महामारी का सिनेमा

कोविड-19 पर बनी भारतीय फिल्में हमें क्या बताती हैं?

ज्विगाटो, धुइन, भीड़ और 1232 किमी फिल्म के दृश्य
21 August, 2023

थके हुए प्रवासियों का एक समूह यह मान कर कि सारी रेलें बंद हैं, रेलवे ट्रैक पर ही आराम करने लगता है, उन सबको जल्द ही गहरी नींद लग जाती है और वे एक गुजरती ट्रेन के नीचे आ जाते हैं. अनुभव सिन्हा की फिल्म "भीड़" इसी असरदार सीन से शुरू होती है, जो कोविड​​​​-19 महामारी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अचानक लगाए गए लॉकडाउन के बाद की एक दिल दहला देने वाली सच्ची घटना पर आधारित है.

24 मार्च 2020 को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा कोविड-19 को एक महामारी घोषित करने के लगभग दो सप्ताह बाद मोदी रात 8 बजे राष्ट्रीय टेलीविजन पर आए और चार घंटे के नोटिस के साथ देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा कर दी. हालांकि इस कदम का उच्च जाति के उस मध्यम वर्ग ने खासा स्वागत किया जिसने प्रधानमंत्री के आग्रह पर अपनी-अपनी बालकनियों में खड़े होकर बर्तन और तवे बजाने का नाटक भी किया था. लेकिन मोदी की लॉकडाउन की घोषणा ने एक ही झटके में दिहाड़ी मजदूरों और निम्न वर्ग को तबाह कर दिया था.

शहर में अचानक आजीविका के संसाधनों के खत्म हो जाने और रेलों और सार्वजनिक परिवहन के बंद हो जाने से, लोग तेजी से शहर छोड़ने लगे. मजदूर कभी किसी साधन से तो कभी पैदल ही सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर अपने घरों के लिए निकल पड़े.

महामारी के व्यापक पैमाने, इसके ऐतिहासिक महत्व और सामूहिक आघात ने यह लगभग अपरिहार्य बना दिया कि इसका अनुभव सिनेमा के पर्दे तक पहुंचे. यह एक ऐसा विषय है जिसकी आने वाले कई दशकों तक बार-बार दोहराए जाने की संभावना है.

प्रवासी संकट पर आधारित "भीड़" फिल्म मोदी की प्राइमटाइम घोषणा के तीन साल बाद सिनेमाघरों में रिलीज हुई. 1940 और 1950 के दशक के युद्धोपरांत इतालवी नवयथार्थवादी सिनेमा से प्रेरित गंभीर काले और सफेद रंग में फिल्माई गई इस फिल्म की कहानी एक हाईवे चौकी के इर्द-गिर्द घूमती है, जिस पर सूर्य कुमार सिंह टिकास नाम का एक दलित पुलिसकर्मी तैनात है. यह भूमिका राजकुमार राव ने निभाई है.

सिन्हा ने अपनी फिल्म की एकमात्र चौकी पर प्रवासन की सबसे प्रमुखता से रिपोर्ट की गई घटनाओं को दिखाया है: एक जगह सीमेंट मजदूरों का एक समूह सीमेंट मिक्सर में बंद हो कर दरबे की मुर्गियों की तरह छुप कर यात्रा करता है, तो एक अन्य स्थान पर पैदल चल रहे समूह को अपमानजनक ढंग से सफाई करने वाले तरल पदार्थ में डुबो दिया जाता है. इन क्षणों का असर बेचैनी से भरी पृष्ठभूमि की वजह से झकझोरने वाला होता है.

व्यामोह और भय के पूरे माहौल के बीच चौकी पर बढ़ता तनाव, टिकास को टूट पड़ने के कगार पर ले आता है. वह दल में अपने अधीनस्थों और भीड़ पर नियंत्रण रखने की कोशिश करता है, जिनमें से कई उच्च जाति के हैं जो एक दलित से आदेश लेने पर खुले तौर पर नाराज हैं. चेकपॉइंट पर घटनाओं का सिलसिला टिकास में अपनी जातीय उत्पत्ति के बारे में असुरक्षा और अपनी दलित पहचान के बढ़ते स्वाग्रह और स्वामित्व दोनों को जन्म देता है.

