1990 के दशक के अंत में गौरव सावंत एकाएक स्टर बन गए. वह रिटायर्ड ब्रिगेडियर के बेटे हैं. 1994 में वे इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े और जल्द ही रक्षा बीट देखने लगे.
1999 में सावंत ने कारगिल युद्ध कवर किया जो उनके करियर की सफलता के लिए निर्णायक रहा. कारगिल युद्ध पर अपनी किताब में पत्रकार संकर्षण ठाकुर, सावंत की हुंकार को कुछ इस तरह बयां करते हैं, “भाई लोग, क्या गजब बात है. एक के बाद एक मेरी 34वीं स्टोरी पहले पेज की हेडलाइन बनी है. यह मेरा सबसे अच्छा वक्त है.”
उसी वर्ष सावंत ने युद्ध मैदान में अपने 9 हफ्तों के अनुभव पर डेटलाई कारगिल नाम की प्रसिद्ध किताब लिखी. इंडिया टुडे में प्रकाशित किताब की समीक्षा में कहा गया है, “सावंत ने कारगिल अभियान का सारगर्भित ब्यौरा पेश किया है, युद्ध के मानवीय पक्ष को संवेदनशील तरीके से उकेरा है, भौंचक्की सेना के सामने पेश चुनौतियां और तीव्रता को शब्द दिए हैं.”
एमिटी विश्वविद्यालय में वर्ष 2002-2003 के अकादमिक सत्र में सावंत गेस्ट लेक्चरर थे. सावंत ने जिन्हें पढ़ाया उनमें से एक थीं विद्या कृष्णन. उस वक्त कृष्णन जिज्ञासू विद्यार्थी थीं जो अपने भविष्य के पेशे के लिए उत्साहित थीं. भोपाल में रहने वाले अपने मां-बाप के विरोध के बावजूद उन्होंने पत्रकारिता के डिप्लोमा कोर्स में प्रवेश लिया था. उनके माता-पिता का मानना था कि मीडिया की नौकरी में कम पैसा है. कृष्णन इस पेशे में अपना नाम बनाने का पक्का इरादा रखती थीं और जवान और सफल सावंत उनके लिए एक रोल मॉडल की तरह थे. “हम लोगों के लेक्चर बहुत बोरिंग होते थे. और एक दिन अचानक यह जवान लड़का आता है तो जाहिर है कि बहुत सी बातें होंगी ही”, कृष्णन के एक बैचमेट ने बताया.
2003 में ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद कृष्णन को द पायनियर ने काम पर रख लिया. पहली बार जब उन्हें शहर के बाहर रिपोर्टिंग के लिए भेजा गया तो यह उनके लिए खुद को साबित करने का मौका था. कृष्णन को पंजाब की एक नदी के किनारे बसे शहर ब्यास के सैन्य अड्डे में शांतिकालीन ड्रिल को कवर करने का अवसर मिला था. वह उत्सुक होने के साथ घबराई हुई भी थीं. यह भारतीय सेना के प्रतिनिधियों द्वारा आयोजित किया जाने वाला आम रिपोर्टिंग दौरा था लेकिन कृष्णन के लिए यह बड़ी बात थी. “मुझ पर भरोसा किया गया था और इससे मैं बहुत उत्साहित थी, मुझे उन लोगों के साथ यह मौका दिया गया था जो संभवतः वरिष्ठ पत्रकार थे,” जनवरी में एक इंटरव्यू में कृष्णन ने मुझे बताया.
तो भी कृष्णन का उत्साही मन पहली बार रक्षा क्षेत्र की रिपोर्टिंग करने की चिंता के बोझ तले दबा हुआ था. “इससे पहले मैंने कभी सेना के बारे में नहीं लिखा था....यदि मैं यह नहीं समझ पाई कि क्या हो रहा है तो मैं खबर कैसे बनाउंगी?” मन में चल रही बातों को याद करते हुए उन्होंने बताया. जब उन्हें यह पता चला कि उनके साथ जाने वाले पत्रकारों के दल में सावंत भी हैं तो उन्हें बहुत राहत मिली. उन्होंने मुझे बताया, “मैं यह सोच कर ठीक हो गई कि ‘चलो मेरे टीचर भी है’”. यदि कोई बात समझ नहीं आई तो उनसे ही पूछ लूंगी.”
