1992 में आई फिल्म ए फ्यू गुड मेन में का मशहूर संवाद कि "तुम सच्चाई का सामना नहीं कर सकते" उन औसत अमेरिकियों के बारे में था जो चाहते हैं कि उनका देश सुरक्षित और स्वतंत्र दोनों हो लेकिन इस स्थिति के बुनियादी अंतर्विरोधों को नजरंदाज करते हैं.
फिल्म के क्लाइमेक्स में कर्नल नाथन जेसप (जैक निकोलसन) निर्मम यातना देकर एक मरीन को मौत के घाट उतारने के एक मामले में अदालत की सुनवाई के दौरान लोगों से घिरा हुआ है. नौसैनिकों में अनुशासन लाने के उसके तरीके का बचाव करते हुए जेसप ने पूछताछ कर रहे वकील (टॉम क्रूज) से कहता है कि वह इस वास्तविकता को हजम नहीं सकता है कि युवक की मौत दुखद है लेकिन इससे शायद कई जाने बची हैं.
जेसप आरोप लगाता है कि मन की गहराई में हर अमेरिकी जानता है कि एक क्रियाशील सेना उसकी स्वतंत्रता की कीमत है जिसका अलोकतांत्रिक रवैया सत्ता को बनाए रखने के लिए आवश्यक हो जाता है. लेकिन वह इसे अपनी इस सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पाता है. आखिर में जेसप को जेल में डाल कर दर्शकों में यह छाप छोड़ी जाती है कि इस तरह की ज्यादतियों करने वाले या इनका बचाव करने वाले उसके जैसे सेना के अधिकारी कुछ ऐसे बुरे लोगों में से हैं जिन्हें अच्छे लोगों द्वारा हटा दिया जाता है. समीक्षकों और मानवाधिकार संगठनों ने इस फिल्म के बारे में लिखा कि यह एक खुला झूठ है क्योंकि जेसप अपवाद नहीं बल्कि नियम है.
इस फिल्म के भारतीय रूपांतरण शौर्य में जेसप का किरदार के. के. मेनन ने ब्रिगेडियर रुद्र प्रताप सिंह के रूप में निभाया है. वह भी जोर देकर कहता है कि आप हिंदुस्तानी सच्चाई को बर्दाश्त नहीं कर सकता है. सिंह, जिसे कश्मीर में मानवाधिकारों का हनन करते हुए दिखाया गया है, एक इस्लामोफोबिक है, जो दावा करता है कि "मुसलमानों पर भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि वे केवल अपने समुदाय के प्रति वफादार होते हैं." इसलिए किसी-न-किसी को, खुद ब्रिगेडियर को ही- देश के लिए इस खतरे को खत्म करने की जिम्मेदारी लेनी होगी.
एक मामले में दुखद सच्चाई यह है कि एक अलोकतांत्रिक सेना अमेरिका की ताकत को बनाए रखती है. इसकी तुलना में भारत में सच यह है कि एक धर्मांध सेना सभी मुसलमानों को राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर संदिग्ध राष्ट्रद्रोही के रूप में देखती है. केंद्र सरकार के विपरीत दावों के बावजूद यह पूर्वाग्रह कश्मीर में जारी है. शौर्य में, सिंह को कश्मीरियों के खिलाफ उनकी ज्यादतियों के लिए दंडित किया जाता है, एक ऐसी सजा जो वास्तविक भारतीय सेना के किसी भी वरिष्ठ अधिकारी को नहीं मिली है.
फिल्मों का राष्ट्रीय संस्कृति के भंडार के रूप में अध्ययन किया गया है. मनोविश्लेषक सुधीर कक्कड़ हिंदी सिनेमा को एक ऐसा प्रिज्म कहते हैं "जो सिनेमा को चाहने वाले और उसके प्रति समर्पित लाखों पुरुषों और महिलाओं की प्रमुख मनोवैज्ञानिक चिंताओं को दर्शाता है." यह कहानी की समृद्ध और प्राचीन परंपरा का पालन करते हुए कथा और कहानियों के जरिए वास्तविक सामाजिक समस्याओं का समाधान दिखाता है. कक्कड़ के अनुसार हिंदी फिल्में "नई राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक ताकतों द्वारा उत्पन्न संघर्षों का समाधान" पेश करने के लिए नई कहानियां तैयार करती हैं. वह कहते हैं कि फिल्में एक "सामूहिक कल्पना" हैं जो दर्शकों की इच्छाओं को पर्दे पर उतारती हैं, जो अक्सर वास्तविकता से बंधी होती हैं.
