कोविड महामारी के बीच डेंगू का बढ़ता खतरा

हिंदू राव अस्पताल के डेंगू वार्ड का एक दृश्य. सौम्या खंडेलवाल/ हिंदुस्तान टाइम्स

सितंबर के दूसरे सप्ताह में भारत में कोरोनोवायरस के मामलों की संख्या प्रतिदिन एक लाख से कम होने लगी. मामलों में लगातार गिरावट ने उम्मीद जगाई कि संक्रमण का सबसे बुरा समय शायद निकल चुका है. लेकिन अक्टूबर और नवंबर के अंत में दिल्ली में संक्रमणों में फिर भयानक उछाल देखा जाने लगा. दिल्ली में हुई इस वृद्धि ने बता दिया कि भारत को कोरोनावायरस को लेकर निश्चिंत नहीं हो जाना चाहिए. इस साल जो संक्रमण रोग देखे गए हैं वे डेंगू जैसे संक्रमण के साथ आए हैं जिससे भारत कई दशकों से जूझ रहा है.

हर साल डेंगू भारत की एक बड़ी आबादी के लिए समस्या खड़ी करता है. यहां स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच में गहरी असमानता है. कोविड-19 और डेंगू दोनों संक्रमणों के कारण इस वर्ष समस्याएं अधिक बड़ी हैं और महामारी के कारण पहले से ही कमजोर सार्वजनिक स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा और गड़बड़ा चुका है. सितंबर के आखिर में दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को डेंगू हुआ था. तब वह एक अस्पताल में कोविड-19 संक्रमण के उपचार के लिए भर्ती थे. भारत के एक प्रमुख चिकित्सा संस्थान अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया ने बताया कि डेंगू-कोविड-19 दोनों संक्रमणों का प्रबंधन करना बहुत चुनौतीपूर्ण हो सकता है.

दो दशकों से भी अधिक समय से डेंगू भारत में एक बड़ा खतरा बना हुआ है. सबसे भयंकर प्रकोप 1996 में देखने को मिला था जब सोलह हजार से अधिक मामले सामने आए और पांच सौ से अधिक मौतें हुईं. इनमें से ज्यादातर मामले दिल्ली और उसके आसपास इलाके से थे. सरकार ने इस प्रकोप के बाद जिलों से राज्यों और राज्यों से केंद्र तक प्रयोगशाला में पुष्टि किए गए डेंगू मामलों की अनिवार्य अभिलेखबद्ध करने और रिपोर्ट करने की एक प्रणाली शुरू की. दर्ज की गई संख्या से लगता है कि अगले कुछेक साल डेंगू कम फैला लेकिन बाद में भारत में डेंगू संक्रमण नाटकीय रूप से बढ़ा. राष्ट्रीय वेक्टर जनित रोग नियंत्रण कार्यक्रम (एनवीबीडीसीपी) के अनुसार 2017 में भारत में डेंगू के 188401 मामले सामने और इससे 325 लोगों की मौत हुई. भारत में 2018 और 2019 में तुलनात्मक रूप से बड़ी संख्या में मामले देखे गए. पिछले साल 2019 के दौरान, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिल नाडु, तेलंगाना, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, उत्तराखंड, केरल और दिल्ली में 128982 डेंगू के मामले सामने आए. यह संख्या कुल मामलों की 82 प्रतिशत हैं.

एनवीबीडीसीपी का डेंगू डेटा भारत में नैदानिक ​​रूप से निदान किए गए डेंगू मामलों का केवल 0.35 प्रतिशत है. संक्रमण के लिए तैयार होने वाला कार्यक्रम अस्पताल द्वारा रिपोर्ट किए गए डेटा पर निर्भर करता है. यह सामुदायिक स्तर पर डेंगू के लक्षणों वाले संदिग्ध मामलों को शामिल नहीं करता है क्योंकि इनमें से अधिकांश मामले सरकारी प्रयोगशालाओं तक नहीं पहुंचते. यह निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं से डेंगू के मामले की जानकारी नहीं लेता है जबकि भारत में सबसे पहले मामले वहां पहुंचते हैं.