लेकिन भीड़ फिल्म अपनी अवधारणा और बनावट दोनों में बहुत गतिहीन और सतही लगती है. फिल्म के साथ अहम समस्या यह है कि इसकी कहानी का मुख्य बिंदु विशेषाधिकार प्राप्त और संपन्न लोगों, खुद फिल्म के निर्देशक सिन्हा जैसे लोगों के बीच है. पलायन कर रहे लोगों की भीड़ के बीच, संपन्न पात्रों की ओर से बहुत सी सहज टिप्पणियां बहुत खराब लिखी गई हैं, खासकर चौकी पर डेरा डाले हुए टेलीविजन पत्रकारों की एक टीम के बीच. ये आकस्मिक टिप्पणियां मजदूर वर्ग की स्थिति पर कोई ध्यान ना होने के चलते उन्हें ठेठ अपमानजक पात्र बनाती हैं. उनकी आंतरिकता एवं मनोवाद नदारद रहते हैं. फिल्म में मौजूद विरोधी स्वर के बावजूद ज्यादातर भाग में प्रवासी मजदूर एक अमूर्त और अनाकार पीड़ित समूह ही बने रहते हैं.

इस अमूर्त मजदूर वर्ग के बीच एकमात्र अलग मजदूर का किरदार पंकज कपूर ने निभाया है जो उच्च जाति के सिक्योरिटी गार्ड बने हैं. प्रवासियों में किसी भी दलित या मुस्लिम किरदार को ऐसी आवाज नहीं दी गई है. ना ही मजदूर वर्ग और उसके अंतर-संबंधों के बीच ऊंच-नीच के बारीक फर्क, जो जाति, लिंग, धर्म और सापेक्ष विशेषाधिकार की दोष रेखाओं से संबंधित है, की जरा भी पेचीदगी के साथ जांच की गई है. भीड़ देखते समय मैंने खुद को एक बिल्कुल अलग फिल्म की कल्पना करते हुए पाया: प्रवासियों के नजरिए से एक फिल्म, ना कि इसके मल्टीप्लेक्स दर्शकों के नजरिए से.

रिलीज होने से पहले ही भीड़ हिंदू दक्षिणपंथियों के निशाने पर आ गई. फिल्म के ट्रेलर को यूट्यूब से हटा लिया गया और मोदी की लॉकडाउन की घोषणा और पलायन की तुलना भारत विभाजन से करने वाले संवाद को हटा कर वापस रिलीज किया गया. साथ ही सिन्हा की फिल्म का समर्थन करने वाले स्टूडियो टी-सीरीज ने कदम और पीछे खींचा और ट्रेलर को अपने यूट्यूब चैनल से ही हटा लिया.

यह जान पाना मुश्किल है कि ऐसी सेंसरशिप के बिना भीड़ ज्यादा सुसंगत फिल्म होती या नहीं. पिछले आधे दशक में सिन्हा ने इंडी मेलोड्रामा सिनेमा में महारत हासिल की है, जिसका मकसद भारतीय समाज में धर्म के आधार पर होने वाले भेदभाव पर सवाल उठाना है, जैसा कि फिल्म "मुल्क", "आर्टिकल 15" और "थप्पड़" में किया गया है. इन फिल्मों की समस्या घिसी-पिटी बातों को बढ़ावा देना और समस्याग्रस्त पदानुक्रमों को मजबूत करना है, भले ही वे भावनात्मक, प्रगतिशील राजनीति की ओर अपना रास्ता बनाने वाली हों. सिन्हा अपने जाने-माने तरीके को बरकरार रखते हुए, "भीड़" को एक शैलीगत शुरुआत देते हैं. लेकिन फिल्म का आधार एक गहरी मानवशास्त्रीय दृष्टि और एक गहरी बौद्धिक कठोरता की मांग करता है. उनकी पिछली फिल्मों की प्रगति और नैतिक जोर के बिना, भीड़ एक साथ उलझी हुई और दिखावटी बन जाती है: एक भ्रमित फिल्म, जिसमें कोई स्पष्ट दृष्टि नहीं है.

