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12 जून को मैक्स अस्पताल का कोविड-19 इलाज की भारी भरकम फीस वाला एक चार्ट सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था जिसका शीर्षक था, “कोविड-19 प्रबंधन के लिए रोजाना का चार्ज”. इस चार्ट में जनरल वार्ड की दर 25090 रुपए बताई गई थी जिसमें कोविड-19 की जांच, “महंगी दवाइयां” और कोमोरबिडिटी यानी कोविड के अतिरिक्त रोग के इलाज की फीस शामिल नहीं थी.
बाद में मैक्स हेल्थकेयर ने स्पष्टीकरण दिया कि वह चार्ट उसके दिल्ली के पटपड़गंज अस्पताल का है. अस्पताल ने ट्वीट किया कि चार्ट में उल्लेखित फीस में नियमित जांच और दवाइयां, डॉक्टर और नर्सों की फीस आदि शामिल हैं. अस्पताल ने कोविड-19 पैकेज के प्रति दिन के चार्ज का दूसरा चार्ट भी साझा किया जिसके मुताबिक सिंगल रूम का प्रति दिन का चार्ज 30400 रुपए, इंटेंसिव केयर यूनिट या आईसीयू का प्रति दिन का चार्ज 53000 रुपए और वेंटिलेटर वाले आईसीयू का प्रति दिन का चार्ज 72500 रुपए है. इस कीमत में उपचार देश के बहुसंख्यक लोगों के लिए बहुत महंगा है और इससे लोक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के बीच निजी स्वास्थ्य सेवाओं को आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के मरीजों की पहुंच में लाने से जुड़ी बहस छिड़ गई है. स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय (डीजीएचएस) ने 4 जून को अपने एक आदेश में 56 निजी अस्पतालों की सूची जारी की थी जिन्हें अपनी कुल बेड संख्या का 10 फीसदी और ओपीडी विभाग की कुल बेड क्षमता का 25 फीसदी भाग ईडब्ल्यूएस मरीजों के लिए निशुल्क आरक्षित रखना है. दिल्ली में जिस परिवार की आय 7020 रुपए से कम है उन्हें ईडब्ल्यूएस मरीज माना जाता है. उस आदेश में उन अस्पतालों के नाम भी थे जिन्हें ईडब्ल्यूएस के कोविड-19 मरीजों के लिए बेड आरक्षित करने हैं.
कोविड-19 महामारी से पैदा हुए जन स्वास्थ्य आपातकाल से बहुत पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने ईडब्ल्यूएस मरीजों की पहुंच निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में बनाने के हक में फैसला सुनाया था. जुलाई 2018 के फैसले में कोर्ट ने उन निजी अस्पतालों को, जो सरकारी रियायती दरों में हासिल जमीन पर बने हैं, आदेश दिया था कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के मरीजों को निशुल्क उपचार मुहैया कराएं. कोर्ट ने कहा था कि अगर अस्पताल इस आदेश का अनुपालन नहीं करेंगे तो उनकी मान्यता रद्द कर दी जाएगी.
साल 2000 में न्यायाधीश ए. एस. कुरैशी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी थी जिसका उद्देश्य निजी अस्पतालों में गरीबों के लिए निशुल्क उपचार से संबंधित दिशानिर्देश तय करना था. इस कमेटी ने सिफारिश की कि रियायती दरों में जमीन हासिल करने वाले निजी अस्पतालों में इन-पेशेंट विभाग में 10 फीसदी और आउट पेशेंट विभाग में 25 फीसदी बेड गरीबों के लिए आरक्षित रखने होंगे.
सोशल जूरिस्ट नाम के एनजीओ के संचालक अशोक अग्रवाल ने मुझसे कहा, “सरकारी जमीन पर बने दिल्ली के निजी अस्पतालों की पहचान की जा चुकी है और उनमें आज कम से कम 550 बेड ईडब्ल्यूएस मरीजों के लिए आरक्षित हैं.” अग्रवाल नियमित रूप से जनहित याचिका दायर कर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के स्वास्थ और शैक्षिक अधिकारों को सुनिश्चित करने का प्रयास करते रहते हैं. 2002 में सोशल जूरिस्ट ने 20 निजी अस्पतालों के खिलाफ दिल्ली उच्च अदालत में याचिका दायर की थी क्योंकि इन अस्पतालों ने गरीबों का निशुल्क इलाज नहीं किया था. मार्च 2007 के फैसले में हाई कोर्ट ने कहा था कि न्यायाधीश कुरैशी समिति ने जो अनुशंसा की थी उनका पालन सिर्फ याचिका में उल्लेखित प्रतिवादी अस्पतालों को नहीं करना है बल्कि उनके जैसी स्थिति वाले सभी अस्पतालों को करना है.
