पिछले चार महीनों से, जब से भारत नोवेल कोरोनावायरस महामारी की चपेट में आया है, नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार की प्रतिक्रिया, होम्योपैथी से लेकर अर्ध-वैज्ञानिक आयुर्वेद उपचार तक, छद्म वैज्ञानिक उपायों से प्रेरित है. इस प्रतिक्रिया को आयुर्वेद, योग, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी मंत्रालय या आयुष मंत्रालय का समर्थन है. बीमारी के फैलने को रोकने में मदद करने तथा प्रतिरक्षा-बूस्टर या रोगनिरोधी के रूप में प्रभावी होने के लिए कई राज्यों में सरकारें होम्योपैथिक उपचारों की पेशकश कर रही हैं जो वैश्विक रूप से अप्रमाणित है. पिछले कुछ हफ्तों में तेजी से होने वाली मौतों के साथ, मोदी प्रशासन ने विश्व स्वास्थ्य संगठन की महामारी के लिए अनुशंसित प्रतिक्रियाओं के साथ-साथ इक्कीसवीं सदी के स्वीकृत वैज्ञानिक ज्ञान के विपरीत उपायों को जारी रखा है.
मई 2014 में सत्ता में आने के बाद से वैज्ञानिक साक्ष्य के लिए अरुचि मोदी सरकार की एक सुसंगत विशेषता रही है. इसके पहले निर्णयों में से एक भारतीय चिकित्सा विभाग और होम्योपैथी को आयुष मंत्रालय की स्थिति तक ऊपर उठाना था. उस वर्ष जून में, नव नियुक्त स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने मध्य दिल्ली में राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन के कार्यालय का दौरा किया. एचआईवी और एड्स से निपटने के लिए सरकार के उपायों पर बात रखते हुए, वर्धन ने नाको के अधिकारियों को कंडोम वितरण के सफल उपाय के बजाय "संयम" को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह दी- नाको ने पाया था कि भारत में एड्स के 86 प्रतिशत मामले असुरक्षित यौन संबंधों के चलते थे. आयुष पर नव-निर्वाचित सरकार का जोर अन्य प्रमुख स्वास्थ्य कार्यक्रमों में कटौती के साथ था, जिनमें एचआईवी और एड्स तथा तपेदिक और स्वास्थ्य के तहत सेवा प्रदान करने वाले क्षेत्रों के लिए सरकार की योजना राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन शामिल है.
सरकार के इस दृष्टिकोण को बेहतर रूप से चित्रण मोदी के गृह राज्य गुजरात के अलावा और कहां हो सकता है जहां उन्होंने 13 साल तक राज किया और जिस पर उनका प्रॉक्सी शासन आज भी जारी है. देश के सबसे अधिक कोविड मामले वाले राज्यों में से एक होने के अलावा, पिछले छह वर्षों में सरकार के सार्वजनिक-स्वास्थ्य नीति से संबंधित जो फैसले लिए हैं वह अब अपना रंग दिखाने लगे हैं. गुजरात में सरकार ने महामारी से निपटने के लिए छद्म और गैर-वैज्ञानिक तरीकों के उपयोग का लगातार समर्थन किया है, यहां तक कि कोरोनोवायरस के मामलों में वृद्धि के बावजूद इसकी परीक्षण दरों में गिरावट आई है. इसने अपने क्वारंटीन केंद्रों को छद्म वैज्ञानिक उपायों के लिए "प्रायोगिक" केंद्रों में बदल दिया है, जहां सरकार भारतीय कानून के तहत निर्धारित किसी भी शोध प्रोटोकॉल का पालन नहीं करती थी.
