25 दिसंबर 2020 को भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने सार्स-कोव-2 (SARS-CoV-2) की जीनोमिक विविधताओं की जांच के लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रयोगशालाओं के एक नेटवर्क इंसाकॉग (INSACOG) की स्थापना की. सरकार ने जीनोम अनुक्रमण (सिक्वेंसिंग) के लिए दस उन्नत प्रयोगशालाओं को “क्षेत्रीय केंद्र” के रूप में स्थापित किया ताकि भारत में फैल रहे कोरोना वायरस के स्ट्रेंस पर नजर रखी जा सके. भारत के अग्रणी वायरोलॉजिस्ट डॉ शाहिद जमील को प्रयोगशालाओं के इस संघ के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया.
इंसाकॉग प्रयोगशालाओं से जुड़े एक वैज्ञानिक ने मुझे बताया, “उस समय तक हमें इस बात का ज्यादा अंदाजा नहीं था कि भारत में क्या चल रहा है और कैसे रूप बदल रहा है.”
संचार तंत्र का एक सरल खाका तैयार किया गया : नमूनों को राज्य के स्वास्थ्य विभागों से दिल्ली के राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी) में भेजा जाएगा. एनसीडीसी द्वारा नमूनों को क्षेत्रीय प्रयोगशालाओं में भेजा जाएगा. प्रत्येक प्रयोगशाला को कुछ राज्य सौंपे गए थे. नमूनों को अनुक्रमित किया जाएगा और सभी इंसाकॉग प्रयोगशालाओं को एक पोर्टल के माध्यम से एकत्रित जानकारी मुहैया कराई जाएगी. इस पोर्टल को साप्ताहिक रूप से अपडेट करने का प्रावधान भी बनाया गया. रिपोर्टों को वापस एनसीडीसी और वहां से राज्य के स्वास्थ्य विभागों को भेजना तय हुआ जिससे उन्हें यह पता चल सके कि उनके द्वारा भेजे गए नमूनों में क्या पाया गया.
“मूल रूप से यही सूचना का पूरा ढांचा था,” एक इंसाकॉग वैज्ञानिक ने मुझे बताया. “ऐसा पहले कभी नहीं किया गया था. और यह अच्छी तरह काम भी कर रहा था.” इस ढांचे को तैयार करने में वैज्ञानिकों ने चार से छह हफ्तों का समय लगाया. “लेकिन सरकार ने जोर देकर कहा कि सूचना का आदान-प्रदान, खासकर सूचना का प्रदान, स्वास्थ्य मंत्रालय के माध्यम से किया जाएगा.” वैज्ञानिकों को यह बात अजीबोगारीब लगी, क्योंकि वे जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी) के लिए काम कर रहे थे जो स्वास्थ्य मंत्रालय के नहीं बल्कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अंतर्गत आता है.
जिस समय इंसाकॉग की प्रयोगशालाएं स्थापित की जा रही थी तभी पुणे के बी.जे. मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों ने कोरोना वायरस के एक नए वेरिएंट का नमूना भेजा : B.1.617, जिसे पहली बार कैलिफोर्निया में पहचाना गया था. यह डेल्टा वेरिएंट से पहले का वेरिएंट था. जल्द ही पूरे भारत में इंसाकॉग की प्रयोगशालाओं ने B.1.617 और साथ ही इस वेरिएंट के तीन अलग-अलग उप-वेरिएंट के बारे में रिपोर्ट करना शुरू कर दिया. जीनोम सिक्वेंसिंग करने में प्रयोगशालाओं को कुछ सप्ताह का समय भी लगा. इंसाकॉग के उस वैज्ञानिक ने मुझे बताया, “फरवरी में हमने एनसीडीसी को एक रिपोर्ट भेजी, जिसे सरकार को भेजा जाना था. उस रिपोर्ट में हमने बताया कि वेरिएंट का इस तरह नए रूप लेना गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए.”
“क्या आपने अपनी रिपोर्ट में 'गंभीर चिंता' शब्द का इस्तेमाल किया था?” मैंने उनसे पूछा.
“बिल्कुल.”
“फिर आगे क्या हुआ?”
“सरकार ने दो सप्ताह तक उस रिपोर्ट का कोई जवाब नहीं दिया.” कई इंसाकॉग वैज्ञानिक “इस देरी से बहुत परेशान हो रहे थे.”
इंसाकॉग की रिपोर्ट के बाद मार्च 2021 तक बीमारी की रोकथाम के कई उपाय अपनाए जाने चाहिए थे लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. सरकार के सूचना-तंत्र के अनुसार रिपोर्ट को पहले एनसीडीसी और फिर वहां से सीधा राज्यों और स्वास्थ्य मंत्रालय तक पहुंच जाना चाहिए था. इसके बाद यह रिपोर्ट भारत के सबसे वरिष्ठ सिविल सेवक यानी कैबिनेट सचिव राजीव गौबा के पास पहुंचती, जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को निजी स्तर पर रिपोर्ट करते हैं. तमाम वैज्ञानिक प्रधानमंत्री कार्यालय को सतर्क करना चाहते थे कि महामारी तेजी से आगे बढ़ रही थी. जब मोदी प्रशासन सक्रिय रूप से लाखों भारतीयों को चुनावी रैलियों और धार्मिक उत्सवों के लिए इकट्ठा होने के लिए प्रोत्साहित कर रहा था तब वैज्ञानिक बड़े स्तर पर रोकथाम के तरीकों की मांग कर रहे थे.
यह रिपोर्ट आगे चलकर एक ऐसा भयावह बिंदु बनने वाली थी, जहां एक धर्मशासित सरकार के अड़ियलपने और वैज्ञानिक प्रमाणों की टकराहट में विज्ञान की शिकस्त होने वाली थी. इसका एक और नतीजा यह हुआ कि भारत के शीर्ष वायरोलॉजिस्ट जमील ने मई 2021 में इंसाकॉग के अध्यक्ष के रूप में अपने पद से इस्तीफा दे दिया. इसके साथ ही महामारी को संभालने की सारी जिम्मेदारी एक हृदय रोग विशेषज्ञ और एक बाल रोग विशेषज्ञ के हाथों में सौंप दी गई.
भारत में कोरोना की घातक दूसरी लहर शुरू हो चुकी थी.
30 जनवरी 2020 को भारत में कोविड-19 का पहला मामला दर्ज किया गया. यहां से भारतीय चिकित्सा तंत्र के पतन का एक ऐसा अध्याय शुरू हुआ जिसे स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया था. यह केरल में आए तीन मामलों से शुरू हुआ और फिर बढ़ता ही चला गया. देश में विज्ञान के पतन और राज्य प्रायोजित नीम-हकीमी के उदय की कहानियां एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं. तमाम सहूलियतों, जैसे अथाह संसाधन, वैज्ञानिक जानकारी, संक्रामक रोगों से निपटने में बेजोड़ अनुभव, बड़े पैमाने पर टीकाकरण अभियान चलाने में गहरी तार्किक विशेषज्ञता और दुनिया का सबसे बड़ा दवा उद्योग देश में मौजूद होने के बावजूद मोदी सरकार महामारी को नियंत्रित करने के हर संभव अवसर को गंवाती नजर आई. भारत, जहां बहुत से लोगों और उतने ही देवी-देवताओं का वास है, एक अकेले शख्स की मर्जी पर चल रहा था. इस दौरान तमाम भारतीयों का बिना किसी मदद या मुआवजे के अभाव में जान गंवाना जारी था.
2020 के शुरुआती छह महीनों में कोरोना वायरस ने दुनिया भर में एक करोड़ लोगों को संक्रमित किया और लगभग 50 लाख लोगों की मौत का कारण बना. विश्व में कुछ ही जगहें भारत जितनी प्रभावित हुई. दुनिया की कुल आबादी का छठा हिस्सा भारत में रहता है और यह एक ऐसा देश है जहां खासतौर से शारीरिक-सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग) रख पाना तकरीबन नामुमकिन है. दिसंबर 2021 तक करीब पांच लाख भारतीय इस वायरस की चपेट में आ चुके थे. यह भी महज एक कमतर अनुमान है. संक्रमितों की वास्तविक संख्या, जो निस्संदेह अधिक थी, अभी भी अज्ञात है क्योंकि मोदी सरकार अपनी लीक पर चलते हुए शवों की गिनती कर पाने में विफल साबित हुई.
फरवरी 2020 में जब हम में से कई लोग दरवाजों की कुंडियां पोंछ रहे थे, सब्जियों को रगड़ के साफ कर रहे थे और नए सिरे से हाथ धोना सीख रहे थे, उस समय देश में आंतरिक कलह से त्रस्त संगठनों को महामारी की जिम्मेदारी सौंपी जा रही थी. इनमें स्वास्थ्य मंत्रालय, विज्ञान मंत्रालय, भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर), नीति आयोग और सबसे महत्वपूर्ण लेकिन सबसे कम शक्तिशाली एनसीडीसी जैसे संगठन शामिल थे.
“हर कोई मैदान पर अपना दावा करना चाहता था,” सरकार के साथ काम करने वाले एक संक्रामक रोग विशेषज्ञ ने मुझे बताया. “एनसीडीसी द्वारा बीमारी के फैलाव से जुड़े साप्ताहिक आंकड़े सामने रखे जाते थे. वह सब बंद हो गया.” जैव प्रौद्योगिकी विभाग और आईसीएमआर “दोनों को लगता है कि वे टीके संभालते हैं. आईसीएमआर और एनसीडीसी के बीच दोनों को लगता है कि वे बीमारी की निगरानी करते हैं. और जहां क्लिनिकल रिसर्च की बात आती है, तो आईसीएमआर नहीं चाहता कि उससे किसी का कोई लेना-देना रहे.” महामारी के जोर पकड़ते ही मैदान हथियाने की कोशिशें भी तेज होती गई. इन निजी झगड़ों ने बहुत से आम लोगों की जिंदगियों को छोटा कर दिया.
विज्ञान को उन लोगों से अलग नहीं किया जा सकता, जिनके पास उसे अमली जामा पहनाने की जिम्मेदारी हो. इन संगठनों का नेतृत्व कर रहे कई लोगों ने इन्हें अपनी निजी जागीर की तरह संचालित किया. इसमें चार व्यक्तियों की मुख्य भूमिका रही : पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन, जो एक ईएनटी विशेषज्ञ हैं; प्रधानमंत्री के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार कृष्णस्वामी विजय राघवन, जो न्यूरोजेनेटिक्स विशेषज्ञ हैं; आईसीएमआर के प्रमुख डॉ बलराम भार्गव, जो हृदय रोग विशेषज्ञ हैं; और बाल रोग विशेषज्ञ डॉ विनोद कुमार पॉल, जिन्होंने सरकार के थिंकटैंक नीति आयोग में स्वास्थ्य नीति का नेतृत्व किया. इन लोगों ने भारत के प्रमुख वैज्ञानिक संस्थानों को ऐसे आधे-अधूरे घरों में तब्दील होने दिया, जहां नीम-हकीमी उपचार और अवैज्ञानिक बातों का विज्ञान और सामाजिक-राजनीतिक हितों के साथ घालमेल किया गया.
मैं कई हफ्तों तक यह पता लगाने का प्रयास करती रही कि कौन किसको रिपोर्ट करता है, लेकिन मेरी सभी कोशिशें असफल रही. ऐसा मालूम होता है कि भारत ने महामारी से निपटने के लिए कई अजीबोगारीब फैसले लिए, जिसके चलते देश में तत्काल कारवाई करने के समय सुस्ती और सावधानी बरतने के समय हड़बड़ाहट नजर आई. प्रत्येक मंत्रालय, समिति, विभाग और राज्य के लगातार घटते-बढ़ते ढाँचे महामारी को संभालने के लिए बनाए गए सरकारी तंत्र को किसी छत्ते की तरह और अधिक घुमावदार बनाते गए. यह स्थिति इस गर्त तक जा पहुंची कि एक समय के बाद तमाम जानकार वैज्ञानिक भी इसे समझ पाने में असमर्थ हो गए थे.
अशोका विश्वविद्यालय में सार्वजनिक नीति के एक प्रोफेसर ने मुझे बताया, “यदि आप इन समितियों को देखते हैं, तो इनमें सामाजिक विज्ञान, अर्थशास्त्रियों, चिकित्सा मानवविज्ञानियों आदि का प्रतिनिधित्व बहुत कम है. इनमे शामिल अधिकांश सदस्य आईएएस अधिकारी या डॉक्टर थे, जिनमें से ज्यादातर दिल्ली से थे और दिल्ली स्थित संस्थानों का नेतृत्व करते थे. इन सबके बीच विभिन्न प्रकार की विशेषज्ञता के साथ-साथ देश के विभिन्न हिस्सों के विशेषज्ञों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था.”
कई वैज्ञानिकों ने अपने पेशेवर जीवन का एक बड़ा हिस्सा संक्रामक रोगों के सालाना फैलाव से निपटने में बिताया था- भारत का सार्स, जीका, एच1एन1 और हाल ही में निपाह से निपटने का एक प्रभावशाली रिकॉर्ड रहा है. लेकिन किसी ने भी अपने पूरे जीवन में पहले ऐसा कुछ नहीं देखा था. देश में कोविड-19 का प्रबंधन एक संकुचित, हवाहवाई प्रणाली के तहत किया गया, जिसके चलते अस्पतालों को कोरोना वायरस की एक के बाद एक लहर में रोगियों के उपचार के लिए सही से तैयार नहीं किया जा सका. एक प्रमुख अमेरिकी विश्वविद्यालय के एक वैश्विक स्वास्थ्य विशेषज्ञ, जो भारत की घटनाओं पर बारीकी से नजर रख रहे थे, ने मुझे बताया, “पिछली महामारियां काफी हद तक स्थानीयकृत (लोकलाइज्ड) थीं. निपाह और जीका देश के कुछ राज्यों में स्थानीयकृत थे. इसका मतलब यह हुआ कि राज्य अधिक संगठित तरीके से काम कर सकते थे. लेकिन इस मामले में संघीय और राज्य स्तर के बीच लगातार असंतुलन की स्थिति बनी रही और हमें बहुत से भ्रमित और अराजक फैसले देखने को मिले.”
