सरकार की सभी रोजगार योजनाएं फेल, गहराया बेरोजगारी संकट

मोदी सरकार के दावों के बावजूद देश में बेरोजगारी का संकट गहराता जा रहा है. दानिश सिद्दकी/रॉयटर्स

2014 में हुए आम चुनावों के प्रचार के वक्त नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी ने रोजगार को मुद्दा बनाया था. हर साल 2 करोड़ से अधिक रोजगार के अवसरों के निर्माण के वादे के तहत प्रधानमंत्री ने पिछले चार वर्षों में कई योजनाओं और कार्यक्रमों की शुरुआत की. पिछले साल अगस्त में मोदी ने दावा किया कि बीते वित्त वर्ष में औपचारिक क्षेत्र में 70 लाख रोजगार के अवसरों का निर्माण हुआ.

लेकिन इस माह जारी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की रिपोर्ट के अनुसार, 2013-14 से बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है और 2018 में इस बढ़ोतरी में तेजी आई है. इस रिपोर्ट के अनुसार 2018 में एक करोड़ 90 लाख लोगों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा. दिसंबर में बेरोजगारी दर बढ़ कर 7.4 प्रतिशत हो गई जो पिछले 15 महीनों में सबसे अधिक है. मोदी सरकार ने नीतिगत रूप से स्व-रोजगार, कौशल विकास, रोजगार निर्माण को प्रोत्साहित करना और निर्यातोन्मुख उत्पादन को बढ़ावा दिया. सरकार ने इन नीतियों को मेक इन इंडिया, प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना, प्रधानमंत्री रोजगार निर्माण योजना, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना और प्रधानमंत्री रोजगार प्रोत्साहन योजना के जरिए लागू किया.

अगस्त में मोदी ने दावा किया कि नए भारत की नई आर्थिक व्यवस्था में रोजगार की गणना पारंपरिक तरीकों से नहीं की जा सकती. तो भी उनकी योजनाएं रोजगार निर्माण के अपने लक्ष्यों से बहुत पीछे चल रही हैं. एक ओर मोदी उपरोक्त दावे कर रहे हैं और दूसरी ओर देश की दस बड़ी ट्रेड यूनियनों ने सरकार पर “कॉरपोरेट समर्थक” और “जनविरोधी” होने का आरोप लगाते हुए 8 और 9 जनवरी को देश व्यापी आम हड़ताल का आयोजन किया है.

मोदी ने 2016 में प्रधानमंत्री रोजगार प्रोत्साहन योजना की शुरुआत की. इस योजना के तहत 15000 रुपए से कम वेतन पर रखे जाने वाले नए कर्मचारियों का 12 प्रतिशत भविष्य निधि अनुदान (ईपीएफ) केन्द्र सरकार वहन करेगी. ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कॉग्रेस के सचिव तपन सेन ने बताया कि देश भर में कम से कम 40 प्रतिशत योग्य कर्मचारी इस योजना के दायरे से बाहर हैं.

महाराष्ट्र के सोलापुर जिले की एक पावर लूम (कपड़ा फैक्ट्री) पर हुए अध्ययन के अनुसार प्रोत्साहन योजना को ठीक तरह से लागू नहीं किया जा रहा है. सितंबर 2015 को म्याकल समूह की 15 पावर लूम इकाइयों के श्रमिकों ने कर्मचारी भविष्य निधि संगठन से ईपीएफ योजना को लागू न किए जाने की शिकायत की. कर्मचारी भविष्य निधि संगठन भारत सरकार के श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के अंतर्गत कार्यरत वैधानिक निकाय है. म्याकल समूह की 15 इकाइयां को इस परिवार के पांच सदस्य साझेदारी पर चलाते हैं लेकिन सभी इकाइयों को स्वतंत्र उद्यम के रूप में पंजीकृत किया गया है. ऐसा कर्मचारी भविष्य निधि एवं विविध प्रावधान अधिनियम 1952 के प्रावधानों को दरकिनार करने के लिए किया गया है. 1952 के नियमानुसार 20 से अधिक कर्मचारियों वाली सभी इकाइयों को भविष्य निधि खाता रखना अनिवार्य है. म्याकल समूह का दावा है कि उसकी किसी भी इकाई में 7 से अधिक कर्मचारी नहीं हैं और इस कारण वह खाता रखने के लिए बाध्य नहीं है.

