कोविड-19 : असम के डिटेंशन केंद्रों में बंद लोगों को रिहा करने की मांग

भारत में कोविड-19 महामारी के फैलने और 12 अप्रैल तक असम में 29 पुष्ट मामलों और एक की मौत की पुष्टि के साथ, राज्य के डिटेंशन केंद्रों में वायरस के संभावित प्रकोप के बारे में चिंताएं उभरने लगी हैं. अदनान आबिदी/ रॉयटर्स

असम के 6 डिटेंशन केंद्रों में लोगों की जो हालत है उस के बारे में 52 साल के एक व्यक्ति ने बताया, "अगर वे इसी तरह रहे, तो वे मर जाएंगे." यह व्यक्ति 2019 से डिटेंशन केंद्र में बंद था लेकिन हाल ही में जमानत पर बाहर आया है और नाम न छापने की शर्त पर मुझसे बात करने को तैयार हुआ. कोविड-19 महामारी ने पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले लिया है. असम में 12 अप्रैल तक 29 पुष्ट मामले और एक मौत की सूचना ने राज्य के डिटेंशन केंद्रों में संभावित प्रकोप की चिंता उत्पन्न कर दी है. 13 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने डिटेंशन केंद्र में बंद लोगों की रिहाई की मांग करने वाले एक आवेदन पर सुनवाई करते हुए दो साल या उसे अधिक समय तक बंद लोगों को रिहा करने का फैसला सुनाया है. उस आवेदन में कहा गया था कि "डिटेंशन केंद्र वायरस के गढ़ बन सकत हैं."

यह आवेदन जस्टिस एंड लिबर्टी इनिशिएटिव द्वारा दायर किया गया था. यह एक गैर-लाभकारी संगठन है जो राज्य के विदेशी न्यायाधिकरण का सामना करने वाले लोगों को कानूनी सहायता प्रदान करता है. असम में भारतीय नागरिकों की सूची, राज्य की राष्ट्रीय नागरिकता पंजिका को अपडेट करने की कवायद के बीच हजारों लोगों ने न्यायाधिकरण द्वारा उनकी भारतीय नागरिकता के अर्ध-न्यायिक निर्धारण के लिए खुद को प्रस्तुत किया. जिन लोगों को न्यायाधिकरण विदेशी घोषित करते हैं, उन्हें डिटेंशन केंद्रों पर रखा जाता है. गृह मंत्रालय द्वारा राज्यसभा में दी गई प्रतिक्रिया के अनुसार, असम के नजरबंदी केंद्रों में 6 मार्च 2020 तक 802 लोग थे.

गोवालपारा नजरबंदी केंद्र से जमानत पर छूटे बंदी के अनुसार केंद्र के एक कमरे में लगभग चालीस लोगों को रखा जाता है. पूर्व बंदी ने कहा, "वह एक जेल की तरह है. प्रत्येक व्यक्ति को केवल दो पैर जितनी जगह ही होती है." उन्होंने रहने की बहुत बुरी परिस्थिति के साथ-साथ बासी भोजन, गंदे कमरों और स्वच्छता की बुरी दशाओं को याद किया. पूर्व बंदी ने कहा, "एक कमरे में सभी चालीस लोगों के लिए एक ही शौचालय है और उससे रात में दुर्गंध आती है. डॉक्टर हमारी जांच के लिए आते हैं लेकिन वे अनुभवहीन हैं और केवल सिरदर्द या पेट दर्द का इलाज कर सकते हैं."

भारत की जेलों में कैदियों के बीच कोविड-19 के फैलने की संभावना के बारे में जेएलआई द्वारा दायर आवेदन पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लिया था. 16 मार्च को सर्वोच्च अदालत ने एक आदेश पारित किया, जिसमें कहा गया था कि "कड़वी सच्चाई यह है कि हमारी जेलों में बहुत अधिक भीड़ है और जेल में कैदियों को कोरोना वायरस के फैलने का खतरा है." एक हफ्ते बाद सुनवाई की अगली तारीख पर अदालत ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि राज्य सरकारें संक्रमण का प्रसार रोकने के लिए "उच्चाधिकार प्राप्त समिति" का निर्धारण करें कि किस श्रेणी के कैदियों को पैरोल या अंतरिम जमानत पर रिहा किया जा सकता है. अदालत ने कहा, "संक्रमण फैलने और घातक परिणामों के संभावित खतरे को देखते हुए, यह आवश्यक है कि जेलों में कैदियों को अधिकतम दूरी पर रखा जाना चाहिए."

