क्या बिहार में दोबारा पैर जमा रही शराबखोरी को रोक पाएंगे नीतीश कुमार?

2 मार्च 2013 को बिहार के सासाराम के गांव कोनार में तकरीबन 60 महिलाओं ने सड़क पर निकल कर गांव के पुरुषों में व्याप्त शराब की लत और उसके फलस्वरूप होने वाली घरेलू हिंसा का विरोध किया. मंजूनाथ किरण/एफपी/गैटी इमेजिस
23 March, 2019

हमरी आबरू की कीमत पे शराब का धंधा न चलेगा .” 2 मार्च 2013 को बिहार के सासाराम के गांव कोनार में यह नारा गूंज रहा था. उस दिन, तकरीबन 60 महिलाओं ने सड़क पर निकल कर गांव के पुरुषों में व्याप्त शराब की लत और  उसके फलस्वरूप होने वाली घरेलू हिंसा का विरोध किया. प्रदर्शनकारियों ने एक शराब की दुकान में ताला लगाकर एक लाख रुपए की शराब की बोतलों को नष्ट कर दिया और उन पर हमला करने आए एक आदमी की पिटाई भी कर दी.

यह आंदोलन तब शुरू हुआ जब कुछ महिलाओं को पता चला कि उनके बच्चे पाउच वाली शराब पी रहे हैं. आंदोलन का नेतृत्व करने वाली सासाराम की सामाजिक कार्यकर्ता सुनीता कहती हैं,  “कोनार की महिलाएं पति की पिटाई को अक्सर अपना भाग्य मान लेती हैं.” सुनीता “प्रगतिशील महिला मंच” की संस्थापक हैं. इसे दिसंबर 2012 में दिल्ली में हुए गैंगरेप के बाद महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाया गया था. सुनीता का कहना है, “कोनार की महिलाओं का मानना था कि "उनके बच्चे बड़े होकर अन्याय के खिलाफ लड़ेंगे. लेकिन जब उन्होंने अपने बच्चों को पीते देखा, तब उन्हें लगा कि उनका सबसे बड़ा डर सच होने वाला है. सुनीता कहती हैं, “उन्होंने अपने परिवार के कमाने वाले को शराब के चलते खो दिया लेकिन अब अपने बच्चों को खोने के लिए तैयार नहीं थीं. यही कारण है कि वे सड़कों पर उतरीं और तभी से घरेलू हिंसा के खिलाफ खड़ी हो गईं”. जुलाई 2015 में विधान सभा चुनावों के लिए प्रचार के वक्त नीतीश कुमार ने महिलाओं के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए ऐलान किया कि यदि वह दोबारा मुख्यमंत्री बने तो शराब पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा देंगे. चुनाव के बाद अपना वादा निभाते हुए नीतीश कुमार ने अप्रैल और अक्टूबर 2016 में बिहार आबकारी संशोधन कानून और बिहार निषेध एवं आबकारी कानून के तहत राज्य में शराब की बिक्री, उत्पादन, निर्यात और पीने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया.

निषेध लगाने के बाद कुमार ने राज्य सरकार की नौकरियों में महिलाओं के लिए आरक्षण और स्कूल जाने वाली छात्राओं को निशुल्क साइकिल योजना को लागू किया. इन उपायों को बिहार में लैगिंक समानता के लिए महत्वपूर्ण प्रयास माना गया. दिसंबर 2018 में मैंने शराब बंदी के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए रोहतास, पटना और सारण का भ्रमण किया. यहां की महिलाओं ने यह बात मानी की शराबबंदी से शराब की लत और घरेलू हिंसा में काफी कमी आई है लेकिन इसके साथ उन्होंने इस बात पर दुख भी जताया कि यह बहुत धीमी गति से हो रहा है. कच्ची शराब और अवैध शराबखोरी जारी है और एक बार फिर घरेलू हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं. करवंदिया की रहने वाली लालसा देवी ने मुस्कुराते हुए मुझे बताया, “बिहार में दारू और मार पिटाई कभी खत्म नहीं हो सकते”.

