लॉकडाउन में बिहार के लोगों को नहीं मिल रहा निशुल्क राशन

मार्च में बिहार सरकार ने अप्रैल में राशन कार्ड धारकों को 5 किलो चावल और एक किलो दाल निशुल्क देने की घोषणा की थी. परवाज़ खान / हिंदुस्तान टाइम्स / गैटी इमेजिस
20 July, 2020

इस साल मार्च में केंद्र सरकार ने कोरोनावायरस लॉकडाउन के दौरान सार्वजनिक वितरण व्यवस्था या पीडीएस के जरिए निशुल्क राशन वितरण करने के संबंध में दिशानिर्देश जारी किए थे. इस घोषणा के बाद बिहार सरकार ने अप्रैल में एक करोड़ राशन कार्ड धारकों को पांच किलो चावल और एक किलो दाल निशुल्क देने की घोषणा की. लेकिन राज्य में अनाज का वितरण प्रभावकारी नहीं है और यहां खाद्य संकट ने स्वास्थ्य संकट को गहरा कर दिया है.

मैंने राज्य के जिन लोगों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और सरकारी अधिकारियों से बात की उन्होंने मुझे बताया कि लाभार्थियों तक खाद्यान्न या तो बिल्कुल नहीं पहुंच रहा है या बहुत देरी से पहुंच रहा है. दक्षिण बिहार के सारण जिले की जिला परिषद सदस्य मनोरमा कुमारी ने मुझसे कहा, “छह किलो निशुल्क राशन का वितरण जिस प्रकार से हो रहा है उसमें दिखावा ज्यादा और काम कम हो रहा है.”

स्थानीय प्रशासन के ब्लॉक विकास अधिकारी और अन्य सदस्यों का उल्लेख करते हुए मनोरमा ने मुझसे कहा, “सारण के गरखा खंड में बीडीओ, सर्किल अधिकारी और मुखिया सरकारी आदेशों को मनमाने तरीके से लागू कर रहे हैं. ये लोग बस यह देख रहे हैं कि निशुल्क राशन वितरण का काम कुछ हिस्सों में हो जाए और कुछ लाभार्थियों के साथ फोटो खिंचवा लें. इनका ध्यान लोगों का पेट भरने में कम और अपना प्रचार करवाने में ज्यादा है. मेरे इलाके में शायद ही किसी को निशुल्क दाल मिली हो. अधिकतर लोगों को केवल चावल बांटा गया है.”

दक्षिण बिहार में लोगों ने मुझे बताया कि मई के आखिर में ही उन्हें निशुल्क राशन मिला. छत्तीसगढ़ से गया जिले के पंचरत्न गांव लौटे प्रवासी मजदूर राहुल यादव ने मुझे बताया, “हम लोगों के परिवार में 12 सदस्य हैं. मेरा राशन कार्ड बहुत पुराना है इसलिए मैं निशुल्क राशन या रियायती राशन के लिए पात्र नहीं हूं लेकिन मेरे परिवार के छह सदस्यों को उनके राशन कार्ड पर राशन बहुत देरी से मिला. लॉकडाउन के दौरान हम जैसे बेरोजगार गरीबों को देर से राशन मिलने का कोई मतलब नहीं रह जाता. हमें अप्रैल का राशन मई के आखिर में मिला और वितरण में भी भेदभाव हुआ. मेरे परिवार को 50 किलो राशन मिला लेकिन 25 किलो का पैसा देना पड़ा. फ्री में तो हमें एक किलो दाल भी नहीं मिली.”

अप्रैल में बिहार सरकार ने कहा था कि जीविका कर्मचारी जरूरतमंद लाभार्थियों की पहचान कर उनका राशन कार्ड अपडेट करने या नया बनाने में मदद करेंगी. जीविका कर्मचारी ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी कामों को लागू करने वालीं महिलाओं के समूह हैं. 4 मई को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्य सचिव दीपक कुमार को ऐसे गरीब परिवारों के राशन कार्ड बनाने को कहा था जिनके पास कार्ड नहीं हैं लेकिन जमीन पर इसका कोई असर नहीं दिखता.

मैंने गया जिले के दोभी खंड के सामाजिक कार्यकर्ता एमके निराला से बात की. निराला को भी अपडेटिड राशन कार्ड और आपूर्ति नहीं मिली है. उन्होंने कहा, “मेरा अनुभव यह है कि केवल 40 फीसदी राशन कार्ड धारकों को ही निशुल्क राशन मिला है.” दोभी खंड के गुलजारपुर गांव में मुसहर समाज के 40 परिवार रहते हैं. वहां रहने वाले संतोष मुसहर ने मुझे बताय कि उन्हें अप्रैल से पीडीएस लाभ नहीं मिला है.