निजी स्वास्थ्य प्रदाता बोझिल सरकारी प्रयोगशाला प्रणाली से गुजरने से बचते हैं और एनवीबीडीसीपी रिपोर्टिंग प्रणाली में निजी प्रयोगशालाएं शामिल नहीं होती हैं. इसका मतलब यह है कि 11 राज्यों में शहरों के निवासियों और केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली में डेंगू से संक्रमित होने का जोखिम आधिकारिक आंकड़ों द्वारा सुझाए गए आंकड़ों से लगभग 300 गुना अधिक है.
इन राज्यों में कोविड-19 के मामले भी अधिक है. जो 20 नवंबर तक 68 लाख तक पहुंच गए थे. यह उनकी स्वास्थ्य प्रणाली पर बोझ डाल रहे हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार ये 12 क्षेत्र महत्वपूर्ण स्वास्थ्य प्रशासनिक इकाइयां हैं और यहां देश की 63.8 प्रतिशत आबादी रहती है.


भारत में डेंगू के फैलने में जनसंख्या गतिशीलता महत्वपूर्ण कारण रही है जो कोविड-19 के फैलने का भी मुख्य कारण है. जिसमें शहरों में निर्माण में वृद्धि भी शामिल है. दोनों कारकों ने एडीज मच्छर को देश के विभिन्न हिस्सों में फैलने में मदद की है. मादा एडीज मच्छर डेंगू और चिकनगुनिया के वायरस की वाहक है और वही संक्रमण को मनुष्यों के बीच स्थानांतरित करती है.

10 लाख और इससे अधिक आबादी वाले शहरों में एडीज मच्छर होना एक आम बात है. यह उन छोटे शहरों में भी फैला हुआ है जहां मच्छरों के लार्वा पनपते हैं और पानी में तेजी से बढ़ते हैं. ओवरहेड टैंक, अनलॉक्ड कंटेनर, बाथरूम, किचन, पानी के कूलर और घरों में रखे जाने वाले पौधों जो पानी को धीरे-धीरे अवशोषित करते हैं, सभी मच्छर पनपने के स्रोत हैं. हर साल शहरी प्रशासन डेंगू और चिकनगुनिया को नियंत्रित करने के लिए मच्छर और लार्वा को नियंत्रित करने के उपाय ढूंढने में संघर्ष करते नजर आते हैं. नगर निकाय लार्वाइसाइड्स और एडल्टिसाइड्स का छिड़काव करते हैं, मच्छरदानी के इस्तेमाल की सलाह देते हैं और लोगों को पानी इकट्ठा न होने देने की सलाह देते हैं, चाहे वह फूलदान जितने छोटे बर्तन में ही क्यों न हो. लोगों को पूरी बाजू के कपड़े पहनने को कहते हैं. हालांकि, संख्याएं बताती हैं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और नगरपालिका निकायों के ये प्रयास अपर्याप्त रहे हैं.

पूरे देश मे भारत का स्वास्थ्य ढांचे पर इस साल कोविड-19 महामारी के कारण बोझ अधिक बढ़ गया है. ऐसी स्थिति में डेंगू के प्रकोप को कम करने के लिए आवश्यक निवारक उपाय करने में राज्यों की पीछे रह जाने की संभावना भी है. कोरोनोवायरस महामारी के दौरान डेंगू के प्रकोप से होने वाले खतरे को रोकने के लिए अधिकारियों को प्रतिबंधात्मक प्रयासों को दोगुना करने की आवश्यकता है. उन्हें लोगों तक पहुंचकर और संचार के माध्यम से रोकथाम उपायों को प्रेरित करना चाहिए.

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के लिए 50 प्रतिशत आबादी के पात्र होने के साथ, भारत में 2020 में अनुमानित शहरी आबादी 230 मिलियन है. दिल्ली और अन्य 11 राज्यों के प्रमुख शहरों में बड़ी संख्या में लोग झुग्गी बस्तियों में रहते हैं. डेंगू की रोकथाम और प्रयासों को अधिक प्रभावी बनाने के लिए स्वास्थ्य और नगरपालिका अधिकारियों को झुग्गी और इसी तरह से वंचित समुदायों को जोड़ने की आवश्यकता है. शहरों को डेंगू के खिलाफ लड़ने के लिए दीर्घकालिक उपायों की भी आवश्यकता है, जिसमें झुग्गियों में पेड़ लगाने जैसे उपाय शामिल हैं. शहरों में पेड़ लगाने से कुछ हद तक ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव कम होगा और साथ ही डेंगू फैलाने वाले मच्छरों भी कम होंगे.

