16 जुलाई तक बिहार में कोविड-19 मामलों की संख्या दोगुनी होकर 20612 तक पहुंच गई थी. संक्रमित लोगों में राज्य और राजनीतिक प्रतिष्ठान के कई वरिष्ठ अधिकारी शामिल है जिसके चलते महामारी को लेकर राज्य की प्रतिक्रिया धीमा हो रही है. यह तब है जब परीक्षणों के मामले में राज्य सबसे कम परीक्षण करने वाले राज्यों में गिना जा रहा है. परीक्षण का राष्ट्रीय औसत 9289 प्रति 10 लाख है और बिहार में यह संख्या 2784 प्रति 10 लाख है. पहले से ही खराब चिकित्सा बुनियादी ढांचे के कारण राज्य रोगियों की बढ़ती संख्या को रोकने में विफल रहा है. राज्य के कई वरिष्ठ डॉक्टरों ने मुझे बताया कि स्थिति इसलिए इतनी गंभीर बन गई है क्योंकि मार्च के अंत में राष्ट्रव्यापी तालाबंदी की घोषणा के बाद राज्य में वापस आने वाले 32 लाख से अधिक प्रवासी मजदूरों के परीक्षण और रहन-सहन की अच्छी व्यवस्था नहीं थी.
चिकित्सा बुनियादी ढांचे की कमी बिहार के ग्रामीण इलाकों में कहीं अधिक स्पष्ट है जहां महामारी ने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों की कमी और परीक्षण केंद्रों या कोविड देखभाल के लिए समर्पित अस्पतालों की कमी को उजागर किया है. 20 जुलाई तक राज्य में वायरस से प्रभावित रोगियों के लिए केवल चार विशेष अस्पताल थे. इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर 31 मई को राष्ट्रव्यापी तालाबंदी के खत्म होने के बाद सभी प्रकार की रोकों में छूट देने की राज्य सरकार की उत्सुकता ने संकट बढ़ा दिया है.
इस साल मार्च में कोविड की शुरुआत से प्रशासन वायरस के प्रसार की पहचान करने और उससे बचने में विफल रहा और यह सुनिश्चित नहीं कर सका कि राज्य के पास इस संकट से निपटने के लिए चिकित्सा बुनियादी ढांचा तैयार हो. ग्रामीण बिहार में वायरस के प्रसार और परीक्षण के लिए पूरी तरह से बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव था. कई प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में बेड और डॉक्टरों, दोनों की कमी थी. राज्य में क्वारंटीन केंद्र अक्सर गंदगी भरे होते थे, जहां बुनियादी स्वच्छता और भोजन की कमी थी. इसके साथ ही राज्य ने इसका बहुत कम प्रयास किया कि अग्रिम मोर्चे के कार्यकर्ता, जैसे कि स्वच्छता कार्यकर्ता और स्थानीय स्तर पर मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, जिन्हें आशा कार्यकर्ता कहा जाता है, को सुरक्षा उपकरण उपलब्ध हो.
15 अप्रैल को नीतीश कुमार ने घोषणा की कि राज्य प्रशासन के सामने वापिस लौट रहे सभी प्रवासियों सहित कोविड-19 के लक्षणों के लिए राज्य की पूरी आबादी की जांच करने का लक्ष्य है. 23 अप्रैल को स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों ने कथित तौर पर दावा किया कि राज्य के स्वास्थ्य कर्मियों ने 65.61 लाख घरों का दौरा किया और 3.58 करोड़ से अधिक लोगों की जांच की है. ऑनलाइन न्यूज पोर्टल इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट बताती है कि ये आंकड़े गलत और भ्रामक हैं. उनके अध्ययन में कहा गया है कि बिहार के कुछ हिस्सों में पूरे इलाके की जांच नहीं की गई थी और जिन क्षेत्रों में स्वास्थ्य कर्मियों ने जांच की थी, वहां लोगों का यात्रा इतिहास या लक्षणों को दर्ज नहीं किया गया था.
