370 हटाने पर पछताएंगे अमित शाह : पूर्व रॉ प्रमुख दुलत

फोटोः शाहिद तांत्रे
12 August, 2019

5अगस्त को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में घोषणा की कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान करने वाले भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को प्रभावहीन कर रही है. शाह ने सदन में इससे संबंधित दो बिल पेश किए-जम्मू कश्मीर आरक्षण (द्वितीय संशोधन) विधेयक, 2019 तथा जम्मू कश्मीर पुनर्गठन विधेयक. साथ ही शाह ने उसी तारीख को जारी राष्ट्रपति के आदेश का भी हवाला दिया जिसने भारतीय संविधान के सभी प्रावधानों को राज्य पर लागू कर दिया.

आजादी मिलने के बाद जम्मू और कश्मीर के भारत में विलय को अनुच्छेद 370 ने औपचारिक स्वरूप दिया था. इसके तहत, रक्षा और विदेश नीति के मामलों के अतिरिक्त, सभी मामलों में केंद्र सरकार को जम्मू और कश्मीर सरकार से सहमति लेनी जरूरी है.

फिर भी, जैसा कि राज्य दिसंबर 2018 से राष्ट्रपति शासन के अधीन है, केंद्र ने इस आवश्यकता को दरकिनार कर दिया- राष्ट्रपति के आदेश ने राज्यपाल को राज्य विधानमंडल के बदले में स्वीकृति देने की अनुमति दी. पुनर्गठन विधेयक के माध्यम से, सरकार ने राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों- लद्दाख तथा जम्मू और कश्मीर में विभाजित किया. केंद्र ने राज्य सरकार की अनुपस्थिति में कार्य किया और एक कार्यकारी आदेश के माध्यम से अपने निर्णयों की संवैधानिक वैधता पर भी सवाल खड़े कर दिए.

बीजेपी के इस निर्णय पर 6 अगस्त को कारवां के सहायक संपादक अर्शु जॉन ने भारतीय गुप्तचर संस्था रॉ के पूर्व प्रमुख ए. एस. दुलत से बात की. नीचे प्रस्तुत है उस बातचीत का संपादित अंश.

अर्शु जॉनः आप अनुच्छेद 370 को प्रभावी ढंग से हटाए जाने और जम्मू-कश्मीर को विभाजित कर दो केंद्र शासित प्रदेश बना देने को कैसे देखते हैं?

ए. एस. दुलतः यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और दर्दनाक बात है क्योंकि मुझे नहीं लगता कि ऐसा करना जरूरी था. मुझे किसी ने बताया कि गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में कहा है कि अनुच्छेद 370 को खत्म करने की प्रक्रिया पहले से ही चल रही थी और उनकी पार्टी ने बस इस प्रक्रिया को पूरा कर दिया है. उन्होंने सही कहा है. इसे खत्म तो किया ही जा रहा था. मैंने कई बार कहा है कि 370 कुछ नहीं है. यह सिर्फ एक छलावा है. इसलिए पूछा जाना चाहिए कि जो कुछ है ही नहीं उसे भला क्यों खत्म करना. आप कश्मीरियों को और अपमानित क्यों करना चाहते हैं. 370 रहने दीजिए. वह कुछ नहीं है.

मैं 1947 और भारत में कश्मीर के विलय के बारे में कुछ कहना चाहता हूं. शुरू से ही भारत सरकार की नीति कश्मीर को भारत की मुख्यधारा में धीरे-धीरे लाने की रही है. मुझे लगता है कि सरकार इस मकसद में बहुत हद तक कामयाब भी रही. जब हम 1947 और 1953 और यहां तक कि 1975 को याद करते हैं तो पाते हैं कि शेख अब्दुल्ला तक को समझ आ गया था कि दिल्ली से लड़ने की जगह अमन सही विकल्प है.

