शाहरुख खान की मौन बगावत 

इंद्रनील मुखर्जी/एएफपी/गैटी इमेजिस
31 January, 2023

14 फरवरी 2016 की सुबह अहमदाबाद के हयात रीजेंसी के बाहर लगभग दस लोगों का एक झुण्ड मंडरा रहा था. जल्द ही उन्होंने “जय श्री राम” और “शाहरुख खान हाय-हाय” के नारे लगाते हुए होटल की पार्किंग में पत्थरबाजी शुरू की और खान की एक गाड़ी के शीशे को चकनाचूर कर दिया. इसके तुरंत बाद वे घटनास्थल से भाग खड़े हुए. इस मामले में होटल के सुरक्षा अधिकारी की शिकायत दर्ज करने के बाद पुलिस ने विश्व हिंदू परिषद के सात कार्यकर्ताओं को दंगा करने और संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. उसी दिन पुलिस को खबर मिली कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की युवा शाखा के सदस्य होटल के बाहर खान का पुतला जलाने की फिराक में हैं, जिसके मद्देनजर पूरे इलाके की घेराबंदी कर 17 प्रदर्शनकारियों को हिरासत में ले लिया गया.

इस घटना के तीन महीने पहले खान के 50वें जन्मदिन के मौके पर समाचार चैनल इंडिया टुडे पर प्रसारित एक ट्विटर टाउनहॉल में पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने उनसे पूछा था कि क्या देश में असहिष्णुता बढ़ रही है? खान का जवाब था, “देश में काफी असहिष्णुता है. लोग अब बिना सोचे-समझे अफवाहें उड़ाने लगे हैं. हम एक धर्मनिरपेक्ष देश हैं. हम वह देश हैं, जो शायद पिछले दस वर्षों से उम्मीद से कहीं बढ़कर उन्नति करने की कगार पर हैं. हम आधुनिक भारत की बात करते हैं, हम प्रगति की बात करते हैं, हम नए भारत की बात करते हैं- और हम बस बात करते रहते हैं.” उन्होंने कहा कि युवा कभी इस तरह की असहिष्णुता का पक्ष नहीं लेंगे. उन्होंने कहा, “एक देशभक्त का एक धर्मनिरपेक्ष इंसान न होना सबसे संगीन अपराध है.” 

एनडीटीवी की बरखा दत्त के साथ एक अन्य साक्षात्कार में खान ने किसी के धर्म को उसके खानपान तक सीमित करने को “घिसी-पिटी और मूर्खतापूर्ण” बात कहा और तर्क दिया कि “यदि हम हमेशा अपने धर्म के बारे में बात करते रहेंगे, तो फिर से अंधकार युग में चले जाएंगे.” उन्होंने कहा कि भारत की परिभाषा में असहिष्णुता की कभी कोई जगह नहीं रही, “लेकिन अगर हम मौजूदा स्थिति को नहीं बदलते हैं, तो यह हम सभी के लिए खतरनाक है.” जब दत्त ने उनसे पूछा कि 'एक देशभक्त का एक धर्मनिरपेक्ष इंसान न होना सबसे संगीन अपराध है' से उनका क्या तात्पर्य है, तो उन्होंने जवाब दिया कि एक सच्चा देशभक्त होने का सही मायनों में अर्थ है अपने समूचे मुल्क से मुहब्बत करना. “या तो आप अपने पूरे देश को चाहते हैं, या आप बस उसके कुछ हिस्सों को चाहते हैं.” उन्होंने देश में व्याप्त माहौल के विरोध में अपने राष्ट्रीय पुरस्कार लौटाने वाली फिल्मी हस्तियों को “साहसी” करार दिया और कहा कि उनके इस कदम से रचनात्मक स्वतंत्रता के बारे में बहस होनी चाहिए. उन्होंने भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान के छात्रों का भी समर्थन किया, जो उस समय एक भाजपा समर्थक की संस्था के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति का विरोध कर रहे थे, और विवाद को बातचीत के माध्यम से सुलझाने का अनुरोध किया.

खान की सभी टिप्पणियां काफी सधी हुई और संविधान में निहित आदर्शों पर आधारित थी. लेकिन ये उस दौर में जन्मी थी, जब नरेंद्र मोदी सरकार के शुरुआती वर्षों में असहिष्णुता पर एक उग्र राष्ट्रीय बहस अपने चरम पर थी. जल्द ही मामले ने तूल पकड़ा. भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने ट्वीट किया कि खान “भारत में रहते हैं, लेकिन उनका दिल पाकिस्तान में है.” वीएचपी की प्राची ने उन्हें “पाकिस्तानी एजेंट” कहा. गोरखपुर से भाजपा सांसद और उत्तर प्रदेश के भावी मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने कहा कि खान को “याद रखना चाहिए कि अगर समाज में एक बड़ा जनसमूह उनकी फिल्मों का बहिष्कार करता है, तो उन्हें एक सामान्य मुसलमान की तरह सड़कों पर भटकना पड़ेगा.” उन्होंने खान पर आतंकवादियों की भाषा बोलने का आरोप लगाया. लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, “मुझे लगता है कि शाहरुख खान और हाफिज सईद की भाषा में कोई फर्क नहीं है.”

जब सरदेसाई ने खान से पूछा कि अभिनेता समाज के प्रमुख मुद्दों पर अपनी राय व्यक्त क्यों नहीं करते हैं, तो उनका जवाब था, “आप जितने प्रभावशाली होते जाते हैं, उतनी ही कमजोरियां आपसे जुड़ती जाती हैं. अगर मैं आज किसी मुद्दे पर अपनी राय रखता हूं, तो कल लोग मेरे घर पर पत्थर फेंकेंगे. लेकिन फिर भी अगर मैंने अपनी कोई राय जाहिर की है, तो मैं इससे पीछे नहीं हटूंगा.” दिसंबर 2015 में अपनी फिल्म ‘दिलवाले’ के बॉक्स ऑफिस पर खराब प्रदर्शन के बाद उन्होंने मीडिया से कहा कि उन्हें विश्वास है कि उन्होंने “ऐसा कुछ भी नहीं कहा है, जिसके लिए मुझे माफी मांगनी चाहिए”, लेकिन उन्हें खेद था कि उनकी टिप्पणियों को गलत समझा गया. उन्होंने अपने दर्शकों से कहा कि “मैं माफी मांगता हूं, अगर किसी को परेशानी हुई. आप इस फिल्म को देखें क्योंकि इसमें सिर्फ मेरी नहीं, हजारों लोग की मेहनत है जिन्होंने इसे बहुत प्यार से बनाया है.”

जब वह अपनी अगली फिल्म रईस की शूटिंग के लिए गुजरात पहुंचे, तो वहां भी उनका विरोध जारी रहा. हयात रीजेंसी में हुई पत्थरबाजी हिंदुत्व संगठनों के दो हफ्ते तक चले प्रदर्शनों का नतीजा थी. वीएचपी नेता रघुवीर सिंह जडेजा ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “हम शाहरुख खान के खिलाफ विरोध कर रहे हैं, क्योंकि वह असहिष्णुता जैसे मुद्दों पर बयान दे रहे हैं. उन्हें इस तरह के निराधार बयान देने से बचना चाहिए, क्योंकि उनके करोड़ों प्रशंसक हैं और इस तरह के बयानों से देश की छवि धूमिल होती है. इस विरोध से हम उन्हें दिखाना चाहते हैं कि असहिष्णुता वास्तव में क्या होती है.” बढ़ी हुई पुलिस सुरक्षा के बीच फिल्म की क्रू ने शूटिंग पूरी की, लेकिन विवाद थमने का नाम नहीं ले रहे थे. 

उस वर्ष 18 सितंबर को कथित तौर पर पाकिस्तानी संगठन जैश-ए-मोहम्मद से जुड़े चार आतंकवादियों ने तत्कालीन जम्मू-कश्मीर राज्य के उरी शहर के पास एक सैन्य बेस पर हमला किया, जिसमें 19 भारतीय सैनिक मारे गए. इस हमले के तुरंत बाद महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (हिंदुत्व और मराठी उग्रवाद के समान तख्तों पर स्थापित एक राजनीतिक दल) ने रईस की रिलीज को रोकने की धमकी दी, क्योंकि इसमें पाकिस्तानी अभिनेत्री माहिरा खान भी एक भूमिका निभा रही थी. उन्होंने बॉलीवुड में काम करने वाले सभी पाकिस्तानी कलाकारों को देश छोड़ने के लिए 48 घंटे का अल्टीमेटम जारी किया. इसके साथ ही इंडियन मोशन पिक्चर्स प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन ने फिल्म उद्योग से पाकिस्तानियों को ब्लैकलिस्ट करने का प्रस्ताव पारित किया.

रईस के निर्माताओं का तर्क था कि चूंकि फिल्म की शूटिंग लगभग पूरी हो चुकी थी, इसलिए उनके लिए अब माहिरा खान की जगह किसी और को फिल्म में लेना एक बेहद महंगा सौदा साबित होता. उन्होंने बाकी बचे दृश्यों को अबू धाबी में शूट करने का फैसला किया. 23 अक्टूबर को मनसे अध्यक्ष राज ठाकरे और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री भाजपा के देवेंद्र फडणवीस की एक बैठक के बाद मनसे ने घोषणा की कि वह रईस की रिलीज का विरोध नहीं करेगी, क्योंकि इसे उरी हमले से पहले फिल्माया गया था. फिर भी दिसंबर में फिल्म के दो गाने फिल्माने के लिए दुबई और मोरक्को जाने से कुछ समय पहले शाहरुख ने ठाकरे से उनके आवास पर मुलाकात की और उनसे वादा किया कि माहिरा खान फिल्म के प्रचार में शामिल नहीं होंगी.

फिल्म निर्माता और मनसे की सिनेमा शाखा के अध्यक्ष अमेय खोपकर ने मुझे बताया, “राजसाहेब ने उन्हें स्पष्ट रूप से कहा कि भारत में पाकिस्तानी कलाकारों को अनुमति नहीं दी जाएगी. हम अडिग थे कि उन्हें शूट नहीं करने देंगे.” जब मनसे ने 'दिलवाले' का बहिष्कार किया था, तब भी खोपकर ही प्रदर्शनों के अगुआ थे. उस समय खान ने चेन्नई में बाढ़ पीड़ितों को 1 करोड़ रुपये की सहयोग राशि दान की थी, लेकिन खोपकर का कहना था कि उन्होंने कभी महाराष्ट्र के “सूखा पीड़ित और भूखे किसानों” की ऐसी कोई मदद नहीं की. उन्होंने खुद को पाकिस्तानी कलाकारों को देश से बाहर निकालने वाला शख़्स बताया. उन्होंने कहा, “ये लोग कभी भारत में आतंकवादी हमलों की निंदा करने वाले ट्वीट नहीं करते. जिस दिन सीमा पार से आतंकवाद खत्म होगा, हम ख़ुद उनके लिए रेड कार्पेट बिछाएंगे. पर अभी ये असंभव है. हमारे सैनिक मर रहे हैं और हम उनके लिए दरवाजे खोल रहे हैं.” खोपकर ने मुझे बताया कि तमाम विरोध के बावजूद उन्होंने रईस के अलावा शाहरुख खान की हर फिल्म देखी है. उन्होंने कहा कि वह फिल्म उद्योग में बिना किसी जान-पहचान के बावजूद अपना ख़ास मुकाम बनाने वाले खान के बड़े प्रशंसक हैं और हर साल मनसे द्वारा खान को उनके जन्मदिन पर गुलदस्ता भेजा जाता है.

अपने पचासवें जन्मदिन पर असहिष्णुता पर खान की टिप्पणियों ने एक बड़ा विवाद खड़ा कर दिया. रफीक मकबूल/एपी फोटो

रईस से जुड़े विवाद खान को एक ऐसे मोड़ पर ले आए थे, जहां से उन्हें फिल्म उद्योग और देश की बदलती तस्वीर साफ नजर आ रही थी. 2010 में  इंडियन प्रीमियर लीग में पाकिस्तानी क्रिकेटरों के बहिष्कार को खान ने “अपमानजनक” कहा था. गौरतलब है कि इस लीग में वह एक फ्रेंचाइजी के सह-मालिक थे. इसके विरोध में जब शिवसैनिकों ने उनकी फिल्म 'माई नेम इज खान' के पोस्टर खराब किए, तब भी उन्होंने माफी मांगने से इनकार कर दिया था. बरखा दत्त के साथ साक्षात्कार में जब उनसे पूछा गया कि क्या वह माहिरा खान का साथ देंगे, तो उन्होंने जवाब दिया कि यह बेहद “बचकाना” है कि पाकिस्तानी कलाकारों की भागीदारी से इस तरह के विवाद जन्म ले रहे हैं. उन्होंने कहा, “दो देशों की राजनीति को राजनेताओं पर छोड़ देना चाहिए.” उन्होंने पूछा कि दो देशों के बीच एक सांस्कृतिक आदान-प्रदान, जो “कुछ साल पहले तक आम हुआ करता था”, अब अचानक से मुद्दा क्यों बन गया था? लेकिन उस साक्षात्कार के तकरीबन एक साल बाद वह परिस्थितियों से समझौता करने को तैयार दिख रहे थे.