स्थानीय कार्यकर्ताओं और लोगों का कहना है कि 2014 और 2015 के बीच करवंदिया और सीता बिगहा में शराब पीने की वजह से दर्जनों लोग बीमार पड़े और मारे गए. इस दौरान बिहार में लाइसेंसी शराब दुकानों का जाल फैल गया था. यह इसलिए हुआ क्योंकि राजस्व बढ़ाने के लिए नीतीश कुमार ने 2005 में अपने पहले कार्यकाल में शराब के व्यापार को उदार बनाने का निर्णय लिया था. इस निर्णय के दस वर्षों में शराब से प्राप्त होने वाला राजस्व 500 करोड़ रुपए से बढ़ कर 4000 करोड़ रुपए हो गया था. लेकिन इस नीति का समाजिक मूल्य और परिणाम भयावह थे.

करवंदिया के लोग बेहद गरीब हैं और पत्थर को पीस कर मुरम बनाने का काम करते हैं जिससे बहुत मामूली कमाई होती है. यहां की कई महिलाओं ने शराबबंदी की लत के कारण अपने पतियों को खो दिया जिसके कारण उन्हें मजबूर हो कर इस बुराई के खिलाफ लड़ाई में उतरना पड़ा. सुमित्रा देवी के पति की मौत शराब की लत के कारण हो गई थी. वह कहती हैं, “मैंने 25 साल अपने पति की नशे की लत को सहन किया और जब उसकी मौत हो गई तो मुझे विधवा कहा गया”. कोनार में आंदोलन के बाद करवंदिया की महिलाओं ने भी आंदोलन शुरू कर दिया. सुमित्रा को उम्मीद है कि उनके बाद वाली पीढ़ी को शराबखोरी के दुस्प्रभाव को सहना नहीं पड़ेगा. वह कहती हैं, “राज्य में लगी शराब बंदी से इन लड़कियों के पतियों को सीख लेनी चाहिए और खुद को नशे की लत में फंसा कर बर्बाद करने से अच्छा है कि आदमी अपने बच्चों और बीवियों का ध्यान रखें.”

करवंदिया की महिलाओं का कहना है कि उनके आंदोलन ने यह संदेश दिया है कि वे शराबखोरी और घरेलू हिंसा को सहन नहीं करेंगी. इससे आने वाले सालों में उनके घरों में कमाई आने लगी और शंति स्थापित हो गई. मैंने बिहार के जिन भी गांवों का दौरा किया वहां की महिलाओं ने शराब पर लगे पूर्ण प्रतिबंध से आमतौर पर व्याप्त शराबखोरी के बंद हो जाने की सराहना की. कोनार में कई महिलाओं का कहना था कि बच्चों के बापों के नशा छोड़ने से घरों की आर्थिक हालात में सुधर आया है और बच्चे स्कूल जाने लगे हैं. लोहानीपुर, यारपुर, अदालतगंज और बहादुरपुर की महिलाओं ने बताया कि उनके समुदायों में लड़ाई झगड़ा रोज की कहानी थी और प्रतिबंध के तीन सालों में यह खत्म हो गया है. वे बताती हैं कि यहां के मर्दों ने अब घर के कामकाज में हाथ बंटाना शुरू कर दिया है. 38 वर्षीय दुखिया देवी बताती हैं कि उनका पति “सुधर” गया है. वह कहती हैं, “शराब की आदत के चलते जो बहुत सा पैसा बर्बाद हो जाता है वह अब घर में रुकने लगा है. अब हमारे पास किराना खरीदने, बच्चों की शिक्षा पर खर्च करने के लिए पैसे होते हैं.”

