प्रधानमंत्री की सहमति से राफेल 2.5 अरब यूरो महंगा

प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी ने आरंभिक बेंचमार्क कीमत से 2 अरब यूरो अधिक में राफेल करार को मंजूर किया. पीआईबी

कारवां के पास उपलब्ध दस्तावेजों, जिनकी पुष्टि सेवारत वरिष्ठ रक्षा अधिकारियों ने की है, के अनुसार शुरुआत में राफेल करार की मूल कीमत 5.2 अरब यूरो निर्धारित की गई थी जो 2016 में हुए नए करार में तय कीमत से 2.5 अरब यूरो कम है. इस कीमत पर यह खरीद कर पाना कठिन था इसलिए इस मामले को तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर की अध्यक्षता वाले रक्षा खरीद परिषद को भेज दिया गया जिसने कीमत के निर्धारण के लिए नई क्रियाविधि का सुझाव दिया. इस सौदे की अंतिम कीमत को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता वाली सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी ने मंजूर किया था. इन तथ्यों को सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को दिए अपने जवाब में छिपाया है जिससे पता चलता है कि इस महत्वपूर्ण मामले पर दिए गए जवाब में अदालत को पूरा सच नहीं बताया गया है.

राफेल करार की अंतिम कीमत को प्रधानमंत्री ने प्रत्यक्ष तौर पर 24 अगस्त 2016 को मंजूर किया था जिसमें उस कीमत को दरकिनार कर दिया गया था जिसे उस अधिकारी ने तय किया था जिसे स्वयं मोदी ने इस काम जिम्मा सौंपा था.

अप्रैल 2015 में फ्रांस भ्रमण के दौरान 36 राफेल विमान खरीद के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संयुक्त वक्तव्य के बाद मई 2015 में, उस वक्त लागू रही रक्षा खरीद प्रक्रिया 2013 के तहत भारतीय सौदेबाजी दल (आईएनटी) का गठन किया गया. जैसा की रक्षा खरीद प्रक्रिया 2013 कहती है इस भारतीय सौदेबाजी दल में 7 सदस्य थे. सुप्रीम कोर्ट को दिए अपने जवाब में सरकार ने कहा है कि,

“भारतीय सौदेबाजी दल का गठन किया गया....इस टीम की अध्यक्षता वायुसेना के उप प्रमुख कर रहे थे और इसमें वायुसेना के संयुक्त सचिव और खरीद प्रबंधक, रक्षा आॅफसेट प्रबंधन शाखा के संयुक्त सचिव, संयुक्त सचिव और अतिरिक्त वित्तीय सलाहकार, वायुसेना के वित्त प्रबंधक, वायुसेना (योजना विभाग) के सलाहकार (लागत) एवं सह प्रमुख शामिल थे. फ्रांस दल में शामिल थे, आयुद्ध के महानिदेशक, फ्रांस सरकार का रक्षा मंत्रालय... भारतीय दल और फ्रांसीसी दल के बीच सौदेबाजी मई 2015 में आरंभ हुई और अप्रैल 2016 तक जारी रही. सौदेबाजी के क्रम में कुल 74 बैठकें हुईं जिसमें 48 भारतीय सौदेबाजी दल की आंतरिक बैठकें और 26 फ्रांसीसी टीम के साथ बैठकें शामिल हैं.

सरकार ने अपने जवाब में आगे कहा है कि, “रक्षा खरीद प्रक्रिया के मानदंडो के अनुरूप भारतीय सौदेबाजी दल ने सौदेबाजी की प्रक्रिया में विभिन्न स्तरों में परामर्श और सर्तकता की आर्दश प्रक्रिया का पालन किया. इन बैठकों में फ्रांस सरकार की जिम्मेदारियां और दायित्व, मूल्य, डिलिवरी की समय सीमा, रखरखाव की शर्तें, ऑफसेट और आईजीए की शर्तें एवं अन्य विषय पर चर्चा और सौदेबाजी की गई.”

उपलब्ध तथ्य इन दावों से पूरी तरह अलग हैं. भारतीय सौदेबाजी दल का काम करार की बेंचमार्क (मानदंड) कीमत तय करने के बाद आरंभ हुआ. रक्षा खरीद प्रक्रिया 2013 के अनुसार, “सभी मामलों में अनुबंध की सौदेबाजी कर रही टीम को व्यवसायिक प्रस्ताव जारी करने से पहले आंतरिक बैठकों में ही बेंचमार्क और कीमत की तर्कसंगत अवस्था को स्थापित कर लेना चाहिए.” इस मामले में स्थापित मानदंडो के अनुरूप बेंचमार्क कीमत को दल के सलाहकार (लागत) एम पी सिंह ने तय किया था. कीमत को राफेल को बनाने में लगने वाले उपकरणों की कीमत और शोध तथा विकास और भारतीय आवश्यकताओं के अनुरूप विमान में किए जाने वाले बदलावों को ध्यान में रख कर किया गया था. 36 राफेल विमानों की बेंचमार्क कीमत 5.2 अरब यूरो तय की गई थी.

सिंह द्वारा सुझाई गई बेंचमार्क कीमत को वायुसेना के जेएस और एएम, वायुसेना के वित्त प्रबंधक राजीव वर्मा और दल के अनिल सूले ने मंजूर किया था. ये वे तीन लोग हैं जिन्हें कीमत संबंधी विषयों में सबसे अधिक विशेषज्ञता है.