गुजरात वायरस के हॉटस्पॉटों में से एक है. राज्य में 19 मार्च को कोविड-19 का पहला मामला दर्ज किया गया था. 23 जून तक राज्य में संक्रमण के पुष्ट मामलों की संख्या 27260 थी. इस मामले में महाराष्ट्र और दिल्ली के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा हॉटस्पाट गुजरात है. 1663 मौतों और 6.1 मृत्यु दर के साथ वह सभी राज्यों में अव्वल है जबकि राष्ट्रीय औसत 3.32 प्रतिशत है. 22 जून तक, गुजरात सरकार की वेबसाइट के अनुसार, अकेले अहमदाबाद में 1332 मौतें दर्ज की गईं. शहर में कुल मामलों की संख्या सरकारी वेबसाइट पर सूचीबद्ध नहीं है लेकिन समाचार रिपोर्टों के अनुसार, 7 जून तक 20000 से अधिक मामले दर्ज हो चुके थे.
वैज्ञानिक ज्ञान के खिलाफ जाते हुए, जो व्यापक रूप से संपर्क ट्रेसिंग और जांच के लिए कहता है, गुजरात सरकार ने होम्योपैथी की गोलियां और आयुर्वेदिक मिश्रणों को हॉटस्पॉट में वितरित किया. बड़ौदा के एक रिहायशी इलाके वसाना में, जहां संक्रमण के मामलों का पता चला था, राज्य सरकार ने कुछ मोहल्लों में होम्योपैथिक दवा बांटी. 11 मई को "एक पड़ोसी के सकारात्मक परीक्षण के बाद, मेरी बिल्डिंग को सील कर दिया गया था," क्षेत्र के एक अपार्टमेंट परिसर की एक 21 वर्षीय निवासी ने नाम नहीं छापने का आग्रह करते हुए मुझे बताया. "यहां रहने वालों का एक व्हाट्सएप ग्रुप है, जिसमें हमें बताया गया था कि अब किसी को बाहर जाने की इजाजत नहीं है. मैं बौखला रही थी,” उसने कहा.
21 वर्षीय ने कहा कि पड़ोसी की जांच पॉजिटिव आने के दो दिन बाद, "सरकार के लोगों" ने आस पड़ोस में एक सर्वे किया. उन्होंने इस तरह के सवाल पूछे जिनसे आगे इस महामारी के आतंक को काबू में किया जा सके : हर परिवार में कितने सदस्य हैं, क्या उम्र है, क्या कोई बीमार था, यदि हां, तो बीमारी के लक्षण क्या थे, बगैरह-बगैरह. इस छोटी सी बातचीत के बाद वे चले गए और फिर जब आए तो बड़ौदा के एक होम्योपैथिक अस्पताल से दो छोटी बोतलें लेकर आए. उन्होंने कहा, "वे जल्दी ही वापस आए और यह 'दवा' दी. बोतलें बड़ौदा होम्योपैथिक अस्पताल की थी," उन्होंने कहा.
सरकारी अधिकारियों ने उन्हें बताया कि यह होम्योपैथिक दवा है और इसे रोगनिवारक उपचार के तौर पर लिया जाना था. 21 वर्षीय ने कहा, "मैंने अपने माता-पिता को गोलियां नहीं खाने दी. मैंने पड़ोस में अपने दोस्तों से पूछा, तो उन्होंने भी बताया कि उन्हें भी बोतलें दी गई हैं. उनके एक 19 वर्षीय पड़ोसी ने भी नाम नहीं छापने का अनुरोध करते हुए इस बात की पुष्टि की. 19 वर्षीय ने कहा, "हमें भी मिलीं थी. उन्होंने हमें बताया कि यह दवा इम्यूनिटी बूस्टर है, इसे दोपहर के खाने से पहले लेना है और इससे पहले कच्चा प्याज और लहसुन नहीं खाने को कहा."