14 मई को मैंने पटना में 30 परिवारों से बात की ताकि बेहतर तरीके से समझा जा सके कि इन जांच प्रक्रियाओं का संचालन कैसे किया जाता था. सभी परिवारों ने कहा कि पटना नगर निगम के स्वयंसेवक उनके पास आए थे, आमतौर पर एक आशा कार्यकर्ता के साथ. परिजनों ने मुझे बताया कि अधिकारियों ने उनके मेडिकल इतिहास के बारे में कुछ नहीं पूछा. नेहरू नगर के निवासी विवेक आनंद ने कहा, "आशा कार्यकर्ता ने हमारे परिवार में प्रत्येक सदस्य के मामूली विवरण मेरे पिता से पूछा, फिर उन्होंने सभी के फोन नंबर लिए और चले गए." उन्होंने आगे कहा कि "ऐसा लग रहा था जैसे कि कोविड की स्क्रीनिंग ना होकर हमारा एनपीआर हो रहा है. पड़ोस की कॉलोनी में स्वास्थ्य कर्मियों ने केवल एक परिवार से बात की जिसने हर परिवार की ओर से बात रखी और फिर कर्मी चले गए."
राज्य सरकार की संपर्क ट्रेसिंग में भी गड़बड़ी है. वैशाली जिला अस्पताल के एक वरिष्ठ डॉक्टर ने बताया, "कोरोना के प्रकोप के शुरुआती चरणों में ट्रेसिंग की योजना अच्छी तरह से नहीं बनाई गई. हम सुनते रहे कि बिहार में सभी स्वास्थ्य कर्मचारी, पुलिस अधिकारी, किराना दुकानदार, स्वच्छता कर्मी एक-एक करके समूहों में परीक्षण करेंगे. लेकिन जैसा कहा गया था वैसा हुआ नहीं." उन्होंने कहा कि 31 मई के बाद लॉकडाउन प्रतिबंधों को अचानक हटाने से स्वास्थ्य विभाग के लिए संपर्क ट्रेसिंग को जारी रखना और कठिन हो गया. विश्वसनीय स्क्रीनिंग या संपर्क ट्रेसिंग की कमी का मतलब है कि बिहार प्रशासन को राज्य में संक्रमण की गंभीरता या प्रसार की कोई समझ नहीं है.
अन्य राज्यों के प्रवासी मजदूरों की भारी आमद ने भी इसे बढ़ाया है. मुजफ्फरपुर के एक कंपाउंडर मनोज कुमार ने 28 अप्रैल को बताया, "इससे पहले कि सरकार लौट रहे प्रवासियों के लिए क्वारंटीन केंद्र चलाना शुरू करती, बिहार के कई हिस्सों में गांव के लोग पहले से ही सामूहिक पहल के रूप में बिना किसी सरकारी मदद के क्वारंटीन केंद्र चला रहे थे." तीन दिन बाद मुख्यमंत्री ने बिहार लौटने वाले प्रवासियों के लिए 14 दिवसीय क्वारंटीन और 5000 क्वारंटीन केंद्र स्थापित करने की घोषणा की.
सरकार द्वारा संचालित कई क्वारंटीन केंद्रों में बुनियादी स्वच्छता सुविधाओं का अभाव था और सरकार द्वारा भोजन उपलब्ध नहीं कराया जा रहा था. 15 मई को 40 लोगों का एक समूह महाराष्ट्र से गया जिले के डोभी ब्लॉक में लौटा. समूह के 55 वर्षीय सदस्य उदय पासवान ने मुझे बताया, उन्हें डोभी के सरकारी क्वारंटीन केंद्र में भोजन उपलब्ध नहीं कराया गया था, जहां उन्हें 14 दिनों तक रखा गया था. पासवान ने बताया, "सरकारी क्वारंटीन केंद्र में हमें बिस्तर, भोजन की आपूर्ति या बर्तनों के साथ रसोई जैसी कोई सुविधा नहीं मिली. खाली पड़े प्राथमिक विद्यालय में हम अपने दम पर थे. भोजन से लेकर बिस्तरों तक हमें अपने परिवार के सदस्यों और ग्रामीणों की मदद से जुटाना पड़ा. हम पूरी तरह से अपने गांव के लोगों की दया पर थे. ” पासवान ने मुझे बताया कि उनके गांव के कई प्रतिनिधियों ने जिला मजिस्ट्रेट और खंड विकास अधिकारी के कार्यालयों का दौरा किया और क्वारंटीन केंद्रों में भोजन पहुंचाने के लिए कहा लेकिन उन्हें नजरअंदाज कर दिया गया. पासवान ने कहा, "ऐसा लग रहा था कि जैसे घर से दूर रहते हुए भूखे मरने से बचे हम लगों को अब क्वारंटाइन केंद्रों में मरने के लिए छोड़ दिया गया है."