फुरफुरी नगर की कूसा बीजा ने भी इसी तरह की शिकायतें मुझसे कीं. उन्होंने मुझसे कहा, “मैंने राशन कार्ड बनाने के लिए जीविका स्वयंसेवियों से संपर्क किया था लेकिन उन्होंने मेरी नहीं सुनी. राशन की दुकान वाले भी मेरी मदद नहीं कर रहे. जबसे लॉकडाउन लगा है मेरे पति पोन मांझी और मेरे देवर बेरोजगार हो गए हैं. हमारे परिवार में आठ लोग हैं. अप्रैल से हम दूसरों की मदद से ही अपने परिवार को खिला पा रहे हैं. यह अच्छी बात नहीं है कि हमें जरूरत है और हमें सरकारी लाभों से वंचित रखा जाए.”

निराला ने आगे बताया कि निशुल्क दाल बहुत कम बांटी गई. उत्तर पश्चिम बिहार के रहने वालों ने बताया कि पिछले दो महीनों से दालों का वितरण नहीं हुआ है. गोपालगंज जिले के बिनीत कुमार ने मुझसे कहा, “मैं लॉकडाउन के दौरान गोपालगंज के अपने गांव में फंसा रह गया. मेरे गांव में किसी को मई तक निशुल्क दाल नहीं मिली थी. जून में मैंने सुना कि कुछ लोगों को दाल बांटी गई है. वह भी अप्रैल महीने की. निशुल्क राशन नीति में बहुत ज्यादा भेदभाव है और यह देख कर गुस्सा आता है.”

पटना के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बताया कि शहर में राशन कार्डों की कमी है और गरीब परिवारों को निशुल्क राशन नहीं मिल पा रहा है. झुग्गी झोपड़ी शहरी गरीब संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष किशोरी दास से मैंने बात की. दास ने, जो दो दशकों से अधिक से पटना में सामाजिक कार्य कर रहे हैं और झुग्गी झोपड़ियों में रहने वालों के उत्थान की दिशा में काम करते हैं, बताया, “मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि पटना शहर के कुल लक्षित लोग जिन्हें निः शुल्क राशन बांटा जाना था, उनमें से केवल 25 प्रतिशत लोगों के पास क्रियाशील राशन कार्ड हैं.” उन्होंने आगे कहा, “राज्य सरकार ने वादा किया था कि वह नए राशन कार्ड बनाने की प्रक्रिया में तेजी लाएगी लेकिन उसकी यह घोषणा बेकार साबित हुई. मैं नए कार्ड बनने की प्रक्रिया के बारे में तो सुनता हूं लेकिन एक भी ऐसे लाभार्थी को नहीं जानता हूं जिसका कार्ड निशुल्क राशन वितरण की घोषणा के बाद बना है.”

दास ने बताया कि उन्होंने लोहानीपुर की झुग्गियों में एक सर्वे कर पटना नगर निगम ऑफिस में 200 झुग्गी वालों के आधार कार्ड और गरीबी रेखा कार्ड जमा कराए थे. “मैंने अधिकारियों से अपील की कि वे इन जानकारियों के आधार पर निशुल्क राशन वितरण करने पर विचार करें. लेकिन अधिकारियों ने कोई जवाब नहीं दिया.” मैंने भी इस बारे में पटना के नगर निगम आयुक्त हिमांशु शर्मा से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने मेरे कॉलों का जवाब नहीं दिया.

लोहानीपुर की डोमनी देवी ने मुझे बताया कि जब से उनके पति जयराम मांझी की मौत हुई है तब से ही पति के राशन कार्ड की सुविधा उन्हें नहीं मिल रही है. लॉकडाउन शुरू होने के बाद भी पति के कार्ड पर उन्हें निशुल्क या रियायती राशन नहीं मिला. “मेरे परिवार में मेरे बच्चे और नाती-पोते मिलाकर 10 लोग हैं. लॉकडाउन के समय परिवार को जिस तरह की कठिनाइयों से गुजरना पड़ रहा था उस से तंग आकर अप्रैल में जब मेरी बस्ती में नगर निगम के स्वयंसेवी आए, तो मैंने तो राशन कार्ड के लिए अप्लाई किया था. अब जब भी मैं नगर निगम के अधिकारियों से उसके बारे में पूछती हूं तो वे बताते हैं कि काम हो रहा है.”