हालांकि कृष्णन की सोच के विपरीत, ब्यास का वह दौरा उनके करियर का मोड़ साबित नहीं हुआ. वह याद करती हैं कि सावंत- उनका टीचर जिसे पर वह भरोसा करती थीं- ने उस पूरे दौरे में उनके साथ यौन हिंसा और शोषण किया.
वह कृष्णन के करियर का शुरुआती दौर था और सावंत जैसे बड़े पत्रकार के खिलाफ खड़े होना एक असंभव लक्ष्य जान पड़ता था जो उनके करियर को ही तबाह कर सकता था. आगे के 15 सालों तक कृष्णन ने इस घटना के बारे में कुछ नहीं कहा. आज वह एक स्थापित पत्रकार हैं जो हाल तक दि हिंदू में स्वास्थ्य और विज्ञान संपादक थीं. (वह कारवां के लिए नियमित रूप से लिखती हैं.) इस बीच सावंत भारतीय टेलीविजन न्यूज के सबसे अधिक जाने पहचाने चहरों में से एक बन चुके थे. हाल में वे इंडिया टुडे टेलीविजन चैनल के प्रबंध संपादक हैं.
2017 के अक्टूबर में हॉलीवुड के बड़े निर्माता हार्वी वाइनस्टीन के खिलाफ लगे यौन शोषण और हिंसा के आरोपों ने दुनिया भर में विभिन्न किस्म की चर्चाओं की शुरुआत की. अचानक ही ऐसे आरोपों को अलग तरह से लिया जाने लगा. ताकतवर पुरुषों के यौन अपराधों पर खुल कर बोला जाने लगा और ऐसे व्यक्तियों का करियर खत्म होने लगा. यौन शोषण की शिकार महिलाओं को मिल रहे समर्थन ने कृष्णन को अपनी बातों को सामने लाने का साहस प्रदान किया. उन्होंने तय किया कि अब चुप्पी विकल्प नहीं है.
पिछले साल दिसंबर में कृष्णन ने मुझे फेसबुक में एक संदेश भेजा. “यदि तुम कभी न्यूज रूम में यौन शोषण पर कोई इंटरव्यू करना चाहो तो मैं ऑन रिकॉर्ड बात करने को तैयार हूं.”
ब्यास में होने वाले आयोजन के एक दिन पहले सेना के जवान और पत्रकार आयोजन स्थल के लिए रवाना हुए. कृष्णन को आज उन सभी लोगों के नाम याद नहीं हैं जो सेना की जीप में उनके साथ थे. उन्हें याद है कि भारतीय सेना का एक प्रतिनिधि जीप के आगे ड्राइवर की बगल वाली सीट पर बैठा था. कृष्णन सामने की ओर मुंह करके बीच की लाइन में दाहिने हाथ की तरफ बैठीं थी. सावंत उनके ठीक पीछे, बैंच जैसी सामने की सीट पर बैठे थे.
यात्रा शुरू होने के थोड़ी ही देर बाद- हल्की फुल्की बात और परिचय हो जाने के बाद- पुरुष पत्रकार, जो ज्यादातर एक दूसरे के परिचित थे, गपबाजी में लग गए. उस गाड़ी में कृष्णन ही एक मात्र महिला थीं. उन्होंने बातचीत में बहुत कम भाग लिया. आज की तरह ही उन दिनों भी रक्षा बीट में पुरुषों का वर्चस्व था. मर्द रास्ते में रुक कर किसी ढाबे में कुकड़ खाने की बात कर रहे थे. सावंत की जल्द शादी होने वाली थी और कुछ पत्रकार इस बात को लेकर उनकी टांग खींच रहे थे.
