खबर लहरिया पर बनी ऑस्कर नामित पहली भारतीय डॉक्यूमेंट्री से जुड़ा विवाद

फिल्म के पहले भाग में पत्रकारों को अपनी रिपोर्टिंग के दौरान मोबाइल फोन का इस्तेमाल करना सीखते हुए दिखाया जाता है. उन्हें प्रेस वार्ता में भाग लेते और पुलिस थानों के कई चक्कर लगाते हुए तथा दलितों के खिलाफ हिंसा से लेकर दलित कॉलोनी में शौचालयों नहीं होने जैसे कई मुद्दों को कवर करते हुए भी दिखा गया है. सौंजन्य ब्लैक टिकट फिल्म
16 May, 2022

विल स्मिथ का क्रिस रॉक्स को थप्पड़ मारने की घटना को नजरंदाज कर दें तो इस साल पहली बार ऑस्कर पुरस्कार पाने वालों की संख्या अच्छी-खासी रही. दशकों तक इन पुरस्कारों के अधिकतर विजेता श्वेत पुरुषों रहे लेकिन अब इसमें बदलाव आया है और इस बार वधिर अभिनेता ट्रॉय कोत्सुर और क्वीर अभिनेत्री एरियाना डेबोस ने ऑस्कर जीता. और पहली बार कोई भारतीय डॉक्यूमेंट्री इस अवॉर्ड के लिए नामित भी हुई. दलित महिलाओं द्वारा चलाए जाने वाला मीडिया आउटलेट खबर लहरिया पर आधारित ‘राइटिंग विद फायर’ को रिंटू थॉमस और सुष्मित घोष ने बनाया है. इस फिल्म को सनडांस अवार्ड मिला है और यह रिलीज होने के बाद से ही काफी चर्चा में है. इसलिए ऑस्कर के लिए इसका नामित होना कोई अचरज नहीं था.

ऑस्कर के लिए नामित होने के बाद रिंटू थॉमस और सुष्मित घोष की निर्देशक जोड़ी के साथ हुई मेरी शुरुआती बातचीत में उन्होंने मुझे बताया था कि फिल्म में जिन लोगों ने काम किया है उन्होंने ऑस्कर में पहन कर जाने के लिए साड़ियां तक ले ली हैं. लेकिन मुख्य समारोह के दिन थॉमस और घोष रेड कार्पेट पर अकेले ही नजर आए. खबर लहरिया का कोई भी पत्रकार उनके साथ ऑस्कर समारोह में शामिल होने लॉस एंजिल्स नहीं गया.

ऐसा क्यों हुआ?

ऑस्कर के हफ्ते भर पहले खबर लहरिया की टीम ने एक बयान जारी कर कह दिया कि डॉक्यूमेंट्री, जिसे पूरा करने में करीब पांच साल लगे थे, ने उनकी पत्रकारिता को गलत ढंग से प्रस्तुत किया है. उन्होंने माना कि यह फिल्म उनके काम का “सशक्त दस्तावेज” है “लेकिन इसमें खबर लहरिया को एक ऐसे संगठन के रूप में पेश किया गया है जिसकी रिपोर्टिंग एक पार्टी विशेष (बीजेपी) और उसके इर्द-गिर्द संस्थागत रूप से फोकस है, यह गलत है.” उन्होंने अपने बयान में कहा है, "हम मानते हैं कि स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं के पास यह विशेषाधिकार है कि वे अपने ढंग से कहानी पेश कर सकते हैं, लेकिन हमारा यह कहना है कि पिछले बीस वर्षों से हमने जिस तरह की स्थानीय पत्रकारिता की है या करने की कोशिश की है, फिल्म में वह नजर नहीं आती. हम अपनी निष्पक्ष और स्वतंत्र पत्रकारिता की वजह से ही अपने समय के अन्य मुख्यधारा की मीडिया से अलग हैं. यह फिल्म हमारे काम के महज एक हिस्से पर केंद्रित है, जबकि हम जानते हैं कि अधूरी कहानियां पूरी तस्वीर पेश नही करतीं, बल्कि कई बार तो अर्थ के अनर्थ हो जाने का खतरा पैदा हो जाता है.”

