3 अक्टूबर 2016 को अनिल अंबानी के रिलायंस समूह और फ्रांस की कंपनी डसॉल्ट एविएशन ने संयुक्त उपक्रम, डसॉल्ट रिलायंस एयरोस्पेस लिमिटेड की स्थापना की घोषणा की. भारत और फ्रांस की सरकारों के बीच भारतीय वायु सेना के लिए 7.87 अरब यूरो अथवा 59 हजार करोड़ रुपए के 36 राफेल लड़ाकू विमान खरीद के लिए हुए करार के 10 दिन बाद उपरोक्त संयुक्त उपक्रम की घोषणा की गई. भारत के रक्षा-खरीद दिशानिर्देश विदेशी हथियारों के वेंडर (बिक्रेता) को बड़ी खरीददारी का एक भाग भारत में पुनः निवेश करने के लिए बाध्य बनाता है और राफले करार की “ऑफसेट” आवश्यकता को पूरा करने के लिए करार का लगभग आधा मूल्य भारत में निवेश करने के लिए डसॉल्ट बाध्य था. रिलायंस समूह के साथ संयुक्त उपक्रम की घोषणा से स्पष्ट था कि अंबानी कॉर्पोरेशन को डसॉल्ट के ऑफसेट खर्च का एक बड़ा हिस्सा हासिल होने वाला है.
खबरों के अनुसार जून 2017 तक रिलायंस को 21 हजार करोड़ रुपए का ऑफसेट अनुबंध मिल चुका था. इसके कुछ महीनों बाद रिलायंस और डसॉल्ट ने नागपुर में डसॉल्ट कंपनी के फैल्कन विमानों को बनाने के लिए संयुक्त उपक्रम की आधारशिला रखी. शिलान्यास कार्यक्रम में बीजेपी के दो वरिष्ठ नेता- कैबिनेट मंत्री नितिन गडकरी और महारष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस -शामिल हुए. साथ ही डसॉल्ट ने घोषणा की कि वह इस संयुक्त उपक्रम में 10 करोड़ यूरो का निवेश करेगा. रिलायंस इंफ्रास्ट्रक्चर ने 2016-17 की अपनी वार्षिक रिपोर्ट में दावा किया कि डसॉल्ट की ऑफसेट योजना में उसकी भूमिका अहम होगी.
इतना सब कुछ होने के बाद भी सरकार ने दावा किया कि वह रिलायंस समूह की संलिप्तता के बारे में अनजान है. रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने नवंबर 2017 में पत्रकारों को बताया कि “अब तक किसी भी तरह का ऑफसेट करार नहीं हुआ है.” इस साल की फरवरी तक भी रक्षा मंत्रालय यही दावा कर रहा था कि “वेंडर ने 2016 के 36 लड़ाकू विमान से संबंधित करार में किसी भी ऑफसेट साझेदार का चयन अब तक नहीं किया गया है.”
सितंबर 2018 को फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने बताया कि राफेल करार के शुरू में ही भारत सरकार ने रिलायंस समूह को भारतीय साझेदार बनाने के लिए जोर दिया था. अप्रैल 2015 में जब प्रधानमंत्री मोदी फ्रांस गए थे तब उन्होंने इस करार की घोषणा की थी. उस वक्त ओलांद वहां के राष्ट्रपति थे. अक्टूबर में फ्रांसीसी मीडिया ने बताया था कि डसॉल्ट के आंतरिक दस्तावेजों में उपरोक्त संयुक्त उपक्रम को “आवश्यक और बाध्यात्मक” शर्त बताया गया है. इस खुलासे से भारतीय विपक्ष के उस आरोप को मजबूती मिली जिसमें दावा किया गया है कि राफेल समझौते में सरकार ने रिलायंस समूह को अनुचित लाभ पहुंचाया है.
डसॉल्ट, रिलायंस समूह और भारत सरकार ने इन आरोपों का खंडन किया है. सरकार का कहना है कि डसॉल्ट को अपना साझेदार चयन करने की पूरी छूट थी और उसे इस बात का कोई नोटिस नहीं दिया गया था कि डसॉल्ट कंपनी अपना ऑफसेट धन कहां लगा रही है. ओलांद के दावे के तुरंत बाद एक प्रेसवार्ता में सीतारमण ने कहा था, “सरकारों के बीच हुए करार में किसी का नाम नहीं लिखा गया है.” उन्होंने यह भी कहा कि “इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि किसके साथ ऑफसेट समझौता या समझदारी हुई है.”
