जून में संयुक्त राज्य अमेरिका में सर्वोच्च न्यायालय ने देश में गर्भपात को एक संवैधानिक अधिकार बनाने वाले ऐतिहासिक रो बनाम वेड फैसले को पलट दिया. दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र में प्रजनन अधिकारों पर इस बड़े झटके को देखते हुए भारत में कई लोगों ने अमेरिका के मुकाबले देश में अधिक प्रगतिशील गर्भपात कानून होने को गर्व की तरह देखा. हालांकि, अगले ही महीने दिल्ली उच्च न्यायालय ने अविवाहित होने के कारण एक 25 वर्षीय महिला की गर्भपात कराने की मांग को ठुकरा दिया. उच्च न्यायालय की पीठ ने कुछ विशेष अवस्था की महिलाओं को बहुत विशिष्ट परिस्थितियों में गर्भपात के अधिकार की अनुमति देने वाले मुख्य गर्भपात कानून- मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971- की व्याख्या करते हुए तर्क दिया कि इस मामले में गर्भपात कराना "बच्चे को मारने" के बराबर होगा.
29 सितंबर को भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने "अविवाहित महिलाओं" को भी गर्भपात कराने का अधिकार देने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया, जिन्हें एमटीपी अधिनियम में अभी तक स्पष्ट रूप से शामिल नहीं किया गया था. उस निर्णय में कहा गया है, "कुछ संवैधानिक मूल्यों, जैसे प्रजनन की स्वायत्तता का अधिकार, सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार, समानता का अधिकार और निजता के अधिकार, ने एमटीपी अधिनियम और एमटीपी नियम की हमारी व्याख्या को सजीव किया है."
हालांकि यह सही दिशा में उठाया गया कदम है और महिलाओं के अधिकारों के व्यापक दृष्टिकोण को बनाए रखने के लिए उल्लेखनीय है. यह भारत के गर्भपात कानून के बिल्कुल विपरीत है जिसमें महिलाओं की प्रजनन स्वायत्तता को बिलकुल ध्यान में नहीं रखा गया था. महिलाओं की राजनीतिक, सामाजिक और यौन स्वायत्तता को उनके केंद्र में रखने वाले दुनिया के कई अन्य देशों के विपरीत हमारा गर्भपात कानून नारीवादी हस्तक्षेपों के बाद नहीं बनाया गया. इसके बजाय भारत में महिलाओं के प्रजनन के मुद्दे को हमेशा जनसंख्या नियंत्रण को लेकर सरकारी चिंताओं से जोड़ा गया है. स्वतंत्रता के बाद परिवार नियोजन भारत की केंद्रीय विकासात्मक महत्वाकांक्षाओं में एक बन गया और महिलाओं की प्रजनन क्षमता के नियमन को राष्ट्रीय अनिवार्यता के रूप में माना जाता था.
लेकिन इस मामले में सभी महिलाओं को बराबरी के स्तर पर रख कर नहीं देखा गया. ऐतिहासिक रूप से जन्म दर को नियंत्रित करने के देश के प्रयास गहरी संरचनात्मक असमानताओं से प्रभावित रहे हैं. हाल ही में लिखी अपनी किताब रिप्रोडक्टिव पॉलिटिक्स एंड द मेकिंग ऑफ मॉडर्न इंडिया में मैथेली श्रीनिवास ने इसे विस्तार से बताया है. वह लिखती हैं कि स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती वर्षों में परिवार नियोजक के रूप में मध्यवर्गीय महिलाओं को राज्य के विकास के एजेंडे में लाना और गरीब और कामकाजी वर्ग की महिलाओं को लक्ष्य बनाना केंद्रीय मुद्दा था. 1960 के दशक के उत्तरार्ध में यह काम तेज हो गया क्योंकि विदेशों से चंदा देने वाले और भारत सरकार दोनों की प्राथमिकताएं जनसंख्या नियंत्रण को भारतीय विकास का केंद्र बिंदु बनाना था और महिलाएं इस विकासात्मक एजेंडे को लागू करने का आधार बन गईं.” आखिरकार इन तरीकों का खामियाजा दलित, आदिवासी और मुस्लिम महिलाओं को भुगतना पड़ा है. भारत में परिवार नियोजन का बोझ लगभग हमेशा ही महिलाओं पर लादा गया है, सिवाए आपातकाल के समय में जब श्रमिक वर्ग के पुरुषों पर जनसंख्या नियंत्रण के जबरदस्त तरीके इस्तेमाल किए गए थे.