करीब नब्बे मिनट की ‘राइटिंग विद फायर’ उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में स्थानीय मुद्दों पर रिपोर्टिंग करने वाली मीरा देवी, श्यामकली और सुनीता के जीवन और कार्यों पर आधारित है. फिल्म की शुरुआत में एक बलात्कार पीड़िता यौन हिंसा और अपने भीतर छिपे डर के बारे में मीरा को बता रही है. इस औरत का बलात्कार ऊंची जाति के मर्दों ने किया था.

दो मिनट से अधिक समय तक चलने वाले इस दृश्य में हमें पता चलता है कि पीड़िता का परिवार मीरा पर कितना भरोसा करता है. इसके बाद वाले शॉट में मीरा पुलिस से पूछ रही हैं कि उन्होंने इस अपराध पर एफआईआर दर्ज क्यों नहीं की. फिल्म के ये दृश्य पूरी ईमानदारी से रिपोर्टिंग करने वाले साहसी पत्रकारों की तस्वीर पेश करते हैं.

यह कहानी और भी मजबूत हो जाती है जब हम खान में बाल मजदूर रही सुनीता से मिलते हैं, जो अब उन अवैध खनन माफिया पर रिपोर्टिंग करती है जो अपने श्रमिकों की मौत के लिए जिम्मेदार हैं लेकिन उन पर कोई नहीं बोलता. जब वह पुरुषों के बीच खड़ी होकर गुस्सैल खान प्रबंधक का सामना करते हुए मजबूती से अपनी बात रखती है तब गर्व, प्रशंसा और भीड़ के आतंक के भावों को आसानी से महसूस किया जा सकता है.

फिल्म के पहले भाग में पत्रकारों को रिपोर्टिंग के लिए मोबाइल फोन का इस्तेमाल करना सीखते हुए दिखाया जाता है. उन्हें प्रेस वार्ता में भाग लेते और पुलिस थानों के चक्कर लगाते हुए, दलितों के खिलाफ हिंसा से लेकर दलित कॉलोनी में शौचालयों नहीं होने जैसे मुद्दों को कवर करते हुए देखा जाता है. इसके अलावा इस फिल्म में हम उनके निजी अतीत को भी देखते हैं जो संघर्ष के मार्मिक विवरणों से भरे हुए हैं.

उनके यूट्यूब चैनल को दस लाख बार देखा जा चुका है. लेकिन जब फिल्म सेकेंड हाफ में प्रवेश करती है तब नरेशन में बदलाव आना शुरू होता है जिसमें मीरा, सुनीता और श्यामकली को बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे एक राज्य मंत्री का साक्षात्कार करने के लिए जाते हुए दिखाया जाता है. नेता के विशाल बंगले में हम चुनावी सरगर्मी साफ तौर पर देख सकते हैं, जहां एक तरफ तीन पत्रकार हैं और दूसरी तरफ मंत्री और दो पंक्तियों में उनके खतरनाक दिखने वाले समर्थक खड़े हैं. हालांकि यह दृश्य बीजेपी के सत्ता में आने से पहले 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले का है.

एक दृश्य में फिल्म निर्माताओं और उनके विषय के बीच की दरार दिखाई देती है, जहां एक तरफ पत्रकार कश्मीर के बर्फ से ढके पहाड़ों में मौजमस्ती कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर एक महत्वपूर्ण संपादकीय बैठक हो रही है. बैठक में खबर लहरिया की टीम आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य में रिपोर्टिंग की स्थिति पर चर्चा कर रही है.

आदित्यनाथ के कार्यकाल में पत्रकारों को धमकियों, पुलिसिया दमन और राज्य के उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है. खबर लहरिया ने अपने बयान में उपरोक्त दृश्य के बारे में कहा है, “हमें न केवल अपनी स्टोरी के बारे में, बल्कि अपने घरों, अपने दफ्तरों, संसाधनों के बारे में भी सोचना पड़ा ताकि हमारी टीम के सदस्यों के पास नियमित रूप से काम करने की सुविधाएं बनी रहें. इसके लिए कई तरह की रणनीति और साझेदारी की जरूरत पड़ती है. जब हम ऑफिस के बाहर किसी जगह (ऑफसाइट) जाते हैं तो हम तमाम मुद्दों पर चर्चा करते हैं, न कि सिर्फ इस बात पर कि हम क्या महसूस करते हैं जब कोई विशेष पार्टी चुनाव जीतती है.”

फिल्म के सेकेंड हाफ में बीजेपी की रैलियों पर खूब रील खर्च हुआ है जिसमें बीजेपी को गोलियत और खबर लहरिया को डेविड की तरह पेश किया गया है. जबकि लहरिया के पत्रकारों का मानना है कि उनका फोकस जल, जंगल और जमीन से जुड़े मुद्दों पर होता है.