देश में बढ़ती असहिष्णुता के निरंकुश होने के बावजूद अब खान भारतीय धर्मनिरपेक्षता पर होने वाले हमलों की खुलकर आलोचना करने से परहेज करते हैं. वह उन सरल शब्दों तक से दूर रहते हैं, जो उन्होंने कभी सरदेसाई और दत्त के साथ साक्षात्कार में कहे थे. खोपकर ने मुझे बताया, “समय के साथ शाहरुख बदल गए हैं. वह अब राजनीतिक बयान या किसी के खिलाफ कोई संकेत नहीं दे रहे हैं. अच्छी बात है, काम से काम रखिए. यह उनके लिए जरूरी भी है. बोलना भी नहीं चाहिए.” शिवसेना के सांसद अरविंद सावंत ने इस बात पर सहमति जताई कि खान में “सुधार” हुआ है. उन्होंने कहा कि “शाहरुख को केवल काम पर ध्यान देना चाहिए, न कि राजनीति पर.”

दत्त ने वाशिंगटन पोस्ट के लिए अक्टूबर 2021 में एक लेख लिखा था. इसमें वे कहती हैं, “खान की मध्यवर्गीय जड़ें, एक हिंदू महिला से अंतरधार्मिक प्रेम विवाह और उनका खुलकर बहुसंस्कृतिवाद और ख़ुद को श्रेष्ठ बताने वाले हास्य को गले लगाना वह बातें हैं, जिसने उन्हें भारत और यहां के बहुलवाद की चमक, अच्छाई और संभावनाओं का प्रतीक बनाया था. लेकिन अब एक नीरस, क्षमाप्रार्थी और सबसे बढ़कर, मूक सार्वजनिक शख्सियत के रूप में उनका दिल तोड़ने वाला बदलाव उन सभी बातों को बयां करता है, जिन्हें आज के भारत में नष्ट, क्षत-विक्षत और ख़त्म किया जा रहा है.”

भले ही बॉलीवुड के सबसे बड़े सुपरस्टार को धमका कर चुप करा दिया गया हो और वह  राजनीतिक गलियारे के दोनों ओर से निशाने पर हों, लेकिन फिर भी खान ने समकालीन फिल्म उद्योग के उस धड़े से खुद को अलग रखा है, जो मोदी सरकार की चाटुकारितापूर्ण प्रशंसा करने या हिंदू वर्चस्ववाद को बढ़ावा देने पर आमादा रहता है. इसका यह अर्थ नहीं है कि खान की फिल्में देशभक्ति से रहित होती हैं. तीन दशक से अधिक के करियर में उनके निभाए पात्र अक्सर राष्ट्र के प्रति अपना प्रेम दर्शाते हैं- एक आदर्श भारत नहीं, बल्कि जटिल और त्रुटियों से परिपूर्ण एक देश. मीडिया विद्वान ज्योतिका विर्दी ने मुझे बताया कि उनके लिए खान “पुराने नेहरू युग और नए भारत का अंश हैं. वह दोनों के बीच खड़े थे. लेकिन साथ ही वह पतनशील नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता का एक हिस्सा भी थे. अब वह अपने करियर के मध्य पड़ाव पर हैं और उस स्तंभ को टूटते हुए देख सकते हैं.”

गणतंत्र दिवस पर रिलीज होने जा रही अपनी आगामी फिल्म पठान में खान एक खुफिया एजेंट की भूमिका में हैं, जो देश को अपना धर्म मानता है और देश-सेवा को कर्म. इसके बावजूद सोशल मीडिया पर उनकी फिल्म का बहिष्कार किए जाने की मांग हो रही है. इस क्रम में बहुत से लोगों ने असहिष्णुता के बारे में उनकी सात साल पुरानी टिप्पणियों को फिर हवा दे दी है. 14 दिसंबर को मध्य प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने फिल्म की स्क्रीनिंग को रोकने की धमकी दी, क्योंकि इसके “बेशर्म रंग” गाने के संगीत वीडियो में खान को अपनी सह-कलाकार दीपिका पादुकोण के साथ भगवा और हरे रंग के कपड़े पहने हुए दिखाया गया है. मिश्रा ने यह भी कहा कि पादुकोण “टुकड़े-टुकड़े गैंग” (मोदी सरकार समर्थकों द्वारा विश्वविद्यालय के छात्रों और ऐसे लोगों के लिए उपयोग किए जाने वाला अपमानजनक शब्द, जिन्हें वे देशद्रोही या “राष्ट्र-विरोधी” मानते हैं) की समर्थक हैं, क्योंकि उन्होंने पूर्व में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्रों पर हुए हमलों की निंदा की थी. 

पत्रकार अलीशान जाफरी ने मुझे बताया, “देश में मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार करने के अभियान एकदम आम हो गए हैं. मुस्लिम वेंडरों के बहिष्कार के लिए लोगों को उकसाने वाले छिटपुट स्वयंभू रक्षकों से लेकर खान जैसे प्रभावशाली मुसलमानों के बहिष्कार का समर्थन करने वाले राज्य के गृह मंत्री और कई सांसदों तक- हमने इस पागलपन को लगातार बढ़ते हुए देखा है. मुस्लिम उद्यमों के बहिष्कार की नीति मूल रूप से आरएसएस-भाजपा की बड़ी राजनीति का हिस्सा है, जिससे उन्हें राजनीतिक लाभ भी मिलता है.” पठान हालांकि दोनों धर्मों के कट्टरपंथियों के निशाने पर रही है. मिश्रा के बयान के एक दिन बाद इस्लामिक मौलवियों की एक समिति, मध्य प्रदेश उलेमा बोर्ड के अध्यक्ष सैयद अनस अली ने भी फिल्म की रिलीज को रोकने की धमकी दी. उन्होंने दावा किया कि फिल्म में महिलाओं का “अश्लील नृत्य” पठानों और मुसलमानों के पूरे समुदाय को बदनाम करता है.

एक ऐसे उद्योग में जहां मुस्लिम कलाकारों को अक्सर अपने धर्म को छुपाना पड़ता है, और एक ऐसे दौर में जिसमें मुस्लिम होने के संकट बढ़ते जा रहे हैं, खान ने न तो कभी अपनी धार्मिक पहचान को छोड़ा है और न ही खुद को इससे परिभाषित होने दिया है. यही कारण है कि उनके दर्शक कभी सामाजिक और धार्मिक सीमाओं तक बंधे हुए नहीं रहे. समाज के किसी भी दायरे से उनके प्रशंसक निकल आते हैं. जामिया मिलिया इस्लामिया में मीडिया स्टडीज की प्रोफेसर शोहिनी घोष ने बीजेपी की डिजिटल सेना के बारे में स्वाति चतुर्वेदी की किताब 'आई एम ए ट्रोल' में छपे एक लेख की ओर इशारा किया, जिसने उन्हें प्रभावित किया था. उन्होंने मुझे बताया, “एक हिंदू ट्रोल, जो मुस्लिम-विरोधी है, को पता चलता है कि वह शाहरुख खान नाम के जिस स्टार से प्यार करती आई है, वह एक मुस्लिम है. मेरी राय में वह हिंदुस्तान के ह्रदय सम्राट हैं."

दिसंबर 2016 में शाहरुख खान ने राज ठाकरे से उनके आवास पर मुलाकात की और उनसे वादा किया कि माहिरा खान रईस के प्रचार में शामिल नहीं होंगी. अंशुमान पोयरेकर/हिंदुस्तान टाइम्स

1997 में अभिनेता फरीदा जलाल के साथ एक साक्षात्कार में खान ने कहा कि बेहद कम उम्र में ही उनके भीतर देशभक्ति की भावना डाल दी गई थी. अपने पिता को याद करते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने हमेशा खान को सिखाया कि वह कभी भी अपनी स्वतंत्रता को हल्के में न लें. खान ने कहा, “उस समय मैं सोचता था कि उनका मतलब विदेशी शासन से मिली  स्वतंत्रता या ऐसा कुछ था.” लेकिन जैसे-जैसे वह बड़े हुए, उन्होंने महसूस किया कि उनके पिता का तात्पर्य मुफलिसी  और दुख से स्वतंत्रता के साथ-साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वतंत्र प्रेस के अधिकार से था. उन्होंने कहा कि हालांकि वह राजनीति में सक्रिय रूप से शामिल नहीं हैं, लेकिन देश की स्थिति के बारे में पढ़कर उन्हें दुख होता है क्योंकि “ये उस बात के खिलाफ है, जो मेरे पिता ने मुझसे कही थी: 'इस देश को वैसे ही आजाद रखना, जैसा मैंने इसे तुम्हें सौंपा है.' ”

खान के पिता, मीर ताज मुहम्मद, राष्ट्रवादी नेता खान अब्दुल गफ्फार खान के अनुयायी थे. अब्दुल गफ्फार खान को “सीमांत गांधी” भी कहा जाता था. उन्होंने उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत में एक अहिंसक उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष छेड़ा था. ताज मुहम्मद के चचेरे भाई शाहनवाज खान सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में एक जनरल थे. वह उन तीन वरिष्ठ अधिकारियों में से एक थे, जिन पर 1945 में राजा के खिलाफ युद्ध छेड़ने के आरोप में दिल्ली के लाल किले में मुकदमा चलाया गया था. पेशावर में पले-बढ़े ताज मोहम्मद भारत छोड़ो आंदोलन में एक सक्रिय भागीदार थे और एक किशोर के रूप में उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया था. 1946 में उन्होंने कानून के छात्र के रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला लिया. विभाजन के समय वे दिल्ली में ही रहे. जैसे ही नई पाकिस्तानी सरकार ने गफ्फार खान के अनुयायियों पर नकेल कसना शुरू किया, तो ताज मोहम्मद को भी ब्लैकलिस्ट में डाला गया, जिससे उनके घर लौटने पर रोक लग गई. 

ताज मुहम्मद कभी एक पेशेवर वकील नहीं बन पाए. अभिनय में हाथ आजमाने के लिए वह बंबई पहुंचे, जहां उन्होंने मुगल-ए-आजम फिल्म में भूमिका पाने का प्रयास किया. लेकिन जब बात नहीं बनी, वह जल्द ही दिल्ली लौट आए. उन्होंने कई असफल व्यवसायों में हाथ आजमाया और कुछ समय के लिए राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में एक कैंटीन भी चलाई. खान अपनी जीवनी लिखने वाली फिल्म समीक्षक अनुपमा चोपड़ा से कहते हैं कि उनके पिता “इतने ईमानदार थे, कि वे कभी अमीर नहीं बन सके.” ताज मुहम्मद के सबसे अच्छे मित्र थे कांग्रेस नेता कन्हैया लाल पोसवाल, जो बाद में हरियाणा के गृह मंत्री बने, और भावी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के करीबी भी रहे. 1957 में मुहम्मद गुड़गांव संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस उम्मीदवार अबुल कलाम आजाद के खिलाफ निर्दलीय खड़े हुए, लेकिन उन्हें एक भी वोट नहीं मिला.

खान की मां, फातिमा लतीफ, एक अमीर परिवार से थी, जो आजादी के बाद बैंगलोर आने से पहले हैदराबाद की तत्कालीन रियासत के बाशिंदे थे. ताज मुहम्मद को अपनी ससुराल पर निर्भर रहने से परहेज था और इसलिए खान का परिवार मध्य दिल्ली के राजेंद्र नगर इलाके में एक मामूली किराए के घर में रहता था. खान के बचपन के दोस्त और एक स्थानीय व्यापारी सुनील कुकरेजा ने मुझे बताया कि उनका परिवार मोहल्ले में एकमात्र मुस्लिम परिवार था. (उन्होंने अनुमान लगाया कि वहां अब शायद तीन मुस्लिम परिवार रहते हैं.) कुकरेजा ने कहा, “शाहरुख की मां राजनीतिक रूप से प्रभावशाली थी. अगर हमें कभी किसी काम या मदद की जरूरत होती, तो वह हमेशा आगे रहती थी. मुझे याद है कि वह एक बार हममें से कुछ लोगों और शाहरुख को इंदिरा गांधी के जन्मदिन समारोह में ले गई थी.”

फातिमा, जो एक मजिस्ट्रेट रही, कई वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं के करीब थी- आपातकाल के दौरान वह इंदिरा के बेटे संजय गांधी के साथ तुर्कमान गेट पर एक मुस्लिम-बहुल झुग्गी में गई थी, जिसे बाद में पुलिस की गोलीबारी के बीच ध्वस्त कर दिया गया था. कुकरेजा ने याद किया कि खान परिवार दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पूर्व अध्यक्ष और मेट्रोपॉलिटन काउंसिल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी राधा रमन के भी दोस्त थे. उन्होंने कहा, “हमारी कॉलोनी में ज्यादातर लोग कांग्रेसी थे. तब भाजपा थी ही कहाँ?”