1970 के दशक की शुरुआत तक गर्भपात कराना अवैध था और भारतीय दंड संहिता के तहत अपराध माना जाता था. लेकिन यह कानून बड़े स्तर पर महिलाओं को अपने गर्भधारण को समाप्त करने के तरीकों को उपयोग करने से नहीं रोक सका, जिससे सरकार को गर्भपात कानूनों को उदार बनाने के लिए एक समिति गठित करनी पड़ी. समिति ने 1967 में दी अपनी रिपोर्ट में गर्भपात को वैध बनाने के संभावित परिणाम उच्च मातृ मृत्यु दर में कमी और जनसंख्या नियंत्रण को बताया. रिपोर्ट में कहा गया है, "जन्म दर में गिरावट को कानूनी गर्भपात की संख्या से अलग रख कर नहीं देखा जा सकता है." समिति ने कहा, "समस्या की जड़ यह थी कि ज्यादातर अयोग्य लोगों द्वारा अस्वच्छ माहौल में किए गर्भपात के कारण मौतें हुईं.”
सरकार ने आखिर में 1971 में एमटीपी अधिनियम पारित किया जिसमें गर्भवती महिला को जीवन का जोखिम होने, शिशु में असामान्यताओं की संभावना या बलात्कार जैसे कुछ मामलों में डॉक्टरों के कहने पर गर्भपात की अनुमति दी गई. लेकिन इस बार भी इस बात पर विचार नहीं किया गया था कि एक महिला को गैर-भावनात्मक या गैर-दुखद कारणों से भी इच्छानुसार गर्भपात कराने का अधिकार होना चाहिए. कानून में निर्णय और दायित्व डॉक्टरों पर छोड़ दिए गए थे. नतीजतन, आज तक महिलाओं को गर्भपात कराने के लिए अक्सर डॉक्टरों और न्यायाधीशों, जो अक्सर पुरुष होते हैं, के परोपकार पर निर्भर रहना पड़ता है.
सेंटर फॉर रिप्रोडक्टिव राइट्स, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली और बेंगलुरु में नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया द्वारा 2020 के एक अध्ययन में पाया गया कि डॉक्टरों की इस सूझबूझ का इस तरह से प्रयोग किया जाता है कि उसका अक्सर महिला के स्वास्थ्य की चिंताओं और इस संबंध में निर्णय लेने के अधिकार या यहां तक कि एमटीपी अधिनियम के तहत कानूनी प्रावधानों से कोई लेना-देना नहीं होता है. बल्कि यह प्रदाताओं की परिणामों को लेकर आशंका, गर्भपात की नैतिकता के बारे में उनके विचारों के साथ-साथ समाज में महिलाओं की भूमिका और स्थान के बारे में उनके विचारों से बहुत हद तक जुड़ा है. बहुत बार डॉक्टर अभियोजन के डर से माता-पिता की सहमति या किसी प्रकार की न्यायिक अनुमति की मांग करते हैं. सितंबर का फैसला इस बात को और स्पष्ट रूप से कहता है, "हमारा विचार है कि प्रत्येक महिला को अपने अनुमान पर निर्णय लेना चाहिए कि क्या वह अपनी गर्भावस्था को जारी रखने की स्थिति में है या नहीं."
