दिल्ली के रहने वाले 47 साल के प्रमोद जोशी को सितंबर 2019 में पता चला कि उन्हें ब्रेन ट्यूमर है. उन्होंने अगले महीने दिल्ली में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में इलाज शुरू किया और जल्द ही उन्हें सर्जरी की जरूरत पड़ गई. उन्होंने शहर के एक निजी अस्पताल में ट्यूमर का ऑपरेशन करवा लिया और फरवरी 2020 तक उनकी कीमोथेरेपी शुरू हो गई. अगला कदम बचे हुए ग्लियोमा को खत्म करने के लिए विकिरण या रेडिएशन इलाज शुरू करना था. ग्लियोमा मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी में नसों को घेरने और सहारा देने वाली कोशिकाओं का एक ट्यूमर होता है. अप्रैल के मध्य में एम्स में प्रमोद का विकिरण उपचार शुरू करना तय हुआ था. लेकिन मार्च के अंत तक कोविड-19 के प्रकोप के चलते देशव्यापी लॉकडाउन लगा दिया गया. प्रमोद का विकिरण उपचार नहीं हो सका क्योंकि अस्पतालों ने अपने बाह्य रोगी विभागों या ओपीडी को बंद कर दिया और प्रमुख अस्पताल कोविड-19 केंद्र बन गए, जो केवल नोवेल कोरोनावायरस से संक्रमित रोगियों का इलाज कर रहे थे. उनके भाई दीपक जोशी ने कहा कि परिवार ने प्रमोद की हालत को तीन महीने तक बिगड़ते और उसके शरीर के दाहिने हिस्से का काम करना बंद करते हुए देखा.
प्रमोद को जून की शुरुआत में कुछ उम्मीद जगी थी जब एक निजी अस्पताल वेंकटेश्वर अस्पताल के डॉक्टरों ने प्रमोद के विकिरण को शुरू करने पर सहमति व्यक्त की. लेकिन एक और अड़चन थी. दीपक ने बताया, "हमें कुछ ब्लड रिपोर्ट और कोविड-19 रिपोर्ट निकलवाने के लिए कहा गया. 10 जून 2020 की कोविड-19 रिपोर्ट पॉजिटिव आई. यह हैरानी वाली बात थी क्योंकि मेरा भाई एक पल के लिए भी बाहर नहीं गया था.” प्रमोद में कोविड-19 के कोई लक्षण नहीं थे लेकिन उनका विकिरण उपचार एक बार फिर टल गया. संक्रमण के बारे में स्पष्ट होने से पहले उन्हें एक और महीने तक इंतजार करना पड़ा और तीन और कोविड-19 परीक्षण कराने पड़े, जुलाई के अंत में उनका विकिरण शुरू किया जा सकता था.
"लेकिन तब तक उनका दाहिना पैर और दाहिना हाथ पूरी तरह से शक्तिहीन हो चुका था," दीपक ने कहा. "उनके शरीर का दाहिना हिस्सा अब लगभग लकवाग्रस्त है." उन्होंने अपने भाई की दुर्दशा के लिए "नीति निर्माताओं के ढीले-ढाले रवैये को दोषी ठहराया, जिन्होंने समय पर उपचार की आवश्यकता वाले अन्य रोग से पीड़ित रोगियों की दुर्दशा को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया."
कोविड-19 महामारी और उसके बाद के लॉकडाउन के कारण नियमित स्वास्थ्य सेवा का तबाही का अन्य तीव्र या पुरानी बीमारियों के रोगियों पर गंभीर और कई बार भयावह प्रभाव पड़ता है. मरीजों ने पाया कि उनका इलाज कर रहे अस्पतालों को अचानक बंद कर दिया गया था. दूसरों को सार्वजनिक अस्पतालों, निजी स्वास्थ्य सुविधाओं और यहां तक कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से लौटा दिया गया था. ऐसे रोगी जिनकी बीमारी की देखभाल की जा सकती थी उनकी बीमारी अपरिवर्तनीय रूप से बदतर हो गई है क्योंकि कोविड-19 को अन्य सभी स्वास्थ्य सेवाओं को हटाकर प्राथमिकता दी गई है.
