24 मार्च 2016 को विश्व क्षय रोग (टीबी या तपेदिक रोग) दिवस के अवसर पर तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने भारत में बीडाक्विलिन खुराक लांच करने की घोषणा की. बीडाक्विलिन टीबी प्रतिरोधी नई औषधि है जो ऐसे रोगियों के इलाज में सक्षम है जिन पर अन्य औषधि का असर नहीं होता. सरकार ने घोषणा की कि वह यह औषधि क्षय रोग उन्मूलन के राष्ट्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत निशुल्क वितरण करेगी.
दुनिया में सबसे अधिक क्षय रोगी भारत में हैं. 2017 में दुनिया भर के देशों में इस रोग के जो एक करोड़ नए मामले प्रकाश में आए थे उनमें से 28 लाख केवल भारत में हैं. साथ ही भारत में डीआर-टीबी रोगियों की संख्या भी सबसे अधिक है. यह इस रोग का नया रूप है. ऐसे रोगियों पर शक्तिशाली एंटीबायोटिक्स का भी असर नहीं होता. जब किसी टीबी रोगी पर दो सबसे शक्तिशाली एंटीबायोटिक का असर होना बंद हो जाता है तो इसे मल्टी ड्रग रेजिस्टेंट टीबी या एमडीआर-टीबी कहते हैं.
2012 में संयुक्त राज्य अमेरिका की स्वास्थ्य एवं मानव सेवा विभाग की एजेंसी, फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने डीआर-टीबी के उपचार के लिए बीडाक्विलिन को मंजूरी दी. इस वैश्विक महामारी को रोकने के लिए भारत में बीडाक्विलिन खुराक की उपलब्धता जरूरी थी. नड्डा की उपरोक्त घोषणा को विश्व भर में गंभीरता से देखा गया.
भारत इस खुराक को बीडाक्विलिन उपहार कार्यक्रम से हासिल कर रहा है जो यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट और अमेरिका की बड़ी फार्मा कंपनी जॉनसन एंड जॉनसन का संयुक्त कार्यक्रम है. जॉनसन एंड जॉनसन के पास इस औषधि का पेटेंट है. दिसंबर 2014 में जॉनसन एंड जॉनसन ने घोषणा की कि उसकी सहायक कंपनी जेंससेन फार्मास्यूटिकल्स अगले 4 सालों में मध्यम आय वाले देशों को 30 मिलियन डॉलर की बीडाक्विलिन दान करेगी. मार्च 2019 तक भारत को बीडाक्विलिन की 10 हजार खुराक प्राप्त हुई हैं इसके अलावा अप्रैल में कंपनी ने भारत को अतिरिक्त 10 हजार खुराक उपहार दी है.
बीडाक्विलिन लांच के 3 साल बाद सूचना के अधिकार कानून के तहत प्राप्त जानकारियों से पता चलता है कि इस औषधि को हासिल करने के नियमों के बारे में भारत सरकार का स्वास्थ्य मंत्रालय स्पष्ट नहीं है. जून 2019 में मैंने स्वास्थ्य मंत्रालय में सूचना के कानून के तहत कई आवेदन किए. स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया है कि उसने यूएसएड और जॉनसन एंड जॉनसन के साथ किसी तरह के समझदारी पत्र (एमओयू) पर हस्ताक्षर नहीं किया है. साथ ही मंत्रालय ने उपहार कार्यक्रम पर हस्ताक्षर के वक्त किसी तरह का टर्म ऑफ रिफरेंस तैयार नहीं किया था. आरटीआई के जवाब और सार्वजनिक दस्तावेजों से पता चलता है कि बीडाक्विलिन को भारत में उपलब्ध कराने के लिए जिस एकमात्र कागज पर हस्ताक्षर हुआ है वह है 2015 की जनवरी में जेंससेन को मिला निर्यात का लाइसेंस.
