राजकुमार संतोषी की फिल्म गांधी गोडसे : एक युद्ध की कहानी वैकल्पिक इतिहास पर आधारित है यानी तब क्या होता यदि मोहनदास करमचंद गांधी गोडसे की गोली लगने के बाद बच जाते और जेल में बंद नाथूराम गोडसे के साथ उसकी विचारधारा पर बहस करते.
फिल्म में गोडसे की गोली से बच गए गांधी को फिर से मारने का प्रयास किया जाता है लेकिन इस बार गोडसे उन्हें खींच कर बचा लेता है. फिल्म गांधी और गोडसे के एक साथ जेल से बाहर आने और उनके समर्थकों द्वारा "गांधीजी जिंदाबाद! गोडसेजी जिंदाबाद!" के नारों के साथ समाप्त होती है.
रचनात्मकता के नाम पर ऐसी संवेदनहीन और बेहुदा प्रस्तुति बिरले ही मिलती हैं. संतोषी दावा करते हैं कि फिल्म में गांधी और गोडसे द्वारा प्रस्तुत दो परस्पर विरोधी विचारधाराओं के बीच संघर्ष दिखाने का प्रयास किया गया है. लेकिन फिल्म दक्षिणपंथियों के लिए एक वैचारिक हथियार के रूप में काम करती है. यह फिल्म राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कट्टर सदस्य गोडसे को गांधी के बराबर दिखाती है और हत्यारे को देशभक्त और नए भारत के प्रतीक के रूप में स्थापित करती है.
यह वह कहानी नहीं है जिसे लेकर फिल्म के शुरू में दावा किया जाता है कि, “1948 में भारत की आत्मा को झकझोर देने वाली घटना घटी. यह फिल्म उसी त्रासदी का एक काल्पनिक विस्तार है जिसमें आमने-सामने महात्मा गांधी और नाथूराम गोडसे हैं और दोनों में विचारों की भीषण जंग है. हमने दोनों के विचारों को बिना किसी पक्षपात के और ईमानदारी और सम्मान के साथ पेश किया है.” लेकिन "विचारों की लड़ाई" का वादा करने के बाद कहानी जल्द ही एक काल्पनिक हत्या की साजिश में बदल जाती है जो गोडसे को गांधी के रक्षक के रूप में दिखाती है.
यह फिल्म अतीत को एक कलात्मक नजरिए से पेश कर सकती थी लेकिन लेकिन संतोषी की फिल्म जो करती है वह यह कि वह अतीत को हास्यास्पद बना देती है. आज देश के लिए खतरनाक हो चुकी वैचारिक बहस को गहराई देने के बजाए फिल्म एक हत्यारे का चित्रण वीर के रूप में करती है और इसके लिए काल्पनिक चीजों का उपयोग किया जाता है. एक ऐसी दुनिया की कल्पना करते हुए जहां गांधी और उनके हत्यारे का एक साथ सम्मान किया जाता है फिल्म सांप्रदायिक सद्भाव और नफरत की विचारधारा के बीच के अंतर को बहुत धूमिल बनाती है. गांधी गोडसे : एक युद्ध गोडसे का गुणगान करने के संघ के प्रयासों में स्वभाविक रूप से पूरी तरह फिट बैठती है. यह परियोजना इस विचार पर आधारित है कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है और अल्पसंख्यकों को हिंदू प्रधानता मान लेनी चाहिए बजाए ऐसे समाज का निर्माण करने के जिसमें हर धर्म के नागरिकों की समान स्थिति हो.
ऐसे प्रयास 2014 में भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद से तेजी से शुरू हुए. संगठन के कार्यकर्ता लंबे तक आरएसएस के सदस्य रहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को हिंदू राष्ट्र के उद्धारकर्ता के रूप में और गोडसे को अग्रदूत के रूप में देखते हैं. गोडसे का प्रभाव उनके इस विचार से समझा जा सकता है कि गांधी की हत्या को गोडसे अपराध नहीं था बल्कि सही दिशा में उठाया एक कदम मानता था. इसलिए, वह हत्या शब्द का नहीं बल्कि “वध” शब्द जिसका प्रयोग करता है.