यात्रा में एक वक्त आया जब जीप में किसी और आदमी से बात करते हुए सावंत ने अपना दाहिना हाथ कृष्णन के दाहिने कंधे पर रख दिया. कृष्णन एकाएक असहज हो गईं लेकिन फिर उन्होंने इसे नजरअंदाज कर दिया. वह बताती है, “कुछ पल के लिए मैंने सोचा कि ऐसा गलती से हो गया होगा.” मैंने सोचा कि ‘शायद मैंने गलत समझ लिया. मैं ही दूर हो जाती हूं.” उन्होंने कई दफा खुद को एडजस्ट करने की कोशिश की लेकिन सावंत उसी तरह हाथ रखे हुए थे.
कृष्णन सोचती रहीं कि क्या वह जानबूझ कर ऐसा कर रहा है. वे कहती हैं, “वह जानता था कि मैं असहज हो रही हूं. वह जानता था कि मैं अपने शरीर को यहां से वहां कर रही हूं. मुझे आश्चर्य होगा यदि वह कहता है कि ‘मुझे तो पता ही नहीं था कि यह हो रहा है’”.
उसके बाद सावंत ने अपना हाथ कृष्णन के कंधे से हटा कर उनकी छाती पर रख दिया. वह घबरा गईं. वे कहती हैं, “मेरे शरीर को जैसे सांप सूंघ गया था.” कृष्णन ने अपने चारो ओर देखा. वहां सभी अनजान मर्द थे जो एक दूसरे को जानते थे. उनके बीच की मिलनसारिता कृष्णन के भीतर अलगाव पैदा कर रही थी. “मैं खुद को इतना सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रही थी कि किसी से बता सकूं और कह सकूं, “देखो क्या हो रहा है, इसे रोको.’ मेरे भीतर कुछ भी कह सकने का आत्मविश्वास नहीं था.”
कृष्णन यात्रा के खत्म होने का बेसब्री से इंतजार करने लगी. उन्हें इस बात की भी चिंता थी कि जीप पर सवार अन्य लोगों को पता चल जाएगा कि सावंत क्या कर रहा है. कृष्णन याद करती हैं, “मुझे उन चंद घंटो की बस एक ही बात याद है कि मैं लगातार खुद को इधर उधर कर रही थी और इस तरह बैठने की कोशिश कर रही थी कि किसी को भनक न लग जाए कि क्या हो रहा है.” वह आगे कहती हैं, “मुझे याद है कि मैं बार बार पूछ रही थी, ‘हम कब तक वहां पहुंचेंगे- क्या हम लोग पहुंच गए, क्या हम लोग आ पहुंचे‘”. एक समय आया जब सावंत ने चुटकी लेते हुए कहा, “तुम्हें पहुंचने की बड़ी जल्दी है”. उन्हें याद है इसके बाद वहां मजाक उड़ाया जाने लगा. उस गाड़ी में सवार सबसे कम उम्र की लड़की एक बच्चे की तरह व्यवहार कर रही थी जिसे लंबी यात्रा में फंस जाने का एहसास हो रहा था.
आधी दोपहर में वे लोग लंच के लिए रुके. कृष्णन ने बताया कि लंच ब्रेक में वह इसी चिंता में खोई रहीं कि आगे क्या होगा. भोजन के बाद उनको इस बात से राहत मिली कि सावंत ने अपनी सीट बदल ली थी. कृष्णन को याद है कि सीट बदलते वक्त सावंत ने जोर से कहा था, “हां मैं कहीं और बैठ सकता हूं. मुझे यहां कौन मिस करने वाला है.”
सावंत की उस टिप्पणी में जो कसमसाहट थी वह कृष्णन को याद है क्योंकि उन्हें लगा कि वहां उपस्थित लोग यह जान गए थे कि वह उपहास उन पर लक्षित था. जिस राज को उन्होंने छिपा रखा था वह तमाशा बन चुका था. रुकने की जगह पहुंचते पहुंचते रात हो चुकी थी. सब लोग अपने अपने कमरों में चले गए और थोड़ी देर बाद डिनर के लिए इक्ट्ठा हुए.