यदि डेंगू की रोकथाम इस महामारी के दौरान एक कठिन चुनौती बन जाती है, तो डेंगू रोगियों का इलाज करना और भी मुश्किल हो सकता है. पहली समस्या अपर्याप्त चिकित्सा सेवाएं हैं. लगभग 20 प्रतिशत डेंगू बुखार के रोगियों में डेंगू गंभीर रूप ले लेता है और उन्हें अस्पताल में भर्ती करने की आवश्यकता पड़ती है. इनमें से कई गंभीर मामलों में भी प्लेटलेट ट्रांसफ्यूजन या रक्त संचार की आवश्यकता होती है. इससे अस्पतालों का बोझ बढ़ सकता है, खासकर 11 राज्यों के प्रमुख शहरों में. एक व्यक्ति जो कोरोनोवायरस लहर के बीच डेंगू का शिकार होता है, जैसा कि दिल्ली पहले से ही इस वर्ष तीन बार देख चुकी है, उसे सार्स-कोव2 वायरस के संक्रमण का खतरा हो सकता है जब वह डेंगू के इलाज के लिए अस्पताल खोज रहा होता है.


आधिकारिक संख्या के अनुसार हाल के वर्षों में दिल्ली में डेंगू के मामलों की संख्या को कम करने में कुछ हद तक सफलता मिली है, लेकिन मामलों को कम दर्ज करने से बीमारी के वास्तविक पैमाने का पूरा पता नहीं चलता. दिल्ली सरकार ने दावा किया है कि 2020 में दिल्ली में पांच सालों की तुलना में डेंगू के सबसे कम मामले सामने आए और कोई मौत नहीं हुई है. हालांकि, महामारी के दौरान कम मांग और कम आपूर्ति के कारण डेंगू परीक्षण की मांग कम हुई है. हो सकता है कि ऐसे में बीमारी के संभावित वास्तविक आंकड़ों का पता नहीं चल रहा है. वास्तव में, दिल्ली नगर निगम ने 16 नवंबर से 21 नवंबर के बीच 80 डेंगू के मामलों मामलों की जानकारी दी है.

डेंगू के लक्षण तेज सिरदर्द, जोड़ों और मांसपेशियों में दर्द, पेट दर्द है. इसे "हड्डी तोड़ बुखार" के नाम से भी जाना जाता है. कुछ रोगियों में मतली और उल्टी भी होती है. डेंगू वायरस का कोई सीधा एंटीडोट नहीं है जो उपचार के परिणामों को अनिश्चित बना सकता है. तीन दशकों के आक्रामक चिकित्सा प्रबंधन के अनुभव के साथ, जिसमें यह सुनिश्चित करना भी शामिल है कि एक मरीज की अच्छी तरह से हाइड्रेटेड और आंतरिक रक्तस्राव और प्लेटलेट काउंट के लिए निगरानी की जाती है, 1996 में राष्ट्रीय मृत्यु दर 4.2 प्रतिशत से घटकर एक प्रतिशत से भी कम हो गई है. हालांकि, कोविड-19 डेंगू के इलाज को जटिल बनाता है. डेंगू और कोविड-19 बुखार, सिरदर्द, शरीर में दर्द और थकान जैसे समान प्रारंभिक लक्षणों के साथ एक समय पर हो सकते हैं. नतीजतन, दोनों में से किसी भी संक्रमण का निदान किया जा सकता है. दोनों ही संक्रमणों में प्लेटलेट की संख्या में गिरावट हो सकती है. दूसरे संक्रमण को पहचानने में देरी से दोनों रोगों के प्रभाव से रोगी की स्थिति और खराब हो सकती है. दोनों संक्रमणों का एक समय पर इलाज मुश्किल है और इसे अभी तक पर्याप्त रूप से नहीं देखा गया है और न ही अध्ययन किया गया है. यदि दोनों संक्रमण एक साथ रोगियों के एक छोटे से अनुपात में होता है, तो भी स्वास्थ्य परिणाम गंभीर हो सकते हैं. यह बीमारी की गंभीरता को बढ़ाता है क्योंकि प्रत्येक वायरस दूसरे के प्रभाव को बढ़ा सकता है.