कक्कड़ लिखते हैं, "तब, कल्पना/कहानी की शक्ति हमारे बचाव में आती है. हिंदी सिनेमा में उस तरह की कहानियों को दर्शाया जाता है जिस तरह भारतीय लोग दुनिया को बदलने की इच्छा रखते हैं. अतीत का पुनर्निर्माण और भविष्य की खोज इसे और अधिक संतोषजनक बना देता है”.
कक्कड़ यह भी लिखते हैं कि हिंदी फिल्में प्रमुख जाति के हिंदुओं की कल्पनाओं को दर्शाने वाली हिंदू सांस्कृतिक आदर्श की एक विनम्र नमूना हैं. लेकिन वह आदर्श क्या है? हिंदी सिनेमा इसे कैसे आगे बढ़ाता है? वह क्या चीज है जो भारतीय फिल्मों को वैश्विक संस्कृति से अलग करती है? विदेशी फिल्मों के भारतीय रूपांतरण इस विश्लेषण के लिए अच्छ स्त्रोत हैं.
फिल्म निर्माता राकेश रोशन ने एक बार तर्क दिया था कि “विदेशी फिल्मों को फ्रेम-टू-फ्रेम कॉपी करना बिल्कुल भी काम नहीं करेगा. इसके लिए हमारे भारतीय दर्शकों के स्वाद को पहचानने की जरूरत है." ये परिवर्तन भारतीयों की सोच और उनकी सांस्कृतिक आकंक्षाओं को प्रकट करते हैं. अक्सर, ये बदलाव ब्राह्मणवादी मान्यताओं को ही प्रतिध्वनित करते हैं. जिसमें लोकतंत्र को नकारने के अलावा, इसमें मुसलमानों को दानव बनाना, जाति को अदृश्य करना और महिलाओं को नियंत्रण में रखना शामिल है.
हाल ही में आई लाल सिंह चड्ढा को ही लें जो 1994 की हॉलीवुड क्लासिक फॉरेस्ट गंप का आधिकारिक रूपांतरण है. मूल फिल्म एक साधारण से श्वेत व्यक्ति पर आधारित है जिसकी दयालुता अनजाने में अमेरिकी इतिहास को प्रभावित करती है. इस गोरे व्यक्ति का सबसे स्वाभाविक भारतीय विकल्प उत्तर प्रदेश या हरियाणा के एक प्रमुख जाति का हिंदू हो सकता था. लेकिन आमिर खान द्वारा निभाया गया चड्ढा का किरदार ग्रामीण पंजाब का एक सिख व्यक्ति है. यह चुनाव केवल इस तथ्य से प्रेरित प्रतीत होता है कि अमेरिकी पॉप संस्कृति में दक्षिण के गोरे लड़कों को मंद बुद्धि माना जाता है, जबकि भारत में सिखों की बुद्धि को लेकर बने चुटकुले आम बात है.
गंप की बच्चों सी मासूमियत उसे अमेरिकी समाज की नस्लवाद जैसे बुराइयों को दूर करने में भूमिका निभाती है. उनका नाम एक पूर्वज के नाम पर रखा गया था जो श्वेत-वर्चस्ववादी कू क्लक्स क्लान के संस्थापकों में से एक था लेकिन जब उनकी तैनाती वियतनाम में होती हैं तो वह उसी के राज्य के एक अश्वेत व्यक्ति बुब्बा से उनके समुदायों के बीच नस्लीय तनाव और इतिहास को किनारे करते हुए दोस्ती करता है. लाल सिंह चड्ढा में बड़ी आसानी से इस प्रगतिशील सोच को दरकिनार कर दया गया है. बुब्बा को एक दलित के रूप में दिखाया जा सकता था, ताकि दोनों को भारतीय समाज में सबसे व्यापक संरचनात्मक विभाजन को पाटने वाला दिखाया जा सके. लेकिन इसके बजाए, बुब्बा आंध्र प्रदेश का सवर्ण पुरुष होता है. और इसमें भी अधिकांश मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों की तरह जाति को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया जाता है.
