कपिल मुनि पांडे ने अपनी हथेलियां आगे फैला दीं. उसके हाथों की त्वचा खुरदरी थी और उसके नाखून टूटे हुए थे. उसकी भुजाओं पर झाइयों के निशान थे. उसकी आंखें सूखी थीं और चेहरा सूजा हुआ था. लगभग तीस वर्ष का कपिल, कमज़ोर था और उसे चलने में कठिनाई होती थी. उसने मुझे बताया कि वह आर्सेनिक विषाक्तता से पीड़ित था. उसने सोचा कि मैं डॉक्टर हूं.
मार्च 2019 की एक सुबह, मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के पांच सौ से भी कम आबादी वाले गांव तिवारीटोला में कपिल से मिला. उस दिन क्षेत्र के भूजल में आर्सेनिक संदूषण पर एक स्थानीय कार्यकर्ता द्वारा बुलाई गई बैठक में भाग लेने के लिए लगभग तीस लोग एकत्र हुए थे. कुछ के पास अपनी बीमारी के सबूत के तौर पर डॉक्टर का पर्चा था. अन्य, जो डॉक्टर के पास जाने में सक्षम नहीं थे, उनके पास केवल दिखाने के लिए केवल लक्षण थे. उनके शरीर पर घाव, बारिश की बूंदें जैसी झाइयां और केराटोसिस के लक्षण - त्वचा का कठोर और पपड़ीदार होना- दिखाई दे रहे थे. जब वे अपनी-अपनी स्थितियों के बारे में बात कर रहे थे, तो वे सभी कपिल के बारे में चिंतित थे कि वह लंबे समय तक जीवित नहीं रहेगा.
यह बैठक सत्तारूढ़ बीजेपी के स्थानीय संयोजक तारकेश्वर तिवारी के घर के बाहर एक लॉन में आयोजित की गई थी. तिवारी स्वस्थ लग रहे थे. उन्होंने मुझसे कहा कि वह इस क्षेत्र में आम आर्सेनिक जोखिम की समस्या का समाधान करना चाहते हैं. बैठक के बाद एकत्रित हुए लगभग बीस लोगों ने समूह में पोज़ देकर फोटो खिंचाया. कुछ ने अपनी त्वचा की स्थिति दिखाने के लिए अपने हाथ ऊपर उठाए.
आर्सेनिक एक अत्यधिक विषैला तत्व है - एक गंधहीन, रंगहीन और स्वादहीन उपधातु, जो पृथ्वी की सतह में व्यापक रूप से पाया जाता है - जो भूजल के प्रदूषण का कारण बन सकता है. यह विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा परिभाषित खतरनाक पदार्थों और रोग पंजीयन की 2001 की प्राथमिकता सूची में नंबर एक पर है. डब्ल्यूएचओ ने कहा है, "आर्सेनिक से सार्वजनिक स्वास्थ्य को सबसे बड़ा खतरा दूषित भूजल से होता है." पीने के पानी में आर्सेनिक संदूषण से आर्सेनिकोसिस नामक बीमारी भी हो सकती है, जिसके लक्षण मुख्य रूप से विभिन्न प्रकार के त्वचा विकारों, जैसे घाव, केराटोसिस और मेलानोसिस के रूप में दिखाई देते हैं. डब्ल्यूएचओ आर्सेनिकोसिस को "कम से कम छह महीने तक आर्सेनिक की सुरक्षित खुराक से अधिक सेवन करने से उत्पन्न होने वाली एक दीर्घकालिक स्वास्थ्य स्थिति के रूप में परिभाषित करता है, जो आंतरिक अंगों की भागीदारी के साथ या उसके बिना हो सकती है. डब्ल्यूएचओ यह भी कहता है कि, चरम मामलों में, तीव्र आर्सेनिक विषाक्तता से मृत्यु हो सकती है.
राष्ट्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर विभिन्न दलों की सरकारें आर्सेनिक संकट को संतोषजनक ढंग से हल करने में विफल रहीं. मामला केवल असंगतता, उदासीनता और लापरवाही का है. पीने के पानी या भोजन में अकार्बनिक आर्सेनिक एक "पुष्टिकृत कैंसरजन" है. डब्ल्यूएचओ के अनुसार, "लंबे समय तक आर्सेनिक के उच्च स्तर पर सेवन करने से पहले लक्षण आमतौर पर त्वचा में देखे जाते हैं और इसमें त्वचा पर झाइयां, घाव और हथेलियों और पैरों के तलवों पर कठोर धब्बे शामिल होते हैं" - जिसे हाइपरकेराटोसिस के रूप में जाना जाता है. "ये लगभग पांच वर्षों के बाद दिखाई देते हैं और त्वचा कैंसर का कारण हो सकते हैं." इसके अलावा, डब्ल्यूएचओ का कहना है कि लंबे समय तक आर्सेनिक के संपर्क में रहने से "मूत्राशय और फेफड़ों का कैंसर भी हो सकता है."
पटना में महावीर कैंसर संस्थान के प्रोफेसर और बिहार प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अशोक कुमार घोष ने मुझे बताया, “आर्सेनिक एक मूक हत्यारा है.” घोष दशकों से आर्सेनिक प्रदूषण पर शोध कर रहे हैं और उन्हें अक्सर बिहार का "आर्सेनिक मैन" कहा जाता है. उन्होंने कहा कि आर्सेनिक प्रभावित क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों में केराटोसिस, लीवर सिरोसिस और त्वचा कैंसर अक्सर व्यापक रूप से देखा जाता है और आर्सेनिक के अत्यधिक संपर्क से बांझपन और विकलांगता भी हो सकती है. उन्होंने कहा, "लोग गरीबी, प्रशासन की अज्ञानता और इलाज की अनुपलब्धता के कारण मर जाते हैं."
मार्च 2020 में लीवर की समस्या के कारण कपिल की मृत्यु हो गई. कपिल के भाई शशि भूषण पांडे ने मुझे बताया, "यह मेरे परिवार में इस तरह की तीसरी मौत थी." उनके पिता की मृत्यु साठ साल की उम्र में हो गई थी, उनकी मां की मृत्यु पचास साल की उम्र में हो गई थी और उनके छोटे भाई की मृत्यु तीस की उम्र में हो गई. उन्होंने कहा, "सभी के शरीर पर घाव और धब्बे थे, सभी को पाचन, सांस लेने और लीवर संबंधी समस्याएं थीं." परिवार के लिए स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच कठिन हो गई थी. शशि ने बताया, "जब दिन में दो वक्त का खाना मिलना मुश्किल है तो हम इलाज कैसे कराएंगे? लेकिन मैं कहूंगा कि तीनों मौतें आर्सेनिक के कारण हुईं, क्योंकि वे हमारे क्षेत्र में होने वाली अन्य मौतों की तरह ही हैं."
2019 में उस दिन मेरी मुलाकात एक अधेड़ उम्र की महिला उषा देवी से भी हुई थी, जो चलने, सोने, अपने हाथों से खाने या भोजन को पचाने में असमर्थ थी. वह हाइपरकेराटोसिस से पीड़ित थी. उनकी पीठ पर भी उभार था, जो आर्सेनिकोसिस का एक लक्षण था. उनके पति सुधाकर यादव उन्हें पीठ पर लादकर बैठक तक लाए. उन्हें उम्मीद थी कि वह ठीक हो सकती हैं. जब मैं 2021 में फिर से तिवारीटोला गया, तो मुझे पता चला कि उनकी मृत्यु हो गई है.
इस बीच, तारकेश्वर को लीवर सिरोसिस हो गया था. जब मैं उनसे आखिरी बार मिला था तब से उनका वजन काफी कम हो गया था. अपने बिस्तर पर बैठे हुए, उन्होंने मुझे बताया कि उनके माता-पिता की मृत्यु आर्सेनिक विषाक्तता के लक्षणों के कारण हुई थी. उन्होंने दुःख और विश्वासघात की भावना व्यक्त की कि राज्य में उनकी पार्टी के सत्ता में होने के बावजूद, कोई राहत नहीं मिली. फिर भी, वह अपनी बीमारी की गंभीरता से अनभिज्ञ लग रहे थे, उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वह अपने जीवन के अंतिम चरण में हैं. फरवरी 2022 में उनका निधन हो गया.
मैंने लगभग चार वर्षों तक बलिया में यात्रा की और ऐसे लोगों से मिला जो स्पष्ट रूप से आर्सेनिक विषाक्तता के प्रभाव से पीड़ित थे. जो सामने आया वह राष्ट्रीय निहितार्थों वाला एक चिंताजनक और एक सार्वजनिक-स्वास्थ्य संकट था. विषय लोककथा जैसा था; हर किसी के पास बताने के लिए अपनी एक कहानी थी. उन्होंने घाव, त्वचा में झाइयां, त्वचा कैंसर, सांस लेने में कठिनाई, हृदय की समस्याएं, यकृत की समस्याएं, गुर्दे की समस्याएं, टूटे दांत और नाखूनों जैसी बीमारियों के बारे में बात की - ये सभी उचित स्तर से अधिक आर्सेनिक के लंबे समय तक सेवन के लक्षण हैं. गांव की सभाओं, स्थानीय चाय की दुकानों और पेड़ों की छाया के नीचे, लोग असहाय होकर अपने या अपने परिचित लोगों के मामले सुनाते थे. कई लोगों ने मौतों के बारे में भी बात की, जो कपिल की तरह लंबी बीमारियों के बाद हुई, जो लंबे समय तक आर्सेनिक के कारण हुए प्रभावों से मेल खाती थीं.
आर्सेनिक पहली बार दो दशक पहले बलिया जिले के भूजल में पाया गया था और इसके मामले नियमित रूप से बढ़ते रहे हैं. डब्ल्यूएचओ के अनुसार पीने के पानी में आर्सेनिक की स्वीकार्य सीमा दस भाग प्रति बिलियन है. लेकिन सरकार और स्वतंत्र शोधकर्ताओं द्वारा बलिया जिले के कई क्षेत्रों में बार-बार जांच करने पर आर्सेनिक का स्तर बहुत अधिक और कई जगहों पर सामान्य स्तर से पचास गुना तक भी होने का पता चला है.