पहले संक्रमण से बचाव में लापरवाही बरतने से दूसरे संक्रमण को घातक होने में मदद मिलेगी. सह-संक्रमण वाले रोगियों का इलाज करने वाले डॉक्टरों को कोविड-19 के इलाज में संघर्ष करना पड़ सकता है, जिसमें रक्त के थक्के और डेंगू से रक्तस्राव हो सकता है. प्लेटलेट और रक्त की मांग तेजी से बढ़ सकती है और अस्पतालों को अपने स्टॉक और भंडारण क्षमता को तैयार रखने की आवश्यकता होगी. स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस समस्या को ध्यान में रखते हुए अक्टूबर के मध्य में डेंगू, मलेरिया, इन्फ्लूएंजा, चिकनगुनिया और लेप्टोस्पायरोसिस सहित अन्य मौसमी बीमारियों के साथ कोविड-19 के इलाज के लिए दिशानिर्देश जारी किए.

नौ महीनों में कोरोनोवायरस के साथ भारत के अनुभव से पता चला है कि अधिकांश राज्यों में कोविड-19 के परीक्षण की सुविधाएं और कोविड-19 का उपचार करने वाले अस्पतालों में बहुत कम वृद्धि हुई है. इसने भारत की स्वास्थ्य प्रणाली, विशेष रूप से प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल, संक्रमण निगरानी और निवारक देखभाल की दीर्घकालिक कमजोरियों को उजागर किया है. महामारी के दौरान डेंगू के प्रकोप का प्रबंधन करते हुए स्वास्थ्य प्रणाली की क्षमता का और गहनता से परीक्षण किया जाएगा. स्वास्थ्य और नगरपालिका अधिकारियों को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि प्रमुख शहरों, विशेष रूप से डेंगू संभावित क्षेत्रों में, पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं और हल्के, मध्यम और गंभीर डेंगू मामलों के लिए पर्याप्त बेड हों. कर्मचारी राज्य बीमा प्रणाली, भारतीय रेलवे और राज्य पुलिस के स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे को मौजूदा परीक्षण और उपचार केंद्रों के विकल्प के रूप में चुना जाना चाहिए. दोनों संक्रमणों का जल्द पता लगाने के लिए कोविड-19 के साथ-साथ डेंगू का परीक्षण किए जाने की आवश्यकता है. सौभाग्य से, भारत में डेंगू का पता लगाने के लिए एनएस1 एंटीजन जैसे कुछ विशिष्ट परीक्षण हैं जो एक ही दिन में सटीक परिणाम दे सकते हैं.

डेंगू के मामलों की रिपोर्टिंग राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तर पर प्रशासकों द्वारा उनके प्रदर्शन को अच्छा बनाए रखने के मामले में बाधा बनती है. अंडर रिपोर्टिंग लोगों और स्वास्थ्य कर्मचारियों को निवारक कदम उठाने से रोकती है. राज्य सरकारों को डेंगू और कोविड-19 की तेजी से लक्षण आधारित रिपोर्टिंग को मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, आशा वर्कर्स, सहायक नर्स मिडवाइव्स या एएनएम और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और सहायिकाओं जैसे अग्रिम पंक्ति के अधिकारियों के माध्यम से बढ़ाने की आवश्यकता है.

फ्रंटलाइन कर्मी कम मेहनताने पर काम करते हैं और सरकारें उनके काम और पारिश्रमिक को नियमित करने में विफल रही हैं. आशा वर्कर्स भारत की स्वास्थ्य प्रणाली के सबसे कम भुगतान वाले फ्रंटलाइन "योद्धा" हैं. गर्भवती महिलाओं की सूची तैयार करने, टीकाकरण, परिवार कल्याण सेवाओं के लिए पात्रता रखने वाले जोड़ों की सूची बनाने, जन्म और मृत्यु पंजीकरण से संबंधित काम करने और बस्तियों में जाकर स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता फैलाने के लिए उन्हें केंद्रीय निधियों से 2000 रुपए का मासिक मेहनताना प्राप्त होता है. कोविड-19 महामारी के दौरान, आशा वर्कर्स ने कोविड-19 के प्रसारण पर सामुदायिक जागरूकता और परीक्षण तक पहुंच की सुविधा को लेकर जागरूकता लाने के साथ के अतिरिक्त कर्तव्य भी निभाए हैं.