कुकरेजा ने मुझे बताया कि खान को सब 'मेल' (ट्रेन) बुलाते थे, “क्योंकि वह बहुत तेज दौड़ता था.” उन्होंने याद किया कि जन्माष्टमी के त्योहार पर “शाहरुख कृष्ण बनता था. वह बहुत सुंदर लगता था.” खान दशहरे के दौरान वार्षिक रामलीला समारोह में भी नियमित भाग लेते थे. वह कभी राम के किसी बंदर सैनिक की भूमिका निभाते, तो कभी मध्यांतर के दौरान कविता पढ़ते. कुकरेजा कहते हैं, “वह हिंदुओं के बीच पल-बढ़ रहे थे. उनके लिए हिंदू त्योहार मनाना एकदम स्वाभाविक है.”

खान की बायोग्राफी में चोपड़ा ने लिखा है कि जहां फातिमा एक धर्मनिष्ठ मुस्लिम थी, वहीं ताज मुहम्मद “ख़ालिस  धर्मनिरपेक्ष थे और अपने परिवार में भी धर्मनिरपेक्षता को प्रोत्साहित करते थे.” उन्होंने रमजान के दौरान शायद ही कभी रोजा रखा हो और उनके “घर में हिंदू भगवान जगन्नाथ की एक तस्वीर भी थी.” खान ने 2015 के अपने साक्षात्कार में बरखा दत्त को बताया कि उन्होंने भी अपने बच्चों को ऐसी ही समन्वय सीख देने का प्रयास किया है और उन्हें अपने मन मुताबिक धर्म का पालन करने की आजादी है. उनकी पत्नी गौरी हिंदू हैं. उनके माता-पिता शुरू में उनकी और खान की शादी के खिलाफ थे, क्योंकि वह एक मुस्लिम होने के साथ-साथ एक संघर्षशील अभिनेता भी थे. लेकिन अंततः वह इस रिश्ते के लिए राजी हो गए. चोपड़ा लिखती हैं कि गौरी की माँ "अपनी बेटी की शादी के दौरान लगातार इस बात से चिंतित थी, कि कहीं कोई दक्षिणपंथी हिंदू या मुस्लिम संगठन वहां कोई बवाल न खड़ा कर दे.”

एक साक्षात्कार में खान कहते हैं कि एक दिन उनके बच्चे स्कूल से घर आए और उनसे पूछा कि वह हिंदू हैं या मुसलमान? “मैंने उनसे कहा कि तुम ईसाई लिख दो क्योंकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.” बचपन में खान ने एक आयरिश कैथोलिक समूह द्वारा संचालित सेंट कोलंबस स्कूल में शिक्षा प्राप्त की थी. वह कहते हैं, “और मुझे उस बारे में भी पता है. मैंने अपने बच्चों को वे कहानियां सुनाई हैं. ठीक वैसे ही जैसे कुरान से, रामायण से और महाभारत से भी.” राजदीप सरदेसाई के साथ अपने साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि वे अपने घर में हिंदू रीति-रिवाजों में भाग लेने से बिलकुल नहीं हिचकिचाते. उनका कहना था, “हम दीवाली पर सेवइयां पकाते हैं और ईद पर पटाखे फोड़ते हैं.” जब सरदेसाई ने उनके परिवार को एक प्रेरणा करार दिया, तो खान का जवाब था कि “यह प्रेरणा नहीं, सामान्य बात होनी चाहिए.”

स्कूल के बाद खान ने दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज में अर्थशास्त्र का विषय चुना. उनके शिक्षकों में से एक सुदर्शन लोराया ने मुझे बताया कि खान कैंपस की राजनीति में शामिल नहीं थे, लेकिन इकोनॉमिक्स सोसाइटी के एक सक्रिय सदस्य थे और प्रथम श्रेणी से स्नातक थे. उन्होंने कहा, “वह ज्यादातर सेमिनार आयोजित करते और चर्चा के विषय तय करते थे.” इसी दौरान खान ने खुद को अभिनय में डुबो दिय. उनकी शामें अब बैरी जॉन नाम के एक ब्रिटिश निर्देशक द्वारा चलाए जा रहे थिएटर एक्शन ग्रुप (टैग) के साथ बीतने लगी. टैग के साथ जुड़ाव के चलते ही उन्हें उनकी पहली फिल्म भूमिका मिली. प्रदीप कृष्ण और अरुंधति रॉय की 'इन विच एनी गिव्स इट टू दोस वन्स' में उन्होंने एक छोटी सी भूमिका निभाई. 1989 में दो राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली इस फिल्म को केवल एक बार दूरदर्शन पर प्रदर्शित किया गया था, लेकिन आगे चल कर इसने एक कल्ट फिल्म का दर्जा हासिल किया.

1989 में दो राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली इस फिल्म को केवल एक बार दूरदर्शन पर प्रदर्शित किया गया था, लेकिन आगे चल कर इसने एक कल्ट फिल्म का दर्जा हासिल किया.

खान ने 1989 में ही प्रसारित टेलीविजन श्रृंखला फौजी में अपनी भूमिका से सबका ध्यान आकर्षित किया. अपने अभिनय करियर पर ध्यान केंद्रित करने के लिए पढ़ाई छोड़ने से पहले खान ने जामिया मिलिया इस्लामिया के मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर में एक साल बिताया था. वहां के एक प्रोफेसर फरहत बशीर खान ने मुझे बताया कि वह जब भी दिल्ली आते थे, तो जाकिर नगर स्थित अपने घर जरूर जाते थे. बशीर याद करते हैं कि जब पहली बार उन्होंने ऐसा किया, तब उनके प्रोफेसर को उनका लंबा इंतजार करना पड़ा था. “मुझे पता था कि वह मुझसे मिलने आया था. लेकिन उसे आने में समय लग रहा था. और फिर वह पहुंचा और मुझे बताया कि जब वह मेरे घर का पता पूछ रहा था, तो पानवाले ने उसे फौजी स्टार के रूप में पहचाना और उसे सीधे मेरे घर लाने के बजाय अपने परिवार और दोस्तों से मिलाने ले गया.”

फौजी में खान के प्रदर्शन के चलते प्रोडक्शन कंपनी इस्क्रा की उन पर नजर पड़ी, जिसे निर्देशक कुंदन शाह, अजीज मिर्जा  और सईद मिर्जा चलाते थे. कई इस्क्रा प्रोजेक्ट्स पर काम करने वाले इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन के पूर्व उपाध्यक्ष अंजन श्रीवास्तव ने मुझे बताया कि उन तीनों ही लोगों ने (जिन्हें श्रीवास्तव कट्टर मार्क्सवादी के रूप में याद करते हैं) ने खान में “स्टार एलिमेंट” देखा और उनके करियर को लॉन्च करने का मन बना लिया. उन्होंने उन्हें तीन टेलीविजन शो में कास्ट किया, जो वे प्रोड्यूस कर रहे थे- उम्मीद, वागले की दुनिया और सर्कस. साथ ही उन्होंने यह तय करने में भी खान की मदद की, कि उन्हें कौन सी फिल्में साइन करनी चाहिए. श्रीवास्तव कहते हैं कि उन्होंने तय कर लिया था कि “ये लड़का सामने आना चाहिए.” अजीज मिर्जा के सुझाव पर ख़ान ने अवां-गार्ड निर्देशक मणि कौल के साथ फ्योदोर दोस्तोवस्की की 'द इडियट' पर आधारित एक दूरदर्शन लघु-श्रृंखला में काम किया. यह उन पहली किताबों में से एक थी, जो कभी ताज मुहम्मद ने अपने बेटे को दी थी. 2016 में मुंबई फिल्म समारोह में इस लघु-श्रृंखला को अहमक नामक फिल्म के रूप में प्रदर्शित किया गया.

मिर्जा मानते हैं कि इन शुरुआती वर्षों का खान की सोच पर गहरा प्रभाव पड़ा. वह कहते हैं, “शाहरुख सईद अख्तर मिर्जा, केतन शाह, अजीज मिर्जा, कुंदन शाह, मणि कौल की पृष्ठभूमि से आते हैं. उन्होंने अपने करियर की शुरुआत में ही इन लोगों के साथ काम कर लिया था. उसने सही आवाजों को सुना है. मैं इसमें नहीं पड़ूंगा कि वह अब क्या कर रहा है. लेकिन जब वह तैयार हो रहा था, तब उसके इर्द-गिर्द सही आवाजें थीं, प्रगतिशील विचार थे. इन सबने कहीं न कहीं उसे जरूर प्रभावित किया है. प्रभावित करना भी चाहिए.”

अपने दादा इफ्तिकार अहमद की गोद में बहनों के साथ शाहरुख खान. सौजन्य : मुश्ताक शेख / शाहरुख कैन / ओम बुक इंटरनेशनल

ताज मुहम्मद को आगे चल कर दो बार पाकिस्तान जाने और अपने परिवार के बचे हुए लोगों से मिलने की अनुमति दी गई. इसके ठीक बाद उनकी 1981 में कैंसर से मृत्यु हो गई थी. एक दशक बाद मधुमेह के कारण होने वाले सेप्टीसीमिया से फातिमा का भी अचानक देहांत हो गया. चोपड़ा लिखती हैं कि तब तक खान की “महत्वाकांक्षा हिंदी फिल्म नायक बनने की नहीं थी. वह अपने खुद के सिग्नेचर टॉक शो के साथ ओपरा विन्फ्रे जैसी एक प्रसिद्ध टेलीविजन शख़्सियत बनना चाहते थे.” लेकिन अपनी मां की मृत्यु के बाद पसरे  “निराशा और ग़ुस्से के कुहासे” से बाहर निकलने के प्रयास में उन्होंने मुख्यधारा के सिनेमा में कदम रखने का फैसला किया.

उस समय बॉलीवुड एक ऐसे अंतराल से गुजर रहा था, जब फिल्म जगत के सबसे बड़े स्टार अमिताभ बच्चन ने पांच वर्षों तक फिल्मों से दूरी रखने का निर्णय लिया था. उनके इस निर्णय के बाद उनका कोई स्पष्ट उत्तराधिकारी नजर में नहीं था. चोपड़ा लिखती हैं कि जहां सनी देओल, अनिल कपूर और जैकी श्रॉफ पद के “प्रमुख दावेदार” थे, वहीं अन्य दो खान (आमिर और सलमान) जो आगे चलकर शाहरुख के साथ फिल्म उद्योग पर राज करने जा रहे थे, अभी अपने शुरुआती दौर में थे. ऐसे समय में निर्माता नए चेहरों पर दांव खेलने के लिए तैयार थे और खान को जल्द ही ढेर सारे प्रस्ताव मिले. उन्होंने तुरंत चार फिल्में साइन की: अजीज मिर्जा की राजू बन गया जेंटलमैन, राज कंवर की दीवाना, राजीव मेहरा की चमत्कार और हेमा मालिनी की दिल आशना है. इनमें दीवाना सबसे पहले 25 जून 1992 को रिलीज हुई, और एक बड़ी हिट बनी. फिल्म समीक्षक निखत काजमी ने लिखा कि खान ने एक जुनूनी प्रेमी की “घिसी-पिटी भूमिका” को “नए जोश के साथ” निभाया था. उनके अति-नाटकीय अभिनय, जिसे उन्होंने बाद में खुद “घटिया- भड़काऊ, अश्लील और अनियंत्रित” कहा, के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ नए पुरुष अभिनेता का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला. इस फिल्म की सफलता के बाद बहुत से बड़े निर्माता उनके पास प्रस्ताव लेकर आने लगे थे.

फिर भी दिल है हिंदुस्तानी 2000 में रिलीज हुई थी. यानी उस दौर के लगभग एक दशक बाद, जब भारत की अर्थव्यवस्था का उदारीकरण हो रहा था और निजी क्षेत्र की शुरुआत हो चुकी थी.

मुझे साक्षात्कार देने से पहले अजीज मिर्जा ने जोर देकर कहा कि मैं उनकी फिल्म फिर भी दिल है हिंदुस्तानी को एक बार फिर देखूं. उन्होंने कहा, “आप बस ये फिल्म देखिए और बताइए कि इसमें ऐसा क्या है, जो आज हमारे सामने नहीं है.” मिर्जा की फिल्म 2000 में रिलीज हुई थी. यानी उस दौर के लगभग एक दशक बाद, जब भारत की अर्थव्यवस्था का उदारीकरण हो रहा था और निजी क्षेत्र की शुरुआत हो चुकी थी. खान और जूही चावला की मुख्य भूमिका वाली इस व्यंग्यात्मक फिल्म में देश को एक ऐसे मोड़ पर खड़ा दिखाया गया है, जहां उसकी राह कठिन नजर आती है. वह अपने पुराने आदर्शों से दूर जा चुका है और नई सहस्राब्दी में एक अनिश्चित कल का मुंह ताक रहा है. समाजशास्त्री जी अलॉयसियस के तीन साल पुराने एक लेख के अनुसार, “अखिल भारतीय राजनीति अब बहुसंख्यक जनता के भरोसे को आकर्षित नहीं करती है. अब इसकी जगह तेजी से उभर रही छोटी ईकाइयां ले रही हैं. यह राष्ट्रीयता के उदय और संघर्ष से स्पष्ट है, जो अक्सर क्षेत्रवाद, भाषाई रूढ़िवाद और अलगाववाद के आरोपों से बदनाम होती है. ऐसा लगता है कि भारत एक राष्ट्र-राज्य के बजाय एक शक्तिशाली राज्य प्रणाली बन गया है, जिसमें कई युद्धरत समुदाय शामिल हैं.”

