3 सप्ताह से भी अधिक समय गुजर चुका है और कश्मीर में संचार पर अभी भी रोक जारी है. इंटरनेट बंद है और मोबाइल फोन नेटवर्क निलंबित है. इसके साथ, कश्मीरी और केबल टीवी सेवा बाधित है. 5 अगस्त को नरेन्द्र मोदी सरकार ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत कश्मीर को मिले विशेष दर्जे को हटा लिया था. इसके बाद से ही घाटी में सुरक्षा बलों की भारी तैनाती है. 22 अगस्त को संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार के 5 विशेषज्ञों के एक समूह ने वक्तव्य जारी कर भारत सरकार को अभिव्यक्ति की आजादी, सूचना और कश्मीर में शांतिपूर्ण प्रदर्शन के दमन को बंद करने की अपील की थी.
डेविड के संयुक्त राष्ट्र संघ के विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा और प्रोत्साहन के विशेष प्रतिवेदक हैं. उपरोक्त वक्तव्य में उनके भी हस्ताक्षर हैं. कारवां की रिपोर्टिंग फेलो निलीना एम एस ने कश्मीर के हालातों पर उनसे बात की. काये का मानना है कि भारत सरकार का यह कदम “कश्मीर और संपूर्ण भारत की जनता के लिए नुकसानदायक है.”
निलीना एम एस : कश्मीर मामले पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण की प्रतिक्रिया में आपने ट्वीट किया था कि पिछले साल जुलाई में आपने कश्मीर में अभिव्यक्ति की आजादी की स्थिति की समीक्षा के लिए भ्रमण करने की औपचारिक अनुमति भारत सरकार से मांगी थी. क्या आप ऐसी समीक्षा में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के बारे में हमें विस्तार से बताएंगे?
डेविड काये : संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेष प्रतिवेदक का एक नियमित काम सदस्य देशों का भ्रमण करना है. जिसकी रिपोर्ट हम राष्ट्र संघ मानव अधिकार परिषद को देते हैं. ऐसी यात्राओं के लिए हमें सरकार से दरख्वास्त करनी होती है. सरकार को इसकी स्वीकृति देनी होती है और यात्रा की तारीख तय की जाती है. मैं ऐसी दरख्वास्त हमेशा करता रहता हूं. मैं हर साल ऐसी कई यात्राएं करता हूं.
भारत सरकार से मेरी दरख्वास्त अन्य देशों से की जाने वाली ऐसी मांगों से अलग नहीं है. मैं इन यात्राओं में बहुत सारे काम करता हूं. कानूनी दायरे में ऑनलाइन अथवा ऑफलाइन रूप में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रोत्साहित करने की समीक्षा करता हूं. मैं इनके लिए जो नियम हैं उनके कार्यान्वयन की जांच करता हूं. इस प्रक्रिया में मैं सरकार और सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों और पत्रकारों और प्रसारणकर्ताओं से मुक्त और साथ ही स्वतंत्र इंटरनेट के प्रोत्साहन के लिए जिम्मेदार एजेंसियों और विभागों से गंभीर अंतरक्रिया करता हूं. इस प्रक्रिया के तहत मैं कानून को लागू करने वाली संस्थाओं से बातचीत करता हूं. उदाहरण के लिए इंटरनेट के इस्तेमाल और ऐसी रिपोर्टिंग जिनसे हिंसा का खतरा हो, पर बातचीत करता हूं.
मैं नागरिक समुदाय और ऐसे गैर सरकारी संगठन, सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षाविद और पत्रकारों से भी बातचीत करता हूं जो मुझे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बारे में बता सके. हम जैसा अन्य देशों में करते हैं उससे यह अलग नहीं है.
निलीना एम एस : आपके अनुरोध पर सरकार की क्या प्रतिक्रिया थी?
डीके : आधिकारिक तौर पर सरकार का कोई जवाब मुझे नहीं मिला. हालांकि जून में मैंने जेनेवा में भारतीय मिशन से अच्छी बैठक की थी लेकिन मुझे औपचारिक जवाब प्राप्त नहीं हुआ.
निलीना एम एस: यदि आपको अनुमति मिल जाती है तो क्या आप कश्मीर में हाल में हुए परिवर्तन के मद्देनजर भ्रमण करने की योजना बना सकते हैं?
डीके: मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूं कि भारत का मेरा भ्रमण इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि सरकार मुझे किस क्षेत्र में भ्रमण करने की इजाजत देती है. आमतौर पर कश्मीर में आज हालात गंभीर है और मैं वहां जाना चाहूंगा. सरकार के साथ कश्मीर में अभिव्यक्ति की आजादी पर चर्चा करना चाहूंगा. लेकिन मेरी दरख्वास्त कश्मीर के लिए मात्र सीमित नहीं है. यह एक अवसर होगा कि मैं भारत में अभिव्यक्ति की आजादी के सभी पक्षों पर सरकार और नागरिक समुदाय से चर्चा कर सकूं.