एक आरटीआई के जवाब में स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया है, “यूएसएड बीडाक्विलिन उपहार कार्यक्रम के अंतर्गत इस औषधि की खुराकों के बारे में किसी तरह का एमओयू या समझौता नहीं हुआ है.” अप्रैल 2019 में जॉनसन एंड जॉनसन से प्राप्त बीडाक्विलिन की 10 हजार अतिरिक्त खुराकों के संबंध में पूछे गए सवाल के जवाब में मंत्रालय ने बताया, “2019 में यूएसएड उपहार कार्यक्रम के अंतर्गत अतिरिक्त 10000 बीडाक्विलिन खुराकों के संबंध में यूएसएड और आरएनटीसीपी के बीच कोई समझौता नहीं हुआ है.” भारत में टीबी महामारी को संबोधन करने के लिए बनाई गई सरकारी इकाई का नाम आरएनटीसीपी है यानी संशोधित राष्ट्रीय क्षय रोग नियंत्रण कार्यक्रम.
स्वास्थ्य कार्यकर्ता, वकील और टीबी पीड़ितों ने मुझे बताया कि औषधि हासिल करने की प्रक्रिया में दिखाई पड़ने वाली अपारदर्शिता और अस्थाई उपहार कार्यक्रम में सरकार की निर्भरता की वजह से रोगियों को फार्मास्यूटिकल कंपनी की सदिच्छा पर निर्भर रहना पड़ रहा है जो चिंता की बात है. हाल तक भारत सरकार बीडाक्विलिन के लिए इसी कार्यक्रम पर पूरी तरह से निर्भर है. इसके अलावा इस बात पर भी स्पष्टता नहीं है कि दान में प्राप्त औषधि को कैसे इस्तेमाल किया जा रहा है या डॉक्टर यह कैसे निर्धारित करते हैं कि किस रोगी को यह औषधि दी जानी है.
वर्तमान में भारत के पास इस औषधि की 20 हजार खुराक हैं जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के उपचार दिशानिर्देशों के अनुसार इस औषधि के लिए पात्र रोगियों की संख्या कम से कम 147000 है. कागजों में भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय ड्रग रेजिस्टेंस के पीड़ित सभी के लिए बीडाक्विलिन की मंजूरी देता है लेकिन मीडिया रिपोर्टों का अनुमान है कि कुल पात्र रोगियों के केवल 2.2 प्रतिशत को यह औषधि प्राप्त हो रही है. यह औषधि कुछ चुनिंदा सरकारी अस्पतालों में उपलब्ध है.
स्वास्थ्य मंत्रालय की टीबी विभाग से प्राप्त ई-मेल के अनुसार सरकारी अस्पतालों में वर्ष 2018 और 2019 में केवल 4227 बीडाक्विलिन खुराकें दी गईं. जिस तरह से भारत में इस औषधि को लाया गया है उसके कारण इसे प्राप्त करने के लिए रोगियों को प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है. इस दवा के लिए हो रही जद्दोजहद को बिहार के पटना की एक युवती द्वारा स्वास्थ्य मंत्रालय पर मुकदमा किए जाने से समझा जा सकता है. इस युवती को एक्सडीआर-टीबी था और उसे दवा के लिए 5 साल इंतजार करना पड़ा. जिसके बाद उसने अदालत का दरवाजा खटखटाया और उसे यह दवा मिल गई.
विश्व जन स्वास्थ्य समुदाय मानता है कि दान कार्यक्रम रोगियों के इलाज के लिए पर्याप्त नहीं है. विशेषज्ञों का मानना है कि दवा को दान में प्राप्त करने से फार्मास्यूटिकल कंपनियां दवाओं को सस्ती दरों में उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाती हैं. अंतरराष्ट्रीय सहायता एजेंसी मेडिसिन्स सांस फ्रंटियर या डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (एमएसएस) की चिकित्सा निदेशक डॉक्टर जेनिफर कोहन कहती हैं, “औषधि का दान मरीजों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए दीर्घकालीन समाधान नहीं है, उपहार स्वरूप प्राप्त औषधि उन शर्तों के साथ आती हैं जिसमें बताया जाता है कि इन्हें कहां, कैसे और किसे दीया जाना है. लोगों के उपचार का सबसे बढ़िया तरीका यह होगा कि जेंससेन इस दवा को निम्न और मध्यम आय वाले देशों में सस्ते दामों में उपलब्ध कराएं.”
