कही देबे संदेस : जाति भेदभाव को पर्दे पर उतारने वाली पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म

फिल्म कही देबे संदेस का एक दृश्य जिसमें एक जमींदार एक भूमि विवाद को लेकर पुजारी से बात कर रहा है.
14 December, 2022
नायक नयनदास का पिता चरणदास. यह फिल्म के मुख्य पात्रों में से एक है.
नयनदास और जमींदार की बहन रूपा के बीच बचपन की दोस्ती को दर्शाता एक दृश्य.
ऊंची जाति का जमींदार और उसकी पत्नी दुलारी.
फिल्म में एक गीत जहां नयनदास अपने गांव के बारे में सोचते हुए उसकी प्राकृतिक छटा को याद करता है.
फिल्म के फोटोग्राफर आरवी गाडेकर (बाएं) फिल्म के निर्देशक मनु नायक (दाएं) और उनके दोस्त एमबी राज.
नायक की पहली फिल्म को लेकर खबर छापने वाले अखबार की कतरन. मोहम्मद रफी के साथ एक गीत रिकॉर्ड करने के बाद इसकी चर्चा फिल्म जगत में फैल गई थी.
गायक मोहम्मद रफी और नायक के साथ फिल्म के संगीत निर्देशक मलय चक्रवर्ती (बाएं से दाएं )
विश्वविद्यालय के छात्रावास में अपने कमरे में बैठा नयनदास और उसका दोस्त रविकांत तिवारी.
अपने दोस्त रविकांत तिवारी का गांव में स्वागत करता नयनदास. पेशे से डॉक्टर तिवारी एक क्लीनिक खोलने गांव में आता है.
अपने घर में बैठे नायक नयनदास के माता-पिता चरणदास और उनकी पत्नी फुलवती. इस दृश्य में फुलवती चरणदास को शांत करने और जमींदार के साथ बहस करने से रोकने की कोशिश करती है.
विश्वविद्यालय से लौटने के बाद रूपा से मिलते हुए नयनदास.
मुंबई में एक रिकॉर्डिंग स्टूडियो में मलय चक्रवर्ती (बाएं) और संगीतकार मानस मुखर्जी (दाएं)
फिल्म की शूटिंग रायपुर से 70 किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ के पलारी गांव में हुई थी.
मनु नायक के साथ छत्तीसगढ़ विधानसभा के सदस्य बृजलाल वर्मा. फिल्म की शूटिंग वर्मा के गांव में हुई थी. उन्होंने सामान और आवास को लेकर टीम की मदद की.
छत्तीसगढ़ के दुर्ग क्षेत्र में क्षेत्रीय लेखकों और कवियों के एक समूह. हिंदी साहित्य समिति के सदस्यों के साथ नायक. फिल्म की रिलीज के बाद समिति ने उन्हें आमंत्रित किया था.
"हो हो हो होरे" गीत का एक दृश्य जिसमें फसल के मौसम में मनाए जाने वाले जश्न को दिखाया गया है.
एक दृश्य जिसमें दीवाली के दौरान गाए और प्रदर्शित किया जाने वाला एक पारंपरिक लोक गीत और नृत्य सुआ नाच दर्शाया गया है.
एक दृश्य जिसमें पुजारी गांव के बच्चों से बात करके जाति पर उनके विचारों को प्रभावित करने की कोशिश करता है.
नयनदास द्वारा रूपा से अपने प्यार का इजहार करने के बाद नयनदास और उसकी मां फुलवती रूपा, उसकी भाभी दुलारी और उसकी बहन गीता से मिलते हुए.
एक दृश्य जिसमें रूपा अपनी बहन गीता के साथ बैठी है.
फिल्म की शूटिंग 22 दिनों तक पलारी गांव में हुई थी. जब रॉ फिल्म रील्स का स्टॉक खत्म हो गया तो शूटिंग खत्म कर दी गई.
मुंबई के एक स्टूडियो में रिकॉर्डिंग के दौरान.
फिल्म के सेट पर पर्दे के पीछे अभिनेताओं के साथ नायक.
पलारी गांव में दोपहर का भोजन करते कही देबे संदेस के कलाकार और चालक दल.
अंतर-जातीय विवाह दिखाए जाने पर ब्राह्मण समुदाय द्वारा फिल्म का विरोध करने के बारे में एक समाचार पत्र में एक रिपोर्ट. उन्होंने दावा किया कि कुछ दृश्यों को "जानबूझकर उनकी भावनाओं को आहत करने के लिए शामिल किया गया था."
एक दृश्य जिसमें कमल नारायण पांडे रूपा को उससे शादी करने के लिए मजबूर करने की कोशिश करता है.
एक दृश्य जिसमें मकान मालिक को पता चलता है कि उसकी बहन रूपा के बारे में अफवाहें फैलाने में पुजारी का हाथ था.
नयनदास रूपा को कमल नारायण द्वारा जबरदस्ती ले जाने का प्रयास करते हुए बचाता है.
फिल्म का आखिरी दृश्य, जिसमें नयनदास और रूपा के रिश्ते को आखिरकार समुदाय स्वीकार लेता है. और वे अपने परिवार और अन्य ग्रामीणों की उपस्थिति में शादी करते हैं.
फिल्म एक आशावादी संदेश के साथ खत्म होती है. फिल्म के आखिर में लिखा है, "प्रारंभ (एक नए युग का)."