कोविड प्रबंधन में महामारी पर नियंत्रण पाने के लिए निर्धारित सरकारी निकाय एनसीडीसी को प्रमुख एजेंसी होना चाहिए था. दुनिया भर में विभिन्न सरकारों के संबंधित रोग नियंत्रण केंद्र, जिनकी मूल पहचान ही संक्रामक-रोग निगरानी से जुड़ी है, वहां के महामारी प्रबंधन का नेतृत्व कर रहे थे. वैज्ञानिक तमाम जानकारी लेने के लिए सबसे पहले एनसीडीसी का ही रुख करते थे. उदाहरण के लिए, क्या इन्फ्लूएंजा जैसी बीमारी में वृद्धि हुई या नहीं? फिर एक दिन अचानक “यह सब पूरी तरह से ऑफलाइन हो गया- सभी रिपोर्टों के साथ,” अशोका विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ने मुझे बताया. “यह पहली बार था, जब ऐसा हुआ.” केरल में तीन कोविड-19 मामले सामने आने के बाद इस वेबसाइट पर न केवल कोरोना वायरस बल्कि चिकनगुनिया, डेंगू, मलेरिया और अन्य संक्रामक रोगों की साप्ताहिक रिपोर्ट भी आनी बंद हो गई.
एनसीडीसी को शक्तिविहीन कर दिया गया. इंसाकॉग के एक वैज्ञानिक कहते हैं, “इंसाकॉग में हम अक्सर चुटकी लेते थे कि अगर एनसीडीसी के निदेशक को बाथरूम भी जाना हो, तो उन्हें पहले स्वास्थ्य सचिव से अनुमति लेनी पड़ती होगी. हालात इतने बुरे थे.” एनसीडीसी के बजाय अब भार्गव के नेतृत्व वाले आईसीएमआर को सारी ताकत सौंप दी गई थी.
कोरोना वायरस ने मोदी प्रशासन की हर कमजोरी का फायदा उठाया, जिसमें उनका अदूरदर्शी नेतृत्व, विज्ञान के प्रति अविश्वास और विशेषज्ञता को हल्के में लेना शामिल था. देश के अल्पसंख्यकों के प्रति सरकार की विभाजनकारी राजनीति ने भी महामारी की लड़ाई को कमजोर किया. चुनावों के दौरान नफरत और गलत सूचनाओं के बीज बोने वाले कई सोशल-मीडिया प्लेटफॉर्म महामारी के दौरान अफवाहों और साजिशों के अड्डों के रूप में उभरकर सामने आए. बीजेपी की ऑनलाइन ट्रोल्स की सेना ने भी अपनी भूमिका निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
विज्ञान के खंडन का नेतृत्व पॉल ने किया, जो च्यवनप्राश और काढ़ा जैसे घरेलू उपचारों के उपयोग की सिफारिश करते नजर आए. व्हाट्सएप संदेशों के माध्यम से अवैज्ञानिक अफवाहों को फैलाया गया. टेलीविजन चैनलों पर मोदी ने नागरिकों को आत्मानिर्भर बनने के नैतिक उपदेश दिए, जबकि योग गुरु रामदेव सरकार के संरक्षण में जनता को मनगढ़ंत उपचार सुझाते रहे. जल्द ही खबरें आने लगी कि गुजरात सरकार अपने क्वारंटीन केन्द्रों में कोविड-19 के संदिग्ध रोगियों पर “बहुत ही रोमांचक” प्रयोग कर रही है, जिसमें उन्हें काढ़ा पिलाया जा रहा था. काढ़ा जड़ी-बूटियों से बना एक पेय है, जिसे भारत में घरेलू तौर पर रोग प्रतिरोध क्षमता बढ़ाने या रोग दूर करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. वहीं महाराष्ट्र सरकार आयुष मंत्रालय के तहत होम्योपैथी की गोलियां वितरित कर रही थी. आयुष मंत्रालय को मोदी सरकार द्वारा विशेष रूप से पारंपरिक औषधीय मान्यताओं को बढ़ावा देने के लिए स्थापित किया गया था.
मेरे द्वारा किए साक्षात्कारों में कई वैज्ञानिकों ने ठगा हुआ महसूस करने की बात स्वीकारते हुए कहा कि उनके अपने ही पेशे के बहुत से साथियों ने विज्ञान के प्रति पूर्ण अनादर के साथ काम किया. ये “सरकारपरस्त वैज्ञानिक”, जैसा कि वे अब अपने साथियों के बीच जाने जाते हैं, मोदी सरकार के विनाशकारी फैसलों के खिलाफ लामबंद होने में विफल रहे और सामूहिक रूप से देश की नियति के कर्ता-धर्ता बन बैठे. उनकी निगरानी में भारत इटली के कवि दांते की लंबी कविता में बताए गए नर्क की तरह आग की लपटों में झुलसता गया.
इस समय के दौरान फ्रंटलाइन स्वास्थ्य कर्मचारी जमीन पर महामारी से जूझ रहे थे : अक्सर बिना वेतन, पर्याप्त सुरक्षात्मक गियर, चिकित्सा उपकरण और यहां तक कि ऑक्सीजन की आपूर्ति के बिना. यह सभी कई-कई दिन या हफ्तों तक अपने परिवार और प्रियजनों को देख तक नहीं पाते थे. एक डॉक्टर इस अनुभव को बयां करते हुए कहते हैं कि यह सब ऐसा था, जैसे रेत की कुछ बोरियों से एक उफनती नदी को रोकने की आस लगाना. कुछ अन्य लोगों ने महामारी के दौरान एक आईसीयू में होने की तुलना ऐसे युद्ध से की, जहां आप पहले ही लड़ाई हार चुके होते हैं. मरने वालों की संख्या बढ़ रही थी, हर तरफ चीख-पुकार मची थी, लोग अपना आपा खो रहे थे और कई मौकों पर कर्मचारियों को हिंसा का शिकार भी होना पड़ रहा था. इस अमानवीय समय में भी उन्होंने इंसान बने रहना चुना. वहीं सरकार जनता को वास्तविकता से परे एक सुविधाजनक तस्वीर प्रस्तुत करती रही. हर दिन रिकॉर्ड मामले दर्ज होने के बावजूद सरकार मई 2021 के अंत तक कोरोना वायरस के सामुदायिक प्रसार (कम्युनिटी ट्रांसमिशन) का खंडन करती रही. उसे इस तथ्य में भी कोई विरोधाभास नजर नहीं आया कि स्वास्थ्य मंत्री लोगों से यह अपील कर रहे थे कि वे अपने घरों के अंदर भी मास्क पहनना शुरू कर दें.
महामारी के लापरवाह प्रबंधन और इसके कारण हुई असीमित मौतों के जिम्मेदार सिर्फ राजनेता ही नहीं बल्कि वे तमाम डॉक्टर और वैज्ञानिक भी थे, जिन्होंने राजनीतिक फैसलों को एक भ्रामक चिकित्सीय वैधता मुहैया करवाई. समूची दुनिया में राजनेताओं, वैज्ञानिकों और कई सरकारों को महामारी के लचर प्रबंधन के चलते परिणाम भुगतने पड़े हैं. ब्राजील में, जहां कोविड के हताहतों की संख्या तकरीबन भारत जैसी ही रही, राष्ट्रपति जेयर बोल्सनारो सहित अस्सी से अधिक प्रमुख नामों पर “महामारी भड़काने”, देरी से टीके खरीदने, सरकारी लापरवाही बरतने और अवैज्ञानिक उपचारों का प्रचार करने जैसे कई आरोप लगाए गए. फ्रांस में एक विशेष अदालत ने यह निर्धारित करने के लिए एक जांच शुरू की कि क्या वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों ने महामारी के जवाब में “आपराधिक लापरवाही” की है. फ्रांस के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री एग्नेस बुजिन पर “दूसरों के जीवन को खतरे में डालने” का आरोप लगाया गया है. मलेशिया में, देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल ने संकट से निपटने में नाकाम रही सत्तारूढ़ सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया, जिसके चलते प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा. कई राजनीतिक विश्लेषकों का तर्क है कि आंशिक रूप से कोविड-19 के प्रबंधन में हुई कई गलतियों के कारण ही डोनाल्ड ट्रम्प एक बार पुनः अमेरिका के राष्ट्रपति नहीं चुने गए.
लेकिन भारत में सत्ताधारी शक्तियों की कोई जवाबदेही तय नहीं की गई. मोदी सरकार ने महामारी को कैसे संभाला और देश में हुई सभी मौतों के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, यह विषय न तो चुनावी मुद्दे बन पाए और न ही प्राइमटाइम बहसों का हिस्सा. फिर भी भविष्य में ऐसी आपदाओं को रोकने और अपने प्रियजनों को खो चुके लाखों शोकाकुल लोगों के सम्मान के लिए इस दौर का बहीखाता रखना बेहद जरूरी है. मोदी प्रशासन द्वारा बोले गए हर झूठ को गिन पाना किसी ऊंची ढलान पर पत्थर ऊपर चढ़ाने जैसा काम है. इसके बजाय हमें समझने का प्रयास करना चाहिए कि इन झूठों ने भारतीय वैज्ञानिकों, वैज्ञानिक संस्थानों और, सबसे बढ़कर, नागरिकों पर क्या प्रभाव डाला. वही नागरिक, जिन्हें सरकार के साथ-साथ वैज्ञानिकों ने भी धोखा दिया.
महाभारत के अनुसार अपने क्रोध के लिए जाने जाने वाले ऋषि दुर्वासा ने एक बार स्वर्ग के राजा और वर्षा के देवता इंद्र को एक माला अर्पित की थी. इंद्र ने अपने अहंकार में वह माला अपने हाथी ऐरावत के दांत पर पहना दी, जिसने माला को जल्द ही रौंद दिया. इंद्र की उपेक्षा ने दुर्वासा को क्रोधित कर दिया और उन्होंने श्राप दिया कि इंद्र और सभी देवताओं से उनकी शक्तियां और समृद्धि छीन ली जाएगी और अंततः ब्रह्मांड पर राक्षसों का राज काबिज हो जाएगा. घबराए हुए इंद्र ने पालनहार विष्णु का रुख किया, जिन्होंने उनसे और अन्य कमजोर देवताओं से कहा कि अपनी शक्तियों को वापस पाने के लिए उन्हें समुद्र का मंथन कर अमृत बाहर निकालना होगा. इसका सेवन करने पर उनकी शक्तियां वापस आ जाएंगी.
कमजोर लेकिन चालाक देवताओं ने समुद्र मंथन के लिए राक्षसों के साथ एक अस्थायी गठबंधन बनाया और उनसे वादा किया कि अमृत दोनों पक्षों में समान रूप से साझा किया जाएगा. मंथन एक मुश्किल कार्य था. मंथन की छड़ी के रूप में मेरु का उपयोग किया गया, जिसे हिंदू पौराणिक कथाओं में ब्रह्मांड के केंद्र में स्थित एक स्वर्ण पर्वत और दुनिया की धुरी की उपाधि हासिल है. विष्णु ने अपने दस अवतारों में से दूसरे अवतार कछुए का रूप धारण किया और अपनी पीठ पर पहाड़ को टिकाए रखा. आमतौर पर शिव के गले में लिपटे रहने वाले नागों के राजा वासुकी को मंथन की रस्सी के रूप में इस्तेमाल किया गया.
अंततः समुद्र से अमृत का एक बर्तन प्रकट हुआ. वादे के अनुसार इसे साझा करने के बजाय देवताओं ने इसे अपने तक सीमित रखा. इस कारण देवताओं और राक्षसों के बीच एक युद्ध छिड़ा, जो 12 दिन और रातों तक जारी रहा. इस युद्ध के दौरान चार स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरी: नासिक, उज्जैन, इलाहाबाद और हरिद्वार. कहा जाता है कि छलकी हुई बूंदों ने इन सभी स्थानों को शुद्ध कर दिया और इसके साथ ही उन्हें ऐसी जादुई शक्तियां प्रदान की, जिससे आने वाले समय में भक्त वहां आकर अपने पापों को धुल सकें. संस्कृत में बर्तन को कुंभ कहा जाता है. इन चार स्थानों पर हर 12 साल में कुंभ मेला मनाया जाता है. यह मेले दुनिया में होने वाली सबसे बड़ी धार्मिक सभाओं में शामिल हैं.
भारत, जो वर्तमान में एक आधुनिक प्लेग से जूझ रहा है, पहले भी मानव इतिहास की सबसे भयावह महामारियों में से एक को झेल चुका है: 1896 का बुबोनिक प्लेग. उस साल अगस्त में हजारों तीर्थयात्री कुंभ मेले में शिरकत करने के लिए बंबई से कुछ घंटों की दूरी पर स्थित नासिक के प्राचीन शहर में पहुंचे. कुछ तीर्थयात्री हिमालय के पास गढ़वाल से आए थे, जहां स्थानीय तौर पर यह प्लेग फैला हुआ था.
जल्द ही यह प्लेग बंबई पहुंचा और जंगल की आग की तरह फैल गया- उस पूरे साल शहर के बाकी हिस्सों में प्रति सप्ताह दो हजार लोगों की मौत का अनुमान लगाया गया था. इसने औपनिवेशिक अधिकारियों में दहशत पैदा कर दी थी. अमीर शहर छोड़कर भाग खड़े हुए और बीमारी का खामियाजा ज्यादातर गरीब मिल मजदूरों को उठाना पड़ा. न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के शीर्षक से इस आपदा का अंदाजा लगता है: “बॉम्बे से पलायन, बुबोनिक प्लेग से बचने के लिए छोड़ रहे शहर: आधी से अधिक आबादी भाग गई है और व्यवसाय ठप हो गया है - कब्रिस्तान मृतकों से भरे हुए हैं.”
तब भी आज की तरह शहर की बेतरतीब आवास स्थितियों ने बीमारी के फैलाव को आसान बना दिया था. शुरुआत में औपनिवेशिक अधिकारियों ने समस्या से दूरी बनाए रखी लेकिन जैसे-जैसे मौतों का आंकड़ा बढ़ता गया, सुस्त रफ्तार से राहत कार्य शुरू किए गए. सभी योजनाओं और अहम निर्णयों से भारतीयों को दूर रखते हुए अंग्रेजों ने फैसला किया कि संदिग्ध मरीजों का अलगाव करना और अस्पताल में भर्ती होना ही बीमारी को रोकने के सबसे प्रभावी तरीके थे.
1897 के वसंत तक बॉम्बे और मद्रास प्रेसीडेंसी बिखरने के कगार पर थे. ब्रिटिश राज ने उस साल मार्च में एक महामारी रोग अधिनियम पारित किया, जिससे सरकारी अधिकारियों को प्लेग के संदिग्धों को हिरासत में लेने, उन्हें अलग करने, दूषित होने के संदेह में घरों का निरीक्षण करने, उन्हें कीटाणुरहित बनाने, खाली करने और यहां तक कि ध्वस्त करने की व्यापक शक्तियां दे दी गई. मेलों और तीर्थयात्राओं को रोक दिया गया और सड़क व रेल यात्रियों को निरीक्षण के लिए हिरासत में लिया जाने लगा.
