रे बीस 25 साल की हैं. वह ट्रांसवुमन हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय में विधि संकाय में कानून की पढ़ाई करती हैं. वह अपने कॉलेज के छात्रावास में रहती थीं लेकिन जब कोविड-19 के चलते देशव्यापी लॉकडाउन लागू किया गया तो उन्हें दिल्ली में अपने माता-पिता के साथ रहने के लिए जाना पड़ा. रे ने कहा कि लगभग एक साल पहले उन्होंने अपने माता-पिता को बता दिया था कि वह एक ट्रांसवुमन है लेकिन जब से वह घर वापस आईं हैं वह दमित महसूस कर रही हैं. उन्होंने कहा, "इसने वे सारे काम बंद कर दिए हैं जिनसे मैं खुद को बहला लेती थी.”
रे भारत के शहरों में रहने वाले उन ढेरों क्विअर और ट्रांस व्यक्तियों में से एक हैं जिन्हें लॉकडाउन ने ऐसे माहौल में वापस जाने के लिए मजबूर किया है जहां वे दमित और भावनात्मक रूप से बंदी महसूस करती हैं. मारिवाला स्वास्थ्य पहल के सर्टिफिकेट कोर्स-क्विअर अफरमेटिव काउंसलिंग प्रैक्टिस की मेंबर पूजा नायर ने मुझे बताया कि इस समुदाय के लोगों का अपने परिवारों के साथ रहना उनके लिए कष्टदायी हो सकता है. उन्होंने कहा, "इन क्विअर समुदायों और उनके परिवारों के बीच का संबंध कभी भी सरल नहीं होता है, यह बिल्कुल भी आकर्षक नहीं होता. जब सभी लोग इससे इनकार करते हैं, तो आपके अंदर सेल्फ की भावना कैसे विकसित होगी? जब आपके आस-पास की हर चीज आपके अस्तित्व, आपकी पहचान को अस्वीकार कर रही है, तो आप अपने सेल्फ का अनुभव कैसे करेंगे?”
रे ने मुझे बताया कि उनके जैसे अन्य लोगों की तरह ही लॉकडाउन उनके लिए कठिन है क्योंकि उनके दोस्त उनके जीवन का जरूरी हिस्सा हैं. रे ने कहा कि लॉकडाउन शुरू होने से पहले अपने दोस्तों, खासकर अपने ट्रांस दोस्तों से मिलने में उन्हें खुशी होती थी. उन्होंने कहा, "यह मेरे जीने का एकमात्र जरिया था." अपने विश्वविद्यालय परिसर में वह अपनी इच्छानुसार जीने, खुद को व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र थीं. वह अपने कॉलेज में मजबूती के साथ ट्रांस अधिकारों पर चर्चा कर सकती थीं और वहां सार्वजनिक रूप से साड़ी पहन सकती थी. वह अपने बैग में एक साड़ी रखा करती थीं.
लेकिन अब उन्हें अपने तरीके से रहने की बहुत कम आजादी है. अब उन्हें अपने माता-पिता के साथ अधिक समय बिताना है, जो उनके ट्रांस होने को स्वीकार नहीं कर रहे हैं और मददगार भी नहीं हैं. रे ने मुझे बताया कि उनके परिवार ने उनकी पहचान को पूरी तरह से स्वीकार करने से इनकार कर किया है. रे ने कहा, “अपनी पहचान उजागर करने के लगभग एक साल बाद मैं ऐसी स्थिति में हूं जहां एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ है. यह लगभग वैसा है जैसे कुछ भी न हुआ हो. मैं अपने दोस्तों को वीडियो कॉल या फोन कॉल नहीं कर सकती हूं क्योंकि मेरा हर शब्द, हर कार्य माता-पिता को बुरा लग सकता है और हमारे बीच झगड़े का कारण बन सकता है."
