दिसंबर 2015 में केंद्र सरकार ने एक्सेसिबल इंडिया कैंपेन या सुगम्य भारत अभियान की शुरुआत की. अभियान का उद्देश्य नागरिकों के लिए भौतिक और डिजिटल क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं तक सार्वभौमिक पहुंच सुनिश्चित करना है. अगले चार वर्षों में कार्यक्रम अपने अधिकांश लक्ष्यों से भटक गया है. कोविड-19 के भारत में फैलने के कारण इस कार्यक्रम की सुस्त गति की मार विकलांगों पर पड़ी है. 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में विकलांग जन की आबादी लगभग दो करोड़ सत्तर लाख हैं. यह देश की आबादी का 2.2 प्रतिशत हैं.
सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि महामारी के दौरान भारत के कुछ बड़े सार्वजनिक अस्पतालों तक विकलांग लोगों की पहुंच मुश्किल बनी हुई है. विकलांगों के लिएकाम करने वाले बेंगलुरु के एनजीओ मित्रा ज्योति की मधु सिंघल ने बताया, “ऐसे कई मामले हमारे सामने आए जिसमें विकलांगता से ग्रस्त कोविड-19 रोगियों को बुनियादी सुविधाओं की कमी का सामना करना पड़ा है. उनके लिए शौचालय की सुविधा नहीं थी. सुगम पहुंच के लिए कोई बुनियादी ढांचा नहीं था. उनकी ठीक से देखभाल नहीं हो रही थी क्योंकि उन्हें बुनियादी चीजों के लिए हमेशा मदद की जरूरत होती है.” छूने से संक्रमित हो जाने के डर और शारीरिक दूरी के नए मानदंडों ने अस्पताल के कर्मचारियों को विगलांग रोगियों से दूर कर दिया.
अस्पतालों तक पहुंच की समस्या लंबे समय से चली आ रही है. जनवरी 2013 में विकलांगता अधिकार कार्यकर्ता सतेंद्र सिंह ने सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के तहत आने वाले विकलांग व्यक्तियों के लिए मुख्य आयुक्त के समक्ष याचिका दायर कर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली से अपने परिसर को और अधिक सुलभ बनाने के लिए कहा गया. सिंह दिल्ली में यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज में फिजियोलॉजी के एसोसिएट प्रोफेसर हैं और संबद्ध गुरु तेग बहादुर अस्पताल में कार्यरत हैं. सिंह ने बताया कि वे जीटीबी अस्पताल को अधिक सुलभ बनाने के लिए 2011 से काम कर रहे हैं. हालांकि, उन्होंने कहा कि एम्स, जिसे एक प्रमुख संस्थान माना जाता है, में विकलांग लोगों के लिए शौचालय, रैंप और लिफ्टों की सुविधा नहीं है. “अगर यह हालत सबसे 'उत्कृष्टता केंद्र' में है तो अन्य अस्पतालों और संस्थानों में जमीनी हकीकत की कल्पना करें,” उन्होंने कहा. “क्या यह एक्सेसिबल इंडिया अभियान की पूर्ण विफलता नहीं है?" इस महामारी में, विकलांग जनों के लिए असहज ये अस्पताल उन्हें अधिक कमजोर बना सकते हैं, विशेष रूप से लोकोमोटर और दृश्य विकलांग लोगों को, जो स्पर्श पर निर्भर करते हैं.”
उन विकलांग लोगों के लिए भी जीवन बहुत कठिन हो गया है जो सार्स-कोव-2 वायरस के संपर्क में नहीं आए हैं या किसी भी तरह से बीमार नहीं हुए हैं. खरीदारी, काम करना और आवागमन करना अधिक कठिन हो गया है. राज कुमार पाल नेत्रहीन हैं. उन्होंने बताया कि जब कोरोनोवायरस का प्रकोप दिल्ली में हुआ तो उन्हें उत्तर पश्चिम दिल्ली के कराला में अपने घर से मध्य दिल्ली के राजेंद्र नगर अपने कार्यालय तक जाने के लिए मजबूरन ऑटोरिक्शा या कैब लेनी पड़ती. यातायात का यही एकमात्र खर्चीला तरीका था जो पाल के लिए सुरक्षित था. “दृष्टिहीन व्यक्ति के लिए बस में शारीरिक दूरी बनाए रखना बहुत मुश्किल है,” उन्होंने कहा. उन्हें यह भी डर था कि पूरी भरी बस में उन्हें विकलांगों के लिए आरक्षित सीट नहीं मिल पाएगी और उन्हें खाली बस के लिए लंबा इंतजार करना होगा. वह मेट्रो नहीं ले सकते थे क्योंकि इसमें स्पर्श पथ पर्याप्त से कम थे. स्पर्श पथ दृश्यहीन लोगों को रास्ता दिखाने के लिए उभरी हुई पीले टाइलों का बना होता है. “मेट्रो में वे एक परिचारक प्रदान करते हैं, जो इस कोरोनावायरस महामारी में मेरे लिए और साथ ही परिचारक के लिए जोखिम भरा हो सकता है,” पाल ने कहा. “यदि स्पर्श पथ सही होते तो मैं बिना किसी संपर्क के मेट्रो सेवाओं का उपयोग कर सकता था.”
कोविड-19 महामारी से पहले दिल्ली की पहुंच संबंधी संरचना अपर्याप्त थी. व्हीलचेयर रैंप होर्डिंग और अन्य अतिक्रमणों द्वारा अवरुद्ध रहती हैं. सतगुरु राठी, जो पिछले साल तक दिल्ली में रहा करते थे, ने शहर के पहुंच संबंधी खराब बुनियादी ढांचे के साथ अपने बुरे अनुभवों को याद किया. नेत्रहीन राठी ने कहा कि शहर में स्पर्श पथ इतने खराब तरीके से डिजाइन किए गए थे कि वह अक्सर डंडे और अन्य बाधाओं से टकराते थे. उन्हें विशेष रूप से मेट्रो की तीखी आलोचना करनी पड़ी. “हाल के वर्षों में दिल्ली मेट्रो ने 'सबसे सुलभ परिवहन प्रणाली' होने के लिए बहुत प्रशंसा अर्जित की है लेकिन वास्तविकता इससे अलग है. कई स्टेशनों में प्रवेश द्वार पर व्हीलचेयर उपयोगकर्ताओं के लिए रैंप नहीं हैं. कई स्थानों पर दृष्टिहीन लोगों के नेविगेशन के लिए बनाया गया स्पर्श पथ भ्रामक है और कभी-कभी मैं खुद गलती से पोल या दुकानों से टकरा जाता.” वह एक बार मेट्रो के रेल ट्रैक पर गिर गए थे क्योंकि वह प्लेटफॉर्म और ट्रेन के बीच के अंतर को नहीं आंक पाए थे.
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