दक्षिणी बिहार में क्वारंटीन केंद्रों की हालत भी इसी तरह थी. 21 मई को अंकुश राज नाम के सात साल के बच्चे, जो चार दिन पहले मुंबई से अपने माता-पिता के साथ लौटा था, की गया जिले की मटिहानी पंचायत के कंचनपुर हाई स्कूल में चलाए गए एक क्वारंटीन केंद्र में सोते समय सांप द्वारा काट लिए जाने से मौत हो गई. गया के एक कार्यकर्ता बनारसी आलम ने 21 मई को कहा, "इस उदाहरण ने दक्षिण बिहार लौटने वाले प्रवासियों को वास्तव में डरा दिया है. लड़के और उसके परिवार को, अन्य लोगों के साथ, मजबूरी में केंद्र के बरामदे में सोना पड़ा था क्योंकि कमरों में बहुत भीड़ थी."
कोविड रोगियों के साथ संपर्क इतिहास रखने वालों के परीक्षण में भी क्वांरटीन सुविधाएं विफल रहीं, इसके बजाय केवल उन लोगों का परीक्षण किया गया जो गंभीर रूप से बीमार थे. मधुबनी जिले के पंडौल ब्लॉक में एक क्वारंटीन केंद्र पर तैनात मजिस्ट्रेट-ऑन-ड्यूटी, जिन्होंने नाम ना प्रकाशित करने का आग्रह किया, ने मुझे बताया, "अगर सरकार द्वारा संचालित क्वारंटीन केंद्र चिकित्सा सुविधा भी नहीं दे सकते हैं और क्वारंटीन किए गए लोगों के लिए कोविड परीक्षण सुनिश्चित नहीं कर सकते हैं, तो वे गांव स्तर में धन की कमी में चल रहे केंद्रों से कैसे कुशल या बेहतर हैं?" स्थानीय स्वास्थ्य अधिकारियों ने बताया कि प्रवासियों ने क्वारंटीन केंद्रों की खराब स्थिति से बचने की उम्मीद में यात्रा या वायरस के लक्षणों के बारे में बताने से परहेज किया. 15 जून को राज्य के सभी क्वारंटीन केंद्र बंद कर दिए गए.
गया शहर में घटी एक भयावह घटना के बाद महिलाएं भी क्वारंटीन केंद्रों और अलगाव वार्डों में जाने को तैयार नहीं हैं. 27 मार्च को गया के अनुग्रह नारायण मगध मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में एक महिला को भर्ती कराया गया था, जिसे हाल ही में हुए गर्भपात के कारण अत्यधिक रक्तस्राव की शिकायत थी. 1 अप्रैल को लक्षण दिखाने के बाद उसे कोविड-19 होने का संदेह हुआ और उसे अस्पताल के आइसोलेशन वार्ड में स्थानांतरित कर दिया गया. वायरस का परिणाम नैगेटिव आने के बाद उसे छुट्टी दे दी गई. घर पहुंचने पर मरीज ने अपने परिवार से शिकायत की कि 2 और 3 अप्रैल की रात को अस्पताल स्टाफ के एक सदस्य ने उसका यौन शोषण किया था. अत्यधिक रक्तस्राव से 6 अप्रैल को रोगी की मृत्यु हो गई. बिहार पुलिस ने मामले के संदिग्धों में से एक को गिरफ्तार किया है. गया की एक कार्यकर्ता रेखा अनिल ने मुझे बताया, "यह घटना अभी भी ग्रामीण गया में महिलाओं को कोरोना के लक्षण दिखाने पर भी उसका खुलासा करने से डराती है. वे अभी भी बिहार के अस्पतालों में क्वारंटीन हो जाने को लेकर असुरक्षित महसूस करती हैं. यहां तक कि एक घातक बीमारी का इलाज करने वाली संस्थाएं भी बिहार में व्यापक अराजकता के चंगुल से मुक्त नहीं हैं.”
22 जून को मैंने गया के जिला मजिस्ट्रेट अभिषेक सिंह से बात की. "गया में क्वारंटीन हुई महिला के साथ यौन हिंसा की घटना छेड़छाड़ का मामला था न की बलात्कार का जैसा की कई मीडिया संस्थानों ने रिपोर्ट किया. उसके मामले में, आरोपी को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया. यौन हिंसा की घटनाओं की जो यहां तक की घरों में भी होते हैं, यह एक सामान्य मामला था. इस असाधारण मामले के कारण जिले भर की महिलाएं क्वारंटीन होने और कोविड के इलाज से पीछे नहीं हटना चाहिए.”