पटना की एशिया विकास शोध संस्था (एडीआरआई) ने अपने अध्ययन में पाया था कि शराब बंदी ने घरेलू आय में बढोतरी की है. आर्थिक शोधकर्ता पीपी घोष की अध्यक्षता में हुए उस अध्ययन से पता चला कि शराब बंदी के पहले छह महीनों की तुलना पिछले साल से करने से पता चलता है कि दूध के क्रय और अन्य वस्तुओं जैसे महंगी साड़ी, प्रस्सकृत खाद्य, फर्नीचर और गाड़ी आदि की खरीदारी में इजाफा हुआ है. उस अध्ययन के अनुसार, अप्रैल 2016 में प्रतिबंध के छह महीनों में शहद और पनीर की खरीदारी में क्रमशः 380 और 200 प्रतिशत की बढोतरी हुई है. अदालतगंज की नजदीकी झुग्गी कमला नेहरू नगर में रहने वाली 50 वर्षीय लक्ष्मी देवी बताती हैं, “मर्द लोग खुले में शराब पीने और अपनी औरतों को मारने से डरते हैं”. बहार के पर्सा खंड के सगुनी गांव के रहने वालों ने शराबबंदी की जमकर तारीफ की. सगुनी पंचायत के अधिकार क्षेत्र में आसपास के 13 गांव आते हैं. इस पंचायत की 9 निर्वाचित पदाधिकारी महिलाएं हैं. पंचायत की एक पदाधिकारी सुनीता देवी ने बताया, “पुलिस की दबिश ने श्रीरामपुर गांव में डर पैदा किया है. गांव में शराब की बिक्री में बहुत कमी आई है. यहां की बहुत सी महिलाओं का कहना है कि पहले दारू पी कर आदमी यहां की नौजवान लड़कियों के साथ छेड़छाड़ करते थे लेकिन अब यह बहुत हद तक बंद हो गया है. गांव की 28 साल की चुन्नी देवी का कहना है, “दारूबंदी के बाद आसपास की शांति से मुझे बहुत सुकून मिला है. हम इस फैसले का बहुत दिनों से इंतजार कर रहे थे. यह लेट आया लेकिन इसने सरकार पर हमारा भरोसा फिर से कायम कर दिया है.

शराब के कारण होने वाली घरेलू हिंसा की घटनाओं में कमी की बात को सगुनी गांव के लोग बताते हैं. सगुनी पंचायत की अन्य पदाधिकारी सोनारी देवी का कहना है, “कुछ आदमी मनोरंजन के लिए कभी कभार शराब पीते हैं लेकिन प्रतिबंध लग जाने के बाद गांव शराबखोरी के दुष्प्रभावों से बचा हुआ है.” वह बताती हैं कि दारूबाज अब खुलेआम सड़कों पर नहीं घूमते.

सीता बिगहा गांव की 55 वर्षीय मीरा देवी कहती हैं, “हमने शराबखोरी के खिलाफ कड़ा संघर्ष किया. हालांकि इस गांव की बहुत सी औरतों के पति शराबखोरी के कारण मर गए लेकिन आज आप जिस तरह बेखौफ हो कर हमसे बात कर पा रही हैं, वह बदलाव को दिखाता है.”

पटना की झुग्गी चुल्हाई चक में मैं जिन महिलाओं से मिली, उन लोगों ने भी बताया कि अब कभी कभार ही सार्वजनिक स्थानों में हाथापाई और झगड़ा देखने को मिलता है. 55 वर्षीय यहां की निवासी उर्मिला देवी ने बताया, “बहुत अधिक दारूबाजी और उसका कुप्रभाव हमारे समाज से गायब हो गया है और यहां अमन है. लेकिन अभी भी शराब का अवैध कारोबार होता है.”

करवंदिया की लालसा ने मुझे बताया था, ''अन्य महिलाओं ने भी यही बात बताई. ''कुछ लड़के महुआ की शराब बना कर गांव के बाहर चांदनी चौक इलाके के बाजार में बेचते हैं''. यहां रहने वाले दूसरे लोगों को कहना है कि इसके अलावा गांव के दारूबाजों को ऐसे लड़के मिल गए हैं जो उनके घरों में शराब पहुंचाने को राजी हैं.

