मैंने एबीपी न्यूज से क्यों दिया इस्तीफा : रक्षित सिंह

शाहिद तांत्रे/कारवां

27 फरवरी को एबीपी न्यूज के वरिष्ठ रिपोर्टर रक्षित सिंह ने एक महापंचायत के मंच से एक नाटकीय घोषणा करते हुए चैनल से इस्तीफा दे दिया. वह महापंचायत उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के भूसा गांव में हो रही थी. रक्षित सिंह विरोध प्रदर्शनों को कवर करने के लिए गए थे पर खुद ही कहानी बन गए. उनके भाषण का एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें सिंह कहते हैं, "मेरे मां-बाप ने अपने खून-पसीने की कमाई से पढ़ाया और मैंने इस पेशे को चुना ... क्यों चुना? क्योंकि सच दिखाना था मुझे. लेकिन नहीं दिखाया जा रहा." उन्होंने कहा कि चैनल ने उन्हें महापंचायत में मौजूद लोगों की संख्या को कम करके दिखाने के लिए कहा था. चैनल ने एक बयान में इन आरोपों से इनकार किया.

मार्च के अंत में कारवां के रिपोर्टिंग फैलो सुनील कश्यप और मल्टीमीडिया रिपोर्टर शाहिद तांत्रे ने सिंह से उनके चैनल छोड़ने के कारणों के बारे में बात की. सिंह ने कहा कि कुछ मीडिया घरानों का ''अपना एजेंडा है'' और उन्होंने देश के मीडिया का माहौल बिगाड़ दिया है. बातचीत का संपादित अंश नीचे प्रस्तुत है

मैंने पंद्रह साल पहले एक पत्रकार के रूप में काम करना शुरू किया था. पहले देहरादून में एक अखबार में और फिर राजस्थान पत्रिका में एक साल तक काम किया. मैंने न्यूज टुडे के साथ भी काम किया. मैंने बीकॉम किया था इसलिए मैं कारोबार से जुड़ी रिपोर्ट करता था. लगभग एक साल के बाद दैनिक भास्कर समूह ने एक बिजनेस भास्कर शुरू किया. मैं उसमें शामिल हो गया और पांच साल तक उसके लिए रिपोर्टिंग की. मैं वहां दूरसंचार और ऑटोमोबाइल बीट देखता था और व्यापार और अर्थव्यवस्था की खबरों को भी कवर करता था. उसके बाद मैंने एक समाचार चैनल में काम किया और वहां भी मैं मुख्य रूप से व्यावसायिक समाचार ही देखता था. मैंने लगभग दो साल तक उत्तर प्रदेश को कवर किया. मैंने कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों को भी कवर किया. मैं एक विशेष संवाददाता था.

मैं पिछले 14 से 15 सालों से मीडिया में काम कर रहा हूं और फिलहाल स्वतंत्र पत्रकार हूं. मैं आज सड़कों पर इसलिए हूं क्योंकि मैं अपने लिए जगह बनाने की कोशिश कर रहा हूं.

जब मैंने पत्रकारिता शुरू की थी तो इसका एक मुख्य कारण पेशे से जुड़ी ईमानदारी थी. और इस ईमानदारी से भी ज्यादा खास वह इज्जत थी जो समाज से मिली थी. उस समय मैं दो बार भारतीय सेना परीक्षा के अधिकारी प्रशिक्षण अकादमी के अंतिम चरण में पहुंचा था. उसके बाद मैंने बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन में मास्टर्स की तैयारी की और मैनेजमेंट एप्टीट्यूड टेस्ट में अच्छा स्कोर हासिल किया. मुझे अच्छे एमबीए कॉलेजों में दाखिला मिल रहा था लेकिन इसके बावजूद मैंने पत्रकारिता को चुना इस बात को अच्छी तरह से जानते हुए कि पेशे में आमदनी कम है. भले ही इस नौकरी में कम पैसा है लेकिन समाज में सम्मान मिलता है और यह सम्मान ही काफी है. मैंने तब पत्रकारिता को चुना था और तब से इस पेशे में हूं और भविष्य में भी स्वतंत्र पत्रकारिता करता रहूंगा.

उस दिन मैंने पंचायत में जो कहा वह पूरे मीडिया के माहौल के बारे में सही है. आज मीडिया का माहौल क्या है? कुछ चैनल हैं जो खड़े हैं और जिन बॉर्डरों पर किसान बैठे हैं वहां से दो किलोमीटर दूर रिपोर्टिंग कर रहे हैं. क्या दो किलोमीटर दूर खड़े होकर रिपोर्टिंग की जाती है? जो चैनल खड़े हैं और दो किलोमीटर दूर से रिपोर्टिंग कर रहे हैं उनका एक एजेंडा है. हो सकता है कि वे मुख्यधारा की मीडिया में बहुत बड़ी भूमिका नहीं निभाते हैं लेकिन उनकी वजह से बदनाम हम हुए हैं.

किसान आंदोलन से पहले मैंने अन्ना हजारे के नेतृत्व वाला इंडिया अगेंस्ट करप्शन आंदोलन देखा था. मुझे लगता है कि अन्ना का आंदोलन किसानों के आंदोलन की तुलना में छोटा था. वह अपने समय के लिए एक बड़ी बात हो सकती थी लेकिन इसकी तुलना में शायद वह कुछ भी नहीं था. उसका कवरेज देखें और उसकी तुलना इस किसान आंदोलन की कवरेज से करें. दो महीने तक लोगों को यह भी नहीं पता था कि टिकरी, सिंघू बॉर्डर के अलावा विरोध कितने दूर तक फैल गया; देश में कहां-कहां किसानों के विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. क्या किसानों के विरोध को उस तरह से कवर किया जा रहा है जिस तरह होना चाहिए? सीधा सा जवाब है- नहीं.