26 वर्षीय वैष्णवी शाह पैनसेक्सुअल महिला हैं. उनके लिए घर पर रहने का अर्थ "चिंतित, तनावग्रस्त, आसानी से भयभीत हो जाना" है. शाह हरियाणा के गुड़गांव जिले में योग ट्रेनर हैं और लॉकडाउन के कारण उन्हें अपने परिवार के साथ राजस्थान के भरतपुर जिले में जाना पड़ा. शाह ने मुझे बताया कि वह मध्यवर्गीय परिवार से हैं जो उनकी लैंगिकता को पूरी तरह से अस्वीकार करता है. उन्होंने कहा, "मेरे माता-पिता के लिए डेटिंग का विचार ही अपने आप में उच्छृंखल है. किसी महिला के साथ डेटिंग करने पर मेरे माता-पिता अपना आपा खो देंगे.'' उन्होंने आगे बताया, "उनके लिए या तो यह किसी प्रकार की बीमारी है या उसका केवल एक चरण है. ...मुझे हर चीज के बारे में झूठ बोलना पड़ता है. यह ऐसा है जैसे मैं दोहरी पहचान के साथ जी रही हूं.”
ऐसी ही एक 21 वर्षीय समलैंगिक महिला ने नाम ना छापने की शर्त पर मुझे बताया कि लॉकडाउन के दौरान अपने माता-पिता के साथ रहने से उनके मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ रहा है. वह दिल्ली विश्वविद्यालय में साहित्य की पढ़ाई करती हैं और अपने माता-पिता के साथ राष्ट्रीय राजधानी में ही रहती हैं. भावनात्मक रूप से अपमानित करने वाले व्यक्ति के साथ रहना कठिन है, उन्होंने कहा, "क्योंकि आप के हर पहलू की आलोचना की जाती है. यह आपकी खुद की योग्यता पर ही बहुत सारे प्रश्न खड़े करता है” उनका परिवार भी समलैंगिकों को लेकर अनुचित टिप्पणी करता है, लेकिन साहित्य की छात्रा ने कहा कि वह अब उनके साथ जुड़े रहना नहीं चाहतीं. उन्होंने कहा, "यह मेरे मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है क्योंकि अभी मैं ऐसे माहौल में हूं जो मेरी पहचान को मान्यता नहीं देता." उन्होंने आगे बताया कि उन्होंने महसूस किया कि वे अशक्त हैं और सुरक्षित रहने के लिए उन्हें खुद को बदलने पर मजबूर किया गया.
तमिल नाडु की राजधानी चेन्नई में सूचना-प्रौद्योगिकी क्षेत्र में काम करने वाले एक 29 वर्षीय ट्रांसमैन ने भी ऐसी ही रणनीति अपनाई है. यह आईटी प्रोफेशनल नाम न छापने का अनुरोध करते हुए सर्वनामों, उन्होंने या उन्हें का प्रयोग करने को कहते हैं. उनके माता-पिता इस बात को मानने से इनकार करते हैं कि वह महिला नहीं हैं और उनसे किसी पुरुष से शादी कर लेने का आग्रह करते रहते हैं. जब देश में लॉकडाउन लागू हुआ तब आईटी प्रोफेशनल अपने माता-पिता से अलग रहने के लिए फ्लैट की तलाश कर रहे थे. उनकी 20 वर्षीय बहन जो अर्थशास्त्र की पढ़ाई करती हैं और दोस्तों ने उन्हें सलाह दी कि वह घर पर शालीन बने रहने की कोशिश करें क्योंकि उनके पास हाल-फिलहाल बाहर जाने का विकल्प नहीं है.
आईटी प्रोफेशनल इस सलाह को मानने की कोशिश कर रहे हैं. उन्होंने मुझे बताया, "अगर माता-पिता शादी के प्रस्तावों के बारे में बात करते हैं तो हम खास ध्यान नहीं देते बस सुनते हैं." उन्होंने हंसते हुए कहा, "अब कौन लड़का मुझे देखने आएगा? अगर कोई बाहर निकलेगा, तो पुलिस वैसे भी लाठी से इतनी बुरी तरह से मारेगी." वे बेहतर महसूस करने के लिए अपने जैसे दोस्तों के साथ वीडियो-कॉन्फ्रेंस पर बात करते हैं. "फोन काट देना, सीधे होने का नाटक करना, यह हमारे लिए एक मंत्र की तरह है." लेकिन ऐसा करना उनके लिए बहुत मुश्किल था. "हमें ऐसा लगता है कि हम अपने माता-पिता के मातहत हैं या उनके अभिभावकत्व में हैं." उन्होंने कहा.
