“मनरेगा में हमें यह सरकार अब मुश्किल से बीस दिन ही काम दे रही है. जब हमने मनरेगा में काम करना शुरू किया था तो किसी साल 50-60, तो किसी साल 80 दिनों तक हमें अपने गांव में ही काम मिल जाता था. पर, हमें तो अपना गुजारा करने के लिए साल के सभी दिन काम चाहिए न. इसलिए, कुछ दिन हम अपने खेत और कुछ दिन बड़े किसानों के खेतों में मजूरी करते हैं. फिर भी पूरे साल काम नहीं मिलने से हमारा हाथ तंग ही रहता है. एक तो सरकार आजकल मनरेगा में काम दे नहीं रही है, वहीं अगर खेत मजूरी से भी पड़ता (आमदनी) न पड़े तो जीना मुश्किल हो जाएगा क्योंकि हम अपनी थोड़ी-बहुत जमीन पर थोड़ा-बहुत अन्न उगाते हैं. बाकी कुछ दिन बड़े किसानों के यहां खेत मजूरी करके खा-कमा लेते हैं पर कई बड़े किसान अब कह रहे हैं कि सरकार ने जो कानून बनाए हैं उनसे उन्हें ही खाने-कमाने के लाले पड़ जाएंगे. तो फिर हम कहां जाएंगे?”
यह चिंता है छत्तीसगढ़ श्रमिक मंच से जुड़ीं दुर्ग जिले के झोला गांव की मनरेगा मजदूर रीना देशमुख की. पिछले दिनों दुर्ग में मजदूरों का प्रांतीय प्रतिनिधि सम्मेलन आयोजित हुआ था. इसमें मांग की गई थी कि केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार मनरेगा के तहत सभी पंजीकृत मजदूरों को 100 दिनों के काम की गारंटी सुनिश्चित करे. छत्तीसगढ़ में मनरेगा के अंतर्गत 20 लाख से अधिक पंजीकृत मजदूर हैं.
देखा जाए तो यह केवल छत्तीसगढ़ के लाखों मजदूरों की समस्या भर नहीं है. इस बारे में मनरेगा कल्याण संघ के नेता राजकुमार गुप्ता बताते हैं, "पूरे देश के ग्रामीण मजदूरों का यही हाल है. भारत में करोड़ों मजदूर हैं जो खेतों में भी काम करते हैं और खेतों के साथ-साथ मनरेगा के तहत भी मजदूरी करते हैं. इसमें एक से दो एकड़ वाले ऐसे छोटे किसानों की संख्या सबसे ज्यादा है. ऐसे किसानों द्वारा परिवार चलाना मनरेगा और खेती से संभव नहीं है बल्कि दोनों में पर्याप्त काम करते हुए संभव है. लेकिन, अब मनरेगा से मजदूरी मिल नहीं पा रही है इसलिए मजदूर भी समझ रहे हैं कि यदि किसान के पास ही पैसा नहीं रहेगा तो उसके पास कहां से आएगा. इसीलिए, मजदूर दिल्ली बार्डर स्थित किसानों के धरना-स्थलों पर हों या न हों, वह जहां-जहां संगठित हैं वहां-वहां नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन का समर्थन कर रहा है." जाहिर है कि भारत जैसे कृषि-प्रधान देश में किसानों की संपन्नता और विपन्नता से ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था निर्धारित होती है. लिहाजा, खेतिहर मजदूरों के अलावा बढ़ई, लुहार, कुंभार, दर्जी और पशुपालक परिवारों के भी आर्थिक हित किसानों की आमदनी से जुड़े हैं. यदि खेती से गांवों के किसानों को उनकी उपज का न्यूनतम मूल्य भी मिला तो परोक्ष रुप से इसका लाभ पूरे समुदाय को मिलेगा. इससे उलट यदि किसान को उसकी उपज का न्यूनतम मूल्य भी नसीब नहीं हुआ तो परोक्ष रुप से पूरे गांव के अन्य परिवारों की माली हालत तंग होगी.