जिन गांवों का मैंने दौरा किया उनमें से कई ऐसे ब्लॉकों में हैं जिन्हें सरकार ने आधिकारिक तौर पर आर्सेनिक से दूषित होने की मान्यता दी है. बलिया जल निगम की 2018 की रिपोर्ट में कहा गया है कि बलिया के 17 ब्लॉकों में से 12 में आर्सेनिक का स्तर डब्ल्यूएचओ की सीमा से काफी ऊपर है. आर्सेनिक प्रदूषण पर व्यापक काम करने वाले लखनऊ के बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय में पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर वेंकटेश दत्ता ने एक और अधिक चिंताजनक आंकड़ा दिया. हाल ही में नदी पुनर्स्थापन और जल संरक्षण में उनके काम के लिए मुख्यमंत्री, आदित्यनाथ द्वारा सम्मानित किए गए दत्ता ने जिले के सभी ब्लॉकों में आर्सेनिक की मात्रा पंद्रह पार्ट्स प्रति बिलियन से अधिक पाई थी, जो कुछ क्षेत्रों में 820 पार्ट्स प्रति बिलियन तक पहुंच गई थी. उन्होंने बताया, "सभी 17 प्रशासनिक ब्लॉकों में संदूषण है. और यह जिले के पूर्वी हिस्से की ओर अधिक व्यापक है. प्रत्येक सर्वेक्षण के साथ अधिक से अधिक आर्सेनिक प्रभावित क्षेत्रों का पता लगाया जा रहा है." दत्ता ने कहा कि बलिया जिले में आर्सेनिक-दूषित भूजल से लगभग 23 लाख लोगों को खतरा हो सकता है.
फिर भी राष्ट्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर विभिन्न दलों की सरकारें इस मुद्दे को संतोषजनक ढंग से हल करने में विफल रही हैं. ऐसा विशेषज्ञों की सलाह की कमी या प्रभावी शमन उपायों की कमी के कारण नहीं था, जिनमें से कई विश्व स्तर पर लागू हैं. मामला केवल असंगतता, उदासीनता और लापरवाही का है. 2019 की बैठक बुलाने वाले कार्यकर्ता विनोद सिंह एक स्थानीय कांग्रेस नेता हैं, जो बलिया के आर्सेनिक संकट पर आगाह कर रहे हैं. उन्होंने अनुमान लगाया कि हाल के वर्षों में अकेले तिवारीटोला में आर्सेनिक संबंधी स्थितियों के कारण कम से कम बीस लोगों की मौत हो गई है. “अगर प्रशासन ठीक से काम करता तो कई लोगों को बचाया जा सकता था. समस्या यह है कि वे जमीनी हकीकत को नहीं समझते हैं. सरकार और प्रशासन यह मानने को तैयार नहीं है कि इलाके में आर्सेनिक के कारण मौतें हुई हैं."
इस एक जिले की कहानी उभरते राष्ट्रीय संकट का एक संकेत है. उत्तर प्रदेश के कम से कम चालीस जिलों के भूजल में आर्सेनिक का खतरनाक स्तर पाया गया है. यह समस्या गंगा नदी के किनारे व्यापक रूप से दिखाई देती है, विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार सहित मध्य गंगा के मैदानी इलाकों में. एक शोध पत्र में कहा गया है कि उत्तर प्रदेश की लगभग बारह प्रतिशत आबादी यानी लगभग 2.4 करोड़ लोगों को आर्सेनिक के संपर्क में आने का खतरा है.
वर्ष 2014 में वरिष्ठ बीजेपी नेता मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली एक समिति द्वारा तैयार की एक सरकारी रिपोर्ट में पाया गया कि 12 राज्यों के 96 जिलों के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा अधिक थी. इनमें से लगभग एक तिहाई जिलों की जांच से पता चला कि 7.04 करोड़ लोग आर्सेनिक-दूषित पानी के संपर्क में हैं. समिति की रिपोर्ट में कहा गया है, "यदि सभी 96 जिलों में प्रभावित लोगों के बारे में डेटा एकत्र किया जाए तो यह आंकड़ा बहुत अधिक होगा." इसमें आर्सेनिक के कारण होने वाली मौतों की संभावना को भी स्वीकार किया गया. "एक विशेषज्ञ के अनुसार, आर्सेनिक विषाक्तता के कारण बीमारी से 2 से 3 लाख पुष्ट मामले और एक लाख से अधिक मौतें होती हैं." 2022 में एक सरकारी प्रेस विज्ञप्ति में और भी अधिक बड़ा आंकड़ा बताया गया जिसमें 21 राज्यों में 152 प्रभावित जिले हैं. लेकिन कई शोधकर्ताओं ने मुझे बताया कि व्यापक मानचित्रण और डेटा संग्रह के अभाव में भारत में आर्सेनिक संदूषण की सही तस्वीर अभी तक सामने नहीं आई है. उनके अनुभव से पता चलता है कि मौजूदा स्थिति इन आंकड़ों से भी बदतर है.
ग्रामीण भारत को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने के लिए नरेन्द्र मोदी सरकार के कथित जोर-शोर और प्रचार के बाद बलिया में संकट और भी अधिक गंभीर हो गया है. सरकारी थिंक टैंक, नीति आयोग के अनुसार भारत का सत्तर प्रतिशत पानी दूषित है, जिससे 60 करोड़ लोगों के लिए गंभीर जल संकट पैदा हो गया है. यह अनुमान लगाया गया है कि साफ पानी की अपर्याप्त पहुंच के कारण हर साल लगभग दो लाख लोग मर जाते हैं.
15 अगस्त 2019 को मोदी सरकार ने जल जीवन मिशन शुरू किया, जिसका लक्ष्य 2024 तक "ग्रामीण भारत के सभी घरों में व्यक्तिगत घरेलू नल कनेक्शन के माध्यम से साफ और पर्याप्त पेयजल" उपलब्ध कराना है. इससे पहले, पेयजल और स्वच्छता विभाग ने 2017 में राष्ट्रीय जल गुणवत्ता उप-मिशन शुरू किया था, जिसका लक्ष्य "देश में 27,544 आर्सेनिक/फ्लोराइड प्रभावित ग्रामीण बस्तियों को साफ पेयजल उपलब्ध कराना" था. इस उप-मिशन को जेजेएम के तहत शामिल किया गया था. पांच साल बाद भी बलिया में किसी भी मिशन का कोई नतीजा जमीनी स्तर पर नहीं दिख रहा है.
भारत के भूजल में आर्सेनिक संदूषण का जिक्र पहली बार 1983 में पश्चिम बंगाल में एक रिपोर्ट किया गया था. उत्तर प्रदेश में इसकी मौजूदगी दो दशक बाद ही सामने आनी शुरू हुई. आर्सेनिक का पता सबसे पहले 2003 में बलिया जिले में दीपांकर चक्रवर्ती द्वारा लगाया गया था, जो तब कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय में पर्यावरण अध्ययन स्कूल के निदेशक थे. उनकी टीम ने पाया कि बलिया के 55 गांवों के भूजल में आर्सेनिक पचास से दो सौ भाग प्रति बिलियन के बीच है - जो डब्ल्यूएचओ के मानक से कहीं अधिक है.
लेकिन बलिया में आर्सेनिक का मुद्दा 2004 में एक महत्वपूर्ण मामले के साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर सामने आया था. उसी वर्ष जून में बलिया के मूल निवासी और भारतीय सेना के सेवानिवृत्त शिक्षक दीनानाथ सिंह, चिकित्सा सलाह के लिए दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान गए. उनके मामले के निष्कर्षों ने डॉक्टरों को चिंतित कर दिया, जिनमें से एक डॉक्टर ने सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट द्वारा प्रकाशित एक पत्रिका डाउन टू अर्थ को मामले के बारे में बताया.
डाउन टू अर्थ ने अगले लेख में बताया, "दीनानाथ सिंह के बाएं पैर में कैंसर का घाव है, जिससे लगातार खून और मवाद बहता रहता है. उनके पूरे शरीर पर काले और सफेद धब्बे (घाव) हैं. 61 वर्षीय यह व्यक्ति त्वचा कैंसर से भी पीड़ित हैं. उनके बाएं हाथ की दो अंगुलियों में अल्सर हो गया और उन्हें काटना पड़ा. उनकी बीमारियां कई हैं, लेकिन कारण एक है : आर्सेनिक.” कहानी में घटनाओं का एक खतरनाक क्रम प्रस्तुत किया गया है. दीनानाथ की रिपोर्ट पढ़ने के दौरान एम्स में त्वचाविज्ञान की प्रोफेसर नीना खन्ना और उनके सहयोगी अमित मल्होत्रा को एक चौंकाने वाली जानकारी मिली. लेख में कहा गया है, "12 मई 2004 की एक खून की जांच रिपोर्ट से पता चला है कि दीनानाथ में 34.40 भाग प्रति बिलियन (पीपीबी) आर्सेनिक था, जबकि अधिकतम सीमा मात्र 1-4 पीपीबी है."
खन्ना को एहसास हुआ कि रक्त में आर्सेनिक का इतना उच्च स्तर केवल लंबे समय तक संपर्क में रहने से ही संभव हो सकता है. लेख में आगे कहा गया, "वह विशेष रूप से परेशान थी, क्योंकि दीनानाथ बलिया से थे, जहां भूजल में आर्सेनिक संदूषण की पूरी जानकारी नहीं थी. चिंतित होकर उन्होंने डाउन टू अर्थ को फोन किया. वह जानना चाहती थी कि मरीज की भयानक बीमारी का संभावित कारण क्या हो सकता है. उन्होंने कहा, ‘उन्होंने पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में आर्सेनिक के बारे में सुना था. 'लेकिन वह बलिया से है.’”
उस समय बलिया में आर्सेनिक के बारे में अधिक जांच नहीं की गई थी. डॉक्टर के फोन के बाद डाउन टू अर्थ ने आगे की जांच करने का फैसला किया. दीनानाथ ने दावा किया कि इसका कारण वह हैंडपंप का पानी था जो वह पी रहे थे, लेकिन इसके अलावा भी अधिक सबूत की आवश्यकता थी. डाउन टू अर्थ ने दीनानाथ के बेटे अशोक का खून का नमूना जांच के लिए भेजा. नतीजे भी उतने ही चौंकाने वाले थे- अशोक के खून में प्रति अरब 34.5 भाग आर्सेनिक था. हैरान होकर, डाउन टू अर्थ ने इस क्षेत्र की यात्रा करने का फैसला किया और बलिया शहर से लगभग सोलह किलोमीटर दूर दीनानाथ के गांव, एकावना राजपुर का दौरा किया.
डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट में कहा गया है, "एक के बाद एक हर घर के पास बताने के लिए एक ही भयानक कहानी थी. जिन 100 लोगों से संपर्क किया गया था सभी की त्वचा पर घाव थे जिसे मेलानोसिस कहा जाता है, (आर्सेनिकोसिस का पहला चरण); कुछ मामलों में उनकी हथेलियों और पैरों की त्वचा खुरदरी, सूखी और मोटी हो गई थी जो केराटोसिस का दूसरा चरण है और कुछ को सांस लेने में कठिनाई हो रही थी: डॉक्टरों का कहना है कि यह बीमारी का तीसरा चरण है.