जब आप किसानों के बीच जाते हैं, तो उन्हें परवाह नहीं होती कि आप किस ब्रांड का पहचान पत्र ले जा रहे हैं. आप देख सकते हैं कि किसानों के आंदोलन शुरू होने के बाद से कितने ही वीडियो आए हैं, किसानों ने मीडिया वालों के साथ कैसा बर्ताव किया है. और जो शब्द उन्होंने इस्तेमाल किए गए वह किसी भी स्वाभिमानी व्यक्ति के दिल को चुभेंगे. यह मुझे बेहद परेशान करने लगा था. मैंने यह सोचने में बहुत समय लगा दिया कि वे क्या कह रहे थे. लंबे समय तक मैंने कुछ नहीं किया, न ही समझ पाया कि क्या करूं. मुझे नहीं पता था कि मुझे क्या करना है.

आज मामला एकदम आर-पार का है. या तो आप इस तरफ हैं या उस. कोई भी इसके बीच में होना सुनने को तैयार नहीं है. कोई आपको तटस्थ मानने को तैयार नहीं है. आप रिपोर्टिंग के लिए जाते हैं, आप एक वरिष्ठ पत्रकार हैं जिन्हें रिपोर्टिंग पसंद है- आज तक मैंने कभी डेस्क पर काम नहीं किया क्योंकि मैं अपनी नौकरी का आनंद लेता था और अब आप जनता के बीच जाते हैं और आपको मां और बहन की गालियां सुननी पड़ती हैं. यह कैसे हो सकता है? एक ऐसा पेशा जिसे अब तक का सबसे महान पेशा माना जाता था- हर कोई इसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहता रहा है. उस चौथे स्तंभ को अब गालियां क्यों सुननी पड़ रही हैं? मैं ऐसी जगह पर नहीं रहना चाहता था.

इन कुछ मीडिया चैनलों के कारण बाकी सभी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है. मैं इसे झेल रहा था और लोग भी. मुझे लगता है कि मैं अपनी हद तक पहुंच गया था. कुछ मुझसे पहले अपनी हद तक पहुंच गए होंगे, कुछ मेरे बाद भी पहुंच सकते हैं और कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जो इससे बिल्कुल भी परेशान न हों. मैंने वही किया जो मुझे सही लगा.

अगर आप मेरी पुरानी रिपोर्टिंग देखते हैं, जब मैं समाचार पत्रों के साथ काम कर रहा था, तो आप देखेंगे कि मैंने खेती के मुद्दों, कृषि और उससे जुड़ी गतिविधियों पर बहुत कुछ लिखा है. मैंने कभी कोई किसान विरोधी रिपोर्ट नहीं की. आप संभवतः किसानों के खिलाफ क्या कह सकते हैं? किसान की हालत सभी जानते हैं. आज किसान-समर्थक और किसान-विरोधी के बीच इस विभाजन के साथ सभी को हर तरफ से गालियां मिलती हैं. जब आप इस विभाजन में फंस जाते हैं, तो आप क्या करेंगे? या तो आप गालियां सुनते हैं या आप छोड़ देते हैं. मैंने छोड़ने का रास्ता चुना.

आज सभी पत्रकारों को उस लेंस से देखा जा रहा है. कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप क्या करते हैं या आपका काम कितना अच्छा है पर आप उस लेंस में बंधे हैं. लेकिन यह विभाजन एक-दो दिन में नहीं हुआ. आज यह विभाजन राक्षसी अनुपात तक पहुंच गया है. आप ट्रोल आर्मी को देखते हैं, ट्विटर और फेसबुक पर यह विभाजन बिल्कुल स्पष्ट है.

पेशेवर रूप से मैं जिस स्तर पर था और जहां मैं अब हूं, सचमुच मैं सड़क पर आ गया हूं. मुझे फिर से शून्य से शुरू करना होगा और आगे बहुत सारी समस्याएं होने वाली हैं. लेकिन मेरे मन में आखिरकार शांति है. मैंने जो भी किया है उससे संतुष्ट हूं. पिछले दो महीनों से चल रही इस उथल-पुथल से मैं कम से कम अब छुटकारा पा चुका हूं. कम से कम मैं अब इस मीडिया के माहौल के बोझ से नहीं भटक रहा हूं. अब, जब मैं टिकरी या गाजीपुर बॉर्डर पर जाता हूं तो मेरे साथ तिरस्कारपूर्ण व्यवहार नहीं किया जाता.

जब मैं पहली बार दिसंबर में टिकरी बॉर्डर गया था तभी मुझे महसूस हुआ कि यह आंदोलन कितना बड़ा है और उन्होंने इसके लिए कैसे तैयारी की है. इस किसान आंदोलन के कारण गांवों की बुनावट, उनका भाईचारा मजबूत हुआ है और यह सब केवल सोशल मीडिया पर सामने आ रहा है. कोई मुख्यधारा का मीडिया इसे नहीं दिखा रहा है. मीडिया को लेकर अविश्वास दिल्ली के बॉर्डरों पर विरोध स्थलों तक ही सीमित नहीं है. जहां कहीं भी पंचायत या महापंचायत हो रही हैं, हर जगह मीडिया को लेकर तिरस्कार का भाव है. यह तिरस्कार बॉर्डरों या जातियों तक सीमित नहीं है. यह गांवों तक में फैल गया है.

(सुनील कश्यप और शाहिद तांत्रे से हुई बातचीत के आधार पर.)