वसाना निवासियों ने मुझे जो बताया उसकी पुष्टि बड़ौदा के एक सार्वजनिक-स्वास्थ्य कार्यकर्ता ने भी की है. "हॉटस्पॉट में राज्य सरकार ने होम्योपैथिक दवा वितरित की और तीन दिनों तक दवा खाने की सलाह दी," कार्यकर्ता ने कहा. "एक छोटी सी बोतल है ...वे इसे दिन में दो बार खाने को कहते हैं. हम यह बिल्कुल नहीं जानते कि किस तरह की दवा दी जा रही है.” उन्होंने कहा, “वे प्रेस ब्रीफिंग के दौरान बार-बार यह कहते हुए होम्योपैथिक चिकित्सा की सफलता पर चर्चा करते रहते हैं कि कोविड पॉजिटिव रोगियों पर इसका परीक्षण किया गया है और यह पाया गया कि होम्योपैथिक दवाएं खाने वाले मरीज तेजी से ठीक हुए हैं. इसने उनकी प्रतिरक्षा बढ़ाई है.”
21 वर्षीय ने मुझे बताया कि 11 मई के बाद से, सरकारी अधिकारियों ने पड़ोस में जाकर कई बार पूछताछ की कि क्या वहां रहने वालों में से किसी को बीमारी का कोई लक्षण तो नहीं है लेकिन किसी भी कोविड-19 जांच नहीं कराई. "एक बार बाद में जब वे आए, उन्होंने मेरी मां को एक आयुर्वेदिक घोल दिया और फिर कहा कि यह इम्यूनिटी बूस्टर है," उन्होंने बताया.
22 अप्रैल को एक प्रेस वार्ता में गुजरात के स्वास्थ्य सचिव, जयंत रवि ने कहा था कि राज्य सरकार ने "काढ़े" को "विभिन्न आयुर्वेदिक तरीकों से निर्मित" बताकर 10541000 खुराक वितरित करने की बात कही थी." रवि ने कहा कि सरकार ने संशमनी वटी की 1.72 लाख खुराकें वितरित की है जिसे कथित तौर पर बुखार के इलाज में इस्तेमाल किया जाता है और आर्सेनिकम एल्बम 30 की 76.72 लाख खुराक वितरित की है. 29 जनवरी को यानी भारत में कोविड-19 का पहला केस दर्ज होने से एक दिन पहले आयुष मंत्रालय ने नोवेल कोरोनवायरस के दबाव को रोकने के लिए इन्फ्लूएंजा जैसी बीमारी के इलाज के लिए होम्योपैथी में आर्सेनिकम एल्बम 30 दवा चलाने की सिफारिश की थी. यहां तक कि जैसे-जैसे मामले बढ़े सभी सरकारी कर्मचारियों, जिनमें स्वास्थ्य कार्यकर्ता, पुलिस, प्रशासनिक कर्मचारी और गुजरात में अन्य गणमान्य लोग शामिल थे, को ये दवाएं दी गईं.
"जब एक महामारी फैलती है, जिसका कोई खास इलाज मौजूद न हो, तो लोग विश्वास की राह अपनाने लगते हैं, वे मंदिरों में जाते हैं, घरेलू उपचार की कोशिश करते हैं," मुंबई स्थित एक मेडिकल ऐथिसिस्ट और फिजिशियन डॉ. अमर जेसानी ने कहा. “ये सभी प्रतिरोधक तंत्र हैं, जो समझ में आता है. हालांकि, जब कोई सरकार औपचारिक और व्यवस्थित रूप से कुछ उपायों का प्रचार करती है, तो यह वैज्ञानिक होने की विश्वसनीयता देता है, जो कि खतरनाक है.”
