बुखार के बावजूद क्वारंटीन सेंटर ने भेजा वापस, प्रवासी मजदूर राजनाथ यादव की कोरोनावायरस से मौत

अखिलेश पांडे

25 मई को बिहार के सारण जिले के गरखा ब्लॉक में स्थित फुलवरिया गांव के अपने घर पहुंचे प्रवासी मजदूर राजनाथ प्रसाद यादव की 4 जून को सांस की गंभीर समस्या के चलते मौत हो गई. अपने गांव आने के बाद यादव सरकारी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में बने क्वारंटीन सेंटर आ गए थे. उनके साथ सेंटर में रहे उनके भतीजे रंजीत और दोस्त दिनेश राय और सेंटर के कर्मचारी और यादव के चचेरे भाई लाल साहब राय ने बताया कि सेंटर में पहुंचने के दो-तीन दिन में ही यादव बीमार महसूस करने लगे थे. जब उन्होंने बुखार, खांसी और सांस लेने में परेशानी की शिकायत की तो स्वास्थ्य कर्मियों की एक टीम ने केंद्र का दौरा किया और उनकी जांच करने के बाद उन्हें दवा दी. लाल के अनुसार 1 जून को क्वारंटीन सेंटर बंद हो गया और यादव सहित वहां रह रहे अन्य लोगों को बिना कोई कारण बताए घर भेज दिया गया. घर पहुंचकर भी यादव ने सांस लेने में परेशानी की शिकायत की और उनके लक्षण बदतर हो गए और तीन दिन बाद उनकी मौत हो गई.

यादव की मौत के बाद उनकी कोरोनावायरस जांच कराई गई. उनकी 16 साल की बेटी रिंकी ने मुझे बताया कि साफ संकेत मिल रहे थे कि उन्हें कोरोना संक्रमण है. 10 जून को यादव की पत्नी गीता देवी ने सांस लेने में परेशानी की शिकायत की और उन्हें भी अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. 9 जून को सारण के सिविल सर्जन डॉ महादेश्वर झा और और 11 जून को जिला मजिस्ट्रेट सुब्रत कुमार सेन ने पुष्टि की कि यादव को कोरोना संक्रमण था. लेकिन 11 जून तक उनके परिवार को यह रिपोर्ट नहीं दी गई थी.

इस पूरे घटनाक्रम से पता चलता है कि गरखा में स्वास्थ्य व्यवस्था और प्रशासन इस वायरस का मुकाबला करने के लिए तैयार नहीं है जबकि भारत में इस संक्रमण को आरंभ हुए महीने बीत चुके हैं. इसके अलावा यादव की मौत से जुड़ी घटनाएं खराब योजना के साथ लागू की गई लॉकडाउन की कमजोरियों को भी सामने लाती हैं.

यादव से मेरी मुलाकात एक महीना पहले दिल्ली के खिजराबाद में हुई थी. इस इलाके में उत्तर प्रदेश और बिहार के हजारों श्रमिक रहते हैं. यादव और वहां रहने वाले अन्य लोगों ने मुझे बताया था कि लॉकडाउन की वजह से वे लोग बेरोजगार हो गए हैं और भूखे हैं. यादव ने कहा था कि मजदूरों ने तय किया है यदि काम नहीं रहता है तो अपने-अपने गांव लौटना बेहतर होगा. मैंने एक अन्य रिपोर्ट में बताया है कि 23 मई को केंद्र सरकार की श्रमिक स्पेशल ट्रेन में चढ़कर ये लोग अपने गांव की ओर रवाना हुए थे. उस यात्रा में यादव के साथ रहे दिनेश ने मुझे बताया था, “हमारे पास खाना नहीं था, पानी नहीं था और हमें उस रास्ते का भी पता नहीं था जिससे ट्रेन जा रही थी.” और यादव ने मुझे बताया था कि वह बहुत दर्दनाक अनुभव था. “हमें कभी नहीं लगा था कि ट्रेन की यात्रा इतनी कठिन भी हो सकती है. उस इलाके के बहुत से लोगों के साथ यादव 25 मई को गरखा पहुंचे थे. दिनेश के अनुसार, एक स्थानीय सरकारी अस्पताल में उनकी कोविड-19 जांच की गई थी और उसके बाद उनसे पूछा गया था कि वह किस क्वारंटीन सेंटर में रहना पसंद करेंगे. इन लोगों ने सरकारी स्कूल को चुना क्योंकि वह उनके घर के पास था और उस दिन सुबह 11 बजे सेंटर आ गए. दिनेश ने बताया कि नोवेल कोरोनावायरस के प्रसार को रोकने के लिए अपनाए जाने वाली सभी सावधानियों और सामाजिक डिस्टेंसिंग का पालन केंद्र में किया गया था.