अधिनियम की भाषा इतनी गोलमोल थी कि अधिकारी आसानी से मनमाने ढंग से और बिना किसी जवाबदेही के कुछ भी कर सकते थे. इसका असली इरादा औपनिवेशिक शासन के खिलाफ पनप रहे विरोध को दबाने का था. यह अधिनियम ब्रिटिश हुकूमत के राजद्रोह कानूनों का एक हिस्सा बन गया. एक ऐसा उपकरण, जिसके द्वारा अंग्रेजों के लिए स्वतंत्रता सेनानियों और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करना आसान हो गया.
1896 से 1898 के बीच महामारी को संभालने के लिए ब्रिटिश प्रशासन ने डॉक्टरों के हाथों में नेतृत्व देने के बजाय पुलिस की बर्बरता को अपने मुख्य हथियार के रूप में अपनाना बेहतर समझा. 12 मार्च 1897 को कुल 893 ब्रिटिश और भारतीय अधिकारियों और सिपाहियों को नवनिर्मित विशेष प्लेग समिति के तहत प्लेग ड्यूटी पर तैनात किया गया.
पर आम लोगों को औपनिवेशिक हुकूमत द्वारा जबरन अस्पताल में भर्ती किए जाने के बजाय प्लेग के साथ रहना मंज़ूर था. कई पुरुष अधिकारी जबरन लोगों के घरों में घुसते, चिकित्सा परीक्षण के नाम पर महिलाओं को निर्वस्त्र करते और लोगों को अस्पतालों और अलगाव शिविरों में खींच ले जाते. कम से कम दो अलग-अलग घटनाओं में ब्रिटिश अधिकारियों पर क्वारंटीन के नाम पर महिलाओं के बलात्कार के आरोप लगे.
जैसे-जैसे हालात बिगड़ते गए, सरकार की घोषणाएं भी बढ़ती रही कि चिंता का कोई कारण नहीं है. पर एक पूना निवासी इन ढकोसलों को मानने वाला नहीं था. बाल गंगाधर तिलक, वह एक भारतीय राष्ट्रवादी और स्वतंत्रता सेनानी थे, ने हुकूमत के अत्याचारी तौर-तरीकों के खिलाफ अपने मराठी अखबार केसरी में कई रिपोर्टें छापी. एक रिपोर्ट में तिलक ने भगवद गीता को उद्धृत करते हुए लिखा कि किसी यश की परवाह किए बिना उत्पीड़क को मारने वाले किसी इंसान को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है. रिपोर्ट प्रकाशित होने के तुरंत बाद 22 जून 1897 को महारानी विक्टोरिया की डायमंड जुबली मनाकर राजकीय भोज से वापस लौट रहे प्लेग आयुक्त वाल्टर चार्ल्स रैंड और उनके सैन्य काफिले की तीन भाइयों: दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव चापेकर द्वारा हत्या कर दी गई थी. गिरफ्तारी के बाद चापेकर बंधुओं ने कहा कि वे तिलक के लेखन से प्रेरित थे. तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया, उन्हें दोषी पाया गया और हत्या के लिए उकसाने के लिए 18 महीने जेल की सजा सुनाई गई. चापेकर भाइयों को दोषी पाया गया और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई. बुबोनिक प्लेग पर अपने रुख के चलते तिलक को राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिली.
1897 के अंत तक प्लेग आयुक्त की मृत्यु हो चुकी थी और प्लेग अभी भी नियंत्रण में नहीं आया था. जैसे-जैसे अधिक से अधिक लोग बीमारी से बचने के लिए शहरों से अपने गांवों की ओर भागे, तो वे अनजाने में बीमारी के मुख्य वाहक भी अपने साथ ले गए यानी कपड़ों और बिस्तरों पर चिपटे हुए संक्रमित पिस्सू. इससे कई परिवार, कभी-कभी पूरे के पूरे गांव, प्लेग की चपेट में आ गए. अगर ब्रिटिश राज के सरकारी अनुमान को भी मानें, तो 1896 और 1914 के बीच इस प्लेग ने 12 मिलियन से 15 मिलियन लोगों की जान ली. और सरकारी आंकड़ों में ऐसे बहुधा मामलों को तो जगह मिली ही नहीं, जो इतने सालों के दौरान छिपाए गए, पहचान में नहीं आए या गलत तरीके से वर्गीकृत किए गए.
1918 और 1920 के बीच जब स्पैनिश फ्लू ने दुनिया भर में तबाही मचाई, उस समय भारत में इससे लगभग 18 मिलियन लोग मारे गए. अंग्रेज हुकूमत के अधिकारियों ने इस बार भी वही रवैया अपनाया, जो उन्होंने बुबोनिक प्लेग में अपनाया था. आजाद भारत के इतिहास में भी बहुत से संक्रामक रोग जुड़े रहे हैं, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है जिसकी तुलना कोरोना वायरस महामारी के पैमाने से की जा सके. किसी ने हालांकि यह अनुमान नहीं लगाया होगा कि इस वायरस से निपटने में एक लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार देश के आजाद इतिहास में अर्जित वैज्ञानिक विशेषज्ञता और ज्ञान पर भरोसा करने के बजाय एक औपनिवेशिक विरासत से अपना सबक लेना पसंद करेगी.
2016 में उत्तर प्रदेश राज्य में चुनाव से चंद महीनों पहले दिल्ली के प्रतिष्ठित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के निदेशक पद की नियुक्ति पर निर्णय लिया जाना था. चयन समिति में शामिल सबसे अधिक प्रभावशाली व्यक्ति महाराज किशन भान थे, जिन्हें भारतीय विज्ञान की महानतम शख्सियतों में गिना जाता है. भान को देश के पहले स्थानीय रूप से विकसित रोटावायरस वैक्सीन का नेतृत्व करने के लिए भी जाना जाता है. पॉल और भार्गव, दोनों ही उनके शिष्य रहे हैं. एक वरिष्ठ एपिडेमोलॉजिस्ट के अनुसार, भान चाहते थे कि पॉल को एम्स का निदेशक बनाया जाए. पॉल के पास आवश्यक अनुभव और वरिष्ठता के साथ-साथ एक अच्छी प्रतिष्ठा भी थी. भार्गव, जो उच्च रक्तचाप के लिए भान का इलाज कर रहे थे और भान के आवासीय परिसर में ही रहते थे, भी इस दौड़ में शामिल थे. तीसरे उम्मीदवार रणदीप गुलेरिया थे, जिन्हें अंततः यह पद मिलने वाला था.
भान के करीबी सहयोगी रहे एक वरिष्ठ एपिडेमोलॉजिस्ट ने मुझे बताया, “पॉल के लिए मंच तैयार होने के बावजूद उन्हें नियुक्ति नहीं मिली. भान ने मुझसे कहा कि यह सुनिश्चित किया जाए कि गुलेरिया अपने 'वीआईपी मरीज' कार्ड को न खेल पाएं. चयन समिति ने पॉल को अपनी पहली, भार्गव को दूसरी और गुलेरिया को तीसरी पसंद के रूप में क्रमित किया. जिस “वीआईपी मरीज” की बात भान कर रहे थे, वह पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे, जिनका उस समय गुलेरिया इलाज कर रहे थे.
नियुक्ति की फाइल प्रधानमंत्री कार्यालय तक पहुंची. भान के सहयोगी ने बताया कि चूंकि उस कार्यालय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके हिंदू-राष्ट्रवादी पंथ के बड़े चेहरे मोदी का शासन था, इसलिए सभी नामांकित उम्मीदवार “आरएसएस के सभी बड़े लोगों से मिले और अपनी तरफ से जरूरी चीजें पूरी की.” सहयोगी ने आगे बताया कि इसके बाद जल्द ही प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव पीके मिश्रा ने उस समय के स्वास्थ्य सचिव सीके मिश्रा को फोन किया और कहा, “आपने तो वरीयता का क्रम भी तय करके भेज दिया है. हमारे लिए क्या बाकी रह गया?” मैंने इन घटनाओं के बारे में पीके मिश्रा और सीके मिश्रा, दोनों को सवाल भेजे, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला.
प्रधानमंत्री कार्यालय ने फाइल को चयन समिति के पास इस निर्देश के साथ वापस भेज दिया कि वरीयता को इंगित किए बिना नामांकित उम्मीदवारों के नाम भेजे जाएं. भान के सहयोगी कहते हैं, “भान ने मुझे जो बताया, वह यह था कि वाजपेयी के दामाद” -रंजन भट्टाचार्य- “परिवार के पांच सदस्यों को लेकर मोदी से मिलने गए और उनसे कहा कि, ‘वाजपेयी की खातिर, आपको गुलेरिया को एम्स का निदेशक बनाना ही होगा.’ ऐसा माना जाता है कि मोदी ने तब अपने कार्यालय से कहा था, ‘कारण ढूंढिए.’ ” भट्टाचार्य ने मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया.
सरकार के साथ नजदीकी से काम करने वाले दो अलग-अलग वैज्ञानिकों ने मुझे बताया कि अमित शाह ने तब पॉल को फोन किया और उत्तर प्रदेश चुनावों के बाद “हम आपका ध्यान रखेंगे” का वादा करते हुए उन्हें लो प्रोफाइल रखने के लिए कहा. और इस तरह पॉल, जिन्हें एम्स का निदेशक पद नहीं मिल पाया, अगस्त 2017 में नीति आयोग के स्वास्थ्य विभाग के अध्यक्ष बना दिए गए.
पॉल पंजाब के होशियारपुर में पले-बढ़े हैं. उन्होंने नियोनेटोलॉजी में विशेषज्ञता हासिल की और 1985 से एम्स में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत रहे. उन्होंने बाल और मातृ स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक स्थिर और मज़बूत प्रतिष्ठा अर्जित की है. भान के सहयोगी पॉल को तब से जानते हैं जब पॉल स्नातक के छात्र थे. उन्होंने कहा कि पॉल “एक डॉक्टर के रूप में व्यवस्थित” और “अपनी क्षमताओं के बारे में बहुत जागरूक हैं.” पर वह यह भी कहते हैं कि पॉल “अक्सर अपने मिलनसार स्वभाव के पीछे अपनी महत्वाकांक्षाओं को छुपाते हैं.”
भार्गव को अप्रैल 2018 में आईसीएमआर का निदेशक नियुक्त किया गया. भान के सहयोगी के अनुसार भार्गव पॉल की तुलना में “बौद्धिक रूप से ज्यादा ईमानदार” हैं, लेकिन “बेहद जल्दबाज” भी हैं और “कम समय में बहुत कुछ हासिल करना चाहते हैं.” उनके अनुसार भार्गव एक ठेठ इंटरवेंशनल कार्डियोलॉजिस्ट हैं, जिन्हें लगता है कि “वे कैथेटर और स्टेंट और तकनीक के साथ सभी समस्याओं को हल कर सकते हैं.” उन्होंने आगे बताया कि भार्गव के पास तमाम राजनीतिक विचारधाराओं से आने वाले कई प्रभावशाली संपर्क थे, जैसे पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम. “भार्गव की कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं है. उन्होंने बस एक राष्ट्रवादी रवैया अपना लिया है कि भारत महान है...जो संघ परिवार को खुश रखता है”- संघ परिवार आरएसएस के वैचारिक और संगठनात्मक छत्र के तहत कई समूहों का विशाल नेटवर्क है, जिसका राजनीतिक विंग भारत की सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा है.
24 अप्रैल 2020 को मोदी प्रशासन का महामारी प्रबंधन अपने वैज्ञानिक धरातल के सबसे निचले पायदान पर जा पहुंचा. पॉल ने एक स्टडी प्रस्तुत करते हुए कहा कि एक माह पहले सरकार द्वारा लगाई गई पहली राष्ट्रव्यापी तालाबंदी (लॉकडाउन), जिसे केवल घंटों के नोटिस के साथ लागू किया गया था और जिससे देश भर में मानवीय और आर्थिक हायतौबा मची हुई थी, ने संक्रमण की दर को धीमा कर दिया है और महामारी अब “नियंत्रण” में आ गई है. उन्होंने एक ग्राफ दिखाते हुए कहा कि 16 मई तक महामारी समाप्त हो जाएगी. एक शीर्ष अमेरिकी विश्वविद्यालय के वैश्विक स्वास्थ्य विशेषज्ञ ने मुझे बताया, “वह बहुत ही अजीब क्षण था जब विनोद ने वह चार्ट दिखाया. इसे महामारी की सबसे अटपटी गड़बड़ियों में गिना जाएगा. और वह चार्ट अभी भी सबकी समझ से परे ही बना हुआ है. यह कहां से आया था? यह पूरी तरह से और मौलिक रूप से इतना गलत कैसे निकला? इस पूरी महामारी में वह चार्ट ही सबसे अतार्किक चीज थी.”
16 मई को भारत में कोविड-19 के लगभग पांच हजार नए मामले दर्ज किए गए. यह तब तक एक दिन में आए मामलों में देखा गया सर्वाधिक उछाल था. छह दिन बाद पॉल ने प्रेस को बताया कि यह बस एक “गलतफहमी” थी और उन्होंने यह कभी नहीं कहा था कि “किसी विशेष तारीख तक मामले शून्य हो जाएंगे.” उन्होंने कहा, “मुझे खेद है और मैं माफी मांगता हूं.”
फिर भी स्वास्थ्य मंत्रालय ने महामारी के जाहिर लक्षणों और बढ़ते मामलों की परवाह किए बिना यह मानने से इनकार कर दिया कि भारत में कोरोना वायरस अब स्थानीय स्तर पर पैर पसार रहा था. अशोका विश्वविद्यालय के सार्वजनिक नीति विशेषज्ञ ने मुझे बताया कि “इस समय तक हम देश में अस्सी से नब्बे प्रतिशत सीरोप्रेवलेंस दर की बात कर रहे थे. ऐसे में यह कहना हास्यास्पद था कि अभी भी कम्युनिटी ट्रांसमिशन नहीं हुआ है.”
अब तक भार्गव और पॉल भारत के महामारी प्रबंधन के मुख्य चेहरे बन चुके थे, जो लगातार दैनिक मीडिया ब्रीफिंग में नजर आते थे. स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन और प्रधानमंत्री के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार विजय राघवन पृष्ठभूमि में थे.
मैंने जिन वैज्ञानिकों से बात की, उनमें सबसे गहरी निराशा विजय राघवन के नाम से जुड़ी थी. भान के सहयोगी ने कहा कि, “मेरी नजर में इन सभी लोगों में से अगर किसी का कद सबसे ज्यादा गिरा है, तो वह नाम विजय राघवन हैं,” जिनके पास “एक सम्मानित वैज्ञानिक होने की आभा थी...लेकिन जिन्होंने सिर्फ राजनीति खेली और विज्ञान को पीछे धकेल दिया.”