1960 के दशक में भारतीय फिल्मों में कुछ उल्लेखनीय परिवर्तन दिखे. कुंदन कुमार द्वारा निर्देशित गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो जैसे कुछ क्षेत्रीय फिल्में स्थानीय भाषाओं में ही बनाई जा रही थीं. 1963 की यह फिल्म तेजी से हिट हुई और उन फिल्म निर्माताओं के लिए एक प्रेरणा बनी जो स्वदेशी फिल्में बनाने की कोशिश कर रहे थे. इसके बाद मारवाड़ी, मगधी, राजस्थानी, नेपाली और छत्तीसगढ़ी जैसी बोलियों में भी कईं फिल्में बनीं.

यह वह समय था जब मध्य प्रदेश (अब छत्तीसगढ़) के उत्साही युवा मनु नायक ने अपने सबसे करीबी और संवेदनशील विषय जातिगत भेदभाव पर पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाने का फैसला किया. कही देबे संदेस. यह फिल्म उस वक्त लोगों के बीच आई जब फिल्मी जगत में हिंदी फिल्मों का बोलबाला था. नायक की फिल्म में एक अंतर्जातीय जोड़े, अनुसूचित जाति समुदाय के एक लड़के और एक ब्राह्मण लड़की, के प्रेम संबंध को दर्शाया गया है.

फिल्म की कहानी ने रायपुर में ब्राह्मण समुदाय के एक वर्ग को नाराज कर दिया था. उन्होंने मनोहर टॉकीज थिएटर में, जहां इसे रिलीज किया जाना था, आग लगाने की धमकी दी और फिल्म पर प्रतिबंध लगाने का आह्वान किया. हालांकि फिल्म का प्रीमियर अप्रैल 1965 में हुआ और पूरे मध्य प्रदेश के सिनेमाघरों और गांव के मेलों में दिखाया गया. इसे एक क्लासिक पिक्चर भी माना गया है.

2018 की गर्मियों में दो सप्ताह तक मैंने फिल्म बनाने की प्रक्रिया और नायक के अपने जीवन को लेकर उनका साक्षात्कार लिया. नायक का जन्म जुलाई 1937 में रायपुर जिले के कुर्रा गांव में हुआ था. उन्होंने मुझे बताया कि उनका बचपन बहुत खराब गुजरा था. जब वह दो वर्ष के थे तब उनके पिता की स्वास्थ्य समस्याओं के कारण मृत्यु हो गई और उनकी मां ने उनका पालन-पोषण किया. उन्होंने बताया कि अपने हाई स्कूल के वर्षों के दौरान वह दोस्तों के साथ रहते थे और नियमित रूप से बुक स्टैंड पर फिल्म पत्रिकाएं देखते थे. सिनेमा की दुनिया में क्या हो रहा है इस बारे में वह हमेशा अपडेट रहते थे.

20 साल की उम्र में वह फिल्म जगत में काम की तलाश में बंबई भाग आए. कई असफल प्रयासों के बाद अंततः उन्हें 1957 में निर्देशक महेश कौल के नेतृत्व वाले एक प्रोडक्शन हाउस अनुपम चित्रा में लेखक पंडित मुखराम शर्मा के साथ साझेदारी में नौकरी मिल गई. वहां नायक को तलाक, संतान, मिया बीबी राजी और प्यार की प्यास जैसी फिल्मों के निर्माण और सेट पर काम करने का अवसर मिला. प्रोडक्शन हाउस में काम करने के दौरान नायक ने अपने स्वयं का प्रोजेक्ट शुरू करने से पहले पटकथा लेखन और सिनेमा व्यवसाय में अनुभव प्राप्त किया.