राष्ट्रीय और राज्य-स्तरीय लॉकडाउन लागू होने से कई मरीज अस्पतालों में जाने के लिए संघर्ष करते रहे. ऐसा ही एक मामला बिहार के गया जिले के अमरा गांव की निवासी फुलवा देवी का था. उन्हें एक तरह का कैंसर था जिसे क्रोनिक माइलॉयड ल्यूकेमिया कहा जाता था. मई के आखिर में, उनके पति को उन्हें सौ किलोमीटर दूर पटना के इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान में अपनी साइकिल पर ले जाना पड़ा, क्योंकि ट्रेन और बस बंद थीं. अस्पताल के बाहर एक रात बिताने के बाद वह अपना इलाज करा पाईं.
कई अन्य लोगों को इलाज की उम्मीद में कई अस्पतालों का दौरा करना पड़ा. दक्षिणी दिल्ली नगर निगम के 53 वर्षीय कर्मचारी राम नरसिंह पांडे मार्च के अंत में तालाबंदी होते ही बीमार पड़ गए. वह बायोप्सी कराने में कामयाब रहे जिसमें उन्हें एक तरह का कैंसर होने का पता लगा जिसे एनल कार्सिनोमा कहा जाता है. कोविड-19 के प्रकोप के कारण जिस अस्पताल में उनकी बायोप्सी हुई वहां सीमित सुविधाएं थीं. उन्हें तीन अन्य अस्पतालों में भेजा गया था, जिनमें से कोई भी उनका इलाज नहीं कर सकता था क्योंकि वे केवल कोविड-19 रोगियों को ही ले रहे थे. पांडे को आखिरकार सफदरजंग अस्पताल में कीमोथेरेपी दी गई लेकिन वह विकिरण उपचार के अगले चरण में नहीं जा सके. उन्हें बताया गया कि अस्पताल की विकिरण सुविधा काम नहीं कर रही है. पांडे और उनकी बेटी श्वेता एक बार फिर रेडिएशन थेरेपी के लिए अस्पताल दर अस्पताल गए जब तक कि उन्हें एक निजी अस्पताल नहीं मिला जिसने उन्हें इलाज की पेशकश की. श्वेता को यकीन नहीं है कि वह कब तक निजी अस्पताल में इलाज का खर्च उठा सकती हैं. उसके पिता परिवार के एकमात्र कमाने वाले सदस्य हैं और वह अब गंभीर रूप से बीमार हैं. उन्होंने कहा, "हमने मानसिक और शारीरिक रूप से बहुत कुछ झेला है. सरकार को गैर-कोविड रोगियों के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करनी चाहिए थी." उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को मदद के लिए अनुरोध करने के लिए एक पत्र भी लिखा, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई.
मेडिकल जर्नल द लांसेट ऑन्कोलॉजी के एक लेख में बताया गया है कि कैसे कोविड-19 महामारी के पहले महीनों के दौरान कैंसर का पता लगाने और उपचार में देरी से कैंसर का बोझ बढ़ने की संभावना है. यह एक वैश्विक मॉडलिंग अध्ययन की ओर इशारा करता है जिसमें अनुमान लगाया गया था कि भारत में महामारी के पहले तीन महीनों में 59.7 प्रतिशत कैंसर सर्जरी यानी 51000 से अधिक सर्जरी के मामलों को स्थगित कर दिया गया था.
कैंसर के रोगियों के अलावा कई अन्य लोगों को महामारी और लॉकडाउन के परिणाम भुगतने पड़े हैं. दिल्ली में इंद्रप्रस्थ अपोलो हॉस्पिटल्स के ईएनटी, सिर और गर्दन की सर्जरी विभाग में वरिष्ठ सलाहकार और रोबोटिक सर्जन डॉ. कल्पना नागपाल के मुताबिक, कई ऐसी बीमारियां हैं जो देरी से इलाज के कारण जटिल हो जाती हैं. "ब्रेन ट्यूमर या डायलिसिस के रोगी या पुरानी लीवर की बीमारी या आंतों के घाव, हृदय की बीमारी, आर्थोपेडिक बीमारियां आदि बढ़ सकती हैं और गंभीर बीमारी हो सकती है," उन्होंने कहा. “यदि उन्हें देर से दिखाया जाता है तो उपचार के विकल्प सीमित होंगे. कुछ में उपचार कारगर साबित नहीं भी हो सकता है. सर्जिकल परिणाम समान नहीं हो सकते हैं.”
