हैं.” देवताओं को खुश करने के लिए भक्त उन्हें उनको उपहार में संपत्ति देने की चाह रख सकते हैं, लेकिन देवता किसी ऐसी संस्था की तरह नहीं है जो उनके लिए निर्धारित संपत्ति के साथ एक मालिक के रूप में व्यवहार कर सकें. इस अनाधिकृत संपत्ति के मालिक अगर भगवान नहीं हैं तो फिर कौन है? आश्चर्य की बात नहीं है कि एक रूढ़िवादी ब्राह्मण होने के नाते मेधातिथी ने यह निष्कर्ष निकाला है कि "देवताओं की चीजें" वास्तव में वो चीजें हैं जो "उच्चतम वर्ग" से संबंधित हैं, जिनमें उनके जैसे लोग शामिल हैं.

कई अन्य टिप्पणीकारों ने मेधातिथी के कहे का पालन किया और स्वामित्व की प्राथमिक भावना (जो अधिकारों और कर्तव्यों की एक व्यक्तिपरक भावना के साथ आता है) और देवताओं द्वारा एक माध्यमिक, या काल्पनिक, स्वामित्व के बीच किसी भी समानता के खिलाफ जोरदार तर्क दिया. फिर भी ये सभी अच्छे तर्क जनता की भक्ति वाली धार्मिकता के ज्वार को रोकने में नाकाम रहे जिन्होंने आज भी मंदिरों में स्थापित देवताओं को अपनी आशा, प्रार्थना और उपहार देना नहीं छोड़ा है.

बीसवीं शताब्दी में मिमांसा संदेहवाद ने भारतीय न्यायशास्त्र में पुनर्जागरण का अनुभव किया, इसके लिए आशुतोष मुखर्जी जैसे विद्वान का धन्यवाद किया जाना चाहिए, जो 1904 से 1923 तक कोलकाता हाई कोर्ट के जज रहे. 1909 में भूपतिनाथ समरीतितीर बनाम राम लाल मैत्रा की मिसाल बन जाने वाले मामले में मुखर्जी ने शाब्दिक अर्थ में देवताओं को न्यायिक व्यक्ति घोषित करने में तेजी बरतने से सावधान रहने को कहा था. उन्होंने संपत्ति से जुड़े हिंदू कानूनों की दयाभाग प्रणाली को फिर से देखा और पुराने मीमांसा ग्रंथों को दोबारा ये जानने के लिए गहनता से देखा कि क्यों देवताओं को मिले उपहार, किसी व्यक्ति को मिले उपहार के रूप में एक ही कानूनी चीज नहीं है. भूपतिनाथ मामले में उनके फैसले ने 1956 में वेंकटराम अय्यर द्वारा लिखित सुप्रीम कोर्ट के एक और प्रमुख फैसले देवकी नंदन बनाम मुरलीधर के लिए आधार तैयार किया.

दयाभाग के विचार वाले कानून के अनुसार, उपहार देना दो चरणों की प्रक्रिया है. वह व्यक्ति, जो उपहार देता है उसे अपने स्वामित्व को त्यागना पड़ता है और पाने वाले को अगला कदम उठाकर इसे स्वीकार करना पड़ता है. जब तक उपहार पाने वाला इसे अपनी चीज के रूप में स्वीकार नहीं करता है, तो उपहार विना स्वामित्व की चीज बना रहता है.

यह देवताओं को दिए जाने वाले उपहारों की समस्या का केंद्र है. भगवान को अपनी संपत्ति समर्पित करने के लिए अनुष्ठान (संकल्प) करने के बाद, दाता अपने अधिकारों का त्याग कर देता है. लेकिन दूसरी पार्टी, यानी ‘देवता या मूर्ति’ आगे आकर और यह कहकर प्रक्रिया पूरी नहीं कर सकते कि "हां, मैं आपका उपहार स्वीकार करता हूं और अब से यह मेरा है." देवता उसी कारण ऐसा नहीं कर सकते हैं जिस कारण से सबारा, मेधातिथी जैसों को परेशान किया था. देवता एक संवेदनशील प्राणी नहीं हैं. जैसा कि आशुतोष मुखर्जी कहते हैं, ऐसे में देवता को दिए गए उपहार के लिए एक “अनोखी स्थिति” उत्पन्न हो जाती है. इसके पीछे साधारण सा कारण यह है कि "मालिक अपने अधिकार से मुक्त हो जाता है," जो एक तथ्य है लेकिन "देवता इसे स्वीकार नहीं कर सकते."