जिन लोगों से भी मैंने बात की उन्होंने कहा कि अपनी पहचान का मजबूती से इजहार करने के लिए क्या पहनना है यह चुनने की स्वतंत्रता बहुत महत्वपूर्ण है. लॉकडाउन से पहले आईटी प्रोफेशनल जब घर पर अकेले होते थे या जब बाहर निकलते थे तो अपनी पसंद के कपड़े पहन सकते थे. ऐसा इसलिए था क्योंकि उनके माता-पिता दोनों कामकाजी हैं. अब उन्हें एक औरत की तरह दिखने के लिए अपनी बहन के कपड़े पहनने पड़ते हैं, जिससे वह "असहज" महसूस करते हैं. आईटी प्रोफेशनल ने कहा कि यह ऐसा है जैसे "हम उन दिनों में वापस आ गए हैं जब हमें यह लगा था कि हमारे शरीर के साथ कुछ बिल्कुल गलत है." उन्होंने मुझे बताया, "जब आपको कुछ ऐसा पहनने के लिए मजबूर किया जाता है जिसमें आप खुद को महसूस नहीं कर पाते, तो आप उन कपड़ों और शरीर में फंस जाते हैं जिन्हें न छोड़ने के लिए कहा गया है." यह आपकी पहचान की भावना पर सीधा हमला लगता है.” उन्होंने कहा, "हम कौन हैं इस बारे में हमें उनके आदर्शों के अनुरूप क्यों होना चाहिए?"
उत्तर प्रदेश के नोएडा की एमिटी यूनिवर्सिटी से आर्किटेक्चर की पढ़ाई कर रहे 19 वर्षीय ऋषि क्विअर एक्टिविस्ट हैं. उन्हें भी ऐसे ही संघर्षों का सामना करना पड़ रहा है. ऋषि ने कहा, "मेकअप करना मेरी अपनी पहचान को जाहिर तरीका है और यह मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है." ऋषि ने मुझसे कहा कि लॉकडाउन से पहले वह नियमित रूप से कॉलेज में साड़ी और कुर्तियां पहनते थे. ''मैंने रात को चुपचाप से मेकअप लगाना शुरू कर दिया है, इसलिए मैं उदास नहीं हूं. मैं अपने आप को शांत रखने की कोशिश करता हूं और रात होने का इंतजार करता हूं जब सभी सो चुके हों ताकि मैं वैसा बन सकूं जैसा मैं हूं." उन्होंने कहा कि लॉकडाउन के दौरान उनके माता-पिता ने उनके मेकअप और साड़ी के बारे में पूछा, जिससे उन्हें बहुत अलगाव महसूस होता है.
उन्होंने बताया कि एक्टिविस्ट के तौर पर उनके लिए घर से काम करना भी मुश्किल है. वह आगे कहते हैं कि अगर कोई फोन करता है और मदद मांगता है तो मैं ऐसा करने में सक्षम नहीं हूं क्योंकि मुझे लगता है कि माता-पिता को लगेगा कि मैं कुछ गलत कर रहा हूं और वे मुझसे सवाल पूछेंगे." ऋषि ने कहा कि उन्हें लगता हैं कि ''मैं कुछ अवैध काम कर रहा हूं जिसे रोकने की जरूरत है. ऐसा लगता है कि वे मुझे पकड़ लेंगे या ऐसा ही कुछ हो जाएगा."
उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने पिछले साल ऐंगजाइइटी की दवा लेनी शुरू कर दी थी लेकिन बाद में छोड़ दी. लेकिन लॉकडाउन ने उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित किया है. उन्होंने कहा, "मैं बहुत प्रतिबंधित महसूस करता हूं. मैं फिर से दवा लेने लगा हूं और मेरा मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ रहा है."