यह फिल्म हिंदू संवेदनाओं के अनुरूप अन्य पात्रों से भरी हुई है. गंप की प्रेमिका जेनी, बचपन में दुख झेलने वाली एक युद्ध-विरोधी हिप्पी होती है जो हिंदी रूपांतरण में गलत लोगों की संगत में पड़ी हुई एक महत्वाकांक्षी अभिनेत्री रूपा डिसूजा बन जाती है. जेनी के गोरे पिता उसकी पिटाई और गाली-गलौज करते है, इसके विपरीत, रूपा एक अंतर्धार्मिक विवाह से पैदा हुई संतान है. उसके पिता एक ईसाई है जो उसकी मां को पीटता है. यह अंतर-धार्मिक विवाह और धर्मांतरण के खिलाफ थोड़ा आगे का विचार दिखलाता है. इसी तरह जबकि जेनी एक साम्यवादी बुद्धिजीवी को डेट करती है जो उसका शारीरिक शोषण भी करता है, यह साम्यवाद के प्रति अमेरिकी दृष्टिकोण को दर्शाता है. जबकि रूपा को परेशान करने वाला एक मुस्लिम गैंगस्टर होता है.
फॉरेस्ट गंप में लेफ्टिनेंट डैन का किरदार एक विशेषाधिकार प्राप्त सक्षम व्यक्ति है जो युद्ध में घायल हो जाता है और फिर अपनी विकलांगता के साथ जीने के लिए मजबूर हो जाता है. उसका भारतीय रूपांतरण, मोहम्मद, को पाकिस्तान या कश्मीर के एक सैन्य संगठन के नेता के रूप में दिखाया गया है. फिल्म में उनकी उत्पत्ति अस्पष्ट बनी हुई है. दुश्मन होने के बावजूद चड्ढा युद्ध के दौरान मोहम्मद की जान बचाता है. उनकी दयालुता मोहम्मद को भारत से नफरत करने वाले से एक प्रशंसक में बदल देती है, जो उसके बाद अपन देश मे अपने जैसे अन्य लोगों को शिक्षित करना अपने जीवन का लक्ष्य बना लेता है. यह चित्रण उनकी मुस्लिम पहचान की किसी भी जटिलता को पूरी तरह से गायब कर देता है, चाहे वह पाकिस्तानी हो या कश्मीरी. साथ ही दयालु चड्ढा को भारतीयों के प्रतिनिधि के रूप में पेश करके, भारतीयों को उनके मुस्लिम विरोधी विचारों से मुक्त कर देता है.
मुसलमानों के प्रति हिंदुओं की दूरी के कई कारण हैं, जब 1995 की फिल्म द युजुअल सस्पेक्ट्स को 2005 में भारतीय फिल्म चॉकलेट में ढालते हुए हिंदुत्व प्रचारक निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने तुर्की के एक ड्रग बैरन कीसर सोज को एक आतंकवादी मुर्तजा अरजई में बदल दिया जो दुनिया के किसी भी मुस्लिम देश से हो सकता था. द यूजुअल सस्पेक्ट्स की कहानी सोज के अस्तित्व की विश्वसनीयता पर टिकी हुई है. ड्रग्स के खिलाफ अपने युद्ध के दौरान अमेरिका के राजनीतिक फायदे ने अंतरराष्ट्रीय ड्रग बैरन को एक मास्टरमाइंड बना दिया. इस दौरान भारत के राजनीतिक परिवेश में हमेशा शक्तिशाली मुसलमानों को आशंका भरी नजर से देखा गया है, जिन्हें लेकर अक्सर आतंकवादी संगठनों के भीतर पैठ रखने वाले और पशुवादी प्रवृत्ति के होने का आभास दिया जाता है. 1990 के दशक में यह और तेज हो गया. घृणा का एक बड़ा कारण 1993 में हुए बॉम्बे विस्फोट भी बने. एक अन्य कारण कश्मीर में उग्रवादी आंदोलन का उदय था जिसके लिए पूरी तरह से हिंसक इस्लामवादियों को जिम्मेदार ठहराया गया था. हिंदुओं ने मुस्लिम आतंकवाद से राष्ट्र के लिए एक उपजे खतरे का हवाला देते हुए आतंकवाद निरोधक अधिनियम, 2002 जैसे कठोर कानूनों को उचित ठहराया. इसके साथ 11 सितंबर 2001 की घटनाएं भी जोड़ी गईं : यदि मुसलमान संयुक्त राज्य अमेरिका पर हमला कर सकते थे, तो वे क्या ही नहीं कर सकते?
