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24 मार्च को रात 8 बजे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा के अगले दिन देश के अलग-अलग शहरों में काम करने वाले मजदूरों ने गांवों की और पलायन शुरू कर दिया. 21 दिन के लॉकडाउन का फैसला नवबंर 2016 की नोटबंदी की घोषणा की तरह ही था और इस फैसले का भी सबसे ज्यादा असर मजदूर वर्ग पर ही पड़ रहा है. लॉकडाउन का फैसला लेने से पहले संभावित असुविधाओं पर सरकार ने विचार नहीं किया और न ही उसने आजीविका के लिए शहरों में मजदूरी करके वाले करोड़ों लोगों पर पड़ने वाले इसके असर का आंकलन ही किया. जबकि 25 दिसंबर से प्रवासी मजदूरों के पलायन की खबरें आने लगी थीं तो भी सरकार ने 29 तारीख को लॉकडाउन के संबंध में राज्यों को दिशानिर्देश जारी किए. उन दिशानिर्देशों में नियोक्तओं से कहा गया है कि वे अपने कर्मचारियों और मजदूरों का लॉकडाउन की अवधि का वेतन बिना कटौती देय तिथि पर भुगतान करें. साथ ही मकान मालिकों से एक महीने का किराया न वसूलने को भी कहा गया है.
लेकिन गृह मंत्रालय का यह फैसला आने तक चार दिन हो चुके थे और काम छूट जाने के बाद बिना सामाजिक सुरक्षा मंहगे शहरों में रहने के असुरक्षा बोध के चलते लोग गांवों की ओर पलायन करने लगे थे. संभवतः यह सन 1947 के बाद भारत का सबसे बड़ा आंतरिक पलायन है. लॉकडाउन को लागू हुए 7 दिन हो चुके हैं और शहरों से चले मजदूर अपने-अपने गांवों में पहुंचने लगे हैं. साथ ही, रास्ते में ही कई लोगों के मरने की खबरें भी आ रही हैं और बहुत से लोगों को राज्यों की सीमाओं पर रोक लिया गया है.
मैंने गांव लौटने वाले मजदूरों की अवस्था और गांवों में उनके हाल के बारे में जानने के लिए बुंदेलखंड के चित्रकूट, छतरपुर, झांसी, जालौन और अन्य जिलों के लोगों से बात की. बुंदेलखंड मध्य भारत का वह क्षेत्र है जिसमें उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कई जिले आते हैं.
चित्रकूट जिले के इटहा देवीपुर गांव के प्रथमिक स्कूल के प्रिंसिपल श्याम सुंदर ने मुझे फोन पर बताया कि उन्होंने आसपास के कई गांवों में शहरों से आए मजदूरों से बात की है. उन्होंने बताया, “आप इनसे बातचीत करते ही समझ जाएंगे कि ये लोग एक भयानक दौर से गुजरे हैं. जहां ये काम करते थे वहां के ठेकेदारों ने इन्हें पैसा नहीं दिया और जब ये चले तो इनके पास खाना और राशन नहीं था, पीने का पानी नहीं था. ऐसी हालत में इन्हें हजारों किलो मीटर का सफर पैदल तय करना पड़ा है.” श्याम सुंदर ने कहा कि जो हो रहा है वह सरकार के दोहरेपन को दर्शाता है जो एक तरफ तो विदेशों से लोगों को ला रही है और दूसरी ओर देश के मजदूरों की जान की कोई कीमत नहीं समझती.”
सुंदर ने बताया कि अभी 13-14 मार्च को ही “हमारे यहां भयानक ओला वृष्टि हुई है. जिसमें पूरी फसल नष्ट हो गई. फसल के साथ इन गरीब मजदूरों के घरों की छत के खपरैल और सीमेंट की चादरें और इनकी झोपड़ियां भी पूरी तरह बर्बाद हो गई हैं.”