विजय राघवन को भारतीय विज्ञान की सबसे प्रतिष्ठित शख्सियतों में गिना जाता है. 68 वर्षीय राघवन एक सैन्य परिवार से होने के कारण खुद को “एयर-फोर्स ब्रैट” कहते हैं, और 2015 में नेचर में छपी उनकी प्रोफाइल के अनुसार “भारत के अलग-अलग हिस्सों” में उनकी उनकी परवरिश हुई. उनकी छवि एक शांत बौद्धिक दिग्गज और विनम्र अध्यापक की भी रही है. इंटरनेट से पहले के युग में पले-बढ़े राघवन में एक जहनी जिज्ञासा थी और वह अक्सर मुख्तलिफ विषयों से जुड़ी चीजें पढ़ते रहते थे. स्विट्जरलैंड में बायोइंजीनियरिंग में डॉक्टरेट में दाखिला लेने से पहले उन्होंने आईआईटी कानपुर से केमिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की. वहां से वह कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में मेडिकल रिसर्च काउंसिल लेबोरेटरी ऑफ मॉलिक्यूलर बायोलॉजी में गए और बाद में कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से पोस्टडॉक्टरल फेलोशिप प्राप्त की.
1988 में वह भारत लौट आए और बेंगलुरु में रहते हुए वहां नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज (एनसीबीएस) की स्थापना की, जो आगे चलकर देश के सबसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्थानों में से एक साबित हुआ. भारत के वैज्ञानिक समुदाय में विजय राघवन को आज भी मुख्य तौर पर एनसीबीएस को खड़ा करने के लिए जाना जाता है. जनवरी 2013 में मोदी प्रशासन से पहले की कांग्रेस सरकार में उन्होंने एनसीबीएस निदेशक के पद से इस्तीफा दिया और सरकार के जैव प्रौद्योगिकी विभाग का नेतृत्व करने के लिए दिल्ली आ गए. नेचर में छपे लेख के अनुसार राघवन के दिल्ली आने का उद्देश्य भारतीय विज्ञान और वैज्ञानिकों के प्रशिक्षण में “मजबूती” लाना था. उन्होंने भान की जगह ली, जो हाल ही में सेवानिवृत्त हुए थे.
सरकार में विजय राघवन की क्षमता वाले किसी व्यक्ति की मौजूदगी से वैज्ञानिक हलकों में खासा रोमांच था. उन्हें 2018 में एपीजे अब्दुल कलाम और आर चिदंबरम, जो क्रमशः मिसाइल डेवलपर और परमाणु वैज्ञानिक थे, के बाद भारत का तीसरा प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार (पीएसए) नियुक्त किया गया. जब देश में महामारी फैली, तो सभी को लगा कि भारत के पास एक ऐसा पीएसए है जो जानता है कि क्या किया जाना चाहिए और सरकार को सही मार्ग दिखा सकता है.
लेकिन इसके ठीक उलट जाते हुए राघवन, जो पेशे से एक करियर बायोलॉजिस्ट हैं, अपना अधिकांश समय दफ्तर में बिताते पाए गए, जहां वे स्वदेशी गायों की “विशिष्टता” और गोमूत्र, गोबर और दूध के औषधीय गुणों और उनसे कैंसर के संभावित उपचार पर आधारित शोध कार्यों को मंजूरी देने में मशगूल थे. पीएसए के रूप में विजय राघवन की न केवल स्वास्थ्य मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय में, बल्कि वैज्ञानिकों के वैश्विक समुदाय तक भी खासी पहुंच थी. भान के सहयोगी कहते हैं, “वैज्ञानिकों की किसी भी बड़ी वैश्विक बैठक में आप विजय राघवन को जरूर पाएंगे. सरकार बदलने के बाद उन्होंने बहुत अच्छी तरह से अपना इंतजाम किया है.”
वैश्विक स्वास्थ्य विशेषज्ञ ने मुझे बताया, “गोबर आधारित शोध का सवाल हमारे सभी वैज्ञानिक संस्थानों को हथियाने से जुड़ा एक व्यापक सवाल है. भला एक करियर बायोलॉजिस्ट गोमूत्र से जुड़े अध्ययन को बढ़ावा क्यों दे रहा है?” वह खुद इस सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं, “मेरे कहने का अर्थ यह है कि वे एक ऐसे सांस्कृतिक धर्मतंत्र में नियुक्त प्रमुख वैज्ञानिक अधिकारी हैं, जो गाय के गोबर में आस्था रखता है. तो जाहिर है कि उन्हें ऐसे ही विज्ञान को प्रोत्साहित करना पड़ेगा, जो गाय के गोबर के फायदे ढूँढने में लगा पड़ा हो. मेरे हिसाब से जब आप वैज्ञानिक रवैये को दरकिनार कर एक राजनीतिक नियुक्ति को चुनते हैं, तो उसका नतीजा यही होता है.”
कोविड प्रबंधन की इस कड़ी में शक्ति का आखिरी केंद्र और देश के स्वास्थ्य क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण कार्यालय था स्वास्थ्य मंत्रालय. सौम्य स्वभाव के हर्षवर्धन, जो अब 67 वर्ष के हैं, को 2019 में इसकी कमान सौंपी गई थी. उनका जन्म दिल्ली में हुआ था और उन्होंने अपना पूरा जीवन राष्ट्रीय राजधानी में बिताया है. वह बचपन से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े रहे हैं. ईएनटी डॉक्टर के रूप में हिप्पोक्रेटिक शपथ लेने के बाद भी उनमें संघ के प्रति निष्ठा और चिकित्सा के प्रति संघ से प्रेरित नजरिए में शायद कोई कमी नहीं आई. बल्कि कहा जा सकता है कि अपने पूरे करियर के दौरान वर्धन ने संघ और वैज्ञानिकों के बीच एक पुल की भूमिका निभाई है.
मार्च 2018 की भारतीय विज्ञान कांग्रेस में वर्धन ने दावा किया कि महान भौतिक विज्ञानी स्टीफन हॉकिंग, जिनकी तब हाल ही में मृत्यु हुई थी, ने कहा था कि वेदों में अल्बर्ट आइंस्टीन के सिद्धांत का आधार मिलता है. वास्तविकता में हॉकिंग का इस तरह का बयान देने का कहीं कोई रिकॉर्ड नहीं है.
अपनी नियुक्ति के समय शायद इन सभी व्यक्तियों में से किसी ने यह नहीं सोचा था कि उन्हें असाधारण कार्यकाल निभाने के साथ-साथ एक ऐसे वैश्विक स्वास्थ्य संकट से भी जूझना होगा, जिसके लिए कोई भी तैयार नहीं था. संकट की इस घड़ी में उठाए गए फैसलों से ही उनकी विरासत का मुकद्दर लिखा जाना था. जिन सब वैज्ञानिकों से मैंने बात की, उनके अनुसार इन सभी लोगों की ख्याति बेहद ऊंची थी और कोई भी यह भविष्यवाणी नहीं कर सकता था कि वे वैज्ञानिक सिद्धांतों को धता बताते हुए उनके साथ धोखा करेंगे.
वैश्विक स्वास्थ्य विशेषज्ञ का कहना है, “मुझे लगता है कि हमारे देश में आज की तारीख में उन्हीं लोगों का बोलबाला है जो सर्वोच्च शक्तियों में अंधी आस्था या अंधी महत्वाकांक्षा रखते हैं. इनमें एक सच्ची और सम्पूर्ण भक्ति का भाव है. यहां तक कि हमारे नेताओं की छवि की रक्षा के लिए हमारे सबसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिक भी किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं. यह सिर्फ विनोद कुमार पॉल की बात नहीं हैं. इसमें वे सारे 'सरकारपरस्त वैज्ञानिक' भी शामिल हैं, जो सम्मानित और ऊंचे कद की शख्सियतें हैं. कोई यह नहीं कह सकता कि इनमें से कोई भी अपने-अपने पदों के योग्य नहीं है.”
अप्रैल 2020 में मोदी प्रशासन ने महामारी प्रबंधन के लिए पॉल और विजय राघवन की सह-अध्यक्षता में अपनी पहली टास्क फोर्स का गठन किया. इसी समय टीका बनाने से संबंधित कामों के लिए जैव प्रौद्योगिकी विभाग को “केंद्रीय समन्वय प्राधिकरण” घोषित किया गया. सरकार के साथ काम करने वाले संक्रामक रोग विशेषज्ञ ने मुझे बताया, “पॉल को सत्ता का बंटवारा रास नहीं आया. इसलिए उन्होंने एक और समिति की स्थापना की, जिसमें वह राजेश भूषण के साथ सह-अध्यक्ष बन गए. भूषण डॉक्टर नहीं हैं.” भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी भूषण स्वास्थ्य मंत्रालय के शीर्ष नौकरशाह हैं और वर्तमान में स्वास्थ्य सचिव के पद पर नियुक्त हैं. अगस्त 2020 में गठित इस अन्य समिति को कोविड-19 के वैक्सीन प्रबंधन के लिए एक राष्ट्रीय विशेषज्ञ समूह के रूप में स्थापित किया गया. और इस तरह शुरुआत हुई अधिकार समितियों, उप-समितियों, समूहों और उप-समूहों के एक भंवर की, जिन्हें सप्लाई चेन की निगरानी से लेकर चिकित्सीय मार्गदर्शन करने, और एजेंसियों के बीच समन्वय बिठाने से लेकर प्रेस को संभालने तक के सारे काम सौंप दिए गए. ये सभी समितियां मूल रूप से भार्गव और पॉल के नेतृत्व में गठित हुई थी. संक्रामक रोग विशेषज्ञ कहते हैं, “एक के बाद एक मीटिंग्स करने के अलावा इन्होंने कुछ नहीं किया. समय बीतने के साथ-साथ सारा नियंत्रण भार्गव और पॉल के हाथों में आता गया.”
अगर हम गौर से देखें तो पाएंगे कि इतिहास अक्सर खुद को दोहराता है. बीते दो वर्षों में मोदी प्रशासन ने हर वह चाल चली जो कभी अंग्रेजी हुकूमत की औपनिवेशिक, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक सरकार ने चली थी, ताकि उनकी सत्ता बनी रहे, कोई जवाबदेही तय न हो पाए और अल्पसंख्यकों को दबाया जा सके. एक सदी पहले के बुबोनिक प्लेग की तरह इस बार भी सरकार ने अपने खिलाफ बढ़ते प्रतिरोध और महामारी, दोनों को कुचलने के लिए राज की नीतियों को अपनाना बेहतर समझा. एक बार फिर हिचकिचाहते हुए राहत कार्य शुरू किए गए, अमीर भाग खड़े हुए और महामारी का दंश गरीबों को झेलना पड़ा. एक बार फिर एक्टिविस्ट और विद्रोही देशद्रोह के आरोप में जेल भेजे गए. और महामारी से मचे हाहाकार का संज्ञान लेने में मोदी प्रशासन ने उतनी ही ढीलाई बरती, जितनी हुकूमत के प्रशासन ने बरती थी.
दुनिया में महामारी प्रबंधन की ऐसी चंद ही भयावह और बर्बर मिसालें हैं, जैसी भारत में. मोदी सरकार, जिसे अक्सर नोटबंदी और अनुच्छेद 370 को निरस्त करने जैसे हबड़-तबड़ में लिए गए फैसलों के लिए जाना जाता है, ने दुनिया के सबसे निर्मम लॉकडाउन की घोषणा कर अपनी इस साख को और मजबूत किया. सरकार के इस फैसले ने आम जनता को इतना ही झकझोर कर रख दिया था, जितना उनके द्वारा पहले उठाये गए अन्य कदमों ने. कोरोना के स्थानीय फैलाव का खंडन करने और नागरिकों से भोजन, पानी और अन्य आवश्यक चीजों की जमाखोरी न करने की अपील करने के कुछ ही हफ़्तों के अंदर सरकार ने तालाबंदी की घोषणा कर लोगों को पसोपेश में डाल दिया था. तालाबंदी की इस घोषणा तक विशाल आबादी वाले भारत में कोविड-19 के 519 मामले और नौ मौतें दर्ज की गई थी. इस फैसले की वैज्ञानिक अस्पष्टता को रेखांकित करते हुए वैश्विक स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं, “उस समय पूरे भारत में कुल जितने कोविड मामले आए थे, उस से ज्यादा एक ही गाँव में मलेरिया के मामले आ जाते हैं.” कई वाकयों में सरकारी वैज्ञानिकों ने ऐसे फैसलों पर वैज्ञानिक वैधता की झूठी मुहर लगाई, जिन्होंने आगे चलकर जम के कहर बरपाया.
12 मार्च 2020 को सरकार ने हिंद महासागर में आई सुनामी के एक साल बाद स्थापित राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 और महामारी रोग अधिनियम, दोनों को लागू कर दिया. इन प्रावधानों के तहत ही लॉकडाउन को अमली जामा पहनाया गया. ऐसे में बहुत सी आपातकालीन शक्तियों का पूर्ण दायित्व अब राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अध्यक्ष के हाथों में था : मोदी. उन्हें पूरे देश में या देश के किसी भी खास हिस्से में मानक नौकरशाही प्रक्रियाओं को दरकिनार कर, आपातकालीन प्रतिक्रिया के उद्देश्यों के लिए किसी भी “व्यक्ति या भौतिक संसाधन” को इस्तेमाल करने की पूरी छूट थी. मैंने आईसीएमआर के भीतर ऐसे कई वरिष्ठ वैज्ञानिकों से बातचीत की, जो हड़बड़ी में लगाए गए लॉकडाउन के खिलाफ थे. साथ ही मैंने बहुत से बाहरी विशेषज्ञों के भी साक्षात्कार किए, जो अलग-अलग समितियों का हिस्सा थे. दोनों ही समूहों के लोगों का मानना था कि उस समय भारत में तालाबंदी का निर्णय अमेरिका की देखादेखी में लिया गया था. वैश्विक स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं, “उस समय भारत के विपरीत अमेरिका में संक्रमण की दर बहुत ज्यादा थी. अन्य सभी देशों में लॉकडाउन ने महामारी के कर्व को समतल किया. वहीं भारत में लॉकडाउन हटने के तुरंत बाद ही पहली लहर की शुरुआत हुई. यह एक अजीब विरोधाभास था.”