भारत में महिलाओं की भूमिका और समाज में उनके स्थान को लेकर जो समझ है वह बहुत दकियानूसी है. अधिकांश परिवारो में लड़कियों को एक सामाजिक और आर्थिक बोझ के रूप में देखा जाता हैं. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि सभी वर्ग, जाति और क्षेत्र के परिवारों में लड़कों को अधिक प्राथमिकता दी जाती है. इसके अलावा देश में कन्या भ्रूण हत्या का एक लंबा इतिहास रहा है. इसलिए जब 1970 के दशक की शुरुआत में भ्रूण का पता लगाने और लिंग की पहचान करने वाली तकनीक का विकास हुआ तब गर्भपात को लकर नई सच्चाई ने भी जन्म लिया. 1990 के दशक तक लिंग का पता लगा कर गर्भपात बड़े पैमाने पर होने लगा. इस कारण भारत में महिलाओं के आंदोलन और गर्भपात के बीच एक जटिल संबंध रहा जिसमें बहुत कम आवाजें गर्भपात के पूर्ण अधिकार की वकालत करती दिखीं.
कई नारीवादियों को कन्या भ्रूण हत्या पर रोक लगाने के लिए लिंग निर्धारण के खिलाफ और महिलाओं के गर्भपात के अधिकार को भी संरक्षित करने के लिए दोनों को लेकर अभियान चलाना पड़ा. 1994 में प्री-कॉन्सेप्शन एंड प्रीनेटल डायग्नोस्टिक टेक्निक्स एक्ट लागू हुआ जिसमें डॉक्टरों को भ्रूण के लिंग का खुलासा करने से रोक दिया गया. लेकिन इसका बहुत कम असर हुआ. भारत में लिंगानुपात बहुत अधिक विषम बना हुआ है. अनुमान लगाया जाता है कि लिंग परीक्षण के कारण 63 लाख महिलाएं जन्म नहीं ले पाई हैं. 2020 के एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि लिंग-चयनात्मक गर्भपात के कारण 2030 तक लगभग सत्तर लाख कम महिलाओं का जन्म होगा, अन्यथा ऐसा नहीं होता.
हर साल होने वाले गर्भपात की संख्या पर विश्वसनीय आंकड़े मिलना मुश्किल है. विज्ञान पत्रिका द लैंसेट के एक अध्ययन के अनुसार 2015 में भारत में एक करोड़ पचास लाख से अधिक गर्भपात हुए. इनमें से 73 प्रतिशत स्वास्थ्य सुविधाओं के बिना किए गए. अध्ययनकर्ताओं ने तब स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा दर्ज किए गए आंकड़ों पर कहा कि इस डेटा में गर्भपात की कम घटनाओं को दर्ज किया गया है क्योंकि वे पंजीकृत सुविधाओं में काम नहीं करने वाले निजी क्षेत्र के गर्भपात करने में प्रशिक्षित डॉक्टरों द्वारा किए गर्भपात और गर्भपात में विशिष्ट प्रशिक्षण नहीं होने के बाद भी सेवाएं देने वाले अन्य औपचारिक रूप से प्रशिक्षित स्वास्थ्य पेशेवरों द्वारा किए गए गर्भपात को इसमें शामिल नहीं करते हैं.
निजी क्लीनिकों में बड़ी फीस और योग्य डॉक्टरों की कमी सहित विभिन्न कारणों से भारत में अधिकांश महिलाओं के लिए सुरक्षित गर्भपात कराना मुश्किल होता है. अधिनियम में कहा गया है कि केवल प्रसूति और स्त्री रोग विशेषज्ञ ही गर्भपात करा सकते हैं. मई 2021 में स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी ग्रामीण-स्वास्थ्य आंकड़ों के अनुसार सरकारी अस्पतालों में इन विशेषज्ञताओं वाले लगभग 70 प्रतिशत डॉक्टरों की कमी है. जिस कारण ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली अधिकांश गरीब महिलाओं के लिए चिकित्सा गर्भपात कराना मुश्किल हो जाता है, जिनकी अक्सर केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच होती है.