मैंने कई आशा कार्यकर्ताओं से बात की जिन्होंने बताया कि ग्रामीण बिहार क्वारंटीन केंद्रों ने वायरस के प्रसार को रोकने के लिए बहुत कम व्यवस्था की है. आशा कार्यकर्ताओं ने सरकार की जवाबी कार्रवाई के डर से अपना उपनाम उजागर ना करने का अनुरोध किया. 17 जून को मैंने खगड़िया जिले की आशा कार्यकर्ता कविता से बात की. "वापिस लौटने वाले प्रवासी श्रमिकों, जिनमें लक्षण दिखाई देते हैं, सिर्फ उन्हें ही क्वारंटीन केंद्रों पर ले जाया जाता है," उन्होंने मुझे बताया. "उसके बाद, केवल उनका ही कोविड परीक्षण किया जाता है जो गंभीर रूप से बीमार पड़ते हैं." अनीता और कुसुम, क्रमशः मुजफ्फरपुर और रोहतास जिलों की आशा कार्यकर्ताओं ने मुझे बताया कि उनके जिलों में क्वारंटीन केंद्रों में भी यही स्थिति है. इसका मतलब यह हुआ कि ऐसे प्रवासी श्रमिक जिनमें वायरस के लक्षण नहीं दिखाई देते वायरस फैलाना जारी रखेंगे.
आशा कार्यकर्ताओं ने मुझे यह भी बताया कि पूरे लॉकडाउन में उन्हें कोई सुरक्षा उपकरण नहीं दिए गए थे. “औसतन, बिहार में शायद ही किसी आशा को सुरक्षा गियर के नाम पर एक से अधिक डिस्पोजेबल मास्क दिए गए हों,” आशा कार्यकारिणी संघ के अध्यक्ष शशि यादव ने मुझे बताया. ''मैंने सभी आशा कार्यकर्ताओं की ओर से सीएम से बार-बार अनुरोध किया कि वे महामारी के समय कम से कम बुनियादी सुरक्षा गियर जैसे कि पर्याप्त संख्या में दस्ताने, एन -95 मास्क और अपनी सेवाओं के लिए अतिरिक्त भत्ता प्रदान करें, जिस पर उन्होंने कोई कान नहीं दिया. इसने आशा कार्यकर्ताओं को जमीनी स्तर पर काम करने से हतोत्साहित किया है. ”
आशा कार्यकर्ताओं की तरह, महामारी के मोर्चे पर स्वच्छता कार्यकर्ताओं ने भी, सुरक्षा उपकरणों की पूरी तरह कमी के बारे में शिकायत की. 17 जून को, मैंने पटना के प्रमुख इलाकों में स्वच्छता अभियान चलाने वाले स्वच्छता कर्मचारियों से बात की, जिनमें से किसी को भी मास्क या दस्ताने नहीं दिए गए थे. पटना नगर निगम के सफाई कर्मचारी सदानंद राम ने एसके नगर में एक कचरा वाहन में बैठकर मुझे बताया, “मुझे निगम द्वारा केवल एक मास्क दिया गया था और यह एक डिस्पोजेबल मास्क था. मुझे महामारी की शुरुआत से अपनी सेवाओं के लिए कोई भत्ता भी नहीं मिला."
पटना के एक गैर-लाभकारी संगठन प्रैक्सिस ने एक सप्ताह के अंतराल में पटना के रुकनपुरा, कंकरबाग और राजा बाजार इलाकों में स्वच्छता कार्यकर्ताओं का एक सर्वेक्षण किया. उनके सर्वेक्षण में पाया गया कि मार्च की शुरुआत से, स्वच्छता कर्मचारियों को केवल एक डिस्पोजेबल मास्क दिया गया था, जिसका कुछ दिनों से ज्यादा उपयोग नहीं किया जा सकता था. "इस उच्च जोखिम वाले काम के लिए अतिरिक्त भत्ते प्राप्त करने के विपरीत, श्रमिकों ने कहा कि तालाबंदी के दौरान उनके वेतन से एक दिन का वेतन काटा गया था," प्रैक्सिस के सदस्य विजय प्रकाश ने कहा. "उन्हें जो सेनीटाइजर दिया गया उसकी गुणवत्ता भी बहुत खराब थी." पटना के नगर आयुक्त हिमांशु शर्मा ने फोन कॉल का जवाब नहीं दिया.