यही वजह है कि मनरेगा कल्याण संघ की तरह देश भर में कई मजदूर संगठन किसानों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी को कानूनी जामा पहनाने की मांग का समर्थन कर रहे हैं क्योंकि इन संगठनों को लगता है कि यदि ऐसा हुआ तो इसका लाभ उस एक एकड़ वाले छोटे किसानों भी मिलेगा जो बड़े किसानों के खेतों में मजदूरी करता है. लेकिन, प्रश्न है कि क्या बड़े किसानों की आमदनी बढ़ेगी तो खेती मजदूरों की मजदूरी बढ़ेगी? इस बारे में राजकुमार गुप्ता कहते हैं, "छत्तीसगढ़ में तो किसानों की आमदनी बढ़ने से मजदूरी भी बढ़ी है. यहां कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार ने किसानों का कर्ज माफ किया, राजीव गांधी किसान न्याय योजना के तहत सालाना 10000 रुपए की प्रोत्साहन राशि दी और 2500 रुपए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बड़े पैमाने पर धान खरीदी की. इससे किसानों के पास काफी पैसा आया तो मजदूरों की मजदूरी भी 110-120 रुपए दिन से बढ़कर 150-160 रुपए दिन तक हो चुकी है." लेकिन, इसके विपरीत यदि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर अपनी उपज बेचनी पड़ी तो खेतिहर मजदूर और छोटे किसानों को नुकसान होगा क्योंकि उनके पास तो उपज रखने की जगह नहीं होती इसलिए औने-पौने दाम पर वे खुले बाजार में व्यापरियों को तुरंत अपनी उपज बेच देंगे. इस दौरान यदि उन्हें हजार से 500 रुपए तक का नुकसान उठाना पड़ा तो एक खेतिहर मजदूर या छोटे किसान के लिए यह बहुत बड़ी रकम होगी.
वहीं, कृषि मामलों के जानकार राजकुमार गुप्ता का मानना है कि खेतीबाड़ी पर जब संकट अत्याधिक गहराता है तो उसका सबसे बुरा असर छोटे किसान या खेतिहर मजदूरों पर ही पड़ता है. इसका कारण यह है कि ऐसी स्थिति में बड़ा किसान तो किसी तरह अपना घाटा सहन कर लेता है लेकिन घाटे से उभरने के मामले में कई बार एक या आधे एकड़ के छोटे किसानों को अपनी जमीन तक बेचनी पड़ती है. इस बारे में अखिल भारतीय किसान सभा के नेता बादल सरोज बताते हैं कि यदि कृषि कानून लागू हुए तो छोटे किसानों पर इसकी मार पड़ने से वे अपनी जमीन बेचने के लिए और भी अधिक मजबूर हो सकते हैं. वह कहते हैं, "नए कानून में इमरजेंसी स्थिति को छोड़कर कारपोरेट को उनके अपने गोदामों में असीमित अनाज रखने की छूट दी गई है. इसका मतलब यह है कि कारपोरेट के गोदामों में भरपूर माल रहेगा. यानी जब उसके पास माल की कमी ही नहीं रहेगी तो स्पष्ट है कि किसानों से उपज खरीदने के मामले में कारपोरेट की डीलिंग पावर भी काफी अधिक रहेगी. दूसरी तरफ, अपनी फसल की सौदेबाजी के मामले में किसानों को डीलिंग पावर बेहद कम हो जाएगी. इस हाल हमें मालूम है कि बड़े और ज्यादातर छोटे किसान (खेतिहर मजदूर) अपना माल कहीं रख नहीं पाते हैं. इसलिए वे तुरंत बहुत सस्ती दर पर कारपोरेट को अपना माल बेचने के लिए मजबूर होंगे."
इसी तरह, कुछ जानकार आंदोलन में बड़े किसानों के साथ मजदूरों के समर्थन के पीछे नए कृषि कानूनों के स्वरूप को भी एक कारण के तौर पर देख रहे हैं. इसकी वजह यह है कि नए कानूनों से बड़े, मझौले और छोटे किसान से लेकर खेतिहर मजदूर तक सभी कहीं न कहीं सीधे-सीधे प्रभावित होंगे. इस बारे में कृषि नीतियों की अच्छी समझ रखने वाले विनीत तिवारी बताते हैं कि ठेका आधारित खेती के मामले में तो किसान चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, डीलिंग के मामले में कारपोरेट से तो बड़ा नहीं हो सकता है. वह कहते हैं, "मान लीजिए किसी भी कारण से कारपोरेट ने किसान के मांगे दाम पर उसका अनाज खरीदने से मना कर दिया तो हर श्रेणी के किसान के लिए कारपोरेट लॉबी के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ना आसान नहीं रह जाएगा. कहने का मतलब यह है कि नए कानून छोटे किसान या खेतिहर मजदूरों को भी कहीं से राहत नहीं दे रहे हैं. इसलिए खासकर किसी संगठन से जुड़े मजदूर में इस लंबे आंदोलन के कारण यह चेतना आ रही है कि केंद्र सरकार के इन तीन कानूनों के मुद्दे पर उसे बड़े किसानों के साथ क्यों खड़ा होना चाहिए."