इसके बाद सावंत कृष्णन और अन्य लोगों से छिछोरी किस्म की बातें कर रहे थे. उनकी बातचीत में करतूत का कोई एहसास नहीं था और किसी प्रकार की क्षमायाचना तक नहीं. कृष्णन ने कहा, “मेरे लिए यह ऐसा था कि जैसे वह ऐसा दिखा रहा हो कि कुछ हुआ ही नहीं.”
उस रात, जब वो अपनी कमरे में अगले दिन के असाइन्मेंट पर ध्यान लगाने की कोशिश कर रहीं थी तो सावंत ने उन्हें संदेश भेजा. वह उनके कमरे में आना चाहते थे.
कृष्णन को अपनी प्रतिक्रिया ठीक से याद नहीं है. वह सावंत को विनम्रता से मना करना चाहती थीं क्योंकि वह उस पेशे के एक ताकतवर आदमी थे जिस पेशे में वह नई नई जुड़ी थीं. उन्हें सावंत के उस संदेश का कुछ-कुछ हिस्सा याद है. उसमें लिखा था कि उनके दिमाग में “गंदी बात नहीं चल रही”. वह बस उनके साथ बाथटब में जाना चाहता है.
कृष्णन ने सावंत के इस प्रकार धीरे धीरे हावी होने को समझ लिया. “छूना एक ऐसी चीज बन गई जिसे वह चीख कर कह सकता था”- जीप पर उनका मिस न करने वाला उपहास- “उसके बाद वह ऐसी चीज बन गई जिसे वह खुल कर कह रहा था.... वह मेरे साथ बाथटब में जाना चाहता था.”
उसका संदेश और कृष्णन के “न” बोलने के चंद मिनटों में कृष्णन को दरवाजे में खटखटाहट सुनाई दी. कृष्णन कहती हैं, “मैंने एक सेकेंड के लिए भी नहीं सोचा था कि वही होगा.”
जैसे ही कृष्णन ने दरवाजा खोला सावंत अंदर आ गए. उसने हल्की बातचीत से शुरुआत की, कृष्णन ने याद करते हुए बताया, लेकिन असहजता से कृष्णन जड़ हो गईं थीं. सावंत उनसे लंबा और मजबूत कदकाठी के थे और कृष्णन को इस बात का डर था कि वे उस पर हावी हो जाएंगे. “मेरे दिमाग में यह डर समाया हुआ था कि मैं वह कर बैठूंगी जो वह करना चाहता है. मुझे इतना आत्मविश्वास नहीं था कि मैं अड़ी रह सकती हूं और उसे न कह सकती हूं”, कृष्णन याद करती हैं.
कृष्णन को “न” कहने का मौका ही नहीं मिला क्योंकि सावंत ने उनसे पूछा ही नहीं.
कमरे में घुसने के कुछ मिनटों के अंदर ही, वह अभी उनसे बात ही कर रहा था, उसने अपने पैंट की चेन खोल दी और उनका हाथ पकड़ कर अपने गुप्तांग की ओर खींचने लगा. कृष्णन ने सावंत को धक्का देने की कोशिश की लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाईं.
कृष्णन बताती हैं, “वह पीछे नहीं हटा...मैंने उसे बहुत अच्छी तरह से एहसास करा दिया था कि उसका आगे बढ़ना मुझे पसंद नहीं है” कृष्णन कहती है, “मुझे लगा कि वह मुझ पर हावी हो रहा है और इसलिए मैं डर के मारे चीखने लगी.”
जैसे ही कृष्णन की “चीख तेज होने लगी” सावंत रुक गया. “मुझे लगता है कि वहां कुछ लाज रही होगी जब उसे लगा होगा, ‘मैं इसका बलात्कार नहीं कर सकता’, तो वह उस वक्त दूर हट गया.” “वह पीछे नहीं भी हट सकता था और मैं क्या ही कर लेती, कम से कम उस वक्त मैंने यही सोचा....मुझे लगा कि यदि वह कुछ करना चाहता तो कर सकता था.”