पत्रकार और फिल्म निर्माता विनोद कापड़ी की गुरिल्ला शैली की डॉक्यूमेंट्री "1232 किमी", लॉकडाउन-प्रेरित प्रवासी संकट का एक त्रुटिपूर्ण, लेकिन कहीं ज्यादा प्रामाणिक चित्रण है. मोदी की लॉकडाउन की घोषणा के एक महीने बाद, कापड़ी सात प्रवासियों के बारे में बताते हैं, जिनमें से ज्यादातर राजमिस्त्री और टाइल लगाने जैसे निर्माण कार्य करने वाले मजदूर हैं. वह गाजियाबाद से बिहार में अपने गृहनगर सहरसा तक साइकिल से जाते हैं. कापड़ी कार से उनका पीछा करते हैं. प्रवासी कई तरह की चुनौतियों का सामना करते हैं, पुलिस की पिटाई के डर से मुख्य राजमार्गों से बचते हुए उजाड़ ग्रामीण मार्गों और छोटी बस्तियों से होकर गुजरते हैं. (प्रवासी ठीक उसी तरह की चौकियों से बचना चाह रहे हैं जिस तरह की चौकियों पर राजकुमार राव का किरदार "भीड़" में दिखाया जा रहा है, हालांकि पुलिस की क्रूरता के चित्रण को सेंसर ने कम कर दिया था.) एक अनिश्चित शुरुआत के बाद कापड़ी की फिल्म जो प्रवासन के एक साल बाद प्रदर्शित हुई, सिनेमाई कौशल पर बहुत अच्छी ना होने पर भी अच्छी डॉक्यूमेंट्री की सूची में शामिल हो गई. अपनी कमियों के बावजूद, "1232 किमी" एक खास मुश्किल वक्त का एक बेशकीमती समकालीन दृश्य दस्तावेज है.

कापड़ी ने रास्ते में अजनबियों की दयालुता और क्रूरता को रिकार्ड किया, कई चुनौतियां प्रवासियों को पहले से ही पता थीं जैसे खाना ना मिलना और छत तलाशना और साइकिल मरम्मत की दुकानों की बार-बार तलाश करना. लेकिन कई अन्य अप्रत्याशित उदाहरण उनकी मार्मिक और पीड़ादायक निराशा को व्यक्त करते हैं: जैसे सड़क पर सही रास्ता पता ना चलने से चार घंटे की मेहनत बर्बाद हो जाना, पांच दिनों के बाद सड़क पर हैंडपंप के नीचे ठंडे पानी से नहाना.

उनकी हफ्ते भर की यात्रा के उत्तरार्ध में, मजदूरों को कई दयालु ट्रक ड्राइवरों की मदद मिलती है जो उन्हें कुछ दूरी तक सवारी करने देते हैं. आखिरकार मजदूरों को उत्तर प्रदेश और बिहार की सीमा पर राज्य की बसें मिल जाती हैं, जो उन्हें उनके गृह जिलों तक पहुंचाती हैं.

लेकिन यह सुकून का रास्ता जल्द ही एक और बुरे सपने में बदल जाता है क्योंकि मजदूर एक बार फिर खुद को एक ऐसे राज्य के सख्त बूटों तले दबा पाते हैं जो अक्षम और क्रूर है. भूखे और थके-हारे मजदूरों के लिए खाने या पानी का कोई इंतजाम नहीं था. दिन भर की बस यात्रा के दौरान प्रवासी यह देख कर हैरान थे. रात के अंधेरे में सहरसा पहुंचने पर भूखे लोगों को एक खस्ताहाल और गंदे क्वारंटीन सेंटर में ले जाया गया. तमाम शिकायतों के बाद भी कुछ नहीं हुआ. प्रवासी प्रभावी रूप से राज्य के कैदी बन कर रह गए थे.