हालांकि, एक राजनीतिक तबका ऐसा भी है जो किसान आंदोलन में बड़े किसानों के विरुद्ध खेतिहर मजदूरों को खड़ा कर रहा है. ऐसे लोगों की यह दलील है कि बड़े किसान और खेतिहर मजदूर परस्पर एक-दूसरे के विरुद्ध होते हैं और कई बार बड़ा किसान खेतिहर मजदूर का शोषण करता है. लेकिन यदि इस दलील को ठेका आधारित कृषि के परिपेक्ष्य में देखें तो स्थिति कहीं बदत्तर दिखाई देती है. इस बारे में अखिल भारतीय खेतिहर मजदूर संघ से जुड़े विक्रम सिंह कहते हैं, "जब सरकार ने कानून बनाया है तो वह चाहेगी कि इसे अच्छी तरह से लागू भी कराया जाए. ऐसे में सरकार ठेका अनुबंध आधारित कृषि को बढ़ावा देने के लिए बीज, खाद, उर्वरक और बिजली पर मुहैया सहायता राशि में और अधिक कटौती करती जाएगी. ऐसे में जब किसान के लिए खेती और अधिक मंहगी होगी तो छोटे से छोटा किसान मजबूर होकर कारपोरेट के साथ अनुबंध करेगा. अब हर कारपोरेट चाहेगा कि खेती में अधिकतम लाभ अर्जित हो. तब वह भारी-भरकम मशीनों का भी इस्तेमाल करेगा. ऐसी स्थिति में बड़ी संख्या में खेतिहर मजदूर खाली हाथ हो जाएंगे."
स्पष्ट है कि ठेका आधारित कृषि कार्यों में जब मशीनीकरण को बढ़ावा मिलेगा तो यह कहना मुश्किल होगा कि किसी मजदूर को साल में कितने दिन काम मिलेगा. खेत में फसल की सिंचाई से लेकर कटाई तक जब विशालकाय मशीनों का चलन शुरू होगा तो खेती का सीजन होने पर भी मजदूरों के लिए मजदूरी का टोटा पड़ जाएगा क्योंकि खासकर फसलों की रुपाई और कटाई के समय खेतिहर मजदूर को सबसे ज्यादा मजदूरी मिलती है. लेकिन, कारपोरेट के साथ अनुबंध होने पर ठेका आधारित कृषि में यह कहना मुश्किल है कि आखिर खेतिहर मजदूरों की मजदूरी कितनी रह जाएगी. इस बारे में विनीत तिवारी कहते हैं, "रुपाई के समय तो बिहार और झारखंड से खासी तादाद में खेतिहर मजदूर पंजाब तथा हरियाणा में मजदूरी करने आते हैं. लेकिन यदि निकट भविष्य में कारपोरेट द्वारा रुपाई के लिए भारत में मशीनें आयतित हुईं तो कई राज्यों से पलायन करने वाले खेतिहर मजदूरों का क्या होगा? दरअसल, अपने यहां छोटा किसान भी खेतिहर मजदूर है जो बड़े किसानों के खेतों में काम करने के लिए पंजाब और हरियाणा जैसे अनाज के सरप्लस उत्पादन वाले क्षेत्रों में हर साल पलायन करता है. यहां सीजन के समय उसे 400 से 600 रुपए दिन तक अच्छी मजदूरी मिलती है. यही वजह है कि पूरे किसान आंदोलन में भले ही आपको बड़े किसान नजर आएं लेकिन खेतीबाड़ी की मौजूदा प्रणाली में छोटे किसानों से लेकर खेतिहर मजदूरों का पूरा कारवां जुड़ा है."
दूसरी तरफ, विक्रम सिंह भी यह मानते हैं कि ठेका आधारित कृषि में खेतिहर मजदूरों के लिए मजदूरी के दिन कम हो जाएंगे. वह कहते हैं, "कारपोरेट तो ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए उन फसलों को उगाने पर जोर दे सकता है जिसमें उसे न्यूनतम मजदूरी देनी पड़े. उदाहरण के लिए, यदि धान उगाने में उसे ज्यादा मजदूरों को मजदूरी देनी पड़ेगी तो वह धान की बजाय दूसरी फसल बोना चाहेगा."