एमटीपी कानून में 2021 में संशोधन किया गया था, जिसमें नाबालिग, मानसिक रूप से बीमार महिलाएं, शारीरिक रूप से विकलांग महिलाएं और गर्भावस्था के दौरान वैवाहिक स्थिति में बदलाव वाली महिलाएं 24 सप्ताह तक के गर्भधारण को समाप्त कर सकती थीं. लेकिन इसमें अकेले रहने वाली और अविवाहित महिलाओं के बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं किया गया, जिसे उच्चतम न्यायालय ने अब यह कहते हुए ठीक कर दिया है कि संवैधानिक रूप से यह भेद मायने नहीं रखता हैं.
फैसले में कहा गया है, "कानून इस तथ्य पर आधारित होना चाहिए कि समाज में आए बदलाव के कारण परिवार की संरचना में भी महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं." लिंग आधारित समानता वाले समाज को पाने के लिए बनाए गए कानून में एमटीपी अधिनियम और एमटीपी नियमों की व्याख्या को आज की सामाजिक वास्तविकता पर आधारित होना चाहिए और उस युग के सामाजिक मानदंडों से बंधा हुआ नहीं होना चाहिए जो इतिहास के साथ गुजर गया है. हालांकि, महिलाओं को अभी भी मानसिक स्वास्थ्य की हानि का हवाला देना होगा, यहां तक कि मानसिक स्वास्थ्य का निर्धारण करने वाले व्याख्यात्मक नजरिए और गर्भावस्था की समाप्ति की गारंटी देने वाली अन्य परिस्थितियों को लेकर विचारों में खुलापन लाया गया है.
येल रिव्यू में हाल के एक लेख में लेखक मैगी डोहर्टी ने अधिकार के समर्थक अधिवक्ताओं के बीच फैले कुछ के दुखद कहानियों के बारे में लिखा है जो गर्भपात कराने का विकल्प चुनने वाली महिलाओं को क्लासीफाई करती हैं : अच्छी मांएं, पीड़ित, गरीब और भयभीत लड़कियां. वह लिखती हैं कि "अपने पूर्ववर्तियों के विपरीत कई नारीवादी आज गर्भपात को एक निर्विवाद नैतिक अधिकार के बजाय एक विशेषाधिकार के रूप में पेश करते हैं. जब गर्भपात की कहानियों को लोगों के बीच ले जाने के लिए तैयार किया जाता है, तो हम केवल यह मान सकते हैं कि गर्भपात का अधिकार अधिक से अधिक जनता के समर्थन पर निर्भर करता है."
संयुक्त राज्य अमेरिका में नारीवादी आंदोलन की दूसरी लहर के दौरान महिलाओं ने गर्भपात को लेकर सामूहिक प्रदर्शन किया और उस समय के गर्भपात कानूनों में सुधार के बजाय उन्हें पूरी तरह रद्द करने की मांग की. रेडस्टॉकिंग्स नामक एक कट्टरपंथी नारीवादी समूह 1969 में पुरुषों और एक नन के एक समूह के बीच चल रही राज्य के गर्भपात कानून पर चर्चा के दौरान न्यूयॉर्क विधानसभा में घुस गया था. भारत के एमटीपी गर्भपात कानून के दो साल बाद 1973 में रो बनाम वेड के प्रभाव में आने के बाद ईसाई अधिकार के बीच बड़े पैमाने पर ध्रुवीकरण शुरू हुआ, जिसने खुद को यह कहते हुए जीवन का समर्थन करने वाले कहा कि भ्रूण भी एक जीव होता है और नारीवादी सिर्फ व्यक्ति के अधिकार को मानने वाले लोग थे.