लालसा बताती हैं कि शराबखोरी के खिलाफ हमारी लड़ाई ने गुंडागर्दी और छेड़छाड़ की घटनाओं में कमी तो लाई है लेकिन अभी भी औरतों का दबाना जारी है.'' मेरे पति ने पीना फिर से शुरू कर दिया है, बस एक अंतर है कि अब वह लिमिट में पी रहा है और उसे शराब पहले से अधिक मंहगी मिल रही है. घर में दुबारा से हिंसा की घटनाएं होने लगी हैं. तो भी यह उस स्तर पर नहीं हो रही हैं जिस स्तर पर पहले होती थीं.

सीता बिगहा में भी शराबबंदी के कारण बहुत से लोग अवैध शराब के कारोबार में सक्रिय हो गए हैं. मीरा का कहना है, ''शराबबंदी की असफलता का सबसे बड़ा कारण व्यवसायों के विकल्प का अभाव और अवैध शराब की बिक्री से होने वाला कमीशन है. विकल्प के अभाव ने पहले आंदोलन में सक्रिय युवाओं को आज अवैध कारोबार में घुसेड़ दिया है.'' ''हम ऐसा होने से रोक नहीं सकते क्योंकि सरकार जागरुकता फैलाने में विफल हो गई है और पुलिस भ्रष्ट है.'' जब मीरा यह बता रही थीं तो आसपास खड़ी औरतें उनकी बातों में सहमति जताते हुए सिर हिला रहीं थीं.

सीता बिगहा की रहने वाली निभा देवी उन औरतों में से एक हैं जिनका पति शराबखोरी की लत के चलते मारा गया. वह भी कानून के निष्क्रिय होने की बात करती हैं. निभा कहती हैं, “मुझे आंदोलन से क्या मिला. जब निभा ने सुना कि गांव वाले शराबबंदी को स्वागत योग्य कदम बता रहे हैं तो उनका कहना था, “क्या समाज में कोई बदलाव आया? क्या बिहार में शराब की बिकवाली पूरी तरह से रुक गई है? मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की उसमें कमी आई. निभा का कहना है कि उनकी बहन का पति भी शराब की आदत के चलते मारा गया और उसकी बहन भी मर गई क्योंकि उसके पास कमाई का कोई जरिया नहीं था. “क्या सरकार मेरा परिवार चलाने में मेरी कोई मदद करेगी.”

उर्मिला के अनुसार, बिहार का मुसहर समुदाय (जिसे बिहार में महादलित माना जाता है) अब भी बड़े पैमाने पर शराब बनाने में लगा हुआ है. "वे अभी भी देशी शराब का निर्माण करते हैं और खुले रूप में दोगुने दाम में बेचते हैं." निषेध से पहले, राज्य में देशी शराब मुख्य रूप से महादलित समुदाय के सदस्यों द्वारा बनाई जाती थी और प्रतिबंध लगाने के बाद वे लोग बड़ी संख्या में बेरोजगार हो गए.

चुल्हाई चक में मुसहर बस्ती की 22 वर्षीय महिला का कहना है, "अगर सरकार ने महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए शराब पर प्रतिबंध लगा दिया है, तो हमें भी अपनी पसंद के अनुसार वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध कराने के बारे में सोचना चाहिए था.” उस 22 वर्षीय महिला ने बताया कि उसका परिवार पिछले दस सालों से शराब का कारोबार कर रहा है. उसने कहा, "मेरा भाई राज मिस्त्री है लेकिन उसके पास जो पैसा है वह हमारे आठ सदस्यों के परिवार के गुजारे के लिए पर्याप्त नहीं है." उसने आगे कहा, “हम महिलाएं कम से कम घर पर बैठी महुआ से बनी शराब बेच लेतीं थीं और पारिवारिक आय में योगदान देती थीं. अब, हमारी आर्थिक स्थिति खराब हो रही है.” जब मैंने उनसे पूछा कि क्या समुदाय अभी भी शराब की बिक्री और निर्माण में लिप्त है तो उसने कोई जवाब नहीं दिया.