अधिक से अधिक कश्मीरियों ने स्वायत्ता की मांग की थी. बातचीत हमेशा स्वायत्ता पर केंद्रित होकर की गई और कश्मीरियों को पता होता था कि उन्हें स्वायत्ता नहीं मिलेगी. मेरे कहने का मतलब है कि कश्मीरी यथास्थिति को स्वीकार कर रहे थे. अब समझ आ रहा है कि खुद दिल्ली को यथास्थिति स्वीकार नहीं थी इसलिए सरकार ने इसे भंग कर दिया.

हो सकता है सरकार का यह कदम सही हो लेकिन यह वक्त ही बताएगा. लेकिन जैसा कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम कहते हैं, “जिन लोगों ने यह काम किया है (370 हटाने का) एक दिन वे लोग ऐसा करने के लिए पछताएंगे. मैं आशा करता हूं कि उनके पछतावे की नौबत न आए.” मैं भी एकदम ऐसा ही महसूस कर रहा हूं. एक ऐसे आदमी के बतौर जिसने कश्मीर को देखा है और सुरक्षा और आतंकवाद के मामले पर काम किया है, मुझे डर है कि हालात बदतर होंगे. आतंकवाद बढ़ेगा. मुझे नहीं लगता कि ऐसा तुरंत होगा लेकिन आगे ऐसा होगा. गुप्तचर संस्थाओं को संभावित घटनाओं पर नजर रखनी चाहिए.

एक और बात है जिसे मैं यहां रखना चाहता हूं और वह है कि हाल के सालों में कश्मीर की एक त्रासदी यह भी है कि वहां नेतृत्व की शून्यता है. वहां का नेतृत्व या तो खुदगर्ज है या खुद की क्षमता का आकलन नहीं कर पाता. मेरे हिसाब से कश्मीर में एकमात्र नेता डॉक्टर फारूक अब्दुल्लाह हैं. वह कश्मीर को समझते हैं, दिल्ली को समझते हैं, पाकिस्तान को समझते हैं और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को समझते हैं. दुर्भाग्य से पीडीपी के पूर्व अध्यक्ष और दो बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे मुफ्ती मोहम्मद सईद इन चीजों को कभी नहीं समझे. केंद्रीय गृहमंत्री रहे लेकिन दिल्ली को नहीं समझ पाए.

अर्शु जॉनः आप एक बात बार-बार कहते रहे हैं कि अनुच्छेद 370 खोखला था और वह सिर्फ एक दिखावा है, ऐसे में आपको क्या लगता है कि वर्तमान सरकार ने इसे क्यों खत्म किया होगा?

दुलतः मुझे लगता है कि यह बीजेपी के एजेंडे का हिस्सा है. तीन महीने पहले हुए चुनाव में जिस ताकत के साथ बीजेपी सत्ता में दुबारा आई है इस लिहाज से उसका यह कदम हैरान करने वाला नहीं है. इस मामले में कुछ कमजोरियां कांग्रेस या कहें विपक्ष की भी रही हैं क्योंकि वे लोग कमजोर हैं. अभी कहां है कांग्रेस? उसे क्या हुआ? 19 जनवरी को जब ममता बनर्जी ने परेड ग्राउंड में बड़ी रैली का आयोजन किया था तब मैं कोलकाता में था. जबरदस्त प्रदर्शन था, गजब की ताकत दिखाई दे रही थी. ये लोग एक साथ क्यों नहीं रह पाए? कांग्रेस प्रमुख विपक्षी दल है इसलिए इसकी जिम्मेदारी कांग्रेस को लेनी होगी.

अर्शु जॉनः क्या बता सकते हैं कि बीजेपी का एजेंडा और इस कदम का मकसद क्या है?

दुलतः उन लोगों ने कहा था कि 370 और 35ए हटा देंगे. हम लोग इसे यूं ही ले रहे थे लेकिन बीजेपी सच में गंभीर थी और उसने तीव्रता से ऐसा कर दिया.