जर्मनी में जन्मे होम्योपैथी का मूल आधार एक लैटिन वाक्यांश है सिमिलिया सिमिलिबस क्यूरान्टुर - इलाज की तरह. दूसरे शब्दों में, होम्योपैथिक का विश्वास है रोग के लक्षण पैदा करने वाली दवा से रोग का इलाज होता है. होम्योपैथी कई देशों में प्रतिबंधित है. 2017 में ब्रिटेन की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा ने डॉक्टरों को होम्योपैथिक उपचार न करने का निर्देश जारी किया था जिसमें कहा गया है कि "होम्योपैथी के समर्थन में कोई स्पष्ट या मजबूत सबूत नहीं मिला है." एनएचएस की वेबसाइट बताती है कि ब्रिटेन की संसद में हाउस ऑफ कॉमन्स की वैज्ञानिक समिति की 2010 की एक रिपोर्ट के अनुसार, "होम्योपैथिक उपचार प्लेसबो (डमी उपचार) जैसा ही है." एक प्रमुख राष्ट्रीय अध्ययन के निष्कर्ष के अनुसार कि वैकल्पिक उपाय की कोई लाभकारिता साबित नहीं होती, 2019 में फ्रांस सरकार ने घोषणा की कि वह 2021 से होम्योपैथिक उपचार के लिए रोगियों को प्रतिपूर्ति देना बंद कर देगी.
होम्योपैथी पर वैश्विक समझ को नजरअंदाज करते हुए, गुजरात सरकार ने इसे अपनी तरह के "प्रयोग" के बजाय विकल्प के तौर पेश किया. रवि ने 22 अप्रैल की प्रेस वार्ता में कहा कि राज्य ने “क्वारंटीन केंद्रों में प्रयोग” किया था. अप्रैल में, "हमने सरकारी स्तर पर औपचारिक रूप से एक निर्णय लिया," रवि ने कहा, उस समय गुजरात में 179 क्वारंटीन केंद्रों में 6210 लोगों को आयुर्वेदिक और होम्योपैथिक उपचार दिया गया. उन्होंने कहा कि केंद्र में 3585 लोगों को आयुर्वेदिक दवाएं दी गईं जिन्होंने इस उपचार के लिए सहमति व्यक्त की और 2625 लोगों ने होम्योपैथिक दवाएं लेने का विकल्प चुना.
रवि ने दावा किया कि इस "बहुत ही रोमांचक" प्रयोग ने अपने अनुकूल असर किया था, जिन 11 सहमत लोगों का यह इलाज किया गया था उनकी बाद में जांच रिपोर्ट सकारात्मक आई. इन मामलों के साथ, उसने एक चेतावनी पेश की. इन 11 लोगों को केवल तीन दिन दवा दी गई जबकि इसे सात दिनों तक लेना था. गुजरात सरकार के स्वास्थ्य पेशेवरों के एक वीडियो सम्मेलन के दौरान डेटा साझा करते हुए रवि ने निष्कर्ष निकाला कि, "यह फिर से यह दर्शाता है कि होम्योपैथी और आयुर्वेदिक उपचार को रोगनिवारक या प्रतिरक्षा बढ़ाने वालों के रूप में प्रदान करने के प्रयोगों ने काफी अच्छा काम किया है." आयुष सचिव, वैद्य राजेश कोताचा ने इसे "राष्ट्रीय तौर पर अपनाए जाने वाली सर्वश्रेष्ठ योजना" बताया है.
"यह खराब चिकित्सा विज्ञान है," भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद या आईसीएमआर के साथ काम कर रहे एक महामारी वैज्ञानिक ने नाम न छापने की शर्त पर मुझे बताया. उन्होंने बताया कि रवि ने जिस "प्रयोग" की बात की वह रैंडम परीक्षण नहीं था. रैंडम परीक्षण विधि में परीक्षण किए जाने वाले विषयों को अनियमित दो समूहों में विभाजित किया जाता है. इस तरह के परीक्षण में, जो किसी उपचार की प्रभावकारिता के परीक्षण के लिए मानक है, केवल एक समूह को प्रयोगात्मक दवा या चिकित्सा दी जाती है. दूसरे समूह को एक प्लेसबो (आभासी खुराक), या कोई उपचार नहीं मिलता है. शोधकर्ता फिर दो समूहों की तुलना करके यह देखतें है कि क्या उपचार कारगर है. यह गुजरात में "प्रयोग" में नहीं किया गया था, जहां एक समूह को आयुर्वेदिक दवाएं दी गईं और दूसरी को होम्योपैथिक गोलियां मिलीं.