चॉकलेट में अरजई के चरित्र चित्रण ने इस डर को दुबारा बढ़ा दिया. इरफान खान द्वारा निभाए गए किरदार पिपी ने कहा कि कोई भी मुसलमान, यहां तक कि जो गधे की सवारी करता है, वह ओसामा बन सकता है. फिर वह अपने वकील और दर्शकों से अल कायदा, लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम और फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन के बीच संबंध के बारे में पूछता है. वह दावा करता है कि मुर्तजा अरजई दुनिया के सभी आतंकवादी हमलों को जोड़ने वाली कड़ी है. यह एक ऐसा दावा था जिसे अविश्वसनीय और बेहूदा माना जाएगा क्योंकि भारतीय दर्शकों और फिल्म के काल्पनिक हिंदू वकील का एक सर्वशक्तिमान, आपराधिक मुस्लिम मास्टरमाइंड के अस्तित्व के बारे में समझ पाना संभव नहीं था. यह कहना ज्यादा आसान होता कि वह मुस्लिम या सुपर क्रिमिनल कोई और भी हो सकता है, आपका पड़ोसी, आपका दोस्त, यहां तक कि खुद पिपी भी.
भारतीय सांस्कृतिक दर्शन अक्सर कानून और व्यवस्था विरोधी, तानाशाहा टाइप शासकों को नायकों की तरह देखता है. यह हिंदू आदर्शों के अनुरूप है, जहां धर्म के स्वयंभू रक्षकों में निहित विशेषताएं देखी जाती हैं जो उन्हें न केवल समाज पर शासन करने में बल्कि इसके कानूनों के बाहर कार्य करने में सक्षम बनाती हैं.
1972 की फिल्म द गॉडफादर और 2005 में इसका हिट हिंदी रूपांतरण, सरकार, के एक जैसे दृश्य इस विचार पर सटीक बैठते हैं. टिटुलर गैंगस्टर्स के बेटे माइकल कोरलियोन और शंकर नागरे का सामना उनकी अपनी प्रेमिकाओं से होता है. जब माइकल की प्रेमिका के उसे बताती है कि उसे उम्मीद नहीं थी कि वह भी अपने पिता की तरह बन जाएगा, माइकल वीटो कोरलियोन का बचाव करता है. वह कहता है, "मेरे पिता किसी भी अन्य शक्तिशाली व्यक्ति से अलग नहीं हैं. एक सीनेटर या राष्ट्रपति की तरह किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति की तरह ही हैं.” वह कहता है, "उसके पिता किसी युद्ध छेड़ने वाले राष्ट्रपति की तरह ही अपनी ताकत बरकरार रखने के लिए हत्याएं करते हैं." (फिल्म तब रिलीज हुई थी जब वियतनाम युद्ध चरम पर था. जिससे यह तुलना उस समय की शक्तियों की एक महत्वपूर्ण आलोचना कर रही थी.) के आश्वस्त नहीं लगती है, इसलिए माइकल उसे बताता है कि कोरलियोन परिवार पांच साल में पूरी तरह से वैध होने जा रहा है. फिर वह ऐसा करने की कोशिश में अपना सारा जीवन व्यतीत कर देता है. यहां तक कि जब वे कानून तोड़ते हैं तब कोरलियोन परिवार लोकतंत्र और कानून के शासन को सत्ता का एकमात्र वैध रूप मानता है, उनकी यह अवधारणा त्रुटिपूर्ण भी हो सकती है.
इसके उलट सरकार फिल्म में शंकर स्पष्ट रूप से कहता हैं कि उसके पिता सुभाष बाकी शक्तिशाली लोगों से ऊपर हैं क्योंकि वह गैरकानूनी कामों को अच्छे उद्देश्य के लिए करते हैं. शंकर अपनी प्रेमिका पूजा से कहता है, जिसके पिता एक व्यवसायी हैं, “तुम्हारे पिता सिस्टम में रह कर अपने लिए काम करते हैं और मेरे पिता सिस्टम से बाहर रह कर दूसरों के लिए काम करते हैं."