मई 2017 में म्याकल समूह सहित सोलापुर की 13850 कपड़ा फैक्ट्रियों के 14400 कर्मचारियों ने इस मामले को लेकर ईपीएफओ में शिकायत की. दो महीने बाद ईपीएफओ के क्षेत्रीय आयुक्त हेमंत एम. तिरपुडे ने म्याकल समूह को निर्देश दिया कि वह ईपीएफ कानून को साल 2002 से लागू करे और अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे म्याकल समूह जैसी काननू का उल्लंघन करने वाली फैक्ट्रियों का पता लगाएं. जवाब में पॉवर लूम ओनर एसोसिएशन (पावर लूम मालिकों का संगठन) ने अक्टूबर में हड़ताल कर दी और केन्द्र सरकार औद्योगिक अधिकरण एवं श्रम अदालत की मुंबई बेंच ने आयुक्त के आदेश पर रोक लगा दिया. बीजेपी सरकार के दावों के बावजूद राज्य के श्रम मंत्रालय ने इस मामले को हल करने की कोई पहल नहीं की.

सोलापुर के मामले से पता चलता है कि ईपीएफओ के तथ्यांक के आधार पर रोजगार निर्माण का मोदी सरकार का दावा भ्रामक है और नए पंजीकरण का मतलब नए रोजगार का निर्माण होना नहीं है. उदाहरण के लिए मोदी सरकार रोजगार निर्माण करने वालों को लाभ नहीं पहुंचा रही बल्कि उन लोगों को फायदा दे रही है जो इस कानून का उल्लंघन कर रहे थे. तपन सेन ने कहा, “योजना की घोषणा के बाद पुराने कर्मचारियों को नई नियुक्ति बता कर पंजीकरण कराया जा रहा है. इस योजना से मालिकों को फायदा हो रहा है.”

अप्रैल 2015 को सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) मंत्रालय ने प्रधानमंत्री मुद्रा योजना की घोषणा की. इसके तहत लक्षित 10 लाख उद्यमों को कर्ज दिया जाना है. लेकिन सार्वजनिक क्षेत्रों के आंकड़ों के अनुसार इस योजना के तहत दिया गया अधिकांश कर्ज डूब गया है. इस योजना के तहत हाल तक 3 करोड से अधिक कर्ज दिया गया है. इसका आधा कर्ज तो केवल 2018 में दिया गया. लोकसभा में एक प्रश्न के जवाब में वित्त राज्यमंत्री शिव प्रताप शुक्ला ने बताया कि मुद्रा योजना के तहत डूबा कर्ज 2018 में बढ़ कर 7200 करोड़ रुपए हो गया है. महाराष्ट्र, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों से मिली रिपोर्ट के अनुसार मुद्रा योजना के तहत दिया जाने वाला औसत कर्ज 30000 रुपए है जो इन व्यवसायों को स्थिरता देने के लिए पर्याप्त नहीं है. मुद्रा योजना के तहत 60 प्रतिशत सूक्ष्म ऋण दिया गया है.

इसी प्रकार प्रधानमंत्री रोजगार निर्माण योजना के तहत दिए गए कर्ज ने भी रोजगार के टिकाउ अवसरों के निर्माण में मदद नहीं की है. इस योजना के तहत विनिर्माण इकाइयों को 25 लाख रुपए और व्यवसाय या सेवा उद्यमों को 10 लाख रुपए का कर्ज दिया जाता है. बेंगलुरु स्थित अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के टिकाउ रोजगार केन्द्र के निदेशक अमित बसोले का कहना है, “दुर्भाग्यवश इन योजनाओं का अधिकतर ध्यान एकदम छोटों उद्यमों पर रहा.” बसोले का कहना है, “ये छोटे कर्ज हैं और इन पैसों से लगाए जाने वाले उद्यम बस पेट भर सकते हैं लेकिन टिकाउ रोजगार का निमार्ण नहीं कर सकते.” बसोले का मानना है कि भारत के बेरोजगारी संकट के लिए इस योजना के तहत स्व-रोजगार को प्रोत्साहन देना पर्याप्त नहीं है. वह कहते है, “हमें बड़ा करने की आवश्यकता है. बडे़ कर्ज और बड़े उद्योगों में पैसा लगाने की जरूरत है जो विस्तार और अधिक संख्या में कर्मचारियों को रखने में सक्षम हैं. बसोले का मानना है कि शहरी और राज्य स्तर पर स्थानीय सरकारें जब तक आधारभूत संरचना और सुविधाओं का निर्माण नहीं करतीं तब तक केन्द्रीय योजनाएं प्रभावकारी नहीं हो पाएंगी.”