दी कारंवा ने जब सावंत से इन आरोपों पर प्रतिक्रिया मांगने के लिए ईमेल किया तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.
इस हिंसा के कुछ पल बाद कृष्णन कमरे में अकेली थीं. उन्होंने कमरे से उस वक्त के अपने सबसे विश्वासपात्र को, अपने बॉयफ्रेन्ड को फोन लगाया. अपने प्रियजन से मिलने वाले सांत्वना के लिए मात्र नहीं बल्कि यह बताने के लिए भी उनके साथ क्या हुआ, कृष्णन ने फोन किया था. मेरा मनोविज्ञान ही इस तरह से तैयार किया गया था कि...मेरी चिंता थी कि ‘मेरा बॉयफ्रेंड क्या कहेगा?’”
कृष्णन का बॉयफ्रेंड बहुत नाराज हुआ. लेकिन उसने भी उन्हें परेशानी से दूर रहने की सलाह दी. “उस का जवाब भी ऐसा ही था, ‘कोई मतलब नहीं है, तुम बस वापस आ जाओ. मैंने तो बोला ही था.”
उनकी बातचीत से दो विकल्प सामने थे. “तुम यह काम करते रहना चाहती हो या वापस भोपाल चली जाना चाहती हो?”
दोनों ने मशवरा किया कि चुप रहना ही सबसे बेहतरीन विकल्प है क्योंकि कृष्णन की छवि समस्या पैदा करने वाली, तवज्जो चाहने वाली और मुश्किल कमर्चारी की बन जाने का खतरा था. ऐसी भी आशंका थी कि फिर उन्हें बाहर के असाइनमेंट में नहीं भेजा जाता. इन चिंताओं के साथ एक और जरूरी सवाल थाः क्या लोग उनकी बातों पर भरोसा करेंगे?
जब मैंने उनके उस वक्त के बॉयफ्रेंड से इस बारे में बात की तो उन्होंने उस रात यौन शोषण के बारे में कृष्णन और अपनी बातचीत की पुष्टि की. “वह बहुत घबराई हुई थी. वह चीख चीख के रो रही थी...मुझे लगता है कि वह सावंत का बहुत सम्मान करती थी और इसलिए यह सब उनके लिए बहुत चौंकाने वाला था.”
जब कृष्णन दूसरे दिन सावंत से मिली तो वह कुछ इस अंदाज में मिले जैसे पिछली रात की घटना कोई सपना था. उन लोगों ने ड्रिल में भाग लिया, सैन्य स्कूल का दौरा किया और चेकआउट करने के लिए अपने कमरों में चले गए.
उस रात कृष्णन और उनके बॉयफ्रेंड की बातचीत दो घंटे से ज्यादा तक चली. जिस कमरे में वह रुकी थीं वहीं के लैंडलाइन फोन से कृष्णन ने बॉयफ्रेंड को फोन किया था. उसने बताया, “हो सकता है मेरा फोन काम नहीं कर रहा था या उसमें पैसे नहीं थे.” अगले दिन जब वह चेकआउट कर रहीं थीं तो उनको बताया गया कि आउटस्टेशन फोन के लिए व्यवस्थापकों ने बहुत ज्यादा चार्ज किया है. परिणामस्वरूप उन्हें अतिरिक्त दो हजार रुपए देने को कहा गया.
यह रकम उनकी उस वक्त की कमाई के बराबर थी. कृष्णन याद करती हैं, “मैं टूट गई थी.” उन्हें सेना के उस प्रतिनिधि से पैसे उधार लेने पड़े जो उनके साथ ब्यास आया था. अधिकारी को अचरज हुआ या वह कृष्णन के हावभाव में दिखाई दे रही परेशानी को ताड़ गया, लेकिन उसने जताया नहीं. दिल्ली पहुंचने के काफी दिनों बाद कृष्णन अधिकारी के पैसा लौटा सकीं.
