उत्तर प्रदेश में 15 से 29 अप्रैल के बीच चार चरणों में स्थानीय निकाय चुनाव संपन्न हुए. इन चुनावों के साथ ही ग्राम पंचायत, ग्राम समिति और जिला परिषद के चुनाव भी कराए गए. राज्य भर में 58194 ग्राम पंचायतों के चुनाव हुए जिनके तहत 97941 गांव आते हैं. उन दिनों कोरोना की भयंकर दूसरी लहर चल रही थी और राज्य सरकार के शिक्षक और गैर-शिक्षक स्टाफ को चुनाव ड्यूटी में लगाया गया. शिक्षकों की एक यूनियन के अनुसार, अल्प समय में प्राथमिक स्कूलों के 1600 से अधिक स्टाफ सदस्य मारे गए हैं. इसके अलावा माध्यमिक स्कूल के स्टाफ और राज्य कर्मचारी भी कोविड के शिकार बने हैं. मैंने कोविड-19 के शिकार हुए शिक्षकों के परिवार वालों से बात की. 45 साल के विजय प्रताप सिंह, जो बलिया जिले में शिक्षा मित्र थे, चुनाव ड्यूटी करने के बाद कोविड-19 से मरे. इसी तरह बलिया के एक प्राथमिक स्कूल के शिक्षक शंभू नाथ भी चुनाव ड्यूटी करने के बाद गुजर गए. वाराणसी के मटुका गांव की सहायक शिक्षिका सुनीता देवी की 22 अप्रैल को मौत हो गई. इसी प्रकार गोरखपुर की सहायक शिक्षिका अंजुम फातिमा की, जिन्होंने 15 अप्रैल को चुनाव ड्यूटी की थी, चुनाव ड्यूटी के 10 दिन बाद मौत हो गई. उत्तर प्रदेश प्राथमिक शिक्षक संघ ने 28 अप्रैल को चुनाव ड्यूटी या ड्यूटी के बाद मारे गए 706 स्कूल स्टाफ की एक सूची जारी की थी. 16 मई को संघ ने अपनी सूची में सुधार किया और मारे गए लोगों की संख्या 1621 दर्ज की. सबसे अधिक मौतें आजमगढ़ जिले में हुई है जहां मौत का आंकड़ा 68 रहा. रायबरेली में 53, गोरखपुर में 50, लखीमपुर खीरी में 45, प्रयागराज में 46 और जौनपुर में 13 लोग मारे गए. उत्तर प्रदेश में 75 जिले है जिनमें से 23 जिलों में चुनाव से संबंधित 25 से ज्यादा लोगों की जान गई है.
टीईटी प्राथमिक शिक्षा संघ के उपाध्यक्ष प्रफुल्ल राय का कहना है कि उनके इलाके में अधिकांश लोग 9 और 14 अप्रैल के बीच हुई चुनाव ट्रेनिंग में संक्रमित हुए थे. उन्होंने बताया, “हमारे ट्रेनिंग सेंटर में स्थिति एकदम खराब थी. वहां सैकड़ों लोग थे और वह ऐसा वक्त था जब मामले बढ़ रहे थे. एक कमरे में 300 से 400 लोग रह रहे थे तो सामाजिक दूरी का पालन कैसे हो सकता था?” राय ने बताया कि सरकार ने आश्वासन दिया था कि शिक्षकों को सुरक्षा उपकरण दिए जाएंगे और यह सुनिश्चित किया जाएगा कि चुनाव कार्य में कोविड-19 से संबंधित प्रोटोकॉल का पालन हो लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
प्रयागराज के एक शिक्षक ने नाम न छापने की शर्त पर मुझसे बात की और बताया कि चुनाव पूर्व तैयारी से लेकर मतगणना तक की ड्यूटी करना दुस्वप्न जैसा था. “मैं हर दिन डर-डर के जिया. यूपी में जिस कदर मामले बढ़ रहे थे मेरी बीवी को भी मेरे बारे में चिंता हो रही थी.” उन्होंने आगे बताया, “मैं अपनी नौकरी नहीं खोना चाहता था.” और इसलिए उन्होंने चुनाव ड्यूटी जारी रखी. उन्होंने बताया कि काउंटिंग के बाद वह दवा की दुकान गए और वहां से कोरोना की दवा लेने के बाद 15 दिनों के लिए अपने आप को आइसोलेट कर लिया.