भारत में लॉकडाउन को इस वजह से भी याद रखा जाएगा कि इसके चलते किस तरह नियमित स्वास्थ्य सेवाओं के साथ-साथ बुनियादी सार्वजनिक परिवहन सेवाएं भी ठप पड़ गई थी. वैज्ञानिक लगातार रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों से आ रही तस्वीरों को देख रहे थे, जहां घर लौटने की जुगत में प्रवासियों का जुटना शुरू हो चुका था. इंसाकॉग के एक वैज्ञानिक कहते हैं, “मैं समझ गया था कि यह एक सुपर-स्प्रेडर घटना है और हमने अमीर अंतरराष्ट्रीय यात्रियों द्वारा भारत में आई इस महामारी को दूर-दराज के गांवों तक पहुंचा दिया है.”
भारत की वैक्सीन कंपनियां, जो इस लड़ाई का सबसे मजबूत हथियार थी, एक ओर धकेल दी गईं. संक्रामक रोग विशेषज्ञ बताते हैं, “अप्रैल की शुरुआत तक सभी भारतीय वैक्सीन निर्माता उन कंपनियों से बात कर रहे थे, जिनके साथ वे साझेदारी, संबंध आदि स्थापित कर सकते थे. वे सभी फोन या जूम वगैरह पर यह पता लगाने की कोशिश कर रहे थे कि कैसे सबकुछ बनाया जाए. लेकिन तभी अचानक उनके ऊपर हर किस्म की आपूर्ति का संकट मंडराने लगा. यहां तक कि वायरस के स्ट्रेन जैसी मामूली चीजें भी, जिनके लिए वे टीके बना रहे थे.” तमाम वैज्ञानिकों और वैक्सीन निर्माताओं के बंधे हाथों से काम करने की जद्दोजेहद के बीच वायरस विकराल रूप से फैलता गया और मोदी सरकार बेशर्मी से झूठ बोलती रही. 31 मई 2020 को लॉकडाउन के हटने तक पॉल अपने 16 मई के बयान पर उल्टे चलते हुए साक्षात्कार दे रहे थे. उनका कहना था कि कि उनके दिखाए “ग्राफ पर शून्य शब्द का कहीं कोई उल्लेख नहीं था.”
मार्च से जून तक मोदी प्रशासन कहता रहा कि भारत में सामुदायिक स्तर पर संक्रमण नहीं फैला है और दर्ज मामलों में अधिकतर केवल बाहर से आए लोग ही शामिल हैं. प्रधानमंत्री कार्यालय के लिए लॉकडाउन एक सफलता थी. ऐसी सफलता जिसमें जीत की कीमत बर्बादी से चुकाई गई थी. जून तक भारत विश्व में कोरोना के सर्वाधिक मामलों में चौथे पायदान पर पहुंच चुका था.
मोदी प्रशासन द्वारा मुसलमानों के खिलाफ घृणा का माहौल बनाने में भी महामारी का इस्तेमाल किया गया. अप्रैल 2020 में मामलों में आई तेजी के दौरान स्वास्थ्य मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव, लव अग्रवाल ने वैश्विक इस्लामी संगठन तब्लीगी जमात, जिसने हाल ही में दिल्ली में एक बड़ी सभा बुलाई थी, को खलनायक बताते हुए बयानबाजी की. उन्होंने सभा में पहुंचे विदेशी नागरिकों पर उनकी वीजा शर्तों का उल्लंघन करने और भारत में कोरोना वायरस फैलाने का “घातक काम” करने का आरोप लगाते हुए एक बार फिर महामारी रोग अधिनियम को लागू करवा दिया. अग्रवाल, जिन्हें महामारी से पहले बमुश्किल ही कोई जानता था और जो मंत्रालय के भीतर अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य से जुड़े काम संभालते थे, अचानक सुर्खियों में आ गए थे. उनके बयानों को रेटिंग के भूखे, सरकार समर्थक न्यूज चैनलों ने हाथोंहाथ लिया और देखते ही देखते टीवी स्क्रीन से नफरत फैलाने वाले “कोरोनाजिहाद” जैसे हैशटैग्स को बदस्तूर चलाया जाने लगा.
कुल मिलाकर 824 विदेशियों पर ईडीए की विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया. उन्हें जेल में डालकर उनके फोन छीन लिए गए और उन्हें चूहों और मच्छरों से भरे "क्वारंटीन" सेंटर्स में बंद कर दिया गया. इस घटना से एक राजनयिक भूचाल आया और 35 देशों के दूतावासों को अपने नागरिकों को भारत से बाहर निकालने की प्रक्रिया में शामिल होना पड़ा. सरकार की जहरीली विचारधारा से छोटे कस्बे और शहर तक अछूते नहीं रहे, जहां आस-पड़ोस के घरेलू अस्पतालों में भी पहली बार मरीजों को हिंदुओं और मुसलमानों के रूप में अलग-अलग भर्ती किया जाने लगा. संक्रमित होने वाले रोगियों और बहुत से असंक्रमित लोगों को दोष देने के कुछ महीनों बाद अग्रवाल खुद अगस्त में कोविड पॉजेटिव पाए गए.
जिन संक्रामक रोग विशेषज्ञ से मैंने बात की, वे सरकार के भीतर होने वाली अंदरूनी बातचीत का हिस्सा थे. उन्होंने मुझे बताया कि तब्लीगी जमात को निशाना बनाए जाने की रणनीति एक सोचा-समझा कदम था. वह कहते हैं, “इस सरकार के साथ काम करके मैंने जो सीखा है, उनमें से एक चीज यह है कि बहुत से लोग वास्तव में बेहद घिनौने होते हैं. यहां बंद दरवाजों के पीछे होने वाली बातें…आपको ऐसा महसूस कराती है कि आप घर जाकर घंटों बाथरूम में रोना चाहते हैं. वे निचली जातियों, मुसलमानों और अन्य जगहों के समूहों- जैसे बांग्लादेशियों- के बारे में ऐसे बात करते हैं जैसे वे इंसान न हों और उन पर होने वाला हर हमला जायज है.” वह आगे कहते हैं कि इस तरह की बातें महामारी से पहले भी होती थी, लेकिन “इस बार उनका मकसद था किसी को बलि का बकरा बनाना और इसके लिए तब्लीगी जमात सबसे सुविधाजनक विकल्प था.”
अब तक आईसीएमआर एनसीडीसी को पीछे छोड़ते हुए भारत के महामारी प्रबंधन तंत्र के केंद्र के रूप में अपनी जगह बना चुका था. इंसाकॉग वैज्ञानिक ने मुझे बताया, “महामारी के इस शो की कमान अब भार्गव के हाथों में थी. मूल समस्या यह है कि एनसीडीसी के पास कोई खास शक्तियां नहीं हैं.” संक्रामक रोग विशेषज्ञ का कहना था, “भार्गव ने इस जगह को पूरी तरह कब्ज़ा लिया है और वे इसे हाथ से जाने नहीं देना चाहते. यही उनकी खासियत है.”
2 जुलाई को भार्गव ने कई संस्थानों के प्रमुख शोधकर्ताओं को 15 अगस्त (भारत के स्वतंत्रता दिवस) तक दुनिया का पहला कोविड-19 टीका तैयार करने के निर्देश दिए. इसका मतलब था कि स्वतंत्रता दिवस के दिन प्रधानमंत्री मोदी लाल किले की प्राचीर से अपने पारंपरिक संबोधन के दौरान एक ऐसी उपलब्धि के बारे में शेखी बघार सकते थे, जिसका अभी तक वास्तविक रूप से अस्तित्व नहीं था. संक्रामक रोग विशेषज्ञ, जो टीका बनाने की प्रक्रिया में गहनता से शामिल थे, कहते हैं, “बलराम को इस बात का कोई अंदाजा नहीं है कि टीके कैसे बनते हैं. उन्होंने बस ये सोचा कि 'अगर मैं चाहूं, तो यह मुझे छह सप्ताह में क्यों नहीं मिल सकता है?” उन्होंने आगे बताया कि भार्गव किसी “तानाशाह की तरह बर्ताव कर रहे थे, क्योंकि वह अक्सर लोगों को धमकाते हुए कहते थे कि 'ऐसे करो …वरना.' " विमर्श में हर भावना के लिए पर्याप्त जगह थी, लेकिन तर्क के लिए नहीं. टीके के परीक्षण के लिए चुने गए अस्पताल भी “कुल मिलाकर ऐसे सरकारी अस्पताल थे, जिनके पास क्लिनिकल रिसर्च का बहुत कम या कोई अनुभव नहीं था. उन्हें चुना ही इसलिए गया क्योंकि वे वही करते, जो उन्हें बताया जाता.”
इस पूरे समय के दौरान भारत के दो सर्वश्रेष्ठ वायरोलॉजिस्ट, शाहिद जमील और गगनदीप कांग, जो वैश्विक स्वास्थ्य विशेषज्ञ के अनुसार ऐसे “दो लोग थे जो वास्तव में वायरस के विषय को समझते हैं, अराजनीतिक थे और जिन्हें महामारी प्रबंधन का नेतृत्व करना चाहिए था” - हाशिए पर ही रहे.
कोरोना की पहली लहर, जिसमें कम से कम 1.5 मिलियन भारतीयों ने अपनी जान गंवाई, उस तूफान की तुलना में महज एक बूंद भर थी, जो जल्द ही सब कुछ तबाह करने वाला था. लेकिन जनवरी 2021 में दावोस के वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में बोलते हुए मोदी ने कोविड-19 पर भारत की जीत की घोषणा कर दी. एक बार फिर उनके कहे शब्द सच्चाई से कोसों दूर थे. वहीं भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की नौकरशाही के भीतर चल रही रस्साकस्सी का सीधा प्रभाव आम जनता के जीवन पर हावी होने लगा था. आने वाले कुछ महीनों में भारतीय नागरिकों की बड़ी संख्या किसी भयावह स्वप्न की तरह अजीबोगरीब तरह से अपनी जिंदगी गंवाने वाली थी- भूख से, सड़कों पर, जेलों में, आत्महत्या से, कारों में फंसकर, ऑक्सीजन की कमी से, गैर-कोविड रोगों के लिए अस्पतालों से लौटाए जाने पर, और अंत में, कोविड-19 से.
जब आप विज्ञान और धर्म को मिलाते हैं, तो आपको बदले में धर्म मिलता है. भारत में, जहां चमत्कारी उपचार, धार्मिक सभाओं और देवताओं को खुश रखने जैसी मान्यताओं का लंबा इतिहास रहा है, कोरोना की दूसरी लहर मानो किसी प्रकोप के रूप में बरसी.
जनवरी 2021 में मोदी सरकार ने कोविड-19 के टीकों का निर्यात शुरू कर दिया था. यह एक ऐसा निर्णय था, जिसका भारतीय नागरिकों के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ने वाला था. 9 मई तक जहां भारत 95 देशों को लगभग 66 मिलियन टीके वितरित कर चुका था, वहीं देश में केवल चार प्रतिशत नागरिकों को ही पूरी तरह से टीका लग पाया था.
वहीं महीनों पहले फरवरी 2021 में सरकार को भेजी गई इंसाकॉग की रिपोर्ट, जिसमें कोरोना के नए वेरियंट पर “गंभीर चिंता” व्यक्त की गई थी, अभी भी धूल खा रही थी. यह तब था, जब यह वेरियंट वैज्ञानिकों की अपेक्षा से कहीं अधिक तेजी से फैल रहा था. पर प्रधानमंत्री की प्राथमिकताएं कुछ और ही थी. इस दौरान उन्होंने अपने गृह राज्य गुजरात में दुनिया के सबसे बड़े क्रिकेट स्टेडियम का नाम अपने नाम पर रखा. पश्चिम बंगाल चुनाव और कुंभ मेले के लिए राज्य प्रायोजित सामूहिक समारोहों की तैयारी पूरे जोरों से चलती रही. टास्क फोर्स के एक सदस्य ने मुझे बताया कि उस समय सरकार अपने पहले से लिए हुए फैसलों पर “मुहर” लगवाने के लिए वैज्ञानिकों का इस्तेमाल कर रही थी. इनमें अधिकांश फैसले पश्चिम बंगाल के चुनावी राज्य से संबंधित थे, जहां बीजेपी एक मुश्किल प्रतिद्वंद्वी से जूझ रही थी. 30 मार्च के अंत तक भी भार्गव और पॉल अपने साक्षात्कारों में कोरोना वायरस के म्युटेडेड स्ट्रेन की संभावना से इनकार कर रहे थे. एनडीटीवी से बातचीत में भार्गव ने कहा, “भारतीय स्ट्रेन जैसी कोई चीज नहीं है. घबराने की कोई वजह नहीं है. कुछ छिटपुट म्युटेशन हैं, लेकिन कुछ गंभीर नहीं है.”
इंसाकॉग के वैज्ञानिक आक्रोशित थे. उनके करीबी और कई अन्य देशवासी मर रहे थे पर सरकार लगातार चुनावी रैलियां कर रही थी. वे उन वैज्ञानिक संगठनों की बौद्धिक बर्बादी को लेकर भी हताश थे जिन्हें बनाने में उनमें से कई लोगों की दशकों की मेहनत थी. इंसाकॉग के वैज्ञानिक ने मुझे बताया, “हम में से कई लोगों को तब एहसास हुआ कि यह असहनीय होता जा रहा है. उस समय तक डेल्टा लहर शुरू हो चुकी थी. हम सब इस बात से बहुत परेशान थे कि जिस चीज के बारे में हम सरकार को महीनों पहले आगाह कर चुके थे, उस पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा था. हमारे निजी जीवन में भी इस दौरान कई त्रासदियां हुईं. हम अंदर तक बहुत हिल गए थे.”
वैज्ञानिकों को भी व्यक्तिगत त्रासदियों का सामना करना पड़ा. उन्होंने आगे बताया, “मैंने अपने परिवार के सदस्यों और दो बहुत करीबी दोस्तों को खो दिया. मेरे देवर की पत्नी की भी मृत्यु हो गई. एक कजन के पति की मृत्यु हो गई. इन सभी की मौत अस्पताल न मिलने और ऑक्सीजन की कमी के कारण हुई.”
मई में वैक्सीन निर्यात, जिसे सरकार ने बहुत धूमधाम से शुरू किया था, अचानक रोक दिया गया. इस बीच इंसाकॉग प्रयोगशालाओं में नमूनों के ढेर लाल-फीताशाही में फंसे हुए थे और देश भर में आवश्यक रिएजेन्ट्स की कमी होने लगी थी.