फिल्म की शुरुआत एक विरोधाभासों से भरे राष्ट्र के जयगान से होती है:

हम लोगों को समझ सको तो समझो दिलबर जानी
जितना भी तुम समझोगे, उतनी होगी हैरानी
अपनी छतरी तुमको दे दें, कभी जो बरसे पानी
कभी नए पैकेट में बेचें, तुमको चीज पुरानी
फिर भी दिल है हिंदुस्तानी…

जावेद अख्तर द्वारा लिखित और उदित नारायण द्वारा गाया गया यह टाइटल ट्रैक 1955 की फिल्म श्री 420 के एक पुराने गीत पर आधारित है. (श्री 420 राजू बन गया जेंटलमैन के लिए भी एक प्रेरणा रही थी.) श्री 420 का गीत उस दौर में लिखा गया था, जब एक नया-नवेला आजाद मुल्क जहाजाें पर लदकर आने वाले सामान की राह देखता था. जहां पेट भरने के लिए आयात किए गए अनाज पर निर्भरता थी और स्वदेशी उद्योगों को स्थापित करने का संघर्ष जारी था. लेकिन नायक अपने कपड़े-लत्ते विदेशी होने के बावजूद एक हिंदुस्तानी दिल होने के गौरव पर उम्मीद बंधाता फिरता है. मिर्जा की फिल्म का गीत इसके विपरीत नयी शताब्दी में कदम रख रहे रहे हिंदुस्तान के विरोधाभासी जनमानस की तस्दीक करता है: भारतीय प्यार और पैसा दोनों चाहते हैं, वह ईमानदार भी हैं और बेईमान भी, उनकी आंखें आंसू और आकांक्षाओं दोनों से भरी हैं. नारायण की आवाज पर थिरकते खान एक वॉंटेड अपराधी के पोस्टर के सामने गाते हैं कि “हम ऐसे भी हैं” और फिर अगले ही पल उस अपराधी के वोट मांगते एक नेता-नुमा पोस्टर के सामने खड़े होकर थिरकते हैं कि “और हैं ऐसे भी.” वह आगे गुनगुनाते हैं कि “दिल दुखा है, लेकिन टूटा तो नहीं है/उम्मीद का दामन, छूटा तो नहीं है.”

फिल्म में खान और चावला प्रतिद्वंद्वी समाचार चैनलों के लिए काम करने वाले निडर पत्रकारों की भूमिका में हैं, जिन्हें प्रतिद्वंद्वी राजनेताओं का संरक्षण प्राप्त है. उनकी पत्रकारिता अक्सर खबर 'बनाने' पर ध्यान देती है, न कि उसे ढूंढने पर. फिल्म के एक दृश्य में अजय बख्शी (खान) अपने पिता, जिन्हें उसकी सफलता पर संदेह रहता है, से कहता है, “आपके टाइम में जब कोई कुत्ता आदमी को काट लेता था, तो वह खबर होती थी. बाद में वे खबरें आईं जब किसी आदमी ने कुत्ते को काट लिया. लेकिन आजकल खबर वे होती हैं, जब एक आदमी और कुत्ता मिल कर किसी गधे को काट लेते हैं. और अगर ऐसा नहीं होता, तो हम ऐसी खबर बना देते हैं. हम लोगों को वही बताते हैं, जो वे सुनना चाहते हैं.”

एक चुनाव अभियान के दौरान रेटिंग के लिए आपस में भिड़े हुए अजय बख्शी (खान) और रिया बनर्जी (चावला) अपने-अपने राजनीतिक आकाओं के लिए अनुकूल माहौल तैयार करने की जुगत में रहते हैं. लेकिन जैसे ही एक चुनावी रैली में एक प्रमुख उद्योगपति की हत्या होती है और राजनेता शहर में हिंसा फैलाने लगते हैं, तो दोनों ही अपने रटे-रटाए रास्ते से भटकने लगते हैं. विपक्षी नेता हत्या और हिंसा के के लिए मुख्यमंत्री को दोषी ठहराते हैं तो वहीं मुख्यमंत्री के आदेश पर हिंसा को सांप्रदायिक दंगों में बदल दिया जाता है. जब शहर तबाह हो रहा होता है, तब विपक्षी नेता पूजापाठ में लीन हो जाते हैं. ठीक वैसे ही, जैसे पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने कथित तौर पर तब किया था, जब हिंदुत्व की एक भीड़ ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिराया था.

फिल्म के बाकी हिस्से में बख्शी और बनर्जी उस हत्यारे को बचाने की कोशिश करते हैं, जिसे पुलिस द्वारा एक अंतरराष्ट्रीय  आतंकवादी घोषित कर दिया गया है, लेकिन वास्तव में उसने अपनी बेटी के बलात्कार और हत्या का बदला लेने के लिए उद्योगपति की हत्या की थी. उसे बचाने के लिए दोनों किरदारों को अपने वरिष्ठों और राजनैतिक संरक्षकों से टकराना पड़ता है, जो सच्चाई को दबाने के लिए हाथ मिला चुके हैं. जब सब कुछ विफल हो जाता है, तो दोनों पत्रकार सीधे तौर पर जनता से उस जेल में इकट्ठा होने की अपील करते हैं, जहां से हत्यारे की फांसी का टेलीविजन पर सीधा प्रसारण किया जा रहा है. फिल्म में दर्शाया गया है कि किस तरह इस प्रसारण को नामी स्पॉन्सर मिलते हैं और दर्शकों के लिए तरह-तरह की ईनामी प्रतियोगिताएं चलायी जाती हैं. उदाहरण के लिए, फांसी देने वाले जल्लाद की बीवी का नाम बताने पर दर्शकों को बंपर ईनाम देने की घोषणा होती है. मिर्जा ने मुझे बताया कि यह दृश्य फ्रांसीसी क्रांति के दौरान जनता द्वारा बैस्टिल किले की जेल को ढहा देने पर आधारित था. फिल्म में जनता जेल में दाख़िल होने में सफल रहती है, क्योंकि पुलिस राष्ट्रीय ध्वज लेकर चल रहे लोगों पर गोली चलाने से इनकार कर देती है.

एक फिल्म के तौर पर फिर भी दिल है हिंदुस्तानी में बहुत सी खामियां साफ नजर आती हैं. ठीक वैसे ही, जैसे इसमें दिखाए गए देश में और इसे बनाने वाले उद्योग में हैं. बॉलीवुड के सामान्य मानकों के हिसाब से भी फिल्म की कहानी अक्सर कमजोर पड़ती है और कलाकारों का अभिनय असाधारण रूप से औसत है. भले ही बख्शी को अपने किए पर पछतावा होता है और उसे एक आदर्श किरदार दर्शाया भी नहीं गया है, लेकिन फिर भी फिल्म की शुरुआत में वह जिस तरह बनर्जी के पीछे पड़ा रहता है, वह उस यौन उत्पीड़न को दिखाता है जो भारतीय मीडिया में बहुत आम है. जिस देश में जेलें बहुजनों से भरी हों (जिनके अपराध भी साबित न हुए हों), वहां जब दो ब्राह्मण पत्रकार एक अन्य ब्राह्मण को उसके गलती से किए अपराध से बचाते हैं, तो फिल्म बचकानी और जाति के तमाम जटिल समीकरणों से कटी हुई दिखती है. लेकिन अपनी तमाम कमियों के बाद भी फिल्म एक स्तर पर समाज पर टिप्पणी करती है. इस संदर्भ में इसे मुख्यधारा के सिनेमा में, विशेष रूप से हाल के वर्षों में, एक अपवाद माना जा सकता है.

यह रोचक है कि बतौर अभिनेता खान की सफलता उसी नव-उदारवाद से जुड़ी हुई है, जिसकी फिल्म आलोचना करती है. चोपड़ा लिखती हैं, “जिस तरह विजय” (अमिताभ बच्चन के “एंग्री यंग मैन” पात्रों द्वारा अक्सर इस्तेमाल किया जाने वाला नाम) “1970 के दशक के भारत के क्रोध का प्रतीक था, उसी तरह राज” (खान की सबसे बड़ी हिट, 1995 की फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे में उनके पात्र का नाम) “1990 के दशक के उदारीकरण के बाद के भारत की आकांक्षाओं का प्रतीक बना. शाहरुख सामाजिक उठा-पठक के दौर से गुजर रहे देश के सामूहिक आदर्शों और आकांक्षाओं का चेहरा बन गए.” देश में आर्थिक सुधारों के साथ “पश्चिमी वस्तुओं और विचारों” का भी आगमन हुआ, जिसके “बरक्स रूढ़िवादी और पारिवारिक मूल्यों की एक आरामदायक चादर बिछी हुई थी.” इन दो प्रवृत्तियों के बीच के संघर्ष (जिसने कई दफा हिंसा भड़काई) ने ही उस दशक की अधिकांश उथल-पुथल को परिभाषित किया. 

ऐसे जटिल समय में डीडीएलजे ने एक सरल समाधान पेश किया : फ्यूजन. फ्यूजन पहनावे और खानपान की तरह डीडीएलजे ने एक फ्यूजन लाइफस्टाइल का सुझाव दिया. शाहरुख़ का राज पूर्व और पश्चिम का सर्वश्रेष्ठ संगम था. वह हर किसी के लिए कुछ न कुछ था. वह एक युप्पी हीरो था, जिसके कूल कपड़ों और स्टाइल ने उसे एक यूथ आइकॉन बना दिया था. लेकिन वह खुले तौर पर अपने घरेलू स्वदेशी मूल्यों का भी मान रखता था और उन्हें बरकरार रखे था. उसकी नैतिकता पवित्रता पर नहीं टिकी थी. 1990 के दशक में लाखों शहरी भारतीयों की तरह राज भी परंपरा और आधुनिकता के बीच तालमेल रखना चाहता था. लेकिन उसकी चुनौतियां अक्सर वास्तविक संघर्षों के उलट खूबसूरती से सुलझ जाया करती थी. मसलन इस परिदृश्य में न तो टूटे दिल के साथ रहने की कोई बात होती थी, और न ही समाज को ठेंगे पर रखकर बनाए गए शारीरिक संबंधों की.

अभिनेता स्वरा भास्कर याद करती हैं कि डीडीएलजे के बाद से ही वह खान की प्रशंसक बन गई थीं. उन्होंने मुझे बताया कि खान ने “हिंदी फिल्म नायक की विषैली मर्दवादी छवि को नए सिरे से परिभाषित किया है, जहां किसी को उनसे खतरा महसूस नहीं होता. उन्होंने पितृसत्ता को जीतकर, या कहें रिझाकर, उसे चुनौती दी.” उन्होंने फिल्म की नारीवादी आलोचना से सहमति जतायी, लेकिन तर्क दिया कि “कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि इस फिल्म और एसारके की अदाकारी ने हमारी फिल्मों में पुरुष नायक के मानकों को बदल दिया था.” वह कहती हैं कि खान यहां एक “कोमल और संवेदनशील” स्टार थे और रोमांस की एक ऐसी छवि पेश कर रहे थे, जिसमें “आपका प्रेमी आपका दोस्त हो सकता है, आपको समझ सकता है और आपको नियंत्रित करने की कोशिश नहीं करता है.” उन्होंने कहा कि “एसारके की हर भूमिका में हमेशा एक कोमलता निहित होती होती है. वह कभी अतिवादी नहीं होते, हमेशा सम्मानीय रहते हैं और इसलिए हर कोई उन्हें देखकर खुश होता है. यही बात उनके स्टारडम पर भी सटीक बैठती है. वह सभी को खुश रखते हैं.”

फिल्म जगत में खान को लॉन्च करने में तीन “कट्टर मार्क्सवादियों” की अहम भूमिका थी. अपनी शुरुआती फिल्मों में उन्होंने पारंपरिक भूमिकाओं से परे जाकर डार्क एंटी-हीरो और अपश्चातापी खलनायक के बहुत से किरदार निभाए. लेकिन उन्हें बॉलीवुड का बादशाह बनाया उनकी आदर्श रोमांटिक नायक छवि ने, जिसे शोहिनी घोष “व्यापक अपील वाले एक मेट्रोसेक्शुअल महत्कांवाक्षी शख़्स” के रूप में देखती हैं, “जो एक नई और बेहतर दुनिया का वादा कर रहा था.” इसके अलावा वह सेलिब्रिटी एंडोर्समेंट को अभूतपूर्व स्तर तक ले जाने में अग्रणी थे. उन्होंने अपने ब्रांड को मजबूत करने के लिए विज्ञापनों का जमकर उपयोग किया और बॉक्स ऑफिस की अनिश्चितताओं के बीच अपनी कमाई की हिफाजत करते रहे. उन्होंने 1998 में फिल्मफेयर पत्रिका से कहा था, “मुझे अपने बंगले और अपने बेटे के भविष्य के लिए पैसों की जरूरत है. अब इसके लिए चाहे मुझे कोला बेचनी पड़े या कंडोम, इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.”

