भारतीय रोग नियंत्रण बोर्ड ने शुरू से छिपाया कोरोना का डेटा, महामारीविदों का खुलासा

स्वास्थ्य मंत्रालय के राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी) के एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम (आईडीएसपी) आमतौर पर भारत में बीमारियों के फैलने के बारे में साप्ताहिक रिपोर्ट प्रकाशित करता है. लेकिन इस साल, उसने 2 फरवरी को भारत के पहले तीन कोविड-19 मामलों को दर्ज करने के बाद से एक भी रिपोर्ट प्रकाशित नहीं की. साभार : NCDC.GOV.IN
14 May, 2020

स्वास्थ्य मंत्रालय के राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी) के एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम (आईडीएसपी) ने फरवरी के पहले सप्ताह की अपनी साप्ताहिक रिपोर्ट में भारत में कोविड-19 के पहले तीन मामले रिकार्ड थे. आईडीएसपी भारत में बीमारियों के प्रसार को ट्रैक करता है और अपनी वेबसाइट पर प्रकोपों के बारे में साप्ताहिक रिपोर्ट प्रकाशित करता है. एक दशक से अधिक समय से आईडीएसपी ने भारत में बीमारियों के प्रकोप के बारे में साल के हर हफ्ते रिपोर्ट प्रकाशित की है. लेकिन भारत में कोरोनावायरस महामारी को ट्रैक और सर्वेक्षण कर सकने की सबसे अच्छी क्षमता और विशेषज्ञता वाली इस एजेंसी ने 2 फरवरी की रिपोर्ट के बाद एक भी रिपोर्ट जारी नहीं की है.

वैश्विक लोक स्वास्थ्य के एक विशेषज्ञ ने नाम ना छापने की शर्त पर कहा, "इस संगठन की स्थापना का मकसद यही तो था.” यह संगठन शुरू से ही इसी तरह की किसी महामारी की तैयारी ही तो कर रहा था. अब महामारी हमारे सिर पर है लेकिन एनसीडीसी कहां है? दुनिया भर के रोग नियंत्रण केंद्र (सीडीसी) महामारी के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व कर रहे हैं लेकिन भारत में भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) यह काम कर रही है और एनसीडीसी सिरे से गायब है.” कोविड-19 के खिलाफ तीन महीने से चल रही लड़ाई में आईसीएमआर के एक वरिष्ठ अधिकारी सहित कई महामारीविदों और लोक स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने बताया कि एनसीडीसी ना तो आईसीएमआर के साथ डेटा साझा कर रहा था, ना ही नियमित रूप से महामारी-प्रतिक्रिया बैठकों में भाग ले रहा था.

आईडीएसपी को नवंबर 2004 में स्थापित किया गया था, जिसे गंभीर तीव्र श्वसन सिंड्रोम या सार्स के प्रकोप के एक साल बाद विश्व बैंक ने वित्त पोषित किया था. इसे भारत के एनसीडीसी के तहत रोगों को ट्रैक करने के विशिष्ट अधिदेश के साथ स्थापित किया गया था. केंद्रीय, राज्य और जिला स्तरों पर निगरानी इकाइयों की स्थापना की गई. रियल टाइम में मलेरिया, डेंगू वगैरह जैसी बीमारियों के प्रकोप के सर्वेक्षण के लिए पहल की साप्ताहिक रिपोर्ट काफी महत्वपूर्ण हैं. इसकी वेबसाइट बताती है कि आईडीएसपी "रैपिड रिस्पांस टीमों के माध्यम से शुरुआती चरण में, फैलने वाली बीमारियों का पता लगाने और प्रतिक्रिया देने के लिए" बीमारी के रुझान की निगरानी करना और प्रतिक्रिया देना'' का प्रयास करता है.