कक्कड़ लिखते हैं कि हिंदू सांस्कृतिक की नजर में “न तो राज्य, न ही बहुसंख्यक लोग और न ही सरकार संप्रभु है. जो शक्ति इन सब से ऊपर है वह धर्म है." सुभाष नागरे इसी का एक रूप हैं, जनता का रक्षक जो कानून-व्यवस्था को दरकिनार करके एक समानांतर व्यवस्था बना कर सत्ता चलाता है. पूजा शंकर से पूछती है कि क्या उसे लगता है कि उसके पिता कानून से ऊपर हैं. तब शंकर जवाब देता है, "मेरे पिताजी ऐसा नहीं सोचते लेकिन जिन लोगों की उन्होंने मदद की है वे ऐसा मानते हैं." सुभाष का वह ईश्वरीय रूप उसके स्क्रीन पर आने पर चलने वाले "गोविंदा" नाम के मंत्रों से दर्शाया जाता है. सवर्ण जाति से ताल्लुक रखने वाला नागरे परिवार बुरे कामों की सजा के बारे में भी नहीं सोचता, उसकी "धार्मिक" प्रवति के चलते उन्हें परेशान होने की जरूरत नहीं थी.
1999 में आई फाइट क्लब फिल्म उन लोगों के बारे में है जो सभ्यता और पूंजीवाद से ठगा हुआ महसूस करते हैं. इस अमेरिकन ड्रीम का वादा था कि कोई भी व्यक्ति कड़ी मेहनत करके भौतिक सफलता प्राप्त कर सकता है. और इसके असफल होने का मतलब था कि लोग "उन नौकरियों में फंस कर रह गए जिनकी उन्हें आवश्यकता नहीं है," क्योंकि उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं होने वाला था चाहे उन्होंने कितनी भी मेहनत की हो. फिल्म ने इन लोगों का प्रतिनिधित्व किया गया है जो अशांति चाहते थे क्योंकि उन्होंने अपने समाज में अपने लिए कोई भविष्य नहीं पाया.
हिंदी रूपांतरण में इसका अनुवाद इसके बागी पक्ष को हटा देता है. हिंदू अपनी जाति के आधार पर सौंपे गए कार्य को करने को अपना स्वधर्म और सामाजिक कर्तव्य समझते हैं, जो कि कर्म के आधार पर निर्धारित किया जाता है. चूंकि हिंदू धर्म ने कभी भी किसी तरह का वादा नहीं किया गया इसलिए लोग अपने दुखों के लिए समाज के दमनकारी ढांचे को जिम्मेदार नहीं ठहराते हैं. यही कारण है कि 2006 की हिंदी फिल्म फाइट क्लब : मेंबर्स ओनली के नायक बगावत नहीं करता, भले ही उनमें से अधिकांश सेवा क्षेत्र की नौकरियों से जुड़े हो- दो बारटेंडर, एक जिम ट्रेनर और एक बाउंसर. इसके बजाए वे अपनी स्थिति का पूरा फायदा उठा कर पैसा कमाने में लग जाते हैं.
यहां तक कि वर्तमान समय में बनाई गईं प्रगतिशील फिल्मों की रीमेक को रूढ़िवादी हिंदू विचारों के रूप में पेश किया जाता है. 1998 में आई जर्मन थ्रिलर फिल्म रन लोला रन में नायक और उसका साथी एक आपराधिक हरकत करने के बाद अपनी जान बचाने की कोशिश करते हैं. लोला फिल्म की एक प्रमुख किरदार है और वह अपने प्रेमी मन्नी के साथ उस घटना में बराबर की भागीदर होती है. फिल्म उसी बीस मिनट की पूरी यात्रा को दिखाती है. पहले दो भागों में लोला मदद के लिए अपने पिता के पास जाती है लेकिन अपनी इच्छा के अनुसार मदद प्राप्त नहीं कर पाती. केवल भाग तीन में जब वह उसके पास जाने में असमर्थ होती है, तब वह मन्नी को बचाने में सफल होती है. लोला की सफलता में उसके जीवन में पुरुषों का अधिकार नहीं रहना शामिल है जिसकी उसकी व्यक्तिगत पसंद को अधिक महत्व दिया जाता है.