निलीना एम एस : ऐसी दरख्वास्तों पर दूसरे देशों की प्रतिक्रिया क्या होती है?
डेविड के : कुछ देश जिनका मैंने भ्रमण किया, जैसे जापान और मेक्सिको, वहां लोकतांत्रिक स्पेस मजबूत है. तुर्की और तजाकिस्तान में पत्रकारिता और अभिव्यक्ति की आजादी का दमन हो रहा है. मैं इन देशों में मानव अधिकार की स्थिति को समझने का प्रयास करता हूं. जब मैं किसी लोकतांत्रिक देश से ऐसी दरख्वास्त करता हूं तो बहुत कम बार ऐसा होता है कि इसे नामंजूर कर दिया जाए. आमतौर पर ऐसे देश जो मजबूती से मानव अधिकार लागू करते हैं और इस बारे में उन्हें आत्मविश्वास है, इन भ्रमणों को मंजूर करते हैं. न केवल मेरी बल्कि अन्य राष्ट्र संघ के प्रतिवेदकों के भ्रमणों को भी मंजूर करते हैं.
निलीना एम एस : ऐसा क्यों है कि अभिव्यक्ति की आजादी के लिए राष्ट्र संघ के प्रतिवेदकों ने भारत का भ्रमण कभी नहीं किया?
डेविड के : इन तथ्यों के बावजूद कि अभिव्यक्ति की आजादी के लिए राष्ट्र संघ के पहले प्रतिवेदक भारतीय थे, भ्रमण के न होने से निराश हूं. मुझे लगता है कि आपको यह सवाल सरकार से पूछना चाहिए क्योंकि मुझे नहीं पता कि ऐसा क्यों हुआ.
मैंने पिछले साल इसका अनुरोध किया था. और मेरे अनुरोध करने का कारण यह था कि भारत स्वघोषित दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. यहां बहुत मजबूत संवैधानिक कानून है जो अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा करता है. जो ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों प्रकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए है. इसलिए भारत भ्रमण और समीक्षा के लिए उपयुक्त देश है.
निलीना एम एस : कश्मीर में हाल की घटनाओं को कैसे देखते हैं? खासतौर पर जब सरकार ने असहमति और संचार को रद्द कर दिया है?
डेविड के : मैं इस घटनाक्रम को बहुत अधिक असहज करने वाला और गंभीर चिंता का विषय मानता हूं. सरकार ने पिछले कई सालों में बार-बार कश्मीर में इंटरनेट पर रोक लगाई है, खासतौर पर आंदोलनों के समय.
इस बात से किसी को इनकार नहीं है कि कश्मीर में सार्वजनिक व्यवस्था और जीवन और अन्य मानव अधिकारों व मूल्यों को संरक्षित करने की जिम्मेदारी सरकार की है. लेकिन इंटरनेट पर रोक लगाना और हाल की परिस्थिति बेहद क्रूर है. सभी तरह के संचार को रोक देना कश्मीरी जनता की अभिव्यक्ति की आजादी में असामान्य हस्तक्षेप है. इसके अतिरिक्त ऐसा करना, कश्मीर में सरकार क्या कर रही है और वहां क्या हो रहा है जैसी बातों के जानने के भारतीय जनता के अधिकारों में भी हस्तक्षेप है. एक लोकतांत्रिक देश में ऐसा किया जाना असामान्य और अभूतपूर्व है.
निलीना एम एस : मानव अधिकार अधिकारों के लिए राष्ट्र संघ कार्यालय के उच्चायुक्त ने कश्मीर के हालात पर दो रिपोर्ट जारी की है जिसमें बताया गया है कि भारत सरकार ने मानवाधिकारों के उल्लंघन के अलावा दूरसंचार, इंटरनेट सेवा और मीडिया की आजादी पर प्रतिबंध लगाया है. भारत ने इन दोनों ही रिपोर्टों को खारिज कर दिया है. विशेष प्रतिवेदक होने के नाते इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
डेविड के : मैं इन रिपोर्टों की ड्राफ्टिंग में शामिल नहीं था. मुझे लगता है इन रिर्पोंटों में मुझ जैसे लोगों की चिंताओं को ठीक से दर्शाया गया है जो अभिव्यक्ति और हर तरह के जन प्रदर्शनों के दमन को गलत मानते हैं. यह मानव अधिकार कानून के अंतर्गत गलत ही नहीं बल्कि यह काउंटरप्रोडक्टिव है. इस तरह के दमनकारी उपायों से सरकार के प्रति कश्मीरियों में अलगाव पैदा होता है. इससे उनके अंदर शक्तिहीन होने और अपने भाग्य पर नियंत्रण न होने का एहसास जन्म लेता है. कश्मीर में शांति और मेलमिलाप के संबंध में इस तरह का कदम काउंटरप्रोडक्टिव होता है.