लेकिन गुजरात सरकार कार्य-कारण स्थापित किए बिना इस नतीजे पर पहुंची कि होम्योपैथी एक इम्यूनिटी बूस्टर है. “जो लोग क्वारंटीन केंद्रों में थे, उनके लिए माना जाता है कि कोविड-19 का कुछ जोखिम है. सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध जानकारी से ऐसा लगता है कि कोई रैंडम परीक्षण विधि नहीं अपनाई गई कि रोगी खुद चुने कि उसे होम्योपैथिक उपचार चाहिए या आयुर्वेदिक,'' चिकित्सा नैतिकतावादी, मेडिकल ऐथिसिस्ट और क्लीनिकल डिजाइन विशेषज्ञ जेसानी ने कहा. "हमें नहीं पता कि क्लिनिकल ट्रायल डिज़ाइन को एथिक्स कमेटी से मंजूरी मिली है, कि सूचित सहमति को दस्तावेजित किया गया था और कि रोगियों को आयुर्वेदिक और होम्योपैथिक उत्पादों से होने वाले जोखिमों और लाभों के बारे में वैज्ञानिक जानकारी दी गई थी" यह सभी भारतीय दवा कानून के तहत आवश्यक है.
जेसानी ने कहा, “भारतीय कानून के अनुसार, उन्हें यह भी दिखाना होगा कि परीक्षण के दौरान बीमार हुए लोगों को क्या मुआवजा दिया जाएगा. अगर उन्हें ऐसा डेटा मिला, जो इन उपचारों को इम्यूनिटि बूस्टर या रोगनिवारक के रूप में कारगर दिखाता है, तो ऐसी जानकारी सबके साथ साझा की जानी चाहिए ताकि उच्च स्तर के साक्ष्य के जरिए बड़े अध्ययन किए जा सकें." जेसानी ने कहा कि भारत में लोग व्यापक रूप से मानते हैं कि किसी भी पारंपरिक उपचार से कोई नुकसान नहीं हो सकता है. उन्होंने कहा, "यह सही नहीं है क्योंकि हम उस आयुर्वेदिक चिकित्सक को जानते हैं जो काढ़ा पीने से मर गया." वह चेन्नई के एक फार्मासिस्ट का उल्लेख कर रहे थे, जो मई की शुरुआत में इस तरह के किसी घोल का सेवन करने के बाद मर गया था.
“जब समूह तुलनीय नहीं होते हैं और कोई नियंत्रण शाखा नहीं होती है तो हम यह नहीं कह सकते हैं कि क्या उपचार ने कोई लाभ दिया है, अगर ऐसा हो तो. पीयर समीक्षा की मानक जांच लागू नहीं की गई थी,” महामारी विशेषज्ञ ने कहा. “दोनों समूह भी तुलनीय नहीं हैं. एक तरफ होम्योपैथी दे रहे हैं, दूसरी तरफ आयुर्वेदिक.” सही प्रोटोकॉल का पालन किया गया या नहीं इस पर स्पष्टता न होने पर महामारी वैज्ञानी जेसानी ने कहा, "कुछ निश्चित मानदंड हैं कि जब प्रयोग किए जाते हैं तो मरीजों को नुकसान नहीं पहुंचता है. हमें पता नहीं है कि क्या यह परीक्षण पंजीकृत था, लिखित सहमति ली गई थी और नैतिकता मंजूरी प्राप्त हुई थी. परीक्षण पंजीकृत नहीं था और यह प्रयोग मुख्य रूप से उपयोग किए जाने वाले तरीकों के कारण वैज्ञानिक रूप से मान्य नहीं है."