सेंटर में मौजूद तीन लोगों ने मुझे बताया की केंद्र में ही यादव में कोविड-19 के लक्षण दिखाई देने लगे थे. उस केंद्र में बेंगलुरु से लौटे यादव के भतीजे रंजीत राय भी रह रहे थे. रंजीत ने मुझे बताया, “चाचा पूरी तरह से ठीक नहीं थे. मैंने देखा था कि उनको बुखार और सांस लेने में समस्या थी. उस स्कूल के केयरटेकर और कुक लाल ने मुझे बताया कि केंद्र में आने के दो-तीन दिन में ही यादव ने उनसे कहा था कि उनके गले में खराश है और बुखार-सा लग रहा है. जिसके बाद लाल ने हेड मास्टर मनोज कुमार सिंह को इसकी जानकारी दी, जो उस केंद्र के इंचार्ज थे. इसके बाद ब्लॉक स्तरीय सरकारी स्वास्थ्य केंद्र से एक डॉक्टर ने स्कूल का दौरा किया था. लाल और दिनेश डॉक्टर की पहचान नहीं कर पाए. उस डॉक्टर ने यादव का तापमान लिया और उन्हें कुछ दवाइयां दीं और उनसे कहा कि यदि उनकी अवस्था में सुधार नहीं होता है तो उन्हें अस्पताल ले जाया जाएगा. कुछ समय के लिए यादव ठीक महसूस करने लगे लेकिन सांस की समस्या बनी रही. रंजीत ने बताया, “वह दिखाने की कोशिश कर रहे थे कि वह स्वस्थ हैं.”

लाल के अनुसार 1 जून को अधिकारियों ने क्वारंटीन सेंटर में रहने वालों को बताया कि वे लोग सेंटर खाली कर दें और 14 दिन के क्वारंटीन की बची हुई अवधि को अपने-अपने घरों में आइसोलेशन में रह कर पूरा कर लें. “वे लोग स्वस्थ और ठीक-ठाक लग रहे थे”, लाल ने बताया. लाल ने आगे बताया कि ब्लॉक (प्रशासन) का निर्देश था कि क्वारंटीन सेंटर को बंद कर दिया जाए और लोगों को घर चले जाने को कह दिया जाए. यादव का उल्लेख करते हुए लाल ने कहा, “हमें उन के गुजर जाने की उम्मीद नहीं थी.”

मनोज ने इस बात से इनकार किया कि उन्होंने कोई लापरवाही की है. उन्होंने कहा, “हम उन पर नजर रखे हुए थे. डॉक्टर के जांचने के तीन दिन बाद उन्होंने कहा था कि वह ठीक हैं. उनके आसपास के लोगों ने भी कहा कि वह ठीक हैं.” मनोज ने कहा कि सेंटर में बहुत कम व्यवस्थाएं थीं इसलिए वहां रहने वाले कुछ लोगों ने घर जाकर सेल्फ आइसोलेशन में रहने को ठीक माना. मनोज ने बताया कि सेंटर 4 जून को बंद हुआ था ना कि 1 जून को. उन्होंने बताया कि आखिरी दिन वहां 106 लोग थे. “ऊपर के अधिकारियों ने हमसे कहा था कि सेंटर को बंद कर दीजिए और वहां रह रहे लोगों को दूसरे सेंटर में में भेज दीजिए. लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ.”

मनोज के अनुसार, जो लोग गांव लौट रहे थे उन्हें ब्लॉक स्तरीय 18 सेंटरों में रखा जाना था, ना कि स्कूल में. लेकिन स्थानीय लोगों के दबाव के चक्कर में उन्हें स्कूल में रखना पड़ा. उस केंद्र में जगह कम थी लेकिन सब लोग उसी में रहना चाहते थे. जिन लोगों को क्वारंटीन में रखा गया उन्होंने अफरा-तफरी मचा दी और केंद्र के नियमों का पालन नहीं किया.