जो बात मुझे जबरदस्त लगी वह यह कि कश्मीर में बड़ा संकट बन रहा था. जो लोग कश्मीर पर नजर रखते हैं वे लोग इसे देख पा रहे थे. आपको हैरानी होगी यह जानकर कि मुझे कश्मीर से न जाने कितने फोन आ रहे थे. मुझे लग रहा था फिर कुछ न कुछ तो होने वाला है. ऐसे में क्यों न पूछा जाए कि क्या यह वहां के नेताओं को नहीं दिख रहा था. वहां कोई ऐसा नहीं था जो लोगों को बता सके कि क्या करना है या उन्हें यह भरोसा दिला सके कि चिंता की कोई बात नहीं है. हम लोग सब साथ हैं और साथ रहेंगे. टेलीफोन बंद होने के एक दिन पहले कश्मीर के मुख्यधारा के नेताओं की तस्वीर बाहर आई और मुझे लगता है कि उनका साथ आना सिर्फ एक नाटक था और कुछ नहीं. आखिर नेताओं का काम क्या है? उन्हें इसकी भनक क्यों नहीं लगी?

अर्शु जॉनः आपको क्या लगता है कि आगे क्या होगा? वहां संचार बंद है और हमें नहीं पता कि क्या हो रहा है. आपके हिसाब से कश्मीरी क्या कर रहे होंगे?

दुलतः फिलहाल तो कुछ नहीं होगा. दबाव में कश्मीरी शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर गाड़ लेते हैं और कुछ नहीं करते. आमतौर पर कश्मीर का इतिहास ऐसा ही है. दबाब खत्म होने पर लोग दुबारा खड़े होते हैं लेकिन हार नहीं मानते.

अर्शु जॉनः ऐसे में, क्या आपको लगता है कि बड़ी संख्या में सेना की तैनाती ठीक थी?

दुलतः यह ताकत का दिखावा है. इन लोगों का दावा था कि पाकिस्तान से खतरा है. मुझे नहीं पता लेकिन हो सकता है कि गुप्तचर निकायों ने ऐसी जानकारी सरकार को दी हो.

अर्शु जॉनः क्या यह कश्मीर में डर का माहौल बनाने के लिए किया गया था?

दुलतः मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता.

अर्शु जॉनः राज्य के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती को हिरासत में लिया गया है. सरकार ने यह कदम क्यों उठाया?

दुलतः मैंने सुना है कि उन्हें घरों में नजरबंद रखा गया है. यदि आपका कहना सही है कि उन लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है और कहीं और ले जाया गया है तो ऐसा इसलिए किया गया होगा क्योंकि उमर और महबूबा ट्वीट कर रहे थे. महबूबा ने लिखा था यह कश्मीर के इतिहास और लोकतंत्र का सबसे काला दिन है और उमर कह रहे थे कि यह हमारे संघर्ष की शुरुआत है. हो सकता है इन बातों को रोकने के लिए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया है.

अर्शु जॉनः दूसरी ओर अरविंद केजरीवाल और अन्य नेताओं ने सरकार के इस कदम का यह कहते हुए समर्थन किया है कि इससे शांति, विकास और स्थिरता आएगी. क्या आप भी ऐसा ही मानते हैं?

दुलतः प्रार्थना करता हूं कि केजरीवाल सही हों. भगवान केजरीवाल का भला करे.

अर्शु जॉनः लेकिन आपके अपने विचार क्या हैं?

दुलतः वक्तव्य तो हममें से कोई भी दे सकता है लेकिन आप मुझे बताइए कि दिल्ली के कश्मीर का मालिक बन जाने के बाद विकास में तेजी कैसे आ जाएगी और जो दावे हैं वे कैसे पूरे होंगे. देखिए कश्मीर में राज्यपाल या राष्ट्रपति का शासन लागू है. यह दिल्ली का शासन है. आपने विकास की गति तेज होते देखी है क्या? मैंने तो नहीं सुना कि ऐसा कुछ हो रहा है. अगर ऐसा हो रहा है तो यह बहुत अच्छी बात है. देखिए इसका असर बहुत साफ है. जैसे ही हमने कश्मीर को केंद्र शासित राज्य में बदल दिया वैसे ही अनुच्छेद 370 और 35ए खत्म हो गए. अब हम वहां किसी नेता को बर्दाश्त नहीं कर सकेंगे और कश्मीर पर दिल्ली की हुकूमत होगी.