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि शिक्षकों के संगठन के अनुसार 1621 शैक्षिक स्टाफ की कोविड-19 से मौत हुई है फिर भी आधिकारिक तौर पर यह आंकड़ा बहुत कम है. उत्तर प्रदेश के प्राथमिक शिक्षा विभाग ने 18 मई को एक प्रेस वक्तव्य जारी कर बताया है कि चुनाव ड्यूटी में कोविड-19 से केवल तीन लोगों की मौत हुई है. 19 मई को राज्य के शिक्षा मंत्री ने भी प्रेस बयान जारी कर यही आंकड़ा पेश किया था.
शिक्षकों ने कहा है कि आंकड़ों का यह अंतर राज्य के दिशानिर्देशों में झोलझाल के कारण है. मिसाल के लिए, केवल उसे ही ड्यूटी में मृत माना जाता है जो कार्यस्थल में मरता है, अथवा कार्यस्थल आते या लौटते समय मरता है. इस दिशानिर्देश के चलते उन मौतों को ड्यूटी में नहीं माना जाता जो संक्रमण होने के एक हफ्ते बाद या एक महीने बाद होती हैं. प्राथमिक शिक्षा विभाग की ओर से उपरोक्त प्रेस रिलीज जारी किए जाने से पहले जो आधिकारिक पत्राचार हुआ था उसको देखने से पता चलता है कि सरकारी अधिकारियों को भली-भांति पता था कि कोविड-19 से अधिक शिक्षकों की मौत हुई है. गाजीपुर के बुनियादी शिक्षा विभाग के एक अधिकारी ने बुनियाद शिक्षा विभाग प्रयागराज के सचिव को पत्र लिखकर बताया था कि गाजीपुर जिले में 26 स्कूल स्टाफ की मौत कोविड-19 से हुई है. मई के पहले सप्ताह में बलिया जिला प्रशासन ने कोविड-19 से 27 मौतों की सूची जारी की थी. हालांकि दोनों ने यह नहीं कहा कि ये मौतें चुनाव ड्यूटी के दौरान हुई थीं.
दिल्ली के गुरु तेग बहादुर अस्पताल और मेडिकल कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर कुलदीप कुमार ने मुझे बताया की कोविड की मौत का कोई निश्चित समय नहीं होता. कोई व्यक्ति कोविड से उत्पन्न जटिलताओं से छह महीने बाद भी मर सकता है. 19 मई को उत्तर प्रदेश विधानसभा परिषद के सदस्य सुरेश कुमार त्रिपाठी ने मुख्यमंत्री अजय सिंह बिष्ट (योगी आदित्यनाथ) को खत लिख कर कहा था कि चुनाव ड्यूटी में माध्यमिक शिक्षा विभाग के शैक्षिक और गैर शैक्षिक स्टाफ के 425 लोगों की मौत हुई है. त्रिपाठी ने यह अनुमान विभिन्न शैक्षिक संगठनों की रिपोर्ट के आधार पर लगाया था. उन्होंने अपने पत्र में लिखा था कि ये 425 मौतें उन 1621 मौतों से अलग हैं जिनकी सूची प्राथमिक शिक्षा संघ ने तैयार की है. राज्य कर्मचारियों के संयुक्त परिषद के अध्यक्ष हरि किशोर ने आदित्यनाथ को 23 मई को खत लिख कर बताया था कि परिषद को रिपोर्ट मिली है कि चुनाव ड्यूटी करने वाले 518 स्टाफ सदस्यों की मौत हुई है. उन्होंने यह भी कहा कि यह आंकड़ा 1000 भी हो सकता है. जब मीडिया ने सरकार के आंकड़ों पर सवाल खड़े किए तो मुख्यमंत्री ने शिक्षा विभाग और निर्वाचन आयोग को कोविड-19 महामारी के मद्देनजर गाइडलाइन तैयार करने के निर्देश दिए.