हम उनके यूट्यूब चैनल पर सरकार की गौ रक्षा की राजनीति पर सवाल उठाते समाचार देख सकते हैं जिसमें पत्रकार राज्य के अधिकारियों से बेखौफ होकर सवाल पूछते हैं, ऐसा राजनीतिक पत्रकारिता के वर्तमान परिवेश में लगभग अकल्पनीय लगता है. एक भाग में पत्रकार गौरी लंकेश की “साहसिक पत्रकारिता” और उनके साथ जो हुआ उसकी बात होती है, वहीं किसी और दृश्य में लहरिया के पत्रकार रामनवमी रैलियों को कवर करते दिखते हैं.

फिल्म के जिस दृश्य की व्यापक चर्चा हो रही है उसमें हम कमर पर तलवार लटकाए सड़कों पर गश्त करते हिंदू युवा वाहिनी के एक स्थानीय नेता सत्यम से मिलते हैं. महीनों तक उनके साथ एक साक्षात्कार की कोशिश में लगीं मीरा ने आखिरकार उन्हें कैमरा के सामने साक्षात्कार देने के लिए मना लिया. इंटर्व्यू में सत्यम देश के युवाओं को अपने दृष्टिकोण और गोरक्षा के बारे में बताता है. दि अटलांटिक पत्रिका के लिए लिखी एक रिपोर्ट में मैंने बताया है कि जब मीरा इंटर्व्यू करके सुरक्षित लौट आती हैें तो दर्शक राहत महसूस करते हैं. लेकिन ऑस्कर की सुबह एक जूम कॉल पर मीरा ने मुझे बताया कि सत्यम से मिलना उनके लिए डरावना अनुभव बिल्कुल नहीं था जबकि फिल्म में इस दृश्य के साथ खौफनाक भाव का साउंडट्रैक डाला गया है. कॉल पर मौजूद खबर लहरिया के सह-संस्थापकों में से एक दिशा मलिक ने याद किया कि उन्होंने वाइस वेबसाइट द्वारा शुरू की गई एक श्रृंखला के लिए सत्यम से संपर्क किया था. मलिक ने बताया, "हमारा इरादा सहानुभूति के साथ यह समझना था कि नौजवान हिंदू युवा वाहिनी में क्यों शामिल होते हैं? सत्यम को जैसा डॉक्यूमेंट्री में दिखाया गया है वह वैसा बिल्कुल नहीं है बल्कि वह एक सीधा-साधा लड़का है जिसे थोड़ी ताकत मिल गई है और वह इस ताकत का इस्तेमाल अपने आसपास के लोगों को बिजली कनेक्शन मुहैया कराने में भी करता है.”

योगी आदित्यनाथ द्वारा 2002 में शुरू किए गए हिंदू युवा वाहिनी का आगजनी और सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास है. दिसंबर 2021 में दिल्ली में एक संगठन द्वारा आयोजित एक धार्मिक सम्मेलन में सुदर्शन टीवी के संपादक सुरेश चव्हाणके ने वहां उपस्थित लोगों को भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए मरने और मारने के लिए तैयार रहने की शपथ दिलाई. हिंसक और अवैध रूप से नागरिकों की मॉरल पुलिसिंग करने वाले हिंदू युवा वाहिनी जैसे संगठनों का खतरा वास्तविक है. इन संगठनों को स्थानीय और राज्य की अदालतों से मिलने वाला संरक्षण भी उतना ही खतरनाक है. फिर भी एक मीडिया संगठन के रूप में खबर लहरिया हिंदू युवा वाहिनी के साधारण सदस्यों को पूरी तरह से जिम्मेदार नहीं मानता. इसके बजाय वह उन परिस्थितियों पर अधिक ध्यान देता है जिनके कारण ऐसे कट्टरपंथी संगठन पैदा होते हैं.