आलोचकों का कहना है कि भारत दवा खरीद की सर्वोत्तम वैश्विक व्यवस्थाओं का पालन नहीं करता जिसकी सिफारिश विश्व स्वास्थ्य संगठन ने की है. 2010 विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने दिशा-निर्देश में कहा था कि ऐसे कई उदाहरण हैं जिसमें दवा को उपहार में दिए जाने से राहत की बजाए समस्याएं पैदा हुई हैं. इस रिपोर्ट में साफ तौर पर कहा गया है कि दीर्घकालीन स्थिति के लिए दान पर्याप्त नहीं है. “दान में औषधि प्राप्त करना कम धन वालीं स्वास्थ व्यवस्थाओं और गरीब देशों में दवा की उपलब्धता की कमी जैसी समस्याओं के लिए दीर्घकालीन उपाय नहीं है. हालांकि यहां समस्या विशेष के लिए अस्थाई समाधान हो सकता है”.
टीबी की रोगी रहीं मुंबई की नंदिता वेंकटेशन ने बीडाक्विलिन से पहले इस्तेमाल में लाए जा रहे विषाक्त इंजेक्शनों के कारण अपनी सुनने की क्षमता खो दी. वह कहती हैं, “बीडाक्विलिन प्राप्त करने की प्रक्रिया इतनी अपारदर्शी है कि किसी को नहीं पता कि पार्टियों के बीच क्या समझौता हुआ है.” वेंकटेशन ने मुझे बताया, “नीति बनाने से पहले मरीज जैसे मुख्य सरोकारवालों से परामर्श लिया जाना चाहिए. सच्चाई तो यह है कि जिन लोगों को इस औषधि की आवश्यकता है उन्हें यह नहीं मिल पा रही है और अगर मिलती भी है तो बहुत देर हो जाती है. हम इस दवा की एकमात्र निर्माता के दान पर निर्भर हैं.” इस संबंध में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्पष्ट दिशानिर्देश दिए हैं जिनमें कहा गया है कि दान की वजह से इस दवा के सस्ते विकल्पों को प्राप्त करने का रास्ता बंद हो जाता है या इसमें देरी हो जाती है.”
यूएसएड-जेंससन कार्यक्रम आधिकारिक रूप से मार्च 2019 में बंद हो गया. अब बीडाक्विलिन का छह महीने का कोर्स संभवत 900 डॉलर का है. डीआर-टीबी के रोगियों को इस औषधि का 18 महीने का कोर्स करना पड़ता है जिसका अर्थ है कि 2700 डॉलर या 1 लाख 90000 का खर्च आएगा. भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने अभी तक स्पष्ट नहीं किया कि वह यह औषधि लाखों मरीजों को कैसे उपलब्ध कराएगी. स्वास्थ्य मंत्रालय के ताजा राष्ट्रीय क्षय रोग प्रतिरोधी औषधि रसिस्टेंस सर्वे के अनुसार अमूमन सालाना 20 लाख 79 हजार लोग टीबी के शिकार बनते हैं. इस संबंध में स्वास्थ्य सचिव प्रीति सुदन को 8 अगस्त को भेजे ई-मेल का जवाब अब तक नहीं आया है. जेंससेन के पास वर्ष 2023 तक के लिए बीडाक्विलिन का पेटेंट है.