फिर भी दिल है हिंदुस्तानी में ऐसी ही व्यावसायिक ताकतों से उपजी स्टार पावर के माध्यम से उन्ही के बढ़ते प्रभाव के बारे में चेताने का प्रयास किया गया है. खान, चावला और मिर्जा ने ड्रीम्ज अनलिमिटेड नामक एक नए उपक्रम से स्वयं ही इस फिल्म का निर्माण किया था. यह उस समय फिल्म उद्योग में एक नया प्रयोग था और बुरी तरह असफल रहा था. जहां आलोचकों ने इसका उपहास उड़ाया, तो वहीं दर्शकों ने इसे खारिज कर दिया था. अटकलें लगने लगी कि बॉक्स ऑफिस पर खान के दिन लद चुके हैं. मिर्जा ने मुझे बताया, “इस फिल्म की ट्रैजडी यह थी कि जिन पत्रकारों को प्रबुद्ध माना जाता था और जो लोगों को फिल्म देखना सिखाते थे, उनमें ख़ुद में कमियां थी.” उन्होंने कहा कि वामपंथी नेता प्रकाश करात और पत्रकार राहुल सिंह और मार्क टली जैसे कई राजनीतिक लेखकों ने फिल्म को अपने समय से आगे की फिल्म कहते हुए उसकी सराहना की थी. लेकिन आलोचकों ने इसे समझने की कोशिश करने की जहमत नहीं उठाई.

मिर्जा ने कहा कि फिल्म का सार उस “सम्मोहक राष्ट्रवाद” का विरोध करना था, जिसका इस्तेमाल राजनीतिक वर्ग विरोध को कुचलने के लिए करता है. उन्होंने अठारहवीं शताब्दी के लेखक सैमुअल जॉनसन की प्रसिद्ध उक्ति को याद किया, “देशभक्ति एक बदमाश की अंतिम शरणस्थली है.” देखा जाए तो फिल्म की राष्ट्रवाद की धारणा वही थी, जिसे खान ने कभी बरखा दत्त के साथ अपने साक्षात्कार में व्यक्त किया था. उनका कहना था कि एक सच्चा देशभक्त पूरे देश को चाहता है, न कि उसके कुछ हिस्सों को. मिर्जा ने राष्ट्रीय ध्वज के अपने “रचनात्मक उपयोग” का उल्लेख किया, जिसे उन्होंने बोलने और विरोध जताने की स्वतंत्रता की ढाल के रूप में दिखाया था. वह कहते हैं कि यह एक प्रकार का बैनर था, जिससे सभी भारतीयों से साथ आने और देश की समस्याओं को हल करने का आग्रह किया गया था. इसके विपरीत मोदी सरकार अक्सर अपने समर्थकों और विरोधियों के बीच का फर्क दिखाने के लिए राष्ट्रध्वज या राष्ट्रगान जैसे प्रतीकों का इस्तेमाल करती है.

पार्श्व गायक अभिजीत भट्टाचार्य, जिन्होंने फिर भी दिल है हिंदुस्तानी में “आई एम द बेस्ट” सहित खान पर फिल्माए गए दर्जनों गाने गाए थे, ने फिल्म के बारे में कहा, “यह भले शोले या डीडीएलजे नहीं थी, लेकिन फिर भी एक क्लासिक थी.” मोदी के मुखर समर्थक रहे भट्टाचार्य ने 2017 में सरकार के प्रमुख आलोचकों को ट्विटर पर अपशब्द कहे थे, जिसके बाद उनका अकाउंट निलंबित कर दिया गया था. उन्होंने करण जौहर और महेश भट्ट जैसी कई प्रमुख बॉलीवुड हस्तियों पर भी निशाना साधते हुए कहा था कि वे पर्याप्त रूप से पाकिस्तान का विरोध नहीं करते हैं. खान ने उस समय उनके बयानों को “असभ्य” और “गलत” बताया था. भट्टाचार्य ने हालांकि मुझे बताया कि खान “किसी भी दूसरे नायक से बड़े राष्ट्रवादी हैं. दूसरों को पैसे देकर राष्ट्रवादी बनाया जा रहा है. लेकिन उन्होंने राष्ट्रवादी होने की भारी कीमत चुकाई है.” उन्होंने यह बताने से इनकार कर दिया कि वे किन फिल्मी सितारों को “खरीदा हुआ राष्ट्रवादी” मानते हैं. उन्होंने कहा, “जब आप देखते हैं कि राष्ट्रवाद को खुले आम बेचा जा रहा है, तो समझ जाइए कि उन्हें इस काम के पैसे दिए गए हैं. राष्ट्रवाद उनका पेशा है.”

फिर भी दिल है हिंदुस्तानी से इतर भट्टाचार्य खान की राष्ट्रवादी फिल्मों के उदाहरण के रूप में स्वदेस और चक दे इंडिया का नाम लेते हैं. आशुतोष गोवारिकर (सर्कस में खान के सह-अभिनेता) द्वारा निर्देशित स्वदेस में खान संयुक्त राज्य अमेरिका में नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन में काम करने वाले एक अनिवासी भारतीय की भूमिका में हैं, जो अपनी बचपन की दाई माँ की तलाश में अपनी मातृभूमि की ओर लौटता है. उसकी ये तलाश उसे एक सुदूर गांव में ले जाती है, जहां उसे ग्रामीण भारत की सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं का सामना करना पड़ता है. चक दे इंडिया! में वह एक कोच की भूमिका निभाते हैं, जिसे एक अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट के लिए पूरे देश से महिला हॉकी खिलाड़ियों के एक समूह को एकजुट करना है. दोनों ही फिल्में समकालीन भारत की उस कड़वी सच्चाई से दूर नहीं भागती, जहां जाति और धर्म के आधार पर नफरत फैली रहती है. लेकिन फिर भी वे बहुधा कड़वाहटों के बाद भी देश और देशवासियों के प्रति अपनी मुहब्बत जाहिर करती हैं. मसलन स्वदेस के एक दृश्य में खान गांव के बुजुर्गों के एक समूह से कहते हैं,  “भारत दुनिया का सबसे महान देश नहीं है. लेकिन हम सबसे महान देश बन सकते हैं.”

मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के पास स्थित सिनेमा हॉल मराठा मंदिर के मालिक मनोज देसाई, जो लगभग तीन दशकों से रोजाना 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' दिखा रहे हैं, ने मुझे बताया कि उनके लिए राज के बजाय 'मैं हूं ना' का मेजर राम और 'फिर भी दिल है हिंदुस्तानी' का अजय बख्शी वह किरदार हैं, जो असली जीवन के शाहरुख खान के ज्यादा करीब हैं. उन्होंने कहा, “मुस्लिम होने के नाते शाहरुख ने भारत के लिए काम किया है, खासकर फिर भी दिल है हिंदुस्तानी में. क्या आपको उनके चेहरे पर झिलमिलाता राष्ट्रीय ध्वज वाला फिल्म का पोस्टर याद है?”

अपने करियर के दौरान खान को अक्सर एक देशभक्त मुस्लिम- या “आदर्श मुस्लिम मॉडरेट” के रूप में अपनी साख साबित करने के लिए कहा गया है, जैसा कि विकास अर्थशास्त्री श्रेयना भट्टाचार्य ने अपनी किताब डेस्पेरेटली सीकिंग शाहरुख में लिखा है. खान ने 2013 में आउटलुक के लिए एक लेख लिखा था. इसमें वे कहते हैं, “जब भी इस्लाम के नाम पर कहीं हिंसा की कोई घटना होती है, तो मुझे उस पर अपने विचार व्यक्त करने और एक मुसलमान होने के नाते इस धारणा को दूर करने के लिए कहा जाता है, कि मैं इस तरह की अर्थहीन क्रूरता की निंदा करता हूं. मैं उन चुनी गई आवाजों में से एक हूं, जिन्हें ऐसे वक्त में अपने समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए बोला जाता है, ताकि अन्य समुदायों की ओर से हम सभी पर होने वाली प्रतिक्रियाओं को रोका जा सके. मानो हम भी उन घटनाओं के लिए जिम्मेदार हैं, जिन्हें एक धर्म के नाम पर अंजाम दिया जाता है. वही धर्म, जिसका अर्थ हमारे लिए और ऐसे अपराध करने वाले गुनहगारों के लिए एकदम जुदा है.”           

उन्होंने कहा कि कई बार उन्हें “राजनीतिक हस्तियां जाने-अनजाने में हर उस बात के प्रतीक के रूप में पेश करती हैं, जो भारतीय मुस्लिमों के ग़लत और देशभक्त न होने से जुड़ी होती हैं.” उन्होंने लिखा कि हालांकि उनके पिता एक स्वतंत्रता सेनानी थे, लेकिन फिर भी उन पर बार-बार पाकिस्तान की वफादारी का आरोप लगाया जाता है. “कितनी ही दफा रैलियां आयोजित की गई हैं, जिनमें नेताओं ने मुझे अपना घर छोड़कर अपने 'मूल वतन' लौटने की नसीहत दी है. निश्चित रूप से मैंने हर बार कुछ विवशताओं के चलते विनम्रता से उनका आग्रह मानने से इनकार किया है. मसलन मैंने उन्हें बताया कि मेरे घर में सैनिटेशन का कुछ काम चल रहा है, जिसके चलते मैं ऐसी लंबी यात्रा पर निकलने से पहले आवश्यक स्नान नहीं ले पाऊंगा. बस मुझे ये नहीं पता कि यह बहाना कब तक मेरा साथ निभाएगा.”

जैसा कि उनके अधिकांश राजनीतिक बयानों के साथ होता आया है, इस लेख से भी विवाद होने में देर नहीं लगी. हाफिज सईद ने खान को भारत में सुरक्षित महसूस नहीं होने पर पाकिस्तान में बसने के लिए आमंत्रित किया, तो पाकिस्तान के आंतरिक मंत्री रहमान मलिक ने भारत सरकार से उन्हें सुरक्षा प्रदान करने के लिए कहा. इसके जवाब में सरकार और विपक्ष दोनों ने मलिक को फटकार लगाते हुए उन्हें अपने देश पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा. खान ने पूरे मामले पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए अपने मीडिया बयान में कहा, “इस बेकार के मुद्दे पर सफाई देना मेरे लिए कष्टदायी है.” उन्होंने कहा कि उनके लेख में “यह दोहराया गया था कि कट्टरवादी और संकीर्ण सोच वाले लोग, जो अपने फायदे के लिए धार्मिक विचारधाराओं का ग़लत इस्तेमाल करते हैं, कई बार मेरे भारतीय मुस्लिम फिल्म स्टार होने का ग़लत अर्थ निकालते हैं” और एक बार फिर ऐसा ही हुआ था. उन्होंने आगे कहा, “लेख में कहीं भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से यह नहीं कहा गया है कि मैं असुरक्षित महसूस करता हूं,” या “उस प्यार के लिए लोगों का आभारी नहीं हूं, जो मुझे 20 साल के करियर में मिला है.” उन्होंने कहा कि वह बताना चाहते हैं कि “जो लोग मुझे बिन मांगी सलाह दे रहे हैं, उन्हें जान लेना चाहिए कि हम भारत में बेहद सुरक्षित और खुशहाल हैं. हमारे यहां जीने का एक अद्भुत लोकतांत्रिक, स्वतंत्र और धर्मनिरपेक्ष माहौल है.”