बिहार के छपरा के रहने वाले बत्तीस वर्षीय लकी प्रसाद को फरवरी में गुर्दे की बीमारी हुई थी. उन्हें हरियाणा के फरीदाबाद के एक अस्पताल और बाद में आपातकालीन उपचार के लिए दिल्ली के दो अस्पतालों में जाना पड़ा. इसके बाद वह चंडीगढ़ में पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च में गए जहां डॉक्टरों ने डायलिसिस निर्धारित किया लेकिन उन्हें दूसरे अस्पताल में रेफर कर दिया. प्रसाद की पत्नी सुमन देवी ने कहा, "उन्हें पांच बार डायलिसिस के लिए जाना था लेकिन चार के बाद लॉकडाउन हो गया." उन्होंने कहा, ''वह पांचवां पूरा नहीं कर पाए और हम फरीदाबाद लौट आए. उनकी हालत फिर से बिगड़ने लगी और हम एम्स, सफदरजंग और राम मनोहर लोहिया जैसे कई सरकारी अस्पतालों में गए. लेकिन उन्होंने उनका इलाज नहीं किया. आरएमएल में तो हम अस्पताल में घुस भी नहीं कर सकते थे क्योंकि सुरक्षा गार्ड ने हमें अंदर ही नहीं आने दिया. ” प्रसाद ने अंत में फरीदाबाद के एक निजी अस्पताल में अपना पांचवें दौर का डायलिसिस करवाया.
जर्नल किडनी इंटरनेशनल रिपोर्ट्स ने जुलाई की शुरुआत में गुर्दे की विफलता वाले लोगों पर कोविड-19 महामारी के प्रभाव के बारे में एक अध्ययन प्रकाशित किया था. अध्ययन ने 19 प्रमुख सार्वजनिक और निजी अस्पतालों का सर्वेक्षण किया और पाया कि रोगियों की संख्या 2517 से घटकर 2404 हो गई. लगभग 710 रोगी एक या अधिक डायलिसिस नहीं करा पाए, 104 ने डायलिसिस के लिए आने-जाने के बारे में पूछताछ पूरी तरह से बंद कर दी, 69 को आपातकालीन डायलिसिस की आवश्यकता थी, और नौ रोगियों की मृत्यु होने की पुष्टि की गई. ये परिणाम उन अस्पतालों का है जहां सर्वेक्षण किए गए. देश भर में 174478 मरीजों को डायलिसिस की जरूरत होती हैं. अध्ययन ने निष्कर्ष निकाला कि महामारी का डायलिसिस रोगियों की देखभाल पर तत्काल प्रतिकूल प्रभाव पड़ा जबकि उनके स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक प्रभाव के बारे में अभी कोई जानकारी नहीं है.
नागपाल ने ऐसे कई मामलों के बारे में बताया, जो समय पर विशेषज्ञ डॉक्टरों तक पहुंचने में असमर्थ थे. मधुमेह से पीड़ित एक व्यक्ति जिसका इलाज ग्रामीण क्षेत्र में एक सामान्य चिकित्सक ने किया था और उसके चेहरे पर लकवा मार गया था. अचानक सुनाई देना बंद होने संबंधित पांच मामले देर से डॉक्टरों के पास पहुंचे अब उनके पास सुनने के लिए तकनीकी उपकरण लगाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. थायराइड नोड्यूल के दो मामले ऐसे थे जो कैंसर बन गए. गर्दन के नोड्स पर बकल कैंसर का एक मामला था जो बढ़कर चौथे चरण में पहुंच गया. एक के नाक का मांस इतना बड़ा हो गया था कि उसकी आंख सूज गई जिस वजह से वह देख भी नहीं पा रहा था और उसे फौरन सर्जरी की जरूरत थी.