लोक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के अनुसार, एक बड़ी समस्या यह है कि नियमों के होने के बावजूद निजी स्वास्थ्य क्षेत्र नियमों का पालन नहीं करते हैं. डीजीएचएस के 14 मई के आदेश में यह बात दिखाई देती है. उस आदेश में डीजीएचएस ने निर्देश दिया था कि ईडब्ल्यूएस मरीजों के संबंध में जो नियम हैं उनका पालन अस्पताल करें. आदेश में लिखा है, “हमारे ध्यान में लाया गया है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने चिन्हित अस्पतालों को पात्र मरीजों को निशुल्क उपचार देने के संबंध में जो निर्देश दिए हैं, उन नियमों के विपरीत जाकर ये अस्पताल ऐसे मरीजों से कोविड-19 किटी या जांच की फीस वसूल रहे हैं. ऐसा करना सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का उल्लंघन है.” महानिदेशालय ने सभी चिन्हित निजी अस्पतालों को ईडब्ल्यूएस मरीजों को निशुल्क उपचार मुहैया कराने का आदेश देते हुए कहा है, “यदि ईडब्ल्यूएस के मरीज को उपचार देने से इनकार किया जाता है तो आवश्यक कार्रवाई की जाएगी.”
अग्रवाल के अनुसार, “इस आदेश का कोई असर नहीं हुआ.” उन्होंने मुझसे कहा, “इस आदेश के बावजूद चीजें नहीं बदलीं.” अग्रवाल ने ईडब्ल्यूएस मरीज इंदू सिंह के मामले के बारे में मुझे बताया जिसे मैक्स अस्पताल की शालीमार बाग शाखा ने भर्ती करने से इनकार कर दिया था और उन्हें हस्तक्षेप करना पड़ा था. मैंने इंदू सिंह के पति अमरनाथ सिंह से इस मामले पर बात की तो अमर ने मुझसे कहा, “हम 13 जून को मैक्स अस्पताल गए थे लेकिन वे लोग हमें भर्ती करने से यह कहकर इनकार कर रहे थे कि बेड नहीं है. इंदू को बुखार था और उसे सांस लेने में तकलीफ हो रही थी. मैं वहां तीन घंटे तक इंतजार करता रहा और वह लोग बस यही कह रहे थे कि बेड नहीं है. उनसे बात करने के बाद मैंने अशोक जी को फोन किया और उन्होंने भर्ती कराने में हमारी मदद की.” ईडब्ल्यूएस श्रेणी में भर्ती होने के बाद इंदू का इलाज निशुल्क हुआ.
निजी क्षेत्र द्वारा नियमों की अवहेलना का दूसरा उदाहरण भी अग्रवाल ने साझा किया, “1997 से दिल्ली सरकार ने दिल्ली सरकार कर्मचारी स्वास्थ्य योजना (डीजीईएचएस) के तहत अपने कर्मचारियों और पेंशनधारियों का इलाज राहत दरों में करने वाले निजी अस्पतालों का पैनल बनाया था. जब ज्यादा मरीजों का सीजन होता है तो ये अस्पताल मरीजों को बेड देने से इनकार करते हैं. ये लोग उनको भाव देते हैं जो पैसा खर्च करते हैं. यह एक तरह का फ्रॉड है. अगर ये अस्पताल जरूरत के समय मरीजों का उपचार नहीं करेंगे तो मरीजों को वहां भेजा ही क्यों जाए? उन्हें पैनल में रखना ही क्यों?”