त्रिपाठी ने मुझसे कहा कि उन्हें लगता है कि राज्य भर में चुनाव ड्यूटी करते हुए 3000 लोगों की मौत हुई है. उन्होंने कहा, “सरकार ने कहा है कि वह दिशानिर्देश पर पुनर्विचार करेगी लेकिन यह एक औपचारिकता मात्र है. हम लोग सभी पीड़ितों के लिए न्याय और इस मामले में एक ठोस निर्णय चाहते हैं और यदि उन लोगों ने तत्काल कोई पहल नहीं की तो हम इस मामले को और आक्रामकता से उठाएंगे. एक एमएलसी होने के नाते इस मामले को विधानसभा में भी उठाऊंगा.” प्राथमिक शिक्षा संघ ने राज्य सरकार से मांग की है कि वह मारे गए लोगों के लिए एक करोड़ रुपए का मुआवजा और परिवार के एक सदस्य को नौकरी दे. इसी प्रकार राज्य कर्मचारी संयुक्त परिषद ने एक करोड़ रुपए मुआवजे की मांग की है.
स्कूल कर्मचारियों की मौत के लिए कई कारण जिम्मेदार हैं. पहला कारण यह है कि चुनाव ऐसी अवस्था में हुए जब कोविड-19 की दूसरी लहर चरम पर थी. दूसरा कारण है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव से पहले चुनाव कर्मचारियों के टीकाकरण के लिए बहुत कम प्रयास किए गए जबकि इसी दौरान पांच अन्य राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे थे. तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल, असम और पुडुचेरी में चुनाव से पहले निर्वाचन आयोग ने प्रावधान किया था कि चुनाव ड्यूटी में लगाए जाने वाले लोगों का टीकाकरण हो. लेकिन उत्तर प्रदेश राज्य निर्वाचन आयोग, जो पंचायत चुनाव के लिए जिम्मेदार है, ने ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया. विधानसभा सदस्य त्रिपाठी ने बताया कि पंचायत चुनावों के लिए ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया. वहीं कर्मचारी परिषद के अध्यक्ष तिवारी ने मुझसे कहा कि विभिन्न संगठनों ने सरकार से मांग की थी कि चुनाव कर्मियों का चुनाव से पहले टीकाकरण कराया जाए लेकिन उनकी मांगों को गंभीरता से नहीं लिया गया.
तीसरा कारण था की त्रि-स्तरीय स्थानीय निकाय चुनावों को एक साथ कराया गया. राय ने कहा कि सरकार को चाहिए था कि वह चुनावों को तीन या चार महीनों के लिए टाल देती. लेकिन इस बार तीनों स्तर के चुनाव एक साथ कराए गए जिसके चलते भारी भीड़ मतदान केंद्रों में पहुंची और संक्रमण का शिकार हुई. फिर ऐसे चुनावनों की ड्यूटी के लिए अधिक टीचरों की आवश्यकता थी और इसलिए वे ज्यादा प्रभावित हुए.