नोवेल कोरोनवायरस महामारी एनसीडीसी की सबसे बड़ी परीक्षा ना होकर इसका प्रयोजन है. मोटे तौर पर स्वास्थ्य मंत्रालय अपने डेटा को दो प्रमुख स्रोतों से प्राप्त करता है: आईडीएसपी, जिसमें बड़ा डेटा सेट है, जिसमें संपर्क-ट्रेसिंग संचालन, क्वारंटीन केंद्र और हवाई अड्डों से एकत्रित जानकारी शामिल है और आईसीएमआर, जो प्रयोगशालाओं से परीक्षण डेटा प्राप्त करता है. लेकिन 2 फरवरी से आईडीएसपी ने अपने डेटा का खुलासा नहीं किया है.

सरकार की महामारी प्रतिक्रिया से जुड़े कम से कम तीन वैज्ञानिकों और महामारीविदों के साथ मेरी बातचीत के अनुसार, एक बैठक में आईडीएसपी द्वारा आंकड़े जारी ना करने का मुद्दा उठाया गया था. इस बैठक में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन भी शामिल थे. 27 मार्च को हर्षवर्धन ने भारत में कोविड-19 स्थिति की समीक्षा के लिए एक "उच्च स्तरीय समिति" का गठन किया था. समिति ने चार दिन बाद अपनी पहली बैठक की. वैज्ञानिकों और महामारीविदों के अनुसार बैठक के दौरान जब उपस्थित लोगों ने इस मुद्दे को उठाया तो वर्धन ने डेटा को सार्वजनिक करने से इनकार कर दिया. उन्होंने मुझे बताया कि वर्धन ने दावा किया कि उनके पास "इन-हाउस विशेषज्ञ" हैं. उन्होंने यह नहीं बताया कि इन-हाउस विशेषज्ञों ने एनसीडीसी को डेटा साझा करने से क्यों रोका.

"मैं नहीं जानता कि यह इन-हाउस विशेषज्ञ कौन हैं", एक महामारीविद ने नाम ना छापने की शर्त पर मुझे बताया. “आईसीएमआर में एक बाल रोग विशेषज्ञ, एक कार्डियोलॉजिस्ट और एक पल्मोनोलॉजिस्ट के नेतृत्व में एक टास्क फोर्स है. वे महामारी विज्ञान का अनुभव ना रखने वाले चिकित्सक हैं लेकिन फिर भी टास्क फोर्स का नेतृत्व कर रहे हैं. यह सरकार के फैसलों का एक रबर स्टैंप जैसा है.” टास्क फोर्स के अध्यक्ष विनोद पॉल बाल रोग विशेषज्ञ हैं. आईसीएमआर के महानिदेशक और टास्क फोर्स के सह अध्यक्ष बलराम भार्गव हृदय रोग विशेषज्ञ हैं. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली के निदेशक और टास्क फोर्स के सदस्य रणदीप गुलेरिया पल्मोनोलॉजिस्ट हैं.

"जहां तक डेटा का सवाल है, इसमें कुल मिलाकर अस्पष्टता है," महामारीविद ने मुझे बताया. "जो कुछ भी सार्वजनिक डोमेन में डाला जा रहा है वह संदिग्ध है और इससे निकाले गए निष्कर्ष और अनुमान गलत हैं." उन्होंने कहा कि आईडीएसपी और आईसीएमआर के बीच कोई संवाद नहीं है. “दोनों अपने-अपने डेटा पकड़े हुए हैं. सूचना ही शक्ति है और कोई भी इसे साझा नहीं करना चाहता है. अगर इसे जनता के लिए या कम से कम शोधकर्ताओं के लिए उपलब्ध कराया जाता है तो इससे उन्हें सूचित किया जाता है कि महामारी कहां बढ़ रही है और सही उपचारात्मक उपाय क्या हैं.” एक अन्य महामारीविद के अनुसार, जिन्होंने नाम ना जाहिर करने का अनुरोध किया, एनसीडीसी और आईसीएमआर के बीच हालत प्रभावी रूप से रस्साकस्सी की थी. "बाएं हाथ को पता नहीं है कि दाहिना हाथ क्या कर रहा है," महामारीविद ने मुझे बताया. "यह एक घिसी-पिटी कहावत है, लेकिन यह सच है."

हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि एनसीडीसी और स्वास्थ्य मंत्रालय ने आईडीएसपी द्वारा एकत्र की गई जानकारी को वापस क्यों लिया है, जिसके परिणामस्वरूप पूरी जानकारी ब्लैकआउट हो गई है. डेटा किसी महामारी की प्रतिक्रिया का एक महत्वपूर्ण घटक है और कोविड-19 जैसी तेजी से विकसित होने वाली स्थिति में, यह दिन-प्रतिदिन के निर्णय लेने के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है. आईसीएमआर के साथ काम कर रहे एक तीसरे महामारीविद के अनुसार, एनसीडीसी के पास फिर भी, आईसीएमआर के डेटा तक पहुंच है, लेकिन एनसीडीसी का डेटा आईसीएमआर के लिए उपलब्ध नहीं है. लेकिन आईसीएमआर के परीक्षण डेटा को अकादमिक साझेदारों जैसे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान और अन्य चिकित्सा-अनुसंधान संस्थानों तक के लिए उपलब्ध नहीं कराया गया है.

इस जानकारी को साझा ना करने से सरकार के अकादमिक साझेदार, वैज्ञानिक और शोधकर्ता महामारी के पैमाने और इसका जवाब किस तरह दिया जाना है, इसके बारे में अंधेरे में हैं. उदाहरण के लिए, एक राष्ट्रीय वैज्ञानिक टास्क फोर्स, जिसका गठन केंद्र सरकार को सलाह देने के लिए किया गया था, ने भारत में वायरस के प्रसार को ट्रैक करने के लिए महामारीविदों का एक शोध समूह नियुक्त किया था. लेकिन एनसीडीसी द्वारा कोई रिपोर्ट प्रकाशित नहीं करने के कारण, अनुसंधान समूह आईडीएसपी की निगरानी इकाइयों से प्राप्त महत्वपूर्ण डेटा तक पहुंच के बिना काम कर रहा है. जाहिरा तौर पर, इसके पास 30 जनवरी को भारत के पहले कोविड-19 के प्रकोप के बाद से संपर्क ट्रैक किए जाने का डेटा नहीं है.

डेटा की कमी का भारत की परीक्षण नीति के संदर्भ में एक व्यापक प्रभाव पड़ता है. जिस डेटा को उजागर नहीं किया गया है उसमें संपर्क-ट्रेसिंग जानकारी और इनफ्लुएंजा जैसी बीमारियों की निगरानी से डेटा शामिल हैं, दोनों ही वायरस की स्थिति को समझने और भविष्य के रुझानों की भविष्यवाणी करने के लिए महामारीविदों के लिए महत्वपूर्ण हैं जो संभावित रूप से जीवन बचा सकते हैं. मैंने जिन वैज्ञानिकों और महामारीविदों के साथ बात की उनके अनुसार, डेटा साझा करने में विफलता भारत में संक्रमण के रोकथाम के उपायों में विफल होने के मूल में है.

"आप जानना चाहते हैं कि रोकथाम के उपाय क्यों विफल हो गए हैं?" दूसरे महामारीविद ने पूछा. "क्योंकि हम हर उस व्यक्ति की निगरानी, परीक्षण और समय रहते उसे आइसोलेट नहीं कर रहे थे जो प्राथमिक संपर्क में था. परीक्षण कर लिया गया लेकिन अभी परिणाम नहीं आया इसलिए ट्रैकिंग नहीं की गई है और इसने महामारी को हवा मिली. परीक्षण के परिणाम प्राप्त करने में 14 दिन लगते हैं और उस समय में व्यक्ति पहले से ही समुदाय में बीमारी फैला रहा होता है. यही कारण है कि संक्रमण का व्यापक सामुदायिक फैलाव हुआ है. जैसे-जैसे मामले बढ़ रहे हैं, कर्नाटक, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और तेलंगाना ने परीक्षण के बैकलॉग की सूचना दी है.