एक रिएजेंट गर्भावस्था, रक्त शर्करा और कोविड-19 जैसी चीजों के लिए सबसे व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाले परीक्षणों का एक अभिन्न अंग है. यह एक रासायनिक प्रतिक्रिया को ट्रिगर करने के लिए आवश्यक होता है, जिसमें रंग के बदलाव से विशिष्ट पदार्थों की उपस्थिति का पता चलता है- जैसे कि कोरोना वायरस के घटक. इंसाकॉग के वैज्ञानिक कहते हैं, “आत्मनिर्भर भारत योजना के तहत वाणिज्य मंत्रालय ने दिशा-निर्देश जारी किए थे कि प्रयोगशालाएं केवल तभी रिएजेन्ट्स को शुल्क मुक्त आयात कर सकती हैं, जब उनमें से बीस प्रतिशत भारत के भीतर निर्मित हों. ये विशेष रिएजेन्ट्स हैं, जो भारत में नहीं बनते हैं. पर फिर भी कस्टम्स ने बिना सोचे समझे यह नियम लागू कर दिया और इस चलते महीनों तक कई ऑर्डर अटके ही रहे.”
इस समस्या से पीड़ित संस्थानों में हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी प्रमुख था. उन्होंने विजय राघवन को अपनी समस्या बताई, जो वाणिज्य मंत्रालय के आदेश को निरस्त करने के लिए सहमत हो गए. ब्लूमबर्ग की एक जांच में पाया गया है कि “चीन जैसे देशों पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए चलाए गए मोदी सरकार के ‘मेक इन इंडिया’ अभियान के चलते पब्लिक-फाइनेन्स्ड प्रयोगशालाएं महीनों तक 2 बिलियन रुपयों (26.5 मिलियन डॉलर) से कम की वस्तुओं का आयात करने नहीं कर पाई.” लेकिन जब तक इस लाल-फीताशाही को सुलझाया जाता, तब तक दूसरी लहर अपने चरम पर पहुंच चुकी थी. रिएजेन्ट्स की कमी का इंसाकॉग की कार्यप्रणाली पर सीधा प्रभाव पड़ा, जिससे उनके कई जरूरी कामों में देरी होती चली गई.
जीआईएसएआईडी, जो सभी इन्फ्लूएंजा वायरस और कोरोना वायरस संबंधित डेटा की साझेदारी को बढ़ावा देती है, ने एक वैश्विक अध्ययन किया, जहां उन्होंने सभी देशों की “कलेक्शन से सबमिशन” की अवधि का विश्लेषण किया. आम शब्दों में इसे समझें तो यह सैंपल जमा करने से लैब रिजल्ट पता लगने के बीच की अवधि है. इस कड़ी में ब्रिटेन 16 दिनों के औसत समय में जीनोमिक अनुक्रमों को दर्ज करने में सबसे तेज था. भारतीय प्रयोगशालाओं को इसमें 57 दिन का समय लग रहा था- करीब दो महीने. इस हिसाब से फरवरी में भेजा गया सैंपल अप्रैल में वापस आता. कई स्रोतों ने इस बात की पुष्टि की कि इंसाकॉग को भेजे गए सैंपल के नतीजे आने में महीने लग जाते थे. अब तक पूरे भारत में डेल्टा वेरिएंट का विस्फोट हो चुका था और वैज्ञानिकों के लिए इस से लड़ पाना नामुमकिन था. जीआईएसएआईडी के पेपर में उल्लेख किया गया है कि “कुल जनसंख्या और ज्ञात कोविड-19 मामलों के आधार पर दूसरा सबसे बड़ा देश होने के नाते भारत में एकत्र किए गए नमूनों में से मात्र 0.05% ही अनुक्रमित किए गए.”
इस बार मोदी सरकार का सारा ध्यान पश्चिम बंगाल में आठ चरणों में होने वाले चुनावों पर केंद्रित था. इस बीच उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने सुझाव दिया कि हरिद्वार में होने वाले कुंभ मेले पर रोक लगाई जानी चाहिए. इसके बाद रावत को जल्द ही बर्खास्त कर दिया गया. देखते ही देखते बंगाल चुनाव और कुंभ मेला अन्य सभी सुपर-स्प्रेडर आयोजनों को शर्मसार करते हुए अब तक के सबसे विशाल सुपर-स्प्रेडर कार्यक्रम बन कर उभरे. बहुत से लाग यह भी भूल जाते हैं कि 2021 का कुंभ मेला वास्तव में पिछले मेले के 11 साल बाद, यानी 12 साल के तय अंतराल से एक साल पहले आयोजित किया जा रहा था. सौ से अधिक वर्षों में ऐसा पहली बार हो रहा था.
“हमसे कोई सलाह नहीं ली जा रही थी, लेकिन फिर भी हम उन्हें बता रहे थे कि वहां क्या होगा,” इंसाकॉग वैज्ञानिक ने कहा. कुंभ और चुनावों का नजारा देख वैज्ञानिक डरे हुए थे, “और हम साक्षात्कारों में मीडिया से कहते रहे कि चुनाव हॉटस्पॉट बनने जा रहे हैं. यदि आप आंकड़ों पर नजर डालें तो चुनाव वाकई हॉटस्पॉट बन गए थे. हरिद्वार में, यदि आप कुंभ से पहले और बाद में कोविड मामलों की तुलना करते हैं, तो इसमें 130 गुना वृद्धि हुई थी.”
मरने वालों की संख्या निर्मम और सटीक अनुमान से बढ़ती जा रही थी. अनगिनत मौतों के दर्द को गहराई से समझने वाले शहर भोपाल में इतनी चिताएं साथ जल रही थी, जितनी 1984 की गैस त्रासदी में भी नहीं जली थी. अस्पतालों में बिस्तर, एम्बुलेंस और ऑक्सीजन ख्त्म हो चुके थे. श्मशान और कब्रिस्तान में जमीन कम पड़ने लगी थी. झुलसाने वाली गर्मी में कितने ही परिजन जलती हुई चिताओं के पास बेसुध से शोकाकुल खड़े थे. कोई यह समझ नहीं पा रहा था कि आखिर कैसे मास्क और पीपीई किट के दायरों को लांघ एक दूसरे को ढांढस बंधाएं. जो रुखसत हो गए, उनके प्रियजन कभी उन्हें बचा न पाने के अपराधबोध में, तो कभी आने वाले समय का अकेले सामना करने के डर में खुद को कचोट रहे थे. तमाम कमेटियों के ऊंचे नामों के बावजूद दिल्ली को भी एक आपदाग्रस्त शहर बनने से कोई बचा नहीं पाया. कई दिनों तक श्मशान के पास की छतों पर राख बारिश बनकर गिरती रही. प्रधानमंत्री, जो शायद अभी भी अपनी मज़बूत छवि को बरकरार रखना चाहते थे, ने संयुक्त राष्ट्र की सहायता लेने से इनकार कर दिया.
आंकड़ों के आधार पर नीतियां और योजनाएं न बन पाना भी एक गंभीर समस्या थी. 30 अप्रैल को, जब दूसरी लहर चरम पर थी, 900 से अधिक भारतीय वैज्ञानिकों ने प्रधानमंत्री से वह आंकड़े साझा करने की अपील की, जो उन्हें आने वाले समय में अध्ययन करने, अनुमान लगाने और वायरस को रोकने में मदद कर सकें. अपने बयान में उन्होंने लिखा, “भले ही नई महामारियों में अप्रत्याशित विशेषताएं निहित हों, लेकिन संक्रमण के फैलाव को पर्याप्त रूप से न संभाल पाने की हमारी अक्षमता के पीछे महामारी के आंकड़ों का व्यवस्थित रूप से इकठ्ठा न होना और समय पर वैज्ञानिक समुदाय तक न पहुंचना जैसे कारण शामिल हैं.” वैज्ञानिकों ने अनुरोध किया कि उन्हें “मोटे तौर पर वह सूक्ष्म परीक्षण डाटा मुहैया कराया जाए, जो आईसीएमआर महामारी की शुरुआत से इकठ्ठा कर रहा है. आईसीएमआर के डेटाबेस को सरकार के बाहर किसी के भी साथ और संभवतः सरकार के भीतर भी कई लोगों के साथ साझा नहीं किया जाता है.”
यह सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र के वैश्विक इतिहास के सबसे दुखद दस्तावेजों में से एक था- लगभग 2000 की डरबन घोषणा की बराबरी करता हुआ, जिसमें अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय को दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति थाबो मबेकी के एचआईवी खंडन से हताश होकर मुख्यधारा के वैज्ञानिक दृष्टिकोण का समर्थन करने पर विवश होना पड़ा था कि एचआईवी वास्तव में एड्स का कारण बनता है.
भारतीय वैज्ञानिकों की इस अपील का जवाब विजय राघवन ने एक और समिति के गठन से दिया, जिसे यह तय करने को कहा गया कि डाटा साझा करने के लिए कौन से अनुरोध स्वीकार किए जाने योग्य हैं. मैंने कई वैज्ञानिकों का साक्षात्कार लिया जिन्होंने इस समिति को अपने प्रस्ताव भेजे थे. सभी के प्रस्ताव बिना किसी आधार के खारिज कर दिए गए. लेकिन भारतीयों को अब यह जानने के लिए किसी डाटा की आवश्यकता नहीं थी कि देश में क्या चल रहा था. उन्हें समझाने के लिए श्मशान की लगातार जलती हुई चिताएं और कब्रिस्तानों में कम पड़ती जगहें ही काफी थी. जब सरकार की गिनती को बेईमानी बता लगातार लाशें गिरने लगीं और गलतियों का चट्टा दरकने लगा, तो मोदी को भी स्वीकार करना पड़ा कि स्थिति अब बेकाबू हो चुकी थी.
हिंदू त्योहारों से लदे महीनों में 20 अप्रैल 2021 को राष्ट्र के नाम एक संबोधन में मोदी ने कहा, “आज नवरात्रि का आखिरी दिन है. कल रामनवमी है और हम सभी के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का ये संदेश है कि हमें अनुशासन का पालन करना चाहिए. कृपया कोरोना से बचने के लिए सभी दिशानिर्देशों का पालन करें. दवाओं के मंत्र के साथ-साथ दिशानिर्देशों का सख्ती से पालन करना कभी न भूलें.” यह कुछ ऐसा था, जैसे सरकार द्वारा प्रायोजित सुपर-स्प्रेडर कार्यक्रम आम जनता का किया-धरा थे, जिसकी जिम्मेदारी अब उनके कंधों पर आ गिरी थी. 30 अप्रैल को भारत 24 घंटे की अवधि में चार लाख से अधिक नए मामले दर्ज करने वाला दुनिया का पहला देश बना. जुलाई तक यह वैश्विक महामारी का केंद्र बन चुका था. एक देश, जिस पर पूरी दुनिया टीकों के निर्यात के लिए नजर टिकाए हुए थी, अब अपनी खुद की निरंकुश संक्रमण दर से निपटने के लिए टीकों का आयात कर रहा था.
1 मई को कई इंसाकॉग वैज्ञानिकों के साक्षात्कार के आधार पर रॉयटर्स की एक रिपोर्ट में कहा गया कि सरकार ने लगातार उनकी चेतावनियों को नजरंदाज किया था. एक इंसाकॉग वैज्ञानिक ने मुझे बताया, “बस यहां से तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा. सरकार ने ऊंचे से ऊंचे स्तर तक हमारी बात का खंडन किया. फिर उन्होंने वह किया जो पूरी तरह अस्वीकार्य था. उन्होंने कहा कि इंसाकॉग से ऐसी कोई रिपोर्ट कभी भेजी ही नहीं गई.” वैज्ञानिक ने आगे कहा कि तब जैव प्रौद्योगिकी विभाग की सचिव रेणु स्वरूप ने खुद उनसे कहा, “ये तुम लोगों ने क्या कर दिया?” स्वरूप ने वैज्ञानिक को बताया कि रॉयटर्स की रिपोर्ट ऑनलाइन छपने के दिन ही उन्हें रात 11 बजे एक कॉल आया था, जिसमें उनसे एक मीडिया संस्थान के साक्षात्कार में लेख का खंडन करने के लिए कहा गया था. 5 मई को इकोनॉमिक टाइम्स ने स्वरूप का एक साक्षात्कार छापा, जहां उन्होंने कहा कि उन्होंने “कभी भी ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं देखी, जिसमें कहा गया हो कि मामलों की संख्या में बहुत इजाफा होगा.” स्वरूप ने मेरे ईमेल किए गए प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं दिया.
राजनीतिक संवाददाता अनुभूति वैष्णोई द्वारा लिए गए इस साक्षात्कार में स्वरूप के हवाले से कहा गया है कि इंसाकॉग के वैज्ञानिकों ने रॉयटर्स की रिपोर्ट में “गैर-जिम्मेदाराना बयान” दिया था. सरकार के साथ कार्यरत संक्रामक रोग विशेषज्ञ कहते हैं, “रेणु ने बॉटनी में पीएचडी के साथ शुरुआत की थी. 1990 के बाद से तो उन्होंने बॉटनी से संबंधित भी कोई काम नहीं किया है. वह तीस साल से बस एक नौकरशाह की भूमिका में सक्रिय हैं.” उन्होंने आगे कहा कि ये काफी असामान्य बात है कि सरकार ने जैव प्रौद्योगिकी विभाग के सचिव पद के लिए एक ऐसे शख्स का चुनाव किया जो किसी भी तौर पर वैज्ञानिक नहीं है.
इकनॉमिक टाइम्स के इंटरव्यू के ठीक दस दिन बाद, 16 मई को जमील ने इंसाकॉग से इस्तीफा दे दिया. इंसाकॉग वैज्ञानिक ने मुझे बताया कि स्वरूप का झूठ ही ताबूत में अंतिम कील साबित हुआ.
दो महीने बाद कांग ने भी इस्तीफा दे दिया. एक गवाह ने मुझे बताया कि अपने इस्तीफे से दो दिन पहले कांग ने पॉल की अध्यक्षता वाली एक राष्ट्रीय टास्कफोर्स की बैठक में “सवाल पूछे” थे. जल्द ही पॉल ने कांग जैसी विशेषज्ञ की अध्यक्षता वाली एक दुर्लभ समिति को भंग कर दिया. एक बाल रोग विशेषज्ञ और एक हृदय रोग विशेषज्ञ ने एक भीषण महामारी के बीच देश के दो सर्वश्रेष्ठ संक्रामक-रोग विशेषज्ञों को बाहर का रास्ता दिखा दिया था.
मैंने पॉल, भार्गव और हर्षवर्धन को साक्षात्कार के लिए अनुरोध भेजे लेकिन उनका कोई जवाब नहीं आया. विजय राघवन ने एक साक्षात्कार अनुरोध का जवाब देते हुए कहा कि उनके पास समय की कमी है और महामारी से संबंधित बातचीत शायद “भविष्य में किसी दिन” के लिए अधिक उपयुक्त रहेगी. किसी ने भी ईमेल पर भेजे गए विशिष्ट प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया.