एक बार दिल्ली पहुंचने के बाद कृष्णन न्यूजरूम में रोजाना होने वाले ऊहापोह में खो गईं. जैसे जैसे वे उस हिंसा को भूलने की कोशिश कर रही थीं उनके चुप रहने के तर्क मजबूत होते गए. “ऐसा कुछ भी करने से पहले जो खुद को खत्म करने के समान था आपको एक स्पष्ट जवाब देना होता है कि मेरा लक्ष्य क्या है और मेरा कोई लक्ष्य नहीं था”, कृष्णन ने बताया. “मैं क्या करने वाली थी. उसे नौकरी से निकलवाना? वह स्टार रिपोर्टर था और वह दूसरी संस्था में था”.
2003 में कार्यस्थल में यौन दुर्व्यवहार के पीड़ितों के लिए बहुत कम विकल्प थे. सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित विशाखा दिशानिर्देश को आज छह साल हो चुके हैं. इसमें कई निर्देश जारी किए गए हैं जिसमें कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न की शिकायत के निवारण के लिए यौन उत्पीड़न शिकायत समिति की स्थापना का निर्देश भी है. लेकिन यह दिशानिर्देश अभी तक कानून नहीं बन पाया है. अधिकांश संस्थाओं के- न्यूजरूम भी इसका अपवाद नहीं है- ने इसका पालन नहीं किया है. अधिकांश संपादक, जो पहले की ही तरह पुरुष ही हैं- ऐसी दखलंदाजियों को बर्दाश्त नहीं करते. (बहुत तो अभी भी दिशानिर्देशों की बखिया उधेड़ रहे हैं जबकि 2013 में बने कानून ने यौन उत्पीड़न से सुरक्षा और शिकायत निवारण हेतु इस दिशानिर्देश को बाध्यकारी बना दिया है.)
मैंने कृष्णन से पूछा कि क्या कोई ऐसा व्यक्ति था जिससे शिकायत करने के बारे में वह सोच सकती थीं. उनका जवाब था, “किससे?” जहां तक उन्हें याद है उस वक्त आंतरिक शिकायत समिति का अस्तित्व नहीं था. वह द पायनियर के संपादक और पूर्व राज्यसभा सांसद चंदन मित्रा से शिकायत करने को तैयार नहीं थीं क्योंकि वह बहुत निचले पायदान पर थीं. कृष्णन ने कहा, “मैंने बाद में लोगों से सुना है कि चंदन मित्रा एक ऐसे आदमी हैं जो वास्तव में पीड़ित का साथ देते हैं.” कृष्णन को नहीं लगा कि संस्था से संपर्क करने से बात बनेगी.
कृष्णन ने पेशे की चिंताओं के चलते ही सावंत का नाम न लिया हो ऐसा नहीं था बल्कि उनका सामाजिक मनोविज्ञान या ट्रेनिंग ने भी उन्हें ऐसा करने से रोका. वह बताती हैं, “मैंने बीस साल की परिपक्वता में ऐसा किया था. इस उम्र में आप स्वयं को कसूरवार मानते हैं न कि इसके विपरीत जा कर देख पाते हैं कि कैसे व्यस्क लोगों और बॉस और उन लोगों से सवाल करना चाहिए जो ताकतवर होते हैं.” कृष्णन के मन में सावंत के लिए हमदर्दी थी और शिकायत करने पर सावंत को होने वाले नुकसान का अपराधबोध भी. “मुझे बहुत समय लगा इस बात को मानने के लिए जहां मैं कुछ ऐसा कह सकती हूं... कि उसकी गंदी पहचान को बचाने का ठेका मैंने नहीं लिया है.” कृष्णन ने बताया, “जिन बातों पर मैं विचार कर रही थी उनमें से एक बात यह भी थी ‘कि उसकी अभी शादी हो रही है’”. “मुझे नहीं याद कि यह बात किसने मेरे दिमाग में भरी. अब मुझे एहसास होता है कि यह कितना बेवकूफी भरा सुनाई पड़ता है.”