पत्रकारों के आस-पास के गांवों के दौरे से पता चला कि पूरे क्षेत्र में बीमारी अच्छी तरह से फैली हुई थी. उन्होंने लिखा, "इन सभी गांवों में लोग आर्सेनिकोसिस के विभिन्न चरणों से पीड़ित थे." इन सभी गांवों में एक बात सामान्य था. लोग पीने के पानी के लिए हैंडपंपों पर निर्भर थे.” लेख ने निष्कर्ष निकाला : "यह वास्तव में हैंडपंप ही है, जो जमीनी स्तर से 27-36 मीटर की गहराई से पानी खींचता है, जिसने आर्सेनिक को उनके जीवन में ला दिया है."
डाउन टू अर्थ ने दीनानाथ के हैंडपंप से पानी के नमूने और दो अन्य आर्सेनिकोसिस से पीड़ित लोगों द्वारा इस्तेमाल किए गए हैंडपंप से पानी के नमूने फिर परीक्षण के लिए भेजे. उन्होंने नाखून और बाल के नमूने भी एकत्र किए. परिणामों में आर्सेनिक की उच्च मात्रा की उपस्थिति की पुष्टि हुई. लेख में कहा गया है, "दीनानाथ के हैंडपंप में प्रति अरब 73 भाग आर्सेनिक है, सामान्य सीमा से सात गुना अधिक. हालांकि रिपोर्ट के लिए साक्षात्कार किए गए अधिकारियों ने इस बात से इनकार किया कि क्षेत्र में कोई आर्सेनिक संदूषण था. उस समय के जिला मजिस्ट्रेट विनोद कुमार मलिक ने प्रकाशन को बताया, "संभावना है कि त्वचा की यह समस्या पार्थेनियम नामक खरपतवार के कारण है, जिससे पूरा जिला परेशान है." आखिर में लेख में एक संभावित रास्ता बताया गया है. इसमें कहा गया, "सरकार को सबसे पहले यह स्वीकार करना चाहिए कि आर्सेनिक की समस्या पश्चिम बंगाल से भी आगे तक फैली हुई है." उन्हें इसकी सीमा का नक्शा बनाना शुरू करना चाहिए, हैंडपंपों को चिह्नित करना चाहिए, लोगों को सूचित करना चाहिए ताकि वे जहरीले पेयजल के विकल्प सुरक्षित कर सकें. यह बहुत बड़ा काम है. लेकिन यह असंभव नहीं है. हो सकता है दीनानाथ की एम्स की अकेली यात्रा यह सब बदल देगी. शायद."
डाउन टू अर्थ रिपोर्ट ने हलचल पैदा कर दी और बलिया ने वैज्ञानिक और अकादमिक लोगों का ध्यान खींचा. लेकिन आधिकारियों की प्रतिक्रिया वैसी ही थी जैसी अनुमान लगाया गया था. बलिया के मुख्य चिकित्सा अधिकारी और जिला मजिस्ट्रेट ने अफवाह फैलाने के लिए विज्ञान और पर्यावरण केंद्र के खिलाफ मामला दर्ज किया. हालांकि, स्थानीय प्रशासन ने इसके साथ ही प्रभावित क्षेत्रों में पानी के नमूनों का परीक्षण शुरू कर दिया.
2004 में प्रशासन ने आर्सेनिक टास्क फोर्स नामक एक समूह का गठन किया, जिसने सीमा स्तर से अधिक आर्सेनिक की उपस्थिति की पुष्टि की. स्थानीय कार्यकर्ताओं के अनुसार समय-समय पर इस मुद्दे को देखने के लिए पंचायत स्तर पर टीमें भी गठित की गईं. कुछ मामलों में जहां अनुमेय स्तर से अधिक आर्सेनिक पाया गया, प्रशासन ने समुदाय से उस पानी का उपयोग न करने के लिए कहा और उन्हें आश्वासन दिया कि उसकी जगह बोरिंग के पानी की व्यवस्था की जाएगी. उसके बाद के दो दशकों में, समिति, परीक्षण, कुछ अनुशंसित समाधान की यह प्रक्रिया कई बार दोहराई गई.
2011 में केंद्र सरकार ने भी हस्तक्षेप किया. पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने बलिया जिले में आर्सेनिक संदूषण के मुद्दे की जांच के लिए एक केंद्रीय टीम का गठन किया. यह उस समय इस मुद्दे पर सबसे उच्च-स्तरीय जांचों में से एक थी. समिति ने समस्या का समग्रता में अध्ययन करने और बलिया के साथ-साथ राज्य के अन्य प्रभावित क्षेत्रों में आर्सेनिक मुक्त पानी उपलब्ध कराने के लिए राज्य सरकार को एक रोडमैप प्रदान करने का फैसला किया.
टीम में केंद्रीय पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के साथ-साथ इंजीनियरिंग और विष विज्ञान के शीर्ष भारतीय संस्थानों के प्रतिनिधि थे. केंद्रीय भूजल बोर्ड के लखनऊ कार्यालय और उत्तर प्रदेश जल निगम ने भी इस काम में सहयोग किया. इसने सितंबर 2011 में बलिया जिले में क्षेत्रीय दौरे किए और बाद में उत्तर प्रदेश सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठक की.
सुदामा पांडे ने कहा, "एक पिता के लिए अपने बेटे को जल्दी खो देने से ज्यादा दर्दनाक क्या हो सकता है?" हमारे साथ सरकारों, प्रतिनिधियों और उन लोगों ने धोखा किया है जो कई बार नमूने लेने के लिए यहां आए थे. जिसकी परिणाम शून्य है और अब हमने किसी के साथ कुछ भी साझा करने में रुचि खो दी है. बलिया जिले में ग्रामीण पानी की पूर्ति के लिए कुओं, निजी हैंडपंपों और सरकार द्वारा स्थापित सामुदायिक पंप, जिन्हें इंडिया मार्क II पंप कहा जाता है, पर निर्भर हैं. यह सभी स्रोत कम गहराई के भूजल का उपयोग करते हैं. अपनी रिपोर्ट में टीम ने स्पष्ट रूप से कहा कि "बलिया जिले के कुछ हिस्सों में इस पानी में सीमा से ऊपर आर्सेनिक पाया जाता है."
रिपोर्ट में कहा गया है कि सीजीडब्ल्यूबी ने बलिया जिले के बेलहरी और बैरिया ब्लॉक में भूजल का विस्तृत नमूनाकरण और विश्लेषण किया था. खोदे गए कुओं, निजी हैंडपंपों और इंडिया मार्क II पंपों से एकत्र किए गए बृहत्तर नमूनों का सीजीडब्ल्यूबी की लखनऊ प्रयोगशाला में विश्लेषण किया गया था. परिणामों में आर्सेनिक सांद्रता 1,310 भाग प्रति बिलियन तक पाई गई. रिपोर्ट में कहा गया है, ''52 नमूनों में आर्सेनिक की मात्रा 50 पीपीबी से ऊपर रही है." इसने संभावित स्वास्थ्य प्रभावों को भी स्वीकार किया. "भूजल में आर्सेनिक की अधिकता के कारण लोगों के त्वचा कैंसर, अल्सर और त्वचा में झाइयां और हथेली की त्वचा सख्त होने जैसी बीमारियों से पीड़ित होने की सूचना है."
इसके बाद समिति ने एक कार्य योजना की रूपरेखा तैयार की. इसने सरकार से आर्सेनिक टास्क फोर्स को फिर से काम पर लग जाने के लिए कहा. इसने जल निगम को सभी पेयजल स्रोतों का 100% परीक्षण करने और उन सभी जल स्रोतों को लाल रंग से चिह्नित करने के लिए भी कहा जहां प्रदूषण पाया गया था. समिति ने यह भी सिफारिश की कि डब्ल्यूएचओ के प्रति बिलियन दस भागों के मानक को अधिकतम स्वीकार्य स्तर के रूप में उपयोग किया जाए.
इसने सार्वजनिक सूचना और संचार की जरूरत पर जोर दिया. रिपोर्ट में कहा गया है, "लगभग सभी घरों में कम गहराई से पानी खींचने वाले हैंडपंप पाए जाते हैं और लोग दूषित पेयजल का सेवन कर रहे हैं. लोगों को दुष्प्रभावों के बारे में सूचित करने और केवल सुरक्षित पानी का उपभोग करने के लिए एक अच्छी तरह से तैयार किया गया जागरूकता अभियान तुरंत शुरू किया जाना चाहिए, भले ही वर्तमान में पानी स्रोत थोड़ा दूर हो." इसने सिफारिश की कि निवासियों को छोटी परीक्षण किटों का उपयोग करके स्वयं पीने के पानी की गुणवत्ता का परीक्षण करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए." चूंकि आर्सेनिक फ़ील्ड परीक्षण किट एक स्टैंड-अलोन प्रणाली है, इसलिए इन्हें ब्लॉक स्तर पर पर्याप्त संख्या में उपलब्ध कराया जा सकता है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि क्षेत्र के डॉक्टरों को बेहतर प्रशिक्षण की जरूरत है. "सीएमओ सहित चिकित्सा डॉक्टरों ने स्वीकार किया कि उनके पास आर्सेनिकोसिस का निदान करने की क्षमता नहीं है." इसने सिफारिश की कि सभी सरकारी डॉक्टरों को और यदि संभव हो तो, चुनिंदा निजी डॉक्टरों को, व्यापक प्रशिक्षण दिया जाए. आर्सेनिक संदूषण के स्वास्थ्य प्रभाव स्पष्ट रूप से इतने व्यापक थे कि समिति ने आर्सेनिकोसिस के इलाज के लिए जिला अस्पताल में एक अलग विभाग की सिफारिश की.
बाद के वर्षों में इनमें से केवल कुछ महत्वाकांक्षी सिफ़ारिशों को ही लागू किया गया, वह भी बहुत कम सफलता के साथ. मैंने आर्सेनिक टास्क फोर्स के पूर्व सदस्य और उत्तर प्रदेश जल निगम के पूर्व वरिष्ठ हाइड्रोजियोलॉजिस्ट आरएस सिन्हा से बात की.
उन्होंने बताया, "एटीएफ को क्षेत्र में समस्याओं को पहचानने के लिए बेहतर और प्रभावी तरीकों को पहचानने के लिए बनाया गया था, लेकिन समय के साथ यह खत्म हो गया. अपने चालीस साल के करियर में मैंने पानी से संबंधित मुद्दों पर लगभग पचास से साठ समितियां देखी हैं जो आईं और चली गईं और खत्म हो गईं." जमीन पर कुछ खास बदलाव नहीं आया. सिन्हा ने कहा, प्रभावी समाधान के लिए जो निरंतर कार्य आवश्यक था, वह कभी नहीं किया गया.