शराब बंदी लागू होने के तुरंत बाद इसके कठोर प्रावधानों के लिए भारी आलोचना का सामना करना पड़ा. इन प्रावधानों के अनुसार पहली बार के अपराधियों के लिए 5 साल की कैद और उनके सभी परिवार के सदस्यों की गिरफ्तारी थी. महादलितों जैसे हाशिए के समुदायों पर लक्षित होने के चलते इस कानून की बहुत आलोचना हुई. मई 2018 में, इंडियन एक्सप्रेस की जांच से पता चला है कि निषेध कानून के तहत गिरफ्तार किए गए कुल 122392 लोगों में से 67 प्रतिशत से अधिक अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग के समुदायों से आते हैं. रिपोर्ट से पता चला कि इस कानून के तहत गिरफ्तार लोगों में राज्य की आबादी में केवल 16 प्रतिशत हिस्सेदारी वाले अनुसूचित जाति के 27 प्रतिशत कैदी हैं. इन आलोचनाओं के मद्देनजर, जुलाई 2018 में, सरकार ने इस अधिनियम में संशोधन कर कुछ कठोर प्रावधानों को हटा दिया.

पटना के सामाजिक कार्यकर्ता सतीश कुमार ने कहा, "सरकार को इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि शराब पर अंकुश लगाने के लिए केवल कड़ा कानून लाना ही काफी नहीं है." 2004 में, पटना के एक अन्य कार्यकर्ता पार्थ सरकार के साथ मिल कर कुमार ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा से प्रेरित भारतीय कम्युनिस्ट सेंटर ऑफ इंडिया की स्थापना की. यह पूरे राज्य में सक्रिय है औप ग्रामीण बिहार में शराबबंदी आंदोलन में शामिल थी. सरकार ने कहा कि महिलाओं को अपने घरों में अवैध तरीकों से वापसी का विरोध करने और घरेलू हिंसा का सामना करने पर अपने अधिकारों का उपयोग करने के लिए जागरूक करना भी समाज का उत्थान करने के लिए जरूरी है. "यह तब किया जाएगा जब शराब के प्रभाव में महिलाओं के उत्पीड़न के परिदृश्य को समाप्त करने के लिए, और न केवल राजनीतिक लाभ के लिए महिलाओं के एक निर्वाचन क्षेत्र में उत्कीर्ण करने के लिए अवलंबी सरकार शराब प्रतिबंध के साथ आए."

सगुनी पंचायत के अंतर्गत आने वाले गांवों में से एक बिशनपुरा में, 40 वर्षीय ज्योति देवी ने शराबियों और शराबबंदी पर चर्चा की. उनके पति उमेश भगत, एक हिस्ट्रीशीटर हैं, जिन्हें शराब के नशे में एक व्यक्ति को गोली मारने के बाद गिरफ्तार नहीं किया गया था, जो कि निषेधाज्ञा लागू होने के काफी समय बाद हुआ था. ज्योति ने कहा, "मेरे लिए यह हिंसा करना और मेरे बच्चों के साथ दुर्व्यवहार और मौखिक दुर्व्यवहार की हद तक पीड़ा है." “वह शायद ही कभी घर लौट आए और कभी-कभी कई दिनों के लिए गायब हो गए. इस बार उसने नशे में एक व्यक्ति को मारने की कोशिश भी की. काश वह जीवन भर जेल में रहे. मुझे डर है कि अगर वह घर लौटता है तो वह मुझे भी मारने की कोशिश करेगा.

सगुनी में न तो शराब और न ही शराबखोरी पूरी तरह मिट पाई है. बिशनपुरा की रहने वाली पूनम सिंह, जिनके पति पंजाब में काम करते हैं, ने मुझसे कहा, "जब भी वह घर पर होता है, तो वह पीने के लिए पैसों का इंतेजाम कर ही लेता है." पूनम कहती हैं, "निषेध ने बस इतना किया है कि शराब को महंगा कर दिया है, लेकिन पीने से उसे नहीं रोक पाया है. अगर यह सिर्फ एक लक्जरी होता तो इससे बहुत नुकसान नहीं होता, लेकिन उनकी शराब की आदत ने हमारी आर्थिक स्थिति पर नकारात्मक असर डाला है.”