डसॉल्ट और रिलायंस के बीच जबरदस्त रूप से प्रचारित इस साझेदारी ने यह दिखा दिया है कि भारत सरकार राफेल करार के सभी व्यवहारिक पक्षों पर जानबूझ कर अनजान बनी हुई है. आज भी औपचारिकता की आड़ में सरकार अनजान बनी हुई है. 2018 की फरवरी में सीतारमण ने संसद को बताया, “फ्रांसीसी औद्योगिक आपूर्तिकर्ता ने भारती ऑफसेट साझेदारों का विस्तृत ब्यौरा नहीं दिया है क्योंकि रक्षा खरीद प्रक्रिया 2013 के प्रावधानों के अनुसार उन्हें ऐसा करने की कोई आवश्यकता नहीं है.” लेकिन सरकार की यह औपचारिक अज्ञानता कोई संयोग नहीं है, यह सोचे समझे डिजायन के तहत किया जा रहा है.
मई 2014 में जब मोदी प्रधानमंत्री बने उस वक्त रक्षा खरीद प्रक्रिया 2013 का जो स्वरूप था उसमें वेंडर को करार से पहले होने वाले अनुबंध में प्रत्येक करार के भारतीय साझेदारों का नाम बताना होता था. मोदी सरकार ने प्रक्रिया में संशोधन कर इस प्रावधान को हटा दिया. ऐसा करने से सरकार को समझौते में रिलायंस समूह की संलिप्तता के प्रति उसकी जिम्मेदारी को औपचारिक रूप में छिपाने का मौका मिला गया और साथ ही इस प्रकार के करारों को करने पर उस कंपनी के सामने आने वाली रुकावटों को हटाने का मौका भी मिल गया.
30 जुलाई 2015 को तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने संसद को बताया कि 136 राफेल विमानों की खरीद वाला समझौता औपचारिक रूप से खत्म कर दिया गया है. पांच दिन बाद 5 अगस्त 2015 को राफेल करार की प्रशासनिक प्रक्रिया के आरंभ में ही खरीद प्रक्रिया में इस संशोधन को लागू किया गया. पहले के समझौते की शर्तों के अनुसार डसॉल्ट को सबसे कम बोली लगाने वाला चयन कर लिए जाने के बाद उसे भारत के मुख्य साझेदार के रूप में सार्वजनिक कंपनी हिन्दुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) के साथ काम करना था. एचएएल की जगह रिलायंस समूह को देने के लिए उस करार को रद्द करना जरूरी प्रशासनिक कदम था.
रक्षा खरीद प्रक्रिया 2013 में रक्षा सौदेबाजी की प्रक्रिया को चरणबद्ध तरीके से बताया गया है. (सरकार ने मार्च 2016 को रक्षा खरीद प्रक्रिया-2016 जारी की. भारत और फ्रांस की सरकारों ने जनवरी 2016 को राफेल करार के सूझबूझ पत्र पर हस्ताक्षर किया था. इसलिए यह करार रक्षा खरीद प्रक्रिया-2013 के तहत है.) अनुबंध पूर्व के चरण में इच्छुक वेंडर को मुख्य प्रस्ताव के साथ संभावित सौदे का तकनीकी और व्यवसायिक ब्यौरा देना जरूरी है. इसके “सामान्यतः तीन महीनों” के भीतर पुनः निवेश योजनाओं का ऑफसेट प्रस्ताव देना होता है. राफेल मामले में सरकार द्वारा जानकारी उपलब्ध न कराने से यह बता पाना मुश्किल है कि क्या डसॉल्ट ने पूरी तरह से नया प्रस्ताव दिया था और कब उसने ऑफसेट प्रस्ताव जमा कराया. तब भी प्रक्रिया में यह कहा गया है कि खरीद करार और ऑफसेट करार में हस्ताक्षर करने से पहले सरकार दोनों प्रस्तावों का मुल्यांकन कर मंजूरी प्रदान करेगी. 10 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को निर्देश दिया कि वह राफेल करार में अपनाई गई “निर्णय प्रक्रिया” का विस्तृत ब्यौरा उसे दे.
संशोधन पूर्व के नियम अनुसार वेंडर को ऑफसेट प्रस्ताव चरण में पुनः निवेश की योजना और समयसीमा एवं ऑफसेट साझेदारों की पहचान करने की आवश्यकता थी. विस्तृत जानकारी वाले इस प्रस्ताव को रक्षा मंत्रालय के वित्त विभाग, मंत्रालय के रक्षा उत्पादन विभाग की ऑफसेट प्रबंधन शाखा, रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन और सैन्य बलों के प्रतिनिधियों वाली तकनीकी समिति ने तैयार किया था. यहां से प्रस्ताव को श्रृंख्लाबद्ध मंजूरियों की आवश्यकता होती थी जिसके अंतिम छोर में रक्षा मंत्रालय था. वेंडर की ऑफसेट योजना पर होने वाले बाद के किसी भी बदलाव के लिए रक्षा मंत्रालय की अनुमति लेनी होती थी.