एक बार फिर से खान को उस लकीर पर संतुलन साधना पड़ा था, जिस पर वह भारत के सबसे प्रसिद्ध मुस्लिम के रूप में चलते आए हैं. उन्होंने बॉलीवुड में अपनी शुरुआत ऐसे समय में की थी, जब विभाजन के बाद से पहली बार देश में मुस्लिम-विरोधी भावना अपने चरम पर थी. दीवाना की रिलीज से छह महीने से भी कम समय पहले बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया गया था, जिससे पूरे देश में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी थी. वह जिस उद्योग में प्रवेश कर रहे थे, उसका इस्लाम के साथ हमेशा से एक जटिल रिश्ता रहा है. फिल्म विद्वान इरा भास्कर और रिचर्ड एलेन अपनी किताब इस्लामिक कल्चर ऑफ बॉम्बे सिनेमा में लिखते हैं, “शुरुआत से ही बॉम्बे सिनेमा में पारसी रंगमंच के प्रभाव के चलते इस्लामी संस्कृति और उर्दू भाषा, लैला-मजनूं और शिरीन-फरहाद की फारसी प्रेम कहानियां, ग़जल और मसनवी जैसी काव्य विधाएं और नज्म, ग़जल और कव्वाली जैसी गीत परंपराओं की मौजूदगी रही.” मीडिया विद्वान शकुंतला राव लिखती हैं कि भले ही यह सब पहलू फिल्म उद्योग के अभिन्न अंग रहे हों, लेकिन यहां इस्लाम को “लगभग हमेशा उच्च-जाति, उत्तर भारतीय पुरुष के आदर्श से कमतर” माना गया है. वह उप-औपनिवेशिक सिद्धांतवादी होमी भाभा के उस वर्णन का हवाला देती हैं, जिसमें वह कहते हैं कि मुसलमान “वह समूह है, जिसकी उपस्थिति बहुसंख्यक समूह की आत्म-परिभाषा के लिए महत्वपूर्ण थी.”

फातिमा लतीफ को विश्वास था कि उनका बेटा अगला दिलीप कुमार बनेगा. स्वतंत्र भारत के पहले बॉलीवुड सुपरस्टार कुमार का जन्म पेशावर में (ताज मुहम्मद के पैतृक घर से कुछ ही दूरी पर) मोहम्मद यूसुफ खान के रूप में हुआ था. विजयानंद गुप्ता / हिंदुस्तान टाइम्स

चोपड़ा लिखती हैं कि फातिमा लतीफ को विश्वास था कि उनका बेटा अगला दिलीप कुमार बनेगा. स्वतंत्र भारत के पहले बॉलीवुड सुपरस्टार कुमार का जन्म पेशावर में (ताज मुहम्मद के पैतृक घर से कुछ ही दूरी पर) मोहम्मद यूसुफ खान के रूप में हुआ था. उन्होंने अभिनेता देविका रानी के सुझाव पर अपना नाम बदला था. रानी ने उनसे कहा था कि एक हिंदू नाम से “आपके दर्शक आपसे जुड़ा हुआ महसूस करेंगे और ये स्क्रीन पर आपकी उस रोमांटिक छवि के भी अनुकूल रहेगा, जो आप आने वाले समय में हासिल करेंगे.” राव बताती हैं कि अपने चालीस साल के करियर में कुमार ने “केवल एक बार एक मुस्लिम चरित्र निभाया (मुगल-ए-आजम में सलीम) और वह हमेशा भारत की अल्पसंख्यक राजनीति या अपनी धार्मिक मान्यताओं पर सार्वजनिक रूप से चर्चा करने से बचते थे. उनकी किसी भी फिल्म के प्लॉट में कभी अंतर-धार्मिक प्रेम या अंतर-जातीय संबंध नहीं दिखाए गए. अपने करियर के अंत में वह जरूर अखिल भारतीय मुस्लिम ओबीसी संगठन के एक सक्रिय सदस्य बन गए थे और उन्होंने पसमांदा समुदायों के अधिकारों के लिए अभियान भी चलाया था. 1998 में जब उन्हें पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज से सम्मानित किया गया, तो शिवसेना ने जोर देकर कहा कि वह पुरस्कार लौटा दें या पाकिस्तान चले जाएं. उन्होंने ये दोनों ही शर्तें मानने से इनकार कर दिया. उन्हें तब देश के  के प्रधानमंत्री, भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी का समर्थन मिला, जिन्होंने साफ कहा कि कुमार की देशभक्ति के बारे में “कोई संदेह ही नहीं था.”

जब मैंने खान की टैग के दिनों की सहयोगी और अनुभवी फिल्म और टेलीविजन अभिनेत्री दिव्या सेठ से पूछा कि क्या खान ने कभी अपना नाम बदलने पर विचार नहीं किया, तो उनका जवाब था, “नहीं नहीं. उन्हें अपने नाम से बहुत प्यार है.” राव लिखती हैं कि बाबरी के उपरांत खान एक बड़े सवाल का जवाब बनकर उभरे थे. वह सवाल था, “भारतीय होने का क्या मतलब है?”

खान, जिन्होंने अक्सर खुद को जन्म से मुस्लिम, लेकिन लालन-पालन में “धर्मों का मिश्रण” बताया है, भाजपा के धार्मिक कट्टरवाद के कथानक के विरुद्ध एक नयी कहानी लिखना शुरू कर चुके थे. उन्होंने अपनी फिल्मों में लगातार राज, विक्रम और अर्जुन जैसे हिंदू नामों के साथ हिंदू नायकों की भूमिका निभाई. इस दौरान उन्होंने ख़ुद की एक महानगरीय और वैश्विक छवि गढ़ना भी शुरू किया. जल्द ही वे तेजी से फैल रही वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था के  धर्मनिरपेक्ष चेहरे का प्रतिनिधित्व करने लगे, जो भाजपा की विचारधारा के ठीक उलट था. दिल तो पागल है, कुछ कुछ होता है, और कल हो ना हो जैसी कई फिल्मों में खान ने दर्शकों को दिखाया, कि एक शख़्स एक ही समय में मुखर और बहुभाषी भारतीय के रूप में कई धर्मों और पहचानों को साथ लेकर चल सकता है.

ज्योतिका विर्दी ने मुझे बताया कि खान ने “कभी भी अपनी मुस्लिम पहचान को ढकने का प्रयास नहीं किया. उन्होंने इसे खुलकर गले लगा लिया. ऐसा करते हुए उन्होंने दूसरे धर्मों को भी गले लगाया.” वह कहती हैं कि यही “भारत में धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत और राष्ट्रीय परिभाषा है: कि हम सबको गले लगाते हैं, और हम सार्वजनिक या निजी क्षेत्र में किसी धर्म को अस्वीकार या उसका खंडन नहीं करते हैं. उन्होंने वास्तव में इन सब बातों को आपस में जोड़ा है और इन आदर्शों के कारण ही उन्हें इतना प्यार मिला है.”

शोहिनी घोष कहती हैं, “शाहरुख ने कभी अपनी मुस्लिम पहचान के बारे में कोई खेदपूर्ण रवैया नहीं रखा. इसके विपरीत, वह ख़ुद को इस्लाम के प्रतिनिधि के रूप में देखते हैं.” उन्होंने खान के तहलका पत्रिका को 2007 में दिए एक साक्षात्कार का हवाला दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि वह “इस्लाम के सिद्धांतों- शांति, अच्छाई, मानव जाति के प्रति करूणा” का पालन करते हैं. उन्होंने कहा था कि वह “एक आधुनिक मुसलमान” होने में यकीन रखते हैं, “अपनी मर्जी से” नमाज पढ़ते हैं और बहुविवाह जैसी पुरानी रीतियां, जो “प्रासंगिकता खो चुकी हैं”, को नहीं मानते हैं. “लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं कुरान पर सवाल उठा रहा हूँ. मैं चाहता हूं कि लोग यह जानें कि इस्लाम का अर्थ यह नहीं है कि हम एक कट्टर, क्रोधित या जिहाद करने वाला इंसान बनने तक सिमट जाएं. मैं चाहता हूं कि लोग जानें कि जिहाद का वास्तविक अर्थ अपने भीतर की हिंसा और कमजोरी पर काबू पाना है.”

यही वह वर्ष था जब खान ने चक दे इंडिया! में कबीर खान की भूमिका निभाई थी. फिल्म में कबीर विश्व कप में पाकिस्तान के खिलाफ एक हॉकी मैच में महत्वपूर्ण पेनल्टी चूकने के सात साल बाद सेवानिवृत्त होकर भारतीय महिला टीम को कोचिंग दे रहा है, ताकि अपनी खोई हुई साख वापस पा सके. खिलाड़ी के रूप में मैच हारने के बाद कबीर की पाकिस्तानी कप्तान से हाथ मिलाते हुए एक तस्वीर मीडिया में प्रसारित की गई थी, जिससे उस पर विरोधी टीम से मिले होने के आरोप लगा दिए गए थे. अपने ही मुल्क में लोगों के बढ़ते रोष के बीच उसे अपना घर छोड़ने पर मजबूर होना पड़ता है. 

पूरी दुनिया में अलग-अलग समय पर खेल में हार के बाद अल्पसंख्यक खिलाड़ियों की देशभक्ति पर सवाल उठाए जाने की घटनाएं होती रही हैं. 2021 यूरोपियन चैम्पियनशिप के फाइनल में पेनल्टी से चूकने वाले तीन अश्वेत इंग्लिश फुटबॉलरों को ऑनलाइन नस्लभेदी प्रताड़ना का सामना करना पड़ा था. 2022 विश्व कप फाइनल में पेनल्टी से चूकने वाले फ्रांसीसी खिलाड़ी भी इसका शिकार हुए थे. इंग्लिश टीम के एक सदस्य जूड बेलिंघम ने यूरोपियन चैम्पियनशिप के बाद सीएनएन से कहा, “अगर आप फाइनल तक के सफर पर गौर करें, तो आपको महसूस होगा जैसे पूरा देश एकजुट हो गया था और हम साथ आगे बढ़ रहे थे. हमारी टीम में हर तरह के खिलाड़ी थे- काले खिलाड़ी, अलग-अलग देशों के अलग-अलग पृष्ठभूमि वाले खिलाड़ी. और फिर जैसे ही वे पेनल्टी से चूक गए, वे अंग्रेज नहीं, सिर्फ काले बन कर रह गए.”

इरा भास्कर ने कबीर खान के किरदार के बारे में कहा, “यह एक ऐसा मुस्लिम किरदार है, जिसके बारे में यह समझा जाता है कि उसने भारत के साथ ग़द्दारी की है. ये फिल्म इस सच्चाई पर एक टिप्पणी है कि कैसे मुसलमानों को राष्ट्र के प्रति अपनी निष्ठा साबित करनी पड़ती है. अगर आप ऐसा नहीं करते हैं, तो आपको शक की निगाह से देखा जाता है. ऐसे में देखें, तो शाहरुख मुसलमानों पर किए जाने वाले संदेह से जुड़े मुद्दे पर सीधा हस्तक्षेप कर रहे हैं.” वह कहती हैं कि फिल्म के अंत में मिलने वाली मार्मिक जीत कबीर की आंखों में आंसू ले आती है, क्योंकि अब उन्होंने “एक मुसलमान के रूप में अपनी साख हासिल कर ली है. वह एक नायक के रूप में लौटते हैं.” 2010 में आई फिल्म माई नेम इज खान में शाहरुख ने रिजवान खान की भूमिका निभाई थी, जो एस्पर्जर सिंड्रोम से पीड़ित एक भारतीय मुसलमान है. वह अपने सौतेले बेटे, जो एक नस्लवादी हमले में मारा गया है, का नाम बेदाग करने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति से मिलना चाहता है. भास्कर के अनुसार यह फिल्म, जो मुंबई के आतंकवादी हमलों के ठीक एक साल बाद रिलीज हुई और 9/11 के बाद के अमेरिका की कहानी है, खान को “उनके रोमांटिक व्यक्तित्व से अलग” दिखाती है  और “भारतीय दृष्टिकोण से मुसलमानों की परेशानी” का चित्रण करती है. वह माई नेम इज खान की तुलना 2009 में रिलीज हुई दो अन्य फिल्मों से करती हैं, जो अमेरिका में  इस्लामोफोबिया के विषय पर केंद्रित थी: न्यूयॉर्क और कुर्बान. वह कहती हैं, “इन फिल्मों के नायक भी मुसलमान हैं. लेकिन वैश्विक इस्लामोफोबिया के जवाब में वे आतंकवाद का सहारा लेते हुए दिखते हैं. इनके बरक्स रिजवान खान दुनिया भर में यह कहते हुए घूमता है कि 'माई नेम इज खान एंड आई एम नॉट ए टेररिस्ट.' ”

घोष कहती हैं कि जहां माई नेम इज खान एक बेहद व्यक्तिगत फिल्म थी, वहीं एक “मुस्लिम के रूप में उनकी सबसे राजनीतिक फिल्म रईस है.” फिल्म में खान एक गैंगस्टर और राजनेता रईस आलम की भूमिका निभाते हैं, जो अपने समुदाय के लिए आशा की किरण है. जैसे-जैसे उसका कद बढ़ता है, राजनीतिक ताकतें उसे नीचे गिराने की साजिश रचती हैं. उसे एक प्रतिद्वंद्वी द्वारा देश में आरडीएक्स की तस्करी करने के लिए बरगलाया जाता है. जब इस आरडीएक्स का इस्तेमाल सिलसिलेवार बम धमाकों को अंजाम देने के लिए किया जाता है, तो रईस उस प्रतिद्वंद्वी को मार डालता है और खुद को पुलिस के हवाले कर देता है, यह जानते हुए भी कि वह मारा जाएगा. भास्कर कहती हैं, “रईस में भी वह अपने देश, अपनी मातृभूमि के लिए जान दे रहे हैं.”

