नए कीटनाशक प्रबंधन विधेयक से पर्यावरण और जनता को नुकसान, कारोबारियों को फायदा

महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में 6 अगस्त 2021 की रात 42 साल के एक किसान की कीटनाशक जहर से मौत हो गई थी. टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, विनोद मसराम चव्हाण अपनी कपास की फसल को घातक गुलाबी बॉलवर्म से बचाने के लिए कीटनाशक नुवाक्रॉन का छिड़काव करते समय उसके संपर्क में आ गए थे. कीटनाशक में मोनोक्रोटोफोस होता है जो एक जहरीला कंपाउंड है. यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहद खतरनाक कीटनाशक के रूप में वर्गीकृत है. महाराष्ट्र में इसका उपयोग प्रतिबंधित कर दिया गया था. चव्हाण की मौत इस क्षेत्र में कीटनाशक के जहर से पिछले चार साल में हुई पहली मौत है. इसने साल 2017 के प्रेत को फिर से जिला दिया है. उस साल राज्य में कीटनाशकों के जहर से 60 से अधिक किसानों की मौत हुई थी और सैकड़ों अन्य किसान इस जहर की चपेट में आए थे.

भारत के खेतों में कीटनाशक के जहर से होने वाली मौतें एक ऐसी आपदा है जो लंबे समय से जारी है. कीटनाशक सालों से खेतीहर आबादी के लिए जोखिम बने हुए हैं. इस तबाही के सबसे खराब परिणाम 1980 से 2000 के बीच सामने आए जब केरल और कर्नाटक में एंडोसल्फान के प्रभाव से हजारों लोगों में अजीबोगरीब गंभीर बीमारियां पैदा हुईं. एंडोसल्फान को काजू के बागानों पर बेतहाशा इस्तेमाल किया गया. फिर 2002 में खबरें आईं कि आंध्र प्रदेश में कीटनाशकों के जहर से कम से कम 500 किसानों की मौत हुई है. दिसंबर 2020 में बीएमसी पब्लिक हेल्थ जर्नल में प्रकाशित कीटनाशक पर एक शोध में अनमान लगाया गया है कि हर साल भारत में 62 प्रतिशत किसान अनजाने में ही व्यावसायिक जहर का शिकार होते हैं. यह दर वैश्विक औसत 44 प्रतिशत से बहुत अधिक है.

कीटनाशक पीकर खुदकुशी करने वाले किसान हताहतों की संख्या भी बहुत अधिक है. बीएमसी पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित भारत में जहर खाकर खुदकुशी के बारे में एक अध्ययन से पता चला है कि 1995 से 2015 के बीच लगभग 450000 मामलों में कीटनाशक का इस्तेमाल हुआ था. सितंबर 2017 के बाद से पश्चिमी ओडिशा में खरपतवार नाशक पाराक्वेट खाने से कई लोगों की मौत हुई.

​ऐसी आपदाओं को रोका जा सके इसके लिए कीटनाशकों के बेहतर नियमन की जरूरत लंबे समय से बनी हुई है. हालांकि, त्रासदी दर त्रासदी के बावजूद कई केंद्रीय सरकारें और राज्य सरकारें इस बाबत पर्याप्त कानून बनाने में विफल रही हैं. सदियों पुराने कीटनाशक कानूनों को बदलने के हालिया प्रयास पर भी खतरे के बादल मंडरा रहे हैं.

भारत सरकार ने 2008 में पुराने कीटनाशक कानून को अपडेट करने की कोशिश की. लेकिन नागरिक-समाज संगठनों, उद्योग और स्वतंत्र विशेषज्ञों के दबाव के बावजूद सरकार ने इन लंबित सुधारों को पारित करने से अपने पैर खींच लिए. फिलहाल कानून कीटनाशक अधिनियम, 1968 प्रभावी है. यह अधिनियम और इसके तहत 1971 में तैयार किए गए नियम कीटनाशकों के निर्माण और उपयोग के लिए कानूनी ढांचा देते हैं. लेकिन इनमें मृत्यु को रोकने और खेत में काम करने वालों की बीच जोखिम को कम करने या पर्यावरण प्रदूषण और खाद्य प्रदूषण को रोकने के लिए पर्याप्त प्रावधान नहीं हैं.

एडी दिलीप कुमार पेस्टीसाइड एक्शन नेटवर्क इंडिया के सहायक निर्देशक हैं.

नरसिम्हा रेड्डी दोंती लोक नीति विशेषज्ञ और पेस्टीसाइड एक्शन नेटवर्क इंडिया के संचालन समिति सदस्य हैं.

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