मोदी के शासन में देश भर से गोडसे के प्रति दया का भाव सोशल मीडिया पर हर जगह देखा जाता है, खासकर 2 अक्टूबर, गांधी की जयंती और 30 जनवरी को उनकी हत्या के दिन. उत्तर प्रदेश के मेरठ और मध्य प्रदेश के ग्वालियर में गोडसे के मंदिर भी उग आए हैं. बीजेपी के दो सांसदों- साक्षी महाराज और प्रज्ञा सिंह ठाकुर- ने खुल कर गोडसे की तारीफ की है. एक घातक मुस्लिम विरोधी आतंकवादी साजिश में अपनी कथित संलिप्तता के लिए आपराधिक कार्यवाही का सामना कर रहीं ठाकुर ने 2019 के आम चुनाव से ठीक पहले सबसे स्पष्ट रूप से यह भावना व्यक्त की थी जिसके बाद बीजेपी ने पहले से भी अधिक बड़े अंतर से जीत हासिल की. उन्होंने घोषणा की कि गोडसे “एक देशभक्त था, देशभक्त हैं और देशभक्त रहेंगा."
सांप्रदायिकता को आईना दिखाए जाने की जरूरत है, उससे वाद-विवाद करने की नहीं क्योंकि उससे संवाद शुरू होते ही धर्मनिरपेक्षता मर जाती है. गांधी की भारत की अवधारणा गोडसे के विचार के बिल्कुल विपरीत थी. गांधी और गोडसे के बीच मध्यम मार्ग खोजने का कोई भी प्रयास धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के सार को ही खत्म कर देगा. इसलिए यहां तक कि फिल्म के दो विचारधाराओं के बीच संवाद स्थापित करने का कथित मकसद एक भोली धारणा पर आधारित है कि गांधी और गोडसे के बीच मतभेदों को संश्लेषित किया जा सकता है.
जबकि फिल्म की घोषणा में दावा किया जाता है कि यह कल्पना पर आधारित है, संतोषी शुरुआत में ही इतिहास में उतरते नजर आते है. अपने घोषित काल्पनिक उद्देश्य को शुरू करने से पहले यह गोडसे की उत्तेजना के स्रोत का पता लगाते है, जिसने विभाजन के बाद हुए सांप्रदायिक उन्माद और भारत को पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए का भुगतान करने के लिए मजबूर करने के लिए उपवास पर जाने के गांधी के फैसले के बाद हत्या जैसा बड़ा कदम उठाने के लिए मजबूर किया. अविभाजित भारत के नकद शेष के अपने हिस्से के रूप में पाकिस्तान को दी गई राशि जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तानी घुसपैठ के कारण भारत सरकार द्वारा रोक दी गई थी.
इस बिंदु पर गोडसे और उसके साथी हत्यारे नारायण दत्तात्रय आप्टे के बीच जो बातचीत दिखाई गई है वह महत्वपूर्ण है. गोडसे कहता है, "इस गांधी ने हमें उन पाकिस्तानियों के सामने झुकने के लिए मजबूर किया है जिन्होंने हजारों हिंदू भाइयों को मार डाला और हमारी माताओं और बहनों के साथ बलात्कार किया. लेकिन हम क्या कर सकते हैं? गांधी सरकार से बड़े हैं. गांधी कानून से बड़े हैं. गांधी देश से बड़े हैं. वह महात्मा हैं. … गांधी ने अपना जीवन जिया है. अब गांधी को मरना होगा. मैं उसे समाप्त कर दूंगा.
फिर, गोडसे द्वारा गांधी को गोली मारने से एक दिन पहले, आप्टे ने उससे पूछा, "कल तुम्हारा हाथ नहीं कांपेगा?" गोडसे जवाब देता है, “मैं एक हिंदू हूं. और मुझे हिंदू होने पर गर्व है. मुझे इस हिंदू राष्ट्र की पवित्र भूमि पर जन्म लेने पर गर्व है. इसकी प्रतिष्ठा के लिए मैं अपनी जान दे सकता हूं और किसी की जान ले सकता हूं.”