अगले दिन प्रवासियों को एक स्टेडियम में ले जाया जाता है जिसे एक चिकित्सा केंद्र में बदला गया था. वहां जांचों के नतीजों को जानवरों की तरह उनकी बाहों पर लगाया जाता है. यह एक तरह का अमानवीयकरण था जो लोगों को यात्रा के अंत तक सहना पड़ा. जैसे-जैसे डॉक्यूमेंट्री आगे बढ़ती है, सात प्रवासी-साइकिल चालक चलते हुए एक समूह की तरह दिखने लगते हैं. कभी-कभी हम कापड़ी की कार के साइड मिरर से चल रहे साइकिल चालकों को देखते हैं, जो विशेषाधिकार में बड़े अंतर को दिखाता है. यह उन्हें और उनकी फिल्म के किरदारों को अलग करता है. ज्यादातर इंटरव्यू चलते समय लिए गए थे, कार साइकिल के साथ-साथ चलती है, जिससे फिल्म में भागते मजदूरों द्वारा महसूस की गई उन्मत्त हताशा दिखाई देती है.

"1232 किमी" के अंत में कापड़ी ने लिखा कि उनके नायकों के पलायन के सात महीने बाद, यह प्रवासन बिहार राज्य चुनावों में चर्चा का मुद्दा नहीं बन सका. लेकिन यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब उनकी फिल्म नहीं देती: प्रवासी मजूदरों के साथ ऐसा चौंकाने वाला दुर्व्यवहार चुनाव में मुद्दा क्यों नहीं बना?

फिल्म में जाति से जुड़ी अज्ञानता खास कर कापड़ी की डॉक्यूमेंट्री के साफ तौर पर शहरी, मध्यम वर्ग के दर्शकों को दोषमुक्त करने का काम करती है. केवल मोदी शासन और एक दुष्ट राज्यतंत्र के प्रति जवाबदेही को सीमित करके, कापड़ी उच्च जाति के वर्चस्ववाद के नतीजे बतौर मजदूरों की दुर्दशा को देखने में नाकाम रहते हैं जो उत्पीड़ित जातियों और उनके द्वारा किए जाने वाले शारीरिक श्रम दोनों को अमानवीय रूप में देखता है.

भीड़ से एक हफ्ते पहले 17 मार्च को नंदिता दास निर्देशित ज्विगाटो फिल्म सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई. भुवनेश्वर में बनी यह फिल्म महामारी के आर्थिक झटकों पर केंद्रित है. हास्य अभिनेता कपिल शर्मा द्वारा निभाया गया मानस का किरदार महामारी की शुरुआत में एक कारखाने में अपनी नौकरी खो देता है. आठ महीने की बेरोजगारी के बाद, उसने खाना पहुंचाने वाली कंपनी में नौकरी करने का फैसला किया है. इस फिल्म में 2020 की सर्दियों से लेकर, कोविड-19 की दूसरी लहर से पहले के महीनों की घटनाओं को रखा गया है.

दास की फिल्म इस नई नौकरी में मानस की रोजमर्रा की परेशानियों को दिखाती है. (ज्विगाटो शब्द साफ तौर पर स्विगी और जोमैटो का एक मिश्रण है, जो भारतीय बाजार पर हावी खाना पहुंचाने वाले ऐप हैं.) फिर भी दास को खाना पहुंचाने वाले व्यक्ति के दिन की व्यस्तता, तनाव और अमानवीय गति में कोई दिलचस्पी नहीं है. यहां तक ​​​​कि जब हम मानस जैसे मजदूरों द्वारा झेले जाने वाले अलगाव, अवमानना ​​और संरचनात्मक असमानता को देखते हैं, जैसे गुस्सैल ग्राहक, मध्यम वर्ग से अलगाव और ऐप जो भोजन करने जैसी उनकी मानवीय दिनचर्या की परवाह किए बिना उन्हें मशीनों में बदलने की कोशिश करते हैं, यहां दास की फिल्म का स्वर वह अजीब तरह से शांत रहता है, ऐसे अनिश्चित अस्तित्व के उतार-चढ़ाव को शक्तिशाली ढंग से दर्शाने में नाकाम रहती है. जबकि समाजशास्त्रीय रूप से अवलोकनशील, हालांकि अपनी अंतर्दृष्टि में शायद ही मौलिक हो, हम अपने शहरी परिदृश्य में जिस वर्ग विभाजन को मानते हैं, उसके बारे में, "ज्विगाटो" उन अवलोकनों को अपने नायकों के मनोविज्ञान के साथ जोड़ने में असमर्थ है.