उनके साथ जो हुआ उसे कृष्णन ने कम करके देखा. “मुझे याद है कि मुझे बार बार कहा जाता था और फिर मैं खुद से कहती थी, ‘रेप तो नहीं हुआ न, कुछ बुरा तो नहीं हुआ है, तुम अपने काम में वापस जाओ, कौन सा उससे रोज मिलना है.‘”
लंबे समय तक कृष्णन ने इस घटना को अपने दिमाग में बंद करके रखा. इस गर्मी में एक इंटरव्यू में उन्होंने मुझसे कहा, “क्योंकि मैंने इस बात को लंबे वक्त तक सोचा या याद नहीं किया इसलिए मुझे पीड़ित होने का एहसास नहीं हुआ. हर रोज इससे कहीं बड़ी समस्याओं का खुलासा हो रहा था. “मुझसे कहा गया कि इससे निबटने का सबसे अच्छा तरीका है कि मैं इसे भूला दूं...पिछले कुछ महीनों में कुछ ऐसा हुआ कि पहली बार मैंने इस बारे में सोचा. मैंने इसे याद करने के लिए इतना समय खर्च किया.”
हालांकि कृष्णन इस याद से दूर भाग रहीं थीं लेकिन उसकी परछाई ने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा. “मैं हमेशा बहुत बहुत चैकस रहती कि कहीं मैं सावंत से न टकरा जाऊं”, कृष्णन ने बताया, “दोस्तों की शादियों में, पत्रकारों की पार्टियों में, इस तरह की चीजों में. एक वह भी वक्त था जब मैं यह चेक करती कि कौन कौन आ रहा है. और अगर मुझे पता चलता कि आने वालों में उसका नाम है तो मैं वहां नहीं जाती.”
तब से लेकर आज तक शहर के बाहर होने वाली रिपोर्टिंग में कृष्णन हमेशा चौकस रहती हैं. कृष्णन ने मुझे बताया, “मुझे हमेशा इस बात का डर रहता है कि मेरा बीट सहयोगी कौन होगा”. “इन सालों में जब भी मैंने यात्रा की, मैं कभी दोस्ताना नहीं रही”. उस विचार कि “फिर वही हो सकता है” ने उन्हें कभी स्वाभिक नहीं होने दिया.
भारतीय न्यूजरूम का माहौल- जो अधिकतर महिलाओं के प्रति शत्रुतापूर्ण है- यौन दुराचार को सहज बनाता है और इसके प्रभाव को अधिक खराब करता है. ऐसी जगहों में लैंगिक संवेदनशीलता की कमी, महिलाओं को अपनी चिंताओं को सामने लाने से रोकती है. भारत की बहुसंख्यक महिला पत्रकारों के लिए ऐसे डर और यहां तक की इस डर का एहसास आपस में गुपचुप तरीके से साझा करने की चीज है. कृष्णन कहती हैं, “महिला होने के नाते इस स्तर पर हमारे लिए गलती करने की बहुत कम गुंजाइश है. हमें लगातार यह साबित करने के लिए कि हम मर्द पत्रकारों की तरह कड़क हैं आवश्यकता से अधिक काम करना पड़ता है. ऐसा अलग अलग तरीके से करना होता है, जो अब मैं समझने लगी हूं.”
अपने करियर में कृष्णन ने स्त्रीद्वेष को कई स्वरूपों में झेला है. उनके आरंभिक बॉस में से एक ने उनके काम के प्रति उत्साह का यह कह कर मजाक उड़ाया था कि “बड़ी बरखा दत्त बनने निकली हो.” कृष्णन ने मुझे बताया कि स्वास्थ मंत्रालय में एक बैठक के दौरान हाल ही में एक पुरुष पत्रकार ने उनकी और एक अधिकारी के बीच चल रही बातचीत को बीच में काटते हुए कहा था, “आप इनसे बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इनका ब्लाउज डीप है.”