भारतीय अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध शोध परिषद की फेलो राधिका कपूर के अनुसार स्व-रोजगार करने वाले लोग रोजगार का निर्माण नहीं कर रहे हैं. ऐसे 80 प्रतिशत लोग मासिक तौर पर 10000 रुपए से कम कमाई कर रहे हैं. ये लोग रोजगार अवसरों का निर्माण कैसे कर सकते हैं. 2015-16 के श्रम विभाग के रोजगार-बेरोजगारी सर्वे के अनुसार देश के लगभग आधे श्रमिक स्व-रोजगार कर रहे हैं. कपूर के अनुसार भारतीय संदर्भ में स्व-रोजगार चिंताजनक बात है. स्वेच्छा से स्व-रोजगार करना और मजबूरन करने में बहुत अंतर है और भारत में अधिकांश लोग मजबूरन ऐसा कर रहे हैं. उन्होंने जोड़ा, “भारत में बहुत सा स्व-रोजगार संकटकालीन रोजगार है.” मोदी के उस दावे के संदर्भ में जिसमें उन्होंने कहा था कि पकौड़ा तलने वाला एक आदमी दिन में 200 रुपए से अधिक की कमाई करता है और इसलिए वह बेरोजगार नहीं है तब कपूर की बात बहुत स्पष्ट हो जाती है. मोदी के इस दावे के जवाब में पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने पूछा था कि इस लिहाज से तो भीख मांगना भी एक काम है.”

जुलाई 2015 में प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा की कि साल 2022 तक प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना अथवा स्किल इंडिया के तहत 40 करोड़ लोगों को प्रशिक्षण दिया जाएगा. संसद की श्रम मामलों की स्थाई समिति की मार्च 2018 की रिपोर्ट के अनुसार फरवरी 2016 में इस योजना के आरंभ से लेकर नवंबर 2018 तक योजना के तहत 33 लाख 93 हजार लोगों को प्रमाणपत्र दिए गए जिनमें से मात्र 10 लाख 9 हजार लोगों को काम मिला. कौशल विकास मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान के मुताबिक मार्च 2018 से कुशल उम्मीदवारों की प्लेसमेंट दर 15 प्रतिशत है जो बेहद कम है. ऐसी खबरें भी हैं कि सरकारी सब्सीडी प्राप्त करने के लिए इस योजना के निजि साझेदार बोगस प्लेसमेंट कर रहे है. कौशल विकास एवं उद्यमशीलता मंत्रालय के पूर्व अधिकारी के अनुसार स्किल इंडिया के डेटा पर भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि इनको जांचने की कोई प्रमाणिक प्रक्रिया नहीं है और ये कौशल विकास केन्द्रों द्वारा उपलब्ध आंकड़े हैं. नाम न बताने की शर्त पर दूसरे अधिकारी ने बताया, “ऐसी भी व्यवस्था नहीं हैं जिससे जाना जा सके की प्रशिक्षण दिया भी जा रहा है या नहीं.”