"ज्विगाटो" की दृश्य भाषा 1970 और 1980 के दशक के समानांतर सिनेमा से मिलती जुलती है, जिसे आकर्षण के अभाव से भी परिभाषित किया जाता है. "ज्विगाटो" में हम जो देखते हैं, वह उस सिनेमा की कुछ स्पष्ट कमजोरियां हैं, जिनमें वंचितों के प्रति बेहद सौम्य और पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण भी शामिल है. वैश्वीकरण और उदारवादी पूंजीवाद द्वारा निर्मित परमाणुकृत दुनिया ने पश्चिम में ट्रम्पवाद और ब्रेक्सिट को जन्म दिया और इसी तरह भारत में सत्तावादी हिंदू अधिकार को बढ़ावा दिया. मानस जैसे पात्रों द्वारा बसाया गया अलग-थलग और अस्थिर सामाजिक परिवेश अपने आप में एक अनुदार राजनीति का नतीजा है.

"ज्विगाटो" में मानस की शारीरिक और मनोवैज्ञानिक जरूरतों की तरफ भी ध्यान दिया गया है. बाहर की दुनिया के लिए उसके बेकार और शक्तिहीन होने के साथ-साथ पत्नी के आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो जाने से, मानस की बढ़ती असुरक्षा की भवना ने घर के भीतर उसे और तेजी से मर्दवादी बनाना शुरू कर दिया. इसके बावजूद इन बदलावों के नतीजत उन लोगों पर पड़ने वाले असर के खतरों पर, जो आत्मसम्मान और सुरक्षा से महरूम हो कर तेजी से प्रतिक्रियावादी समाजिक और राजनीतिक सोच के शिकार हो रहे हैं, बहुत कम अध्ययन हुआ है.

इसके बजाए, अलंकृता श्रीवास्तव की "लिपस्टिक अंडर माई बुर्का" -जिसके सुस्त दृश्य और नीरस व्यक्तिपरकता "ज्विगाटो" में झलकती है- की तरह संरचनात्मक उत्पीड़न आजादी की एक काल्पनिक उड़ान में निचुड़ जाता है, यह एक चालाक संकल्पना है जो किसी तरह हजम नहीं की जा सकती है. दास अपने पात्रों की संभावित पेचीदा हालत और इसके कुछ गहरे निहितार्थों से असहज लगती हैं.

महामारी पर आधारित भारतीय फिल्मों में सबसे सफल युवा फिल्म निर्देशक अचल मिश्रा की "धुइन" है. यह फिल्म बिहार के खूबसूरत शहर दरभंगा पर आधारित है. महामारी की आर्थिक और सामाजिक तबाही, स्पष्ट रूप से बड़े शहरों के बजाए छोटे शहरों के जीवन की बारीकियों में ज्यादा दिखाई देती है. मुख्य नायक, पंकज अपने रिटायर पिता की तरह रेलवे में नौकरी करने के सुझाव को दरकिनार कर मुंबई जाने और अभिनेता बनने का सपना देखता है. हालांकि फिल्म दरभंगा से बाहर नहीं जाती, दूर के स्थानों का मोह हमेशा बना रहता है; परिवार के सरकारी आवास के पीछे रेलवे ट्रैक पर, हवाई जहाज की गड़गड़ाहट के नीचे पंकज एक तन्हा दोस्त की खुशी के लिए अपने अभिनय का अभ्यास करता है.

इन दूर की आकांक्षाओं की ज्यादा ठोस, वास्तविक जीवंत अभिव्यक्तियां हैं, जैसे कि नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से एक थिएटर स्नातक कुछ देर के लिए घर आता है जो प्रसिद्ध अभिनेता पंकज त्रिपाठी का जिक्र करता है. फिल्म के सबसे शानदार दृश्य में नायक पंकज खुद को कुछ दंभी सांस्कृतिक अभिजातों के साथ चर्चा में पाता है, जो महान ईरानी मास्टर अब्बास किरोस्तामी की फिल्मों पर बात कर रहे होते हैं. पंकज की बौद्धिक सीमाएं, जो आंशिक रूप से उसकी पृष्ठभूमि की सीमाएं हैं, बेरहमी से उजागर हो जाती हैं, जिससे वह अस्तित्व के संकट में पड़ जाता है.