मलिक ने कहा कि इन संगठनों में शामिल होने वाले लोग, जो बीजेपी समर्थक हैं और जो उच्च जातियों के हैं, वे भी खबर लहरिया के पाठक हैं. मलिक बताती हैं, “हमारी रिपोर्टिंग का उद्देश्य उन्हें खलनायक के रूप से दिखाना नहीं है. हम बस जानना चाहते थे कि उन्हें इन संगठनों से क्या मिलता है. ‘राइटिंग विद फायर’ में पत्रकारों को एक शक्तिशाली सरकार के खिलाफ ग्रामीण इलाके के दलित हीरो के रूप में दर्शाने की कोशिश की गई है. लेकिन ऐसा करके फिल्म निर्माता अच्छी पत्रकारिता के मूल सिद्धांत को तोड़ते हैं जो वर्तमान समय में अच्छी डॉक्यूमेंट्री फिल्म पर भी लागू होता है. फिल्म अपने विषय को एक पूरी तरह से कल्पना पर आधारित विचार में बदल देती है जो वास्तविकता को प्रतिबिंबित नहीं करता.

इसकी कवरेज पर एक सरसरी नजर डालने से रिपोर्टिंग की एक विस्तृत श्रृंखला दिखाई देती है जिसमें कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसे विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं से कठिन सवाल पूछना और दलित राजनीति और विकास से संबंधित मुद्दों की खोज शामिल है.

खबर लहरिया के बयान के बाद कई लोगों ने लहरिया के नजरिए पर सवाल उठाए हैं. खबर लहरिया की प्रधान संपादक कविता बुंदेलखंडी ने मुझे बताया, "मेरी राय में यह कहानी का हिस्सा हो सकता है लेकिन यह पूरी कहानी कैसे हो सकती है? यह एकतरफा झुकाव रखने वाले संगठन के रूप में हमारी छवि बनाती है.”

बयान के जवाब में फिल्म निर्माताओं ने लिखा है कि वे मानते हैं कि यह वैसी फिल्म नहीं है जो संगठन अपने बारे में देखना चाहता था. "हम खबर लहरिया की महत्वपूर्ण मुद्दों पर काम करने और उनकी आशाएं, डर, कमजोरियां और सपनों पर आधारित इस छवि को सही मानते हैं." खबर लहरिया टीम का मानना ​​​​है कि डॉक्यूमेंट्री में चुनावी रैलियों की कवरेज पर व्यापक ध्यान दिया गया है जिससे एक मीडिया संगठन के रूप में उनकी प्राथमिकताएं गलत प्रदर्शित होती हैं. मलिक ने कहा, "यह कितनी रंगीन कहानी है, है ना? लेकिन हमारे दर्शकों की राजनीतिक रैलियों में कोई दिलचस्पी नहीं है. वे नेताओं के खोखले वादों से अच्छी तरह वाकिफ हैं."

शहरी और अर्ध-शहरी पत्रकार जब भारत के ग्रामीण इलाकों की रिपोर्टिंग करते हैं तो अक्सर दूरदर्शिता का आभाव नजर आता है. 2014 में उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में आम के पेड़ से लटके पाए गए दो किशोर-किशोरियों की मौत की रिपोर्टिंग इसी अदूरदर्शिता का एक दुखद उदाहरण है. जिले के बाहर के लगभग हर प्रमुख समाचार संगठन ने इस घटना को एक सनसनीखेज बलात्कार और हत्या के रूप में पेश किया लेकिन आखिर में मृत्यु पितृसत्ता के डर से प्रेरित आत्महत्याओं के रूप में सामने आई. इसी तरह अधिकांश शहर के पत्रकार ग्रामीण मुद्दों पर अपनी कवरेज में अपने पूर्वाग्रहों को घुसेड़ देते हैं. 2014 में छह महीने तक छह प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पत्रों पर नजर रखने के बाद दिल्ली स्थित सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज ने पाया कि ग्रामीण भारत, जहां देश की सत्तर प्रतिशत आबादी रहती है, की केवल 0.23 प्रतिशत खबरें छपती हैं. जैसा सोनिया फलेरियो की द गुड गर्ल्स: एन ऑर्डिनरी किलिंग जैसी किताब में बताया गया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में संसाधनों और यहां तक ​​कि बुनियादी सुविधाओं की गंभीर कमी को देखते हुए जीवित रहने के लिए एक बहुत ही अलग व्यवस्था की आवश्यकता होती है. इसके चलते अक्सर राजनीतिक व्यवस्था से भरोसा टूटता है लेकिन इसके बावजूद उन्हीं निर्वाचित प्रतिनिधियों पर निर्भरत रहना पड़ता है जिनके वादे एक के बाद एक खोखले साबित होते हैं.