बसोले का कहना है कि अल्पकालिक अथवा शॉर्ट टर्म कोर्सेज ने युवा ग्रैजुएट्स की एक ऐसी फौज खड़ी कर दी है जिनके पास आवश्यक कौशल नहीं है और “इस बात पर ध्यान नहीं दिया जा रहा कि ऐसे लोगों के साथ क्या हो रहा है.” कपूर का कहना है कि प्रशिक्षण पाठ्यक्रम ठीक से तैयार नहीं किए गए. “हम लोगों को रुटीन और शारीरिक काम का प्रशिक्षण दे रहे हैं.” वित्त प्रबंधन एवं शोध संस्थान की मुख्य अर्थशास्त्री सोना मित्रा ने योजना की यह कहते हुए आलोचना की कि इसके तहत लाखों महिलाओं को सिलाई, बेकरी और रिटेल जैसे पारंपरिक क्षेत्रों का प्रशिक्षण दिया गया जबकि उन्हें निर्माण, इलेक्ट्रॉनिक्स, सूचना प्रौद्योगिकी एवं वित्त सेवा जैसे क्षेत्रों का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि उन्हें रोजगार मिल सके. बसोले ने भी हस्तशिल्प क्षेत्रों को मिलने वाली सीमित सहयता की आलोचना की.

मोदी की कर्णधार योजना के तहत लक्षित क्षेत्रों में हाल के दिनों में बेरोजगारी में बढ़ोतरी देखी गई है. मोदी ने 2014 में मेक इन इंडिया का आरंभ “भारत को वैश्विक डिजाइन और विनिर्माण का केन्द्र बनाने” के उद्देश्य से किया था. उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार पिछले चार सालों में इस क्षेत्र ने कोई विकास नहीं किया है. श्रम ब्यूरो सर्वे के अनुसार अप्रैल और जून 2017 की तिमाही में इस क्षेत्र में 87000 नौकरियां खत्म हो गईं. एमएसएमई मंत्रालय के अनुसार कर्ज योजना के अंतर्गत रोजगार और लाभ में 2014 से कमी आई है. उत्पादन और निर्यात में 24 से 35 प्रतिशत की गिरावट पिछले 4 साल में रिकॉर्ड की गई है.

कपूर के अनुसार उत्पादन क्षेत्र में आधारभूत संरचना जैसी जटिलताओं का समाधान न कर सकने के चलते मेक इन इंडिया फेल हो गया. उनका कहना है, “यह एक केन्द्रीय नीति है लेकिन औद्योगिक क्षेत्र के नियम राज्य के अधीन आते हैं. राज्यों को मेक इन इंडिया को सफल बनाने के लिए कदम उठाने होंगे.”

मैंने जिन जानकारों से बात की उनका कहना था कि निर्यातोन्मुख उत्पादन से बेरोजगारी की समस्या का समाधान नहीं होगा. मित्रा ने कहा, “वैश्विक बाजार अभी मंदी से बाहर नहीं निकला है इसलिए भारतीय निर्यात एक हद से आगे नहीं जा सकता. हमें घरेलू बाजार पर ध्यान देना चाहिए. कपूर ने सुझाया कि “हमें इसका पता लगाना चाहिए कि भारत के लोग किन चीजों पर खर्च कर रहे हैं और फिर इनको बनाने वाले उद्योगों पर ध्यान देना चाहिए.” उन्होंने आगे कहा, “मेक इन इंडिया कायदे से मेक फॉर इंडिया होना चाहिए.”

सीएमआईई की रिपोर्ट में श्रम बाजार में महिलाओं की घटती तादाद पर चिंता जताई गई है. इस रिपोर्ट के अनुसार, “2018 में ज्यादातर महिलाओं ने और खासकर 40 से कम या 60 से अधिक आयु की दिहाड़ी और खेतों में मजदूरी करने वाली ग्रमीण महिलाओं ने काम खोया. मित्रा के अनुसार सरकार के उद्यमशीलता और स्वरोजगार पर जोर देने के चलते महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून हाशिए पर चला गया जो एक ऐसा सरकारी कार्यक्रम था जिसमें बड़ी संख्या में महिलाओं की भागीदारी थी.” मित्रा ने जोर दिया कि स्व-रोजगार योजना मनरेगा की कीमत पर कतई नहीं होनी चाहिए.”

हाल ही में सम्पन्न विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार के पीछे बढ़ती बेरोजगारी भी कारण थी. नोटबंदी, जीएसटी और कृषि संकट के कारण वर्तमान रोजगार संकट गंभीर हुआ है. इसके बावजूद इस समस्या के समाधान की दिशा में पर्याप्त नीतिगत और प्रक्रियागत कदम नहीं उठाए गए हैं.