संत कबीर नगर जिले के ग्राम प्रधान उम्मीदवार अभय त्रिपाठी ने कहा कि जिस प्रकार उनके ब्लॉक में कोविड-19 प्रोटोकॉल का उल्लंघन हो रहा था उसने उन्हें सकते में डाल दिया था. उन्होंने बताया, “वहां मतगणना के लिए 51 टेबुल थीं. हर टेबुल में 50 से 60 लोगों की भीड़ थी और दो टेबुलों के बीच की दूरी पांच फीट के करीब थी.” त्रिपाठी ने बताया कि दिशानिर्देश के अनुसार, बस वे मतदान अधिकारी मौजूद रह सकते थे जिनका कोविड-19 टेस्ट नेगेटिव आया हो लेकिन इसे बदल कर वहां घुसने के लिए थर्मल स्कैन को ही पर्याप्त बना दिया गया. अमित ने बताया कि थर्मल स्कैन भी ठीक से नहीं किया जा रहा था और केंद्र में दो हजार के करीब लोग मौजूद थे. इन लोगों को नियंत्रण करना मुश्किल था और सभी कोविड-19 प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ गईं.
जब उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव होने को थे तभी देशभर में इस बात की सुगबुगाहट थी कि प्रमुख शहरों में लॉकडाउन लगाया जा सकता है. उत्तर प्रदेश के लोग जो इन शहरों में रोजगार करते हैं, वे लॉकडाउन के डर से शहर से गांव वापस आने लगे. इसके अलावा पंचायत चुनाव में खड़े उम्मीदवारों ने भी लोगों को खर्चा देकर वोट डालने के लिए गांव बुलाया. बलिया के एक गांव के प्रधान ने मुझसे कहा, “मैंने दिल्ली, कोलकाता, मुंबई और अन्य इलाकों से गांव के लोगों को बुलाने के लिए 250 टिकट खरीदे थे. इनमें से कुछ लोग मेरे रिश्तेदार थे और कुछ लोग मेरी ग्राम पंचायत के ऐसे गरीब थे जो खर्च नहीं उठा सकते थे.”
बदायूं जिले के उमेंदर सिंह दिल्ली में रिक्शा चालक हैं. उन्होंने मुझे बताया कि जब लॉकडाउन की घोषणा हुई तो लोग घर जाने के बारे में सोचने लगे और जब लॉकडाउन की अवधि को बढ़ा दिया गया तो वे घर जाने के लिए परेशान हो गए. उन्होंने बताया, “गांव के ऐसे 30 लोग थे जिनको प्रधान ने गांव आने के लिए कहा था और उन्होंने ही हमारे बस का किराया दिया था. उस वक्त हमारे प्रधान दिल्ली में ही थे और हमारे गांव लौटने का प्रबंध कर रहे थे.” सिंह ने बताया कि गांव में यह पुराना चलन है कि चुनाव के समय स्थानीय नेता प्रवासियों को गांव आने और कुछ अन्य जरूरतों के लिए पैसा देते हैं.
दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में कम्यूनिटी मेडिसिन विभाग के प्रमुख जुगल किशोर मानते हैं कि प्रवासियों के गांव लौटने से कोरोना फैला होगा. उन्होंने कहा, “दिल्ली, मुंबई, गाजियाबाद और फरीदाबाद जैसे इलाकों से ऐसे प्रवासी गांव लौटे होंगे जिनमें संक्रमण रहा होगा.” कारवां में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में लौट रहे प्रवासी लोगों का टेस्ट नहीं कराने से कोविड-19 के मामले में बढ़ोतरी हुई. अप्रैल में जो लोग गांव लौट रहे थे उनका न तो टेस्ट करवाया गया और न ही उन्हें क्वारंटीन किया गया. गुरु तेग बहादुर अस्पताल के असिस्टेंट प्रोफेसर कुमार के अनुसार, जो लोग अपने गांव लौट रहे थे उन लोगों ने अपनी जांच नहीं कराई क्योंकि उन्हें डर था कि उन्हें आइसोलेट कर दिया जाएगा. कुमार ने जिन लोगों का उपचार किया उनमें उत्तर प्रदेश के शिक्षक भी थे. उन्होंने कहा, “उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा राजस्थान और उत्तराखंड जैसे राज्यों में एसिमटोमेटिक मरीजों की जांच का कोई प्रबंध नहीं था जिससे वायरस फैला.”