जब रवि से संपर्क किया गया, तो उन्होंने कहा कि "जवाब देने के लिए बाध्य नहीं हैं." मई में उनके ईमेल पर भेजे गए सवालों का रिपोर्ट के प्रकाशन के समय भी जवाब नहीं मिला था. जवाब मिलने पर रिपोर्ट को अपडेट कर दिया जाएगा.
आयुष मंत्रालय के निर्देश के तहत, होम्योपैथी का उपयोग भारत में कई राज्यों में प्रचलित हो गया है. 18 मई को दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देशों में से एक के सबसे अधिक आबादी वाले शहर, मुंबई में 35058 पुष्ट मामले आए और 1248 मौतें हुईं थी. उस दिन, शहर के घाटकोपर क्षेत्र के एक नगर निगम के पार्षद बीजेपी के प्रवीण चेड्डा ने अपने क्षेत्र में होम्योपैथिक गोलियों की 200 बोतलें वितरित कीं. उसी सप्ताह, बोरीवली की नगरसेविका रिद्धि खुरसिंगे ने भी और एक बीजेपी सदस्य ने, आर्सेनिकम एल्बम 30 की 10000 बोतलें वितरित कीं, साथ ही यह भी बताया कि गोलियां “तीन दिनों तक हर रोज एक बार खाली पेट खानी है और जब तक एसएआरएस कोव-2 बचा रखता है तब तक हर महीने ऐसे ही खाना है.” इसी तरह की खबरें तेलंगाना, उत्तराखंड, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, ओडिशा, कर्नाटक और पंजाब से सामने आई हैं, जहां आयुष मंत्रालय सक्रिय रूप से रोगनिवारक दवाओं का वितरण करता रहा है जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है.
डब्ल्यूएचओ ने भारत के छद्म और गैर-वैज्ञानिक उपायों पर चुप्पी बनाए रखी है. जिनेवा में डब्ल्यूएचओ कार्यालय के साथ-साथ उनके दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्रीय कार्यालय में भेजे गए प्रश्न अनुत्तरित हैं.
“पारंपरिक चिकित्सा के माध्यम से स्वास्थ्य संबंधी मांगों को पूरा करना आम तौर पर एक महत्वपूर्ण और सार्थक लक्ष्य है. लेकिन नोवेल कोरोनावायरस जैसी गंभीर बीमारी के समय में, किसी भी ऐसी अप्रमाणित चीज को आगे बढ़ाने को मंजूरी नहीं दी जा सकती है,” महामारी वैज्ञानिक ने कहा. उन्होंने कहा, “यह तर्क दिया जा सकता है कि होम्योपैथिक उपचार सक्रिय रूप से हानिकारक नहीं है क्योंकि उनमें कोई सक्रिय अणु नहीं हैं.लोग अक्सर बोलते हैं, ‘कम से कम कोई नुकसान तो नहीं है?’ लेकिन झूठी उम्मीदें और ध्यान भटकाना महत्वपूर्ण संदेश को हल्का कर देता है. यह वैज्ञानिक चेतना बढ़ाने के लक्ष्य से भी हमें गुमराह करता है, जो हमें सशक्त करने का संवैधानिक कर्तव्य है.” दूसरे शब्दों में, एक महामारी के दौरान आवश्यक चिकित्सा उपचार के विकल्प के रूप में छद्म और अर्ध-वैज्ञानिक उपचार का विज्ञापन सक्रिय रूप से हानिकारक हैं क्योंकि इससे नियमित चिकित्सा उपचार में देरी हो सकती है, जब समुदाय में घातक संक्रमण फैल रह होता है.
विज्ञान पर हमला करने के मोदी सरकार के संचित प्रयासों का निशाना महामारी के रूप में भारतीय नागरिक होंगे. जून तक, भारत एशिया में महामारी का केंद्र बन चुका है. विज्ञान के मार्गदर्शक के बिना, सरकार संभवत: यह सुनिश्चित कर रही है कि नोवेल कोरोनावायरस राष्ट्र में एक लंबे समय तक रहेगा.