भारत के पास दो तरीके हैं जिससे वह बीडाक्विलिन या अन्य पेटेंट दवा भारत में ला सकती है. इसके लिए वह अनिवार्य लाइसेंस या स्वेच्छापूर्ण लाइसेंस जारी कर सकती है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपातकाल की घोषणा की अवस्था में सरकार अनिवार्य लाइसेंस जारी कर सकती है. ऐसी स्थिति में सरकार किसी स्थानीय कंपनी को पेटेंट वाले उत्पाद के निर्माण की अनुमति दे सकती है और इसके अविष्कारक को रॉयल्टी दी जा सकती है. बौद्धिक संपत्ति अधिकार समझौते के व्यवसाय संबंधी पक्ष के कानूनी प्रावधान में यह विकल्प मौजूद है.
भारत में केवल एक बार अनिवार्य लाइसेंस जारी किया है. मार्च 2012 में भारतीय एकस्व (पेटेंट) महानियंत्रक कार्यालय ने जर्मनी की दवा कंपनी बेयर कॉरपोरेशन के खिलाफ यह लाइसेंस जारी किया था. इस लाइसेंस के तहत भारतीय दवा निर्माता कंपनी नैटको फार्मा लिमिटेड को नेक्सएवर के उत्पादन की अनुमति दी गई थी. यह दवा किडनी और लंग कैंसर के उपचार के लिए इस्तेमाल की जाती है.
अनिवार्य लाइसेंस कड़े उपाय हैं और सरकारें इनका इस्तेमाल केवल उस वक्त करती हैं जब वे स्वैच्छिक लाइसेंस प्राप्त नहीं कर पातीं. स्वैच्छिक लाइसेंस वह व्यवस्था है जिसमें पेटेंटधारक कंपनी अपनी इच्छा से अन्य दवा निर्माता कंपनी को दवा उत्पादन और बिक्री की अनुमति दोनों की सहमति से तय शर्तों पर देती है.
मेरी एक आरटीआई के जवाब में स्वास्थ्य मंत्रालय ने पुष्टि की कि स्वैच्छिक लाइसेंस की आशा में मंत्रालय ने जॉनसन एंड जॉनसन और भारतीय दवा निर्माता हिटेरो, लुम्पिन और मैक्लिओड के साथ बैठक की थी. स्वास्थ्य मंत्रालय ने बताया, “यह विशेष बैठक सीडीएससीओ यानी केन्द्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन ने आयोजित की थी जिसमें बीडाक्विलिन के स्वैच्छिक लाइसेंस के तहत भारतीय दवा निर्माताओं द्वारा उत्पादन की संभावनाओं पर बातचीत की गई थी. भारतीय दवा निर्माताओं ने दावा किया है कि उनके पास इस दवा को बनाने की दक्षता और प्रौद्योगिकी मौजूद है.”
हालांकि जुलाई में भेजे मेरे एक ई-मेल के जवाब में जॉनसन एंड जॉनसन ने स्पष्ट किया है कि उसने स्वैच्छिक लाइसेंस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया है. उस जवाब में जॉनसन एंड जॉनसन ने लिखा है, “स्वैच्छिक लाइसेंस की बजाए जॉनसन एंड जॉनसन आरएनटीसीपी के साथ मिलकर राष्ट्रीय टीबी कार्यक्रम के तहत मरीजों के लिए जिम्मेवार, सस्ते और टिकाऊ तरीके से बीडाक्विलिन उपलब्ध कराने का काम कर रही है.”
एमएसएस के ‘पहुंच अभियान’ की दक्षिण एशिया की प्रमुख लीना मेनघने ने मुझे बताया, “भारत को यह मीठा जहर सरीखा दान बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसलिए दे रही हैं ताकि भारत के जेनेरिक दवा निर्माता, जिनके पास बीडाक्विलिन का सस्ता और गुणवत्तायुक्त विकल्प तैयार करने की क्षमता है, से उन्हें प्रतिस्पर्धा न करनी पड़े.” लिवरपूल विश्वविद्यालय में मोलेक्यलैर और क्लिनिकल फार्मोकोलॉजी के प्रोफेसर एंड्रयू हिल ने अनुमान लगाया है कि बीडाक्विलिन का जेनेरिक संस्करण का 6 महीने का कोर्स 48 से 102 डॉलर में उपलब्ध हो सकता है.