मलिक ने आगे कहा, “शायद इसीलिए विकास के मुद्दे ग्रामीण जीवन में शहरी क्षेत्रों से भी अधिक बड़ी भूमिका निभाते हैं. वे जानते हैं कि उनके लिए क्या अच्छा है." इससे समझा जा सकता है कि पुलिस, राजनीतिक दल के नेताओं और स्रोतों के साथ कैसे बात करें, बल्कि पुरुष के वर्चस्व वाले पत्रकारिता क्षेत्र में हाशिए पर रहने वाली महिलाओं को कैसे जगह बनानी है इसके लिए लहरिया के पत्रकारों ने वर्षों तक वर्कशॉप में ट्रेनिंग की है, और इस संदर्भ में उनके गैर-पक्षपाती रिपोर्टिंग पर अत्याधिक जोर को समझा जा सकता है.

अस्तित्व में आने के दो दशकों में ही खबर लहरिया ने खुद को दलित महिला-नेतृत्व वाले संगठन के रूप में स्थापित किया है जो जैंडर, जाति, वर्ग या धर्म से जुड़े ग्रामीण मुद्दों को कवर करता है. यह दिल्ली स्थित एक गैर सरकारी संगठन निरंतर द्वारा शुरू किया गया था जिसके संस्थापक ऊंची जाति की महिलाएं थीं. मलिक और शालिनी जोशी खबर लहरिया की संस्थापकों में से हैं.

दो दलित महिलाएं कविता बुंदेलखंडी और मीरा देवी हाशिए पर रहने वाली विभिन्न पृष्ठभूमि की महिलाओं को रोजगार देती हैं जिनमें आदिवासी, ओबीसी, मुस्लिम और कुछ उच्च जाति की पत्रकार हैं. ‘राइटिंग विद फायर’ में अवैध खनन माफिया पर रिपोर्ट करने वाली सुनीता ओबीसी जाति से है. मीरा ने बताया, “दलित शब्द अपने आप में बहुत शक्तिशाली है. एक बार जब यह किसी कहानी, फिल्म या राजनीति से जुड़ जाता है तो यह दर्शकों को आकर्षित करने और कहानी प्रस्तुत करने का एक अच्छा तरीका बन जाता है."

टीम का दावा है कि हालांकि फिल्म निर्माताओं ने उनकी कहानी पर पांच साल से अधिक समय लगाया और इतने समय में कहानी के पात्रों के साथ एक मजबूत संबंध भी विकसित किया लेकिन उन्होंने कभी दलत पहचान जैसी बारीकियों से जुड़ने में दिलचस्पी नहीं दिखाई. लहरिया ने अपने बयान में कहा है कि फिल्म में जिस तरह से हमें पेश किया गया है उसके विपरीत “हमें कई मौकों पर ऐसी स्टोरी तक पहुंच बनाने के लिए, जो हमें महत्तवपूर्ण लगती हैं, अपनी जातिगत पहचान को छिपाना भी पड़ा है. और यहां तक कि अगर हमने अपनी विशेष जातिगत पहचान के साथ लिखा और रिपोर्ट किया है, तब भी हमें अपने परिवारों की निजता की हिफाजत का अधिकार है.”

थॉमस और घोष की जोड़ी अंतर-धार्मिक है. थॉमस ईसाई हैं और घोष उच्च जाति के हिंदू हैं. उन्होंने मुझे एक ईमेल में बताया, "हम इस बात से हमशे सतर्क थे कि हम संगठन के बाहर के लोग हैं और हम पात्रों की जाति और वर्ग के बारे में भी सचेत थे. वास्तव में प्रतिनिधित्व और ऑथरशिप दोनों ही फिल्म की कथा के केंद्र में हैं. हम उस जिम्मेदारी को भली तरह समझते हैं जो उन लोगों के नजरिए से इन कहानियों को कैमरे में कैद करते वक्त साथ आती है.”