लेकिन यादव के परिवार ने जोर देकर कहा कि उन्हें क्वारंटीन सेंटर से चले जाने के लिए कहा गया था. अपने चाचा के बारे में रंजीत ने बताया, “जिस दिन हम लोगों को सेंटर खाली करने के लिए कहा गया, मैंने चाचा से पूछा था कि उनकी तबीयत कैसी है लेकिन किन्ही कारणों से वह सच्चाई छुपा रहे थे.” यादव घर वापस आ गए और उन्होंने आकर भी सांस की समस्या की शिकायत की. रंजीत ने बताया कि उन्हें परिवार से अलग रखा गया था लेकिन तकलीफ अचानक बढ़ने लगी. 4 जून को यादव की तबीयत एकदम खराब हो गई. रंजीत ने बताया, “उस दिन सुबह से ही वह अच्छा महसूस नहीं कर रहे थे. परिवार के लोग उन्हें अस्पताल ले गए लेकिन वह डॉक्टर के पास जाते-जाते गुजर गए.”

अन्य लोगों की तरह रंजीत ने भी कहा कि अधिकारियों को यादव को वापस नहीं भेजना था. “वह घर में बिल्कुल अच्छे नहीं थे. उन्हें अस्पताल भेजा जाना चाहिए था. यहां भी हम अच्छे से व्यवस्था नहीं कर पाए क्योंकि कोविड-19 की जानकारी कम थी. हमने लोकल डॉक्टर की मदद ली लेकिन उन्हें छपरा ले जाया जाना चाहिए था. हो सकता है वह बच जाते.” लाल ने कहा, “हां, हमने उनकी सांस की तकलीफ को हल्के में लिया जो बाद में घातक साबित हुआ.” उन्होंने कहा, “उन्हें अस्पताल ले जाना चाहिए था लेकिन मैं क्या कर सकता था मैं तो बस एक केयरटेकर था और मुझे ज्यादा जानकारी भी नहीं थी.”

रंजीत ने कहा, “मैं निश्चित तौर पर तो नहीं कह सकता लेकिन उनकी मौत दोपहर 12 बजे के आसपास हुई थी.” रंजीत और लाल ने मुझे बताया कि परिवार ने ब्लॉक प्रशासन को इसकी सूचना दी थी और शाम 7 बजे मेडिकल स्टाफ और प्रशासन के सदस्य, जिसमें गरखा के मेडिकल ऑफिसर डॉ सरबजीत और सर्किल अधिकारी मोहम्मद इस्माइल भी थे, आ गए. “उन्होंने उनके शरीर से नमूना लिया और हमें बोला कि इनका अंतिम संस्कार कर देना चाहिए. सर्किल अधिकारी ने कहा कि इनका दाह संस्कार किसी खेती की जमीन में करना चाहिए, ना कि नदी के किनारे क्योंकि उससे समस्या खड़ी हो सकती है. हमने एक बंजर खेती की जमीन में रात 11 बजे उनका दाह संस्कार कर दिया.” रंजीत ने आगे कहा, “हमारे गांव में दाह संस्कार पारंपरिक रूप से डोरीगंज घाट में होता है लेकिन सीओ साहब ने कहा था इसलिए हमने उसी रात बंजर जमीन में उनका दाह संस्कार कर दिया.

हालांकि तब तक जांच का परिणाम नहीं आया था लेकिन दाह संस्कार उसी रात को कर दिया गया. ऐसा करना भारतीय आयुर्विज्ञान शोध परिषद के उस दिशानिर्देश के खिलाफ है जिसमें कहा गया है कि यदि कोविड-19 की जांच की रिपोर्ट आनी बाकी है तो उस रिपोर्ट के आने तक मुर्दाघर से शव को नहीं छोड़ा जाना चाहिए.”

अधिकारियों ने यह स्पष्ट नहीं किया कि यादव का दाह संस्कार उसी रात क्यों किया गया. सरबजीत ने बताया मौत के बाद मैं वहीं था और मेडिकल टीम ने जांच के लिए नमूना लिया था. कुछ वक्त सर्किल अधिकारी भी वहीं थे. लेकिन जब मैंने सर्किल अधिकारी इस्माइल से पूछा कि क्या उन्होंने अंतिम संस्कार करने आने के लिए परिवार पर दबाव डाला था तो उन्होंने जवाब दिया, “मैंने ऐसा नहीं कहा था. जब तक मैं वहां पहुंचा तब तक उन लोगों ने शव को जला दिया था.” दो दिन बाद जब मैंने उनसे दोबारा यह सवाल किया उन्होंने कहा, “हम ऐसा क्यों करना चाहेंगे और ऐसा भी नहीं था कि वह कोरोना पॉजिटिव थे.”