9 जून के डीजीएचएस के आदेश में लिखा है कि निजी अस्पताल डीजीईएचएस के उन लाभार्थियों को जिनमें कोविड-19 संक्रमण का शक है या जिन्हें कोविड-19 संक्रमण है उन्हें तब तक भर्ती नहीं कर रहे रहें जब तक कि ऐसे मरीज भारी-भरकम फीस जमा नहीं कर रहे. उस आदेश में लिखा है कि अस्पताल सामान्य दर पर मरीजों का इलाज कर रहे हैं जबकि उन्हें राहत दरों में उपचार करना चाहिए. आदेश में पैनल के अस्पतालों को याद दिलाया गया है कि उन्हें कोविड-19 सहित सभी रोगों का इलाज स्वीकृत दरों में या पेंशनरों के मामले में निशुल्क करना होगा. अग्रवाल ने समझाया कि सरकारी स्वास्थ्य उपचार योजना के लाभार्थी सरकारी अस्पताल में उपचार नहीं कराना चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि वे निजी अस्पताल में इलाज कराने के पात्र हैं. दूसरा कारण सरकारी अस्पतालों की खस्ता हालत है. गरीब से गरीब आदमी भी इन अस्पतालों में नहीं जाना चाहता.
मैक्स जैसे अस्पतालों ने दिल्ली सरकार के उस आदेश के बाद, जिसमें कहा गया है कि सभी अस्पतालों को अपनी रेट लिस्ट और उपलब्ध बेडों की संख्या अस्पताल के एंट्रेंस पर लगानी होगी, अपनी दरें सार्वजनिक कीं. 20 जून को डीजीएचएस ने दिल्ली के अस्पतालों के लिए कोविड-19 मरीजों के लिए बेड की दर निर्धारित करते हुए आदेश जारी किया था. डीजीएचएस ने नीति आयोग के सदस्य बी. के. पॉल की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिशों को मंजूरी दी है. आयोग ने आइसोलेशन बेड की दर 8000 से 10000 रुपए, बिना वेंटिलेटर वाले आईसीयू की दर 13000 से 15000 रुपए और वेंटिलेटर वाले आईसीयू की फीस 15000 से 18000 तय की है. उस आदेश में कहा गया है कि ये दरें अस्पतालों के कुल कोविड-19 बेडों के 60 प्रतिशत पर लागू होगी.
इस अनुशंसा के 60 फीसदी वाले प्रावधान की कई नागरिक समाज संगठनों ने आलोचना की है. 23 जून को 27 नागरिक समाज और लोक स्वास्थ्य संगठनों ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन को अपनी चिंता से अवगत कराते हुए खत लिखा. इन संगठनों ने लिखा कि इस आदेश में बहुत सारी गलतियां, विरोधाभास और भ्रांतियां हैं जिनका फायदा उठाकर अस्पताल लोगों से ज्यादा पैसा वसूल सकते हैं और दरें निर्धारित करने के पीछे जो मंशा रही है उसे नुकसान पहंचा सकते हैं. इस पत्र को लिखने वालों में ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क और अलायंस ऑफ डॉक्टर फॉर एथिकल हेल्थकेयर शामिल हैं.
पत्र में लिखा है, “60 फीसदी बेड क्षमता पर दर निर्धारित करने का फैसला मनमाना और समझ से बाहर है. इससे लोग ऊंची दरों में इलाज करवाने के लिए मजबूर होंगे क्योंकि जिन बेडों पर दर तय है वे उपलब्ध नहीं होंगे और इस तरह यह आदेश एक असंवैधानिक भेदभाव पैदा करने वाला है जिसमें पक्षपाति रूप में एक सुविधा संपन्न वर्ग को इलाज मिलेगा और दूसरा वर्ग इससे वंचित रहेगा.” उस खत में लिखा है कि यह क्लासिफिकेशन वैज्ञानिक नहीं है और यह कोविड-19 के मरीजों को आर्थिक रूप से बर्बाद कर देगा.
डीजीएचएस के दर तय करने के एक महीने बाद 25 जुलाई को नागरिक समाज समूह और स्वास्थ्य संगठनों ने स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन, केजरीवाल, जैन को एक बार फिर पत्र लिखा और बताया कि निजी अस्पताल 20 जून के आदेश का पालन नहीं कर रहे हैं. उस पत्र में लिखा है, “सरकार द्वारा तय दर पर इलाज करने के आदेश का कई अस्पताल उल्लंघन कर रहे हैं.” संगठनों ने इस आदेश को लागू करवाने में दिल्ली सरकार के प्रयासों में कमी के प्रति चिंता भी व्यक्त की.