एक सवाल हमेशा ताजा रहता है कि दलित कहानियां कौन कहेगा. लेकिन साहित्य, पत्रकारिता और फिल्म में दलितों के पास कभी भी अपनी कहानियों को स्वयं सुनाने के साधन नहीं रहे हैं. हाल के वर्षों में, विशेष रूप से 2016 में हैदराबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र और दलित कार्यकर्ता रोहित वेमुला की मृत्यु के बाद से, दलित कहानी को लेकर बदलाव शुरू हुआ है. यह कुछ हद तक सोशल मीडिया पर दलितों की सक्रियता और प्रत्यक्ष उपस्थित के कारण हुआ है. यह कोई संयोग नहीं है कि 2016 में दलित आंदोलन के ही समय थॉमस और घोष ने अपनी अगली परियोजना के लिए खबर लहरिया पर फोकस किया. साक्षात्कारों में घोष ने इस बारे में बात की है कि जब उन्होंने शुरू में उनसे संपर्क किया तब उन्हें इस बात की पूरी जानकारी नहीं थी कि जाति उनके जीवन को किस हद तक प्रभावित करती है. उन्होंने याद किया कि उनकी दोस्ती हो जाने के बाद पहचान के लिए जाति जैसी चीजें मिट गई थीं. उन्होंने मुझे बताया, "वह एक दलित महिला पत्रकार नहीं एक इंसान मीरा थी और मैं शहर से आया कोई फिल्म निर्माता नहीं बल्कि एक इंसान सुष्मित थी."

दलितों के रूप में, जिनमें वे लोग भी शामिल हैं जो अपनी यह पहचान छुपाकर जीवन बिताते हैं, जैसा कि वेमुला ने अपने अंतिम पत्र में लिखा था, हम जानते हैं कि जाति हमारे जन्म के साथ ही स्थायी रूप से हमसे चिपक गई हुई है. थॉमस और घोष न केवल वर्ग, जाति और स्थान के मामले में विशेषाधिकार प्राप्त पृष्ठभूमि से आते हैं और यह विशेषाधिकार उन्हें भारत और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आसानी से अभिजात स्थानों तक पहुंचने में भी मदद करता है. हालांकि हमारी बातचीत से फिल्म निर्माताओं की पृष्ठभूमि के साथ आने वाले फायदों के बारे में पता चलता है. इस फिल्म में भी वे अपने पात्रों को शक्तिशाली और अनुभवी पत्रकारों के रूप में देखते हैं भले ही वे संरचनात्मक चुनौतियों का सामना कर रहे हों. यह भावना ‘राइटिंग विद फायर’ में दृढ़ता से झलकती है. फिर भी खबर लहरिया टीम इस बात से निराश है कि उन्होंने सोचा था कि यह एक काम अधिक सहयोगात्मक कार्य होगा.

उन्होंने मुझे एक ईमेल में बताया, "हमें फिल्म फीडबैक लेने के इरादे से नहीं दिखाई गई थी. हमने फुटेज पहली बार 2017 में देखी थी और यह साफ तौर पर कह दिया था कि हमें फाइनल कट्स दिखाए जाएं. हमने 2018 में फिल्म का ट्रेलर देखा और अपनी प्रतिक्रिया दी. फिर दिसंबर 2020 में प्रबंधन ने ग्राफिक्स और संगीत के बिना कट्स दिखाए. तब तक फिल्म निर्माताओं ने हमारी प्रतिक्रिया के बिना ही सनडांस के लिए फिल्म जमा कर दी थी." अगले महीने उन्हें फिल्म दिखाई गई.

थॉमस और घोष ने कहा है कि उन्होंने जनवरी 2021 में टीम को डॉक्यूमेंट्री दिखाने के लिए कोविड-19 के कड़े लॉकडाउन के बीच बांदा की यात्रा की और उन्हें लहरिया के पत्रकारों से जबरदस्त सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली. उन्होंने एक ईमेल में जवाब दिया कि, "हमारे लिए प्राथमिकता थी कि खबर लहरिया फिल्म को सबसे पहले फिल्म देखे. फिल्म फेस्टिवल में भेजने से पहले दिसंबर 2020 में रफ कट उन्हें दिखाना इस प्रक्रिया का एक हिस्सा था. इस रफ कट को देखने के लिए लहरिया अपनी टीम में किसे शामिल करे, यह पूरी तरह से उनका निर्णय था. इसके बाद हमने कई बार चर्चा की और सर्वसम्मति से कुछ निर्णय लिए जिनका हम अब तक पालन कर रहे हैं."

कविता, सुनीता और श्यामकली के साथ फिल्म देखने वाली मीरा ने बताया कि वे लोग बेहद खुश थीं और उन्होंने स्क्रीनिंग के तुरंत बाद “इंटरव्यू के लिए हमारे चेहरे के सामने माइक और कैमरा लगा दिए.” “इतने सालों तक काम करने के बाद खुद को बड़े पर्दे पर देखना रोमांचक था और हम कुछ और समझने या सोचने के लायक नहीं थे."