निलीना एम एस : आपने अभी बताया कि कश्मीर में वर्तमान परिस्थितियां अभूतपूर्व है. ऐसी स्थिति में राष्ट्र संघ के विशेष प्रतिवेदक का क्या कर्तव्य है?
डेविड के : मैं राष्ट्र संघ द्वारा नियुक्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विशेषज्ञ हूं. मैं केवल अपनी चिंता जाहिर कर सकता हूं और सरकार को अपनी नीति में परिवर्तन करने की अपील कर सकता हूं. इसका एक और मतलब है कि राष्ट्र संघ के अन्य सदस्य देश और संपूर्ण राष्ट्र संघ से कश्मीरियों के विरोध करने के अधिकार और उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए दृढ़ता दिखाने की अपील कर सकता हूं. दुर्भाग्य की बात है कि राष्ट्र संघ इस मामले पर कुछ नहीं कर रहा है. मुझे इससे निराशा होती है. मैं राष्ट्र संघ से अपील करना जारी रखूंगा. राष्ट्र संघ पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं. कम से कम उसकी राजनीतिक संस्थाओं, जैसे आम सभा, मानव अधिकार परिषद या सुरक्षा परिषद पर मेरा नियंत्रण नहीं है.
निलीना एम एस : लेकिन आप उनसे किस प्रकार की प्रतिक्रिया की उम्मीद करते हैं?
डेविड के : मैं उम्मीद करता हूं कि सुरक्षा परिषद और आम सभा जैसी राजनीतिक संस्थाएं इस बात को मानेगी कि संचार पर हमला, न केवल मानव अधिकार का उल्लंघन है बल्कि यह शांति और सुरक्षा के लिए संभावित खतरा है. निश्चित तौर पर मैं यह चाहता हूं कि ये संस्थाएं विशेषज्ञों द्वारा अभिव्यक्त की गई चिंताओं को मानते हुए कश्मीर में संचार पर लगाए गए प्रतिबंध की निंदा करेंगी.
निलीना एम एस : 16 अगस्त को सुरक्षा परिषद ने कश्मीर के हालात पर बंद बैठक की थी. आपको क्या लगता है कि राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद की क्या प्रतिक्रिया रही होगी?
डेविड के : मुझे लगता है कि सुरक्षा परिषद के लिए जरूरी है कि वह बंद दरवाजों के अंदर बैठक करने से आगे बढ़े. यदि वह स्वयं को अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने के लिए जरूरी अंतर्राष्ट्रीय बॉडी मानती है तो उसे मीडिया पर हमले, कश्मीर की जनता पर हमले और कश्मीर में अभिव्यक्ति की आजादी पर हमले पर बोलना चाहिए. उपरोक्त बातें क्षेत्र में दीर्घकालीन शांति और सुरक्षा के लिए मददगार नहीं हैं. मुझे उम्मीद है कि राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद कड़ा रुख अख्तियार करेगा. मुझे बहुत कम उम्मीद है कि ऐसा होगा लेकिन उसे ऐसा करना चाहिए.
निलीना एम एसः हांगकांग में जारी प्रदर्शनों के संदर्भ में आपने कहा है कि गलत सूचना या झूठी खबर प्रसारित करना सेंसरशिप का एक रूप है. कश्मीर के मामले में भी भारत सरकार ऐसा दर्शा रही है कि उसके कदम का वहां की जनता ने स्वागत किया है और घाटी में शांति है. जबकि जमीनी रिपोर्टों में सरकार के दावे से विपरीत बाते प्रकाश में आ रही हैं.
डेविड के : सरकारों के लिए खासतौर पर जरूरी है कि वे गलत सूचना को बढ़ावा न दें. संचार और इंटरनेट पर रोक लगाने का एक मकसद यह है कि जो कुछ कश्मीर में हो रहा है उसके नैरेटिव पर भारत सरकार अपना नियंत्रण रखना चाहती है. यह कश्मीर और भारत की संपूर्ण जनता के खिलाफ बात है. यह सच है कि कश्मीर से सूचना बाहर आ रही हैं लेकिन वे ऐसी नहीं हैं कि कश्मीरियों को सच्चाई का पता चल सके. मीडिया के अभाव में सरकार को मौका मिलता है वह दिखा सके कि क्या हो रहा है. एक लोकतांत्रिक समाज में हम सूचनाओं को इस तरह प्राप्त करने की उम्मीद नहीं कर सकते.