शिक्षक बनने से पहले श्याम सुंदर खुद एक मजदूर थे. उन्होंने गुजरात के सूरत और पंजाब के लुधियाना की फैक्ट्रियों में काम किया है. “लेकिन मैंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और बाद में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) में भर्ती हो गया. लेकिन मुझे वह नौकरी अच्छी नहीं लगी इसलिए छोड़ दी.” सीआरपीएफ की नौकरी छोड़ने के बाद सुंदर अपने गांव के प्रथमिक स्कूल के शिक्षक बन गए. लॉकडाउन के बाद जब प्रवासी मजदूर गांव पहुंचने लगे तो सुंदर ने उनमें से कइयों के घरों की छतों को प्लास्टिक से ढकवाया. उन्होंने बताया, “यह जरूरी था क्योंकि अभी भी बारिश का खतरा बना हुआ है.”
चित्रकूट के ही एक और शिक्षक ने नाम न छापने की शर्त पर मुझे बताया, “आज ही मैंने अपने स्कूल की सफाई करवाई है ताकि बाहर से आ रहे मजदूरों को उसमें रखा जा सके. लेकिन यहां न तो शौचालय की व्यवस्था है और न ही पंखों का इंतजाम. इन सरकारी स्कूलों की हालत ऐसी है कि अगर मजदूर कोरोना से बच गया तो मलेरिया या डेंगू से मारा जाएगा.” उन्होंने वर्तमान संकट के लिए सरकार को दोषी ठहराया. “सरकार ने पहले कोई इंतजाम नहीं किया और अब गांव के बाहर पहरा लगा दिया गया है और गांव के प्रधान को जिम्मेदारी दी है कि वह बाहर से आने वालों की सूचना पुलिस को लाकर दे. ऐसे लोगों को स्कूलों में रखा जाएगा.” शिक्षक ने बताया कि साल के इस समय चित्रकूट के अधिकांश घरों में ताला लगा मिलता है क्योंकि यहां के लोग उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा की ईंट भट्टियों में काम करने चले जाते हैं. “यही लोग अब वापस लौट रहे हैं,” उन्होंने बताया. इस शिक्षक ने भी श्याम सुंदर की तरह बताया कि 13-14 मार्च को हुई ओला वृष्टि में यहां के लोगों के घर पूरी तरह टूट गए हैं और इलाके की फसल भी पूरी तरह बर्बाद हो चुकी है.
मैंने छतरपुर जिले के अरुणोदय सिंह परमार से फोन में बात की. परमार ने इंदौर के अहिल्याबाई विश्विद्यालय से बी. टैक. की पढाई की है और फिलहाल वह एक सामाजिक संस्था के साथ काम कर रहे हैं. उन्होंने ने एक घटना के बारे में बताया जिसने उनको “हिला दिया है.” उन्होंने बताया कि दिल्ली में दिहाड़ी मजदूरी करने वाला 20 साल का एक नौजवान जब 28 मार्च को गांव लौट रहा था, तो उत्तर प्रदेश की सीमा पर स्थित चंद्रपुर गांव में पुलिस ने उसे पकड़ लिया और एक महिला पुलिस कर्मी ने उसके माथे पर “मैंने लॉकडाउन तोड़ा है, मुझसे दूर रहना” लिख दिया. अरुणोदय ने कहा कि पुलिस जानती है कि लोग मजबूरी में गांव लौट रहे हैं लेकिन फिर भी “उन्होंने पूरे समाज की नजरों में उसको नीचा कर दिया.” हालांकि इस घटना के प्रकाश में आने के बाद महिला पुलिस कर्मी को लाइन अटैच (हाजिर) कर दिया गया है.
अरुणोदय ने बताया कि उन्होंने ऐसे कई मजदूरों से मुलाकात की है जिनके घरों में न राशन का इंतजाम है और न ही अनाज खरीदने के लिए पैसे. अरुणोदय ने बताया कि यहां पहुंचे मजदूरों ने उन्हें बताया है कि अभी कई लोग रास्ते में फंसे हुए हैं क्योंकि “हजारों मजदूरों को छतरपुर जिले की सीमा पर ही रोक लिया गया है.” उन्होंने फिर कहा, “हमें लगता है कि कोरोना से कम मगर भूख से ज्यादा मजदूर मारे जाएंगे.”