सिन्हा ने एक प्रमुख मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित किया जो आर्सेनिक को नियंत्रित करने के लिए की गई कोशिशों का केंद्र था लेकिन सरकार द्वारा इसकी उपेक्षा की गई थी. वर्षों से भारतीय मानक ब्यूरो ने भूजल में आर्सेनिक के लिए सख्त मानक नहीं बनाए थे, जबकि डब्ल्यूएचओ की सीमा बहुत पहले बन चुकी थी. बीआईएस ने भूजल में आर्सेनिक की सामान्य सीमा डब्ल्यूएचओ मानक के आधार पर दस भाग प्रति बिलियन निर्धारित की है, लेकिन उन क्षेत्रों में जहां वैकल्पिक स्रोत उपलब्ध नहीं थे, अधिकतम अनुमेय स्तर को 50 भाग प्रति बिलियन तय किया है. सिन्हा ने बताया, "पीने योग्य साफ पानी की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए, डब्ल्यूएचओ मानदंड को दस पीपीबी रखा गया था, लेकिन आर्सेनिक प्रभावित क्षेत्रों में पीने योग्य पानी की आपूर्ति शत-प्रतिशत दर्शाने के लिए स्वीकार्य मानक को 50 पीपीबी रखा गया.” इस कारण उन क्षेत्रों को सुरक्षित पानी प्राप्त नहीं हो सका, जिनमें प्रति अरब दस से पचास भागों के बीच विषाक्तता का स्तर है, जिससे स्वास्थ्य पर भारी प्रभाव पड़ता है.
सरकार ने 2015 में वांछनीय और उचित मानकों को बदलकर दस भाग प्रति बिलियन कर दिया. सिन्हा ने मुझे बताया, "पेयजल एजेंसियों के इस खराब दृष्टिकोण ने अंततः आर्सेनिक दूषित पानी के लगातार सेवन के कारण एक बड़ी आबादी को कई स्वास्थ्य समस्याओं से प्रभावित किया, जो स्पष्ट रूप से अज्ञानता का मामला है." वेंकटेश दत्ता ने बताया, "सभी 17 प्रशासनिक ब्लॉकों में प्रदूषण है. प्रत्येक सर्वेक्षण में अधिक से अधिक आर्सेनिक प्रभावित क्षेत्रों का दस्तावेजीकरण किया जा रहा है."
2011 की रिपोर्ट के एक दशक से भी अधिक समय बाद स्वास्थ्य प्रणाली अप्रभावी बनी हुई है. पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के साथ काम कर चुके एक सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ वीआर रमन ने 2022 में बलिया का दौरा किया था. दौरे के बाद मैंने उनसे स्थिति पर उनके विचार जानने के लिए संपर्क किया. रमन ने गंगापुर के निवासियों से मुलाकात की और स्थानीय स्वास्थ्य सुविधाओं का भी जायजा लिया. उनकी टिप्पणियां निराशाजनक थीं. उन्होंने मुझे बताया, “जिला अस्पताल में उपलब्ध तकनीक और सेवाएं इस समस्या से निपटने के लिए काफी नहीं थीं. डॉक्टरों और अस्पताल के सहायक कर्मचारियों के पास मामले पर प्रशिक्षण और समझ नहीं थी ताकि वे सफल मामले की पहचान और प्रबंधन कर सकें. इस मुद्दे पर कोई विशेष जागरूकता कार्यक्रम भी नहीं चल रहा था ना ही योजना बनाई गई थी. इस तरह के मुद्दे को जिला स्वास्थ्य योजना में कैसे शामिल किया जाए और पर्याप्त बजट का लाभ कैसे उठाया जाए, यह कुछ ऐसी चीजें थी जिसका जिला स्वास्थ्य विभाग को ना तो पता था ना ही इस पर विचार नहीं किया गया था."
मैं जिन बलिया निवासियों से मिला, वे कई अध्ययनों और समितियों से थक चुके थे, जिनसे कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ. जब मैंने सुदामा पांडे से इस मुद्दे के बारे में पूछा तो वे भड़क उठे, उनकी उम्र करीब साठ के आसपास है. उन्होंने कहा, "मैंने अपना बेटा खो दिया जो बीस साल का था. मैंने अपनी पत्नी को भी खो दिया. दोनों मौतें आर्सेनिक के कारण हुई हैं. वह गांव से दूर रहता था और दूषित पानी के प्रभाव से बच गया था. एक पिता के लिए अपने बेटे को जल्दी खो देने से ज्यादा दर्दनाक क्या हो सकता है? हमें सरकारों, प्रतिनिधियों और यहां कई बार सैंपल लेने आए लोगों ने धोखा दिया है. आउटपुट शून्य है और अब हमें किसी के साथ कुछ भी साझा करने में रुचि नहीं है.”
शोधकर्ताओं और चिकित्सा विशेषज्ञों के साथ मेरी सभी बातचीत में, पीने के पानी के स्रोतों का व्यापक परीक्षण आर्सेनिक के खिलाफ सबसे महत्वपूर्ण शमन और रोकथाम रणनीति के रूप में उभरा. विशेषज्ञों ने लगातार इस बात पर प्रकाश डाला है कि रोकथाम के छोटे से छोटे उपाय भी आबादी का जीवन बचा सकते हैं. दिल्ली में टीईआरआई स्कूल ऑफ एडवांस्ड स्टडीज के एसोसिएट प्रोफेसर चंदर कुमार सिंह ने उत्तर प्रदेश और बिहार में गंगा नदी के पार के गांवों में आर्सेनिक मुद्दे पर बड़े पैमाने पर काम किया है. उन्होंने मुझे बताया, "दुनिया भर के अध्ययनों से पता चलता है कि व्यापक परीक्षण अभियानों के माध्यम से क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिए. दो कुएं एक मीटर की दूरी पर हैं, इनमें से एक में आर्सेनिक हो सकता है और दूसरे में नहीं."
चंदर ने बांग्लादेश का उदाहरण दिया, जहां लगभग 50 लाख कुओं का परीक्षण फील्ड किट के साथ किया गया था. उन्होंने मुझे बताया, "क्षेत्र में अलग-अलग परिवारों को प्रदान किए गए परिणामों से लगभग 1 करोड़ ग्रामीणों, जो प्रभावित आबादी का एक तिहाई है, को पास के कुएं तक जाना पड़ा, जिसमें आर्सेनिक की मात्रा कम थी." उन्होंने कहा कि पड़ोसी के कुएं से पानी लाने या किसी दूर स्थित जल स्रोत तक जाने के लिए लोगों को अधिक समय लगता है और इसका सामाजिक प्रभाव भी हो सकता है. यहां पर पर्याप्त जानकारी साझा करना और जागरूकता अभियान चलाना एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. उन्होंने कहा, बांग्लादेश में उठाया गया दूसरा महत्वपूर्ण कदम है कई सौ हजार गहरे कुओं का निर्माण करना जो गहरे होते हैं और उनमें अक्सर आर्सेनिक की मात्रा कम होती है.
चंदर ने कहा, "दुर्भाग्य से पंजाब, पश्चिम बंगाल और बिहार के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर, भारत में व्यापक परीक्षण अभियान कभी नहीं हुआ. प्रभावित क्षेत्रों में केवल सरकार द्वारा स्थापित हैंडपंपों और कुओं का परीक्षण किया गया था और उन्हें लाल रंग से चिह्नित किया गया था. यूपी और बिहार के कई इलाकों में जागरूकता अभियान भी चलाए गए. हालांकि, सभी अभियान प्रभाव दिखाने में विफल रहे क्योंकि वे बेअसर थे और बहुत कम समय के लिए चले थे.”
कोलंबिया विश्वविद्यालय में लामोंट-डोहर्टी अर्थ ऑब्जर्वेटरी के प्रोफेसर अलेक्जेंडर वैन गीन ने बांग्लादेश में आर्सेनिक समस्या पर बड़े पैमाने पर काम किया है. उन्होंने मुझे लिखा, "मुख्य बात जानकारी है और इसलिए परीक्षण करना है - ताकि सुरक्षित कुओं को साझा किया जा सके।" “सबसे महत्वपूर्ण उपाय कम आर्सेनिक वाले कुएं पर स्विच करके जोखिम को कम करना है. यह अक्सर केवल परीक्षण और जानकारी साझा करने से ही संभव होता है. सरकार को यही करना चाहिए.” गीन ने बांग्लादेश का भी हवाला दिया और कहा कि वहां की सरकार एक दशक में दूसरी बार फील्ड किट के साथ आर्सेनिक के लिए 8 मिलियन कुओं का परीक्षण कर रही है.
भारत में विशेषज्ञों ने एक और बात पर व्यापक रूप से एक राय जताई थी कि सरकारी दिशानिर्देश के अनुसार साल में कम से कम दो बार आर्सेनिक क्षेत्रों में जल स्रोतों का नियमित रूप से परीक्षण किया जाना चाहिए क्योंकि संदूषण किसी भी बिंदु पर हो सकता है. हालांकि, निवासियों और कार्यकर्ताओं के साथ मेरी बातचीत से पता चला कि बलिया जिले में अर्धवार्षिक परीक्षण भी नहीं किया गया था. परीक्षण चयनात्मक और प्रायः मनमाने तरीके से होता था. आज तक, बलिया प्रशासन ने यह स्वीकार नहीं किया है कि जिले में आर्सेनिक के कारण कोई मौत हुई है.
सरकार द्वारा प्रदान किए गए सामुदायिक पंपों और निवासियों द्वारा स्वयं स्थापित किए गए निजी पंपों में से केवल चुनिंदा सरकारी पंपों का ही परीक्षण किया गया है. 2018 बलिया जल निगम की रिपोर्ट में कहा गया है कि बलिया के 17 विकास खंडों में से 12 ब्लॉकों के 310 इलाकों में हैंडपंपों में आर्सेनिक का स्तर पचास भाग प्रति बिलियन से अधिक पाया गया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि इन गांवों में 2912 इंडिया मार्क II पंपों का परीक्षण किया गया. इनमें से 1127 को लाल रंग से चिह्नित किया गया क्योंकि पानी में प्रति बिलियन पचास भाग से अधिक आर्सेनिक था - इनमें से कुछ बेलहारी ब्लॉक में प्रति बिलियन पांच सौ भाग तक आर्सेनिक होने की सूचना मिली थी.