महामारी से पहले भी, स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में बिहार देश में सबसे पिछड़े राज्यों में से था. नीति आयोग द्वारा 2019 के हेल्थ इंडेक्स रिपोर्ट में 21 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के स्वास्थ्य संकेतकों का अध्ययन किया गया था. इसमें बिहार ने लगभग हर सार्वजनिक-स्वास्थ्य संकेतक में सबसे नकारात्मक वृद्धिशील परिवर्तन दर्ज किया. रिपोर्ट में कहा गया है, ''बिहार में, यह अधिकांश स्वास्थ्य संकेतकों जैसे कि कुल प्रजनन दर, जन्म के समय कम वजन, जन्म के समय लिंग अनुपात, संस्थागत प्रसव, टीबी उपचार सफलता दर, एएनएम और स्टाफ नर्स रिक्तियों, कार्यात्मक 24x7 पीएचसी, जन्म पंजीकरण, एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम की रिपोर्टिंग, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की ग्रेडिंग, सुविधाओं की मान्यता और फंड ट्रांसफर के बिगड़ने से परिलक्षित होता है.'' बिहार स्वास्थ्य प्रणाली में इन गंभीर कमियों के बावजूद, राज्य ने महामारी से लड़ने के लिए, लॉकडाउन के पहले तीन चरणों के दौरान अपने चिकित्सा बुनियादी ढांचे को मजबूत करने के लिए बहुत कम काम किया.
कोविड-19 महामारी ने ग्रामीण बिहार में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे की कलई खोल कर रख दी. राज्य की लगभग 89 प्रतिशत या 12.4 करोड़ की आबादी गांवों में रहती है. मध्य जून में, मैंने दक्षिणी बिहार के रोहतास जिले के कई कार्यकर्ताओं और डॉक्टरों से बात की थी, जिन्होंने मुझे बताया था कि जिले के थ्रेडबेयर हेल्थ इन्फ्रास्ट्रक्चर पूरी तरह से कोविड-19 महामारी के दौरान मरीजों का परीक्षण, क्वारंटीन या निगरानी करने में असमर्थ थे. सासाराम शहर का सदर अस्पताल, रोहतास का एकमात्र अस्पताल है जिसमें संभावित कोविड-19 रोगियों के परीक्षण और निगरानी के लिए एक आइसोलेशन-वार्ड की सुविधा है. जिले में 19 पीएचसी और 32 अतिरिक्त पीएचसी हैं. ग्रामीण मजदूर संघ के एक कार्यकर्ता अशोक कुमार ने कहा, "सासाराम के प्रमुख ब्लॉकों के भीतर पंचायतों के स्तर पर अतिरिक्त पीएचसी के लिए भी बुनियादी सुविधाओं की कमी है. पंचायत स्तर पर स्थिति इतनी दयनीय है, ज्यादातर अतिरिक्त पीएचसी लोगों के घरों में कमरों में चलाई जा रही हैं."
"सासाराम के भदोखरा और सिकरिया पंचायतों में, आपको कोई डॉक्टर नहीं मिलेगा, लेकिन अतिरिक्त पीएचसी में केवल एक सहायक नर्स-दाई ही होगी," अशोक कुमार ने कहा. “यहां तक कि वे हर रोज केंद्र का दौरा नहीं करते हैं और साप्ताहिक यात्राओं का विकल्प चुनते हैं. यदि कोई बहुत जरूरी मामला है, तो वे आशा कार्यकर्ताओं के अनुरोध पर केंद्र पर पहुंचते हैं. हालांकि, सेंदुआर पंचायत में, चार स्वास्थ्य कर्मचारी केंद्र में तैनात हैं, लेकिन तब तक कोई दौरा नहीं करता जब तक कि स्वास्थ्य की स्थिति को देखते हुए बहुत जरूरी होने पर उन्हें बुलाया नहीं जाता.”
अशोक कुमार ने कहा कि इन पीएचसी में बुनियादी प्राथमिक चिकित्सा भी सुलभ नहीं है. "ये स्वास्थ्य कार्यकर्ता सजावटी नियुक्तियों के लिए प्रतीत होते हैं," उन्होंने मुझे बताया. “कोरोना के दिनों से पहले भी, वे किसी रोगी को छूने से परहेज करते थे और उनके साथ उपेक्षा का व्यवहार करते थे. किसी भी उपचार के लिए सदर अस्पताल रेफर किया जाता. कोरोना परीक्षण के लिए, सदर अस्पताल के डॉक्टर मरीजों को पटना के मुख्य सरकारी अस्पताल एनएमसीएच में भेजते हैं. ” वह पटना में नालंदा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल का जिक्र कर रहे थे. राज्य में सक्रिय एक वामपंथी संगठन, भारतीय कम्युनिस्ट केंद्र के एक कार्यकर्ता भोला शंकर, जो सासाराम के रहने वाले हैं, ने मुझे बताया कि सासाराम में अतिरिक्त पीएचसी में से किसी में भी एक अस्पताल का बिस्तर नहीं था. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा निर्धारित भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य मानकों के अनुसार, सासाराम जैसे उच्च जनसंख्या वाले क्षेत्रों में पीएचसी के लिए कम से कम छह बेड होने की उम्मीद की जाती है.