भारतीय सौदेवाजी दल के अध्यक्ष राकेश कुमार सिंह भदौरिया ने अन्य तीन सदस्यों के साथ बेंचमार्क कीमत पर असहमति जताई थी. यह मामला सौदेबाजी दल के अंदर हल नहीं हो पाया. इस दल के सभी अधिकारियों का अब स्थानांतरण हो चुका है और बहुतों से संपर्क करने में कामयाबी नहीं मिली. और जिन अधिकारियों से संपर्क हो सका उन्होंने कुछ भी कहने से इनकार कर दिया.

कारवां ने वायुसेना और रक्षा मंत्रालय को विस्तृत सवाल भेजे थे. रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता ने मंत्रालय की ओर से टिप्पणी करने से इनकार कर दिया और सेवारत वायुसेना के एक वरिष्ठ अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि निर्धारित बेंचमार्क कीमत पर यह करार संभव नहीं हो सकता था क्योंकि यह “हास्यास्पद रूप से कम” थी.

वरिष्ठ रक्षा अधिकारी ने कारवां को बताया कि, “बहुत कम बेंचमार्क कीमत की समस्या के समाधान के लिए रक्षा खरीद परिषद से संपर्क किया गया. दल को दिए गए निर्देशों के परिणामों पर भी सुझाव मांगे गए और व्यवसायिक सौदेबाजी में प्रगति के मानदंडों के बारे में भी पूछा गया... रक्षा खरीद परिषद ने दल को 2008 की प्रतिस्पर्धी कीमत से बेहतर कीमत हासिल करने का निर्देश दिया. इस “बेहतर” शब्द को आगे और परिभाषित करते हुए बेहतर रखरखाव पैकज, बेहतर पीबीएल और बेहतर शर्तें बताया गया...पहला बेंचमार्क तर्कसम्मत नहीं था और दल के प्रयास ध्वस्त हो गए.

यह सरकार के उस दावे को खारिज करता है, जिसमें उसने कहा कि सौदेवाजी दल ने आदर्श प्रक्रिया का पालन किया. इस कार्यवाही में किसी आदर्श का पालन नहीं हुआ क्योंकि करार के प्रत्येक महत्वपूर्ण पक्ष, खासतौर पर कीमत के सवाल पर, गंभीर अंतरविरोध थे और दल के भीतर यह हल नहीं हो सका.

अंतिम करार में तय कीमत से कम 3 अरब यूरो की आरंभिक बेंचमार्क कीमत पर दल के अंदर 4-3 से मतभेद था जिसका मतलब है कि रक्षा मंत्रालय की अध्यक्षता वाले रक्षा खरीद परिषद ने कीमत निर्धारण के लिए संशोधित क्रियाविधि सुझाई थी जिसे अंत में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी ने मंजूर किया.

तथ्यों से पता चलता है कि बेंचमार्क कीमत में संशोधन का आरंभिक तर्क यह था कि यह करार पूरा किया जा सके. रक्षा अधिकारी के अनुसार नई बेंचमार्क कीमत की गणना 2008 और 2015 के प्रस्तावों को ध्यान में रख कर की गई थी और सुझाव दिया गया कि प्रत्येक उपकरण के लिए कम मूल्य वाले प्रस्ताव को माना जाए और फिर अतिरिक्त छूट पर विचार किया जाए. यह रक्षा खरीद प्रक्रिया 2013 के दिशानिर्देशों से अलग है जिनमें साफ कहा गया है कि “जिन मामलों में पहले करार हो चुका है और बेंचमार्क कीमत उपलब्ध हैं” उस कीमत को ध्यान में रखा जाना चाहिए. लेकिन 2008 का करार हो चुका था और यह नए बेंचमार्क का आधार नहीं हो सकता था. इस परिस्थिति में बैंचमार्क निर्धारण के लिए जो क्रियाविधि एम पी सिंह ने तय की थी सिर्फ वही व्यवहारिक थी.

उपरोक्त तथ्यों में से कई तथ्य सरकार द्वारा अदालत को जवाब देने से पहले ही अन्य मीडिया में प्रकाशित हो चुके थे. इकोनोमिक टाइम्स की 26 सितंबर की रिपोर्ट में यहां बताए गए कुछ तथ्यों का उल्लेख है लेकिन उस रिपोर्ट में नई बेंचमार्क कीमत तय करते वक्त सरकार ने कौन सी प्रक्रिया अपनाई इसका उल्लेख नहीं है. उस रिपोर्ट में यह बताने की कोशिश की गई है कि इस तरह की असहमति आम बात है. लेकिन यह नहीं बताया गया कि इस मामले में बेंचमार्क कीमत का विवाद दल के अंदर हल नहीं हो सका था और इसे सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमिटी के पास भेजना पड़ा था. लेकिन कमिटी के पास वित्तीय प्रक्रिया की जांच करने की कोई पात्रता नहीं थी जो बेंचमार्क मूल्य निर्धारण के लिए जरूरी है, खासतौर पर उस अवस्था में जब विशेषज्ञता रखने वाले सभी अधिकारियों ने 2 अरब यूरो कम कीमत वाली पहली बेंचमार्क कीमत का समर्थन किया था.