मुझे ऐसे कई उदाहरण मिले जहां इंडिया मार्क II हैंडपंपों पर लाल रंग और पीने के लिए उपयुक्त नहीं होने का निशान लगाया गया था. फिर भी आश्चर्यजनक रूप से निवासियों ने उनका उपयोग जारी रखा. क्योंकि या तो उन्हें लाल निशान का मतलब पता नहीं था या वे साफ पानी का स्त्रोत ढूंढने में असमर्थ थे. इसके अलावा संभावित आर्सेनिक युक्त पानी वाले कई हैंडपंपों का अभी तक परीक्षण नहीं किया गया था ना ही उन्हें लाल रंग से चिह्नित किया गया था. अन्य मामलों में लाल निशान लगभग फीका पड़ गया था. तिवारीटोला के कार्यकर्ता विनोद ने कहा, "कोई निगरानी नहीं करता, कोई जांच नहीं होती और स्वच्छ, आर्सेनिक मुक्त पानी की कोई उपलब्धता नहीं है. लोग अपने घरेलू हैंडपंप से आसानी से मिलने वाला पानी पीने को मजबूर हैं. वहां आर्सेनिक हो भी सकता है या नहीं भी हो सकता.”
मैंने पाया कि आर्सेनिक प्रभावित ब्लॉकों में स्कूली बच्चे भी स्कूल परिसर के भीतर पीने के लिए संभावित रूप से असुरक्षित हैंडपंप के पानी का उपयोग कर रहे थे. उदाहरण के लिए, बलिया के मुरली छपरा ब्लॉक के सोनबरसा प्राथमिक विद्यालय में एक इंडिया मार्क II हैंडपंप का उपयोग किया जा रहा था. इस ब्लॉक को 2018 की रिपोर्ट में भूजल में उच्च आर्सेनिक स्तर वाले क्षेत्रों में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया गया है. लेकिन हैंडपंप पर कोई लाल निशान नहीं था. प्रधानाध्यापक तरुण दुबे ने पुष्टि की कि अप्रैल 2018 में उनके कार्यभार संभालने के बाद से किसी भी सार्वजनिक एजेंसी ने स्कूल में पानी का परीक्षण नहीं किया है. गैर-लाभकारी संगठन इनर वॉयस फाउंडेशन द्वारा किए गए एक परीक्षण में पाया गया कि पानी प्रति अरब पांच सौ भाग आर्सेनिक से दूषित है, जो अनुमेय स्तर से पचास गुना अधिक है.
दुबे ने कहा कि छात्र स्कूल परिसर के अंदर सरकारी हैंडपंप और निजी हैंडपंप दोनों के पानी का उपयोग करते हैं. उन्होंने बताया, "हम अपने आप कुछ नहीं कर सकते क्योंकि पानी की गुणवत्ता का परीक्षण करने और बच्चों पर स्वास्थ्य प्रभाव की जांच करने के लिए संसाधनों की कमी है. हम सिर्फ प्रशासन को पत्र लिख सकते है, जो मैंने लिखे. लेकिन मेरे पत्रों का कोई जवाब नहीं आया.”
जिन-जिन स्कूलों में मैं गया, वहां कहानी एक जैसी थी. मुरली छपरा के शोभा छपरा स्कूल में प्रधानाध्यापक जनार्दन राम को हैंडपंप के पानी की गुणवत्ता के बारे में जानकारी नहीं थी और उन्होंने कहा कि बच्चों को सुरक्षित पानी उपलब्ध कराने के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई है. उन्हें डर था कि यह दूषित हो सकता है, लेकिन कोई अन्य विकल्प उपलब्ध नहीं था.
कुछ हैंडपंपों पर लाल निशान लगाने के अलावा, स्थानीय प्रशासन ने दो अन्य चीजें करने की कोशिश की थी: गहरे जलभृत पानी का उपयोग करने वाले ओवरहेड टैंकों को चालू करना और आर्सेनिक-हटाने वाली इकाइयों को स्थापित करना. दोनों का जमीनी स्तर पर अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ा है. जिन अधिकारियों से मैंने बात की उनके अनुसार उत्तर प्रदेश जल निगम ने बलिया जिले में सुरक्षित पेयजल आपूर्ति के लिए 100 करोड़ रुपए आवंटित करने के साथ 66 ओवरहेड टैंक स्थापित किए. हालांकि, वे इन टैंकों में पानी में नियमित रूप से आर्सेनिक संदूषण की जांच करने में विफल रहे.
2004 में दीनानाथ का मामला सामने आने के बाद उनके बेटे अशोक ने अपने पिता के मामले को राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान आकर्षित करने के बाद अपने गांव एकवाना राजपुर में पाइप से पानी की आपूर्ति करने के प्रशासन के प्रयासों के बारे में बताया.
चार साल बाद 2008 में दीनानाथ की मृत्यु हो गई. अशोक को त्वचा कैंसर है, जिसके बारे में उनका मानना है कि यह आर्सेनिक के कारण है. उन्होंने बताया, "प्रशासन ने 2004 और 2005 में बारह सौ फीट गहरा बोरविल किया था, लेकिन वह सफल नहीं हुआ."
पासवान ने कहा, ''हमें जीने के लिए पानी पीना ही पड़ेगा, चाहे उसमें जहर हो या न हो. 2008 या 2009 के आसपास क्षेत्र के लिए एक ओवरहेड टैंक चालू किया गया था. अशोक ने बताया कि मामला सामने आने के बाद अधिकारियों को वैकल्पिक जल स्रोत उपलब्ध कराने में लगभग पांच साल लग गए. अशोक ने आगे कहा, "पांच साल तक हमने वही दूषित पानी इस्तेमाल किया. 2015 के बाद से उस पानी का कोई परीक्षण नहीं किया गया है, जबकि आर्सेनिक स्तर की जांच के लिए छह महीने में एक बार परीक्षण होना चाहिए. मैं कहूंगा कि यह बिल्कुल भी सफल शमन प्रयास नहीं है, क्योंकि अभी भी नए मरीज सामने आ रहे हैं.”
उनका परिवार इसका सबूत है. डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट में कहा गया है कि अशोक की बहनें- अमिता, उम्र 35 वर्ष और अंजू, उम्र 25 वर्ष- की 2000 के दशक की शुरुआत में मृत्यु हो गई थी. दीनानाथ के छोटे बेटे अरविंद की त्वचा पर घाव हैं. उसी गांव में रहने वाले अशोक के रिश्तेदार गोपालजी सिंह को भी स्किन कैंसर है. अगस्त 2022 में जब मैं एकवाना राजपुर गया तो मैंने गोपालजी से मिलने की कोशिश की. लेकिन वर्षों से अपनी बीमारी से जूझ रहे गोपाल असहाय और क्रोधित थे. उन्होंने मुझसे मिलने से इनकार कर दिया. उनकी पत्नी बेबी ने मुझसे बात की. वह एक मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं और प्रति माह 2,000 रुपए कमाती हैं. उन्होंने मुझे बताया कि उनके पति भी कमाते थे, लेकिन बड़े परिवार की जिम्मेदारी और इलाज के खर्च के कारण उन्हें गुजारा करने में कठिनाई होती थी. मैंने आर्सेनिक समस्या को कम करने के सरकार के प्रयासों पर उनकी राय पूछी. उन्होंने मुझे बताया, “मैं दूसरों की मदद करती हूं. मैं एक आशा कार्यकर्ता हूं. लेकिन सरकार हमारे लिए कहां है? यह हमारे लिए कोई आवाज नहीं उठा रही है, हमारे लिए कुछ नहीं कर रही है.”
अगस्त 2019 में एक सप्ताह के अंतराल में तिवारीटोला में दो मौतें हुईं. स्थानीय मीडिया ने उन मौतों को कारण आर्सेनिक संदूषण बताया. यह एक गंभीर सरकारी विफलता की ओर इशारा करता है. तिवारीटोला में पानी की आपूर्ति के लिए 2007 में बेलहारी में एक ओवरहेड टैंक चालू किया गया था. मौतों के बाद जिला मजिस्ट्रेट, भवानी सिंह खंगारोत को मजबूरन क्षेत्र का दौरा करना पड़ा. कांग्रेस कार्यकर्ता विनोद ने मुझे बताया, "डीएम गुस्से में थे और उन्होंने जल निगम के अधिकारियों को पानी की गुणवत्ता के बारे में डांटा. उन्होंने कहा कि खंगारोत ने आदेश दिया कि साफ पानी खोजने के लिए बोरिंग की गहराई बढ़ाई जाए.
जब मौतें हुईं, मैंने 2019 में बलिया जल निगम में कार्यकारी अभियंता कयूम हुसैन से बात की. उस समय वह तिवारीटोला आए थे. हुसैन ने मुझे बताया, "अगर मैं ईमानदारी से बात कहूं तो मौतों का मुख्य कारण पानी में आर्सेनिक की मात्रा थी.
जब टैंक बनाया गया था तब से लेकर आज तक, वे दूषित पानी पी रहे थे." हुसैन ने स्वीकार किया कि समस्या को हल करने के बलिया जल निगम के अधिकांश प्रयास विफल रहे हैं. हुसैन ने कहा, "अगर कोई कह रहा है कि वे आर्सेनिक मुक्त पानी पी रहे हैं, तो यह असंभव है." उन्होंने बताया कि अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने इस मुद्दे पर प्रशासन के उच्च अधिकारियों को पत्र लिखा था, लेकिन प्रशासन या सरकार की ओर से कोई कार्रवाई नहीं की गई.
उषा देवी की मृत्यु के बारे में सुनने के बाद, मैं एक वरिष्ठ स्थानीय पत्रकार के साथ उनके पति सुधाकर यादव से मिलने गया. हम लोग तिवारीटोला के निकट नई बस्ती नाम की एक बस्ती में गए. बाढ़ में अपनी कृषि भूमि और गांव खोने के बाद वहां रहने वाले सैकड़ों परिवारों का पुनर्वास किया गया है. लोगों ने हैंडपंप लगाकर पीने के पानी की व्यवस्था स्वयं की थी. नई बस्ती के अधिकांश निवासी दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा वर्ग समुदायों से हैं.
सुधाकर ने हमें बताया कि उनकी पत्नी की मृत्यु से कुछ महीने पहले उन्होंने अपने चार बेटों में से एक को खो दिया था. उनका बेटा बीस साल का था और आर्सेनिकोसिस के लक्षणों से पीड़ित था. उन्होंने बताया, "मैंने अपनी पत्नी और बेटे के इलाज के लिए हरसंभव कोशिश की. आखिर में मैंने उम्मीद खो दी क्योंकि उन्होंने कहा कि इस बीमारी का इलाज नहीं हो सकता है." उन्होंने कहा, गंगा के किनारे रहते हुए, वे नदी और एक हैंडपंप के पानी का उपयोग कर रहे थे. उन्होंने आगे कहा, "मेरा बेटा और पत्नी दोनों गंभीर दर्द में थे, वह सब भयानक था. हमने अपने मुद्दे प्रशासन के सामने भी रखे, लेकिन मुझे नहीं पता कि वे इसे गंभीरता से क्यों नहीं ले रहे हैं.” सुधाकर ने कहा कि उनकी बेटी सेरेब्रल पाल्सी बीमारी के साथ पैदा हुई थी. उनका मानना था कि यह उनकी पत्नी की आर्सेनिक-संबंधी बीमारियों का परिणाम था.