उस पत्र में निजी अस्पताल द्वारा किए गए 11 प्रकार के उल्लंघनों की जानकारी थी. पत्र में लिखा है, "निजी अस्पताल मरीजों को भर्ती के समय सरकारी दरों के बारे में नहीं बता रहे हैं या जानबूझ कर सरकार द्वारा निर्धारित कीमत के बारे में गलत जानकारियां दे रहे हैं ताकि उनसे अस्पताल की फीस ली जा सके." उस पत्र में लिखा है कि कई मौकों पर यह पाया गया है कि अस्पताल के अपने पैकेज पर मरीज के परिवार के किसी सदस्य के हस्ताक्षर सरकारी छूट दर की जानकारी दिए बिना धोखे से लिए गए ताकि परिवार से अस्पताल की दर वसूली की जा सके. उस पत्र में यह भी लिखा है कि अस्पताल छूट दर वाले बेडों की उपलब्धता की जानकारी मुहैया नहीं कर रहे हैं. पत्र में लिखा है, “अक्सर मरीजों को दर निर्धारण से बाहर के बेडों में भर्ती किया जाता है जबकि सरकारी बेड उपलब्ध होते हैं.”
उस पत्र में हस्ताक्षर करने वाले 20 लोगों ने सरकार से अनुपालन ना करने वाले अस्पतालों के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की है. इन लोगों ने लिखा है, "सरकार को इन अस्पतालों की जांच करनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इन अस्पतालों को अनुपालन ना करने के लिए कारण बताओ नोटिस जारी कर औपचारिक कार्रवाई की जाए.” उन्होंने इन सभी निजी अस्पतालों के कोविड मरीजों के मासिक बिलों के ऑडिट करने वाली कमेटी के गठन की सिफारिश की है और सरकार से कहा है कि वह मरीजों की शिकायतों के संबोधन के लिए संयंत्र बनाए. पत्र में लिखा है, “सरकार को एक औपचारिक शिकायत निवारण संयंत्र का गठन करना चाहिए ताकि निजी अस्पतालों के खिलाफ शिकायतों का संबोधन वक्त रहते हो सके.”
नागरिक समाज संगठनों ने अपने पत्र में यह भी कहा है कि जब मरीज राहत दरों पर इलाज की मांग करते हैं तो उनके इलाज का गुणस्तर खराब होता है. खत में लिखा है कि सरकारी दर पर भुगतान करने वाले और निजी दर पर उपचार करवाने वालों के बीच भेदभाव किया जाता है. अग्रवाल ने मुझे बताया कि यही हाल ईडब्ल्यूएस मरीजों के साथ होता है. अग्रवाल के अनुसार, जब ईडब्ल्यूएस मरीजों को जरूरत पड़ती है तो स्वास्थ्य सेवा देने वाले और चिकित्सक नदारद हो जाते हैं लेकिन जो पैसा देता है उसका उपचार करने के लिए तुरंत उपलब्ध हो जाते हैं.
अग्रवाल ने ईडब्ल्यूएस मरीजों के लिए बेड़ों की उपलब्धता में सुधार करने का श्रेय आम आदमी पार्टी को दिया लेकिन उन्होंने हैरानी जताई कि कोविड-19 महामारी के दौरान यह बात नहीं दिखी. उन्होंने कहा पहले बस 65 से 70 फीसदी ईडब्ल्यूएस आरक्षित बेड भरते थे. आम आदमी पार्टी के सत्ता में आने के बाद उसने नोडल अधिकारी नियुक्त किए जिसके कारण 85 से 90 प्रतिशत बेड भरने लगे. लेकिन कोरोना लॉकडाउन से बेड खाली पड़े हैं. आज भी 90 प्रतिशत से अधिक कोविड-19 के लिए आरक्षित ईडब्ल्यूएस बेड खाली हैं. उन्होंने कहा, “यह सरकार निजी अस्पतालों से गहरी सहानुभूति रखती है.”
जब नियमन करने के सरकारी प्रयासों के बारे में पूछा गया तो अग्रवाल ने कहा, “यह एक बड़ा नाटक है. ये लोग ऐसे कदम सिर्फ लोकप्रियता हासिल करने के लिए उठाते हैं. दिल्ली सरकार ने जन स्वास्थ्य अधिकार को सुनिश्चित करने वाला कोई कानून पास नहीं किया है. जब कोई केस कोर्ट में आता है तो वे लोग कहते हैं कि पैसा नहीं है. मेरे एक मामले में केंद्र सरकार ने यही कहा था. वे लोग इसे राज्य का मामला बताकर हाथ धो लेते हैं.”