अदालत के निर्देश के बाद मार्च के अंत में असम सरकार ने 722 विचाराधीन कैदियों को रिहा किया. असम के छह नजरबंदी केंद्र राज्य के जिला कारागारों के घेराबंदी के क्षेत्र में आते हैं जिनमें घोषित विदेशियों को रखा जाता है. 18 मार्च को गृह मंत्रालय ने राज्यसभा में बताया था कि 2017 के बाद से असम के नजरबंदी केंद्रों में 26 लोगों की मृत्यु हो गई थी और तीन सप्ताह से भी कम समय के बाद कोकराझार केंद्र में एक 60 वर्षीय महिला की मृत्यु हो गई. अपने आवेदन में जेएलआई ने कहा, "आवेदक संगठन प्रार्थना करता है कि असम राज्य में स्थायी बंदी का सामना कर रहे" विदेशी घोषित "लोगों को भी रिहा किया जाए. 'मनुष्य' होने के नाते उन्हें जीने और किसी जेल के आहाते में, नजदीकी मानवीय संपर्क में सीमित होने के कारण यानी सामाजिक दूरी की उपेक्षा करके कोविड-19 से नहीं मरने का  न्यूनतम मूलभूत अधिकार है।”

बंदियों के बीच संभावित संक्रमण की चिंता को उठाने वाला जेएलआई अकेला नहीं है. 6 अप्रैल को अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल को बंदियों को रिहा करने के लिए एक बयान जारी किया.एमनेस्टी ने कहा, "कोरोना वायरस के वैश्विक प्रकोप से बचाव के लिए असम सरकार द्वारा 700 से अधिक कैदियों को रिहा करने के लिए उठाए गए कदमों का स्वागत किया जाता है, असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि असम के छह डिटेंशन केंद्रों में हिरासत में रखे गए उन घोषित विदेशियों को भी तुरंत रिहा कर दिया जाए."

2018 में एमनेस्टी ने नजरबंदी केंद्रों पर अध्ययन करने के बाद "फियर एंड हेट्रेड: सर्वाइविंग माइग्रेशन डिटेंशन इन असम" शीर्षक से एक एक रिपोर्ट जारी की थी. रिपोर्ट के अनुसार एमनेस्टी ने वहां रहने से जुड़ी अनेक खामियां पाईं जिसमें वहां अधिक भीड़ होना, परिवारों से बिछड़ाव, अलग-अलग श्रेणियों के कैदियों को पृथक न रखाना और अपर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं शामिल हैं. एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के कार्यकारी निदेशक अविनाश कुमार ने अपनी अप्रैल की प्रेस विज्ञप्ति में कहा, “जैसा कि कोविड-19 महामारी पूरे भारत में फैली हुई है, असम सरकार को यह समझना चाहिए कि भीड़भाड़ वाले नजरबंदी केंद्रों में बंदियों को संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है और उन्हें कैदियों को तुरंत रिहा करके उन्हें इस संक्रमण से बचाने से लेकर जो कुछ किया जा सके करना चाहिए."

31 मार्च को चार अंतरराष्ट्रीय निकायों- शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र उच्चायोग, प्रवासन के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठन, मानवाधिकारों के लिए संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त के कार्यालय और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने नजरबंद किए गए शरणार्थियों और प्रवासियों की रिहाई के लिए एक संयुक्त वक्तव्य जारी किया.

वक्तव्य में कहा गया कि औपचारिक और अनौपचारिक स्थानों पर रखे गए शरणार्थियों और प्रवासियों के लिए स्थिति विशेष रूप से चिंताजनक है. "कोविड-19 प्रकोप के घातक परिणामों को देखते हुए कैदियों को बिना किसी देरी के छोड़ा जाना चाहिए." जेएलआई ने अपने आवेदन में कहा कि नजरबंदी केंद्रों में नाबालिगों सहित सभी उम्र के लोग रहते हैं. यह भी कहा गया कि जेल कर्मचारियों, अधिकारियों और बाहर से आने वाले बाकी लोगों के साथ संपर्क के जरिए कैदियों में वायरस के फैलने की संभावना है. जबरदस्ती हिरासत में रखे जाने की तुलना मौत की सजा से करते हुए संगठन ने अदालत में कहा, " कोरोनावायरस के प्रकोप के चलते याचिकाओं को लंबित रहना और कैदियों को उनके मूल देश भेज पाने में भारत सरकार की अक्षमता उन्हें अंतत: मौत की सजा देने के समान हो सकता है."