बीते दो वर्षों में सरकार की संवेदनहीनता के बीच लाखों भारतीय चिताओं की लपटों और कब्रगाहों में ओझल हो गए. इस पूरे समय के दौरान चापलूसी और रस्साकस्सी करते भारत के "सरकारपरस्त वैज्ञानिक" पलक पांवड़े बिछा कर सरकार की सेवा में लीन रहे. उनकी हरकतों और अर्थहीन विज्ञान के चलते कितनों ने अपनी जान गंवाई, इसकी अभी भी कोई गिनती नहीं है. इस त्रासदी को कोई पलट नहीं सकता लेकिन फिर भी महामारी की अविश्वसनीय घटनाओं को बेहद सावधानी से दर्ज किया जाना चाहिए ताकि आने वाले समय में किसी को यह संदेह न हो कि ये खालिस तथ्य हैं, न कि दंतकथाएं.
2000 के दशक की शुरुआत में, जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, भारत के दिल्ली स्थित प्रमुख स्वास्थ्य विशेषज्ञों को स्वास्थ्य नीतियों पर एक “बैठक” के लिए बुलाया गया. भान के सहयोगी एपिडेमोलॉजिस्ट भी उनमें से एक थे. बैठक का आयोजन हर्षवर्धन ने किया था, जो तब तक बीजेपी के एक आज्ञाकारी सैनिक की भूमिका में स्थापित हो चुके थे. उस दिन को याद करते हुए भान के सहयोगी कहते हैं, “मैं वहां नहीं जाना चाहता था लेकिन भान जाना चाहते थे. उनका मानना था कि वैज्ञानिकों को विज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए किसी भी और सभी मंचों का उपयोग करना चाहिए. उन्होंने मुझसे कहा कि यह महत्वपूर्ण है कि हम वहां मौजूद लोगों के सामने कुछ अच्छे विचार रखें और इसलिए हमें इस बैठक में शामिल होना चाहिए.”
रविवार की शाम सभी डॉक्टर हर्षवर्धन के आवास पहुंचे. वहां करीब दस डॉक्टर मौजूद थे, जिनमें से ज्यादातर एम्स में कार्यरत थे. भान के सहयोगी ने कहा, “हमारे इकट्ठे होने के आधे घंटे बाद वहां श्री केएस सुदर्शन अंदर आए.” सुदर्शन 2000 से 2009 तक आरएसएस के पांचवें सरसंघचालक, यानी सर्वोच्च नेता थे. बैठक के समय वह संघ के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति थे. भान के सहयोगी बताते हैं कि प्रत्येक वैज्ञानिक को अपने विचार साझा करने के लिए तीन मिनट का समय दिया गया था. सुदर्शन वहां बैठ कर नोट्स बनाते रहे, जिन्हें संघ की मंजूरी के साथ स्वास्थ्य मंत्रालय के पास भेजा गया. भान के सहयोगी ने इस घटना को एक ऐसे उदाहरण के रूप में साझा किया कि कैसे ऐतिहासिक रूप से संघ और बीजेपी निजी हितों की कसौटी पर विज्ञान को कसते आए हैं. समय के साथ उनकी विज्ञान में घालमेल करने की आदतें बदतर होती गई हैं.
भारत के लिए यह कोई सामान्य संकट नहीं, बल्कि एक अस्तित्वगत संकट है. भारत के वैज्ञानिक संस्थानों में लगी घुन उन्हें खोखला कर रही है. इनमें ऐसे लोगों का हस्तक्षेप बढ़ा है, जो विज्ञान के प्रति वफादार रहने के बजाय अप्रिय तथ्यों से आंखें चुराकर सत्तालोलुप बने रहते हैं. गलत सूचनाओं, अर्थहीन विज्ञान, षड्यंत्रकारी अफवाहों और प्रोपेगैंडा की सुनामी के बीच भारत का महामारी प्रबंधन आधे-अधूरे विज्ञान पर आधारित रहा है. हाल ही में जब भारत एक नए वेरिएंट के चलते कोविड-19 की तीसरी लहर से बचने की तैयारी कर रहा था, तब मोदी प्रशासन हिंदू मंदिरों का “पुरजोर नवनिर्माण” और महंगे विज्ञापनों के जरिए खुद का प्रचार करने में मशगूल था.
14 जनवरी 2022 को महामारी के तीन वर्ष पूरे होने पर भारतीय वैज्ञानिकों ने स्वास्थ्य मंत्रालय और सरकार के डॉक्टरों को एक और खुला पत्र लिखा, जिसकी विषयवस्तु पहले के पत्रों से भी अधिक हताश करने वाली और महत्वपूर्ण थी. उन्होंने भारत सरकार से वैज्ञानिक प्रमाणों का पालन करने और ऐसी “दवाओं, मिश्रणों, वैकल्पिक उपचारों या औषधियों के राज्य प्रायोजित प्रचार या वितरण को रोकने के लिए कहा, जो वैज्ञानिक रूप से सिद्ध नहीं हैं.”
विज्ञान और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए सभी उपलब्ध मंचों का उपयोग करने के लिए प्रशिक्षित भान के शिष्य अब धड़ल्ले से सरकार के एजेंडे और खुद की छवि को बढ़ावा देने के लिए सभी मंचों का उपयोग कर रहे थे. इस संकट के बीच में असंख्य समितियों की अध्यक्षता करते हुए भी भार्गव, जो एक हृदय रोग विशेषज्ञ हैं, ने वैक्सीन निर्माण के बारे में एक पुस्तक लिखने का समय निकाल ही लिया. 'गोइंग वायरल-मेकिंग ऑफ कोवैक्सिन : द इनसाइड स्टोरी' नामक यह पुस्तक उस इतिहास को फिर से लिखने की एक कवायद है, जिससे हम अभी गुजर ही रहे हैं. डॉ जम्मी नागराज राव ने एक समीक्षा में लिखा है, “यह महामारी में भारत सरकार के प्रबंधन के हर पहलू की एक गैर-आलोचनात्मक, खुद की पीठ थपथपाने वाली पुस्तक है.” इसमें कहीं भी देश में हुई बेहिसाब मौतों का कोई जिक्र नहीं किया गया है.
मैंने एक डॉक्टर से पूछा, जो दशकों से पॉल को जानते हैं, कि क्या वह आज के पॉल में और पहले के पॉल में, जो एक विज्ञान-केंद्रित व्यक्ति थे, कोई समानता देखते हैं? उनका जवाब था, “नहीं. सच कहूं तो हम में से जो भी विनोद को जानते हैं, वे सभी पिछले अठारह महीनों की घटनाओं से बेहद हैरान हैं. मैं शायद इसे समझा नहीं पाऊंगा. यह वह विनोद नहीं है जिसके साथ मैंने कई वर्षों तक बहुत करीब से काम किया है. यह वह विनोद नहीं है जिसे मैं इतने सालों से अपना दोस्त कहता आया हूं. जिसके साथ मैंने कितनी ही बार स्वास्थ्य सेवाओं के मूल्यों पर घंटों बातें की हैं. हम इस विनोद को नहीं जानते हैं और मैं इसके बारे में आगे बात नहीं कर सकता क्योंकि मैं इस आदमी को नहीं पहचानता.”
संक्रामक रोग विशेषज्ञ का कहना है कि यदि भान जीवित होते तो वह वह “पॉल और भार्गव दोनों को कस के रखते.” दुर्भाग्य से जनवरी 2020 में पैनक्रिआटिक कैंसर से भान की मृत्यु हो गई. ठीक उसी महीने भारत में कोरोना वायरस का पहला मामला सामने आया.
कांग ने मुझे बताया, “वैज्ञानिकों पर डाला जा रहा प्रशासनिक बोझ उन्हें काम नहीं करने दे रहा है. वैज्ञानिकों को थोड़ी स्वतंत्रता और लचीलेपन की आवश्यकता होती है. उन्हें आंतरिक और बाहरी स्तर पर साझेदारियां बनाने में सक्षम होना चाहिए. जब तक हम जटिल प्रशासनिक प्रक्रियाओं में फंसे रहेंगे, तब तक भारतीय वैज्ञानिक संस्थान संघर्ष करते रहेंगे. हमारे सबसे बेहतरीन और प्रतिभाशाली लोगों का बाहर जाना जारी रहेगा. हम यह सोचकर अपना ही नुकसान करते हैं कि हम अपने सर्वश्रेष्ठ हुनरमंदों की कमी की भरपाई कर सकते हैं. अगर हम अपने सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों में से पचास प्रतिशत को भी खो रहे हैं, तो भी यह हमारे देश के लिए एक बहुत बड़ा नुकसान है.”
कांग अब सरकार के साथ काम नहीं कर रही हैं. यही स्थिति जमील की भी है. इंसाकॉग के प्रकरण से बाहर निकलने के बाद अब वह ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के ग्रीन टेम्पलटन कॉलेज में एक रिसर्च फेलो हैं. उन्होंने कांग की राय का समर्थन करते हुए कहा, “यदि भारत में ऐसे लोग मौजूद हैं जो साक्ष्य को महत्व देते हैं, तो विज्ञान की प्रगति होगी. देश में प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है. लेकिन अगर आप सत्ता में बैठे किसी व्यक्ति की इच्छा के आगे झुकना शुरू कर देते हैं और इसलिए वैज्ञानिक प्रक्रिया और सबूतों की उपेक्षा करते हैं, तो यह बेहद दुखद होता है. मैं आशा करता हूं कि अगर हम इस महामारी से एक चीज सीखते हैं, तो वह यह हो कि विज्ञान ने ही हमें बचाया है. हमें विज्ञान में और अधिक निवेश की आवश्यकता है, लेकिन केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है. वैज्ञानिक स्वभाव और साक्ष्यों का सम्मान करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है. इसे हर स्तर पर समझे जाने की जरूरत है- सड़क पर खड़े आदमी से लेकर संसद में बैठे लोगों तक.”
फिर भी स्वास्थ्य में निवेश बढ़ाने के बजाय मोदी प्रशासन ने स्वास्थ्य सेवाओं के लिए बजटीय आवंटन घटा दिया है. संघ और भारत के वैज्ञानिक समुदाय के बीच सेतु के रूप में अपनी दशकों लंबी सेवाओं के लिए हर्षवर्धन को दूसरी लहर के विनाशकारी संचालन के लिए एकछत्र जिम्मेदार ठहराते हुए पुरस्कृत किया गया. वर्धन ने कई तरह से महामारी प्रबंधन को लचर बनाया. ढंग से अपनी भूमिका का निर्वहन न करने के अलावा वह कोरोनिल का समर्थन करते भी नजर आए. कोरोनिल रामदेव द्वारा संचालित समूह पतंजलि आयुर्वेद का एक उत्पाद है, जिसके बारे में दावा किया गया कि यह “कोरोना के लिए पहली साक्ष्य-आधारित दवा है.” देश में डॉक्टरों की सबसे बड़ी संस्था इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने एक बयान जारी कर स्वास्थ्य मंत्री की नैतिकता पर सवाल उठाते हुए पूछा कि वह “देश के लोगों में एक छद्म अवैज्ञानिक उत्पाद का वितरण कैसे कर सकते हैं?” वर्धन को जुलाई 2021 में बिना किसी स्पष्टीकरण के उनके पद से हटा दिया गया.
यह कहना न तो नाटकीय है और न ही विवादास्पद कि कोरोना महामारी में मोदी प्रशासन देशवासियों के लिए सबसे खतरनाक सह-रुग्णता (कोमोर्बिडिटी) के रूप में उभर कर सामने आया. कई वैज्ञानिकों का कहना है कि वे अक्सर मजाक करते हैं कि भारत में अब “सबूतों के आधार पर नीतियों” की जगह “नीतियों के आधार पर सबूत” तैयार किए जाते हैं. इंसाकॉग के वैज्ञानिक कहते हैं, “कोई कुछ भी कहे, पर यह सच है कि डाटा के आधार पर नीति-निर्माण नहीं किया गया.” वह मानते हैं कि इसे लेकर अभी भी वैज्ञानिक समुदाय के भीतर एक “जबरदस्त क्रोध” व्याप्त है. “बिलकुल भी साक्ष्य-आधारित नीति-निर्माण नहीं किया गया. मुझे परवाह नहीं है कि बलराम क्या कहते हैं. पॉल का वह 16 मई का ग्राफ याद है न? वह बस जो मुंह में आ रहा था, कहते जा रहे थे.”
वहीं देखा जाए तो सरकार अक्सर सच को छिपाने के लिए डाटा का इस्तेमाल करने में कामयाब रही है. उनकी मीडिया ब्रीफिंग में बहुत बार किसी व्यापक संदर्भ के बिना ही तथ्य बताए जाते थे, जिससे पूरी तस्वीर का कोई अंदाजा नहीं लग पाता था. रात-दिन सरकार के प्रचार में लगी संस्थाएं- जिसमें मुख्यधारा का अधिकांश मीडिया भी शामिल है- तब तक उन खाली नंबरों को दोहराते थे, जब तक हम यह नहीं भूल जाते कि वे या तो अप्रासंगिक थे या पूरी तरह झूठे.
अपनी रिपोर्ट, मेमो और प्रेस रिलीज में सरकार ने आमतौर पर कोविड-19 मृत्यु दर को प्रतिशत में दिखाया है, ताकि भारत की विशाल आबादी के अनुपात में मौतों की संख्या कम भयावह लगे. इसके उलट टीके के आंकड़ों को आम तौर पर सीधे नंबरों में प्रस्तुत किया जाता है, ताकि टीके लगाने वाले व्यक्तियों का अनुपात कम होने के बावजूद इसे और अधिक प्रभावशाली बनाया जा सके. इन्हीं नंबरों की बदौलत बेशर्मी से बोले गए झूठों पर पर्दा भी डाला गया है, जिसमें सबसे बड़ा उदाहरण मेडिकल ऑक्सीजन की कमी से होने वाली मौतों का है. दूसरी लहर के सबसे स्याह दिनों की अनगिनत समाचार रिपोर्टें और सोशल-मीडिया पोस्ट हताश-परेशान जनता की असहाय गुहारों से पटी पड़ी हैं. ये वो समय था जब हर कोई ऑक्सीजन सिलेंडर, अस्पताल के बिस्तर, वेंटिलेटर, एम्बुलेंस- और फिर ताबूतों और चिता की लकड़ी तक के लिए दर-दर भटकने को मजबूर था. अप्रैल से जुलाई 2021 तक पूरा देश महामारी के सामने घुटनों पर आ चुका था. लोगों के पास इंतजार करने और मृतकों को विदा करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था. कुछ परिवारों ने गलतफ़हमी में किसी और के मृतकों का अंतिम संस्कार कर दिया. कश्मीर से कन्याकुमारी तक पूरा भारत लहूलुहान होता रहा. लेकिन उत्तर भारत, खासकर उत्तर प्रदेश, से बदतर स्थिति कहीं नहीं थी. जब अस्पतालों की मानिंद शमशानों में भी जगह कम पड़ने लगी, तो राज्य की पवित्र नदी गंगा, जिसे बीजेपी ने अपने चुनावी अभियान में साफ करने का वादा किया था, लाशों को बहाने का एक दरिया बन गई.