अर्शु जॉनः यदि कश्मीर में दिल्ली की हुकूमत के इतिहास को देखें तो यह कैसी रही है?

दुलतः 1990 और 1996 के बीच का कुछ वक्त बहुत बुरा था और कुछ बहुत अच्छा लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव, जो बहुत समझदार आदमी थे और कम बोलते थे, को समझ में आ गया था कि इस तरह काम नहीं चल सकता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को फिर से स्थापित करना जरूरी है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के विचार क्या थे? एकदम वही जो पीवी नरसिम्हा राव के थे. वे दो चीजें मानते थे, एक, पाकिस्तान के साथ स्थाई उठापटक बंद होनी चाहिए और दूसरी, कश्मीर में गतिरोध खत्म होना चाहिए.

अर्शु जॉनः 2014 से कश्मीर के संबंध में मोदी सरकार के काम को कैसे देखते हैं?

दुलतः बार-बार यह सरकार कहती है कि वाजपेयी के नक्शेकदम पर चल रही है. लेकिन यह सच नहीं है. सच तो यह है कि पार्टी में वाजपेयी को कोई मानता ही नहीं है. दुख की बात यह है कि बीजेपी में वाजपेयी की विरासत खत्म हो गई है. आपको पता ही है कि जब 2014 में मोदीजी की सरकार बनी थी तो मीरवाइज उमर फारूक ने स्वागत किया था. उन्होंने कहा था कि उन्हें मोदी के प्रधानमंत्री बनने से खुशी है और आशा है कि वे कश्मीर में वाजपेयी के शांति के एजेंडे को आगे ले जाएंगे. लेकिन मोदी की सोच अलग है.

अर्शु जॉनः आप कह रहे हैं कि वाजपेयी आगे बढ़ना चाहते थे और मोदी वाजपेयी से अलग सोच रखते हैं. क्या आपको लगता है कि मोदी के कार्यकाल में चीजें पीछे गईं हैं?

दुलतः यह वक्त बताएगा.

अर्शु जॉनः लेकिन पांच साल हो चुके हैं.

दुलतः मैं एक बात हमेशा मानता हूं कि संकट का दौर किसी भी प्रधानमंत्री के लिए बहुत बड़ी परीक्षा की घड़ी होता है. वाजपेयी के सामने तीन बार ऐसा वक्त आया था. 1999 में कारगिल युद्ध, 2001 में संसद पर हमला और 1999 में भारतीय वायुयान का अपहरण. इन तीनों संकट के वक्त बहुत धैर्य और प्रभावशाली तरीके से काम किया गया. प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के सामने मुंबई आतंकी हमले का संकट आया था. लोग कहने लगे थे कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध होने ही वाला है. लेकिन इस संकट को धैर्यता और परिपक्वता से हल किया गया. इस मामले में मोदी भाग्यशाली हैं. उनके सामने पुलवामा आतंकी हमले का एकमात्र संकट आया लेकिन वह भी ऐसे वक्त में जब उस संकट से उन्हें लाभ मिला.

अर्शु जॉनः वाजपेयी के साथ जब आप काम कर रहे थे तो कभी आपको ऐसा लगा था कि अनुच्छेद 370 खत्म होने पर विचार किया जा रहा है?

दुलतः नहीं. इन बातों पर कभी चर्चा नहीं की गई. हो सकता है पार्टी के स्तर पर या नागपुर में ऐसी बातें की जा रही हों लेकिन सरकार के स्तर पर ऐसा कभी नहीं सोचा गया. यह सिर्फ वाजपेयी की बात नहीं है बल्कि उनके पूर्व सचिव और पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्र, जिनके साथ मैंने नजदीक से काम किया था, भी यही सोचते थे. इस तरह की कोई बात होती तो नेता यदि नहीं भी कहते तो ब्रजेश मिश्र जरूर बताते.