कई लोगों को कई घंटों तक काम करने के दौरान खुद को बचाने के लिए अपेक्षित पीपीई किट, मास्क, दस्ताने और सैनिटाइजर भी नहीं मिल सके. उन्हें अपने बच्चों की भी उपेक्षा करनी पड़ी, जिन्हें आम तौर पर पूरे दिन के लिए पड़ोसी या परिवार के सदस्य के साथ छोड़ना पड़ता था. स्वास्थ्य मंत्रालय ने 20 अप्रैल को जारी एक आदेश में कोविड-19 को नियंत्रित करने के लिए आशा वर्कर्स के जबरदस्त प्रयासों और उनके कई नियमित कर्तव्यों को स्वीकार किया. इसी आदेश में मंत्रालय ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को 1 जनवरी से 30 जून तक वर्कर्स को 1000 रुपए की अतिरिक्त प्रोत्साहन राशि देने का निर्देश दिया. यह इस गंभीर महामारी से प्रत्यक्ष रूप से लड़ने वालों के लिए अपर्याप्त है. कोविड-19 महामारी बिना देरी किए के उनके मेहनताने और प्रोत्साहन राशि को नियमित करने का समय है.

केंद्र और राज्य सरकारों को कोविड-19 और डेंगू दोनों के लिए मुफ्त में इलाज की सुविधा प्रदान करने की आवश्यकता है. भारत में कोविड-19 उपचार के लिए एक अलग बेड के लिए प्रति दिन 8000 रुपए से 25000 रुपए, वेंटिलेटर के बिना आईसीयू के लिए 13000 रुपए से 43000 रुपए के बीच और वेंटीलेटर के साथ आईसीयू के लिए 15000 रुपए से 54000 रुपए के बीच खर्च होता है. एंटीबायोटिक या प्रतिजैविक दवाओं, जांच, प्रतिरक्षा चिकित्सा, कोमोर्बिडिटी और जटिलताओं के उपचार की लागत अलग से आती है. केरल जैसे बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं वाले राज्य मुफ्त इलाज प्रदान कर सकते हैं. बाकी राज्यों में कीमतें राज्य सरकारों की क्षमता पर निर्भर करती हैं. मुफ्त में उपचार उपलब्ध कराने के लिए तीन स्पष्ट कारण हैं. सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार, पहला, भारत की 85.9 प्रतिशत ग्रामीण आबादी और 80.9 प्रतिशत शहरी आबादी के पास कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं है. दूसरा, भारत के शहरी इलाकों में अनौपचारिक श्रमिकों और वेतनभोगी व्यक्तियों ने कोविड-19 लॉकडाउन द्वारा किए गए आर्थिक संकटों और प्रतिबंधों के कारण अपनी आजीविका खो दी है. तीसरा, अधिकांश भारतीय महंगी निजी चिकित्सा स्वास्थ्य सेवाओं का खर्च नहीं उठा सकते. 

60 करोड़ से अधिक भारतीय प्रतिदिन 3.10 डॉलर से कम पर जीवन-यापन करते हैं, जो कि विश्व बैंक द्वारा परिभाषित औसत गरीबी रेखा है. ये परिवार एक सदस्य के कोविड-19 या डेंगू जैसी गंभीर बीमारी के अस्पताल उपचार के कारण साहूकार या वित्त कंपनी के कर्ज में डूब जाएंगे.

2020 में हमारा ध्यान अधिकांश समय कोविड-19 पर रहा है और हम डेंगू जैसे अन्य प्रकोपों ​​के खतरों को तब तक अनदेखा करते रहे हैं जब तक कि ये लोगों को गंभीर रूप से जकड़ नहीं लेते. इन खतरों से निपटने का सबसे अच्छा तरीका संपूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करना है. समुदाय में बेहतर स्वास्थ्य सेवा की मांग है और इसे सरकारी प्रदाताओं से दृढ़ता से जोड़ा जाना चाहिए जो आपदाओं से निपटने विश्वसनीय और सशक्त हैं.

अनुवाद : अंकिता