अप्रैल में मोदी और शाह ने नासिक के एक अस्पताल में मेडिकल ऑक्सीजन की कमी से मरने वाले 22 मरीजों की “त्रासदी” पर अपनी संवेदना व्यक्त की. रेल मंत्री ने एक “ऑक्सीजन एक्सप्रेस” के बारे में ट्वीट किया, जो ग्रस्त क्षेत्रों में ऑक्सीजन टैंकर ले जा रही थी. यह इस बात का स्पष्ट इशारा था कि सरकार आम तरीकों से पर्याप्त ऑक्सीजन देने में पूर्ण रूप से विफल रही थी. कई जगहों पर ऑक्सीजन टैंकरों के साथ पुलिस के काफिले चल रहे थे क्योंकि स्थिति इतनी तनावपूर्ण थी कि “ऑक्सीजन दंगों” की संभावना बनी हुई थी. दो महीने बाद सरकार ने संसद में कहा कि “देश में ऑक्सीजन की कमी के कारण कोई मौत नहीं हुई.” जिन लोगों ने एक अदृश्य और स्वार्थी सरकार की मदद के अभाव में अकेले ही मौत का सामना किया था, उनके सामने अब एक नई चुनौती खड़ी थी. मौत के खंडन का सामना करना. फरवरी 2022 तक मोदी संसद को बता रहे थे कि कोविड-19 से लड़ने के लिए भारत सरकार के प्रयासों की “विश्व स्तर पर सराहना की गई” है और संकट से निपटने के लिए किया गया महामारी प्रबंधन उनकी सरकार की “राष्ट्रीय उपलब्धि” है.
मोदी प्रशासन की ढाल बने सरकारपरस्त डॉक्टरों ने लगातार चेतावनियों को नजरंदाज किया, बेतहाशा झूठ बोले और देश के नागरिकों को एक ऐसे “सिस्टम” में असीम विश्वास बनाये रखने के लिए कहा, जो सभी लोगों को असीम रूप से चोटिल कर रहा था.
इस अहंकार की सबसे महंगी कीमत आम नागरिकों और स्वास्थ्य मंत्रालय के कर्मचारियों को भी उठानी पड़ी. पूरे लॉकडाउन और पहली और दूसरी लहरों के दौरान दफ्तर आ रहे मंत्रालय के कर्मचारियों को अप्रैल और जून 2021 के बीच कोरोना के क्लस्टर संक्रमण से जूझना पड़ा. मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुझे बताया, “मेरे एक सहयोगी ने ऑक्सीजन सपोर्ट पर जाने से पहले मुझे अस्पताल से फेस-टाइम किया और कहा कि हो सकता है कि हम एक दूसरे को आखिरी बार देख रहे हों. कहते हैं कि मंत्रालय के तीन कर्मचारियों में से दो की मृत्यु हुई है लेकिन हम न तो इस बारे में जानते हैं और न ही जान सकते हैं. इस बारे में कोई खुलकर कुछ नहीं पूछता और न ही बात करता है.”
जहां भारत की स्वास्थ्य प्रणाली के पतन ने दुनिया भर में सुर्खियां बटोरीं, तो वहीं स्वास्थ्य प्रशासन के आपसी ढांचे के चरमराने पर बहुत कम ध्यान दिया गया. पिछले वर्षों में लिए गए कई अराजक फैसलों में शायद भारत का सबसे अधिक नुकसान एनसीडीसी के बिखराव से हुआ है. एजेंसी के विश्वसनीय, साप्ताहिक आंकड़ों के आधार पर सभी राज्य संक्रामक रोग की रोकथाम के लिए तेजी से काम कर पाते थे. यही कारण है कि स्वास्थ्य राज्य का विषय है- ताकि स्थानीय प्रशासन के पास जल्दी से काम करने और बीमारी की रोकथाम की शक्ति मौजूद रहे. मोदी प्रशासन ने, आपातकालीन शक्तियों की मदद से, पूरी सत्ता दिल्ली में केंद्रित कर दी है और राज्य सरकारों का दम घोंट दिया है- खासकर विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों में. इसने, और एनसीडीसी की शक्तियों में आई कमी ने, भारत की संक्रामक रोगों को पकड़ने और उन्हें नियंत्रित करने की क्षमता को प्रभावित किया है.
मैंने संक्रामक रोग विशेषज्ञ से पूछा कि भाजपा के विरोधियों द्वारा शासित केरल जैसे राज्यों ने अन्य संक्रामक रोगों से निपटने में तुलनात्मक रूप से बेहतर रिकॉर्ड होने के बावजूद कोरोना में इतना खराब प्रदर्शन क्यों किया? उनका जवाब था, “यह मोदी की अध्यक्षता में एनडीएमए का किया-धरा था. इसे 'आपदा' क्यों घोषित किया गया और यह एक 'आपदा' क्यों बनी हुई है? यह आपदा बनी हुई है ताकि केंद्र सब कुछ नियंत्रित कर सके. जैसे ही यह 'आपदा' नहीं रह जाएगी, राज्य इसे संभाल सकते हैं. एनडीएमए के तहत राज्यों को कोई स्वायत्तता नहीं है. इसकी कोई अंतिम तिथि नहीं है, न ही इसमें समीक्षा करने की कोई अनिवार्यता है. यदि आपकी न्यायपालिका ही मिलीभगत में शामिल हो, तो फिर आप कैसे छूट पाएंगे?” ईडीए और एनडीएमए खरीद करने और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं को केंद्रीकृत कर राज्यों की क्षमताओं में बाधा डालते हैं, ताकि उन्हें आपूर्ति के लिए केंद्र का रुख करना पड़े. कीमती ऑक्सीजन आपूर्ति के लिए राज्यों के बीच चला संघर्ष ऐसा ही एक मामला था.
इस महामारी में भारत के सामने अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि देश में कुल कितने लोगों ने अपनी जान गंवाई? हम जो जानते हैं, वह यह है कि अप्रैल और जुलाई 2021 के बीच चार महीनों में यह प्लेग अकेले ही भारतीयों के लिए किसी दुश्मन सेना द्वारा किए गए आक्रमण की तुलना में कहीं अधिक मृत्यु का कारण बना. भारत की सैंपल पंजीकरण प्रणाली में डाटा की गैरमौजूदगी के चलते वैज्ञानिकों को कोविड-19 मृत्यु दर का अनुमान लगाने के लिए वैकल्पिक तरीकों पर निर्भर रहना पड़ा है. भारत की आधिकारिक कोविड-19 मृत्यु संख्या आधा मिलियन से कम है. इस साल 6 जनवरी को साइंस पत्रिका ने एक स्टडी प्रकाशित की, जिसके प्रमुख लेखक प्रभात झा हैं, जो दुनिया के प्रसिद्ध महामारी विज्ञान के प्रोफेसरों में से एक हैं और वर्तमान में टोरंटो विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. यहां भारत में हुई कुल मौतों का आंकड़ा 3.1 मिलियन से 3.4 मिलियन के बीच रखा गया है. इनमें से 2.7 मिलियन मौतें 2021 के उन चार महीनों में हुई. स्वाभाविक तौर पर झा के अध्ययन के प्रकाशित होने के ठीक एक हफ्ते बाद इकोनॉमिक टाइम्स में एक रिपोर्ट छपी, जिसमें पत्रकार का नाम गुप्त रखा गया. इस रिपोर्ट में अनाम सरकारी अधिकारियों का हवाला दिया गया, जिन्होंने झा के अध्ययन को “भ्रामक, गलत और द्वेषपूर्ण” ठहराया.
वैश्विक स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं, “कल मैंने एक और लेख देखा, जिसमें भारत में सबसे कम मृत्यु दर के बारे में लिखा गया है. अगर आप सरकारी आंकड़ों को मानना चाहते हैं तो यकीनन यह दर सबसे कम होगी. लेकिन सरकार मृतकों की गिनती नहीं रोक सकती. भारत में मरने वालों की कुल संख्या को सार्वजनिक किया जाएगा. यह भारत में मृत्यु और जन्म पर आधारित सर्व-मृत्यु दर के सालाना आंकड़ों का हिस्सा है. इसे यूं ही छिपाया नहीं जा सकता. कोई भी साधारण गणितज्ञ अतिरिक्त मृत्यु दर को देख सकता है. ऐसा करने के लिए आपको किसी महान वैज्ञानिक की आवश्यकता नहीं है. इससे हमें पता चल जाएगा कि भारत की नियंत्रण नीतियां कितनी सफल थी.”
एक डॉक्टर ने मजाक में कहा कि इतिहास को इस सरकार या उसके डॉक्टरों को माफ नहीं करना पड़ेगा क्योंकि यह काम तो वे पहले ही खुद कर चुके हैं. जब मैंने इंसाकॉग के वैज्ञानिक से पूछा कि भविष्य में भारत के वैज्ञानिकों के लिए इस महामारी से क्या स्थायी सबक हैं, तो उन्होंने जवाब दिया, “किसी हृदय रोग विशेषज्ञ और बाल रोग विशेषज्ञ को महामारी की कमान न सौंपें.”
जब इस साल भारत उत्तर प्रदेश में एक और सुपर-स्प्रेडर चुनाव अभियान की ओर बढ़ रहा था और राज्य की बीजेपी सरकार के नेतृत्व में भारतीय मुसलमानों के खिलाफ घृणा अभियान फिर तेजी पकड़ रहा था, तब इंसाकॉग की लैब्स में एक बार फिर रिएजेन्ट्स की कमी होने लगी थी. 20 जनवरी को एनडीटीवी ने बताया कि संसाधनों की कमी के चलते इंसाकॉग की पांच लैब्स बंद कर दी गई थी. उसी दिन स्वास्थ्य मंत्रालय की साप्ताहिक मीडिया ब्रीफिंग के दौरान दैनिक जागरण के एक पत्रकार ने जीनोम अनुक्रमण में देरी के बारे में सवाल पूछा. पॉल ने उत्तर दिया, “हम दुनिया में दूसरे नंबर पर हैं. हम अच्छा काम कर रहे हैं.” यह पूरी तरह झूठ था. नमूनों के अनुक्रमण में भारत विश्व में दसवें स्थान पर था. उस सुबह देश ने मई 2021 में दूसरी लहर के चरम के बाद पहली बार 24 घंटों में तीन लाख से अधिक नए मामले दर्ज किए थे.
7 फरवरी 2022 को भारत में चिकित्सा शिक्षा के रेगुलेटर राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने सिफारिश की कि मेडिकल कॉलेजों में छात्रों को पारंपरिक हिप्पोक्रेटिक शपथ की जगह चरक शपथ दिलाई जाए. चरक शपथ आयुर्वेद के जनक चरक से जुड़ा संस्कृत का एक पाठ है. वैश्विक स्वास्थ्य विशेषज्ञ पूछते हैं, “तो क्या हम पश्चिमी बायोमेडिसिन को पूरी तरह से छोड़ने जा रहे हैं? क्या इसका मतलब यह है कि जब सरकारी अधिकारी बीमार होंगे, तो वे एम्स जाने के बजाय वैकल्पिक उपचार की तलाश करेंगे? ये सब चीजें नागरिकों के लिए स्वास्थ्य सेवा में कोई सुधार नहीं करेंगी लेकिन यह चिकित्सा के माध्यम से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की परियोजना को आगे बढ़ाती रहेंगी.”
हिप्पोक्रेटिक शपथ प्राइमम नॉन नोसेरे के मूल सिद्धांत के लिए प्रसिद्ध है- जिसका लैटिन में अर्थ है “सबसे पहले किसी को हानी न पहुंचाएं.” दूसरी ओर चरक शपथ इसके उलट सिद्धांत की वकालत करती है. इसमें कहा गया है, “कोई भी व्यक्ति, जिससे राजा घृणा करता है या जो राजा से घृणा करता है या जिससे जनता घृणा करती है या जो जनता से घृणा करता है, उपचार प्राप्त नहीं कर सकता. इसी तरह, जो बेहद असामान्य, दुष्ट, और दयनीय चरित्र और आचरण के हैं, जिन्होंने अपने सम्मान को साबित नहीं किया है, जो मौत के कगार पर हैं, और जो महिलाएं अपने पति या अभिभावकों के साथ नहीं रहती हैं, इलाज नहीं करा सकते.” यह डॉक्टरों के लिए एक भेदभाव भी निर्धारित करता है : “यदि आप एक चिकित्सक के रूप में सफलता, धन और प्रसिद्धि और मृत्यु के बाद स्वर्ग चाहते हैं, तो आप गायों और ब्राह्मणों से शुरुआत कर सभी प्राणियों के कल्याण के लिए प्रार्थना करेंगे.”
आयुर्वेदिक चिकित्सा विज्ञान लंबे समय से हिंदू राष्ट्रवाद से जुड़ा रहा है. हाल के वर्षों में हिंदू बायोमेडिसिन की आम अभिव्यक्ति के लिए बहुत सी नई जगहें और बाजार खुल गए हैं. इस महामारी ने एलोपैथी के साथ हिंदू आयुर्वेद के घालमेल को पैर पसारने के लिए आदर्श माहौल दिया- या शायद इसे एलोपैथी से भी अधिक प्रचलित कर दिया. इसके ऊपर संस्कृति और पारंपरिक उपचार जैसी बातों का आवरण चढ़ाया जाता है. हिंदू विचारधारा के साथ भारतीय विज्ञान के गठजोड़ ने मोदी प्रशासन को विजयी, लेकिन पूरी तरह से झूठे दावे करने के कई मौके दिए. तो वहीं आम नागरिकों ने इस मुश्किल घड़ी में खुद को अकेला पाया. उन्हें सरकार द्वारा ऐसी परिस्थितियों में आत्म-देखभाल के लिए जिम्मेदार बनने के लिए कहा गया, जब आत्म-देखभाल संभव ही नहीं थी. सरकार की भाषा में कहा जाए, तो यह आत्मनिर्भर बनने का समय था.
(कारवां अंग्रेजी के मार्च 2022 अंक की इस कवर स्टोरी का हिंदी में अनुवाद कुमार उन्नयन ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)