जहां तक कानून की बात है इसकी वजह से कई समस्याएं पैदा हो जाती हैं. जैसा कि भगवान इस पर अपना दावा नहीं कर सकते. ऐसे में सवाल पूछा जा सकता है कि देवताओं के लिए मौजूद संपत्तियों का मालिक कौन होना चाहिए? जवाब साफ है- ऐसी बिना मालिक वाली संपत्ति राज्य की होती हैं. हिंदू कानूनी परंपरा में, जैसा कि भूपति में मुखर्जी तर्क देते हैं, देवगृह या मंदिर की सुरक्षा राजाओं के प्राथमिक कर्तव्यों में से एक है. आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीति में राज्य, पूजा के स्थानों के संरक्षक और रखवाले बन जाते हैं और उन्हें सार्वजनिक ट्रस्ट के रूप में चलाते हैं. फिर भी अगर अदालतें पुराने मीमांसा के संदेह को स्वीकार करती हैं, तो वो भक्तों की धार्मिकता का सम्मान कैसे कर सकती हैं, जो ईमानदारी से मानते हैं कि देवता उनके द्वारा लाए गए उपहारों के अनुग्रह का आनंद लेते है? नागरिकों की धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करना भी भारतीय राज्य का प्राथमिक कर्तव्य है. भक्तों की भावनाओं के साथ किसी तरह की चाल को लेकर इसे सतर्क रहना चाहिए. फिर जनता के विश्वास से मेल खाने वाली बात से ये कैसे इनकार कर सकते हैं कि धार्मिक दान देवताओं के हैं?

इस मामले में भूपति और देवकी नंदन ने जो सफलता हासिल की है वह ये है- दान का आध्यात्मिक-लाभ, भगवान के लिए कुछ मूल्यवान छोड़ने के काम में छुपा है. दान ही आध्यात्मिक रूप से फलदायक है. मूर्ति को भक्तों के उपहारों का मालिक नहीं होना चाहिए बल्कि उनके पवित्र उद्देश्यों का प्रतीक होना चाहिए. जैसा कि अय्यर ने देवकी नंदन के फैसले में कहा:

सबारा के भाष्य में लिखी बातों और मेधातिथि के मनु की समीक्षा के मुताबिक भगवान संपत्ति से कोई आनंद नहीं उठाते हैं और उन्हें संपत्ति का मालिक सिर्फ ‘अलंकृत रूप में’ कहा जा सकता है. मूर्ति को दिए गए संपत्ति के उपहार का आशय भगवान को कोई फायदा पहुंचाना नहीं बल्कि पूजा करने की इच्छा रखने वाले लोगों के लिए अवसर और सुविधाएं प्रदान करके आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करना है.

यह भूपति के पहले फैसले से मेल खाता है कि भले ही मूर्तियों को मालिक नहीं माना जा सकता है, लेकिन जिस पवित्र उद्देश्य ने भक्तों को आध्यात्मिक योग्यता प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया, वह समर्पण के कार्य के माध्यम से भी उन्हें मिल सकता है. जैसा कि जस्टिस लॉरेंस जेनकिंस इस बारे में कहती हैं, “पवित्र उद्देश्य अभी भी विरासत है, छवि की स्थापना केवल वह तरीका है, जिसके सहारे पवित्र उद्देश्य को प्रभाव में लाया जाना है.”

मध्ययुगीन मंदिरों के शिलालेख सबसे बड़ी संख्या बताते हैं कि भक्त के लिए मूर्तियों को जमीन, सोने और गहने देने के क्या मायने हैं. इन ग्रंथों के आधार पर दाताओं ने स्पष्ट रूप से आशा व्यक्त की कि देवता अपने उपहारों को ईमानदारी से स्वीकार करेंगे. उनके लिए देवता उनके उपहार के मालिक थे, उपहार असीम हो सकते हैं. उदाहरण के लिए तिरुपति मंदिर को 1456 और 1570 के बीच विजयनगर शासकों द्वारा सौ से अधिक गांवों और बड़ी रकम के साथ संपन्न किया गया था. राजाओं के अलावा, अमीर व्यापारियों, मंदिर कार्यकर्ताओं, तीर्थयात्रियों और साधारण भक्तों ने उदार दान किए. उपहारों का प्राथमिक उद्देश्य आध्यात्मिक योग्यता अर्जित करना, इच्छा पूरी करना या यहां तक ​​कि पापों को समाप्त करना था. समकालीन सबूत इस ओर इशारा करते हैं कि ज्यादातर हिंदुओं का मानना ​​है कि मूर्तियों के पैरों पर वो जो भी रखते हैं वह देवताओं का हो जाता है. आम भावना यही है कि कानूनी परिषद कानूनी अधिनियम जैसे फैसले जब वे मूर्तियों को न्यायवादी व्यक्ति घोषित करते हैं तो, उनकी रक्षा करने का चयन करते हैं.

