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कांग्रेसी नेता सज्जन कुमार के मामले में दिल्ली उच्च अदालत के फैसले पर गौर किया जाना चाहिए. 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुई सिख विरोधी हिंसा में सिखों के कत्ल के मामले में 2013 में एक सत्र न्यायालय ने कुमार को बरी कर दिया था जबकि पांच अन्य लोगों को उसने दोषी माना था. बाद में अपील पर सुनवाई करते हुए दिल्ली उच्च अदालत ने कुमार को भीड़ को उकसाने और एक सिख परिवार के पांच सदस्यों की हत्या में भाग लेने का दोषी पाया था. कुमार को अदालत ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई. अदालत ने अपने फैसले में कहा कि 1984 की हिंसा की जांच करने में दिल्ली पुलिस असफल रही है. इन पांच लोगों की हत्या के मामले की अलग एफआईआर दर्ज करने में दिल्ली पुलिस नाकामयाब रही और परिस्थितियां बताती हैं कि दिल्ली पुलिस ने इन बर्बर हत्याओं को प्रशय दिया. अदालत ने एक निष्कर्ष में कहा कि यह एक अभूतपूर्व मामला है जिसमें सामान्य स्थितियों में आरोपी नंबर एक सज्जन कुमार के खिलाफ कार्यवाही करना असंभव होता क्योंकि ऐसा लगता है कि उनके खिलाफ मामले को रिकॉर्ड या दर्ज ना कर बड़े स्तर पर मामले को दबाने की कोशिश की गई थी.
अन्य मामलों में भी इससे मिलते-जुलते सवाल सामने आए हैं. जांच अधिकारियों में पेशेवर रवैया के अभाव में हाल के दो मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने परिस्थितियों से संबंधित घटनाक्रमों का पता लगाने के लिए समितियों की नियुक्ति की है. एक मामले में हैदराबाद की एक नौजवान पेशेवर महिला के बलात्कार के आरोपियों के फेक एनकाउंटर की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अवकाश प्राप्त जज की अध्यक्षता में समिति का गठन किया है. उत्तर प्रदेश के गैंगस्टर विकास दुबे के कथित फर्जी एनकाउंटर मामले में भी सर्वोच्च अदालत ने अपने पूर्व जज की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया है. इससे जांच एजेंसियों के प्रति विश्वास की कमी का आभास होता है और निष्पक्ष जांच करने की उनकी क्षमता पर भी कई सवाल खड़े होते हैं.
तो सवाल उठता है कि हम लोग निष्पक्ष, न्यायपूर्ण और सही जांच के लिए किस पर विश्वास करें? क्या कोई व्यक्ति स्थानीय पुलिस या सीबीआई जैसी एजेंसी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने एक बार पिंजरे का तोता कहा था, पर विश्वास कर सकता है?
हाल की दो घटनाओं को याद करना अच्छा होगा. एक मामले में इस साल जनवरी में केंद्र सरकार ने 2018 में भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा की जांच को महाराष्ट्र पुलिस से राष्ट्रीय जांच एजेंसी को हस्तांतरित कर दिया. जाहिर है कि केंद्र सरकार ने ऐसा राज्य सरकार की सहमति से नहीं किया और ना उसने राज्य पुलिस की सहमति ली. इस मामले में सरकार के आलोचक कई नागरिक अधिकार कार्यकर्ता आरोपी बनाकर गिरफ्तार किए गए हैं. दूसरे मामले में, अभी दो ही दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने सुशांत सिंह राजपूत की मौत की जांच का मामला, जो कथित रूप से आत्महत्या है, महाराष्ट्र पुलिस से लेकर सीबीआई को सौंप दिया है. सरकार ने ऐसा उन आरोपों के बाद किया है जिनमें कहा जा रहा है कि लोकल पुलिस ने इस मामले की जांच ठीक से नहीं की. यह मामला इतना जटिल नहीं लगता जितना की इसे मीडिया आवेश में आकर दिखा रहा है. लेकिन क्या केंद्र सरकार को भी राज्य पुलिस द्वारा निष्पक्ष जांच किए जाने का भरोसा नहीं है?
अपराध प्रक्रिया संहिता ने जांच को परिभाषित करते हुए बताया है कि उसमें एक पुलिस अधिकारी या किसी भी अधिकृत व्यक्ति द्वारा सबूतों का संकलन करना शामिल होता है. सबूतों का संकलन आसान काम नहीं होता और यह एक ऐसे पुलिस अधिकारी के लिए और भी कठिन होता है जिस पर काम का अतिरिक्त भार पहले से ही हो. जून 2018 में प्रकाशित इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि दिल्ली के पांच पुलिस स्टेशन में प्रत्येक जांच अधिकारी के पास 64 से लेकर 140 मामले हैं. मुझे लगता है कि यही स्थिति भारत के सभी पुलिस स्टेशनों में होगी. हैरान करने वाली बात है कि एक पुलिस अधिकारी इतने सारे मामलों में सबूत कैसे जुटा सकता है. कई बड़े अपराध के मामले होते हैं. एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा वाली बात यह कि जांच अधिकारियों को कई अवरोधों का सामना करना पड़ता है. मसलन, फॉरेंसिक संसाधनों की कमी, मामले से सरोकार रखने वाले लोगों का दबाव, साथ-साथ चलने वाले कानून और व्यवस्था से जुड़े कर्तव्यों का निर्वहन और अन्य. इसमें क्या हैरानी कि सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों की जांच पर नकारात्मक टिप्पणी की है.