निलीना एम एसः अंतर्राष्ट्रीय कानून, अंतरराष्ट्रीय नागरिक और राजनीतिक अधिकार कन्वेंशन कश्मीर की स्थिति पर कैसे लागू होते हैं? संयुक्त राष्ट्र संघ और अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां इस संबंध में क्या कर सकती हैं?
डेविड के : यह बहुत महत्वपूर्ण सवाल है. मानव अधिकार कानून अन्य देशों की तरह ही भारत के लिए भी बाध्यकारी हैं. इसके तहत सरकार का कर्तव्य है कि वह सभी लोगों द्वारा निष्पक्ष सूचना को प्राप्त करने के अधिकार को संरक्षित करे. राज्यों द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा करने के लिए यह जरूरी है.
मानव अधिकारों के सार्वभौम घोषणा पत्र के अनुमोदन के बाद और भारत द्वारा नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय कोवेनेंट (अनुबंध) को अनुमोदित करने के बाद अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने आम सभा और मानव अधिकार परिषद के जरिए बार-बार इंटरनेट और संचार पर लगाई जाने वाली पाबंदियों की निंदा की है. ऐसा करना अभिव्यक्ति की आजादी के खिलाफ है. अंतर्राष्ट्रीय कानून इन मामलों में स्पष्ट हैं. यह बिल्कुल साफ है कि इस तरह की पूर्ण पाबंदी अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार कानून से मेल नहीं खाते.
निलीना एम एसः लेकिन इन क्षेत्रों में भारत का प्रदर्शन प्रोत्साहक नहीं है. 2017-18 में दक्षिण एशिया में भारत ने सबसे अधिक बार इंटरनेट पर पाबंदी लगाई. ऐसा पत्रकारों के अंतर्राष्ट्रीय परिषद और यूनेस्को की रिपोर्ट में बताया गया है. विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत 180 देशों में 140वें स्थान पर है.
डेविड के : इस प्रकार के सूचकांक गैर सरकारी संगठन और नागरिक समाज के लिए मानव अधिकार कानून के पालन की समीक्षा के लिए जरूरी अस्त्र हैं. लेकिन यदि हम संचार और इंटरनेट पर लगी रोक को देखते हैं तो यह लोकतांत्रिक अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता पर सवाल खड़ा करता है, खासकर कश्मीर में. लेकिन मैं इस बात पर जोर देना चाहता हूं कि यह केवल कश्मीर का सवाल नहीं है. यह भारत और सारी दुनिया के लिए है. यह कश्मीर के लोगों के साथ संपर्क करने और उनसे सूचना हासिल करने के अधिकारों के खिलाफ है.
निलीना एम एसः आप अगस्त 2014 में विशेष प्रतिवेदक नियुक्त हुए थे. पिछले 5 सालों में भारत में अभिव्यक्ति और बोलने की आजादी की स्थिति को आप कैसे देखते हैं?
डेविड के : मैं इसकी पूरी जानकारी तो नहीं दे पाऊंगा क्योंकि मैंने देश का दौरा नहीं किया है. मैं इस विषय पर और ज्यादा प्रभावकारी तरीके से उस स्थिति में बात कर सकता हूं जबकि मैं देश के भ्रमण पर जा पाता और सरकार, नागरिक समुदाय से बात कर पाता. उस स्थिति में मैं विषय का संपूर्ण मूल्यांकन कर पाता. इस वक्त में ऐसा करने में असमर्थ हूं.
लेकिन मैं यह कहना चाहूंगा कि इंटरनेट पर लगाई जाने वाली रोकों की बढ़ती संख्या गंभीर चिंता की बात है और इससे भारत में अभिव्यक्ति की आजादी के बारे में मेरी एक किस्म की राय बन रही है. 2015 में भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय राज्य बनाम श्रेया सिंघल मामले में ऑनलाइन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कड़ाई के साथ संरक्षित किया था. तो भारत में चीजें पूरी तरह से समस्याग्रस्त नहीं हैं. भारतीय न्याय व्यवस्था में अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा करने के प्रयास हो रहे हैं.
निलीना एम एसः इस साल सितंबर में होने वाली संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा से आपको कैसी उम्मीद है. इस सभा को भारतीय प्रधानमंत्री और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री दोनों द्वारा संबोधन करने की उम्मीद है.
डेविड के : मैं इस बारे में कोई अनुमान नहीं लगा सकता. लेकिन मुझे उम्मीद है कि कश्मीर सहित, संचार पर लगी रोक आम सभा के एजेंडे में होगा.