मध्य अप्रैल तक उत्तर प्रदेश में कोविड मामलों में इस तरह कदर बढ़ोतरी हुई की राज्य की क्षमता से बाहर चली गई. टेस्टिंग, दवाइयां, अस्पताल में बेड और ऑक्सीजन की कमी राज्य भर में नोट की गई. वाराणसी के एक वरिष्ठ पत्रकार सुरेश प्रताप सिंह ने मुझे बताया, “उत्तर प्रदेश में पूरी व्यवस्था चौपट हो गई और सरकार जिस तरह के दावे कर रही थी वे सब झूठे थे. अस्पतालों ने मरीजों से कहा कि वे अपना बेड खुद लेकर आएं. मरीजों को ऑक्सीजन भी लाने के लिए कहा गया.” कारवां में प्रकाशित रिपोर्टों में बताया गया है कि कैसे श्मशान और कब्रिस्तान में लाइन लगी हुई थी और गंगा में लाशें बह रही थी. कई बार तो लोगों ने अपनों की लाशों को नदी के किनारे यूं ही दफना दिया.
शिक्षकों सहित ढेरों मौतों को कोविड-19 मौतों में नहीं गिना गया. राय ने मुझे बताया, “ऐसे कई मामले देखे गए हैं जिनमें शिक्षकों का टेस्ट शुरुआत में नेगेटिव आया लेकिन जब उनकी मौत हुई तो पता चला कि वे कोविड पॉजिटिव थे. कई मामलों में कोविड-19 जैसे लक्षण मृत्यु के कारण थे लेकिन क्योंकि जांच नहीं हुई तो इसकी पुष्टि नहीं हो सकी. मुझे भी खांसी, बुखार और सर्दी थी और मेरा पूरा परिवार ही बीमार था. हम लोग सब ठीक हो गए लेकिन हम लोगों ने जांच नहीं कराई क्योंकि हमें डर लग रहा था कि कुछ अंकुश लग जाएंगे और अस्पताल भी ठीक से इलाज नहीं कर पा रहे हैं.”
31 मई को राज्य के मंत्रिमंडल ने शिक्षक सहित सरकारी कर्मचारियों के लिए जिनकी मौत चुनाव ड्यूटी करने के 30 दिनों में हुई थी उनके परिवार वालों को 30 लाख रूपए के मुआवजे की घोषणा. 1 जून को अतिरिक्त प्रमुख सचिव ने जिला मजिस्ट्रेटों और पंचायत राज अधिकारियों को लिखा कि वे मौत की सूचना 30 दिन के क्राइटेरिया के अनुसार उपलब्ध कराएं. उत्तर प्रदेश शिक्षक संघ की मांग है कि मुआवजे को बढ़ाकर एक करोड़ रुपए किया जाए. उत्तर प्रदेश प्राथमिक शिक्षक संघ के अध्यक्ष दिनेश चंद्र शर्मा ने मुझसे कहा, “हम लोग जोरदार रूप से इस बात की मांग कर रहे हैं कि मुआवजे को एक करोड़ रुपए किया जाए और 30 दिन वाले क्राइटेरिया पर पुनर्विचार किया जाए और 30 दिन के बाद हुई मौतों को भी मुआवजे का हकदार माना जाए.” छविनाथ मौर्य की मौत 20 मई को हुई थी जो 15 अप्रैल को उनकी चुनाव ड्यूटी की अवधि से 30 दिन से अधिक की अवधि है. मौर्य भदोही जिले में प्राथमिक स्कूल के प्रिंसिपल थे. उनकी बेटी ने मुझे बताया कि उन्होंने 30 दिन की अवधि के क्राइटेरिया के बारे में प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को ट्वीट किया है. उन्होंने बताया, “मैंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को पांच बार और प्रधानमंत्री को तीन बार ट्वीट किया है. मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे 30 दिन की अवधि के क्राइटेरिया पर संशोधन करें क्योंकि मेरे पिता की मौत 30 दिनों के बाद हुई थी लेकिन क्राइटेरिया नहीं बदला गया.”