नई बस्ती में मेरी मुलाकात चालीस साल की एक महिला से हुई, जो अपना नाम नहीं बताना चाहती थी. उसके नाखूनों और दांतों पर गहरी क्षैतिज रेखाएं थीं और वे कांच के टुकड़ों की तरह टूट रहे थे, यह शरीर में आर्सेनिक जमा होने का एक लक्षण था. उसकी हथेलियों और तलवों में केराटोसिस के लक्षण दिखे. मैंने पटना के प्रोफेसर अशोक कुमार घोष को उसके नाखून, दांत, हथेलियां और तलवों की तस्वीरें दिखाईं. उन्होंने कहा, "यह उसके शरीर में आर्सेनिक जमा होने का शुरुआती लक्षण है. अगर वह वही पानी पीती रही, तो यह और भी बदतर हो जाएगा."
महिला ने गांव में हैंडपंप के पानी के बारे में बात करते हुए कहा, "हम यह पानी केवल इसलिए पीते हैं क्योंकि यहां पानी का कोई अन्य स्रोत नहीं है." उन्होंने बताया, ''मैं इलाज करा रही हूं लेकिन इसमें सुधार नहीं हो रहा है. मैं होम्योपैथिक दवा ले रही हूं." उन्हें आर्सेनिक संदूषण के बारे में जानकारी नहीं थी और उन्होंने कहा कि पंप की जांच नहीं की गई थी. उन्होंने मुझसे नाम न छापने का आग्रह किया क्योंकि उसे डर था कि इससे उसके बच्चों की शादी की संभावनाएं खतरे में पड़ सकती हैं.
ऐसे नतीजों के बारे में चिंता करना गलत नहीं था. आर्सेनिक प्रभावित ईलाकों में रहने वाले निवासियों, विशेष रूप से दिखाई देने वाले शारीरिक लक्षणों वाले निवासियों के खिलाफ एक सामाजिक कलंक पैदा हो गया है. 2017 टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि रामगढ़ की एक 22 वर्षीय विकलांग महिला अपने लिए जीवनसाथी ढूंढने के लिए कई वर्षों से संघर्ष कर रही थी. उसके पिता ने अखबार को बताया कि उसकी विकलांगता आर्सेनिक युक्त पानी पीने के कारण हुई है. अपने डॉक्टरेट शोध में अभिषेक कुमार ने बलिया के एक फूड स्टॉल मालिक के बारे में लिखा, जिसे आर्सेनिकोसिस विकसित होने के बाद उत्पन्न हुई स्थिति से जुड़े कलंक के कारण अपना व्यवसाय बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा. कुमार ने शिवपुर गांव के एक गोंड निवासी के एक अन्य मामले के बारे में बताया, जिसे बलिया में एक साड़ी की दुकान में घाव और आर्सेनिकोसिस के लक्षण दिखाई देने के बाद नौकरी से निकाल दिया गया था.
कुछ रिपोर्टों, जांचों और अध्ययनों में बलिया के प्रभावित निवासियों की सामाजिक और आर्थिक वास्तविकताओं को उजागर किया गया है. नवंबर 2021 में मेरी मुलाकात तिवारीटोला में रहने वाले दलित समुदाय के तीस वर्षीय दिहाड़ी मजदूर भुआली पासवान से हुई. उन्होंने मुझसे मिलने के लिए आधे दिन की मज़दूरी छोड़ दी थी, क्योंकि उन्हें लगता था कि मैं एक डॉक्टर हूं. जब मैंने उन्हें बताया कि मैं पत्रकार हूं तो उनका चेहरा उतर गया.
पासवान ने मुझे विभिन्न लक्षण दिखाए, जैसे कि त्वचा पर घाव और झाइयां. वह खाना नहीं पचा पा रहे थे, जिससे उनके लिए काम करने लायक अपना स्वास्थ्य बनाए रखना मुश्किल हो गया था. वह किसी भी तरह का इलाज का खर्च नहीं उठा सकते थे. उन्होंने बताया, “मैं गरीब हूं, मेरे पास पैसे नहीं हैं. मैं इलाज तभी करा सकता हूं अगर मेरे पास पैसे हों. क्या होगा यह भगवान पर निर्भर है. सरकार और प्रशासन ने कोई मदद नहीं की. यहां कोई यह पूछने नहीं आता कि हम जी रहे हैं या मर रहे हैं. तिवारीटोला में इतने सारे लोग मर गए हैं.”
पासवान ने निराश होकर कहा, ''हमें जीने के लिए पानी पीना ही पड़ेगा, चाहे उसमें जहर हो या न हो. शोधकर्ता, पत्रकार, कार्यकर्ता और सरकारी विभाग वर्षों से यही प्रश्न पूछ रहे थे.” उन्होंने मुझसे कहा, "पिछले बीस वर्षों में हमने आपके जैसे कई लोगों को अपने नाखून, बाल और पानी के नमूने दिए हैं, जो समय-समय पर हमसे मिलने आते रहते हैं. लेकिन किसी ने भी हमारे मामले में मदद नहीं की है." मैं जुलाई 2022 में फिर से पासवान से मिला. मैं उनके पिता रामजी से भी मिला, जो कई वर्षों से आर्सेनिक संबंधी बीमारियों से पीड़ित थे. रामजी दिन में केवल एक रोटी ही खा पाते थे. उनका ऊपरी शरीर कठोर, पपड़ीदार केराटोसिस से ढका हुआ था. कुछ सप्ताह बाद, अगस्त में उनकी मृत्यु हो गई.
ओवरहेड टैंकों के अलावा स्थानीय प्रशासन ने गैर-लाभकारी संस्थाओं और अनुसंधान संस्थानों के सहयोग से, बलिया के सरकारी हैंडपंपों में सैकड़ों आर्सेनिक-हटाने वाली इकाइयां स्थापित कीं. हालांकि, क्षेत्र में रिपोर्टिंग करते समय, मैंने पाया कि ये एआरयू ज्यादातर रखरखाव की कमी के कारण खराब हालत में छोड़ दिए गए थे या काम नहीं कर रहे थे. ऐसी ही एक यूनिट तिवारीटोला के निवासियों के लिए तारकेश्वर के घर के बाहर स्थापित की गई थी. शशि भूषण पांडे ने मुझे बताया, "यह पूरे तिवारीटोला को पानी उपलब्ध करा रही थी, लेकिन लगभग एक साल बाद यह खराब हो गई. अगर यह अच्छी स्थिति में होता तो शायद तारकेश्वर तिवारी अधिक समय तक जीवित रह सकते थे."
उच्च आर्सेनिक संदूषण स्तर वाले एक अन्य ब्लॉक, बैरिया में स्थित दुबे छपरा इंटर कॉलेज में 2010 में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बॉम्बे द्वारा एक एआरयू स्थापित किया गया था. कॉलेज में गणित के शिक्षक ब्रजेश कुमार पांडे ने मुझे बताया, "यह एक अच्छी स्थिति में था लेकिन दुर्भाग्य से यह अब काम नहीं कर रहा है. हम सामान्य हैंडपाइप या आरओ का पानी पीते हैं. आरओ आर्सेनिक को फिल्टर नहीं करता है.” घोष ने कहा कि एक आरओ फिल्टर केवल पानी का स्वाद बदल कर उसे नरम बना देगा, लेकिन यह आर्सेनिक को बरकरार रखेगा. “यह आर्सेनिक प्रभावित क्षेत्रों में हैंडपंप के सीधे पानी के समान ही खतरनाक है."
अभिषेक कुमार ने 2018 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अपने डॉक्टरेट थीसिस के लिए बलिया जिले में आर्सेनिक संदूषण का विस्तार से अध्ययन किया. उनके शोध के अनुसार, 2003 से 2013 के बीच के दशक में उत्तर प्रदेश जल निगम ने राज्य में 365 एआरयू स्थापित किए. उन्होंने ऐसे दो सौ एआरयू का दौरा किया और उन एआरयू के पास के हैंडपंपों के पानी के नमूनों का परीक्षण किया. उन्होंने लगातार आर्सेनिक का स्तर पचास से लेकर एक हजार भाग प्रति बिलियन तक पाया. उन्होंने कहा कि केवल 34 एआरयू काम करते पाए गए. उन 34 में से केवल चार में फिल्टर्ड पानी था जिससे आर्सेनिक संदूषण में उल्लेखनीय कमी देखी गई और केवल एक में फिल्टर्ड पानी था जहां आर्सेनिक की मात्रा पचास भाग प्रति बिलियन से कम थी.
विभिन्न समितियों और स्वतंत्र समूहों की सिफारिशों के आधार पर प्रत्येक गांव में दो प्रशिक्षित स्वयंसेवकों द्वारा एआरयू का रखरखाव किया जाना था और इसके लिए आवश्यक धन भी ग्राम स्तर पर जमा किया जाना था. ऐसे ही एक प्रशिक्षक नरेंद्र कुमार चौबे से मेरी मुलाकात गंगापुर ग्राम सभा में हुई. चौबे ने मुझे दो दिवसीय प्रशिक्षण के बाद दिया गया एक प्रमाणपत्र दिखाया. उन्होंने कहा, "एआरयू का रख रखाव करना मुश्किल है. हम आर्सेनिक का स्तर पता लगाने के लिए समय-समय पर पानी की गुणवत्ता का परीक्षण करने में समर्थ नहीं हैं. हम बस किसी तरह इसे चालू रखने की कोशिश करते हैं और इस विश्वास के साथ इसका पानी पीते हैं कि इसमें कोई आर्सेनिक नहीं है.”
2011 समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि केवल एआरयू लगा देने से ग्रामीणों को आर्सेनिक मुक्त पानी की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं होती है. एआरयू 2009 में स्थापित किए गए थे. रिपोर्ट में कहा गया है, "अब ब्लॉक स्तर पर इकाइयों में सुधार करने का चरण आ गया है." मेरी रिपोर्टिंग के दौरान ऐसी इकाइयों को लगाने का कोई आसार नहीं दिखा था.
