2010 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ‘जवाहर लाल नेहरू सोलर मिशन’ यानी ‘जेएनएनएसएम’ लॉन्च किया था. इसके तहत भारत को सोलर एनर्जी क्षेत्र का वैश्विक लीडर बनाने की कल्पना की गई थी. मिशन के तहत एक ऐसा माहौल तैयार करना था जिसके जरिए देश में सोलर एनर्जी का विस्तार हो सके. साथ ही 2022 तक इंडिया के सोलर पावर होने का लक्ष्य तय किया गया. इस समय तक भारत के पास 20 गीगावाट इंस्टॉल्ड सोलर क्षमता होने की बात कही गई. 2015 में नरेन्द्र मोदी को पीएम बने अभी एक साल भी नहीं हुआ था और उन्होंने इस लक्ष्य को पांच गुणा बढ़ाकर 2022 तक 100 गीगावाट कर दिया. मोदी ने सोलर पावर को समर्थन की अपनी प्रतिबद्धता पर एक बार फिर तब जोर दिया जब 2016 में भारत ने पेरिस समझौते को मंजूरी दी. ‘पेरिस समझौता ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने वाला एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है.’ इसके तहत भारत ने अपना कार्बन उत्सर्जन 33-35 प्रतिशत तक कम करने का वादा किया. इसी समय मोदी सरकार ने इंटरनेशनल सोलर अलायंस की शुरुआत की. यह 121 देशों का समूह है, जिसका लक्ष्य सोलर एनर्जी को विकसित करके फॉसिल फ्यूल (जीवाश्म ईंधन) पर निर्भरता घटाना है. 2018 में पहली आईएसए असेंबली के उद्घाटन के दौरान पीएम ने कहा, “आईएसए का रोल भविष्य में बेहद अहम होगा. यह वैसा ही होगा जैसा पेट्रोलियम एक्सपोर्ट करने वाले देशों की संस्थाएं अभी अदा कर रही है. यह वैश्विक कच्चे तेल के उत्पादन का लगभग 40 प्रतिशत है.”
मोदी की बड़ी-बड़ी बातें तो ठीक हैं, लेकिन सोलर पावर को बढ़ावा देने के क्षेत्र में भारत के नेतृत्व कर्ता की भूमिका के अलावा जेएनएनएसएम को बड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है. इसकी वजह नीतियों में हाल में हुआ बदलाव है. अगस्त 2018 में वैश्विक परामर्श कंपनी सीआरआईएसआईएल की एक रिपोर्ट आई थी. इसमें कहा गया है कि इन नीतियों की वजह से भारत अपने 2022 के लक्ष्य से लगभग 20 प्रतिशत पीछे रह जाएगा.
जुलाई 2018 में वित्त मंत्रालय ने सोलर सेल और मॉड्यूल पर सुरक्षा कर को मंजूरी दे दी. यह सस्ते आयात से घरेलू उद्योग को बचाने के लिए लगाया जाने वाला आयात कर है. सोलर सेल और मॉड्यूल, सोलर पैनल निर्माण का अहम हिस्सा हैं. सीआरआईएसआईएल रिपोर्ट की मानें तो कमजोर होते रुपए पर पड़े इस कर की मार ने सोलर प्रोजेक्ट को 20 प्रतिशत तक महंगा कर दिया. यह ड्यूटी पांच कंपनियों के एक समूह के कहने पर लगाई गई. इन कंपनियों का नेतृत्व मुंद्रा सोलर करती है. जिसका मालिकाना हक अडानी समूह के पास है. इसे लेकर नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय यानि एमएनआरई ने कई बार अनुरोध किया लेकिन वित्त मंत्रालय ने घरेलू स्तर पर सोलर पैनल बनाने वालों को सब्सिडी या प्रोत्साहन राशि देने से मना कर दिया. इन फैसलों को एक साथ देखने पर सरकार के सोलर सुपर पावर बनने की प्रतिबद्धता पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं.
सरकार की जेएनएनएसएम योजना ‘धरती आधारित सोलर प्रोजेक्ट’ 60 गीगावाट और ‘छत पर लगने वाले सोलर पैनल’ 40 गीगावाट जैसे दो भागों में बंटी है. फिलहाल भारत ने 24 गीगावाट की जुड़ी हई सोलर पावर क्षमता हासिल कर ली है. हालांकि, टारगेट 100 गीगावाट का है. इसमें 9.3 गीगावाट 2017-18 में जोड़ा गया था लेकिन 2018-19 में महज 2.6 गीगावाट ही जोड़ा जा सका. एमएनआरई के मुताबिक छत वाले सोलर पैनल के मामले में 2018-19 में 156 मेगावट पर काम हुआ, जबकि उस साल लक्ष्य 1 गीगावाट का था. 40 गीगावाट के लक्ष्य की तुलना में वर्तमान क्षमता सिर्फ 6 प्रतिशत है. मई 2018 में भारत की सोलर-सेल उत्पादन क्षमता 3 गीगावाट थी जो 20 गीगावाट के लक्ष्य का 15 प्रतिशत ही है.
हालिया नीतिगत निर्णय का प्रभाव पहले से ही महसूस किया जा रहा है. बड़ें टेंडरों के तहत सोलर क्षमता को ताकत देने के प्रयास भी विफल हो चुके हैं. सोलर एनर्जी कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया यानि एसईसीआई केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र का उद्यम है जिसका काम जेएनएनएसएम को लागू करना है. इसने 10 गीगावाट सोलर प्रोजेक्ट से जुड़े नियमों और अंतिम तारीख में कई बार बदलाव किया लेकिन कोई बोली लगाने वाला नहीं मिला.
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