बिहार में कोविड-19 महामारी की कमजोर तैयारी से गहराता स्वास्थ्य संकट

23 जुलाई 2020
कोविड-19 रोगियों के परिवार के सदस्य एम्स पटना में कोविड वार्ड के बाहर प्रतीक्षा करते हुए. महामारी की शुरुआत से ही बिहार प्रशासन वायरस के प्रसार की पहचान कर उससे बचाव में विफल रहा है.
तरुण भारतीय
कोविड-19 रोगियों के परिवार के सदस्य एम्स पटना में कोविड वार्ड के बाहर प्रतीक्षा करते हुए. महामारी की शुरुआत से ही बिहार प्रशासन वायरस के प्रसार की पहचान कर उससे बचाव में विफल रहा है.
तरुण भारतीय

16 जुलाई तक बिहार में कोविड-19 मामलों की संख्या दोगुनी होकर 20612 तक पहुंच गई थी. संक्रमित लोगों में राज्य और राजनीतिक प्रतिष्ठान के कई वरिष्ठ अधिकारी शामिल है जिसके चलते महामारी को लेकर राज्य की प्रतिक्रिया धीमा हो रही है. यह तब है जब परीक्षणों के मामले में राज्य सबसे कम परीक्षण करने वाले राज्यों में गिना जा रहा है. परीक्षण का राष्ट्रीय औसत 9289 प्रति 10 लाख है और बिहार में यह संख्या 2784 प्रति 10 लाख है. पहले से ही खराब चिकित्सा बुनियादी ढांचे के कारण राज्य रोगियों की बढ़ती संख्या को रोकने में विफल रहा है. राज्य के कई वरिष्ठ डॉक्टरों ने मुझे बताया कि स्थिति इ​सलिए इतनी गंभीर बन गई है क्योंकि मार्च के अंत में राष्ट्रव्यापी तालाबंदी की घोषणा के बाद राज्य में वापस आने वाले 32 लाख से अधिक प्रवासी मजदूरों के परीक्षण और रहन-सहन की अच्छी व्यवस्था नहीं थी.

चिकित्सा बुनियादी ढांचे की कमी बिहार के ग्रामीण इलाकों में कहीं अधिक स्पष्ट है जहां महामारी ने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों की कमी और परीक्षण केंद्रों या कोविड देखभाल के लिए समर्पित अस्पतालों की कमी को उजागर किया है. 20 जुलाई तक राज्य में वायरस से प्रभावित रोगियों के लिए केवल चार विशेष अस्पताल थे. इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर 31 मई को राष्ट्रव्यापी तालाबंदी के खत्म होने के बाद सभी प्रकार की रोकों में छूट देने की राज्य सरकार की उत्सुकता ने संकट बढ़ा दिया है.

इस साल मार्च में कोविड ​​की शुरुआत से प्रशासन वायरस के प्रसार की पहचान करने और उससे बचने में विफल रहा और यह सुनिश्चित नहीं कर सका कि राज्य के पास इस संकट से निपटने के लिए चिकित्सा बुनियादी ढांचा तैयार हो. ग्रामीण बिहार में वायरस के प्रसार और परीक्षण के लिए पूरी तरह से बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव था. कई प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में बेड और डॉक्टरों, दोनों की कमी थी. राज्य में क्वारंटीन केंद्र अक्सर गंदगी भरे होते थे, जहां बुनियादी स्वच्छता और भोजन की कमी थी. इसके साथ ही राज्य ने इसका बहुत कम प्रयास किया कि अग्रिम मोर्चे के कार्यकर्ता, जैसे कि स्वच्छता कार्यकर्ता और स्थानीय स्तर पर मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, जिन्हें आशा कार्यकर्ता कहा जाता है, को सुरक्षा उपकरण उपलब्ध हो.

15 अप्रैल को नीतीश कुमार ने घोषणा की कि राज्य प्रशासन के सामने वापिस लौट रहे सभी प्रवासियों सहित कोविड-19 के लक्षणों के लिए राज्य की पूरी आबादी की जांच करने का लक्ष्य है. 23 अप्रैल को स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों ने कथित तौर पर दावा किया कि राज्य के स्वास्थ्य कर्मियों ने 65.61 लाख घरों का दौरा किया और 3.58 करोड़ से अधिक लोगों की जांच की है. ऑनलाइन न्यूज पोर्टल इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट बताती है कि ये आंकड़े गलत और भ्रामक हैं. उनके अध्ययन में कहा गया है कि बिहार के कुछ हिस्सों में पूरे इलाके की जांच नहीं की गई थी और जिन क्षेत्रों में स्वास्थ्य कर्मियों ने जांच की थी, वहां लोगों का यात्रा इतिहास या लक्षणों को दर्ज नहीं किया गया था.

14 मई को मैंने पटना में 30 परिवारों से बात की ताकि बेहतर तरीके से समझा जा सके कि इन जांच प्रक्रियाओं का संचालन कैसे किया जाता था. सभी परिवारों ने कहा कि पटना नगर निगम के स्वयंसेवक उनके पास आए थे, आमतौर पर एक आशा कार्यकर्ता के साथ. परिजनों ने मुझे बताया कि अधिकारियों ने उनके मेडिकल इतिहास के बारे में कुछ नहीं पूछा. नेहरू नगर के निवासी विवेक आनंद ने कहा, "आशा कार्यकर्ता ने हमारे परिवार में प्रत्येक सदस्य के मामूली विवरण मेरे पिता से पूछा, फिर उन्होंने सभी के फोन नंबर लिए और चले गए." उन्होंने आगे कहा कि "ऐसा लग रहा था जैसे कि कोविड की स्क्रीनिंग ना होकर हमारा एनपीआर हो रहा है. पड़ोस की कॉलोनी में स्वास्थ्य कर्मियों ने केवल एक परिवार से बात की जिसने हर परिवार की ओर से बात रखी और फिर कर्मी चले गए."

जुंबिश दिल्ली की पत्रकार हैं और द इंडियन एक्सप्रेस, द न्यू इंडियन एक्सप्रेस और अहमदाबाद मिरर में काम कर चुकी हैं.

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