जब मैंने बिहार में मद्य निषेध और आबकारी मंत्री, बिजेंद्र यादव से पूछा कि शराब की बिक्री और खपत राज्य में वापस बढ़ रही है, तो उन्होंने कहा कि कार्यान्वयन एक सतत प्रक्रिया है. यादव ने कहा, "पुलिस जांच और शराबबंदी कानून के तहत गिरफ्तारी के अलावा पूरे समाज को शराब के खिलाफ जागरूक करने के प्रयास करने होंगे." उन्होंने आगे कहा, “कुछ क्षेत्रों में बिक्री के मामलों का सामना करने के लिए, हम यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि कि पुलिस महानिरीक्षक और पुलिस अधीक्षक जैसे वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के संपर्क नंबर गांवों में ट्रांसफार्मर और खंभों पर लिखे जाएं ताकि निवासियों को जब भी अपने क्षेत्र में हो रही शराब की अवैध बिक्री का पता चले तो ये नंबर गांवों में हेल्पलाइन नंबर की तरह काम करें. सभी जिलों में इस मुद्दे को देखने वाले निषेध अधिकारी हैं.”

लेकिन गांवों की अपनी यात्राओं में मैंने ऐसी कोई भी हेल्पलाइन नंबर नहीं देखी और गांव वालों को संख्या या निषेध अधिकारियों का भी पता नहीं था. पटना के एक पुलिस अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि गांवों में वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के नाम रखने की पहल अभी तक लागू नहीं हुई है. उन्होंने राज्य में निषेध अधिकारियों के काम पर भी सवाल उठाया. उस अधिकारी ने कहा, "अगर निषेध अधिकारी अपना काम सही तरह से कर रहे होते, तो शराब की अवैध बिक्री, निषेध लागू होने के 2 साल के भीतर तेजी से फिर शुरू नहीं हो पाती.”

पटना स्थित राजनीतिक विश्लेषक, सत्य नारायण मदान ने मुझे बताया कि शराबबंदी कानून को लागू करने के लिए कोई नया अधिकारी नियुक्त नहीं किया गया है. उन्होंने कहा, "आबकारी और निषेध विभाग से संबंधित शीर्ष अधिकारी वही हैं, जो निषेध कानून लागू होने के बाद भी समान रैंक पर तैनात हैं. पिछले तीन दशकों में राजनीतिक हलकों के साथ मेरे जुड़ाव के आधार पर, मैं यह दावा कर सकता हूं कि शराब पर प्रतिबंध लगाने से पहले तस्करों की सुविधा के लिए आबकारी विभाग के अधिकारियों ने भारी कमीशन लिया था और वे अभी ऐसा ही करते रहे."

सगुनी की सरपंच बिंदू देवी कहती हैं कि कानून के क्रियान्वयन को विकेन्द्रीकृत करने से समाधान निकल सकता है. उन्होंने कहा, "शराबबंदी कानून के तहत पुलिस को पूरी तरह से शक्तियां सौंपने के बजाय, सरकार मुखियाओं और सरपंचों को अवैध शराब की बिक्री करने वालों की जांच करने और जुर्माना और चेतावनी देने का अधिकार देना चाहिए.”

फिलहाल यह देखा जाना है कि बिहार के गांव अपने जीवन से शराब के खतरे को पूरी तरह से खत्म करने में सफल होंगे या नहीं. कमला नगर की रहने वाली लक्ष्मी कहती हैं, "सरकार ने इतने लंबे समय के बाद यह कदम उठाया है. अगर नीतीश कुमार धीरे धीरे बढ़ रही शराब की बिक्री को रोकने में सफल हो पाते हैं तो मेरा भरोसा उनके शासन में बना रहेगा”. उन्हें आशा है कि राज्य सरकार पूर्ण और प्रभावी प्रतिबंध लगा पाएगी. “देखते हैं कि शराब ने लंबे समय से हमारे ऊपर जो गुलामी थोपी है उससे मुक्ति दिलाने में नीतीश कुमार कामयाब होते हैं या नहीं”.

यह बिहार में महिला-सशक्तिकरण कानूनों के प्रभाव पर दो-भागों की श्रृंखला का पहला भाग है.