लोक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के मुताबिक, भारत की स्वास्थ्य नीति निर्माण में कारपोरेट का बड़ा प्रभाव रहता है. छत्तीसगढ़ के बाल चिकित्सक और जन स्वास्थ्य सहयोग नामक लोक स्वास्थ्य पहल के सह-संस्थापक योगेश जैन से मैंने इस बारे में बात की. जैन ने कहा कि बायो फार्मास्यूटिकल कंपनी बायोकॉन के प्रबंध निदेशक किरण मजूमदार के साथ हाल में एक वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग मीटिंग में शामिल हुए थे. उस मीटिंग में मेदांत सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल के प्रबंध निदेशक नरेश त्रेहान, अपोलो अस्पतालों की जॉइंट प्रबंध निदेशक संगीता रेड्डी भी मौजूद थे. जैन ने कहा, “एक माह पहले प्रधानमंत्री कार्यालय के मंत्री जितेंद्र सिंह कोविड-19 बाद की स्थिति के बारे में परामर्श करने के लिए स्वास्थ्य विशेषज्ञों की बैठक बुलाई थी. 11 लोगों में निजी क्षेत्र के बड़े-बड़े नाम थे. ये लोग वे हैं जो कोविड-19 के बाद स्वास्थ्य व्यवस्था का भविष्य तय करेंगे. मैं उस मीटिंग में बार-बार कहता रहा कि लोक जन स्वास्थ्य को दुबारा पटरी पर लाने का यह एक मौका है और इसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए लेकिन किसी ने मेरी नहीं सुनी.”
महामारी के दौरान कमजोर वर्ग के लोगों की पहुंच निजी स्वास्थ्य उपचार तक ना होने के बारे में लोक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का सुझाव था कि सरकार को खर्च नियंत्रित करने के लिए निजी अस्पतालों को अपने हाथ में ले लेना चाहिए. 26 मार्च को छत्तीसगढ़ सरकार ने एक आदेश जारी कर कहा था कि सभी निजी अस्पतालों को महामारी के दौरान सरकारी नियंत्रण में ले लिया जाएगा लेकिन कुछ घंटों बाद उसने अपना आदेश वापस ले लिया. जैन ने कहा, “शुरू में इन लोगों ने अच्छी बात की थी लेकिन राज्य भर में 12 अस्पतालों के अलावा अन्य किसी को अपने नियंत्रण में नहीं कर पाए.” जैन ने समझाया कि सरकारी नियंत्रण का मॉडल कैसे काम करता. प्रयास किया गया था कि वे लोग अस्पताल के भवन और वहां काम करने वाले स्टाफ का इस्तेमाल करेंगे और अन्य सार्वजनिक अस्पतालों और निजी अस्पतालों में उपकरण पहुंचाने के लिए किसी एक अस्पताल को केंद्र बनाएंगे. स्टाफ और किस मरीज को भर्ती करना है और किसकी छुट्टी करनी है ये सारी व्यवस्था सार्वजनिक होगी. जैन ने कहा कि इसे किस्तों में लागू किया गया.
जैन ने कहा कि भारतीय राज्य के पास लोक स्वास्थ्य आधारभूत ढांचे को मजबूत बनाने के लिए अधिक बजट आवंटन करने का साहस नहीं है. “वैचारिक रूप से सत्ता में आने वाली किसी भी पार्टी को भरोसा नहीं है कि सार्वजनिक व्यवस्था काम कर सकती है.” उन्होंने बताया कि स्वास्थ्य खर्च सकल घरेलू उत्पाद का एक प्रतिशत से कुछ ही ज्यादा है.
अग्रवाल ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2015 के मसौदे का उल्लेख किया जिसमें शिक्षा बिल की तर्ज पर स्वास्थ्य अधिकार बिल पारित करने की बात थी. मसौदे में प्रस्तावित है कि केंद्र सरकार आवश्यक परामर्श के बाद और तीन या अधिक राज्यों के अनुरोध पर राष्ट्रीय स्वास्थ्य अधिकार कानून पारित करेगी जो यह सुनिश्चित करेगा कि स्वास्थ्य बुनियादी अधिकार हो और उपलब्ध ना होने पर इसे कोर्ट में चुनौती दी जा सकेगी.
अग्रवाल ने बताया कि 2017 के अंतिम मसौदे से उस प्रस्ताव को हटा दिया गया है. उन्होंने कहा कि सरकार का एजेंडा निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन देने का है. “यह साफ है कि सरकार स्वास्थ्य का भार निजी क्षेत्र को सौंप कर खुद भारमुक्त हो जाना चाहती है. सरकार को पता है कि अगर वह इसे ठीक करेगी तो इसका भार भी उसे उठाना पड़ेगा.”