झांसी में एक समाजसेवी संस्था चलाने वाले अनिल कश्यप ने बताया कि उन्हें पिछले दो दिनों से सैकड़ों फोन आ चुके हैं जिनमें बताया जा रहा है कि लोग रास्तों में बुरी तरह फंसे हुए हैं और हजारों लोग रास्ता भटक गए हैं. उन्होंने बताया, “कई लोग झांसी के लिए निकले थे लेकिन रास्ता भटक कर राजस्थान पहुंच गए हैं.” उन्होंने बताया कि उनके गांव में आने वाले लोगों के लिए किसी तरह का इंतजाम नहीं है. “अब आप सोचिए कोई मजदूर बिना खाए और पीये 500 से 1000 किलो मीटर पैदल चलकर कैसे आ रहा होगा?” कश्यप ने आरोप लगाया कि पुलिस का व्यवहार ऐसे मजदूरों के प्रति सही नहीं है. “इनको चोरों की तरह पीटा जा रहा है. आज मेरे यहां के दो बच्चे, एक 12 साल और दूसरा 15 साल का, साइकिल चला कर दिल्ली से झांसी आ गए. अब आप समझिए कि वहां उनकी हालत कैसी होगी जो उनको ऐसा करना पड़ा.”
छतरपुर जिले के लोकेंद्र कुमार, जो कई सामाजिक संगठनों के साथ काम कर चुके हैं, ने मुझे बताया कि वह पिछले तीन दिनों से लोगों के घर राशन पहुंचा रहे हैं. “आप अगर इन मजदूरों की स्थिति देखेंगे तो हैरान रह जाएंगे. इनके घरों में पीने तक का पानी नहीं है, बर्तन नहीं है और पैसा नहीं हैं. इनके घर टूटे हुए हैं और आए दिन बारिश का खतरा है और जिन स्कूलों में इन्हें रखने की बात हो रही है उनकी हालत ठीक नहीं है.”
जालौन जिले के विवेक पटेल प्रयागराज के इलाहाबाद विश्वविद्यालय के शोध छात्र हैं. हाल में उनके पिता की मृत्यु हो गई थी और वह गांव आ गए थे. बाद में कोरोना संक्रमण के फैलने के बाद वह वापस नहीं गए. विवेक ने बताया कि उनके गांव में बहुत कम नौजवान हैं क्योंकि ज्यादातर युवा मजदूरी करने शहर चले जाते हैं. “लेकिन कोरोना महामारी और लॉकडाउन की वजह से ये लोग गांव आ रहे हैं.” विवेक ने बताया कि उनके गांव के बाहर प्रधान और पुलिस दोनों का पहरा चल रहा है और काम छूटने के चलते मजबूरी में गांव लौट रहे लोगों से अपराधियों की तरह व्यवहार किया जा रहा है.
जालौन के निवाड़ी गांव के रहने वाले मुकेश कुमार, जो गैर सरकारी संस्था भीमा फाउंडेशन चलाते हैं, ने मुझे बताया कि उनके गांव के बहुत से मजदूर अभी रास्तों में फंसे हुए हैं. “उनके घर वाले बार-बार फोन कर रहे हैं और किसी तरह उन लोगों को निकाल लाने के लिए कह रहे हैं.” मुकेश ने मुझसे कहा, “आपने मुरैना के एक मजदूर की आगरा में मौत की खबर तो पढ़ी होगी. लोग ऐसी खबरों से डर रहे हैं.” कुमार ने फिर कहा, “लोग मर रहे हैं क्योंकि इनके पास राशन और पैसा नहीं है. सरकार, ठेकेदार, फैक्टरी मालिक सभी ने इनको धोखा दिया है.”