उन्होंने मुझे बताया, "मैं हमेशा अपने दम पर एक फिल्म बनाना चाहता था. मैं छत्तीसगढ़ी बोली में एक फिल्म बनाने और उसका नाम कही देबे संदेस रखने का निर्णय ले चुका था. मेरे दिमाग में मेरे बचपन के अनुभवों से प्रेरित एक विषय था. मैं एक फिल्म के माध्यम से इसके बारे में कुछ सामाजिक सरोकारों को उठाना चाहता था.

नायक ने उन अनुभवों के बारे में विस्तार से बताया जिन्होंने फिल्म के लिए उनके दृष्टिकोण को आकार दिया. उन्होंने कहा, “मैंने ऐसा अपने घर में भी होते देखा था. जब भी सतनामी जाति के मेरे दोस्त मेरे घर आते थे, तो मेरी मां उनके सामने कुछ नहीं कहती थी, लेकिन उनके जाने के तुरंत बाद वह घर के प्रवेश द्वार को साफ कर देती थी. ऐसी ही कुछ अन्य बातों ने मुझे गहराई से प्रभावित किया और मैंने महसूस किया कि जब तक जाति भेदभाव को जनता के सामने ठीक से नहीं रखा जाता, तब तक समाज प्रगति नहीं कर पाएगा.”

फिल्म छत्तीसगढ़ के एक गांव पर आधारित है जहां उच्च जातियों और सतनामी समुदाय के बीच नियमित संघर्ष होता है. फिल्म एक जमींदार की पुजारी से बातचीत से शुरू होती है कि कैसे वह सतनामी समुदाय के चरणदास नाम के एक व्यक्ति को भूमि विवाद पर अदालत में ले जाना चाहता है. चरणदास की पत्नी फुलवती उन्हें मामले पर बात रखने और समझौता करने के लिए मनाने की कोशिश करती है. इसके बाद पुजारी अपने भाषणों के जरिए उच्च जातियों के बीच सतनामी समुदाय के खिलाफ शत्रुता को भड़काने की कोशिश करता है. हालांकि फिल्म में गांव के बच्चों को जातिगत भेदभाव पर सवाल उठाते और अपने स्कूल में इस पर चर्चा करते दिखाया गया है.

कुछ वर्षों के बाद चरणदास का पुत्र नयनदास उच्च शिक्षा के लिए कृषि विश्वविद्यालय जाता है. और वहां नयनदास को पता चला कि वह जमींदार की बहन रूपा का बचपन का दोस्त रहा है. नयनदास बाद में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद गांव लौटकर खेती के तरीकों में समुदाय की मदद करता है. और रूपा के साथ फिर से दोस्त बन जाता है. उनकी बचपन की दोस्ती प्यार में बदल जाती है लेकिन वे दोनों यह भी जानते हैं कि उनका अलग-अलग समुदायों से होना एक बड़ी समस्या है.

जैसे ही नयनदास और रूपा का प्यार परवान चढ़ता है, उनके रिश्ते से ईर्ष्या करने वाला कमल नारायण पांडे नाम का एक व्यक्ति, यह अफवाह फैलाना शुरू कर देता है कि रूपा और उसकी बहन गीता की शादी की उम्र निकली जा रही है और गांव में इस पर तेजी से चर्चा होने लगती है. रूपा इससे बहुत दुखी होती है और घर से बाहर निकलने में झिझकती है. इस बीच, जमींदार अपनी दोनों बहनों के लिए योग्य वर खोजना शुर कर देता है.

इस बीच नयनदास सभी किसानों की एक ग्राम सहकारी समिति स्थापित करने की कोशिश करता है. और कमल आखिरकार रूपा को उससे शादी करने के लिए मजबूर करता है. उसके मना करने के बाद वह रूपा और नयनदास के बीच संबंध के बारे में गांव भर में कहानियां सुनाता है, क्योंकि गांव में एक अंतर-जातीय संबंध को वर्जित माना जाता है. दोनों समुदायों के लोगों के विरोध के बीच नयनदास रूपा से उसकी बहन गीता और उसके दोस्त रविकांत की मौजूदगी में एक मंदिर में शादी कर लेता है. शादी करने के बाद वे अपने परिवार से बात करते हुए तर्क देते हैं कि शादी करने वाले दो लोगों को अलग करना पाप है. वे इस बात पर जोर देते हैं कि लोगों को समाज को परिभाषित करना चाहिए न कि समाज जो लोगों को निर्देश देता है.

