पर्दे के पीछे

बंबइया सैन्य फ़िल्मों का दिवालियापन

जे. पी. दत्ता की 'बॉर्डर' फ़िल्म 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान लोंगेवाला की लड़ाई पर आधारित है. बॉक्स ऑफ़िस पर इस फ़िल्म ने अच्छी कमाई की लेकिन तथ्यों के साथ ख़ूब खिलवाड़ किया. (सविता किर्लोस्कर / रॉयटर्स)

बॉलीवुड में युद्ध पर फिल्म बनाने का आकर्षण लंबे समय से रहा है. लेकिन इनमें जंगों का चित्रण, ख़ासकर पाकिस्तान के साथ हुई जंगों का चित्रण, दकियानूसी भरा होता है. देशभक्ति की भावना जगाने और बहादुरी की मिसाल पेश करने के लिए बंबइया फ़िल्में, इतिहास को तोड़मरोड़ कर पेश करती हैं ताकि राष्ट्रवाद और कट्टरपंथ परोसकर दर्शकों को ख़ूब लूटा जा सके.

ऐसी ही एक बॉलीवुड फ़िल्म है जे. पी. दत्ता की 'बॉर्डर' (1997), जो 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान लोंगेवाला की लड़ाई पर आधारित है. हालांकि यह लड़ाई भारत के लिए एक उल्लेखनीय जीत थी, लेकिन फ़िल्म में ढेरों ग़लतियां हैं. मसलन, सेकेंड लेफ्टिनेंट धर्मवीर सिंह भान और सूबेदार रतन सिंह को शहीद दिखाया गया है जबकि दोनों लड़ाई के बाद भी लंबी उम्र जिए थे. फ़िल्म में घायलों की संख्या को नाटकीय ढंग से बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है और दर्शकों को बताया जाता है कि सैकड़ों सैनिक मारे गए थे. लेकिन हकीकत यह है कि उस लड़ाई में केवल दो भारतीय सैनिक मारे गए थे. यह तोड़मरोड़, जिन्हें दत्ता ने कारोबारी अपील के लिए ज़रूरी मानकर पेश किया है, इतिहास और गल्प के फर्क को मिटा देता है. 'बॉर्डर' में युद्ध के सौम्य चित्रण ने उसके जैसी अनेक फ़िल्मों के लिए रास्ता खोला, जिनमें सैन्य मुठभेड़ की जटिलताओं और वास्तविकताओं की उपेक्षा करते हुए सैनिकों की बहादुरी पर जोर दिया गया. 'बॉर्डर' में पाकिस्तानी टैंकों के उत्पात को दर्शाया गया है लेकिन सच यह है कि मवेशियों के लिए लगाई गई एक बाड़ को बारूदी सुरंग मान कर पाकिस्तानी टैंक पीछ हट गए थे. फ़िल्म की सेटिंग एक पहाड़ी, चट्टानी इलाके की है, जबकि असली लड़ाई सपाट रेगिस्तानी ज़मीन पर हुई थी.

सच्चाई और कल्पना के घालमेल का यह चलन 1999 में हुए कारगिल युद्ध के बाद भी जारी रहा. हालात ये हो गए कि फ़िल्म और सच्चाई के बीच की रेखा अधिक धुंधली होने लगी और सैन्य पृष्ठभूमि की फ़िल्में राष्ट्रवादी चिल्लाहट और पाकिस्तान को गाली देने का मंच बन गईं. 'मां तुझे सलाम' (2002) जैसी फ़िल्मों में 'दूध मांगोगे तो खीर देंगे, कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे' जैसे संवाद इन बंबइया फ़िल्मों में प्रचारित आक्रामक, प्रतिशोधी रवैए की नज़ीर हैं.

अंधराष्ट्रवाद में यह उछाल भारतीय जनता पार्टी की पहली सरकार के साथ आया. बीजेपी ने अपनी विचारधारा को बॉलीवुड की कारोबारी हवा में धीरे-धीरे घोल दिया. वैश्विक मीडिया में 'आतंकवाद के ख़िलाफ़' पश्चिम के युद्ध को प्रमुखता मिलने से ऐसी फ़िल्मों को बढ़ावा मिला. 9/11 के बाद भारत के राजनीतिक माहौल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उदय ने इस चलन को अधिक हवा दी. 'उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक', 'राज़ी' और 'केसरी' जैसी फ़िल्मों ने पाकिस्तान को शाश्वत शत्रु और सैनिकों को हिंदू राष्ट्रवाद के ध्वजवाहक के रूप में चित्रित कर बीजेपी की विचारधारा को स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई. इनमें से कई फ़िल्मों में पाकिस्तान, इस्लाम और मुसलमानों को ख़तरे की तरह पेश कर सत्तारूढ़ बीजेपी के एजेंडे से आगे बढ़ाया गया है.


सुशांत सिंह येल यूनि​वर्सिटी में हेनरी हार्ट राइस लेक्चरर और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर फेलो हैं.