पटना शहर के बीचोबीच बसी इस बस्ती के लोगों ने बताया कि अप्रैल में हुई निशुल्क राशन वितरण की घोषणा के बाद 3400 लोगों ने राशन कार्ड के लिए आवेदन भरा था. लोगों ने बताया कि उन्हें नहीं पता कि नए राशन कार्डों का क्या हुआ. दास ने मुझे बताया कि झुग्गी के बस 400 निवासियों के पास ऐसे राशन कार्ड हैं जिनसे अनाज प्राप्त किया जा सकता है जबकि झुग्गी में 1200 परिवार रहते हैं.

लोहानीपुर की इंदु देवी ने मुझसे कहा, “मैं घरेलू कामगार हूं और मेरे पति शादी-विवाह के कार्यक्रमों में सिक्योरिटी गार्ड का काम करते हैं लेकिन लॉकडाउन में हम दोनों का काम छूट गया. मेरे पास पुराना राशन कार्ड है लेकिन उसे राशन की दुकान वाले स्वीकार नहीं करते. यह गलत बात है क्योंकि सरकार हमें समय से नए राशन कार्ड देने में फेल हुई है और हम जैसे लाभार्थियों को सरकारी राहत नहीं मिल रही है. मैंने इंदु की पड़ोसी चनिया देवी से भी बात की. चनिया ने मुझसे कहा, “अप्रैल के बाद से मुझे किसी तरह का निशुल्क राशन नहीं मिला है. हमारे परिवारों की जिंदगी के लिए लॉकडाउन कठिन परीक्षा बन गया है.”

14 जुलाई को मैं पटना के जिला मजिस्ट्रेट कुमार रवि से मिलने पहुंची, तो उन्होंने मुझसे मिलने से मना कर दिया. इससे पहले 22 जून को मैंने गया के जिला मजिस्ट्रेट अभिषेक सिंह से बात की थी. सिंह ने मुझसे कहा था, “हमने जिले के सभी राशन कार्ड धारकों को निशुल्क राशन उपलब्ध कराया है. केवल उन्हीं लोगों को राशन नहीं मिला है जिनके पास कार्ड नहीं है. जून और जुलाई के बीच हम लोग डेढ़ लाख लाभार्थियों के लिए राशन कार्ड बना रहे हैं और इसके बाद उन्हें भी निशुल्क राशन या रियायती दरों पर राशन मिलने लगेगा.” बिहार की खाद्य एवं उपभोक्ता संरक्षण मंत्री मदन सहनी ने मेरे फोन कॉलों का जवाब नहीं दिया.

जुलाई में अलायंस फॉर दलित राइट्स ने राज्य के 14 जिलों के 1400 दलित और आदिवासी परिवारों का सर्वेक्षण किया था ताकि पता लगाया जा सके कि लॉकडाउन का इन परिवारों की आर्थिक क्षमता पर क्या असर पड़ा है. उनकी रिपोर्ट से पता चलता है कि ग्रामीण बिहार में इन समुदायों को खाद्यान्न की कमी हो रही है. रिपोर्ट में लिखा है, “इन लोगों की बड़ी संख्या को उन कल्याणकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिला है जिनसे जारी संकट से पार पाने में इन्हें मदद मिल सकती थी.” उस रिपोर्ट में आगे लिखा है कि सर्वे किए गए परिवारों में से केवल दो फीसदी ऐसे परिवार थे जो लॉकडाउन की घोषणा के दिन खाद्य दृष्टि से सुरक्षित थे और जिनके पास एक साल का अनाज उपलब्ध था. 49.4 फीसदी के पास केवल कुछ दिनों का अनाज और 14.5 फीसदी लोगों के पास बिल्कुल अनाज नहीं था.

अप्रैल से इन 1400 में से 17 फीसदी परिवारों को रियायती दरों में राशन नहीं मिल रहा था और 36 प्रतिशन को मई में राशन नहीं मिला. फैक्ट फाइंडिंग टीम के संयोजक एंटो जोसेफ ने इस रिपोर्ट को उद्धृत करते हुए बताया, “अप्रैल में 22 प्रतिशत परिवारों को निशुल्क राशन राहत प्राप्त नहीं हुई और मई में 40 फीसदी को.” रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि ग्रामीण बिहार के दलितों की एक बड़ी आबादी आर्थिक तनाव, कठिनाई, भूख और भुखमरी का सामना कर रही है.