रईस से जुड़े कई विवादों में एक विवाद ये भी था कि डियर जिंदगी में जहांगीर खान और ऐ दिल है मुश्किल में ताहिर तलियार खान की भूमिका निभाने के बाद यह खान की लगातार तीसरी मुस्लिम भूमिका थी. टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए एक कॉलम में लेखक और सामाजिक टिप्पणीकार हसन सुरूर ने इस “मूर्खतापूर्ण बहस” को विराम देने की मांग की. सुरूर ने तर्क दिया कि यह विवाद “एक व्यापक समस्या का उदाहरण था: भारतीय मुसलमान अपनी धार्मिक पहचान और राष्ट्रीय पहचान के संबंध में अक्सर दुविधा का सामना करते हैं. ऐसा लगता है जैसे उनसे किसी अलिखित आचार संहिता का पालन करने की उम्मीद की जाती है, ताकि उन्हें एक वफादार भारतीय के रूप में देखा जा सके.” घोष ने मुझे बताया कि जहां पिछली दो फिल्मों में खान के निभाए पात्र केवल “नाममात्र रूप से मुस्लिम” थे- जैसे उनकी पिछली ब्लॉकबस्टर फिल्मों के कई किरदार “नाममात्र रूप से हिंदू थे” और “किसी भी समुदाय के हो सकते थे”- वहीं आलोचक दावा कर रहे थे कि “उन्होंने रईस में पिछली सभी सावधानियों को धता बताकर खुलकर अपने किरदार की पहचान को अपनाया था.” (सूरूर) “एक तर्क ये भी है कि उनकी पिछली दो फिल्में इस फिल्म का पूर्वाभ्यास थी, जहां वह आखिरकार ख़ुलकर सामने आए.”

सुरूर ने पत्रकार राणा अय्यूब के इस तर्क का भी विरोध किया कि खान द्वारा लगातार तीन मुस्लिम भूमिकाओं को निभाना “एक ऐसा विद्रोह है, जिस पर ध्यान देने और उसकी प्रशंसा करने की आवश्यकता है.” उन्होंने इसे एक “चिंताजनक” बयान कहा, “क्योंकि यह सुझाव देता है कि एक मुस्लिम अभिनेता को मुस्लिम भूमिका निभाने के अपने फैसले को सही ठहराने की जरूरत है, जबकि हिंदू चरित्र निभाने वाले हिंदू अभिनेता से इस तरह की कोई उम्मीद नहीं की जाती. हमें दक्षिणपंथी उकसावों पर प्रतिक्रिया देते हुए सावधानी बरतने की जरूरत है, नहीं तो अंत में हम भी उनके ही जैसे हो जाएंगे.” 

अपनी फिल्मों के माध्यम से इस्लामोफोबिया की बहस में हस्तक्षेप करने के बावजूद खान हमेशा से केवल अपनी शर्तों पर मुस्लिम पात्रों की भूमिका निभाते आए हैं. 1997 में, जब बॉलीवुड में मुंबई के अंडरवर्ल्ड का बोलबाला था, खान ने गैंगस्टर अबू सलेम की इस मांग को सफलतापूर्वक ठुकरा दिया था कि वह एक मुस्लिम द्वारा बनाई जा रही फिल्म में काम करें. खान के साथ पहले काम कर चुके एक अभिनेता ने नाम न छापने की शर्त पर मुझे एक अन्य मुस्लिम निर्माता के बारे में बताया, जिन्होंने खान को एक फिल्म दी थी. “शाहरुख फिल्म करने के लिए तैयार हो गए थे. फिर एक दिन निर्माता ने उनसे कहा, 'हम मियां भाई जो हैं न, मिल कर काम करेंगे.' उन्होंने 'मियां भाई' सुनते ही फिल्म छोड़ दी थी. उन्होंने निर्माता से कहा, 'मैं आपके टाइप या श्रेणी का अभिनेता नहीं हूं.' ”

जिस तरह खान की हिंदू भूमिकाओं को लगभग विशेष रूप से सवर्ण तबके का पात्र समझा जाता है, उसी तरह उनके निभाए मुस्लिम चरित्र आमतौर पर अशरफ नजर आते हैं. उनके पूर्व सह-अभिनेता ने मुझे बताया कि एक अन्य निर्माता ने एक बार खान को “दिल्ली के एक एक अशिक्षित लड़के की भूमिका की पेशकश की, जो जीवन में संघर्ष कर रहा था. शाहरुख फिल्म की कहानी समझ गए और उनसे कहा, 'भाई, भाड़ में जाओ, मेरे घर वालों ने मुझे बड़ी मेहनत से पढ़ाया है. मुझे तुम्हारे घिसे-पिटे मुस्लिम नजरिए का हिस्सा नहीं बनना.' ” खान ने निर्माता को बताया कि वह एक बेहतरीन छात्र रहे हैं और कहा कि ‘मैं इस कहानी का हिस्सा हो ही नहीं सकता.’

इरा भास्कर के अनुसार, खान एक पुराने, सहिष्णु, धर्मनिरपेक्ष भारत का उदाहरण है, जहां “मुस्लिम एक केंद्रीय, अभिन्न, सांस्कृतिक और भावनात्मक भूमिका निभाते हैं.” वह कहती हैं कि मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान “उन्हें उनकी जगह दिखाने” का प्रयास किया जा रहा है. उन्होंने कहा कि वर्तमान में खान के “अंतरराष्ट्रीय स्टारडम और सत्ता में बैठे लोगों की नजर में उनकी हैसियत के बीच एक विडंबनापूर्ण अंतर है.”

2010 की फिल्म माई नेम इज खान में, शाहरुख ने एस्पर्जर सिंड्रोम वाले एक भारतीय मुस्लिम रिजवान खान की भूमिका निभाई है जो अमेरिकी राष्ट्रपति से मिलना चाहता है. प्रकाश सिंह/एएफपी/गैटी इमेजिस

असहिष्णुता पर खान की टिप्पणियों से उपजे विवाद कई वर्षों से जारी हैं और अभी भी उनकी हर फिल्म की रिलीज़ से पहले उनके बहिष्कार का मुद्दा तूल पकड़ने लगता है. साथ ही बॉक्स ऑफिस रिटर्न में उनकी हालिया फिल्मों का व्यापार मंद रहा है. ट्रेड एनालिस्ट कोमल नाहटा ने मुझे बताया कि इसका मुख्य कारण राजनीति न होकर खान का अपनी उस शैली से बाहर जाकर काम करना है, जिसके लिए वे जाने जाते हैं. वह कहते हैं, “भारत में फिल्म का भाग्य इस बात से परिभाषित नहीं होता है कि राजनीतिक रूप से कौन सत्ता में है. बड़े कद के सितारों को भूमिका की तुलना में फिल्म के विषय पर ध्यान देना चाहिए. सिर्फ अलग दिखने के लिए अलग-अलग चीजें करने से काम नहीं चलता, क्योंकि दर्शक ऐसा नहीं सोचते हैं. वे अपने पैसे की वसूली चाहते हैं.”

मोहम्मद जीशान अय्यूब, जिन्होंने खान की 2018 की फिल्म जीरो (उनकी सबसे बड़ी व्यावसायिक असफलताओं में से एक) में उनके साथ अभिनय किया था, की राय अलग है. उन्होंने मुझे बताया, “हुआ ये कि दो दिनों के भीतर फिल्म के लिए उग्र प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गई थी. कुछ जगहों पर ओपनिंग नहीं थी और हमें पता चला कि शनिवार, यानि अगले दिन से ही, लोगों ने फिल्म देखने जाना बंद कर दिया. फिल्म की समीक्षा हुई और फिर लोगों ने फिल्म पर जहर उगलना शुरू कर दिया.” उन्होंने कहा कि यह एकदम नयी तरह की प्रतिक्रिया थी. “यहां तक कि फैन ने भी” (2016 में आई फिल्म, जिसमें शाहरुख का एक प्रशंसक उनके लिए दीवाना होता है) “अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था. लेकिन फिर भी लोगों ने उसे खराब फिल्म कहने से पहले उसे देखा था. जीरो में जनता फिल्म देखने ही नहीं जा रही थी. शाहरुख को व्यक्तिगत गालियां दी जा रही थी. लोगों को बिना देखे ही फिल्म पसंद नहीं आई.” उन्होंने बताया कि उस समय लोगों ने उन्हें व्हाट्सएप संदेशों के स्क्रीनशॉट भेजे, जिसमें कहा गया था: “तुम इनको अपने पैसे देते हो- इस्लामियों को, जिहादियों को. ये बाहर जाकर बोलते हैं कि भारत असहिष्णु है.”

अय्यूब कहते हैं कि इस तरह के संदेशों और जीरो की असफलता ने खान को ख़ास प्रभावित नहीं किया. बल्कि उन्होंने उसी समय “अन्य फिल्मों की योजना बनाना शुरू कर दिया था.” गुजरात में रईस की शूटिंग के दौरान वीएचपी के विरोध के बाद भी उन्होंने खान का ऐसा ही व्यवहार देखा था. उन्होंने मुझे बताया, “वह शांत थे और हंसी-मजाक कर रहे थे. उन्होंने एक भी बार किसी की सहानुभूति पाने के लिए इस बात को नहीं उठाया. शाहरुख को रईस, जो एक राजनीतिक फिल्म थी, की स्क्रिप्ट काफी पसंद थी. वह एक विचारधारा का पालन करते हैं: ‘हमने फिल्मों की फील्ड चुनी है. तो हम अपनी फिल्मों के जरिए ही बात करेंगे.’ ”

जीरो के बाद हालांकि खान ने अपनी फिल्मों के माध्यम से भी बात करना बंद कर दिया. इक्का-दुक्का कैमियो को छोड़कर उन्होंने इसके बाद कोई फिल्म नहीं की है. बड़े परदे से उनकी ग़ैर-मौजूदगी के लिए आंशिक रूप से कोविड-19 महामारी तो जिम्मेदार थी ही, लेकिन शायद एक व्यक्तिगत संकट भी उनकी राह का रोड़ा बना हुआ था. 3 अक्टूबर 2021 को नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने मुंबई तट से दूर एक क्रूज पर छापे के दौरान आठ लोगों को गिरफ्तार किया, जिसमें खान के बेटे आर्यन भी शामिल थे. अवैध ड्रग्स रखने, इस्तेमाल करने और बेचने के आरोप में आर्यन को 29 अक्टूबर को जमानत मिलने से पहले करीब एक महीने तक हिरासत में रहना पड़ा था. (जूही चावला ने उनके 1 लाख रुपये के जमानत बॉंड पर हस्ताक्षर किए.) एनसीबी ने 27 मई 2022 को सबूतों की कमी और जांच में प्रक्रियात्मक मुद्दों के कारण उनके खिलाफ सभी आरोप रद्द कर दिए थे.

उस समय महाराष्ट्र के अल्पसंख्यक विकास मंत्री नवाब मलिक ने आरोप लगाया था कि एनसीबी के जोनल निदेशक समीर वानखेड़े ने आर्यन को जबरन वसूली रैकेट की योजना के तहत फंसाया था. उन्होंने एक पत्र जारी किया, जिसके बारे में उन्होंने दावा किया कि ये उन्हें एनसीबी के एक अनाम अधिकारी से मिला है. पत्र में लिखा था कि दिल्ली पुलिस के आयुक्त राकेश अस्थाना ने वानखेड़े और एनसीबी के एक अन्य अधिकारी केपीएस मल्होत्रा  (जिन्हें बाद में दिल्ली पुलिस का उप-आयुक्त नियुक्त किया गया) को निर्देश दिए थे कि “जैसे भी बन पड़े, बॉलीवुड कलाकारों को फंसाओ.” वानखेड़े के पिता द्वारा उनके खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर करने के बाद, मलिक ने 10 दिसंबर 2021 को अपने लगाए आरोपों के लिए बिना शर्त माफी मांगी और जाँच में शामिल अधिकारी के बारे में कोई और टिप्पणी न करने का वादा किया. दो महीने बाद उन्हें मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप में प्रवर्तन निदेशालय द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया. 

एक राष्ट्रीय समाचार पत्र के लिए इस मामले को कवर करने वाले एक पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर मुझे बताया कि उन्हें नहीं लगता कि आर्यन की गिरफ्तारी पूर्व नियोजित थी. उन्होंने कहा, “समीर वानखेड़े को राकेश अस्थाना का काफी करीबी माना जाता है. यह बहुत संभव है कि वह इस मौके का लाभ उठाकर ये देखना चाहते थे कि ये उन्हें कहां ले जाता है.” जब आर्यन के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिले, तो “पूरा मामला वानखेड़े के खिलाफ चला गया. उन्होंने निश्चित रूप से अपनी चादर से ज़्यादा पांव फैला लिए थे.” मलिक के आरोपों के बाद वानखेड़े को जांच से हटा दिया गया और उनके खिलाफ जांच शुरू कर दी गई. आर्यन के बरी होने के तीन दिन बाद, सरकार ने वानखेड़े को करदाता सेवाओं के महानिदेशक के चेन्नई कार्यालय में स्थानांतरित कर दिया. अक्टूबर में सौंपी गई जांच रिपोर्ट में वानखेड़े द्वारा संभाले गए मौजूदा और कई अन्य पूर्व मामलों में बहुत सी गड़बड़ियां पाई गई और कम से कम सात अधिकारियों के खिलाफ विभागीय कार्रवाई की सिफारिश की गई.