जब मैंने पूछा कि क्या यादव को कोरोनावायरस था तो सरबजीत ने कहा, “मैंने सुना है कि वह पॉजिटिव थे. सिविल सर्जन झा ने जांच रिपोर्ट पर पूछे गए सवाल का पहले तो जवाब नहीं दिया लेकिन 9 जून को उन्होंने कहा की जांच परिणाम पॉजिटिव आया है.

सारण के जिला मजिस्ट्रेट सुब्रत कुमार सेन ने कहा, “परिजनों ने जो बताया है उसके अनुसार क्वारंटीन केंद्र से आने के दो या तीन दिन बाद उन्हें तेज बुखार आया था. परिवार ने उन्हें अस्पताल पहुंचाने की कोशिश की लेकिन वह रास्ते में ही गुजर गए.” जब मैंने उनसे कहा कि मुझे बताया गया कि उन्हें कोरोना के लक्षण केंद्र में ही आ गए थे, तो उन्होंने इस बात से इनकार किया और कहा, “नहीं हम इसे वेरीफाई नहीं कर सकते. हमारे रिकॉर्ड के अनुसार यह सही नहीं है.” जब मैंने उनसे पूछा कि उनसे एक हफ्ते के अंदर ही क्वारंटीन केंद्र को खाली कर देने के लिए क्यों कहा गया तो उन्होंने मेरा फोन काट दिया. मैंने उन्हें दो बार फोन किया और व्हाट्सएप संदेश भी भेजा, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.

लेकिन 11 जून दोपहर 2 बजे तक प्रशासन ने यादव के परिवार वालों को उनकी जांच के परिणाम से अवगत नहीं कराया था. रंजीत ने मुझे बताया कि उन्हें कहीं और से पता चला था कि चाचा को कोविड-19 था. 9 जून को डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ की एक टीम ने गांव का दौरा किया था और बिना कुछ कहे लगभग 45 लोगों के नमूने लिए. रंजीत ने कहा, “वे लोग हमारे पास आए और हमारे पूरे परिवार के नमूने ले और मेरे चाचा के नजदीक रहे लोगों के भी नमूने लिए. उन्हें हमें परिणाम के बारे में बताना चाहिए था. जब मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि ऊपर के अधिकारियों से परिणाम बताने की इजाजत नहीं है. कम से कम उनके पत्नी और परिवार के सदस्यों को तो जानकारी दी जानी चाहिए.”

10 जून की सुबह रंजीत ने मुझे फोन किया और यादव की पत्नी गीता देवी का उल्लेख करते हुए मुझसे कहा, “चाची ठीक से सांस नहीं ले पा रही हैं और उनकी छाती में दर्द है. मैं क्या करूं? मैंने परिवार के लिए मदद मांगने के लिए सरबजीत को फोन किया. एक मेडिकल टीम और एंबुलैंस तुरंत उनके घर पहुंच गई. गीता और बेटी रिंकी को छपरा शहर के एक अस्पताल में ले जाया गया. शाम 4 बजे बेटी ने मुझे फोन पर बताया कि कोई उन्हें देखने नहीं आया है. मैंने सरबजीत को इस बारे में बताया जिसके बाद यादव की पत्नी को भर्ती कर लिया गया.

इस बीच यादव के दोस्तों और सहयोगियों को कोरोनावायरस के बारे में जानकारी के अभाव में कलंकित महसूस करना पड़ रहा है. यादव के साथ क्वारंटीन सेंटर में रहे कालिका राय ने मुझे कहा, “हम घबराए हुए हैं. लोग हमें ऐसे घूरते हैं जैसे कि हमने कोई अपराध किया हो. उन लोगों को इस बात से भी तकलीफ थी कि उन लोगों ने अधिकारियों को समय रहते कार्रवाई करने के लिए विवश नहीं किया. यादव के दोस्त दिनेश ने मुझसे कहा, “हम लोग अनपढ़ और अनाड़ी हैं. हमें इस बात की कल्पना तक नहीं थी कि हम उसे खो देंग.” उन्होंने और अन्य लोगों ने मुझसे कहा कि अधिकारी यादव की जान बचा सकते थे. “केंद्र के लोग और वे डॉक्टर भी जो वहां आते थे उन्हें इस मामले को गंभीरता से लेना चाहिए था. अगर डॉक्टर उनको अस्पताल ले जाते तो उनकी जान बच सकती थी.”