जनवरी 2021 तक खबर लहरिया टीम का फैसला रहा कि वे इस फिल्म की स्क्रीनिंग पर कोई टिप्पणी नहीं करेंगे. उस वर्ष मीरा ने फिल्म निर्माताओं के साथ कुछ स्क्रीनिंग में भाग लिया और यहां तक ​​कि यूरोपीय मीडिया आउटलेट्स को साक्षात्कार भी दिए. खबर लहरिया टीम के अन्य सदस्यों ने भी विदेशी स्क्रीनिंग में भाग लिया और अंतरराष्ट्रीय मीडिया को इंटर्व्यू दिए. लेकिन मेरे साथ-साथ अधिकांश प्रकाशनों और पत्रकारों को स्पष्ट रूप से कहा गया था कि टीम फिल्म पर किसी भी सवाल का जवाब नहीं देगी. खबर लहरिया की टीम का दावा है कि अक्टूबर 2021 में जब फिल्म ने सनडांस अवॉर्ड जीता और संयुक्त राज्य अमेरिका में रिलीज होने के बाद इसे लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा शुरू हुई तब खबर लहरिया टीम ने फिल्म निर्माताओं से कई बार अनुरोध किया किया कि बतौर संगठन उन्होंने फिल्म नहीं देखी है और वे उन्हें यह फिल्म दिखाएं. इस बीच फिल्म अभी तक भारत में रिलीज नहीं हुई है.

ऑस्कर में नामित होने के बाद फरवरी 2022 के अंत में जब उत्तर प्रदेश में चुनावी कवरेज चरम पर था तब खबर लहरिया की टीम ने आखिरकार ‘राइटिंग विद फायर’ को देखा और मार्च की शुरुआत में यह बयान जारी किया. एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाना और बेहद हाशिए पर रहने वाले लोगों के जीवन को विषय बना कर उसकी गहराई तक पहुंचना, इन दोनों के बीच संतुलन बनाना एक मुश्किल काम होता है और डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माण की नैतिकता कहती है कि फिल्म को तैयार करने में सबसे अधिक विश्वास की आवश्यकता होती है जिसे फिल्म निर्माताओं को न केवल अपनी फिल्म से संबंधित लोगों के निजी जीवन में प्रवेश करने और उसे फिल्माने से पहले हासिल करनी चाहिए, बल्कि कभी-कभी फिल्म को दुनिया के देखने तक भी बनाए रखना चाहिए.

फिर भी कड़ी सावधानी बरतने के बावजूद किसी डॉक्यूमेंट्री देखने के बाद निकलने वाले परिणाम की भविष्यवाणी करना कभी आसान नहीं होता. ‘राइटिंग विद फायर’ के फिल्म निर्माता अपने पात्रों को निडर पत्रकारों के रूप में दिखाने के लिए बहुत सावधानी बरतते हैं, जो सत्तावाद की चकाचौंध से घिरे देश में अच्छी लड़ाई लड़ रहे हैं. लेकिन मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और उनकी कट्टरपंथी राजनीति से खबर लहरिया टीम की सुरक्षा को लेकर कुछ नहीं करते. “द कश्मीर फाइल्स’ जैसी राज्य द्वारा अनुमोदित फिल्में इतिहास को रिवाइज करने का प्रयास करती हैं जबकि ऐसे विषयों से अलग काम करने वाले और सरकार की हल्की-फुल्की आलोचना करने वाले फिल्म निर्माताओं तक को या तो परेशानियों से गुजरना पड़ता है या प्रतिबंधित या गिरफ्तार होने का जोखिम रहता है. अपने ऑस्कर नामांकन के सहारे ‘राइटिंग विद फायर’ दुनिया भर में रिलीज हुई है और अधिकांश देशों में ऐप्पल टीवी पर उपलब्ध है. फिल्म निर्माताओं का कहना है कि उन्हें अभी भी भारत में डॉक्यूमेंट्री को दिखाने के लिए किसी तरीके के मिलन उम्मीद है. लेकिन घटनाओं के क्रम, फिल्म निर्माताओं और फिल्म में काम करने वालों के बीच दरार को देखते हुए ऐसा लगता है कि भारतीय दर्शकों को भारत की पहली स्वदेशी ऑस्कर नामित डॉक्यूमेंट्री फिल्म देखने के लिए और अधिक इंतजार करना होगा.