मरीज और इस रोग से ठीक हुए लोगों का सवाल है कि कि भारतीय निर्माताओं के पास यह दवा बनाने की क्षमता होने के बावजूद भारत ने उपहार वाले रास्ते को क्यों चुना? वेंकेटेशन पूछती हैं, “जिन लोगों को जरूरत है उन लोगों तक इस दवा को पहुंचाने का रोडमैप और फ्रेमवर्क नहीं है. यह बेचैन करने वाली बात है कि इतनी गंभीर समस्या के प्रति ऐसा लचर व्यवहार दिखाया जा रहा है.”
बौद्धिक संपदा कानून के विशेषज्ञों ने तर्क दिया है इसके लिए कानूनी उपाय किया जाना चाहिए. कानूनी सहायता देने वाली संस्था लॉयर्स कलेक्टिव के ट्रस्टी आनंद ग्रोवर कहते हैं, “उपहार सही है या नहीं इस पर बहस की जा सकती है. फिलहाल अनिवार्य लाइसेंस जारी किए जाने की आदर्श परिस्थिति है. सरकार यह लाइसेंस जेनेरिक निर्माताओं को दे सकती है ताकि वे एकदम कम कीमत पर भारत में ही इस दवा को बना पाएं. यदि यह मुमकिन नहीं है तो स्वैच्छिक लाइसेंस पर बातचीत की जानी चाहिए. यदि जॉनसन एंड जॉनसन स्वैच्छिक लाइसेंस पर राजी नहीं होता है तो भारत को अनिवार्य लाइसेंस का रास्ता अख्तियार करना चाहिए क्योंकि यह गंभीर मामला है. साथ ही, यह भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने वाले भारतीय कानून के तहत आता है. वर्तमान मामले में ऐसा नहीं हो रहा है और हम दान पर आश्रित हैं. लेकिन दान को स्पष्ट नीति के तहत व्यवस्थित किया जाना चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है.”
बीडाक्विलिन को प्राप्त करने का तीसरा रास्ता भी है. यह दवा टीबी रोकने के लिए वैश्विक साझेदारी औषधि सुविधा (जीडीएफ) के तहत राष्ट्रों को उपलब्ध है. इसके तहत छह महीने के कोर्स की कीमत पर 400 डॉलर की छूट है. यह छूट दक्षिण अफ्रीका द्वारा की गई बातचीत के नतीजतन प्राप्त हुई है. इस देश में भी टीबी मरीजों की संख्या बहुत है. दक्षिण अफ्रीका में बीडाक्विलिन का प्रयोग विश्व का 60 प्रतिशत होता है. दक्षिण अफ्रीका ने दान पर निर्भर न रह कर जीडीएफ से दवा खरीदी और वह अपने मरीजों को निशुल्क दे रहा है. यदि भारत चाहे तो वह जीडीएफ से यह दवा खरीद सकता है.
भारत सरकार जॉनसन एंड जॉनसन से स्वैच्छिक लाइसेंस प्राप्त करने में असफल रही है और अब तक उसने अनिवार्य लाइसेंस के विकल्प पर विचार नहीं किया है जबकि भारतीय दवा निर्माताओं के पास इस दवा को बनाने की क्षमता है.
नाम न छापने की शर्त पर एक स्वास्थ्य कार्यकर्ता ने बताया, “उपहार प्रक्रिया को कड़ाई के साथ व्यवस्थित किया जाना चाहिए. हमने सबसे कम पारदर्शी विकल्प को चुना है. शर्तें क्या है? दान की अवधि पूरी हो जाने के बाद क्या होगा?” उस कार्यकर्ता ने बताया कि नियामक के बिना इसे जारी रखना इस गंभीर स्वास्थ्य मामले में अधिकारियों को असीमित अधिकार देता है. “सरकार एक सुई भी खरीदती है तो कड़ी खरीद प्रक्रिया का पालन करती है लेकिन यहां ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है.”