कुल मिलाकर सरकार के शमन उपाय बहुत कम थे. मैंने वाशिंगटन विश्वविद्यालय में वायुमंडलीय विज्ञान के एक एमिरिटस प्रोफेसर जॉन एम वालेस से बात की. उन्होंने कई बार बलिया जिले का दौरा कर आर्सेनिक समस्या का अध्ययन किया है. वह आर्सेनिक-प्रवण क्षेत्रों में सुरक्षित पेयजल पहुंचाने के लिए एक मॉडल विकसित करने के लिए काम करने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था को बलिया जल केंद्र को भी सलाह देते हैं. वालेस ने मुझे बताया, "सरकार ने बलिया जिले में आर्सेनिक शमन पर बहुत पैसा खर्च किया है, लेकिन लाभ बेहद कम मिला है. कोई यह नहीं कह सकता कि सरकार ने समस्या को हल्के में लिया है, लेकिन अब तक लागू की गई शमन रणनीतियां काफी हद तक अप्रभावी रही हैं."
डॉ. अशोक कुमार घोष ने मुझे बताया कि एक बार जब मानव शरीर कुछ वर्षों तक आर्सेनिक के उच्च स्तर के संपर्क में रहा हो तो इसका कोई इलाज नहीं हो सकता और न ही इस प्रक्रिया को उलटा किया जा सकता था. समस्या को हल करने के लिए आवश्यक तकनीक पहले से ही मौजूद थी और अत्यधिक महंगी नहीं थी. लेकिन वालेस ने कहा, निर्णय लेने की प्रक्रिया "ऊपर से नीचे" रही है, जिसमें सामुदायिक भागीदारी बहुत कम या नहीं के बराबर रही है. उन्होंने कहा, शमन उपायों ने प्रभावित परिवारों को ध्यान में रखकर काम नहीं किया, बल्कि "बड़ी, महंगी परियोजनाओं पर ध्यान केंद्रित किया, जिनसे ग्रामीणों की तुलना में ठेकेदारों को अधिक लाभ हुआ है."
विडंबना यह है कि प्रभावी शमन की कमी के कारण और इसके विपरीत, आरओ जल इकाइयों जैसे समाधानों के रूप में अधिक महंगे विकल्पों पर काम किया जा रहा है. सार्वजनिक स्वास्थ्य उपायों के नहीं होने के कारण जिले में आरओ आपूर्तिकर्ताओं का एक निजी नेटवर्क एक आकर्षक व्यवसाय के रूप में विकसित हो गया है. निजी आरओ आपूर्तिकर्ता घरों में 20 लीटर के लिए पंद्रह या बीस रुपए ले रहे हैं. स्वच्छ पानी के लिए बेचैन लोग यह मानकर इसे खरीदते हैं कि यह आर्सेनिक मुक्त है.
हाल के वर्षों में बलिया प्रशासन आर्सेनिक मुद्दे से अपना ध्यान भटकाता नजर आ रहा है. मैंने अपनी रिपोर्टिंग के दौरान कई बार बलिया जल निगम का दौरा किया और आर्सेनिक संदूषण के मुद्दे पर कभी कोई गंभीर चिंता नहीं व्यक्त करते नहीं सुना. 2022 में एक यात्रा के दौरान मैंने कुछ इंजीनियरों से इस विषय के बारे में पूछा. उन्होंने इसे टालते हुए कहा कि फिलहाल उनकी प्राथमिकता जल जीवन मिशन परियोजना के 2024 के लक्ष्य को पूरा करना है. एक इंजीनियर ने मुझे जनवरी 2022 के आदेश की एक प्रति भेजी, जिसमें कहा गया था कि प्रत्येक प्रशासनिक ब्लॉक में ओवरहेड टैंक, कुओं और हैंडपंपों की देखभाल ग्राम पंचायतों को करनी होगी.
जल जीवन मिशन स्वयं आर्सेनिक संदूषण का उल्लेख करता है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि वह झूठे दावे कर रहा है. एक सरकारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि, राज्यों को धन आवंटित करते समय, "आर्सेनिक और फ्लोराइड सहित रासायनिक संदूषकों से प्रभावित बस्तियों में रहने वाली आबादी को 10% हिस्सा दिया जाता है." आर्सेनिक दूषित क्षेत्रों का जिक्र करते हुए इसमें कहा गया है: चूंकि, सुरक्षित जल स्रोत पर आधारित पाइप जलापूर्ति योजना तैयार करने, कार्यान्वयन और कमीशनिंग में समय लग सकता है, पूरी तरह से एक अंतरिम उपाय के रूप में राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को विशेष रूप से आर्सेनिक और फ्लोराइड प्रभावित बस्तियों में सामुदायिक जल शोधन संयंत्र (सीडब्ल्यूपीपी) स्थापित करने की सलाह दी गई है ताकि हर किसी को पीने योग्य पानी उपलब्ध कराया जा सके ताकि उनकी पीने और खाना पकाने की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके.
एक दस्तावेज में कहा गया है कि उत्तर प्रदेश के दस जिलों में आर्सेनिक से प्रभावित 107 बस्तियां हैं. यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार किसी बस्ती को कैसे परिभाषित करती है. फिर यह दावा किया गया है कि सभी 107 बस्तियों में सीडब्ल्यूपीपी स्थापित किए गए हैं, जिससे यह संकेत मिलता है कि आर्सेनिक समस्या पर पर्याप्त रूप से काम किया गया है. लेकिन बलिया जिले का एक दौरा इस झूठ को सामने ला सकता है. मैंने यह समझने के लिए कई ग्राम प्रधानों से बात की कि इस समस्या से वे कैसे निपट रहे हैं. मुरलीछपरा ब्लॉक में इब्राहिमाबाद के प्रधान अखिलेश सिंह ने कहा कि उनके क्षेत्र में कुछ इंडिया मार्क II हैंडपंपों की मरम्मत की गई थी और गहराई को लगभग चालीस मीटर तक बढ़ाने के लिए री-बोरिंग की गई थी. साफ पानी सुनिश्चित करने के लिए कितनी गहराई तक बोरिंग की जरूरत है, इसकी जानकारी अखिलेश को नहीं थी. गांव में कुछ जल स्रोतों का परीक्षण किया गया था, लेकिन उन्हें परिणाम नहीं पता थे. अखिलेश ने कहा कि उनके इलाके में एक ओवरहेड टैंक काफी समय से बेकार पड़ा है.
इसी ब्लॉक के सोनबरसा गांव के प्रधान अजय कुमार यादव ने कहा कि जल निगम ने कुछ साल पहले हैंडपंपों की जांच की थी, जिसमें आर्सेनिक पाया गया था. लेकिन लगभग दो वर्षों से कोई परीक्षण नहीं हुआ था. उन्होंने गांव के पानी के बारे में कहा, "यह पूरी तरह से आर्सेनिक युक्त है." जिसपर रामपुर कोरहारा के प्रधान सुभाष यादव ने सहमति व्यक्त जताई. उन्होंने कहा, "हम पानी में आर्सेनिक प्रदूषण से प्रभावित हैं और हमें स्वच्छ जल स्रोत की जरूरत है. हमारे क्षेत्र में एक ओवरहेड टैंक प्रस्तावित था, लेकिन पांच साल तक इसपर कुछ नहीं हुआ." उन्होंने कहा कि उन्हें इस बात की जानकारी नहीं थी कि जलस्रोतों के प्रबंधन की जिम्मेदारी ग्राम पंचायतों को सौंपी गई है. बलिहार के प्रधान चन्द्रशेखर सिंह ने कहा कि उन्हें भी ऐसे किसी आदेश की जानकारी नहीं है. उन्होंने कहा कि बलिहार में एक ओवरहेड टैंक है, लेकिन आर्सेनिक की जांच के लिए पानी की कोई जांच नहीं की गई है. जिन ग्राम प्रधानों से मैंने बात की उनके पास इस मुद्दे के समाधान के लिए किसी भी संसाधन की कमी थी.
घोष ने बताया कि मिशन का जोर लक्ष्यों को पूरा करना और नलों और पानी की पाइपलाइनों की तस्वीरें लेने पर था, जबकि आपूर्ति किए गए पानी की गुणवत्ता वास्तविकता में बेहद खराब थी. घोष के साथ काम करने वाले महावीर कैंसर संस्थान के एक अन्य वैज्ञानिक डॉ अरुण कुमार ने जल जीवन मिशन के घोषित लक्ष्यों और जमीनी हकीकत के बीच विसंगति को उजागर किया. उन्होंने बताया, "वर्तमान में सरकार के पास सुरक्षित पेयजल के लिए एक दृष्टिकोण है लेकिन उनके पास इन आर्सेनिक प्रभावित क्षेत्रों में सार्वजनिक स्वास्थ्य मूल्यांकन करने की कोई योजना नहीं है." अरुण के अनुसार, संभावना है कि जेजेएम के तहत स्थापित पाइपलाइनों में भी पानी आर्सेनिक से मुक्त नहीं था.
मैंने जल जीवन मिशन को एक विस्तृत प्रश्नावली ईमेल की और पूछा कि क्या मिशन के तहत आपूर्ति किए जा रहे पानी में आर्सेनिक है. मैंने उत्तर प्रदेश भूजल विभाग को भी प्रश्न भेजे. लेकिन मुझे कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. अरुण ने कहा, "आर्सेनिक मुक्त पानी की आपूर्ति यह सुनिश्चित नहीं करती है कि लोगों को उसके बाद कोई बीमारी नहीं होगी. पानी की गुणवत्ता की उचित निगरानी और निरीक्षण करना एक सतत प्रक्रिया है, जिसका यहां अभाव है." उन्होंने कहा कि उन्होंने आर्सेनिक से जुड़ी बीमारियों को दिन-ब-दिन बढ़ते देखा है. “मैंने आर्सेनिक से प्रभावित क्षेत्र में कैंसर रोग का पैटर्न भी देखा है, जहां रोग की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं. मुझे चिंता है कि आने वाले वर्षों में स्थिति को नियंत्रित करना बहुत मुश्किल होगा.
घोष ने मुझे बताया, एक बार जब मानव शरीर कुछ वर्षों तक आर्सेनिक के उच्च स्तर के संपर्क में रहा हो तो इसका कोई इलाज नहीं हो सकता बस इस प्रक्रिया को धीमा किया जा सकता है. केवल स्वच्छ आर्सेनिक मुक्त पानी का सेवन ही प्रभावी ढंग से मदद कर सकता है और वह भी लंबे समय के उपभोग के बाद. उस स्थिति में शरीर अपने आप ठीक हो जाएगा, लेकिन यह भी तभी संभव है जब व्यक्ति को जल्दी साफ पानी मिलना शुरू हो जाए. अन्यथा कुछ भी सुधार नहीं हो सकता.”