आर्यन की गिरफ्तारी का खान की ब्रैंड वैल्यू पर तत्काल प्रभाव पड़ा. सोशल मीडिया पर उनके द्वारा एंडोर्स किए जाने वाले उत्पादों के बहिष्कार की मांग होने लगी. मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, शिक्षा प्रौद्योगिकी कंपनी BYJU'S ने टेलीविजन से खान की भूमिका वाले अपने सभी विज्ञापनों को हटा लिया था. कई अन्य ब्रांडों ने त्योहार के मौसम में अपने नियोजित अभियानों को निलंबित कर दिया था. एक अभियान जिसे चलाया गया, वह था कैडबरी सेलिब्रेशन्स. इसमें खान उन छोटे व्यवसायों का समर्थन करते दिखे, जिन्हें महामारी के दौरान नुकसान उठाना पड़ा था. मोंडेलेज इंडिया में मार्केटिंग के उपाध्यक्ष अनिल विश्वनाथन ने मुझे बताया, “बहुत सोच-विचार के बाद हमने इसे चलाने का फैसला लिया. हम इससे होने वाले किसी भी हंगामे की भी तैयारी कर रहे थे. हमने लोगों की प्रतिक्रिया को ट्रैक करने और उस पर निगरानी रखने के लिए एक कंट्रोल रूम बनाया. ईमानदारी से कहूं तो अगर इसे जनता से नकारात्मक प्रतिक्रिया मिलती, तो हम भी इसे वापस लेने के लिए तैयार थे.”

लेकिन कैडबरी का अभियान सफल रहा, क्योंकि आर्यन खान के प्रकरण के चलते शाहरुख के लिए देश भर में सहानुभूति पैदा हो चुकी थी. यहां तक कि उनके पिछले आलोचकों के बीच भी. मनसे के फिल्म प्रतिनिधि खोपकर ने मुझसे कहा, “आर्यन के साथ ये नहीं होना चाहिए था. पता नहीं इससे किसी को भी क्या मिला. जब राजनीतिक दबाव आए, तो कुछ भी हो सकता है.” एनसीबी द्वारा आरोपों को रद्द करने के बाद शिवसेना सांसद अरविंद सावंत, जिनकी पार्टी उस समय राज्य में गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही थी, ने आर्यन को हिरासत में रखने के लिए जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की और केंद्रीय एजेंसियों पर राज्य को बदनाम करने का आरोप लगाया. सावंत ने मुझे बताया कि खान ने इस “मामले को कानूनी रूप से निपटाया. उन्हें किसी की जरूरत नहीं पड़ी. न ही उन्होंने किसी का एहसान लिया. वह प्रतिभाशाली हैं. और प्रतिभा को किसी के एहसान की आवश्यकता नहीं होती.”

ज्योतिका विर्दी ने मुझे बताया कि उन्होंने “शाहरुख खान पर तब ध्यान देना शुरू कर दिया, जब सब बुरी तरह से उनके बेटे के पीछे पड़े थे. तब मुझे लगा कि वह इतने दबाव में भी गरिमा की मूरत बनकर खड़े हैं. उन्होंने एक शब्द तक नहीं कहा.” अंजन श्रीवास्तव ने कहा कि प्रशासन को लगा था कि खान इस मामले में उनकी आलोचना करेंगे, जैसा उन्होंने 2012 में मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में किया था, जब एक सुरक्षा गार्ड ने कथित तौर पर उनके खिलाफ इस्लामोफोबिक टिप्पणी की थी और उनके बच्चों के साथ धक्कामुक्की की थी. वह कहते हैं,  “शाहरुख भड़का नहीं, सही किया. वे यही चाहते थे. वे बस मौके की तलाश में थे. लेकिन उसने उन्हें ये मौका नहीं दिया. वह नहीं बोला.” स्वरा भास्कर ने सहमति जताते हुए कहा, “शाहरुख ने पूरे मामले में किसी भी सभ्य भारतीय नागरिक की तरह व्यवहार किया. ऐसे मुश्किल वक्त में भी उन्होंने धीरज और गरिमा के साथ न्यायपालिका पर विश्वास किया. उनके परिवार पर किए गए जुबानी हमलों और भड़काऊ मीडिया ट्रायल के बावजूद अंत में जीत उन्ही की हुई.”

विज्ञापन फिल्मों के निर्देशक प्रह्लाद कक्कड़ कहते हैं, “अगर उन्होंने खुलकर बात की होती और कोई पक्ष लिया होता, तो स्थिति कुछ और होती. अगर उन्होंने कहा होता, ‘देखो, मुसलमान होने के नाते मुझे सताया जा रहा है,’ तो आधा देश उनका साथ छोड़ देता. और वह यह बात जानते हैं.”

भास्कर ने कहा कि 2014 से “शाहरुख को लगातार निशाना बनाया जा रहा है. हिंदुत्व विचारधारा इतनी संकीर्ण है कि उन्हें ये बात सालती रहती है कि जिस देश में अस्सी फीसदी आबादी हिंदू है, उस देश में पैंतीस साल से तीन मुस्लिम व्यक्ति अपना सुपरस्टार का दर्जा बरकरार रखे हुए हैं.” फरवरी 2022 में खान ने गायक लता मंगेशकर के अंतिम संस्कार में प्रार्थना करते हुए अपना मास्क हटाया और हवा में फूंक मारी. इस्लामी रीति-रिवाजों में ऐसा करना बुराई को दूर रखने का पारंपरिक तरीका माना जाता है. जल्द ही दो भाजपा नेताओं ने शाहरुख़ पर मंगेशकर की पार्थिव देह पर थूकने का आरोप लगाया. खान की किसी भी ग़लती का घात लगाकर इंतजार करने वाले मोदी सरकार समर्थकों के पैंतरों के बीच अब शायद खान भी ये समझ चुके हैं, कि उनकी चुप्पी ही उनका सबसे शक्तिशाली विकल्प है.

ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार की ज्यादतियों के दौर में उनकी चुप्पी विवादास्पद नहीं रही है. भेदभावपूर्ण नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के खिलाफ मुखर न होने के लिए उनकी खासी आलोचना भी की गई थी. जनवरी 2020 में दिल्ली के शाहीन बाग में प्रदर्शनकारियों ने दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे के एक लोकप्रिय गीत में कुछ ऐसा बदलाव किया:

“तुझे देखा तो ये जाना सनम
शाहरुख हो गया बेगाना सनम...”

भास्कर कहती हैं, “हमें अपने सितारों से बोलने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए, अगर हम एक समाज के रूप में अभिव्यक्ति और राय की आजादी का सम्मान नहीं करते हैं. बड़े सितारे भी कमजार होते हैं. हर कोई जानता है कि उनका घर कहां है, वे अपनी फिल्मों की शूटिंग कहां करते हैं, उनके बच्चे कैसे दिखते हैं. मुझे यकीन है कि आर्यन खान की गिरफ्तारी के मामले में हर भारतीय माता-पिता, स्टार या आम लोग, यह सोच रहे थे कि अगर शाहरुख के बच्चे को निशाना बनाकर प्रताड़ित किया जा सकता है, तो क्या हमारे बच्चे सुरक्षित हैं?"

अलीशान जाफरी ने कहा कि जब खान ने 2015 में असहिष्णुता के खिलाफ आवाज उठाई थी, “उस समय वह अकेले थे. इंडस्ट्री के दूसरे बड़े स्टार्स और एक्टर्स ने उनका साथ नहीं दिया था. बल्कि वे नव-निर्वाचित मोदी सरकार से भावी आर्थिक चमत्कारों की आस लगाए थे.” उन्होंने कहा कि खान की मौजूदा चुप्पी उन्हें सरकार का सहयोगी नहीं बनाती है. “हम उम्मीद करते हैं कि हमारे सुपरस्टार महान मुहम्मद अली की तरह हों. लेकिन हर कोई इतना साहसी और मुखर नहीं हो सकता. हर कोई अलग होता है और अलग-अलग परिस्थितियों में अलग तरह से प्रतिक्रिया देता है.” भास्कर ने तर्क दिया कि खान “भले ही मौन नजर आते हैं, लेकिन जब उनके कई सहयोगियों ने खुद को सरकारी प्रचार की कठपुतली बनने दिया है, तब वह अपने स्टारडम को किसी भी राजनीतिक एजेंडे के लिए इस्तेमाल नहीं होने देते हैं.”

खान के सत्तावनवें जन्मदिन का जश्न मनाने के लिए उनके बंगले मन्नत के बाहर इकट्ठा प्रशंसक. प्रतीक चौरगे/हिंदुस्तान टाइम्स

जाफरी ने कहा कि अगर कोई संघ परिवार की बातों पर विश्वास करे, तो “हम यह सोचकर मूर्ख बन सकते हैं कि शाहरुख वह सब हैं, जो अति-दक्षिणपंथियो को एक मुसलमान के रूप में स्वीकार्य है. लेकिन ऐसा नहीं है. असलियत में शाहरुख़ का पूरा जीवन इस बात का उदाहरण है कि अगर एक मुस्लिम के रूप में आप मंदिर जाने या सवर्ण जाति के हिंदू मूल्यों का जश्न मनाने में सहज हैं, तो भी आपको बख्शा नहीं जाएगा. वास्तव में आरएसएस-बीजेपी को सिर्फ और सिर्फ वही मुसलमान स्वीकार्य है, जो दूसरे मुसलमानों या इस्लाम को गाली देता है. मसलन तारेक फतह जैसा कोई. शाहरुख़ कभी भी अपना फायदा करने या ईकोसिस्टम का हिस्सा बनने के लिए इस्लाम को गाली नहीं देंगे और न ही गरीबों के घरों को कुचलने वाले बुलडोजर की जय-जयकार करेंगे. उनकी फिल्में भले ही एक बेहद उदार और सीधे-सादे सवर्ण हिंदू भारत के विचार को आगे बढ़ाती रही हैं, लेकिन कभी इस्लामोफोबिया से ग्रस्त नहीं रही.”

नरोत्तम मिश्रा के पठान पर दिए गए विवादित बयान के एक दिन बाद 15 दिसंबर को खान ने कोलकाता अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के उद्घाटन समारोह के दौरान एक भाषण दिया. जैसा कि अपेक्षित था, उन्होंने अपनी फिल्म पर हो रहे विवाद पर कोई टिप्पणी नहीं की. लेकिन उन्होंने सोशल मीडिया से फैलने वाली नकारात्मकता को अपने वक्तव्य के केंद्र में रखा. उन्होंने कहा, “आज के दौर में सामूहिक कथानक गढ़ने में सोशल मीडिया की भूमिका सबसे बड़ी होती है. आम तौर पर माना जाता है कि सोशल मीडिया सिनेमा पर नकारात्मक प्रभाव डालेगा. लेकिन इसके उलट मेरा मानना है कि सिनेमा को अब और भी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है. सोशल मीडिया अक्सर एक संकीर्णता से प्रेरित होता है, जो इंसानी स्वभाव को उसके सबसे निम्नतम स्तर तक सीमित कर देता है. मैंने कहीं पढ़ा था कि नकारात्मकता से सोशल-मीडिया की खपत बढ़ती है और इससे उसका व्यावसायिक मूल्य भी बढ़ता है. इस तरह की चीजें सामूहिक कथानकों को घेरकर उन्हें विभाजनकारी और विनाशकारी बना देती हैं.” सिनेमा, जो इंसानों के मर्म को उजागर करता है, “ऐसे सामूहिक कथानक को चुनौती देने का सबसे कारगर माध्यम है, क्योंकि यह सीधे लोगों के बड़े तबके तक पहुंचता है और एक ऐसा कथानक गढ़ता है, जिसमें मानव सभ्यता में निहित करुणा, एकता और भाईचारे की अपार संभावनाएं होती हैं.”        

भाषण समाप्त होने के बाद कुछ दर्शकों ने उनसे उनकी कुछ मशहूर फिल्मी पंक्तियां सुनाने की दरखवास्त की. उन्होंने पठान से कुछ पंक्तियां पढ़ी और महामारी के बाद से पहली बार कोलकाता लौटने पर अपनी ख़ुशी का इजहार किया. “हम सभी खुश हैं, और मैं सबसे ज्यादा खुश हूं. मुझे यह कहने में कोई आपत्ति नहीं है कि दुनिया कुछ भी कर ले, मैं और आप लोग, और जितने भी सकारात्मक लोग हैं, सब के सब अभी जिंदा हैं.”

(कारवां अंग्रेजी के जनवरी 2023 अंक की इस कवर स्टोरी का हिंदी में अनुवाद कुमार उन्नयन ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)