जिन लोगों से मैंने बात की उनमें से केवल एक ने कहा कि वह लॉकडाउन में अपने माता-पिता के साथ रहने में सहज थे. दिल्ली स्थित विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज में पत्रकारिता के छात्र रुद्राक्ष सिंह समलैंगिक हैं. सिंह ने कहा कि उनके पिता पहले प्रतिबंध लगाया करते थे लेकिन अब ऐसा नहीं है. सिंह ने आगे कहा, "मैं अभी भी उनकी आंखों में थोड़ी निराशा देखता हूं, वह हाल तक भी इसे लेकर मुखर नहीं थे." उन्होंने कहा कि वह किसी भी दिन उस शारीरिक हिंसा की जगह अपने जीवन की राह चुनेंगे जिससे दूसरे लोग गुजरते हैं. सिंह ने कहा कि "अगर घर में कभी स्थिति खराब हो जाती है, तो मैं अपने बैग पैक करके चला जाऊंगा लेकिन मैं जैसा भी हूं उसे नहीं बदलूंगा." उन्होंने कहा, "मेरे मित्र जिस चीज का सामना कर रहे हैं, उसके विपरीत- लॉकडाउन ने मुझे अपने माता-पिता के सामने पूरी तरह से खुद को जाहिर करने का साहस दिया है."
कुछ मंच इस बारे में सलाह साझा कर रहे हैं कि कैसे क्विअर समुदाय के लोग घरों में भावनात्मक रूप से अपमानजनक व्यवहार का मुकबला कर सकते हैं. उदाहरण के लिए, अपने घरों पर अपमानजनक व्यवहार में फंसे एलजीबीटीक्यूआईए समुदाय के लोगों और उन जैसे अन्य लोगों के लिए चेन्नई स्थित एक अपंजीकृत संगठन ओरिनाम ने कुछ सुरक्षात्मक और खुद की देखभाल वाली युक्तियों का अपनी वेबसाइट पर संकलन किया है. क्विअर समुदाय के सदस्यों के अधिकारों की पुष्टि करने की दिशा में काम करने वाला एक गैर-लाभकारी संगठन, नजरिया, उन लोगों के साथ व्यक्तिक रूप से चर्चाओं के लिए साप्ताहिक वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सत्र आयोजित करता रहा है, जिनके पास घर पर कोई सहायता करने वाला नहीं है. लेकिन, मारिवाल हेल्थ इनिशिएटिव से जुड़ी नायर ने कहा, 'एनजीओ कितना कर सकते हैं? वे अपनी पहुंच सुनिश्चित नहीं कर सकते. वे हमारे जैसी एक विशाल, विविध आबादी तक पूरी तरह नहीं पहुंच सकते.” उन्होंने कहा कि सरकार को मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को और अधिक सुगम बनाने की आवश्यकता है.
इस बीच, लगभग जिस किसी से भी मैंने बात की, लॉकडाउन से निपटने के लिए संघर्ष कर रहा था. रे ने मुझे बताया “हर बार मेरा डेडनेम (जन्म के समय रखा गया नाम, एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय में ट्रांसजेंडर लोगों के बीच प्रचलित शब्द) के साथ मुझे बेटा कहा जाता है. जिस सर्वनाम से मुझे पुकारा जाता है वह मेरा नहीं है, मुझे तकलीफ होती है, लेकिन क्योंकि वे चाहते हैं कि मैं उनका बेटा बनूं जबकि मैं उनकी बेटी, एक औरत बनना चाहती हूं. इससे मुझे दुख होता है.'' उन्होंने कहा कि वह खुद को दोषी मानने लगी हैं, जैसे कि उन्होंने कोई गलत की हो. "मैं अपने आस पड़ोस या पूरे परिवार के सामने नहीं आई हूं ... मैं बस चादर के नीचे मुंह छिपा लेती हूं और रो लेती हूं. क्योंकि मैं फंस गई हूं."
क्विअर समुदाय के सदस्यों के लिए कुछ सुरक्षा और स्वयं की देखभाल से संबंधित सुझावों के लिए ओरिनाम वेबसाइट पर जाने के लिए क्लिक करें.
अनुवाद : अंकिता