इस क्षण तक, पंकज को अपनी क्षमताओं पर एक अलौकिक विश्वास था, यह सोचत हुए कि एकमात्र चीज जो उसे रोक रही है वह है दरभंगा से बाहर नहीं निकल पाना. सिनेमा और अभिनय की बारीकियों के बारे में बातचीत के बीच, पंकज को अचानक सांस्कृतिक और सामाजिक पूंजी की कमी का एहसास होता है. मुंबई का मजबूत आकर्षण और अभिनय का सपना उसके टूटे हुए आत्मविश्वास और उसके परिवार की आर्थिक कमी दोनों के कारण अधर में अटका हुआ है. महामारी के चलते पैदा अवसाद इसे और बढ़ा देता है, जिसके कारण पंकज पर एक मानसिक कोहरा छाने लगता है. महामारी के बाद की अर्थव्यवस्था में कम होते अवसरों को देखते हुए, पंकज बहाव और स्थिर आकांक्षाओं में फंसी एक ऐसी पीढ़ी का प्रतिनिधि है जिसके पास अपने मनचाहे भविष्य की ओर बढ़ने के लिए कोई सुसंगत खाका नहीं है.

अपनी पुस्तक "द लॉ ऑफ फोर्स" में राजनीतिक वैज्ञानिक थॉमस ब्लॉम हेन्सन ने गैर-कुलीन भारतीयों, हाशिए पर रहने वाले और वंचितों के प्रति पुलिस के रवैए को कम प्रबलता वाले आतंक का शासन कहा है. महामारी पर बनी फिल्में भारतीय राज्य और इसकी उपस्थिति और अनुपस्थिति पर गहन प्रकाश डालती हैं. जब जबरदस्त दबाव ("भीड़" और "1232 किमी") की बात आती है तो राज्य सबसे अधिक सतर्क और वर्तमान में काम करता दिखाई देता है और जब संरचनात्मक असमानताओं ("ज्विगाटो" और "धुइन") की बात आती है तो कहीं छिप जाता है. हालांकि आजादी के दशकों बाद भी ये औपनिवेशिक विकृतियां भारतीय राज्य पर हावी रही हैं, लेकिन मोदी शासन के तहत दोनों ही प्रवृत्तियां बदतर हो गई हैं. जैसे-जैसे आर्थिक गतिशीलता का मार्ग लुप्त होता जा रहा है, आत्मनिर्भरता पर बयानबाजी तेज हो रही है. निश्चित रूप से यह संभावनाओं और वास्तविक विकल्पों से वंचित लोगों के साथ एक क्रूर मजाक है.

इस समय का महामारी का सिनेमा, असमान गुणवत्ता का एक संग्रह, महामारी पर एक अंतरिम फैसला है. महामारी एक विश्व-ऐतिहासिक घटना थी. शायद इसके गहरे निहितार्थों का आकलन करने के लिए पर्याप्त भावनात्मक और आलोचनात्मक दूरी अभी भी नहीं बनी है. इस महामारी को अपना सिनेमा चाहिए. वह सिनेमा इंगमार बर्गमैन की "सेवंथ सील" और सत्यजीत की "गणशत्रु" के स्तर का हो जो महामारी के डर और दुस्वप्न को राजनीतिक और दार्शनिक संदर्भ में व्यक्त कर सके.

"धुइन" में भविष्य में महामारी दर्शाने वाले सिनेमा की झलक है. फिल्म के आखिरी, आकर्षक दृश्य में पंकज अपने पिता को एक दोस्त से उधार ली गई मोटरसाइकिल पर सेवानिवृत्ति के बाद नौकरी दिलाने पास के शहर में ले जाता है. हरे-भरे, गूढ़ ग्रामीण इलाकों की धूमिल पृष्ठभूमि में एक जबरदस्त करुणा नजर आती है. मिश्रा की नजर में महामारी ने उनकी मनोवैज्ञानिक निराशा को बढ़ा दिया है. जिसके बाद एकांत और सौन्दर्य की जगह अनगिनत कुचले सपनों की खामोश गूंज ही सुनाई देती है.