शुरुआत में नायक ने चार फाइनेंसरों से फिल्म के लिए 25,000 रुपए जुटाए. और सबसे पहले उन्होंने कलाकार मोहम्मद रफ़ी के साथ एक गाना रिकॉर्ड किया. जल्द ही उनकी फिल्म को लेकर उद्योग में चर्चा फैल गई. हालांकि, अनुपम चित्रा के उनके मालिकों ने उन्हें फिल्म बनाने से हतोत्साहित किया. उन्होंने नायक को बताया कि फिल्म बनाना आसान नहीं है और सवाल किया कि कौन से सिनेमा हॉल छत्तीसगढ़ी फिल्म दिखाएंगे. उन्होंने यह भी कहा कि वे उनके द्वारा किए गए खर्चों को चुका देंगे और उन्हें प्रोडक्शन हाउस से इस्तीफा नहीं देना पड़ेगा. लेकिन नायक ने प्रस्ताव ठुकरा दिया और फिल्म बनाने पर अड़े रहे.

फिल्म की शूटिंग 1964 में रायपुर से 70 किलोमीटर दूर एक गांव पलारी में नवंबर और दिसंबर के बीच 22 दिनों तक की गई थी. फिल्म की रीलों का कच्चा स्टॉक खत्म हो जाने से वहां शूटिंग खत्म करनी पड़ी. कुछ बचे हुए हिस्सों की शूटिंग मुंबई में की गई और वहीं फिल्म का संपादन भी किया गया था. 7 अप्रैल 1965 को इसे सेंसर बोर्ड का सर्टिफिकेट मिला. रायपुर के सिनेमा हॉल मनोहर टॉकीज को प्रीमियर के लिए प्री-बुक किया गया था.

नायक ने मुझे बताया, "अचानक एक विवाद खड़ा हो गया, ब्राह्मण समुदाय के एक वर्ग ने फिल्म पर यह कहते हुए आरोप लगाया कि यह उनके समुदाय का अपमान हुआ है. उन्होंने रायपुर में फिल्म की रिलीज का विरोध किया. ब्राह्मण समुदाय का एक प्रतिनिधिमंडल दिल्ली गया, जिसके बाद मैं भी दिल्ली के लिए रवाना हुआ.” ब्राह्मण प्रतिनिधिमंडल ने फिल्म का विरोध करने के लिए एक सांसद से संपर्क किया. जिसके बाद ही राजनीतिक हलकों से आई कुछ मदद ने इस फिल्म को बचाया.

नायक ने सतनामी समुदाय से आने वाली विधायक, मिनी माता से संपर्क किया. उन्होंने इस मुद्दे को उस समय की सूचना और प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी तक पहुंचाया. "इंदिरा गांधी ने दिल्ली के विज्ञान भवन में फिल्म का एक शो रखने का आदेश दिया और इसपर मेरा एकमात्र अनुरोध यह था कि संसद के सभी सदस्यों और छत्तीसगढ़ क्षेत्र के विधानसभा के सदस्यों को इसे देखने के लिए बुलाया.” नायक ने आगे कहा कि गांधी ने खुद फिल्म के कुछ हिस्सों को देखा और कहा कि यह राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने वाली फिल्म है. नायक ने बताया, "बयान जारी होते ही सारे विवाद खत्म हो गए. इसके अलावा मध्य प्रदेश सरकार ने लोगों के लिए सिनेमाघरों में फिल्म को कर मुक्त कर दिया." मध्य प्रदेश सरकार ने नायक से फिल्म के अधिकार खरीदे और अगले चार वर्षों के लिए फिल्म को कई गांवों में दिखाया.

वह बताते हैं कि पचास साल बाद भी फिल्म का मुख्य संदेश प्रासंगिक बना हुआ है. जाति भेदभाव बड़े पैमाने पर जारी है और एक अंतर-जातीय विवाह आज भी 1965 की तुलना में बराबर विवाद का विषय बना हुआ है. उस समय नायक ने इस उम्मीद से फिल्म बनाई कि एक दिन चीजें बदलेंगी और फिल्म के आखिरी सीन में नयनदास और रूपा को अपने परिवार और ग्रामीणों की उपस्थिति में शादी के बाद सभी की स्वीकृति और मेल मिलाप दिखाया गया है. फिल्म स्क्रीन पर एक आखिरी संदेश के साथ समाप्त होती है : प्रारंभ (एक नए युग का)

(अनुवाद : अंकिता)