5 अगस्त 2015 के संशोधन ने तकनीकी समिति द्वारा मुल्यांकन के लिए प्रस्ताव दाखिल करते वक्त भारतीय साझेदारों की पहचान तथा ठोस योजना और समयसीमा के प्रति प्रतिबद्धता की शर्त को ही हटा दिया. साथ किए गए दूसरे संशोधन में वेंडर को किसी भी वक्त, रक्षा उत्पादन विभाग के सचिव से अनुमति लेकर, ऑफसेट साझेदार बदलने की छूट दे दी गई और रक्षा मंत्री को इस जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया.
राफेल करार के ऑफसेट प्रस्ताव को सार्वजनिक नहीं किया गया है. मैंने फरवरी में आरटीआई आवेदन कर पूछा था कि राफेल करार के ऑफसेट प्रस्ताव को कब मंजूरी दी गई. मुझे अब तक इसका जवाब नहीं मिला है. आरटीआई कानून के तहत सरकार को आवेदन का जवाब एक महीने के अंदर देना होता है.
संशोधन के बाद वेंडर सरकार की पूर्व सूचना के बिना ही अपने ऑफसेट परियोजना को आगे ले जा सकते हैं. वे मुख्य अनुबंध की समयसीमा के दो वर्षों के बाद तक ऑफसेट प्रयासों को मान्यता देने के लिए सरकार को कह सकते हैं. राफेल करार के तहत डसॉल्ट 2022 तक 36 विमान सौंपेगा और ये अगले पांच वर्षों तक उसकी वॉरन्टी में रहेंगे. इस तरह यह अनुबंध 2027 तक चलेगा और डसॉल्ट के पास अपने ऑफसेट साझेदारों की जानकारी देने के लिए 2029 तक का समय होगा. जब कभी फ्रांस की यह कंपनी ऑफसेट परियोजना को दाखिल करेगी उस वक्त सरकार इसके मूल्यांकन के लिए जिम्मेदार होगी.
आमतौर पर जब भी सरकार किसी वेंडर कंपनी से मुख्य करार करती है तो उस करार के साथ वेंडर को एक बैंक गारंटी देनी होती है जो करार की शर्तों को पूरा न करने पर जब्त कर ली जाती है. राफेल मामले में मोदी सरकार दो देशों की सरकारों के बीच होने वाले समझौते पर सहमत हो गई जो उसने 2016 के सितंबर माह में किया था. इस समझौते में फ्रांस सरकार गारंटर बन गई है और डसॉल्ट पर कोई बैंक गारंटी नहीं रखी गई है. खबरों के मुताकिब भारत सरकार के प्रशासनिक अधिकारियों समेत ने इस समझौते पर आपत्ति जताई थी. समझौते में फ्रांस सरकार पर कितनी जिम्मेदारी तय की गई है यह कभी स्पष्ट नहीं है.
मानक प्रक्रिया के तहत डसॉल्ट और भारत सरकार- विशेषतः रक्षा मंत्रालय- को सरकारों के बीच हुए करार के साथ ही ऑफसेट अनुबंध में हस्ताक्षर करना होता है. सीतारमण का यह दावा कि “किसी भी प्रकार का ऑफसेट अनुबंध नहीं हुआ है”, उसी हालत में सही हो सकता है यदि सरकार ने प्रक्रिया का उल्लंघन किया हो. लेकिन वायु सेना से मिली जानकारी के अनुसार सीतारमण झूठ बोल रही हैं. कैरेवन की सितंबर की कवर स्टोरी में मैंने बताया था कि मई की एक आरटीआई के जवाब में वायु सेना मुख्यालय ने कहा था कि “ऑफसेट अनुबंध ठीक उसी दिन किया गया जिस दिन सरकारों के बीच समझौता हुआ यानी सितंबर 2016 को.
यह जानकारी सरकार की किसी भी औपचारिक अज्ञानता की दलील को खारिज करती है. संशोधन के बावजूद रक्षा खरीद प्रक्रिया 2013 में ऑफसेट अनुबंध का प्रारूप दिया गया है. प्रारूप के पांचवें अनुच्छेद में वेंडर को भारतीय ऑफसेट साझेदारों के साथ अपने सभी उपअनुबंधों को- साझेदारों का नाम, पता और संपर्क- ऑफसेट अनुबंध होने के 90 दिनों के भीतर बताना है. प्रारूप में किसी भी बदलाव की स्वीकृति मंत्रालय के खरीद प्रबंधक और उसके बाद रक्षा मंत्री से लेनी होती है. सरकार मात्र उस अवस्था में रिलायंस समूह की संलिप्तता से औपचारिक रूप में अनजान रह सकती है जबकि उसने डसॉल्ट को अनुबंध की इस शर्त से मुक्त कर दिया हो या फिर तब जब उसने इस अनुच्छेद को ऑफसेट अनुबंध से हटा दिया हो. ऑफसेट साझेदारों की सूचना देने के लिए निर्धारित 90 दिनों की समयसीमा 22 दिसंबर को समाप्त हो गई है.