उत्तरी बिहार के पश्चिम चंपारण जिले में 18 ब्लॉक स्तरीय पीएचसी की हालत बहुत बुरी है. जिले के एक भूमि-अधिकार कार्यकर्ता पंकज ने बताया, "प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में से अधिकांश या तो गैर-कार्यात्मक हैं या कर्मचारियों की कमी को झेल रहे हैं. शायद ही किसी स्वास्थ्य केंद्र में 24 घंटे ड्यूटी पर डॉक्टर उपलब्ध हों. स्वास्थ्य सेवा से लेकर सरकार के साथ नौकरशाहों की सांठगांठ तक, पूरे बिहार में भ्रष्टाचार और अराजकता का दौर जारी है. एक महामारी भी उन्हें अपने पैरों पर नहीं खड़ा कर पाएगी. यह एक डरावनी स्थिति है." पंकज ने कहा कि सभी स्वास्थ्य केंद्रों पर एमबीबीएस डॉक्टर उपलब्ध नहीं थे. "डॉ. शंभू शर्मा एक आयुर्वेदिक चिकित्सक हैं जो पिछले 25 वर्षों से लगातार रामनगर ब्लॉक के जोगिया पंचायत में अतिरिक्त पीएचसी की देखभाल कर रहे हैं," पंकज ने मुझे बताया. “ग्रामीण बिहार में समर्पित डॉक्टरों की कमी है. भ्रष्टाचार और सेवा प्रदान करने के इरादे की कमी खास तौर पर है.” पंकज ने कहा कि 2007 से 2014 के बीच की अवधि में पीएचसी में अधिक मरीज थे. नीतीश कुमार की अगुवाई वाली सरकार ने भवनों में नया रंगरोगन करवाकर बुनियादी ढांचे में सुधार और ग्रामीण बिहार में दवाओं की उपलब्धता में सुधार पर कुछ ध्यान दिया था. हालांकि, उन्होंने कहा कि पिछले पांच वर्षों में, इन पीएचसी की स्थिति तेजी से फिर से खराब हो गई.
कागज पर शर्मा द्वारा चलाए गए अतिरिक्त पीएचसी में तीन डॉक्टर हैं. हालांकि, जोगिया पंचायत के अतिरिक्त पीएचसी में एक कर्मचारी ने मुझे बताया कि अपने केंद्र में नियुक्त एमबीबीएस डॉक्टर रामनगर ब्लॉक पीएचसी में इलाज करता है. “हेल्थकेयर-सेंटर दिशानिर्देशों के अनुसार शर्मा के केंद्र में दो एएनएम होनी चाहिए. लेकिन केवल एक को नियुक्त किया गया है,” उन्होंने कहा. “रामनगर पीएचसी के तहत अन्य दो अतिरिक्त पीएचसी में डॉक्टर उपलब्ध नहीं हैं. वे अकेले एएनएम द्वारा चलाए जा रहे हैं.” सासाराम के उलट, पश्चिम चंपारण में कई अतिरिक्त पीएचसी में अस्पताल के बिस्तर हैं. यह संकेत दिए बिना कि पीएचसी में बुनियादी ढांचे या कर्मचारियों की उपलब्धता में कोई सुधार होगा, मुख्यमंत्री ने 20 जुलाई को घोषणा की कि सभी पीएचसी कोविड परीक्षणों का संचालन शुरू करेंगे.
“बिहार सरकार के पास कार्यबल की कमी नहीं है. उसके पास आशा कार्यकर्ता, ममता कार्यकर्ता और जीविका स्वयंसेवक हैं,” गया के सामाजिक कार्यकर्ता एमके निराला ने मुझे बताया. जीविका स्वयंसेवक बिहार ग्रामीण आजीविका परियोजना के तहत गठित महिलाओं के स्वयं सहायता समूह हैं और ममता कार्यकर्ता माताओं और नवजात शिशुओं को स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वाले स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं. निराला ने कहा, “ये स्वयंसेवक गांव के समाज के नियमित संपर्क में हैं और उनके अंधविश्वासों और स्वास्थ्य जागरूकता की स्थिति के बारे में जानते हैं. अगर उनके साथ नियमित रूप से संवाद करने और इस तरह के गंभीर समय के दौरान उन्हें अच्छी तरह से सुविधा उपलब्ध कराने करने और प्रशिक्षित करने का सरकार का इरादा होता, तो इससे जमीनी स्तर पर कोविड-19 महामारी के दौरान बेहतर तैयारी हो सकती थी.”