असम में 31 मार्च को कोविड-19 का पहला पुष्ट मामला सामने आया था. तब से दो सप्ताह से भी कम समय में यह संख्या बढ़कर 29 हो गई. फिर भी राज्य सरकार ने नजरबंदी केंद्रों में कोविड-19 प्रकोप के जोखिम को लेकर कोई विचार नहीं किया. असम के मुख्य सचिव कुमार संजय कृष्ण का मानना था कि बंदियों को अच्छी स्थिति में रखा जा रहा है. उन्होंने बताया कि इनमें क्वारंटीन सेंटर को तैयार रखा गया था और बंदियों की चिकित्सा जांच नियमित रूप से होती थी. उन्होंने आगे कहा, " बंदियों को हाथ धोने के लिए सैनिटाइजर और साबुन वितरित किए गए हैं और बुखार के किसी भी मामले की सूचना मेडिकल कॉलेजों को दी जाती है."

नजरबंदी केंद्रों में अत्यधिक भीड़ होने के आरोप का जवाब देते हुए कृष्णा ने कहा कि दो लोगों के बीच की दूरी एक मीटर से अधिक है जबकि “एक स्थान पर चालीस बंदी रह सकते हैं लेकिन उनको एक हॉल में रखा जाता है न कि कमरे में." बंदियों को छोड़ने के लिए एमनेस्टी की अपील के बारे में पूछे जाने पर मुख्य सचिव ने इसकी कोई भी जानकारी होने से इनकार कर दिया.

यह देखते हुए कि असम सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन करते हुए विचाराधीन कैदियों को रिहा कर दिया है, यह विचारणीय है कि मुख्य सचिव ने नजरबंदी केंद्रों को लेकर उठ रही इसी तरह की चिंताओं को स्वीकार नहीं किया. पेशे से वकील और जेएलआई के सह-संस्थापक अमन वदूद को राज्य सरकार से समर्थन मिलने की उम्मीद बहुत कम है. उन्होंने कहा, "मुझे नहीं लगता कि सरकार हमारा पक्ष लेगी. अगर बंदियों को रिहा करने का उनका कोई इरादा होता, तो उन्होंने पहले ही ऐसा कर लिया होता." वदूद ने कहा कि संगठन को सर्वोच्च न्यायालय से "अधिक उम्मीदें" थीं और विश्वास था कि वह एक अनुकूल आदेश पारित करेगा. "हमें माननीय सर्वोच्च न्यायालय से ज्यादा उम्मीदें हैं."

यह पहली बार नहीं होगा कि उच्चतम न्यायालय नजरबंदी केंद्रों से घोषित विदेशियों की रिहाई की अनुमति देगा. 5 मई 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश जारी किया था जिसमें दो भारतीय नागरिकों से 1 लाख रुपए की जमानत देने सहित कुछ शर्तों की पूर्ति के बाद केंद्र में तीन साल पूरे करने वाले बंदियों को जमानत पर रिहा करने की अनुमति दी गई थी. अदालत ने एक याचिका में अपना आदेश पारित किया जिसमें बंदियों से मानवीय और वैध व्यवहार की मांग की गई थी. यह याचिका सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने दायर की थी जिन्होंने 2018 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अल्पसंख्यकों के लिए विशेष निरीक्षक के रूप में सेवा देते हुए गोवलपारा और कोकराझार के दो नजरबंदी केंद्रों का दौरा किया था.

मंदर की टीम का हिस्सा रहे और असम के मानवाधिकार शोधकर्ता अब्दुल कलाम आजाद ने बताया कि कैसे बंदियों को उनके अधिकारों से वंचित किया गया. आजाद ने नजरबंदी केंद्रों के दौरों को याद करते हुए कहा, "पत्नियों को उनके पतियों से और बच्चों को उनके माता-पिता से अलग कर दिया जाता है और किसी को यह भी पता नहीं होता कि उनके परिजन जिंदा है या नहीं. टीवी या समाचार पत्र जैसा मनोरंजन का कोई साधन वहां नहीं है न ही छोटे स्तर के काम करने दिए जातें हैं. बंदियों को केवल भोजन करने और अपने वार्ड में बैठे रह कर ही अपना समय बिताना पड़ता है." उन्होंने नजरबंदी केंद्रों की उन घटनाओं के बारे में भी बताया जहां एक स्वस्थ्य नवयुवक को स्वास्थ्य बिगड़ने पर उपचार मिलने में हुई देरी के कारण जान गवानी पड़ी.