इनमें से कई मामले हजारों रोगियों को देखने वाले बड़े अस्पतालों में नियमित बाह्य रोगी सेवाओं में व्यवधान के कारण सामने आए थे. मिसाल के लिए, 2018 में दिल्ली के एम्स में 38 लाख से अधिक और लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी में 16 लाख से अधिक बाह्य रोगी आए थे.
एक सरकारी कर्मचारी और दिल्ली के निवासी जो अपना नाम उजागर नहीं करना चाहते, उन्होंने मुझे बताया कि इलाज में हुई देरी के कारण उनकी बेटी अब सुन नहीं सकती. फरवरी में एम्स में प्रारंभिक परामर्श के बाद, लॉकडाउन लगाए जाने के चलते वह आवश्यक सर्जरी नहीं करवा सकी. अस्पताल ने केवल आपातकालीन मामलों को स्वीकार किया और ऐच्छिक मानी प्रक्रियाओं को मना कर दिया था. सरकारी कर्मचारी ने कहा, "हमने बहुत कुछ झेला और एक बड़ा नुकसान हुआ." “हम एम्स, दिल्ली में किसी भी तरह की मदद पाने की कोशिश करते रहे लेकिन सफल नहीं हो सके. यह सब कोविड-19 संकट के कारण था.” वह अपनी बेटी की सर्जरी के लिए शहर के एक निजी अस्पताल में अधिक खर्च करने के लिए मजबूर हो थे, ताकि ट्यूमर का इलाज हो सके जिसकी वजह से उनकी बेटी का एक कान पूरी तरह से खराब हो गया.
तपेदिक के मरीज इस दौरान सबसे अधिक प्रभावित हुए क्योंकि उन्हें दवाएं ही नहीं मिल पाईं. दिल्ली में न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी में रहने वाली एक चिकित्सक डॉ. अनीता नायर ने कहा, “एक गरीब आदमी जो बीमार है, एक इंजेक्शन के लिए हर दिन लंबी दूरी तय करना आसान नहीं है. इसके अलावा, मल्टीड्रग प्रतिरोधी टीबी में अनुपालन परिणामों की कमी घातक हो सकती है. ”
नायर, जो अपने क्षेत्र में प्रवासी मजदूरों की मदद कर रहीं थीं, ने एक तपेदिक रोगी के अनुभव के बारे में बताया. दस वर्षीय ज्योति को, जो अपनी चाची और चाचा के साथ दक्षिण पूर्वी दिल्ली में रहती थी, बुखार और पीठ में भयानक दर्द उठा. जांच में पता चला कि उसके मस्तिष्क में तपेदिक है. उसकी चाची पड़ोस के प्रत्यक्ष अवलोकन थेरेपी या डॉट्स केंद्र में तपेदिक की उसकी सभी दवाएं नहीं पा सकीं और उन्हें एक फार्मेसी से स्ट्रेप्टोमाइसिन इंजेक्शन खरीदना पड़ा और एक निजी डॉक्टर ने 60 रुपए प्रतिदिन की दर से इसे ज्योति को लगाया. यह बहुत बड़ा खर्च था क्योंकि लॉकडाउन के कारण उनकी और उनके पति दोनों की नौकरी चली गई थी और उनके पास कोई बचत भी नहीं थी. आखिर में उन्हें एक अलग इलाके में डॉट्स सेंटर में ज्योति की मुफ्त दवा मिल सकी.