 पूरे मेडिकल इतिहास में, महामारी की रोकथाम करने में सरकारों ने जो सफलता दर्ज की है वह आईडीएसपी जैसी निगरानी प्रणालियों द्वारा एकत्र किए गए डेटा पर निर्भर हो कर ही की है जो तेजी से डेटा संग्रह, विश्लेषण, मूल्यांकन और समय पर रिपोर्टिंग करती हैं. 1850 के दशक की शुरुआत में लंदन हैजा से जूझ रहा था. जॉन स्नो नाम के डॉक्टर ने आस-पड़ोस में बीमारी के मामलों का नक्शा तैयार किया, प्रकोप के स्रोत के रूप में पानी के एक पंप की पहचान की और पंप को तोड़ कर हैजा रोक दिया. उनके शोध को अभूतपूर्व माना जाता है. इसने दुनिया भर में महामारियों की जांच और इलाज के ढ़ग को बदल दिया. इसके चलते जॉन स्नो को आधुनिक महामारी विज्ञान का पिता माना जाता है.

भारत में, एक सदी बाद, सरकारी एजेंसियां सार्वजनिक-स्वास्थ्य संकट के बीच डेटा को रोक रही हैं. अधिकांश देशों के विपरीत,जहां संबंधित सीडीसी महामारी प्रतिक्रिया का नेतृत्व कर रहे हैं, भारत में प्रतिक्रिया का नेतृत्व एक अनुसंधान संगठन,आईसीएमआर कर रही है. "यह उसका काम नहीं है," एक तीसरे महामारीविद, जिन्होंने नाम न जाहिर करने का अनुरोध भी किया था, मुझे बताया. “एनसीडीसी महामारी को ट्रैक करने के लिए बनाया गया है. वे कहां हैं? भारत को छोड़कर हर देश में सीडीसी अग्रिम मोर्चे पर हैं."

यह डेटा वैज्ञानिकों के लिए भी महत्वपूर्ण है, जो इसे अपने-अपने कामों पर इस्तेमाल कर सकते हैं. लेकिन भारत सरकार कम डाटा साझा करना चाहती है. 28 अप्रैल से आईसीएमआर ने दैनिक प्रेस ब्रीफिंग में परीक्षण डेटा साझा करना बंद कर दिया. एक सप्ताह बाद स्वास्थ्य मंत्रालय ने घोषणा की कि वह अपनी वेबसाइट पर केवल मामलों की संख्या के साथ ''दिन में दो बार की जगह बस एक बार सुबह'' आंकड़े जारी करेगा. नीति में इस बदलाव के बारे में कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया.

मुझे स्वास्थ्य मंत्री के कार्यालय, आईसीएमआर के प्रमुख, भार्गव और एनसीडीसी और आईडीएसपी के निदेशक सुजीत कुमार सिंह को भेजे गए ईमेल के जवाब नहीं मिले. अगर वे जवाब देते हैं तो रिपोर्ट को अपडेट कर दिया जाएगा.

महामारी फैल रही है क्योंकि लड़ने के लिए आवश्यक जानकारी को रोका जा रहा है. वास्तव में अपनी साप्ताहिक रिपोर्टों को रोक कर आईडीएसपी ने ना केवल कोविड-19 के डेटा को रोका है बल्कि देश में चिकनगुनिया, डेंगू, घेंघा और खसरा जैसी अन्य बीमारियों के प्रकोप पर भी अपडेट रोक दिया है. नतीजतन मेडिकल समुदाय निराश है और उसके पास जापानी इंसेफेलाइटिस (मस्तिष्क ज्वर) जैसी बीमारियों से लड़ने के लिए आवश्यक सूचना का अभाव है जिसके चलते 2017 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में वायरस से 100 से अधिक शिशुओं की मृत्यु हो गई थी. जापानी इंसेफेलाइटिस का संक्रमण आम तौर पर मई में शुरू होता है.

इस वर्ष एक अतिरिक्त महामारी से लड़ने के चलते भारत के डॉक्टरों के पास आईडीएसपी द्वारा ट्रैक की गई अन्य बीमारियों से लड़ने के लिए कम जानकारी और कम संसाधन होंगे और एनसीडीसी द्वारा इस डेटा को जारी ना करने की कीमत मानव जीवन को होने वाले बड़े नुकसान से चुकानी होगी. ये ऐसी जाने होंगी जिन्हें बचाया जा सकता था.