मार्च के अंत तक दक्षिणी बिहार के किसी भी जिला अस्पताल को विशेष विशेष केंद्र में परिवर्तित नहीं किया गया था. सभी मरीजों को पटना के एनएमसीएच में रेफर किया जाना था. 7 अप्रैल को, सरकार ने गया जिले में एएनएमसीएच और भागलपुर जिले के जवाहर लाल नेहरू मेडिकल कॉलेज को विशेष कोविड अस्पतालों में परिवर्तित कर दिया. जून के अंत में पटना में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को चौथा विशिष्ट कोविड अस्पताल बनाया गया और स्वास्थ्य मंत्रालय ने इसके प्रशासन को सामान्य रोगियों की भर्ती को कम करने का निर्देश दिया. वर्तमान में जिला अस्पतालों में केवल परीक्षण सुविधाएं हैं और कोविड संदिग्धों के लिए आइसोलेशन वार्ड प्रदान करते हैं. इसकी तुलना में 20 अप्रैल तक ओडिशा ने हर जिले में कम से कम एक विशेष कोविड-19 अस्पताल बनाया है.
मैंने जिनसे बात की उनमें से कई वरिष्ठ सरकारी डॉक्टरों ने कहा कि सरकार के समर्थन के अभाव में वे चिंतित है. वैशाली जिले के वरिष्ठ चिकित्सक ने मुझे बताया, "अस्पतालों और राज्य सरकार के शीर्ष प्रबंधन के बीच बातचीत का अभाव है. सरकार ने कभी भी सार्वजनिक स्वास्थ्य में निवेश करने की जहमत नहीं उठाई और अस्पतालों में शीर्ष पदानुक्रमों पर भी भ्रष्टाचार गहरा रहा है. हां, पीपीई और टेस्टिंग किट की आपूर्ति की जा रही है लेकिन स्वास्थ्य सेवा के कर्मचारियों के साथ कोई निरंतर संवाद नहीं है. सार्वजनिक पहुंच के लिए आपूर्ति का शायद ही कोई रिकॉर्ड हो. इसका मतलब सुरक्षा उपकरणों की आपूर्ति और परीक्षण किट के बारे में पारदर्शिता की पूर्ण कमी है.”
डॉक्टरों को यह भी चिंता थी कि राज्य के कुछ कोविड-समर्पित अस्पतालों में भी, डॉक्टर अपनी निजी प्रैक्टिस जारी रखने के लिए ड्यूटी छोड़ रहे थे. एम्स पटना के एक वरिष्ठ डॉक्टर ने नाम ना छापने का अनुरोध करते हुए कहा, "बिहार में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में डॉक्टरों की अच्छी संख्या अपने जुनून के चलते नहीं है. वे इसके बजाय कोविड-19 ड्यूटी के दौरान प्रॉक्सी से काम करते हैं, अस्पताल में महत्वपूर्ण सेवाओं को छोड़ देते हैं और निजी प्रैक्टिस कर संपन्न होते हैं. वे भ्रष्टाचार करते हैं.” बिहार स्वास्थ्य विभाग की 6 मई की एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि 31 मार्च और 12 अप्रैल की अवधि के दौरान सार्वजनिक अस्पतालों के 362 डॉक्टर ड्यूटी से अनुपस्थित थे. उन्हें महामारी के दौरान कर्तव्य का पालन ना करने पर कारण बताओ नोटिस दिया गया है.