कृष्णन कहती है, “यह एकदम ही यौन उत्पीड़न नहीं है, यह बताता है कि हम कार्यस्थल में महिलाओं के साथ कैसा व्यवहार करते हैं. यह रोजाना का लैंगिक भेदभाव है.” “मुझे इस बात पर गुस्सा आता है कि हमारे पास स्मार्ट, जवान महिला पत्रकार होने के बावजूद हम उन्हें तैयार नहीं करते क्योंकि हम उन्हें किसी चीज की तरह देखते हैं. और आप कितनी भी वरिष्ठ हों यह वैसा ही बना रहता है क्योंकि आप इस कड़ी में कितना भी ऊपर क्यों न पहुंच जाएं आपसे ज्यादा मर्द उस कड़ी में उस स्तर पर विराजमान है.”
और यही वह परिवेश है जो इस उद्योग के लीडरों को ऐसा काम करने, ऐसा काम को सही मानने या भेदभावपूर्ण रिवाज को आसानी से नजरअंदाज करने का अवसर देता है. जब भी कोई महिला पत्रकार चुप्पी की इस संस्कृति को तोड़ती है और किसी दरिंदे का नाम लेती है जिसके बारे में सब को पता है कि वह वैसा है, लेकिन कोई कुछ नहीं कहना चाहता, तब इंडस्ट्री उस दरिंदे को बचाने के लिए आगे आ जाती है. उसके बचाव को यह कह कर सही बताया जाता है कि पीड़िता के बेअसर करियर की तुलना में उस दरिंदे की पत्रकारिता की प्रतिभा अधिक महत्वपूर्ण है.
आज 15 साल बाद भी, जबकि कृष्णन के पास अनुभव का लाभ है, यह कहना मुश्किल है कि कृष्णन का वह खौफ बेबुनियाद था. जिन लोगों से कृष्णन ने अपना अनुभव साझा किया उनमें से अधिकांश ने कृष्णन को खामोश रहने की सलाह दी. उनसे कहा गया कि वह अपने करियर में अच्छा कर रही हैं और अपनी छवि को खराब करने की कोई जरूरत नहीं है. यह भी कहा गया कि आरोप लगाने से उनको चिन्हित कर दिया जाएगा और कोई भी उनकी रिपोर्टिंग को गंभीरता से नहीं लेगा.
लेकिन कृष्णन ने अब इन बातों पर ध्यान देना बंद कर दिया है. उनको लगता है कि यह उनका नैतिक कर्तव्य है कि वह अपनी कहानी लोगों को बताएं. वह कहती हैं, “मैं यह इसलिए नहीं कर रही क्योंकि मैं चाहती हूं कि सावंत के साथ कुछ होना चाहिए.” उन्होंने मुझे बताया, “ऐसा कर मैं वास्तव में कुछ हासिल नहीं करने वाली.” उनका मानना है कि वह ऐसा उन औरतों के लिए कर रही हैं जिन पर यह खतरा मंडरा रहा है या जिन्होंने कार्यस्थल पर उत्पीड़न और हिंसा को भोगा है. वह कहती हैं, “ऐसे लोग हैं जिन्हें नौकरियों की जरूरत है और जो महत्वकांक्षी हैं और प्रतिभावान हैं और खुद को साबित करना चाहते हैं. वह खुद को साबित करने में इस कदर लगे हुए हैं कि इस तरह की भयावह चीजों को देखते हुए भी कहते हैं, ‘चलो, मैं इसे भूल जाती हूं ताकि मैं अपने भविष्य को अच्छा बना सकूं.‘” “यह मामला दूसरे मामलों की तरह नहीं होना चाहिए. इसे इतना जटिल नहीं होना चाहिए.”
कृष्णन ने फिर कहा, “मैं ऐसा इसलिए कर रही हूं ताकि मेरे मन को शांति मिल सके.”
जिस समय कृष्णन का यौन शोषण हुआ था उस वक्त वे कमजोर थीं. सावंत एक मशहूर पत्रकार थे जबकि वह एक नौसिखिया थीं. लेकिन आज कृष्णन अपने इरादों और मेहनत के दम पर एक सफल महिला हैं. दी हिंदू के अलावा उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस और मिंट में काम किया है. आज सावंत शायद उस वक्त से ज्यादा ताकतवर हैं लेकिन कुछ खास बात है जो बदल चुकी है. कृष्णन ने डरना बंद कर दिया है.