"लॉकडाउन के दौरान मरीजों के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं, विशेष रूप से डॉट्स केंद्रों तक पहुंचना बहुत मुश्किल है," डॉ. कुलदीप कुमार ने कहा. कुमार यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज और दिल्ली में गुरु तेग बहादुर अस्पताल में चिकित्सा विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं. "मौजूदा महामारी के कारण, कई स्वास्थ्य सुविधाओं को कोविड-19 अस्पतालों में परिवर्तित कर दिया गया है, इसलिए एक्स्ट्रापुलमनेरी (फेफड़े से बाहर की) तपेदिक के निदान में देरी हो सकती है क्योंकि इसमें विशिष्ट जांच की आवश्यकता होती है जो कि छोटी स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं पर उपलब्ध नहीं हैं." कुमार ने बताया कि स्वास्थ्य केंद्रों ने तपेदिक रोगियों का प्रबंधन करने वाले स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को भी कोविड रोगियों के लिए प्रबंध करने में लगा दिया. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर सोशल मेडिसिन एंड कम्युनिटी हेल्थ के एक शोधार्थी प्रत्यूष सिंह ने कहा, "बिहार में अपने गांव के इलाके में मैंने पाया कि तपेदिक के एक दलित रोगी को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र द्वारा इलाज से वंचित कर दिया गया था क्योंकि उन्होंने कहा कि कोविड संकट के कारण उनके यहां बहुत ज्यादा भीड़ है." भारत तपेदिक से होने वाली मौतों के मामले में दुनिया में सबसे आगे है. इन सभी स्थितियों से भारत में तपेदिक के कारण मृत्यु दर और रुग्णता और बढ़ जाती है.
सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के विघटन के भी गंभीर परिणाम हुए हैं. यह कई ग्रामीण और शहरी गरीबों के लिए स्वास्थ्य प्रणाली के साथ संपर्क के पहले बिंदु हैं. बेंगलुरु की रहने वाली जानसी स्लम महिला संगठन नामक एक एनजीओ की संयोजक हैं जो शहर की मलिन बस्तियों की महिलाओं के बीच काम करती हैं. उन्होंने मुझे बताया कि झुग्गियों में रहने वाले लोग सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं. उन्होंने कहा कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों ने गैर कोविड-19 मामलों की अनदेखी की जिसके कभी-कभी घातक परिणाम भी आए है. जानसी ने दावा किया कि ऐसी लापरवाही के कारण जुलाई की शुरुआत में उनके पड़ोसी की दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई. "वह 55 वर्ष के थे और उन्हें दिल की बीमारी थी और वह अपनी दवाइयां ले रहे थे," उन्होंने बताया. “6 जुलाई को अचानक उन्हें अपने सीने में दर्द महसूस हुआ और वे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र गए. वहां उन्हें कोई मदद या सुझाव नहीं मिला.” जानसी ने बताया कि उस व्यक्ति ने मदद के लिए बार-बार अस्पताल में संपर्क किया. "8 जुलाई को, उन्हें अगले दिन आने के लिए कहा गया लेकिन उस रात उनकी मृत्यु हो गई."
बेंगलुरु में एक्शन एड नाम के एक एनजीओ के एक प्रॉजेक्ट ऑफिसर मलारविजी महामारी शुरू होने के बाद से ऐसे कई मामलों के गवाह रहे जिनमें गर्भवती महिला, जिसका खून बह रहा था, को क्रिटिकल केयर में रखने से मना कर दिया गया, एक आदमी कुत्ता काटने के बाद रेबीज की दवा नहीं ले पाने के मामले हैं. "झुग्गियों में रहने वाले कई लोग पुरानी या गंभीर बीमारियों के लिए भी नियमित रूप से गोलियां नहीं लेते हैं क्योंकि उनके पास दवाओं पर खर्च वहन करने के लिए पैसे नहीं होते," उन्होंने कहा. "राज्य को बीमारियों के लिए चिकित्सा शिविरों की सुविधा प्रदान करनी चाहिए और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में सभी दवाओं को तुरंत उपलब्ध कराना चाहिए ताकि यह मुफ्त और सुलभ हो सकें."
भूल सुधार : इस रिपोर्ट में पहले बताया गया था कि दिल्ली के एम्स में हर साल 38 लाख से अधिक और उत्तर प्रदेश के लखनऊ के केएमसी डिजिटल अस्पताल में 16 लाख से अधिक बाह्य रोगी आते हैं.
उपरोक्त वाक्य को सुधार कर “2018 में दिल्ली के एम्स में 38 लाख से अधिक और लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी में 16 लाख से अधिक बाह्य रोगी आए थे” किया गया है. कारवां को अपनी गलती का खेद है.