स्वास्थ्य क्षेत्र में इलाज और देखभाल में पहुंच की जो असमानता है उसे स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारक या एसडीएच कहा जाता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जिन परिस्थितियों में लोग पैदा होते हैं, उनका पालन-पोषण होता है, वे रहते और काम करते हैं, उनकी उम्र और जीवन पर रोजाना असर डालने वाली ताकतें और व्यवस्थाएं एसडीएच कहलाती हैं. अक्टूबर 2010 में योजना आयोग ने एक उच्चस्तरीय विशेषज्ञ समूह गठित किया था जिसने भारत में वैश्विक स्वास्थ्य कवरेज की अपनी रिपोर्ट में एचडीएच के अध्याय को अलग से शामिल किया था. रिपोर्ट में स्वास्थ्य देखभाल व्यवस्था में सुधार की सिफारिश के साथ यह भी लिखा है कि वैश्विक स्वास्थ्य कवरेज उस हाल में ही संभव है जब सामाजिक निर्धारक जैसे भोजन और पोषण सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा, पानी और सफाई, रोजगार और आय की सुरक्षा और साथ ही साथ सामाजिक समावेश और लैंगिक, जाति और धार्मिक बराबरी हो. इस रिपोर्ट में सार्वजनिक वितरण व्यवस्था और एकीकृत बाल विकास सेवा में सुधार सहित अन्य सरकारी कल्याणकारी पहल में सुधार की बात कही गई है जिससे गरीबों के स्वास्थ्य में सुधार लाया जा सके. स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के अनुसार, भारत में सार्वजनिक क्षेत्र को स्वास्थ्य देखभाल में प्राथमिकता देने का विचार अभी बहुत दूर की बात है. डॉक्टरों में निजी अस्पतालों में नौकरी करने के आकर्षण के बारे में जैन ने मुझसे कहा, “यह बहुत बाद में हुआ. दिल्ली में सबसे अच्छे डॉक्टर सार्वजनिक क्षेत्र से जुड़े हैं. निजी क्षेत्र में डॉक्टरों का जाना पिछले 30 सालों में हुआ है जब से वैश्वीकरण हुआ है और स्वास्थ उपचार प्रदान करने में चिकित्सा औद्योगिक ढांचा प्रभावशाली बना है और इसमें कुशल लोग आए हैं. इससे डॉक्टरों को निजी संस्थाओं में ज्यादा पैसा मिलता है और कुछ सम्मान के लिए उसमें गए हैं.”
जैन ने कारपोरेट को अनावश्यक प्रभाव डाल पाने की ताकत देने का आरोप सरकार पर लगाया. उन्होंने कहा, “मुझे सार्वजनिक व्यवस्था का प्राइवेट क्षेत्र की खुशामद करने की बात बिल्कुल पसंद नहीं है. राज्य ने ऐसे कई प्रावधान उनके लिए किए हैं जिससे संकट के समय उनका मुनाफा बढ़ा है.” उन्होंने बताया, “निजी क्षेत्र को जांच के लिए बहुत ज्यादा पैसा वसूलने और प्राइवेट अस्पतालों को भी चिकित्सा सेवा देने के लिए बहुत ज्यादा पैसा वसूलने दिया जा रहा है. मूल्य निर्धारण केवल कुछ ही राज्यों ने किया है. लेकिन मूल्य निर्धारण के बावजूद मुनाफाखोरी हो रही है. हालांकि इस मुनाफाखोरी में थोड़ी कमी जरूर आई है.” जैन ने कहा कि सरकारी कर्मचारियों को निजी अस्पताल में भर्ती होने देने की अनुमति देना और उनके खर्च को वहन करने से सार्वजनिक व्यवस्था कमजोर हुई है.
अग्रवाल ने भारतीय स्वास्थ्य उपचार व्यवस्था को एक ऐसी व्यवस्था की तरह बताया जो नौकरशाहों, नेताओं और व्यवसायियों के आसपास चक्कर लगा रही है. “जो दिल्ली के अस्पतालों में भर्ती होना चाहते हैं उन्हें मुख्यमंत्री, गैर सरकारी संगठनों से गुहार लगानी पड़ती है और विज्ञापन देकर धन जुटाना पड़ता है.”
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