मंदर की टीम को अन्य नजरबंदी केंद्रों पर जाने से रोका गया और एनएचआरसी ने उनकी रिपोर्ट पर कार्रवाई करने से इनकार कर दिया. जून 2018 में, मंदर ने पद से इस्तीफा दे दिया और दो महीने बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष याचिका दायर की. इसके बाद मई में अदालत की एक नाटकीय सुनवाई के बाद जिसमें पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने मंदर का नाम याचिका से हटा दिया, कार्यकर्ता-याचिकाकर्ता द्वारा गोगोई को इस मामाले से अलग रखने की मांग के बाद अदालत ने बंदियों की रिहाई की अनुमति देने का आदेश पारित किया.

कोविड-19 महामारी के दौरान नजरबंदी केंद्रों में रखे गए घोषित विदेशियों के बारे में बताते हुए आजाद ने कहा कि यह उनके बुनियादी मानवाधिकारों का उल्लंघन है. "उन्हें पहले ही अपने अधिकारों से वंचित कर दिया गया था जब उन्हें उम्र या अन्य अस्पष्ट कानूनी दस्तावेजों में छोटी-मोटी गलतियों या फिर कानूनी सहायता पर खर्च न कर पाने के चलते हिरासत में ले लिया गया था." उन्होंने कहा, "आपको दुनिया का कोई भी देश ऐसा नहीं मिलेगा जो अपने नागरिकों को इस तरह रखता हो."

जेएलआई ने आवेदन में जेलों में कोविड-19 के प्रकोप के विश्व भर में आए मामलों और विभिन्न देशों ने कैदियों को रिहा करने की प्रक्रिया शुरू करने का भी जिक्र किया है. 24 मार्च को  फाइनेंशियल टाइम्स में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, आवेदन में कहा गया है कि ब्रिटेन और अमेरिका की जेलों में पुष्ट मामले सामने आए थे और इटली में आपातकाल में उठाए कदमों ने जेल में दंगों को भड़का दिया था जिसमें एक दर्जन कैदी मारे गए थे. अमेरिका में शिकागो की सबसे बड़ी जेल में 400 से अधिक कर्मचारियों और कैदियों में कोरोनावायरस होने की पुष्टि हुई है, जो देश में एक ही स्थान पर होने वाले सबसे अधिक मामले हैं.

अपने आवेदन में जेएलआई ने तर्क दिया था कि नजरबंदी केंद्रों में रखे गए कई लोग किसी भी तरह की कानूनी सहायता का खर्च नहीं उठा सकते हैं और उनके पास न कोई संपत्ति है और न ही ऐसा कोई परिचित जो उनके लिए खड़ा हो सके. यह भी कहा गया कि "घोषित विदेशियों को सजा के नाम पर नजरबंद करना उचित नहीं है. विदेशी ट्रिब्यूनल द्वारा जाहिर की गई राय के आधार पर सरकार के पास ऐसे लोगों को हिरासत में रखने की शक्ति है जो यह साबित करने में सक्षम नहीं हैं कि वे भारतीय नागरिक हैं.”

यह तर्क इस तथ्य को बताता है कि घोषित विदेशी व्यक्ति ऐसे व्यक्ति हैं जो अपनी भारतीय नागरिकता साबित करने में असमर्थ हैं लेकिन उन्हें विदेशी ट्रिब्यूनल द्वारा किसी भी अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया गया है. इस संदर्भ में, वदूद ने पूछा, "यदि वे कैदियों को रिहा कर सकते हैं तो उन घोषित विदेशियों को क्यों रिहा नहीं किया जाता है जिन्होंने कोई अपराध नहीं किया है?"

नोट : 12 अप्रैल को अंग्रेजी कारवां में प्रकाशित इस रिपोर्ट में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सुधार किया गया है.

अनुवाद : अंकिता