18 जुलाई को मैंने जन स्वास्थ्य आंदोलन के भारतीय अध्याय, जन स्वास्थ्य अभियान बिहार के संयोजक डॉ. शकील अहमद से बात की. "कुछ सार्वजनिक अस्पतालों से जो क्वारंटीन सुविधा प्रदान करते हैं और बिहार सरकार द्वारा संचालित तीन विशेष कोविड अस्पतालों में कोविड रोगियों के लिए कुछ बेड आरक्षित किए हैं, उनमें से प्रत्येक में कर्मचारियों की कमी है," अहमद ने मुझे बताया. “चिकित्सा कर्मचारियों के लिए सैकड़ों पद खाली पड़े हैं. तो, रोगियों को पर्याप्त देखभाल नहीं मिलती है. एम्स में जहां अपेक्षाकृत बेहतर स्वास्थ्य सुविधा होती है, प्रवेश पाना कभी-कभी राजनीतिक संपर्कों वाले लोगों के लिए भी असंभव होता है, इसलिए आम लोगों को बिस्तर मिलने की संभावना और कम हो जाती है.” उन्होंने मुझे बताया कि 18 जुलाई को पटना में एक कोविड-परीक्षण प्रयोगशाला को तीन दिनों के लिए बंद करना पड़ा क्योंकि लैब तकनीशिय वायरस के संपर्क में आ गए थे. "तो कल्पना करें कि हम में से हर कोई कितना कमजोर है. हमें एक दुविधाग्रस्त सरकार द्वारा हमारे दुखों के भरोसे छोड़ दिया गया है." बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे सहित प्रमुख स्वास्थ्य सचिव उदय सिंह कुमावत ने फोन और ईमेल द्वारा संपर्क करने पर राज्य की स्वास्थ्य तैयारियों के बारे में पूछे गए सवालों के जवाब नहीं दिए.
31 मई को देशव्यापी तालाबंदी के औपचारिक अंत के बाद, बिहार सरकार ने वायरस के प्रसार को रोकने के काम की अनदेखी की. शादियों और पार्टी की बैठकों में रोक नहीं लगी जिससे वायरस का तेजी से प्रसार हुआ. जुलाई की शुरुआत में पटना में एक शादी में 113 मेहमानों को सकारात्मक पाया गया था, जिसमें दूल्हे की भी मृत्यु हो गई थी. पटना में स्थित एक वकील बसंत चौधरी ने कहा, "ना तो शादियों और बाजारों में जमावड़े पर सख्त कदमों के साथ कोई रोक लगाई गई और न ही आगामी विधानसभा चुनावों के लिए आभासी रैलियों के दौरान जुटने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी गठबंधन के नेताओं ने कोविड से बचने के लिए सावधानी बरती थी."
प्रसार ने धीमा होने का संकेत नहीं दिया है. बिहार ने 14 जुलाई को कोरोनोवायरस मामलों की अपनी उच्चतम दैनिक वृद्धि दर्ज की. यह देखते हुए प्रशासन पूरी तरह से आतंक की स्थिति में था कि कई वरिष्ठ अधिकारियों और सत्तारूढ़ गठबंधन के सदस्यों का वायरस परीक्षण सकारात्मक था, जिसमें भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल, बीजेपी के राज्य महासचिव देवेश कुमार और बिहार सरकार में अतिरिक्त मुख्य सचिव आमिर सुभानी शामिल थे. बिहार में बीजेपी के कम से कम 75 नेताओं और जनता दल (यूनाइटेड) के विधान परिषद के सदस्य गुलाम गौस को कोविड पॉजिटिव पाया गया है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की भतीजी भी 6 जुलाई को पॉजिटिव मिलीं. इसके बाद कुमार के 1 एनी मार्ग निवास के एक कमरे को वेंटिलेटर से सुसज्जित अस्थायी अस्पताल में बदल दिया गया.
14 जुलाई को जब मैं पटना के कलेक्टर कुमार रवि से मिलने गया तो दृश्य बहुत ही अफरातफरी भरा था. "असंभव है कि साहब आपसे मिल पाएं," कलेक्ट्रेट के स्टाफ ने मुझे बताया. "यहां तक कि मुख्यमंत्री के अधिकारियों और सहयोगियों ने भी कोविड फैलाया है, आज राज्य के नेताओं और प्रशासकों के दायरे में अत्यधिक तनाव है." दो दिनों के बाद राज्य सरकार ने 31 जुलाई तक थोड़े समय के लिए तालाबंदी की घोषणा की.
पटना सचिवालय में मैं चाय पी रहे चपरासियों के एक समूह में गया. वहां एक मजाक चल रहा था. उनमें से एक ने कहा, "जब जिला मजिस्ट्रेट को कोरोना हुआ, तो सारी शक्तियां उप जिला कलेक्टर को मिल गईं. फिर उनको भी कोरोना हो गया, तो पावर उनके जूनियर को दे दिया गया. यह तब तक चलेगा जब तक चपरासी डीएम बन जाता.”