अर्शु जॉनः आप ने आरंभ में कहा था कि कश्मीर में नेतृत्व की कमी है. इसका क्या मतलब है?

दुलतः पिछले लोकसभा चुनावों में, यह देखते हुए कि कश्मीर बेहद संवेदनशील राज्य है और भले वहां मात्र 6 संसदीय सीट हैं, यदि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी श्रीनगर का दौरा करते तो इसका बहुत बड़ा असर पड़ता. यदि कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के बीच ठीक तरह का गठबंधन बन जाता तो कांग्रेस जम्मू की दोनों सीटें जीत लेती.

अर्शु जॉनः इससे हासिल क्या होता?

दुलतः यह नेतृत्व का सवाल है यानी कैसे और किस तरह कश्मीर प्रभावित होता है. मैं एक चीज और जोड़ना चाहूंगा. जब कांग्रेस पार्टी विपक्ष में थी तो यासिन मलिक, मीरवाइज जैसे युवा और अलगाववादी नेता सोनिया गांधी से मिलते थे. वह उन्हें वक्त देती थीं. जब कांग्रेस पार्टी सत्ता में आ गई तो उसने ऐसा करना बंद कर दिया. इसी से मिलता-जुलता एक और सवाल है कि चुनाव के दौरान राहुल गांधी और प्रियंका गांधी श्रीनगर क्यों नहीं गए या उस वक्त क्यों नहीं गए जब उन्हें लग रहा था कि कश्मीर में चीजें गलत दिशा में जा रही हैं? चिदंबरम ने अपना कार्यकाल खत्म होते वक्त कहा था कि कश्मीर में बहुत अच्छा काम किया है, आतंकी ठिकानों को बेअसर करने जैसे तथा अन्य काम किए हैं. साथ ही उन्होंने स्वीकार किया था कि “इस मामले में भाग्य के देवता ने भी हमारा सहयोग दिया”. अमित शाह को चिदंबरम से बड़े दैव योग की जरूरत पड़ेगी.

अर्शु जॉनः क्या आपको लगता है कि एक सक्षम कश्मीरी नेतृत्व 370 को हटाए जाने से रोक सकता था? या बहुमत को देखते हुए इसे रोक पाना संभव नहीं होता?

दुलतः मुझे लगता है दोनों बातें हो सकती थीं.

अर्शु जॉनः क्या आपको लगता है कि पिछले सालों में सक्षम नेताओं ने ही इसे रोके रखा था?

दुलतः हां एकदम. यदि मुफ्ती साहब और डॉक्टर फारूक राजनीतिक रूप से एक रहते यानी एक पार्टी में न होते हुए भी कश्मीर में राजनीतिक रूप से साथ रहते और मानते कि अपने परिवार या पार्टी के लिए नहीं बल्कि कश्मीर के हित के लिए साथ रहना चाहिए तो आज कश्मीर में हालात अलग होते.

अर्शु जॉनः कश्मीर में राजनीतिक वार्ता पर आज के हालात का क्या असर पड़ेगा?

दुलतः अब बातचीत की गुंजाइश नहीं है. यहां तक कि बहुत अच्छे समय में भी बातचीत आसान नहीं थी. आज आप किससे बात करेंगे? और क्या बात करेंगे?

अर्शु जॉनः कश्मीर का भविष्य क्या होगा?

दुलतः अगर सर्वोच्च न्यायालय कुछ अलग फैसला नहीं सुनाता तो फिर वक्त तय करेगा कि आगे क्या होगा.


अर्शु जॉन कारवां के सहायक संपादक (वेब) है. पत्रकारिता में आने से पहले दिल्ली में वकालत कर रहे थे.