अधिकांश भारतीय उदारवादी आज खुद को बाद वाली श्रेणी में गिनते हैं हालांकि यह श्रेणियां भारतीय समाज में आसानी से फिट नहीं होती हैं. यह तर्क देना मुश्किल नहीं है कि आपके अपने स्वास्थ्य और शरीर के बारे में निर्णय आपकी पसंद के होने चाहिए. लेकिन यहां हमेशा एक और बड़ा संदर्भ होता है जो इस पसंद पर असर डालता है. और भारत में यह संदर्भ बेहद गंभीर है, चाहे कोई युवा महिलाओं के प्रजनन जीवन पर अत्यधिक नियंत्रण वाले परिवार हो, जाति और विवाह के प्रति उनका जुनून, लड़का पैदा करने की जिद और लोगों की धारणाएं कि हर महिला जीवन में सिर्फ मां बनने का ही इंतजार करती है.
जन्म दर को नियंत्रित करने की सरकार की इच्छा ने गर्भपात को वैध बनाने का मार्ग आसान कर दिया और अब हाल के फैसले ने महिलाओं के अधिकारों और प्रजनन विकल्पों के दायरे का विस्तार किया है. लेकिन यह जीत का जश्न मानाने की जल्दबाजी होगी क्योंकि कई अन्य देशों के विपरीत भारत ने गर्भपात पर एक मजबूत सार्वजनिक बातचीत नहीं की है. यदि समाज में गर्भपात कराना या गर्भपात होना आम चीज होती तो यह असहाय महिलाओं के साथ एक तरह की त्रासदी होती है. हमारे पास गर्भपात को लेकर स्वास्थय देखभाल तक महिलाओं की पहुंच और सुरक्षा पर अब तक जो डेटा है वह चिंताजनक है. इस साल जारी संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की रिपोर्ट के मुताबिक असुरक्षित गर्भपात के कारण हर दिन लगभग 8 महिलाओं की मौत हो जाती है. कानून की छात्रा और दलित महिला श्रीजा राव ने द गार्जियन में हाल ही में लिखे अपने लेख में ध्यान आकर्षित किया कि जब गर्भनिरोधक और सुरक्षित गर्भपात की बात आती है तो उनके समुदाय की महिलाओं की लगातार अनदेखी की जाती है. वह लिखती हैं, "क्या वे सुरक्षित गर्भपात का खर्च उठा सकते हैं? क्या वे जन्म नियंत्रण उपायों को खुद चुनने में सक्षम हैं? क्या उनकी प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच है?" ये अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न हैं. विभिन्न समुदायों की महिलाएं गर्भपात का क्या तरीक चुनती हैं, इस पर कोई बड़े पैमाने पर अध्ययन नहीं हुआ है और इसलिए इस बारे में कोई स्पष्टता भी नहीं है कि आगे चलकर सार्वजनिक-स्वास्थ्य के क्या मानदंड निर्धारित किए जाने चाहिए. राव लिखती हैं, "जहां मेरे समुदाय की महिलाओं की ताकत मुझे प्रजनन अधिकारों को लेकर अविभाजित भविष्य के लिए निश्चिंत करती है, वहीं सार्वजनिक जीवन में फैला जातिवाद संरचनात्मक परिवर्तन के बारे में अनिश्चितता की स्थिति बनाए रखता है.”
महिलाओं की स्वतंत्रता इस बात से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई है कि उनके अपने प्रजनन जीवन पर उनका कितना नियंत्रण है. यह हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य से लेकर मातृत्व, काम, जीवन, प्रेम और हमसे जुड़ी सभी चीजों पर पर असर डालता है. गर्भपात पर हालिया निर्णय और प्रजनन न्याय पर इसका जोर एक महत्वपूर्ण बात है. लेकिन यह जमीन पर कितना प्रभावी होता है, यह देखा जाना अभी बाकी है.
(अनुवाद : अंकिता)