मैंने रक्षा सचिव सहित मंत्रालय के तमाम शीर्ष अधिकारियों को ईमेल किया और पूछा कि क्या डसॉल्ट के ऑफसेट अनुबंध में आवश्यक प्रारूप को अपनाया गया है. मुझे कोई जवाब नहीं मिला. भारतीय वायु सेना के पूर्व सेकेंड-इन- कमांड ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि उन्हें नहीं लगता कि डसॉल्ट के भारतीय ऑफसेट साझेदारों की जानकारी के बिना सरकार कोई ऑफसेट अनुबंध कर सकती थी.
खरीद प्रक्रिया 2013 में वेंडर को समय समय पर अपने ऑफसेट परियोजनाओं की जानकारी देनी होती है और सरकार को इसकी जांच करनी होती है. वेंडर को हर साल के 30 जनवरी और 30 जुलाई को “ऑफसेट संकल्प” की परिपूर्ति की छमाही रिपोर्ट जिस प्रारूप में जमा करनी होती है उसमें भारतीय ऑफसेट साझेदारों का नाम बताना जरूरी है. रक्षा मंत्रालय की रक्षा ऑफसेट शाखा को हर साल रक्षा खरीद परिषद को “पिछले वित्त वर्ष में किए गए ऑफसेट अनुबंधों के संबंध” में विस्तृत जानकारी देनी होती है. रक्षा खरीद परिषद रक्षा मंत्रालय की अध्यक्षता वाली निर्णय लेने वाली समिति है. डसॉल्ट के साथ ऑफसेट समझौता 2016 के मध्य में हुआ था इसलिए यह रिपोर्ट जून 2017 में जमा की जानी थी जिस वक्त अरुण जेटली रक्षा मंत्री थे. ऑफसेट शाखा को “प्रत्येक वर्ष जून में पिछले वित्त वर्ष के दौरान चालू ऑफसेट अनुबंधों की क्रियान्वयन रिपोर्ट रक्षा खरीद परिषद को सौंपनी होती है.” रक्षा खरीद परिषद को ये रिपोर्टें जून 2017 और जून 2018 में मिल जानी चाहिए थी.
जब ओलांद के उस दावे के बाद, जिसमें उन्होंने कहा था कि राफेल करार में रिलायंस समूह के साथ टाइ-अप के अलावा और कोई विकल्प नहीं दिया गया था, हंगामा मचने लगा तब डसॉल्ट के मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने अपने इंटरव्यू में बताया था कि डसॉल्ट रिलायंस एयरोस्पेस लिमिटेड को कंपनी के कुल ऑफसेट खर्च का केवल दसवां हिस्सा मिलेगा और बाकी का ऑफसेट खर्च अन्य भागीदारों को मिलेगा. ऐसे में रिलायंस समूह को इस सौदा में लगभग 3000 करोड़ रुपए का लाभ होगा. लेकिन रक्षा विश्लेषक अजय शुक्ला का कहना है कि रिलायंस ने इस सितंबर को एक कानूनी नोटिस के जवाब में कहा था कि उसे डसॉल्ट के ऑफसेट खर्च से 6600 करोड़ रुपए का लाभ होगा. न तो रिलायंस समूह और न ही डसॉल्ट ने उन रिपोर्टों का खंडन किया है जिनमें कहा गया है कि रिलायंस समूह ने 21000 करोड़ रुपए का ठेका हासिल किया है. उनकी नई स्थिति राफेल गाथा को और अधिक विरोधाभासी बनाती है. रिलायंस समूह के शामिल होने कारण जो विवाद खड़ा हुआ है उसकी प्रतिक्रिया में डसॉल्ट के ऑफसेट खर्च में बदलाव आ सकता है. संशोधन पूर्व खरीद प्रक्रिया-2013 में किसी भी बदलाव के लिए रक्षा मंत्रालय को जिम्मेदार बनाया गया है लेकिन संशोधन के बाद सरकार एक बार फिर औपचारिक रूप से अनजान होने का दावा कर सकती है. फिर चाहे यह दावा कितना ही अविश्वसनीय क्यों न लगे.