मूर्ति के प्रति इस कानूनी उदारता की समस्या के दो प्रभाव होते हैं, एक व्यावहारिक और दूसरा धार्मिक. मूर्तियों को जमीन के कानूनी मालिकों को बनाना और जमीन को एक न्यायवादी व्यक्ति बनाना सभी प्रकार के दुरुपयोग और धोखाधड़ी के लिए रास्तों को खोलता है जैसे कि सांप्रदायिक तनाव. धार्मिक समस्या यह है कि लोकप्रिय हिंदू भावना का हिंदू कानूनी सिद्धांतों से विरोधाभास है. यह विरोधाभास न्यायशास्त्र के पश्चिमी और हिंदू सिद्धांतों से परिचित भारतीय न्यायविदों के लिए स्पष्ट था. अहम फैसलों ने निष्कर्ष निकाला है कि देवताओं के नाम पर किए गए दान के साथ स्वामित्व का संबंध स्थापित करने की क्षमता में कमी है, इसलिए केवल पिकविकियन भावना में देवता न्यायवादी व्यक्ति हो सकते हैं. एससी बागची ने अपनी 1931 की किताब हिंदू देवताओं की न्यायवादी व्यक्तित्व में लिखा है, “देवता, अपनी आध्यात्मिक शक्ति के बावजूद न्यायिक रूप से अक्षम हैं, मूर्ति वहां है, क्योंकि धर्म उसकी उपस्थिति की मांग करता है. लेकिन अदालतों में ये सब नहीं चलेगा.” कानून जिस बात की रक्षा कर सकता है वो दाता का पवित्र इरादा और आध्यात्मिक उद्देश्य है जो अपनी संपत्ति को मूर्ति को उपहार देता है, लेकिन मूर्तियों के मालिकाना हक का नहीं.

लेकिन क्या होगा, अगर भक्तों के उपहार वास्तव में देवताओं के स्वामित्व में नहीं हों लेकिन उन्हें त्याग के प्रतीकों और उन लोगों की भक्ति का रूप माना जाए जो आध्यात्मिक उत्थान, मन की शांति या ऐसे किसी पवित्र उद्देश्य के लिए आए थे जो उन्हें प्रेरित करता है. इसके लिए हमें उस लेंस को बदलने की आवश्यकता होगी जिसके माध्यम से हम ईश्वर को एक व्यक्ति के रूप में देखते हैं और इसे बदलकर संपत्ति के अधिकारी की जगह एक प्रतीक के रूप में उन्हें देखना होगा, जिसके पास भक्त, आध्यात्मिकता की तलाश में आता है. क्योंकि देवता की "इच्छा" और "रुचियां" सिद्धांत रूप से मनुष्यों के लिए उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए भक्तों के इरादे पर ध्यान केंद्रित करना समझ में आता है.

परिप्रेक्ष्य में इस तरह के बदलाव से, न केवल देवताओं को भौतिक चीजों में उनके उलझने से मुक्ति मिलेगी और ये हमें विश्वास और उस राजनीतिक उद्देश्यों के बीच अंतर करने की इजाजत देगा जो विश्वास के नाम पर अपनी रोटियां सेंक रहे हैं.

अगर मूर्तियां पवित्र उद्देश्य की प्रतीक हैं तो राम लला किस चीज का प्रतीक है? ये किसी भी शक के परे जाकर साबित किया जा चुका है कि बाबरी मस्जिद में राम लला की मूर्ति की स्थापना एक योजनाबद्ध षड्यंत्र के तहत की गई थी. ऐसा हो सकता है कि वो साधु और मजिस्ट्रेट जिन्होंने मूर्तियों को मस्जिद में रखवाने के प्लान को अंजाम दिलवाया था, वो अपने निजी जीवन में पवित्र लोग हों, लेकिन जो षडयंत्र उन्होंने रचा, उसमें कुछ भी पवित्र नहीं था या उस माध्यम में भी जो उन्होंने इसे अंजाम देने के लिए चुना. यह वही मूर्ति है जो उन्होंने मस्जिद में तस्करी करवाई थी और राम-भक्त अब इसे भव्य मंदिर में स्थापित करना चाहते हैं, उस मंदिर में जिसे वे मस्जिद के खंडहरों पर बनाना चाहते हैं. इन सब में पवित्रता या आध्यात्मिकता कहां है? दरअसल, हिंदुत्व ब्रिगेड ने राम लला की मूर्ति को अपने बहुपक्षीय राजनीतिक परियोजना का प्रतीक बना दिया है.

सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि देवताओं के व्यक्तित्व की एक दोषपूर्ण और कॉर्पोरेट शैली की समझ ने ऐसा होने की अनुमति दी है.