इस साल की शुरुआत में रिलीज हुए इसकी रीमेक लूप लपेटा में मुख्य नायक तापसी पन्नू (सावी) अपने प्रेमी सत्या के आपराध से अनजान होती है लेकिन फिर भी सत्या के किए से उसे बचाती है. उदार विचार रखने वाले सावी और सत्या गोवा में रहने वाले जवान लड़का और लड़की हैं जो ड्रग्स का सेवन करते हैं और बिना शादी किए साथ रहते हैं. फिर भी सावी को अंततः आदर्श पत्नी की तरह ही दिखाया जाता है, जो केवल अपने पुरुष साथी को आपराध की सजा से बचने में मदद करती है. सावी और सत्या का किरदार सावित्री और सत्यवान की हिंदू पौराणिक कहानी पर आधारित हैं. सावित्री एक पतिव्रता पत्नी है जो अपनी बुद्धि का उपयोग अपने पति सत्यवान को एक असामयिक मृत्यु से बचाने के लिए करती है.
लोला से उलट सावी तीनों भागों में अपने पिता के पास जाती है. फिल्म के अंतिम भाग में वह अपने पिता के रोब को अस्वीकार करने के बजाए माफी मांग कर अपने रिश्ते के लिए उनका आशीर्वाद लेती है, तभी वह सत्या की जान बचा पाती है. सार्वभौमिक नैतिकता की अवधारणा के अभाव में हिंदुओं के लिए नैतिकता का प्रश्न व्यक्ति की पहचान से अमिट रूप से जुड़ा हुआ है. उच्च जाति के हिंदू की पहचान पर उठाए गए सवाल को अनैतिक माना जाता है. सरकार फिल्म में अपने हिंदू अनुयायियों की रक्षा के लिए हिंसा का इस्तेमाल करने वाले नागरे को अच्छा माना जाता है, लेकिन कश्मीरी नेताओं के ऐसा करने पर उन्हें एक बुराई के रूप में दिखाया जाता है.
शौर्य में हिंदू राष्ट्र की एकता के लिए सभी मुसलमानों को संदिग्ध आतंकवादी के रूप मे दर्शाना आवश्यक समझा जाता है, यह एक ऐस दृष्टिकोण है जो हाल के वर्षों में भारत सरकार की नजर मे बेहद समान हो गया है, लेकिन सभी हिंदुओं को संदिग्ध जातिवादियों के रूप में देखने वाले आंबेडकरवादियों पर विभाजन का आरोप लगाया जाता है.
यह नैतिकता हिंदू मान्यताओं में गहराई से निहित है. ओल्डबॉय (2003) और मेमेंटो (2000) में बदला लेने वाले नायक एक जटिल किरदार हैं जिनके शुरू में नेक इरादे होने के बावजूद बाद में किए कार्यों से चरित्र अपरिवर्तनीय रूप से बदल जाता है. लेकिन जिंदा (2006) और गजनी (2005) में उनके उच्च जाति के हिंदू प्रतिरूपों को आसानी से अच्छे पुरुषों के रूप में दर्शाया जाता है जो हिंसक बदला लेने के बाद अपने सम्मानजनक जीवन में लौट जाते हैं. एक न्यायसंगत समाज के संतुलन को बिगाड़ने के बजाए धार्मिक दुनिया के संतुलन को बनाए रखने के लिए बदला एक साधन बन जाता है.
हिंदू धर्म एक ऐसा धर्म है जिसमें अलग-अलग लोगों के साथ अलग-अलग व्यवहार किया जाता है. जहां कुछ शक्तिशाली उच्च जाति के हिंदू पुरुष बाकी पर शासन करते हैं. हिंदू राष्ट्र में यह न केवल संभव है बल्कि सरकर द्वार प्राधिकृत भी होता है. इस हिंदू सांस्कृतिक आदर्श का भरण-पोषिण करके हिंदी सिनेमा ने लंबे समय से इस योजना को सफल बनाया है. इस मायने में विदेशी फिल्मों का रीमेक सांस्कृतिक रूप से मूल हिंदी फिल्मों से अलग नहीं होता है. लेकिन जब हिंदी रीमेक की मूल अंतरराष्ट्रीय फिल्मों से तुलना की जाती है तब बॉलीवुड का ब्राह्मणवादी प्रॉजेक्ट सामने आ जाता है.
(अनुवाद : अंकिता)