स्पष्टता के लिए मैं जांचों को तीन श्रेणियों में बांटना चाहूंगा : अच्छी, कमजोर और दुर्भावना से प्रेरित जांचें. दुर्भावना से प्रेरित जांचों का उद्देश्य किसी को फंसाना या किसी को मामले से निकालना होता है ताकि उसके खिलाफ चार्जशीट ना बने और यदि बन भी गई है तो उस व्यक्ति की रिहाई सुनिश्चित हो सके.
अच्छी जांचों की स्थिति क्या है? राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की क्राइम इंडिया-2018 रिपोर्ट बताती है कि दंगों के मामले में सजा की दर 18.8 प्रतिशत है और हत्या के मामले में यह दर 41.4 प्रतिशत है. बलात्कार के मामलों में यह दर 27 और अपहरण के मामले में 29 फीसदी है. मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आने वाले अपराधों में सजा की दर 25 फीसदी के आसपास है. वह बहुत कम है और निश्चित रूप से इसमें सुधार की जरूरत है. यह दर ऐसे मामलों में है जिनमें जांच ठीक से हुई हैं और इसलिए सजा भी हुई.
अदालतों ने कई बार कमजोर जांचों पर टिप्पणी की है. 2002 के गुजरात दंगों से संबंधित बिलकिस बानो मामले में, जो गैंगरेप और कई हत्याओं से संबंधित है, बॉम्बे हाई कोर्ट ने कई ऐसी कमजोरियों का उल्लेख किया था जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था. कुछ तो एकदम बुनियादी गलतियां थीं, जैसे एफआईआर दर्ज करते समय वादी द्वारा बताए गए आरोपियों के नामों को रिकॉर्ड ना करना और बलात्कार पीड़िता की मेडिकल जांच में देरी करना एवं अन्य भूलें. ऐसी गलतियां क्यों होती हैं? अन्य कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण गवाहों की जांच ना करना, जांच अधिकारी द्वारा जरूरी साक्ष्यों को संकलित ना करना और अन्य कमजोरियों पर टिप्पणी की है.
कमजोर और खराब जांचों के चलते बेगुनाहों को जेल जाना पड़ सकता है. बाबू भाई एवं अन्य बनाम गुजरात राज्य और अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 20 और 21 के तहत निष्पक्ष जांच एक संवैधानिक अधिकार है. अदालत ने कहा था, “कानून की न्यूनतम आवश्यकता है कि जांच निष्पक्ष, पारदर्शी और कानून सम्मत हो. जांच एजेंसी को पूर्वाग्रह और भ्रष्ट तरीके से जांच करने नहीं दिया जा सकता.” सुप्रीम कोर्ट ने इस साल भांग रिकवरी से जुड़े गंगाधर बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले में पाया था कि पुलिस की जांच अनौपचारिक, खानापूर्ति और कमजोर थी और सबूतों की गलत परख के चलते गंगाधर को ऐसे अपराध की सजा भुगतनी पड़ी जो उसने नहीं किया था.
ऐसा नहीं है कि एक नागरिक के पास दुर्भावना से प्रेरित जांचों से बचाव का रास्ता नहीं है. के. वी. राजेंद्र बनाम सीबीसीआईडी, साउथ जोन चेन्नई के पुलिस सुपरिटेंडेंट के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने नोट किया था कि उसके पास जांच को पुलिस से लेकर सीबीआई जैसी एजेंसी को हस्तांतरित करने का संवैधानिक अधिकार है लेकिन ऐसा केवल रेअर (दुर्लभ) मामलों में किया जाना चाहिए. इसे समझाने के लिए कोर्ट ने बताया था वे ऐसे मामले होंगे जिनमें जांच प्रथम दृष्टया पूर्वाग्रही या भ्रष्ट लगेगी और जहां न्याय और जांच में विश्वास बनाए रखने के लिए ऐसा करना जरूरी होगा या ऐसे मामले जिनमें आरोपी राज्य के शीर्ष अधिकारी हों या उस जांच एजेंसी के शीर्ष अधिकारी हों जो जांच को प्रभावित कर सकती है.
दुर्भावना से प्रेरित जांच के चलते भी मामले को दूसरी जांच एजेंसी को सौंपा जा सकता है. बाबू भाई मामले में गुजरात हाई कोर्ट ने लोकल पुलिस की जांच को एकतरफा, पूर्वाग्रही और दुर्भावना से प्रेरित कहने के कारणों को विस्तार से बताया था. उस विचार को सुप्रीम कोर्ट ने भी स्वीकार किया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कोर्ट का दखल ना देना न्याय को असफल कर देगा और इसीलिए वह राज्य अपराध जांच विभाग को मामला हस्तांतरित करने को सही मानती है.
बड़े खेद के साथ यह सोचना पड़ता है कि निष्पक्ष जांच करना जटिल काम है या फिर उसे जटिल काम बना दिया गया है.
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