हालांकि ऐसे छोटे दृश्य यह बातचीत फिल्म के इतिहास के साथ छेड़छाड़ की समस्या को प्रकट करते हैं. सबसे पहले, जैसा कि अभिलेखीय रिकॉर्ड से पता चलता है, गोडसे अत्यधिक असुरक्षित और कमजोर आत्मविश्वास वाला व्यक्ति था और हमेशा किसी को उसे राह दिखाने की आवश्यकता होती थी. हालांकि, फिल्म में उसके व्यक्तित्व को विपरीत दिखाया जाता है. गोडसे का एक साहसिक, निर्णायक व्यक्ति के रूप में चित्रण केवल उस छवि के साथ मेल खाता है जिसकी हिंदुत्व के अनुयायी पूजा करते हैं. दूसरा, फिल्म में गांधी को मारने का जो कारण बताया गया है वह एक झूठ था जिसे गोडसे ने अदालत से कहा था लेकिन स्थापित नहीं कर सका था. अदालत ने इसे निराधार पाया और खारिज कर दिया था.
वास्तव में हत्या स्वतंत्र भारत की प्रकृति को परिभाषित करने के लिए लंबे समय से चली आ रही लड़ाई का चरमबिंदु थी. विभाजन की परिस्थितियों ने ही इसे अवक्षेपित किया. हिंदू वर्चस्ववादियों ने एक ऐसे राष्ट्र पर जो कि राष्ट्रवादियों के नेतृत्व में खुद को एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के रूप में परिभाषित करने की ओर बढ़ रहा था बहुसंख्यकवादी और सांप्रदायिक सिद्धांतों को थोपने की मांग की. 1947 की शुरुआत तक आरएसएस और हिंदू महासभा के भीतर अत्यधिक नैतिक शक्ति वाले गांधी को वास्तविक समस्या के तौर पर पेश करना आम था क्योंकि उनकी उपस्थिति हिंदू राष्ट्र के उनके विचार के लिए हानिकारक थी. उनकी हत्या इस बाधा को दूर करने का एक खतरनाक प्रयास था.
फिल्म से गांधी की जो तस्वीर उभरती है, वह धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक सद्भाव के प्रति प्रतिबद्ध व्यक्ति की नहीं है, बल्कि किसी ऐसे व्यक्ति की है, जिसने मुसलमानों के प्रति तुष्टीकरण की राजनीति को जन्म दिया. यह एक ऐसा चित्रण है जो आरएसएस की मानसिकता के अनुरूप है.
यह वह मानसिकता थी जिसके कारण 8 दिसंबर 1947 को दिल्ली के बाहरी इलाके में आरएसएस के लोगों को दिए एक भाषण में संगठन के दूसरे प्रमुख एमएस गोलवलकर ने कहा था कि “गांधी मुसलमानों को भारत में रखना चाहते थे ताकि चुनाव के समय उनके वोटों से कांग्रेस को लाभ हो सके. लेकिन उस समय तक भारत में एक भी मुसलमान नहीं बचेगा. अगर उन्हें यहां रहने दिया गया तो जिम्मेदारी सरकार की होगी, हिंदू समुदाय जिम्मेदार नहीं होगा. महात्मा गांधी उन्हें और अधिक गुमराह नहीं कर सकते. हमारे पास ऐसे तरीके हैं जिनसे ऐसे लोगों को तुरंत चुप कराया जा सकता है लेकिन यह हमारी परंपरा है कि हम हिंदुओं के प्रति शत्रुतापूर्ण नहीं रखते हैं. अगर हम मजबूर हुए तो हमें उस रास्ते का भी सहारा लेना पड़ेगा.”
अंततः गांधी गोडसे : एक युद्ध हमारे अतीत के विकृत पहलू को चित्रित करता है. यह हमारे वर्तमान के हिंदुत्व के आकाओं के एजेंडे को पूरा करने के लिए "रचनात्मक” का सहारा लेती है.