आज तक बलिया प्रशासन ने यह स्वीकार नहीं किया है कि जिले में आर्सेनिक के कारण कोई मौत हुई है. मैंने इस बारे में जानकारी लेने के लिए बलिया के मुख्य चिकित्सा अधिकारी को फोन किया. जन-स्वास्थ्य अधिकारी डॉ. अभिषेक कुमार मिश्रा के साथ बैठे थे और उन्होंने फोन मिश्रा को सौंप दिया. मिश्रा ने कहा, "पिछले बीस वर्षों में मेरी जानकारी के अनुसार, आर्सेनिक की अधिक मात्रा या अत्यधिक संपर्क से कोई मौत दर्ज नहीं की गई है." उन्होंने बताया कि इस तरह का कारण तभी दर्ज किया जा सकता है जब मृतक के विसरा का परीक्षण किया जाए. उन्होंने कहा, "आर्सेनिक प्रभावित क्षेत्र में किसी भी मौत के मामले में विसरा का परीक्षण नहीं किया गया. "
विशेषज्ञ आर्सेनिक से होने वाली मौतों का पता लगाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. अलेक्जेंडर वैन गीन को दीर्घकालिक अध्ययन के बिना आर्सेनिक संदूषण और उसके बाद होने वाली मौतों के बीच सीधा संबंध स्थापित करने में कठिनाई हुई. उन्होंने कहा, “आर्सेनिक के संपर्क के परिणामों का अनुमान कम है। इसके अलावा हर किसी पर आर्सेनिक का एक ही तरह से प्रभाव पड़ा है. प्रभावों का पता केवल बड़ी आबादी के स्तर पर ही लगाया जा सकता है. गीन ने कहा कि उनके अनुभव में आर्सेनिक से हुई लोगों की मौत का मुख्य कारण हृदय रोग था.
बेबी सिंह ने मुझे बताया, “मैं दूसरों की मदद करता हूं. मैं एक आशा कार्यकर्ता हूं, लेकिन सरकार हमारे लिए कहां है? यह हमारे लिए कोई आवाज नहीं उठा रहे हैं, हमारे लिए कुछ नहीं कर रहे हैं.” डब्ल्यूएचओ मानता है कि आर्सेनिक का प्रभाव लोगों के बीच बहुत अलग तरह से हो सकता है, जिससे इसका निदान करना और सही पैटर्न स्थापित करना एक चुनौती बन जाता है. इसमें कहा गया है, "अकार्बनिक आर्सेनिक के लंबे समय तक संपर्क में रहने के कारण होने वाले लक्षण और संकेत व्यक्तियों, जनसंख्या समूहों और भौगोलिक क्षेत्रों के बीच अलग होते हैं. इस प्रकार आर्सेनिक से होने वाली बीमारी की कोई सार्वभौमिक परिभाषा नहीं है. इससे आर्सेनिक के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर का आकलन करना जटिल हो गया है. इसी प्रकार, आर्सेनिक से होने वाले कैंसर के मामलों को अन्य कारकों से प्रेरित कैंसर से अलग करने की कोई तरीका नहीं है. परिणामस्वरूप, दुनिया भर में समस्या की भयावहता का कोई विश्वसनीय अनुमान नहीं है.”
भारत में, दीर्घकालिक अध्ययन के अभाव और जवाबदेही की कमी ने इस मुद्दे को जटिल बना दिया है. डॉ अरुण कुमार ने कहा कि वास्तव में आर्सेनिक के कारण होने वाली कई मौतों को कम रिपोर्ट किया जा रहा है. उन्होंने कहा, "लंबे समय तक आर्सेनिक के संपर्क में रहने से शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र कम हो जाता है. यदि यह उपचार के बिना लंबे समय तक बना रहता है, तो यह अंग स्तर तक पहुंच जाएगा और अंततः अंग की विफलता का कारण बनेगा जिससे मृत्यु हो जाएगी. 2013 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने उत्तर प्रदेश सरकार से आर्सेनिक से होने वाली संभावित मौतों की जांच करने और मुआवजा देने का प्रावधान करने को कहा. नतीजतन, अगस्त 2015 में राज्य के मुख्य सचिव ने सभी जिला मजिस्ट्रेटों को उन मामलों की जांच करने के लिए कहा, जहां दावा किया गया है कि मौतें आर्सेनिक संदूषण के परिणामस्वरूप हुईं. आदेश में कहा गया है, ''यदि यह पुष्टि की गई है कि मृतक को स्वच्छ पेयजल का कोई स्रोत उपलब्ध नहीं कराया गया था, जिसके कारण उस व्यक्ति को आर्सेनिक युक्त पानी पीने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिससे उसकी मृत्यु हो गई, तब उन्हें उचित मुआवजा सीएम के विवेकाधीन कोष से दिया जाना चाहिए."
2019 में जब बलिया के जिला मजिस्ट्रेट ने लगातार दो मौतें होने के बाद तिवारीटोला का दौरा किया, तो स्थानीय लोगों ने इस आदेश का हवाला देकर उन पर जांच करने का दबाव डाला. विनोद ने मुझे बताया कि डीएम ने इंजीनियरों से यह जांच करने के लिए कहा था कि क्या वास्तव में उन मौतों का कारण आर्सेनिक था. लेकिन कुछ न हुआ. विनोद ने कई बार डीएम को पत्र लिखा, कोई फायदा नहीं हुआ. उन्होंने बताया, ''मामले में कोई प्रगति नहीं हुई है और हम जांच का इंतजार कर रहे हैं. इस तरह की जांच से उन गरीब परिवारों को विश्वास और समर्थन मिलेगा जिन्होंने आर्सेनिक के कारण अपने सदस्यों को खो दिया है." बलिया के कई अन्य निवासियों ने मुझे बताया कि उन्होंने अपने परिवार और इलाके में हुई मौतों के बाद मजिस्ट्रेट से संपर्क किया था, लेकिन पूछताछ या तो नहीं हुई या पूरी नहीं हुई.
गंगापुर की अपनी यात्रा के दौरान, सार्वजनिक-स्वास्थ्य विशेषज्ञ रमन ने यह पता लगाने का प्रयास किया था कि क्या आर्सेनिक के कारण मौतें हुई थीं. उन्होंने बताया, "मैंने पाया कि किसी भी तरह के सबूत की कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि समस्या किसी भी सामान्य व्यक्ति में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही थी. मैं बीमार लोगों के परिवारों के साथ मौखिक शव-परीक्षा करने और गंभीर स्थिति वाले रोगियों का अवलोकन करने के लिए तैयार था. हालांकि विभिन्न आयु वर्ग के कई लोगों में पहली नजर में आर्सेनिकोसिस के लक्षण दिखाई दिए और इस क्षेत्र में कई जीवित लोगों की हमने जो तस्वीरें लीं, वे मामले की सच्चाई बताने के लिए पर्याप्त थीं. रमन ने कुछ मृतकों के परिवार के सदस्यों के बारे में चिंता व्यक्त की जिनमें आर्सेनिक से होने वाली बीमारी के हल्के से मध्यम लक्षण दिखाई देने लगे थे. उन्होंने कहा, "क्या विभिन्न स्तरों पर नेतृत्व जागेगा और लोगों की जान बचाएगा?"
मैंने बलिया जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय को प्रश्न भेजे जिसमें जल आपूर्ति, परीक्षण प्रयासों और जिले में सार्वजनिक-स्वास्थ्य संकट के बारे में विस्तृत प्रश्न थे. मैंने पूछा कि क्या आर्सेनिक के कारण कोई मौत दर्ज की गई है, क्या प्रशासन ने इनमें से किसी की जांच की है और उसका परिणाम क्या रहा है. मुझे कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. बलिया में आर्सेनिक की दुखद कहानी शायद दो व्यक्तियों की राष्ट्रीय राजधानी की यात्रा में सबसे अच्छी तरह बताई जा सके. दीनानाथ सिंह के पहली बार एम्स जाने के पंद्रह साल बाद, एक अन्य व्यक्ति भी जीवित रहने की उम्मीद में इसी तरह एम्स गया. 2019 में हास नगर गांव के रहने वाले 70 वर्षीय वीरेंद्र राय अपनी उंगली में घाव का ईलाज कराने एम्स आए थे. उन्हें लीवर की गंभीर समस्या भी हो गई थी. उनका पेट फूल गया था और पेट में दर्द हो रहा था. एम्स के उनके कागज देखने से पता चलता है कि उनकी उंगली पर अल्सर, केराटोसिस, हाइपरपिग्मेंटेशन थी और उन्हें बोवेन रोग, एक प्रकार का त्वचा कैंसर हो गया था. ये सभी बीमारियां शरीर में लंबे समय तक आर्सेनिक जमा होने से जुड़ी हो सकती हैं. राय की 2022 में मृत्यु हो गई.
राय की बहू बेबी राय उन्हें एम्स लेकर आई थीं. उन्होंने मुझे बताया, “यह आर्सेनिक का प्रभाव था, क्योंकि उन्होंने कभी गांव नहीं छोड़ा और परिवार कुओं, हैंडपंपों और नदी के पानी का उपयोग करता था. हम गरीब हैं और इतने जागरूक नहीं हैं, फिर भी हमने उसके इलाज के लिए पूरा प्रयास किया." उन्होंने कहा कि उनके गांव में पानी के दूषित होने की जांच कभी नहीं की गई. जिनके पास पैसा है वे बोतलबंद पानी खरीदते हैं.
2022 में मैंने हास नगर गया और कई अन्य लोगों को आर्सेनिक विषाक्तता के समान लक्षणों के साथ पाया. रामजी मौर्य की त्वचा पर घाव, बारिश की बूंदों जितने धब्बे और हथेलियों और तलवों पर केराटोसिस के लक्षण थे. वह हृदय संबंधी समस्याओं से भी पीड़ित थे. उन्होंने अपने घर में लगे हैंडपंप से पानी पिया. उन्होंने कहा, "बीस साल से अधिक समय से मेरी त्वचा पर काले धब्बे हैं. कुछ महीने पहले, मुझे अचानक सांस लेने में तकलीफ होने लगी और मुझे पता चला कि मेरा दिल ठीक से काम नहीं कर रहा है. दर्द कम करने के लिए मैं गोलियां लेता हूं” मौर्य की बीमारी का असर उनकी आजीविका पर भी पड़ा. उन्होंने मुझे बताया कि उनके हैंडपंप के पानी का कभी परीक्षण नहीं किया गया और उन्हें नहीं पता था कि यह दूषित था या नहीं. "मुझे आर्सेनिक और उसके प्रभाव के बारे में जानकारी नहीं है." इस रिपोर्ट के छपने से ठीक पहले मैंने 2019 की उस तस्वीर को दोबारा देखा जो मैंने रिपोर्टिंग के दौरान ली थी. उस तस्वीर में 20 लोग थे जिनमें से नौ लोगों की मौत हो गई थी.